Monday 31 July 2023
म.प्र में आदिवासियों के नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया
Saturday 29 July 2023
अर्थव्यवस्था मजबूत होने के साथ प्रति व्यक्ति आय बढ़ना भी जरूरी
Friday 28 July 2023
राजस्थान के चुनाव में लाल डायरी बनेगी मुद्दा
Thursday 27 July 2023
अविश्वास प्रस्ताव गिरने के बाद विपक्ष क्या करेगा
Wednesday 26 July 2023
इसके पहले कि पूर्वोत्तर फिर समस्या बन जाए ठोस कदम उठाना जरूरी
Tuesday 25 July 2023
ज्ञानवापी : पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई का विरोध अनुचित
Monday 24 July 2023
वाराणसी सम्मेलन : मंदिरों को सुव्यवस्थित बनाने की दिशा में अच्छा कदम
Saturday 22 July 2023
चंद्रचूड़ का पत्र : न्यायपालिका के साथ नेताओं - नौकरशाहों पर भी निशाना
Friday 21 July 2023
मणिपुर : राष्ट्रपति शासन लगाकर सेना की तैनाती ही एकमात्र विकल्प
Thursday 20 July 2023
इंदिरा के साथ भी इंडिया जोड़ा गया था जिसे जनता ने पसंद नहीं किया
Wednesday 19 July 2023
अमेरिका और इटली की खबरों से हमें भी सावधान हो जाना चाहिए
Tuesday 18 July 2023
नकली गरीबों का पर्दाफाश किए बिना सच्चाई सामने नहीं आयेगी
Monday 17 July 2023
गठबंधन राजनीति में अवसरवादियों के दोनों हाथों में लड्डू
Saturday 15 July 2023
समान नागरिक संहिता : मुस्लिम समाज अधिक जागरूक
Friday 14 July 2023
देश की राजधानी के ये हाल हैं तो ...
Thursday 13 July 2023
तृणमूल की प्रमुख प्रतिद्वंदी बनी भाजपा : कांग्रेस और वामदल पिछड़े
Wednesday 12 July 2023
सुख देने वाली प्रकृति को दुख देना तो क्रूरता है
वर्षा काल में कच्चे मकानों के धसकने , कीचड़ और बाढ़ जैसी दिक्कतें आती हैं। शहरों में निकासी न होने से जलभराव की समस्या भी आम है। पर्यावरण असंतुलन के कारण हो रहे ऋतु परिवर्तन से राजस्थान जैसे मरुस्थलीय राज्य में भी जलप्लावन की स्थिति बनने लगी है। गुजरात में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। उ.प्र , बिहार के अलावा पूर्वोत्तर के असम का भी बाढ़ से जन्मजात नाता है। लेकिन देश के पर्वतीय क्षेत्रों से आ रही खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं। उत्तराखंड और हिमाचल का समूचा पहाड़ी इलाका इन दिनों बाढ़ और भूस्खलन का शिकार है। जगह - जगह सैलानी फंसे हुए हैं । सैकड़ों वाहन रास्ता खुलने का इंतजार कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर सड़कें नष्ट हो चुकी हैं , अनेक महत्वपूर्ण पुल बह गए। इन सबकी मरम्मत में लंबा समय और बड़ी राशि खर्च होगी। गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तीर्थ यात्रियों के साथ ही पर्यटकों का सैलाब उमड़ पड़ता है। कश्मीर में अमरनाथ यात्रा वर्षाकाल में आयोजित होती है। इसके कारण समूचे पर्वतीय क्षेत्र में लाखों लोगों की आवाजाही बनी रहती है। हालांकि तीर्थयात्राएं और पर्यटन दोनों न जाने कब से होते आ रहे हैं किंतु सड़कों सहित आवागमन के साधनों के विकास ने पहाड़ों से जुड़ी नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली कहावत को पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है। कहने का आशय ये कि जिन पर्वतीय क्षेत्रों में तीर्थाटन और पर्यटन हेतु जाना बेहद कठिन और खतरों से भरा माना जाता था वह आजकल बच्चों का खेल बन गया है । तीर्थ यात्रा और पर्यटन को मिलाकर अब धार्मिक पर्यटन नामक नया कारोबार जोर पकड़ चुका है। किसी समाज में तीर्थयात्रा और पर्यटन क्रमशः आध्यात्मिकता और खुशनुमा सोच के प्रतीक होते हैं। उस लिहाज से इन दोनों क्षेत्रों में यदि लोगों की रुचि बढ़ी तो धार्मिकता के साथ ही उसे अर्थव्यवस्था के लिए भी सुखद कहा जा जाना चाहिए । बीते दो पर्यटन मौसमों में जम्मू कश्मीर सहित हिमाचल में सैलानियों की रिकार्ड संख्या को अर्थव्यवस्था में आई उछाल के तौर पर देखा गया। इस साल तो वह रिकार्ड भी टूट गया। यही हाल उत्तराखंड के चार धामों के है। कुछ साल पहले केदारनाथ में जलप्रलय के बाद व्यवस्थाओं में काफी सुधार किए गए थे । आपदा प्रबंधन और आवागमन को सुगम और सुरक्षित बनाने हेतु भी प्रयास हुए । परिणामस्वरूप इन दुर्गम स्थानों की यात्रा बेहद आसान बन गई है। यहां तक कि मनाली होते हुए लेह (लद्दाख ) जाने के लिए लगने वाला तीन दिन का समय घटकर आधे से भी कम रह गया है। लेकिन सुविधाओं के विकास से हिमालय स्थित तीर्थ और पर्यटन स्थलों तक पहुंचने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है । वह पहाड़ों की सेहत के लिए कितनी नुकसानदेह है इसकी चर्चा ज्यादातर भूगर्भशास्त्रियों , मौसम विशेषज्ञों , पर्यावरणविदों और चंद बुद्धिजीवियों तक ही सीमित है। भावी पीढ़ियों की चिंता करने वाले कुछ और भी लोग हैं जो इस दिशा में सोचते हैं । उदाहरण के लिए सुंदरलाल बहुगुणा और उन जैसे न जाने कितनों ने अपना समूचा जीवन पर्वतीय के क्षेत्रों प्राकृतिक संतुलन को बचाए रखने झोंंक दिया । भले ही उनको ढेरों सम्मान और पुरस्कार दिए गए परंतु उनकी बातों पर अमल न होने का ही नतीजा है कि जोशीमठ शहर सहित उत्तराखंड में फैले सदियों पुराने अनेक मंदिर धसक रहे हैं। पहाड़ों पर बारिश पहले भी होती थी जिसके कारण मैदानी इलाकों में बाढ़ आती रही किंतु अब पहाड़ों में बसे शहर और ग्रामीण क्षेत्र भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। इसका कारण इन पर्वतीय क्षेत्रों की प्राकृतिक संरचना से की जा रही अविवेकपूर्ण छेड़छाड़ ही है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के बाद सड़कों को चौड़ा करने पहाड़ों को तोड़ने जैसी कारस्तानी ने समूचे उत्तराखंड और हिमाचल को खतरों में झोंक दिया हैं । बढ़ते यात्री वहां के लोगों के लिए आर्थिक समृद्धि का कारण तो बन रहे हैं लेकिन इसके लिए हिमालय के सीने को जिस तरह छेदा जा रहा है वह अपराध से भी ज्यादा पाप है। हालांकि ऐसे विचार को विकास विरोधी कहकर खारिज कर दिया जाता है । इसके अलावा संपन्न देशों के पर्वतीय क्षेत्रों में अधो संरचना के विकास का उदाहरण भी दिया जाता है किंतु उन देशों के मौसम , भूगर्भीय रचना , कम जनसंख्या और सबसे बड़ी बात नियम कानूनों के प्रति दायित्वबोध के कारण प्राकृतिक संतुलन को तुलनात्मक तौर पर उतना नुकसान नहीं होता। उस दृष्टि से हमारे देश की स्थिति चिंताजनक है। यही कारण है कि पर्वतीय क्षेत्रों में हुए विकास के बाद लोगों में स्वच्छंदता आ गई जिससे विकास का परिणाम विनाश के तौर पर आया। गत वर्ष अमरनाथ में जो जनसैलाब आया उसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता था। समूचा हिमालय उसी तरह व्यवहार करने लगा है। ये देखते हुए अब ये जरूरी है कि पहाड़ों को भी सांस लेने का समय दिया जाए। केवल लोगों की संख्या पर नियंत्रण ही नहीं बल्कि वहां वाहनों की आवाजाही से उत्पन्न शोर शराबे , हेलीकॉप्टरों से होने वाले कम्पन आदि को भी कम किया जावे। बैटरी चालित वाहनों की अनिवार्यता भी एक कदम हो सकता है। साल दर साल बढ़ती आपदाओं में मानवीय जिंदगियों के साथ - साथ जो आर्थिक नुकसान होने लगा है उसके बाद अब पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के स्वरूप में बदलाव करना जरूरी हो गया है। जो प्रकृति हमें सुख दे , उसे हम दुख दें तो ये उसके प्रति क्रूरता ही होगी। लगातार आ रहे संकेतों के बाद भी यदि हम नहीं चेते तो फिर ये मान लेना गलत न होगा कि हम किसी बड़े हादसे को निमंत्रण दे रहे हैं।
-रवीन्द्र वाजपेयी
Tuesday 11 July 2023
जनसंख्या के बोझ को बढ़ने से रोकने कदम उठाना जरुरी
Monday 10 July 2023
वरना कांग्रेस और वामपंथी बंगाल में दोबारा पैर नहीं जमा सकेंगे
Saturday 8 July 2023
हिंसा , हत्या और प.बंगाल समानार्थी हो चले चुनाव आयोग का असहाय बना रहना चिंता का विषय
क्षेत्रीय पार्टियां अपनी विश्वसनीयता खोती जा रहीं
महाराष्ट्र में हुई राजनीतिक उठापटक के बाद ये सवाल उठने लगा है कि क्या एक परिवार द्वारा नियंत्रित होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य अंधकारमय है। जिस तरह से एनसीपी में टूटन हुई उसके पीछे सीधा - सीधा कारण यही समझ में आया कि शरद पवार ने अपने उत्तराधिकार का निर्णय करते समय राजनीतिक दृष्टि से विचार करने के बजाय अपनी संतान को ज्यादा महत्व दिया । बीते अनेक दशकों से ये माना जाता रहा था कि उनके भतीजे अजीत पवार ही इस पार्टी का भविष्य होंगे किंतु जब इस बारे में अंतिम फैसला करने का समय आया तो श्री पवार ने बेटी सुप्रिया सुले को बागडोर सौंप दी। इसके बाद वही हुआ जो होना था। अजीत ने कई महीनों से चली आ रही अटकलों को सही साबित करते हुए बगावत कर दी और भाजपा के संरक्षण में चल रही महाराष्ट्र सरकार में उपमुख्यमंत्री बन गए। उनके साथ प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे श्री पवार के अति विश्वस्त भी बगावत में शामिल हो गए । इसका कारण भी यही माना जा रहा है कि उन दोनों को सुप्रिया के मातहत काम करने में अपनी तौहीन लग रही थी। श्री पटेल को तो एनसीपी का दूसरा कार्यकारी अध्यक्ष तक बना दिया गया था। हालांकि पार्टी पर किसका कब्जा रहेगा इसे लेकर फिलहाल कानूनी पेंच फंसा हुआ है किंतु एक बात तो तय है पवार परिवार में आई इस दरार की वजह से एनसीपी की ताकत अब पहले जैसी नहीं रहेगी। ऐसा ही कुछ शिवसेना के साथ भी हुआ। स्व.बाल ठाकरे ने शुरुआत में शिवसेना में अपने भतीजे राज ठाकरे को आगे बढ़ाया जो बेहद तेज तर्रार युवा नेता के रूप में महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित होने लगे थे। जबकि उनके पुत्र उद्धव उन दिनों अपने फोटोग्राफी के शौक में डूबे हुए थे। लेकिन कालांतर में जब पार्टी की विरासत सौंपने का समय आया तब उन्होंने भी सक्रिय भतीजे के स्थान पर निष्क्रिय बेटे पर भरोसा किया जिसकी वजह से वे मनसे ( महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) नामक नई पार्टी बनाकर अलग जा बैठे। उसके बाद की कहानी सब जानते हैं। जो भाजपा कभी शिवसेना के पीछे चला करती थी वह उससे बड़ी ताकत बन गई। ये उदाहरण अन्य राज्यों में भी दोहराया जाता रहा। उ.प्र में स्व.मुलायम सिंह यादव के पुत्र प्रेम के कारण सपा में विभाजन हुआ और अनेक पुराने समाजवादी यहां - वहां बिखर गए। बिहार में लालू यादव का कुनबा प्रेम भी जगजाहिर है। झारखंड में शिबू सोरेन की विरासत बेटे हेमंत के पास है तो हरियाणा में देवीलाल परिवार भी आखिर बिखरकर रह गया। जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के वर्चस्व के कारण पार्टी के अनेक वरिष्ट नेता उसे छोड़ गए। तेलुगु देशम भी इसी का शिकार हो गई। बसपा सुप्रीमो मायावती भी भतीजे प्रेम के कारण नुकसान उठा रही हैं ।अकाली दल में हुई टूटन भी स्व.प्रकाश सिंह बादल के पुत्र मोह के कारण देखने मिली । महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम ने क्षेत्रीय दलों के भविष्य पर तो प्रश्नचिन्ह लगाया ही ये बात भी सामने आने लगी है कि राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ती रुचि अंततः उनके कमजोर होने के रूप में सामने आती है क्योंकि किसी राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ने की वजह से उनकी अपनी वैचारिक पहिचान नष्ट होने लगती है। और धीरे - धीरे वे अपने ही प्रभावक्षेत्र में कमजोर होते जाते हैं। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में जितने भी क्षेत्रीय दल भाजपा विरोधी गठबंधन में शामिल होने सक्रिय हैं वे सब कांग्रेस के इर्द - गिर्द घूम रहे हैं। अतीत में जो छोटे - छोटे दल मिलकर तीसरे मोर्चे की शक्ल में सौदेबाजी करने में सफल रहे वे भी आज कांग्रेस अथवा भाजपा की परिक्रमा कर रहे हैं। यद्यपि आज भी ममता बैनर्जी और स्टालिन जैसे क्षेत्रीय छत्रप हैं किंतु उनके पार्टी में भी परिवार का कब्जा बनाए रखने की कोशिश अंतर्कलह का कारण बन रही है। स्टालिन के भाई और बहिनें भी सत्ता में बंटवारे के लिए दबाव बनाया करते हैं तो ममता द्वारा भतीजे को महत्व दिए जाने से पुराने साथी छिटक रहे हैं। तेलंगाना में के.सी.राव की बेटी उत्तराधिकारी बनती दिख रही हैं। हालांकि इन सबने कांग्रेस से ही ये सीखा है कि पार्टी को परिवार की निजी जागीर बनाकर रखा जाए। उ.प्र में चौधरी चरणसिंह की पार्टी बेटे के बाद पोता चला रहा है। इस सबसे ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है क्षेत्रीय पार्टियां अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही हैं। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों यदि थोड़ा सा धैर्य रखें तो छोटे दलों पर उनकी निर्भरता कम हो सकती है। कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास जिस तरह बढ़ा उसे कायम रखना उसके लिए हितकारी रहेगा। इसी तरह भाजपा को भी छोटी पार्टियों को साथ लाने की बजाय अपने कैडर को मजबूत करना चाहिए। छोटे दलों द्वारा अनुचित दबाव और सौदेबाजी की नीति देश के लिए कितनी नुकसानदेह हो रही है ये सर्वविदित है।
- रवीन्द्र वाजपेयी