Thursday 30 November 2017

जनेऊधारी : गनीमत है वामन अवतार नहीं कहा


राहुल गांधी के धर्म और जाति के बारे में सदैव रहस्य बना रहता है। धार्मिक आयोजनों में भी उनकी मौजूदगी शायद ही रहती हो। मन्दिर जाने वालों पर भी वे कटाक्ष करते रहे हैं। लेकिन उप्र विधानसभा चुनाव के प्रचार की शुरुवात अयोध्या की हनुमान गढ़ी  से कर राहुल ने बता दिया कि वे भी अन्य राजनेताओं की तरह से ही हैं। यद्यपि उस चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया तथा वह दहाई का आंकड़ा तक न छू सकी। चूंकि राहुल अभी भी राजनीति के प्रशिक्षु माने जाते हैं जिनकी हर गतिविधि पर्दे के पीछे बैठे पेशेवर रिंग मास्टरों द्वारा निर्देशित रहती है इसलिए वे खुद भी नहीं जानते कि वे क्या और क्यों कर रहे हैं? उनके भाषणों की विषयवस्तु भी अन्य कोई तैयार करता है। भले ही वे अपनी माँ सोनिया गांधी की तरह लिखा-लिखाया न पढ़ते हों किन्तु उनके भाषणों में स्वाभाविकता का नितांत अभाव होता है। गुजरात चुनाव की शुरुवात में वे द्वारिकाधीश के दर्शन करने गए और तबसे आये दिन वे किसी न किसी हिन्दू मन्दिर में दर्शन करने पहुंच जाते हैं जिससे कि कांग्रेस और गांधी परिवार के दामन से हिन्दू विरोधी होने का दाग मिटाया जा सके। इसी क्रम में गत दिवस श्री गांधी सोमनाथ मन्दिर भी गए। इसमें अटपटा कुछ भी नहीं था यदि वहां की उस आगंतुक पुस्तिका में उनका नाम न होता जो गैर हिंदुओं के लिये रखी गई है। उनके साथ ही कांग्रेस सांसद अहमद पटैल का नाम भी लिखा गया। ज्योंही इसकी खबर उड़ी त्योंही राहुल के धर्म को लेकर टीका-टिप्पणी शुरू हो गई। इसके बाद सोमनाथ मन्दिर का प्रवास तो एक तरफ धरा रह गया और बात जाति-धर्म पर आकर टिक गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में सरदार पटैल की भूमिका की प्रशंसा करते हुए पं. नेहरू द्वारा उसमें लगाए अड़ंगे की चर्चा उछालकर राहुल को घेरने का दांव चला वहीं भाजपा प्रवक्ता गैर हिंदुओं वाली आगन्तुक पुस्तिका में राहुल की प्रविष्टि  को लेकर आक्रामक हो उठे। इस अप्रत्याशित हमले से तिलमिलाई कांग्रेस ने राहुल को हिन्दू साबित करने की रणनीति के तहत रणदीप सुरजेवाला से बयान दिलवा दिया कि राहुल न केवल ब्राह्मण अपितु जनेऊधारी ब्राह्मण हैं। इसके लिए पिता की अंत्येष्टि के समय कुर्ते के ऊपर जनेऊ पहने उनकी फोटो भी सार्वजनिक कर दी गई। कांग्रेस ने ये कदम क्या सोचकर उठाया ये तो वही जाने किन्तु इसकी वजह से राहुल मजाक का पात्र बन गए। जात पर न पांत पर, मुहर लगेगी हाथ पर का नारा लगाने वाली पार्टी ने अपने सबसे ताकतवर नेता को हिन्दू से भी ऊपर उठते हुए जनेऊधारी ब्राह्मण बताकर क्या सिद्ध करना चाहा ये तो श्री सुरजेवाला ही बता सकते हैं किंतु इससे बजाय फायदा होने के कांग्रेस को नुकसान होने की आशंका बढ़ चली है। पता नहीं किस नासमझ ने राहुल को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने की सलाह दे डाली। और यदि श्री सुरजेवाला ने ये अपने मन से किया तो फिर उनकी राजनीतिक समझ पर भी संदेह होने लगता है। गांधी परिवार में पं. नेहरू के बाद किसी का भी विवाह कश्मीरी ब्राह्मण जाति में नहीं हुआ। उनकी दोनों बहनों ने अन्तर्जातीय विवाह किए और पुत्री इंदिरा जी ने पारसी से। इंदिरा जी के ज्येष्ठ पुत्र राजीव ने इटली की सोनिया और कनिष्ठ पुत्र संजय ने सिख लड़की मेनका से विवाह रचाया। राजीव-सोनिया की पुत्री प्रियंका का विवाह ईसाई रॉबर्ट वाड्रा से हुआ। आधुनिक विचारों वाले इस परिवार के वैवाहिक आयोजनों में धर्म-जाति कभी मुद्दा नहीं रही। लेकिन भाजपा समय-समय पर सोनिया जी और राहुल के धर्म पर  छींटाकशी किया करती है। ऐसा करने के पीछे शायद हिन्दू वोट बैंक को सुरक्षित रखने का मकसद रहा होगा। कांग्रेस को जब ये लगा कि धर्मनिरपेक्षता नामक कार्ड अब बेअसर हो चला है तो उसने भी भाजपा का हिन्दू हथियार उपयोग करने की कोशिश की किन्तु किसी भी काम में स्वाभाविकता न हो तो उसका अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता। और तो और उल्टा असर होने से नुकसान हो जाता है। राहुल को ब्राह्मण और वह भी जनेऊधारी बताने जैसी नासमझी कांग्रेस को कितनी  महंगी पड़ेगी ये तो चुनाव परिणाम ही बता सकेंगे किंतु श्री सुरजेवाला की टिप्पणी से राहुल का मज़ाक उडऩा और तेज हो गया। ब्राह्मणों द्वारा जनेऊ धारण करले के लिए बाकायदा यज्ञोपवीत संस्कार होता है। केवल जनेऊ धारण करने से कोई अपने को श्रेष्ठ ब्राह्मण बताने लगे ये अनुचित होता है। राहुल सदृश सुशिक्षित और अत्याधुनिक पारिवारिक वातावरण में पले-बढ़े व्यक्ति को अचानक जनेऊधारी ब्राह्मण प्रचारित करना अव्वल दर्जे की नादानी ही नहीं अपितु मूर्खता ही कहा जाएगा। हार्दिक पटैल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी सरीखे जातिवादी नेताओं के सामने घुटनाटेक हो चुकी कांग्रेस को अपने सर्वोच्च नेता को ऊंची जाति वाला बताना ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि पार्टी अपनी वैचारिक और सैद्धांतिक पहिचान को लेकर असमंजस और अपराधबोध से ग्रसित होने के बाद अब हड़बड़ाहट का शिकार होती जा रही है। यूँ भी लालू और अखिलेश सरीखे जातिवादी नेताओं की पिछलग्गू तो वह पहले ही बन चुकी थी। इसे भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना कहा जायेगा कि जिन नेताओं पर जातिगत भेदभाव को मिटाकर समतामूलक समाज के निर्माण का दायित्व है वे ही वोटों की मंडी में अपनी जाति बेचने में रत्ती भर भी नहीं हिचकतेे। राहुल गांधी की जाति या धर्म निजी मामला है लेकिन रणदीप सुरजेवाला ने उन्हें जनेऊधारी ब्राह्मण बताकर उनका मज़ाक उड़ाने वालों को बैठे-बिठाए एक और अवसर प्रदान कर दिया। बड़ी बात नहीं यदि श्री सुरजेवाला सरीखे चाटुकार भविष्य को राहुल को कलियुग का वामन अवतार साबित करने में जुट जाएं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 29 November 2017

शिवराज : प्रारब्ध और पुरुषार्थ का समन्वय

बतौर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का 12 वर्ष पूरे कर लेना कोई मामूली बात नहीं है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने राज्य की सत्ता संभाली थी उनमें कोई नहीं कह सकता था कि वे सर्वाधिक अवधि तक मुख्यमंत्री रहने के दिग्विजय सिंह के कीर्तिमान को तोड़ सकेंगे। चूंकि शिवराज के पास शासन-प्रशासन  का कोई अनुभव नहीं था इसलिए भाजपा में भी ये मानने वाले कम ही थे कि बतौर मुख्यमंत्री वे शासन चला सकेंगे और भविष्य की चुनावी चुनौतियों का सामना कर पाएंगे। उमा भारती की तेजस्विता और बाबूलाल गौर के सुदीर्घ अनुभव के सामने श्री चौहान का व्यक्तित्व और कृतित्व पसंगे में भी नहीं ठहरता था। भले ही वे पार्टी संगठन के छोटे-बड़े सभी पदों पर कार्य कर चुके थे किंतु विदिशा के सांसद में अलावा उनका प्रभावक्षेत्र बहुत ज्यादा नहीं था। भाजपा की राजनीति में भी वे पटवा गुट के दूसरे दर्जे के नेता माने जाते थे। उमा भारती तो अदालती प्रकरण के फेर में गद्दी गंवा बैठीं लेकिन उनकी जगह बैठे गौर साहब को भाजपा नेतृत्व ने क्यों चलता कर दिया ये रहस्य आज तक अनसुलझा है। 1974 से लगातार  विधायक बनते आ रहे बाबूलाल जी की लोकप्रियता और कार्यकुशलता असंदिग्ध रही है। जिस विभाग में वे मंत्री रहे उसमें छाप छोड़ी। विपक्ष में भी उनकी भूमिका बेहद आक्रामक रहा करती थी। लेकिन उमा भारती के जाने से राहत महसूस कर रहा पटवा खेमा गौर साहब को कभी हज़म नहीं कर पाया था। इसीलिए भाजपा हाईकमान के कान भरकर मुख्यमंत्री परिवर्तन की बिसात बिछाई गई और उमा भारती की समूची व्यूहरचना को ठेंगा दिखाते हुए शिवराज सिंह जैसे अप्रत्याशित नाम पर विधायकों की मुहर लगवाकर मप्र की राजनीति में नये युग की शुरूवात की गई। प्रारम्भ में लगा था कि दुबला-पतला वह इंसान मप्र सरीखे बड़े राज्य की बागडोर आखिऱ किस प्रकार संभाल पायेगा लेकिन उस बेहद साधारण और सीधे-सादे दिखने वाले व्यक्ति ने जो कर दिखाया वह शायद स्व.सुंदर लाल पटवा और कैलाश जोशी के लिए भी सम्भव न होता। गौर साहब भी भाजपा को अगला विधानसभा चुनाव जितवा पाते इसमें संदेह था। लेकिन पटवा जी के दरबारी होने के बावजूद शिवराज ने अपनी जो स्वतंत्र छवि जनमानस में बनाई और धीरे-धीरे पार्टी संगठन का नियंत्रण भी हथियाया उससे लोगों को लग गया कि वे लंबी रेस के घोड़े हैं। 2008 का चुनाव शिवराज सिंह के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा। कांग्रेस राज्य में जल्दी-जल्दी मुख्यमंत्री बदलने को मुद्दा बनाकर भाजपा को घेर रही थी वहीं दूसरी तरफ  उमा भारती की जनशक्ति पार्टी ने भाजपा के मतों में सेंध लगने का खतरा पैदा कर दिया। शिवराज ने अपने चुनाव तो खूब लड़े थे लेकिन प्रदेश की सत्ता में पार्टी की वापिसी जैसी चुनौती का वे पहली बार सामना कर रहे थे। बावजूद इसके अपनी प्रभावशाली भाषण शैली, जनता से सीधे संवाद स्थापित करने की कला, सरल स्वभाव और कुछ जनकल्याणकारी नीतियों के चलते उन्होंनें भाजपा को दोबारा सत्ता में लाने का जो कारनामा कर दिखाया उसने रातों-रात उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाई। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हेतु भी उनका नाम चर्चा में आया। 2008 के बाद 2013 में भी उनके नेतृत्व में भाजपा ने प्रदेश की सत्ता पर कब्जा बनाए रखा जिसके बाद ब्रांड शिवराज जैसी टिप्पणियां भी उन्हें लेकर होने लगीं। प्रदेश में लगातार होने वाले उपचुनावों में भी चन्द अपवाद छोड़कर शिवराज सिंह ने अपनी जिताऊ क्षमता साबित कर दी। जनता को सीधे लाभ पहुंचाने वाली उनकी योजनाएं न सिर्फ  प्रदेश अपितु देश भर में सराही गईं। कई गैर भाजपा शासित राज्यों ने भी उन्हें अपनाया। कृषि और उद्योग के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य करते हुए मप्र को बीमारू राज्य के कलंक से मुक्त करने में सफलता हासिल कर ली। हालांकि ये सोचना अतिशयोक्ति होगी कि शिवराज ने मप्र में रामराज की स्थापना कर दी किन्तु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि बतौर मुख्यमंत्री अब तक का उनका कार्यकाल दिग्विजय सिंह से कहीं बेहतर रहा है। बिजली-सड़क के क्षेत्र में प्रदेश सरकार की उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। जनता से सीधे सम्पर्क की उनकी क्षमता निश्चित रूप से बेजोड़ है लेकिन सत्ता में 12 वर्ष पूरे कर लेने वाले शिवराज सिंह दो मोर्चों पर कमजोर साबित हुए। नौकरशाही पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता और भ्रष्टाचार को रोकने में विफलता उनकी तमाम उपलब्धियों को चिढ़ाती नजऱ आती हैं। भले ही  व्यक्तिगत तौर पर उनके विरुद्ध कोई आरोप साबित नहीं हो सका हो परन्तु बदनामी के जो छींटे उनके और परिवार के दामन पर पड़े वे भी कम गहरे नहीं हैं। कुल मिलाकर ये तो कहना ही पड़ेगा कि शिवराज सिंह भाजपा के भीतर तो चुनौती विहीन हैं ही,विपक्ष भी अब तक तो किसी दमदार चेहरे को उनके मुकाबले खड़ा नहीं कर पाया है। 2018 के विधानसभा चुनाव को एक साल बचा है। प्रदेश का राजनीतिक माहौल पूरी तरह भाजपामय है ये कहना निरी मूर्खता होगी किन्तु ये बात भी पूरी तरह से सच है कि शिवराज सिंह परिश्रम करने से नहीं चूकते और सामने आकर लड़ते हैं। इसीलिए अनेकानेक आशंकाओं और अटकलों के बाद भी लगता यही है कि कोई बहुत ही बड़ी बात नहीं हुई तो वे 2018 में  भी भाजपा की नैया पार लगाने में कामयाब हो जाएंगे। सत्ता और पार्टी संगठन के बीच उन्होनें जिस तरह का बेहतरीन समन्वय कायम रखा वह उनकी सफलता का बड़ा कारण है। सूचना क्रांति के इस दौर में शिवराज सिंह सरीखे सरल-सहज  व्यक्ति का 12 वर्ष तक सत्ता में बना रहना मामूली बात नहीं है। क्रिकेट की भाषा में कहें तो कम रन बनाने वाला बल्लेबाज भी यदि मैदान में डटा रहे तो उससे भी टीम का मनोबल बढ़ता है। बीते कुछ समय से शिवराज सिंह काफी विरोध का सामना करते आ रहे हैं। विपक्ष के साथ ही पार्टी के भीतर भी असंतुष्ट खेमा उनकी टांग खींचने का कोई मौका नहीं गंवाता लेकिन उनका राजयोग कम प्रबल नहीं है जिसके बलबूते वे 12 साल काट सके और आज जैसे हालात रहे तो ब्रांड शिवराज के प्रति लोगों का रुझान आगे भी जारी रहेगा। दरअसल विपक्ष की समूची आक्रामकता किसी वैकल्पिक चेहरे के अभाव में बेअसर होकर रह जाती है। भाजपा के भीतर भी शिवराज सिंह से ईष्र्या रखने वाले कम नहीं है किंतु कहते हैं इंसान की किस्मत उससे दो कदम आगे चलती है। शिवराज सिंह पर भी ये बात सौ फीसदी लागू होती है और फिर वे पुरुषार्थ करने में भी पीछे नहीं रहते ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 28 November 2017

व्यापमं : क्षमता ही नहीं निष्पक्षता भी साबित करे सीबीआई


मप्र के सर्वाधिक चर्चित व्यापमं घोटाले में सीबीआई ने निजी मेडिकल कालेजों के जिन संचालकों को गिरफ्तार किया उनमें से अधिकांश ऊंची पहुंच वाले हैं। शासन और प्रशासन की प्रभावशाली हस्तियों के साथ उनका मेलजोल केवल औपचारिक सौजन्यता तक सीमित न रहकर शराब, कबाब और उसके आगे के ऐशो-आराम की सीमा तक जगजाहिर था। निजी मेडिकल कालेज की मान्यता से लेकर उसके संचालन की समूची प्रक्रिया को जिन हालातों से गुजरना होता है उनमें सत्ताधारियों तथा नौकरशाही के संरक्षण और सहयोग की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन सच्चाई तो ये है कि नोट बटोरू इन शिक्षण संस्थानों में राजनेताओं और नौकरशाहों की या तो अघोषित हिस्सेदारी रहती है या फिर सहयोग के बदले सौजन्यता का आदान-प्रदान किया जाता है। यही वजह है कि  व्यापमं घोटाले का पर्दाफाश होने के इतने वर्षों बाद तक पीएमटी परीक्षा में हेराफेरी करने वाले दिग्गज अभी तक सुरक्षित बने रहे। मप्र सरकार द्वारा पूर्व में गठित एसआईटी  ने अब तक निजी मेडिकल कालेजों के ताकतवर संचालकों की गर्दन पर हाथ क्यों नहीं डाला ये भी बड़ा सवाल है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि यदि जांच का काम सीबीआई के जिम्मे न दिया जाता तो निजी मेडिकल कालेजों के रूप में चल रही इन दुकानों के सफेदपोश संचालक कभी गिरफ्त में नहीं आते। व्यापार में कर चोरी करने जैसे मामले तो सामान्य कहे जा सकते हैं लेकिन चिकित्सा शिक्षा का सम्बन्ध मानव जीवन की रक्षा से होने के कारण मेडिकल कालेजों में प्रवेश की प्रक्रिया पारदर्शी और त्रुटि रहित होनी चाहिए। फर्जी तरीके से डॉक्टर बना व्यक्ति किस तरह की चिकित्सा करता है ये किसी से छिपा नहीं है। जब तक चिकित्सा शिक्षा सरकारी मेडीकल कॉलेजों तक ही सीमित थी तब तक पीएमटी की पवित्रता पूरी न कहें तो भी काफी हद तक बनी रही लेकिन निजी क्षेत्र ने ज्योंही मेडीकल कालेज नामक धंधा खोला त्योंही प्रवेश परीक्षा में फजऱ्ीबाड़ा और सीटें बेचने का कारोबार चल पड़ा। इसकी शुरुवात कब और किसने की ये प्रश्न अब अर्थहीन होकर रह गया है क्योंकि अस्पतालों की तरह से ही निजी मेडीकल कालेज भी मानव सेवा की बजाय नोट छापने की मशीन बनकर रह गए हैं। यद्यपि मप्र में निजी मेडीकल कॉलेजों का पदार्पण महाराष्ट्र और कर्नाटक की अपेक्षा काफी बाद में हुआ किन्तु उनका मकसद  पूरी तरह व्यवसायिक होने से शिक्षा के स्तर की बजाय संचालकों का पूरा ध्यान येन-केन-प्रकारेण धन बटोरने में लगा रहा। कहा जाता है निजी मेडिकल कालेज की मान्यता हासिल करने में ही अनाप-शनाप खर्च होता है। फिर उसे बनाए रखने के लिए भी मेडिकल काउंसिल की औपचारिकताओं को पूरा करना होता है जिसके लिए किए जाने वाले दंद-फंद भी किसी से छिपे नहीं हैं । यही वजह है कि निजी मेडिकल कॉलजों की कार्यप्रणाली और छवि दोनों बदनामी के शिकार होकर रह गए । सीबीआई द्वारा व्यापमं घोटाले के अंतर्गत की गई गिरफ्तारियाँ पूरी तरह सही एवं जरूरी हैं लेकिन ये काफी पहले हो जातीं तब शायद शिवराज सरकार का दामन इतना दागदार न हुआ होता । कुछ सरकारी अधिकारियों पर भी सीबीआई ने शिकंजा कस दिया है जो इस आशंका की पुष्टि कर रहा है कि निजी मेडीकल कॉलेजों द्वारा प्रवेश परीक्षा में जो घपला-घोटाला किया गया उसको सरकारी अमले का अप्रत्यक्ष सहयोग था। लेकिन जब तक चिकित्सा शिक्षा हेतु प्रवेश जैसे अति पवित्र कार्य में गंदगी घोलने वालों के सिर पर हाथ रखे राजनेताओं के गिरेबाँ पर हाथ नहीं डाला जाता तब तक जांच अधूरी ही नहीं अविश्वसनीय भी कही जाती रहेगी । सीबीआई ने पूर्व में अनावश्यक रूप से  गिरफ्तार किए गए सैकड़ों लोगों को छोड़कर जांच को असली गुनाहगारों की तरफ  घुमाकर अपनी क्षमता भले साबित कर दी हो लेकिन अभी उसे अपनी निष्पक्षता प्रमाणित करनी है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 November 2017

नन्दन का अभिनन्दनीय कार्य


स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि जो आप देते हैं वही आपके पास रहता है । उनका यह कथन भारतीय दर्शन के उस विचार का प्रतिपादन ही था जिसके मुताबिक दान ही वह पुण्य है जो मरणोपरांत व्यक्ति के कर्मफल के आकलन का आधार बनता है । स्वर्ग-नर्क की अवधारणा कपोल-कल्पित हो सकती है क्योंकि किसी जीवित मनुष्य ने आज तक उन्हें देखा नहीं है । बड़े -बड़े साधु-सन्यासी भी मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में सप्रमाण कुछ नहीं बता सकते । इस आधार पर ये कहा जा सकता है कि समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करने के लिए पाप-पुण्य या स्वर्ग-नर्क जैसी धारणाएं प्रचलित की गईं होंगी । लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि मानव जीवन की सार्थकता और सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि हर व्यक्ति में सम्वेदनशीलता रहे । दान के पीछे का मनोभाव भी इसी पर आधारित है। हमारे देश में दानशीलता के एक से एक बढ़कर उदाहरण मिलते हैं। जिनमें पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों ही हैं । कालांतर में  आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न अनेक व्यक्तियों ने जन कल्याण के उद्देश्य से अपनी कमाई का एक हिस्सा दान किया । ये प्रवृत्ति आज भी जारी है लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जिनके पास बेशुमार दौलत होने के बाद भी वे किसी को कुछ देने में हिचकते हैं । ऐसे ही लोगों के लिए कभी विश्व के सबसे धनी व्यक्ति वारेन बफेट ने तंज कसा था कि भारत में धनकुबेर अपनी कमाई को लोक कल्याण हेतु खर्च करने के मामले में बहुत पीछे हैं । उससे प्रेरित होकर विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेम जी ने अपनी हजारों करोड़ की दौलत का बड़ा भाग दान कर दिया। गत दिवस इंफोसिस की स्थापना में नारायण मूर्ति के साथ रहे नन्दन नीलेकणि ने अपनी संपत्ति का आधा भाग दान कर दिया है।  विश्व के सबसे अमीर बिल गेट्स के आह्वान पर श्री नीलेकणि ने उक्त कदम उठाया । उद्योगपतियों द्वारा दान करना नई बात नहीं है लेकिन अपनी संपत्ति का अधिकांश हिस्सा समाज कल्याण के लिए अर्पित करने की ये परम्परा निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है। नन्दन नीलेकणि एक सुशिक्षित उद्योगपति हैं । उनकी सोच आधुनिक है जिसकी वजह से वे अपने सामाजिक दायित्व को समझ रहे हैं जो अच्छा संकेत है । वॉरेन बफेट का कटाक्ष देर से ही सही यदि काम कर जाए तो माना जा सकता है कि समाज के प्रति धनकुबेरों में दायित्वबोध जागृत हो रहा है । सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की  कम्पनियां सामुदायिक सेवा हेतु अपनी आय का एक निश्चित हिस्सा प्रति वर्ष प्रदान करने हेतु बाध्य होती हैं किंतु अपनी संपत्ति का  आधा या उससे ज्यादा हिस्सा दान कर देना निश्चित रूप से प्रशंसनीय है । नन्दन नीलेकणि टाटा,बिरला, अम्बानी, अडानी ब्रांड उद्योगपति तो हैं नहीं। उनकी कमाई जिस व्यवसाय से हुई उसका स्वरूप परंपरागत उद्योगों से सर्वथा भिन्न होने से उनकी सोच भी परिष्कृत और प्रगतिशील है। उम्मीद की जा सकती है कि श्री नीलेकणि से प्रेरित होकर समाज का सम्पन्न वर्ग बड़ी संख्या में उनका अनुसरण करेगा । सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़ देने की प्रवृति त्यागकर अगर सम्पन्न वगज़् अपने दायित्व के प्रति सजग हो जाए तो बहुत सी समस्याएं हल हो सकती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 20 November 2017

राजनीति में ब्लैकमेल को सौदेबाजी कहते हैं

हालांकि ये कोई नई बात नहीं है लेकिन गुजरात में पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटैल जिस तरह से कांग्रेस पर दबाव बना रहे हैं उसे ब्लैकमेल ही कहा जायेगा। यद्यपि हार्दिक और उनके साथी भाजपा को हराने की कसम खा चुके हैं लेकिन कांग्रेस को पूरी तरह घुटनाटेक कराने की उनकी मंशा या यूं कहें कि रणनीति पूरी तरह से कारगर नहीं होते देख वे आए दिन समझौता तोडऩे की धमकी देते रहे हैं । हार्दिक का संगठन खुद चुनाव नहीं लड़ रहा लेकिन उनकी इच्छा अपने प्रभाव क्षेत्र से अधिकतम अपने उम्मीदवारों को कांग्रेस टिकिट पर चुनाव लड़वाने की  रही है । भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की जो दो सूची जारी कीं उसमें काफी पाटीदारों को टिकिट दिए जाने से कांग्रेस भी दबाव में आ गई और उसने हार्दिक समर्थक कुछ पाटीदारों को टिकिट दे डाले। यद्यपि हार्दिक जितनी टिकिटें चाह रहे थे उतनी कांग्रेस नहीं देना चाह रही जिस वजह से पाटीदार आंदोलन से जुड़े तबके में असंतोष है किंतु कांग्रेस की मुसीबत ये है कि वह अपने कार्यकर्ताओं को भी उपेक्षित या रुष्ट नहीं कर सकती। इसीलिए कल रात ज्योंही उसकी सूची जारी हुई पाटीदार समाज के लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया। उनके अपने कार्यालयों के सामने तो झगड़ा फसाद हुआ ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ भी उनकी झड़पें हुई। इसी बीच हार्दिक की घुड़कियां भी जारी हैं। समझौता तोडऩे की धमकी भी कल रात तक हवा में तैरती रही। आज वे कांग्रेस के साथ आरक्षण पर हुए समझौते की घोषणा करने वाले हैं लेकिन कांग्रेस की पहली सूची आते ही पाटीदार समुदाय को ये महसूस होने लगा कि कांग्रेस उसका उपयोग कर रही है । पाटीदार आंदोलन के सूत्रधारों की स्थिति भी 100 जूते या 100 प्याज में से एक चुनने की बाध्यता जैसी हो गई है। आज की स्थिति में वे भाजपा से जुड़ नहीं सकते वहीं कांग्रेस से उन्हें वैसा सहयोग नहीं मिल रहा जैसी उन्हें उम्मीद रही होगी। कांग्रेस भी हार्दिक को लेकर काफी पशोपेश में है । उसे एहसास हो गया है कि पाटीदार आंदोलन का ये नेता बेहद चालाक किन्तु अपरिपक्व है जिसके साथ फूंक-फूंककर आगे बढऩा जरूरी है। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वह न तो हार्दिक के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण करना चाहती है और न ही उन्हें नाराज करने क़ा साहस बटोर पा रही है । इस मामले में भाजपा को ये लाभ जरूर हुआ कि उसे किसी बाहरी दबाव से नहीं जूझना पड़ा लेकिन पाटीदारों को ज्यादा टिकिटें दिए जाने के कारण क्षत्रिय समाज की नाराजगी से उसे भी निपटना पड़ रहा है । कांग्रेस और भाजपा में तो जो टूटन हो रही है वह अपनी जगह है लेकिन हार्दिक के अपने कुनबे में भी कांग्रेस से समर्थन की अपेक्षित कीमत नहीं मिलने का गुस्सा सतह पर परिलक्षित हो रहा है। इस सबके कारण नोटबन्दी और जीएसटी का पूरा हल्ला पाटीदार आंदोलन से उत्पन्न दबाव पर आकर केंद्रित हो गया। कांग्रेस के गले में हार्दिक फांस की तरह अटके हुए हैं क्योंकि अल्पेश ठाकोर नामक ओबीसी नेता को पार्टी में सम्मिलित करवाकर उसने पहले ही एक जातिवादी नेता को अपने घर बिठा रखा था जो पाटीदार आरक्षण को लेकर किये जा रहे ब्लैकमेल के सामने पार्टी नेताओं को पूरी तरह झुकने से रोके हुए है। कांग्रेस नेतृत्व को भी ये लग रहा है कि हार्दिक तो भाजपा विरोध में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब पीछे हटना उनके लिए आत्मघाती होगा इसीलिए वह पाटीदार आरक्षण पर खुलकर पत्ते नहीं खोल रहे जिससे ओबीसी मतदाता न रूठ जाएं। कुल मिलाकर विभिन्न  मुद्दों से शुरू हुआ चुनाव अभियान लौट फिरकर उसी घिसे पिटे ढर्रे पर लौट आया जिसे जाति कहा जाता है। टिकिटों की घोषणा ज्यों-ज्यों हो रही है, दोनों प्रमुख पार्टियों के अलावा पाटीदार आंदोलन के भीतर भी दरारें चौड़ी होने लगी हैं हार्दिक के अनेक साथी उनसे बिदककर इधर -उधर मुंह मारते देखे जा सकते हैं कुल मिलाकर एक हाई प्रोफाइल कहा जा रहा मुकाबला ले देकर फिर उन्हीं बातों में आकर उलझ गया जो भारतीय राजनीति की चिरपरिचित बुराई या यूं कहें कि पहिचान बनकर रह गईं हैं। राष्ट्रीय पार्टियां क्षणिक स्वार्थ हेतु जिस तरह अपने आत्मसम्मान को गिरवी रखती हैं हार्दिक सरीखे राजनीतिक ब्लैकमेलर उसी का दुष्परिणाम हैं। कानून की नजर में तो ब्लैकमेल करना दण्डनीय अपराध है लेकिन राजनीतिक शब्दकोष में उसे सौदेबाजी कहते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी