Monday 31 July 2017

कश्मीर : ये मुहिम अंजाम तक पहुंचे

बीते कुछ दिनों में जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती के कई सार्वजनिक बयान ऐसे आए जिनसे लगा मानो उनके और केन्द्र सरकार के बीच तनातनी शुरू हो गई हो। धारा 370 के तहत राज्य की विशेष स्थिति को खत्म करने संबंधी अदालती याचिका को संदर्भ बनाते हुए दिल्ली के एक आयोजन में मेहबूबा बोल गईं कि यदि कश्मीर की विशेष स्थिति को छेड़ा गया तो घाटी में भारत का तिरंगा उठाने वाला नहीं मिलेगा। यद्यपि अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने ये भी कहा कि उनकी पार्टी सहित कुछ लोग जोखिम उठाकर भी राष्ट्रध्वज फहराने का दुस्साहस कर रहे हैँ। उनके इस बयान पर प्रतिक्रियाएं आ ही रही थीं कि श्रीनगर में अपनी पार्टी पीडीपी के स्थापना दिवस पर आये कार्यकर्ताओं के सामने मेहबूबा ने एनआईए (राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी) द्वारा सड़क मार्ग से पाकिस्तान के साथ होने वाले व्यापार को रोकने की सलाह का विरोध करते हुए कहा कि उनकी सरकार इसकी अनुमति नहीं देगी। वे ये भी बोल गईं कि गिरफ्तारी और नजरबंदी जैसे कदमों से किसी  विचारधारा को दबाया नहीं जा सकता। इस बयान का सीधा-सीधा आशय अनेक हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं की गिरफ्तारी तथा बाकी की नजरबंदी का विरोध करना था। पाकिस्तान से आर्थिक सहायता प्राप्त कर कश्मीर घाटी में अलगाववाद को हवा देने के दस्तावेजी प्रमाण मिलने के बाद एनआईए ने बीते कुछ दिनों में जिस प्रकार की ताबड़तोड़ कार्रवाई की उससे ये अनुमान लगाया जाने लगा है कि तीन साल की सुस्ती के बाद अब केन्द्र सरकार हरकत में आ गई है। एक तरफ तो सुरक्षा बलों की छूट दे दी गई है जिसके बाद से वह आतंकवादियों को ढूंढ़-ढूंढ़कर मार रही है वहीं  सघन तलाशी अभियान के जरिये उन लोगों की पकड़-धकड़ हो रही है जो आतंकवादियों को पनाह देते थे। पत्थरबाजी करने वालों की भी पहिचान कर उनके विरुद्ध भी कड़े दंडात्मक कदम उठाने की खबरें मिल रही हैं। गत दिवस जम्मू में एक हिन्दू व्यक्ति को एनआईए ने गिरफ्तार कर लिया जिसे सैयद अली शाह गिलानी का खासमखास बताया जा रहा है। इन कार्रवाईयों से मेहबूबा का परेशान हो जाना स्वाभाविक है क्योंकि भाजपा के साथ सरकार बनाने के फैसले का नुकसान उन्हें अब समझ में आया। यद्यपि शुरू-शुरू में तो भाजपा को भी ये लगा कि उसने गलती कर दी लेकिन अब जाकर ये लग रहा है कि राज्य सरकार का हिस्सा बनने से पार्टी को शासन-प्रशासन की जो अंदरूनी जानकारी मिल गई उसकी वजह से केन्द्र सरकार और सुरक्षा बलों को आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेडऩे की दिशा में काफी सहूलियत मिल रही हैं। कुल मिलाकर चिंताजनक माहौल के बीच कश्मीर घाटी से आ रही खबरों से देश में काफी उम्मीदें बंध रही हैं। एनआईए ने हुर्रियत नेताओं की गर्दन पर जिस तेजी से शिकंजा कसा है उससे अलगाववाद एवं आतंकवाद दोनों पर नियंत्रण किया जा सकता है। समय आ गया है जब कश्मीर को लेकर अनिश्चितता का माहौल पूरी तरह खत्म हो। विपक्षी दलों को भी चाहिए कि वे मौजूदा माहौल में केन्द्र सरकार के साथ खड़े हों क्योंकि कश्मीर मसले पर दलगत राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचना राष्ट्रहित में जरूरी है।

-रवींद्र वाजपेयी

चीनी सामान के आयात पर भारी करारोपण हो

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गत दिवस रेडियो पर मन की बात के दौरान स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का जो आह्वान किया उसमें भले ही चीन का नाम नहीं लिया गया हो परन्तु थोड़ी सी भी राजनीतिक समझ रखने वाला ये जानता है कि सीमा पर चीन द्वारा युद्ध के हालात पैदा किये जाने के बाद उत्पन्न तनाव के संदर्भ में श्री मोदी ने जानबूझकर ये दाँव चला है। त्यौहारों पर स्वदेशी अपनाने के आग्रह का उद्देश्य सीधे-सीधे चीनी सामान की खपत रोकने पर केन्द्रित है। जिस तरह उन्होंने देश में निर्मित मिट्टी की मूर्तियों तथा दियों का उपयोग करने का निवेदन करते हुए कहा कि इससे भारतीय श्रमिकों को रोजगार हासिल होगा उससे स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार अब सीमा पर सेना तैनात करने के बाद आर्थिक मोर्चे पर भी चीन से दो-दो हाथ करने की नीति पर बढ़ रही है। रास्वसंघ बीते दिनों स्वदेशी आंदोलन को तेज करने की शुरुवात कर ही चुका था। ये पहली मर्तबा है जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए स्वदेशी अपनाने पर जोर दिया है। यद्यपि  इसकी अपेक्षा आम जनता लंबे समय से करती आ रही थी। विश्व व्यापार संगठन से जुड़ जाने के बाद किसी भी देश से आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता लेकिन तरह-तरह के कर (एंटी डंपिंग ड्यूटी, कस्टम) लगाकर उन्हें स्वदेश में निर्मित वस्तुओं की तुलना में महंगा अवश्य किया जा सकता है। ये सर्वविदित है कि चीन ने सस्ती कीमत का सामान भारत के बाजारों में जिस तरह झोंका उससे भारतीय उद्योगों की कमर टूट गई। दो-चार चीजें होतीं तब भी ठीक रहता परन्तु सुई से लेकर खिलौने, फर्नीचर, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और भगवान की मूर्तियां तक वहां से आकर भारत में बिकने लगीं। हालत यहां तक हो गई कि जिन मल्टी नेशनल कंपनियों की चीजें जापान, जर्मनी अथवा अमेरिका से आयात होती थीं वे भी चीन में कारखाने लगाकर बैठ गईं। इसकी वजह से भारत के बाजारों पर चीन ने चौतरफा कब्जा जमा लिया। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद अपेक्षा की जा रही थी कि रास्वसंघ से प्रभावित प्रधानमंत्री चीनी सामान के अंधाधुंध आयात को रोकने की दिशा में प्रयास करेंगे परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जब चीन ने सिक्किम-भूटान सीमा पर सेना अड़ा दी तब जाकर ये ख्याल आया कि घरेलू मोर्चे पर भी चीन पर दबाव बनाने के प्रयास किये जावें। हॉलांकि प्रधानमंत्री ने खुलकर अब भी चीन के खिलाफ नहीं बोला परन्तु उनके संकेत को भी देश ने समझ लिया है। यदि दीपावली सीजन के दौरान चीनी सामान की बिक्री 25 प्रतिशत भी कम की जा सकी तब चीन सरकार पर अतिरिक्त दबाव बनाना संभव हो जाएगा। इसके लिये अभी से प्रयास करने होंगे जिससे व्यापारी त्यौहारों के मद्देनजर अपने ऑर्डर बुक न करे। एक बार यदि चीनी सामान आयात हो गया तब फिर व्यापारी के लिये भी घाटे से बचने हेतु उसे बेचने की बाध्यता हो जाती है। बताने की जरूरत नहीं है कि दीपावली पर उपयोग होने वाली आतिशबाजी से ही चीन को अरबों रुपये की आय हो जाती है। प्रधानमंत्री ने सांकेतिक भाषा में जो कहा उससे समाज का जिम्मेदार तबका तो जरूर प्रभावित होगा किन्तु अशिक्षित और आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों को सस्ता चीनी सामान छोड़कर अपेक्षाकृत महंगी स्वदेशी चीजें खरीदने हेतु प्रेरित करने में काफी वक्त लगेगा लेकिन इसके लिये जरूरी है कि केन्द्र सरकार कूटनीतिक पहलुओं पर विचार करने के उपरांत चीन से आयात होने वाले छोटे-बड़े सभी सामान पर भारी कारोपण करते हुए उसे महंगा बना दे। इस उपाय से विश्व व्यापार संगठन की शर्तों का भी उल्लंघन नहीं होगा और चीन की हिचकोले खाती अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त धक्का भी दिया जा सकेगा। चीन की सरकार डोकलाम मुद्दे पर जिस तरह का अडिय़ल तथा आक्रामक रवैया प्रदर्शित कर रही है उसे देखते हुए भारत को भी अब उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ेगी। भारत में भ्रष्टाचार तथा निजी स्वार्थ कितने भी हावी हों परन्तु जब देश की सुरक्षा और सम्मान का सवाल उठता है तब लोग पूरी तरह भावुक और राष्ट्रभक्त हो जाते हैं। प्रधानमंत्री को तत्काल पहल करना चाहिए। चीनी सामान के बहिष्कार के पक्ष में पूरा देश उनके  साथ खड़ा नजर आयेगा।

Saturday 29 July 2017

अस्थिरता और पाकिस्तान समानार्थी हैं


अस्थिरता और पाकिस्तान एक दूसरे के समानार्थी हैं। 14 अगस्त 1947 को विश्व मानचित्र पर एक नये राष्ट्र के रूप में इसका जन्म हुआ था लेकिन नफरत और हिंसा की जिस बुनियाद परं भारत को तोड़ मुस्लिमों के लिये एक पृथक मुल्क अंग्रेजों ने बनाया वे ही उसकी तासीर बन गईं। 70 साल होने आए परन्तु एक भी शासक अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना  तो खैर अपनी मौत मर गए परन्तु बाद में सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को या तो हटा दिया गया या मार दिया गया। कभी फौज ने बगावत कर दी तो कभी कोई और वजह बनी जिसके कारण लियाकत अली से लेकर नवाज शरीफ तक कोई भी सत्ताधारी इस मुल्क को स्थायित्व व शांति नहीं दे सका। लंबे समय तक तो इस्लाम के नाम पर बना ये देश प्रजातंत्र से वंचित रहा। फौजी जनरलों ने तख्ता पलट के जरिये मुल्क की बागडोर संभाली लेकिन ये भी देखने में आया कि लौट-फिरकर प्रजातंत्र वहां आता रहा। हॉलाकि बीते कुछ सालों से पाकिस्तान में मतदान द्वारा चुनी जा रही सरकारों का दौर चला आ रहा है किन्तु ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि फौज अब भी समानांतर सत्ता के तौर पर अपना दबदबा बनाए रखती है। तीसरा शक्ति केन्द्र बन गए हैं वे आतंकवादी संगठन जो वहां की फौज और सरकार ने बनाए तो भारत को परेशान करने के लिये थे किन्तु अब वे खुद पाकिस्तान के लिये भी बड़ी समस्या बन गए हैं। बावजूद इसके ये कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में प्रजातंत्र मजबूत हो रहा था तथा नवाज शरीफ काफी हद तक राजनीतिक स्थिरता बना पा रहे थे। फौज द्वारा बगावत के अंदेशे के बीच वे चुनी हुई सरकार का राज कायम रखने में सफल रहे। यद्यपि इसके लिये उन्हें तरह-तरह के समझौते भी करने पड़े किन्तु गत दिवस पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले ने इस मुल्क की तकदीर का एक नया अध्याय लिख दिया। शरीफ को पनामा लीक्स से प्राप्त जानकारी के मुताबिक भ्रष्टाचार का दोषी मानते हुए न सिर्फ पद से हटा दिया गया वरन् ताउम्र्र चुनाव नहीं लडऩे की पाबंदी भी लगा दी। उनकी बेटी तथा दामाद वगैरह भी अदालती फैसले के लपेटे में आ गए हैं। जिस दबंगी तथा तत्परता से शरीफ परिवार पर लगे आरोपों पर वहां सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया उसकी वजह से पाकिस्तान में प्रजातंत्र की ताकत का एहसास हुआ वरना वहां न्यायपालिका इस हद तक कभी स्वतंत्र और शक्तिशाली नहीं हो सकती थी। पनामा लीक्स की चर्चा भारत में भी हुई थी। कई उद्योगपति, अभिनेता तथा ज्ञात-अज्ञात हस्तियों पर विदेशों में काला धन छिपाकर रखने का आरोप भी लगा परन्तु अभी तक बात जांच से आगे नहीं बढ़ सकी जबकि पाकिस्तान इस मामले में तो हमसे आगे निकल गया। अदालती फैसले के तत्काल बाद उसके वहां की सियासत पर पडऩे वाले प्रभाव को लेकर चर्चा शुरू हो गई। फौजी हस्तक्षेप की अटकलों के दौरान ही ये खबर भी आ गई कि नवाज के भाई तथा पंजाब-प्रान्त के मुख्यमंत्री शाहबाज शरीफ उनकी जगह लेंगे। अगले साल वहां आम चुनाव होने हैं लेकिन अचानक बदले इस घटनाक्रम ने भारत में भी हलचल मचा दी है क्योंकि दोनों देशों के रिश्तों में व्याप्त जबर्दस्त तनाव के बावजूद भी नवाज वे व्यक्ति रहे जिनसे संवाद की स्थिति बन सकती थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पदभार ग्रहण करते ही उनके साथ नजदीकी बढ़ाने का प्रयास किया था। यहां तक कि वे बिना बुलाए ही उनके घर लाहौर भी जा पहुंचे जिसको लेकर उन्हें काफी आलोचना भी झेलनी पड़ी परन्तु इन कोशिशों का धेले भर भी लाभ हुआ हो ये कहना कठिन है। सीमा पर तो युद्ध न होते हुए भी युद्ध जैसी परिस्थितियां हैं ही इधर कश्मीर घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के कारण भी दोनों देशों में तनाव चरम पर बना रहा। शरीफ का उत्तराधिकारी चाहे उनका भाई बने या पार्टी का अन्य कोई नेता, उससे भारत के साथ रिश्ते सुधरने की उम्मीद करना बेमानी होगा। उल्टे ये खतरा महसूस किया जाने लगा है कि केन्द्रीय सत्ता के कमजोर हो जाने तथा राजनीतिक अस्थिरता के कारण फौज और स्वछंद हो सकती है जिसके चलते आतंकवादी संगठनों की हरकतें बढऩा स्वाभाविक होगा। पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति पर नजर डालें तो वहां भी बड़ी उठापटक हो सकती है। पृथक बलूचिस्तान और सिंध की मांग गरमाने के साथ ही नवाज शरीफ की पार्टी में उनके परिवारवाद के विरुद्ध भी आवाजें उठने का अंदेशा है। चूंकि नवाज और उनकी संभावित उत्तराधिकारी के तौर पर उभर रही बेटी मरियम भी अदालती फैसले के लपेटे में आ गई हैं इसलिये भले ही फिलहाल नवाज अपने भाई को गद्दी पर बैठा सकें परन्तु ये तदर्थ व्यवस्था कितनी स्थायी हो सकेगी कहना मुश्किल है। अचानक हुए इस बदलाव के दूरगामी परिणाम पाकिस्तान की आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति पर क्या होंगे इसका आकलन करने के लिये अभी प्रतीक्षा करनी होगी किन्तु जहां तक भारत का प्रश्न है तो उसके लिये ज्यादा न सही किन्तु थोड़ी चिन्ता के कारण तो बन ही गये हैं। उस दृष्टि से भारत को पाकिस्तान में बदलने सत्ता समीकरणों पर पैनी नजर रखनी पड़ेगी।

Friday 28 July 2017

धोखा देना चीन का चरित्र है


विपक्ष में रहते हुए एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कि माओ की मुस्कानों और कोसीगिन की भृकुटी के वितानों से देश की विदेश नीति का निर्धारण करना उचित नहीं। गत दिवस भारत के रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की चीन यात्रा के दौरान वहां के कतिपय समाचार पत्रों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ से ये धारणा पाल लेना गलत होगा कि उनके बीजिंग जाने मात्र से डोकलाम में उत्पन्न तनाव खत्म हो जाएगा तथा चीन अपनी सेना पीछे हटा लेगा। कुछ समाचार चैनलों द्वारा ये खबर तक चला दी गई कि श्री डोभाल और चीन के रक्षा सलाहकार की बातचीत से विवाद सुलट गया है तथा चीन झुकने को राजी है। ये भी कहा गया कि राष्ट्रपति जिनपिंग से भी उनका मिलने का कार्यक्रम है। जिसके बाद अच्छी खबर मिलना तय है। यद्यपि आर्थिक संकट से जूझ रहे चीन को भी ये लग रहा है कि भारत के साथ युद्ध की स्थिति में उसके व्यापार पर काफी विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे वह हर हाल में बचना चाहेगा। बीते कुछ दिनों में भारत के भीतर चीनी सामान के बहिष्कार की जो मुहिम जोर पकडऩे लगी है उससे भी बीजिंग के हुक्मरान सतर्क हो उठे हैं परन्तु इस सबके बाद भी ये मान लेना भूल होगी कि चीन डोकलाम से चुपचाप फौज हटा लेगा तथा भूटान और सिक्किम के भूभाग पर अपना दावा छोडऩे राजी हो जाएगा। अरूणाचल को तो वह अपने नक्शे तक में दिखाता रहता है। अजीत डोभाल की चीन यात्रा ब्रिक्स देशों के रक्षा सलाहकारों की बैठक के सिलसिले में है परन्तु भारत चीन सीमा पर मौजूदा तनाव के संदर्भ में अपने समकक्ष के अलावा चीन के शीर्षस्थ नेताओं से उनकी बातचीत महज दुआ-सलाम तक सीमित नहीं रहेगी ये कहना सही है। यद्यपि गौर करने वाली बात ये है कि श्री डोभाल कूटनीतिक व्यक्ति नहीं है। बावजूद इसके बतौर रक्षा सलाहकार वे प्रधानमंत्री के अलावा रक्षा, विदेश और गृहमंत्री से सीधे और सतत संपर्क में रहने के कारण तकरीबन हर घरेलू एवं बाहरी समस्या पर देश के दृष्टिकोण से बखूबी अवगत रहते हैं। वर्तमान माहौल में भारत के किसी सरकारी नेता का चीन जाना दबाव में आ जाने का संकेत देता इसीलिये सरकार ने श्री डोभाल की यात्रा का भरपूर उपयोग करने की रणनीति बना ली। इसका क्या लाभ होगा ये जल्दबाजी में सोचने लायक विषय नहीं है लेकिन उनकी राष्ट्रपति जिनपिंग से मुलाकात तय होना भी मायने रखता है। खबर ये भी है कि डोकलाम में जरूरत से ज्यादा ऐंठने के बाद चीन भी सम्मानजनक समाधान के लिये आतुर है परन्तु इसके बाद भी ये नहीं भूलना चाहिए कि चीन और चालाकी एक दूसरे के पर्याय हैं तथा धोखा देना उसका चरित्र है।

-रवींद्र वाजपेयी

कांग्रेस पर मंडराता बिखराव का संकट


बिहार में बाजी पलटकर भाजपा ने लालू प्रसा यादव से ज्यादा झटका कांग्रेस को दिया है। महागठबंधन की पिछलग्गू बनने के कारण बिहार में पार्टी घुटनों के बल चलने लायक हो गई थी। सरकार में उसे हिस्सेदारी तो मिल गई लेकिन 20 महीने के भीतर ही उसके अच्छे दिन खत्म हो गये। बिहार में पार्टी की दयनीय स्थिति का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि सरकार गिरने और बनने के बीच के घटनाचक्र में उसकी भूमिका कहीं नजर ही नहीं आई। 2-3 दिन पहले ही नीतिश कुमार ने दिल्ली में राहुल गांधी से 40 मिनिट बात की थी किन्तु कांग्रेस उपाध्यक्ष ने बिहार संकट सुलझाने के लिये कोई ठोस प्रयास किया हो ऐसा कहीं से नहीं लगा। यही वजह है कि पार्टी के विधायकों के टूटने की अटकलें लगने-लगी हैं। बिहार का हल्ला थमा भी नहीं था कि गुजरात से तीन विधायकों के इस्तीफे की खबर आ गई। राष्ट्रपति चुनाव में क्रॉस वोटिंग के बाद नेता प्रतिपक्ष शंकरसिंह बाघेला द्वारा कांग्रेस को अलविदा कहने से उत्पन्न संकट और गहराता जा रहा है। सोनिया गांधी के निकटस्थ अहमद पटैल को राज्यसभा चुनाव में हरवाने के लिये भाजपा द्वारा की जा रही आक्रामक व्यूह रचना का मुकाबला करने का कोई भी समुचित प्रयास पार्टी कर रही हो ऐसा नहीं लग रहा। कांग्रेस छोडऩे वाले एक नेता बलवंत सिंह राजपूत को भाजपा ने राज्यसभा उम्मीदवार बनाकर श्री पटैल की जीत में रोड़ा अटकाने का काम और तेज कर दिया। खबर है मतदान होने के पहले तक कुछ और विधायक टूट जायेंगे।  गुजरात में इसी वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कारण मुख्यमंत्री पद पर आनंदी बेन पटैल को बिठाया गया था किन्तु पाटीदार आंदोलन से निपटने में असफल रहने के कारण उन्हें हटा दिया गया। विजय रूपाणी को उनकी जगह बिठाने के बाद भी भाजपा आगामी चुनाव जीतने के प्रति सशंकित हो चली थी। जब उसे लगा कि वह अपना किला मजबूत नहीं कर पा रही तब उसने प्रतिद्वंदी कांग्रेस के घर में सेंध लगाने की रणनीति बनाई जो अब तक तो सफल प्रतीत हो रही है। जिन शंकर सिंह वाघेला के कारण गुजरात में भाजपा टूटी थी उन्हें वापिस खींचकर श्री मोदी और अमित शाह ने ये बता दिया कि जंग जीतने के लिये वे कोई भी कसर नहीं छोडऩे की नीति पर चल रहे हैं। चौंकाने वाली बात ये है कि कांग्रेस इस हमले का प्रतिकार करना तो दूर रहा उससे बचने का प्रयास तक नहीं कर रही। राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता को मजबूत कर भाजपा की तगड़ी घेराबंदी की जा सकती थी किन्तु रामनाथ कोविंद के पक्ष में गैर एनडीए खेमे से हुई क्रॉस वोटिंग ने ये बता दिया कि विपक्ष में एका बनाने की कोई सुनियोजित कोशिश हुई ही नहीं। सोनिया गांधी अस्वस्थतावश उतनी सक्रियता नहीं दिखा पा रहीं और राहुल की रहस्यमय कार्यप्रणाली स्वयं कांग्रेसी नहीं समझ पा रहे। गत दिवस उन्होंने नीतिश कुमार पर धोखेबाजी का आरोप लगाते हुए कहा कि कई महीनों से वे भाजपा के साथ खिचड़ी पका रहे थे लेकिन श्री गांधी ये नहीं बता पाये कि जिस संकट की जानकारी उन्हें पहले से ही हो गई थी उसे टालने के लिये उनकी तरफ से कौन सा प्रयास हुआ। गुजरात में श्री वाघेला सरीखा वरिष्ठ नेता लंबे समय से नाराज चल रहा था परन्तु उन्हें मनाने का भी कोई यत्न नहीं हुआ। कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी इस समय बिना राजा की फौज सरीखी हो चुकी है। मोदी सरकार भले ही तीन साल पूरे कर लेने के बाद भी अपेक्षाओं पर खरी न उतर पाई हो परन्तु जब भी ये लगता है कि जनमत उसके विरुद्ध जा रहा है तब-तब भाजपा कुछ न कुछ ऐसा कर देती है जिसके कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष असहाय नजर आने लगता है। बिहार के बाद गुजरात में भी यदि भाजपा अपनी योजना में सफल हो गई तो ये कांग्रेस के लिए मात्र एक राज्यसभा सीट का नुकसान न होकर विधानसभा चुनाव के पहले ही आधी लड़ाई हार जाने जैसा होगा। ये मानने में कोई बुराई नहीं है कि कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को सफल बनाने के जुनून में मोदी-शाह सही गलत सब करने पर आमादा हैं परन्तु कांग्रेस स्वयं जिस तरह बिखराव की तरफ बढ़ रही है उससे उनका काम और आसान हो रहा है। बिहार में हुए तख्ता पलट के बाद सोशल मीडिया पर ये कहने वाले बढ़ गए हैं कि जिस तरह पुत्र प्रेम  मुलायम सिंह और लालू यादव को ले डूबा वही स्थिति राहुल के फेर में कांग्रेस की भी होती जा रही है। पता नहीं कांग्रेस के बाकी शीर्ष नेता दरबारी संस्कृति से निकलकर पार्टी के भले और भविष्य के बारे में कब सोचेंगे। कभी-कभी तो ये 2019 के लिये विपक्ष को एक करने के प्रयास में जुटी कांग्रेस तब तक खुद एक रह पाएगी?

-रवींद्र वाजपेयी

Thursday 27 July 2017

बिहार : न अप्रत्याशित न ही अनपेक्षित

बिहार की राजनीति का जो चरमोत्कर्ष कल शाम से रात तक दिखाई दिया वह न तो अप्रत्याशित था और न ही अनपेक्षित। जो लोग सियासत की तासीर से वाकिफ हैं वे जानते होंगे कि सत्ता की जितनी जरूरत लालू प्रसाद यादव को थी उतनी ही चाहत नीतिश के मन भी सदैव रही है। फर्क केवल इतना है कि लालू के तरीकों में फूहड़पन ज्यादा है वहीं नीतिश करीने से कोई भी काम करने में यकीन रखते हैं। यही वजह है कि सत्ता के खेल में अपने प्रतिद्वंदी को शह और मात देने में वे हमेशा सफल हो जाते हैं। जिस दौर में भाजपा सत्ता की तरफ बढ़ रही थी तब राम मंदिर का समर्थन किये बिना भी नीतिश ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ खड़े होकर समाजवादी कुनबे को ठेंगा दिखा दिया। लालू और रामविलास पासवान सरीखे ताकतवर नेताओं को बिहार की सियासत में पटकनी देने का कारनामा उन्होंने अपनी छवि और भाजपा के सहयोग से ही किया था। अटल जी के अस्वस्थ होने के बाद जब 2009 में लालकृष्ण आडवाणी रूपी दाँव भी विफल हो गया तो नीतिश की महत्वाकांक्षाएं परवान चढ़ीं और प्रधानमंत्री पद उन्हें सपने में नजर आने लगा। वाजपेयी जी की तरह साफ-सुथरी छवि, सौम्यता और सभी वर्गों में स्वीकार्यता के बल पर नीतिश सर्वोच्च राजनीतिक पद की तरफ कदम बढ़ाने लगे थे किन्तु संघ परिवार ने बीच में नरेन्द्र मोदी को उतारकर सब गुड़-गोबर कर दिया। उसके बाद के चार साल  नीतिश ने जितनी कटुता भाजपा और संघ परिवार के विरुद्ध दिखाई वह रिकॉर्ड है किन्तु ये उनका राजनीतिक कौशल ही है कि वे भाजपा की अंतरगता के काल में भी सुशासन के प्रतीक बने रहे और भ्रष्टाचार का दूसरा नाम बन चुके लालू की संगत में भी अपने दामन पर दाग लगने से बचे रहे। कल जो हुआ उसकी बुनियाद तो 20 माह पूर्व तभी रख दी गई थी जब लालू के दोनों बेटों को अपने मंत्रीमंडल में उन्हें न सिर्फ शामिल करना पड़ा वरन् तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री  तथा तेजप्रताप को महत्वपूर्ण विभाग देना पड़ गया। अपनी पार्टी के विधायक नीतिश की जद(यू) से ज्यादा होने पर भी मुख्यमंत्री पद के लिये लालू ने विवाद नहीं किया किन्तु समानांतर सत्ता केन्द्र के रूप में वे और उनका परिवार कार्यरत हो उठे जिसके कारण सुशासन का मजाक उडऩे लगा। बिहार में बहार की जगह जंगलराज का पुनरागमन होने लगा। नीतिश चिंतित तो थे किन्तु भाजपा के साथ बढ़ चुकी तल्खी के कारण पीछे लौटने का रास्ता उन्हें नहीं सूझ रहा था। बिहार में मोदी लहर को सफलतापूर्वक रोक देने के कारण उन्हें नरेन्द्र मोदी का विकल्प माना जाने लगा था। विपक्षी एकता की इमारत नये सिरे से तैयार करने की कवायद भी शुरू हो गई लेकिन नीतिश को ये सब रास नहीं आया। वजह उनकी महत्वाकांक्षा के लिये कोई गुंजाइश नहीं होना थी। यही वजह रही कि वे उ.प्र. चुनाव में निर्विकार बने रहे। लेकिन जब भाजपा ने उ.प्र., उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में झंडा गाड़ दिया तब नीतिश कुमार को ये भरोसा हो गया कि विपक्ष में इतना दमखम नहीं रह गया कि 2019 में मोदी के प्रवाह को रोका जा सके। तभी से वे बहाने ढूंढ़ रहे थे। हॉलांकि नोटबंदी का समर्थन कर उन्होंने अपना इरादा जता दिया था परन्तु उ.प्र. के परिणाम ने उनके मन की रही सही हिचक दूर कर दी। जीएसटी और राष्ट्रपति चुनाव में बिना मांगे भाजपा को साथ देकर उन्होंने लालू से छुटकारे की भूमिका बनानी शुरू कर ही दी थी। चारा घोटाले का मामला फिर शुरू होने से बदली परिस्थितियां लालू के बेटों-बेटी के अवैध आर्थिक सामाज्य के खुलासे से और बदतर हो गईं। इसके पहले कि लालू की संगत का असर उनकी छवि पर पड़ता उन्होंने पैंतरा बदलते हुए महागठबंधन में दरार उत्पन्न करने का दुस्साहस कर डाला। नीतिश समझ गये थे कि भाजपा भी बिहार की सत्ता में लौटने के लिये एक पाँव पर खड़ी हो जाएगी। इसी लिये उन्होंने भ्रष्टाचार से समझौता नहीं करने की जिद पकड़ ली। यदि लालू अपने दोनों बेटों का स्तीफा दिलवा देते तब नीतिश की छवि भी सुरक्षित रहती और गठबंधन भी लेकिन यहीं लालू गच्चा खा गये। उन्हें लग रहा था कि भाजपा पर जहर बुझे तीर चलाने के बाद नीतिश शायद ही उसके साथ दोबारा रिश्ता जोड़ेंगे लेकिन वे ये भूल गये कि मोदी-शाह की जोड़ी अपनी प्रचलित कड़क छवि के विपरीत राजनीतिक सौदेबाजी में पूरी तरह व्यवसायिक सोच रखती है जिसमें हर सूरत में फायदे की गारंटी हो। उ.प्र. में ऐतिहासिक सफलता के बाद बिहार ही वह काँटा बचा था जो प्रधानमंत्री के पाँव में चुभ रहा था। भाजपा के रणनीतिकार भी मान रहे थे कि मुलायम सिंह के पराभव तथा मायावती के निरंतर अप्रासंगिक होते जाने के बाद भी नीतिश कुमार 2019 के अश्वमेध यज्ञ में बड़ी न सही छोटी बाधा तो बन ही सकते हैं। यही कारण रहा कि श्री मोदी ने हर उपयुक्त अवसर पर नीतिश की शान में कसीदे पढऩे शुरू कर दिये जिसका जवाब भी उम्मीद के मुताबिक मिला। विपक्षी गठबंधन जब-राष्ट्रपति चुनाव की मोर्चेबंदी हेतु बैठा तब नीतिश ने उसमें जाने की बजाय प्रधानमंत्री के साथ भोजन करने को प्राथमिकता दी। ये भी कह सकते हैं कि दोनों पक्ष मनभेद भुलाकर राजनीतिक पुनर्विवाह हेतु सहमत होने लगे थे। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि लालू के परिवारजनों की अवैध कमाई और बेनामी संपत्तियों की पूरी जानकारी मय दस्तावेज नीतिश के जरिये ही सीबीआई तक पहुंची जिसके कारण वह इतनी तेजी से शिकंजा कसने में कामयाब हो गई। लालू को ये डर भी सताने लगा था कि सत्ता से हटने के बाद उनके परिवार का सुरक्षा कवच खत्म हो जाएगा तथा तेजस्वी सहित अन्य को सीबीआई सींखचों में डाल देगी। चारा घोटाले की तलवार सिर पर लटकने से वैसे भी वे परेशान थे। लेकिन उन्होंने ये नहीं सोचा था कि नीतिश इस तेजी से तख्ता पलट देंगे। कल रात के घटनाक्रम में नीतिश और भाजपा ने पहले से लिखी जा चुकी पटकथा के अनुसार ही काम किया। जब तक लालू एंड कंपनी संभल पाती तब तक तो भाजपा और जद (यू) की सरकार के शपथ ग्रहण की तैयारी कर ली गई। सुबह 11 बजे राज्यपाल से मिलकर सबसे बड़ा दल होने के नाते सरकार बनाने का अवसर मांगने की तेजस्वी की पहल रंग लाती इसके पूर्व ही 10 बजे नई सरकार की ताजपोशी हो गई। नीतिश से मिले झटके से भन्नाएं लालू ने खिसियाहट में उन्हें हत्या का आरोपी बताकर घेरने का जो प्रयास किया वह हवा में उड़कर रह गया जबकि नीतिश ने अब तक न किसी पर कोई आरोप लगाया न ही इस्तीफा मांगा। वे चाहते तो तेजस्वी को बर्खास्त कर नया मोर्चा खोल सकते थे किन्तु उन्होंने बहादुरी की बजाय होशियारी दिखाते हुए साबित कर दिया कि वे काजल की कोठरी से बिना दाग लगे निकलने की कला में कितने पारंगत हैं। 17 साल तक भाजपा के साथ रहने के बाद भी कोई उन्हें साम्प्रदायिक नहीं मानता। इसी तरह मंडलवादी कुनबे के होने पर भी नीतिश पर जातिवादी राजनीति का आरोप कभी नहीं लगा। और अब लालू के बेहद करीब रहने के बाद भी वे ईमानदारी का पुतला बने रहकर दूर निकल आए। यद्यपि नीतिश और भाजपा दोनों ने राजनीतिक अवसरवाद का सहारा खुलकर लिया है परन्तु मोदी और शाह के साथ अब नीतिश के भी जुड़ जाने से भाजपा अपराजेय होने की तरफ बढ़ रही है। शिवसेना जैसे सहयोगी भी इससे दहशत में आ गए हैं। इस नाटकबाजी में सबसे दयनीय हालत कांग्रेस की हो गई जो नीतिश कुमार की छवि से कोई लाभ उठा नहीं सकी लेकिन लालू के साथ जुड़ी तमाम बदनामियां उसे चाहे-अनचाहे ढोनी पड़ेंगी। भाजपा को बिहार के सत्ता परिवर्तन से क्या हासिल होगा ये अभी कह पाना कठिन है किन्तु उसे अछूत बनाने की एक बड़ी कोशिश जरूर विफल हो गई।
-रवीन्द्र वाजपेयी