Monday 31 July 2023

म.प्र में आदिवासियों के नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया




म.प्र आदिवासी बहुल प्रदेश है। लगभग 47 विधानसभा सीटें तो अनु.जनजाति के लिए आरक्षित हैं किंतु इनके अलावा भी 25 से 30 सीटों पर हार -  जीत आदिवासियों पर निर्भर  हैं। 2018 में कांग्रेस ने 47 में से 30 सीटों पर जीत हासिल कर भाजपा का खेल बिगाड़ दिया था। इसीलिए इस बार वह आदिवासी क्षेत्रों में पूरी ताकत झोंक रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शहडोल दौरा इसका सबूत है। दूसरी तरफ कांग्रेस भी पीछे नहीं है। राहुल गांधी भी आदिवासी बहुल क्षेत्र में आने वाले हैं। गत दिवस कांग्रेस ने इंदौर में आदिवासी सम्मेलन किया ।  इस अवसर पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा आदिवासियों को जूते , चप्पल और छाता देने की घोषणा पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वे कोई भिखारी नहीं हैं। उसके साथ ही उन्होंने आदिवासी बहुल  अपने निर्वाचन क्षेत्र छिंदवाड़ा का उल्लेख कर दावा किया कि वहां आदिवासियों के लिए जो काम उन्होंने करवाए उन्हें बतौर मॉडल अपनाया जाना चाहिए। हालांकि नेताओं द्वारा चुनाव के मौसम में छोड़े जाने वाले बयानों के तीर तो चलते ही रहते हैं किंतु आदिवासियों को जूते , चप्पल और छाता देने की बात  पर व्यंग्य करने की कोई जरूरत नहीं थी। उल्टे श्री नाथ को इस बात पर अफसोस करना चाहिए था  आदिवासी समुदाय इतना पिछड़ा कैसे रह गया कि आजादी के 75 साल बाद भी उसे जूते , चप्पल और छाते देने की जरूरत पड़ रही है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास का कोई कार्य नहीं हुआ। सड़कें , बिजली और पानी जैसी सुविधाएं वहां भी पहुंची हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की स्थिति भी पहले  से  सुधरी है और राजनीतिक दृष्टि से भी वे काफी जागरूक हुए जिसका प्रमाण उनके अपने सामाजिक और राजनीतिक संगठन बनना है। चुनाव में वे भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ सौदेबाजी करने लगे हैं।  सच्चाई ये है कि बड़ी पार्टियां आदिवासियों के मत तो बटोरना चाहती हैं किंतु उनके बीच नेतृत्व को उभारने के प्रति उदासीन हैं। कहने को केंद्र में अनेक आदिवासी मंत्री हुए । झारखंड में भी शिबू सोरेन ,बाबूलाल मरांडी , अर्जुन मुंडा और हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को कमान मिली। लेकिन म.प्र में आदिवासी कांग्रेस नेता स्व.शिवभानु सिंह सोलंकी के पक्ष में बहुमत होते हुए भी  स्व.अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए। कहने का आशय ये कि अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के भीतर से तो नेतृत्व उभरा जिसके कारण केंद्र और राज्य दोनों में उस वर्ग का दबदबा है किंतु आदिवासी समुदाय इस मामले में पीछे रह गया। कमलनाथ को ही लें तो छिंदवाड़ा में अनेक आदिवासी विधायक बने  किंतु जब राजनीतिक उत्तराधिकार की बात आई तो श्री नाथ ने पहले पत्नी अलका नाथ और फिर बेटे नकुल नाथ को ही चुना। आज म.प्र में एक भी आदिवासी नेता ऐसा नहीं है जिसकी प्रादेशिक स्तर पकड़ हो। और इसका कारण है उनको दबाकर  रखा जाना ।  श्रीमती  द्रौपदी मुर्मू को जब राष्ट्रपति पद हेतु एनडीए द्वारा नामांकित किया तब होना तब ये अपेक्षित था कि सभी विपक्षी दल उनके निर्विरोध निर्वाचित होने का रास्ता प्रशस्त करते। हालांकि अनेक पार्टियां श्रीमती मुर्मु के साथ खड़ी हो गईं किंतु कांग्रेस ने यशवंत सिन्हा को समर्थन दे दिया। आजादी के अमृत महोत्सव के समय  यदि बेहद साधारण पृष्ठभूमि  से आई एक आदिवासी महिला सर्वसम्मत से राष्ट्रपति चुनी जाती तो वह सामाजिक समरसता का बेहतरीन उदाहरण होता। ऐसे ही अनेक वाकयों के कारण सीधे - सादे  और शांत कहे जाने   इस वर्ग की भावनाएं आहत होने लगीं जिसका लाभ  ईसाई मिशनरियों और नक्सलियों ने उठाते हुए उनके मन में विद्रोह के बीज बोए । भले ही सांस्कृतिक तौर पर आदिवासी समाज अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है किंतु धर्मांतरण के जरिए उसे मुख्यधारा से काटने का जो षडयंत्र आधी सदी से ज्यादा चला उसे कांग्रेस ही नहीं अपितु अन्य विपक्षी दलों खासकर वामपंथियों ने भी समर्थन और  संरक्षण प्रदान किया। यही वजह है कि इस समुदाय में भीतर - भीतर गुस्सा पनप रहा है। यद्यपि आरक्षण ने उनके आर्थिक , शैक्षणिक और सामाजिक उत्थान में काफी सहायता की किंतु उसकी भी अपनी सीमाएं हैं । और इसीलिए आज भी आदिवासी पिछड़ेपन के शिकार हैं। राजनीति के करीब आने से उनमें चैतन्यता तो आई किंतु सक्षम नेतृत्व के अभाव में आज भी वे पिछलग्गू बनने बाध्य हैं। ऐसे में श्री नाथ द्वारा  उनको जूते ,चप्पल और छाता जैसी चीज देने पर कटाक्ष करना राजनीतिक तौर पर साधारण बात है किंतु सदियों से जल , जंगल और जमीन से जुड़ा शांत और संयमी समाज यदि नंगे पांव चलने बाध्य है तो फिर उसका विद्रोही होना गलत नहीं है । और ये भी कि  उनके बीच असंतोष की आग सुलगाने का अवसर ईसाई मिशनरियों और नक्सलियों को  हमारी सामूहिक उदासीनता ने ही दिया है। आदिवासी क्षेत्रों के विकास के नाम पर बीते 75 साल में जितना धन खर्च हुआ उससे  वहां का पिछड़ापन पूरी तरह मिट जाना चाहिए था किंतु नेताओं और नौकरशाहों की संगामित्ती में हुई लूटमार से स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय यह स्थिति मन को कचोटती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 29 July 2023

अर्थव्यवस्था मजबूत होने के साथ प्रति व्यक्ति आय बढ़ना भी जरूरी





प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2024 में  सत्ता में लौटने के आत्मविश्वास के साथ भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की जो बात कही गई उस पर तरह - तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। कुछ लोगों ने उनके दावों को कोरा आशावाद बताया तो एक वर्ग ऐसा भी है जो भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने के उनके विश्वास को न सिर्फ सही मानता है , अपितु ये भी कि उन्होंने अब तक जो कुछ लिया उससे देश की आर्थिक स्थिति सुधरी है। लेकिन देश के पूर्व वित्त मंत्री और वरिष्ट कांग्रेस नेता पी.चिदंबरम ने श्री मोदी के बयान पर बोलते हुए कहा कि ये तो  गौरव की बात है कि भारत आज विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है किंतु जब तक प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा इस अनुपात में आकर्षक नहीं होता तब तक इस तरह के दावे पूरे होने के बाद भी वह अर्थव्यवस्था का आदर्श रूप नहीं होगा। पूर्व वित्त मंत्री के अनुसार अर्थव्यवस्था की मजबूती नापने का सबसे अच्छा पैमाना प्रति व्यक्ति आय है । और यदि भारत विश्व भर में अपनी समृद्धि का ढिंढोरा पीटना चाहता है तब उसे अर्थव्यवस्था को इस तरह ढालना होगा जिससे आर्थिक विषमता अर्थात  गरीब - अमीर की माली हैसियत में जमीन और आसमान वाला अंतर खत्म हो सके। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो  उन्होंने प्रधानमंत्री के कथन पर एक तरह से कटाक्ष ही किए जो बतौर विपक्षी सांसद अपेक्षित भी हैं । गौरतलब है , भारत में जब आर्थिक उदारीकरण आया था तब डा.मनमोहन सिंह के साथ ही श्री चिदम्बरम भी नई आर्थिक नीतियों  के शिल्पकार रहे। उस दृष्टि से ये माना जा सकता है कि बीते लगभग तीन दशक के दौरान अर्थव्यस्था में आए उतार - चढ़ावों पर उनकी नजर रही है। उस दृष्टि से उन्होंने जो टिप्पणी प्रधानमंत्री के बयान पर की वह विचारणीय है। दुनिया में प्रति व्यक्ति आय के जो अधिकृत आंकड़े हैं उनके अनुसार भारत वैश्विक स्तर पर 128 वें स्थान पर है। इसका सीधा - सीधा अर्थ है कि 127 देश ऐसे हैं जिनमें प्रति व्यक्ति का आंकड़ा भारत से बेहतर है। ऐसे में श्री चिदम्बरम द्वारा उठाया गया मुद्दा हमारे नीति - निर्माताओं और सत्ता में आसीन नेताओं के लिए चुनौती है । यद्यपि  बीते एक दशक में भारत में प्रति व्यक्ति कमाई में वृद्धि हुई है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि कोरोना संकट खत्म होने के बाद से ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आम आदमी के पास पूर्वापेक्षा अधिक पैसा आ रहा है किंतु जिस अनुपात में अर्थव्यवस्था सुधरी उसे देखते हुए प्रति व्यक्ति आय  में आशाजनक सुधार नहीं होना ये दर्शाता है कि समृद्धि का बंटवारा इकतरफा है। अर्थात पहले से संपन्न  और सुदृढ़ हुए , जबकि पंक्ति के अंतिम  छोर पर खड़ा व्यक्ति आगे आने का इंतजार करता रह गया। हालांकि इस बारे में भी कुछ  विरोधाभास हैं,  क्योंकि बेरोजगारी और प्रति व्यक्ति आय के जो उपलब्ध आंकड़े हैं उनका सत्यापन करने का कोई प्रामाणिक तरीका अब तक नहीं बन सका। वस्तुस्थिति ये है कि करोड़ों लोग असंगठित क्षेत्र में कार्यरत होने से न तो उनके रोजगार संबंधी जानकारी मिल पाती है और न आय की। उदाहरण के लिए घरेलू काम करने वाले पुरुष और महिलाओं के बारे में सरकारी और निजी एजेंसियां अनभिज्ञ रहती हैं इसी तरह सड़क किनारे खोमचा लगाकर खाने - पीने की चीजें बेचने वाले , टपरा रखकर नाई का काम और कपड़ों पर इस्त्री करने वाले भी हर जगह मिल जाते हैं जिनकी गणना सरकारी सांख्यिकी का हिस्सा नहीं बन पाती। आजकल कार ड्राइवरों को भी अच्छा वेतन मिलता है।  स्वरोजगार से जुड़े लाखों ऐसे लोग हैं जिनकी अच्छी खासी आय होने के बाद भी वे सरकारी रिकार्ड में बेरोजगार बनकर गरीबी रेखा वाले सारे लाभ ले रहे हैं। ऐसी विसंगतियां बड़े पैमाने पर हैं जिनके चलते  आयुष्मान योजना में ऐसे लोग भी शामिल हो गए हैं जो संपन्न वर्ग की श्रेणी में गिने जाते हैं। बावजूद इसके ये कहना गलत नहीं है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय की स्थिति शर्मनाक है। भले ही महंगी कारें और विलासिता के अन्य सामान धड़ल्ले से बिक रहे हैं , पर्यटन स्थलों पर भीड़ रिकार्ड तोड़ रही है , हवाई यात्री बढ़ रहे हैं , मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे विदेश पढ़ने जाने लगे हैं , डेस्टिनेशन शादियों पर पैसा बहाया जा रहा है । लेकिन दूसरी तरफ 80 करोड़ लोगों को खाद्य सुरक्षा योजना के अंतर्गत मुफ्त अनाज बांटा जा रहा है। 1000 - 1500 की नगदी करोड़ों बूढ़े  और  निराश्रित लोगों के खाते में जमा की जा रही है । इस सबसे एक तरफ तो जहां सरकार की संवेदनशीलता प्रकट होती है वहीं दूसरी तरफ ये गरीबी के बोलते हुए आंकड़े हैं। उस दृष्टि से भारत को विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में सम्मानजनक स्थान मिलने के प्रयासों के साथ ही  प्रति व्यक्ति आय बढ़ाकर गरीबी मिटाने का राष्ट्रीय अभियान छेड़ा जाना चाहिए । काम करने वाला कोई व्यक्ति निठल्ला नहीं बैठे इसकी समयबद्ध कार्य योजना बनाकर आर्थिक विषमता मिटाने का बीड़ा यदि उठा लिया जाए तो।आगामी दस सालों  के भीतर प्रति व्यक्ति आय बढ़ाई जा सकती है जो कि अर्थव्यवस्था की मजबूती का सबसे पुख्ता प्रमाण होगा।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 28 July 2023

राजस्थान के चुनाव में लाल डायरी बनेगी मुद्दा



राजस्थान सरकार के एक पूर्व मंत्री राजेंद्र गुढ़ा इन दिनों चर्चा में हैं। मंत्री रहते हुए सचिन पायलट के साथ उनका जुड़ाव रहा। एक रैली में तो उन्होंने अशोक गहलोत सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्ट प्रदेश सरकार बताकर सनसनी फैला दी। लेकिन मुख्यमंत्री ने उन्हें फिर भी  मंत्री पद से नहीं हटाया और न ही कोई टिप्पणी की। संभवतः वे श्री पायलट को आक्रामक होने का कोई अवसर नहीं देना चाहते थे। लेकिन मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई अपमानजनक घटना पर मुख्यमंत्री की आलोचनात्मक टिप्पणी के बाद उक्त मंत्री ने आरोप लगाया कि राजस्थान भी महिला उत्पीड़न के मामले में सबसे आगे है। जब उनके तीर ज्यादा जहर बुझे हो चले तब श्री गहलोत ने उनको पद से हटा दिया और उसके बाद वे विधानसभा में एक लाल डायरी लेकर अध्यक्ष से उलझते हुए चिल्लाने लगे कि उसमें गहलोत सरकार के करोड़ों रुपए के घपलों का बखान है। सत्ता पक्ष के विधायकों के साथ उनकी झूमाझटकी हुई और फिर उनको सदन से निलंबित कर दिया गया। इसके बाद श्री गुढ़ा ने नाटकीय अंदाज में अपनी व्यथा पत्रकारों को सुनाई और दावा किया कि वे अभी और पोल खोलेंगे। कांग्रेस के लिए उनके आरोपों का खंडन करना भी कठिन हो रहा है क्योंकि कुछ दिन पहले तक तो वे खुद सरकार का हिस्सा रहे। विधानसभा से निलंबित होने के बाद उन्होंने एक मंत्री पर  बलात्कारी होने का इल्जाम लगाते हुए यहां तक कह दिया कि राजस्थान सरकार के तमाम मंत्री बलात्कारी हैं और इसे प्रमाणित करने के लिए उनका नार्को टेस्ट करवाया जाना चाहिए। लेकिन इस प्रकरण में अब तक श्री पायलट का सामने नहीं आना चौंकाता है क्योंकि श्री गुढ़ा मंत्री रहते हुए भी खुलकर उनके साथ रहते हुए गहलोत सरकार पर भ्रष्टाचार सहित अन्य आरोप लगाते रहे। इसी तरह ये भी बड़ा सवाल है कि जब श्री गुढ़ा ने गहलोत सरकार को अब तक की सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार कहा और वह भी श्री पायलट के मंच से तब मुख्यमंत्री ने उनके विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं की ? वह तो जब कांग्रेस हाईकमान ने श्री गहलोत और सचिन के बीच समझौता करवा दिया तब उनको मंत्री पद से बर्खास्त किया गया। इसमें दो राय नहीं है कि श्री गुढ़ा ने पानी में रहकर मगर से दुश्मनी करने का दुस्साहस किया। लेकिन उनको भी इस बात का स्पष्टीकरण देना चाहिए कि जिस सरकार को वे अब तक की सबसे  भ्रष्ट सरकार बताते रहे , उसे छोड़ने की नैतिकता उन्होंने क्यों नहीं दिखाई ? भ्रष्टाचार के सबूतों का जो विवरण  कथित लाल डायरी में होने का दावा श्री गुढ़ा करते हुए  आंसू बहा रहे हैं उसका खुलासा पहले क्यों  नहीं किया गया इसका जवाब भी उनसे अपेक्षित है। राजस्थान उन राज्यों में से है जहां कुछ माह बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में राजनीतिक सरगर्मियां चरम पर है। जाहिर है सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट रही है  और विपक्ष उस पर नाकामी के साथ भ्रष्ट होने का आरोप लगा रहा है। इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। कांग्रेस आलाकमान द्वारा दी गई समझाइश के बाद यद्यपि श्री पायलट ने  अपने सभी अस्त्र - शस्त्र उठाकर रख लिए जिनका उपयोग वे मुख्यमंत्री के विरुद्ध बीते दो सालों से करते आ रहे थे। लेकिन श्री गुढ़ा पूरी तरह से छुट्टा बने रहे। श्री पायलट ने उनको भी युद्धविराम हेतु राजी क्यों नहीं किया ये भी सोचने वाली बात है। मंत्री पद से बर्खास्त किए जाने के बाद श्री गुढ़ा पहले से ज्यादा आक्रामक  हो उठे और विधानसभा से निलंबित होने के बाद से  जिस तरह रो - रोकर खुद को हरिश्चंद्र का अवतार साबित करने पर तुले हैं वह देखकर हंसी भी आती है और गुस्सा भी। एक व्यक्ति  सरकार का हिस्सा रहते हुए उसे सबसे भ्रष्ट बताए और उससे चिपका भी रहे ये बात विरोधाभासी है। यदि श्री गहलोत उनको बर्खास्त करने की कार्रवाई न करते तो शायद श्री गुढ़ा अभी तक उस सरकार में मंत्री बने रहते जिसके मंत्री उनके अनुसार बलात्कारी हैं। लाल डायरी नामक जिस दस्तावेज को श्री गुढ़ा द्वारा गहलोत सरकार के काले कारनामों का पुलिंदा बताया जा रहा है उसकी सच्चाई  सामने आनी चाहिए । बेहतर हो राजस्थान उच्च न्यायालय स्वतः संज्ञान लेते हुए उसकी जांच करवाए क्योंकि जब सरकार में रहा हुआ एक व्यक्ति चिल्ला - चिल्लाकर उसी  को कठघरे में खड़ा करे तो उसे पूरी तरह नजरंदाजकरना उचित नहीं होगा।  आम तौर पर सरकार या पार्टी से हटाए जाने के बाद कोई नेता उसके विरुद्ध मुंह खोलता है। लेकिन श्री गुढ़ा तो सरकार में रहकर भी उसके विरोध में बोलते रहे और वहीं बातें मंत्री पद छिन जाने के बाद भी कह रहे हैं। यदि उनकी बातों में थोड़ी सी भी सच्चाई है तो फिर ये मुख्यमंत्री श्री गहलोत और कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनाव में जबरदस्त नुकसानदायक रहेगा । 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 27 July 2023

अविश्वास प्रस्ताव गिरने के बाद विपक्ष क्या करेगा



लोकसभा में विपक्ष द्वारा मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया गया। आगामी सप्ताह  इस पर बहस होगी जो संभवतः दो दिन चलेगी। इस प्रस्ताव को लाने के पीछे मणिपुर के संगीन हालात को कारण बताया जा रहा है। विपक्ष लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ये दबाव बनाता रहा है कि वे वहां की स्थिति पर बयान दें । हालांकि , दो महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाए जाने वाले वीडियो के सामने आने के बाद जरूर श्री मोदी ने  अपनी नाराजगी व्यक्त की किंतु उसके अलावा वे पूरे घटनाक्रम पर खामोश ही बने हुए हैं। इसका कारण क्या है यह तो वे ही बता सकेंगे किंतु गृहमंत्री ने संसद और उसके बाहर भी इस बारे में काफी कुछ कहा जिससे विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ। जब उसे लगा कि प्रधानमंत्री उस मुद्दे पर बोलने राजी नहीं हैं और सरकार भी मणिपुर के मुद्दे पर विपक्ष की इच्छानुसार लंबी चर्चा नहीं करवाना चाहती तब उसने अविश्वास प्रस्ताव रूपी अस्त्र चला । कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की ये टिप्पणी इस बारे में बेहद सटीक है कि प्रधानमंत्री को मणिपुर के बारे में बोलने के लिए बाध्य करना ही इस प्रस्ताव का उद्देश्य है। चूंकि अविश्वास प्रस्ताव उनकी सरकार के ही विरुद्ध है , लिहाजा उस पर हुई बहस का जवाब उनको देना ही पड़ेगा। यद्यपि सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्षी बैंचों से भी अनेक सांसद प्रस्ताव के विरोध और समर्थन में बोलेंगे किंतु असली आकर्षण प्रधानमंत्री का भाषण होगा क्योंकि वे उनके ऊपर हुए हर हमले का बिंदुवार जवाब तो देंगे ही  जिसके लिए वे जाने जाते हैं  किंतु लगे हाथ विपक्ष को भी घेरने में संकोच नहीं करेंगे। जबसे संसद की कार्यवाही का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण होने लगा है तबसे इस तरह के अवसरों पर समाज का एक बड़ा वर्ग भी अविश्वास प्रस्ताव पर होने वाली बहस को देखता है। अतीत में ऐसे प्रस्तावों पर सरकार गिरी भी है इसलिए लोगों में उत्सुकता बढ़ जाती है । स्व.अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अविश्वास प्रस्ताव के दौरान एक मत की कमी से गिर गई थी। वहीं 1979 में मोरार जी भाई देसाई  की सरकार के विरुद्ध विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर रोचक बात ये हुई कि एक दिन पहले सरकार के पक्ष में धुआंधार भाषण देने वाले वरिष्ट मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज प्रस्ताव पर मतदान के समय पाला बदलकर विपक्ष में जा बैठे जिससे  सरकार के पतन का रास्ता साफ हो गया। अनेक अल्पमत सरकारें जिन्हें खुद कांग्रेस ने बनवाया उसी के समर्थन वापस लेने से गिर चुकी हैं। जिनमें चौधरी चरण सिंह , चंद्रशेखर  , एच डी देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए किंतु कांग्रेस ने उन सबसे गद्दी छीन ली। इसका कारण आज तक कांग्रेस स्पष्ट नहीं कर सकी। वैसे एक सरकार भाजपा ने भी गिरवाई थी। जब 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को बिहार में लालू सरकार द्वारा रोके जाने पर  उसने केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सरकार गिरवा दी थी जिसे वह बाहर से समर्थन दे रही थी। जहां तक मोदी सरकार के विरुद्ध लाए इस अविश्वास प्रस्ताव का सवाल है तो लोकसभा में उसके पास चूंकि अपने बल पर ही बहुमत है इसलिए प्रस्ताव के पारित होने की संभावना न के बराबर है ।  इसके जरिए विपक्ष ने प्रधानमंत्री को अपना बचाव करने के लिए मजबूर करने का जो दांव चला है वह भी ज्यादा कारगर नहीं हो सकेगा क्योंकि एक तो उसके पास लोकसभा में ज्यादा अच्छे वक्ता हैं नहीं और दूसरी बात ये भी कि मणिपुर की हिंसा का जो असली  पक्ष है , मसलन मैतेई के पास ज्यादा जनसंख्या के बाद भी कम भूमि , कुकी के एकाधिकार वाले पर्वतीय क्षेत्र में अफीम की अवैध खेती , म्यांमार के रास्ते कुकी और रोहिंग्या मुस्लिमों की घुसपैठ , मादक पदार्थों और हथियारों की तस्करी के अलावा ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण की आड़ में अलगाववाद को बढ़ावा आदि बातें भी बहस के दौरान जब सामने आएंगी तब विपक्ष के पास भी उनका कोई जवाब नहीं होगा। मणिपुर में बीते कुछ सालों से जरूर भाजपा के नियंत्रण वाली सरकार है किंतु लंबे समय तक वहां कांग्रेस भी सत्ता में रही। मौजूदा मुख्यमंत्री भी भाजपा में कांग्रेस से आयात किए हुए हैं। ऐसा लगता है प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर बोलने से पहले विपक्ष को थका देने की रणनीति पर चलते रहे। उनकी बात सही साबित हुई क्योंकि मणिपुर के वर्तमान हालात को वह जिस तरह से भुनाना चाह रहा था उसमें कामयाबी नहीं मिली। यदि महिलाओं को निर्वस्त्र किए जाने वाली घटना सामने न आती तब उस राज्य की वास्तविकता से देश अनभिज्ञ ही  रहता।  लेकिन जैसे -  जैसे जानकारियां मिल रही हैं उनके बाद से तमाम भ्रांतियां दूर होती जा रही हैं। मैतेई और कुकी के बीच के विवाद में देश विरोधी ताकतों की  भूमिका भी अविश्वास प्रस्ताव के दौरान सत्ता पक्ष उजागर करने की कोशिश करेगा जिससे विपक्ष को निहत्था किया जा सके। इस अविश्वास प्रस्ताव के गिरने के बाद विपक्ष क्या करेगा ये बड़ा सवाल है । राहुल गांधी ने वहां का दौरा तो किया किंतु वे दोनों समुदायों के बीच शांति स्थापित करने की कोशिश से दूर रहे। ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव के नामंजूर हो जाने के बाद विपक्ष खाली हाथ नजर आए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि उसमें एक भी नेता ऐसा नहीं है जिसमें मणिपुर जाकर शांति स्थापित करने की क्षमता हो। जो विपक्षी नेता उस राज्य में हैं , वे भी कहां छिपे हैं, कोई नहीं जानता।


- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 26 July 2023

इसके पहले कि पूर्वोत्तर फिर समस्या बन जाए ठोस कदम उठाना जरूरी




 मणिपुर ऐसा  विषय है जिसके बारे में  देखना होगा कि  ये दो  जनजातीय समुदायों  का विवाद है या कुछ अदृश्य शक्तियां देश  के लिए नए खतरे उत्पन्न कर रही हैं। गौरतलब है कि  किसी समस्याग्रस्त क्षेत्र में शांति स्थापित होने पर देश विरोधी शक्तियां किसी दूसरे क्षेत्र में सक्रिय हो जाती हैं । नब्बे के दशक में पंजाब में आतंकवाद के खत्म होते ही कश्मीर में अलगाववादी  सिर उठाने और आतंकवाद का लम्बा दौर  चला। 2019 में दोबारा सत्ता में आने  पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाकर उस राज्य को मुख्यधारा से जोड़ने जैसा साहसिक कदम उठाया तो उसके  बाद पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने एक बार फिर सिर उठाना शुरू कर दिया और कृषि कानूनों के विरोध में किए गए किसान आंदोलन में घुसकर  पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में भारत विरोधी भावनाएं फैलाने का षडयंत्र रचा।  ब्रिटेन और कैनेडा में कार्यरत खालिस्तानी संगठन  भी जिस तेजी से सक्रिय और आक्रामक हुए उससे ये साफ हो गया कि पंजाब को आग में झोंकने की तैयारी सात समंदर पार बैठे भारत विरोधी  कर रहे हैं। हालांकि अब तक खालिस्तानी आंदोलन को अपेक्षानुसार समर्थन और सहयोग नहीं मिला । लेकिन हाल ही में मणिपुर की आग जिस तरह भड़की वह  किसी सुनियोजित षडयंत्र का इशारा है। इसका प्रमाण ये है कि   पड़ोसी मिजोरम और मेघालय भी अशांत होने  लगे हैं। उसे देखते हुए माना जा सकता है कि बात दो जनजातियों  तक सीमित न रहकर किसी विदेशी कूटरचना से जुड़ी हुई है। शुरू में  लगा कि पड़ोसी राज्य मैतेई और कुकी समुदायों के झगड़ों के कारण अशांत हुए । लेकिन जल्द ही स्पष्ट हो गया कि समूचे पूर्वोत्तर को एक बार फिर अशांत करने की चाल चली जा रही है। और इसके  पीछे वे ताकतें हैं जिन्हें इस अंचल में शांति रास नहीं आ रही। पूर्वोत्तर में घने जंगलों के  साथ ही पर्वतीय रचना होने से भी अनेक परेशानियां हैं। सबसे बड़ी बात अनेक राज्यों की सीमा का  बांग्ला देश , म्यांमार और चीन से सटा होना है जिससे  अवैध  घुसपैठ के साथ हथियार और नशीले पदार्थ भी आते हैं । अलगाववादियों के प्रशिक्षण  शिविर म्यांमार के जंगलों में होने की बात पहले भी सामने आ चुकी है। कुछ को भारतीय सेना द्वारा घुसकर नष्ट भी किया गया । बीते अनेक वर्षों से उत्तर पूर्वी राज्यों में  शांति दिखने लगी थी। सड़कों  का जाल बिछ जाने से  पर्यटकों की रुचि पूर्वोत्तर के राज्यों के प्रति बढ़ने से  अर्थव्यवस्था को भी  सहारा मिलने लगा । अलगाववादी संगठन भी ये मानने लगे कि मुख्यधारा  से जुड़कर ही उनकी विश्वसनीयता में वृद्धि होगी। ऐसे में ढाई महीने पहले मणिपुर में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने संबंधी उच्च न्यायालय के फैसले से भड़की आग जिस तरह पड़ोसी राज्यों में भी फैल रही है वह चिंता का विषय है। मेघालय और मिजोरम के साथ ही नगालैंड में भी नई - नई मांगें उठने लगी हैं। जिनसे ये आशंका है कि आने वाले दिन संकट भरे होंगे। ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए वह पूर्वोत्तर के बारे में जमीनी सच्चाई से रूबरू होकर पुख्ता कदम उठाए। प्रधानमंत्री की चुप्पी को लेकर विपक्ष का आक्रामक होना और संसद का न चलना राजनीतिक दांव पेंच का हिस्सा हैं क्योंकि श्री मोदी के बयान और संसद में चर्चा से समस्या का हल संभव नहीं है। ये कहना गलत न होगा कि मोदी सरकार  इस  संकट में बुरी तरह उलझ गई है। क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर भाजपा ने अनेक पूर्वोत्तर राज्यों में सरकार तो बना ली किंतु उनके दबाव जिस तरह से सामने आने लगे हैं उनसे निपटना आसान नहीं है। ऐसे में मणिपुर जैसी स्थिति पड़ोसी राज्यों में भी बनी तो  समस्या और विकट हो जाएगी। फिलहाल मणिपुर में राज्य और केंद्र दोनों सरकारें निशाने पर हैं । कई महीने बीतने के बाद भी  हालात ज्यों के त्यों  रहने से आलोचकों को बल मिल रहा है । लोकसभा में कांग्रेस ने अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया है जिसके जरिए वह प्रधानमंत्री को बोलने के लिए बाध्य करना चाहती है। जाहिर है ये प्रस्ताव  बहुमत के सामने टिकने वाला नहीं है। यद्यपि ,  विपक्ष  को अपनी बात कहने का अवसर मिल जायेगा किंतु इसके बाद उसके पास भी करने को कुछ नहीं बचेगा। लेकिन केंद्र सरकार को भी केवल इस बात से आत्ममुग्ध नहीं होना चाहिए कि भारी बहुमत के होते विपक्ष उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा । दरअसल मणिपुर का मुद्दा उसके गले में हड्डी की तरह फंसा हुआ है।   न तो वह हाथ पर हाथ धरे बैठने की स्थिति में  है और न ही बहुत ज्यादा सख्ती की गुंजाइश है। अफीम की तस्करी  जैसे मामले में भी खुलकर कुछ कह पाना आसान नहीं होगा। पूर्वोत्तर में लोकसभा की सीटें भले कम हों लेकिन देश की  अखंडता के लिए वह कश्मीर घाटी से कम संवेदनशील नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री को कुछ न कुछ तो ऐसा करना ही पड़ेगा जिससे देश आश्वस्त हो सके । अविश्वास प्रस्ताव के उत्तर में वे क्या बोलेंगे इस पर सभी की निगाहें लगी रहेंगी किंतु  ऐसे मामलों में बहुत सी बातें सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं की जा सकतीं  और ऐसा ही इस बार भी हो तो आश्चर्य नहीं होगा । लेकिन इसके पहले कि देश का आत्मविश्वास डगमगाये उन्हें ठोस कदम उठाना ही होंगे क्योंकि ऐसे मामलों में विलम्ब से बीमारी लाइलाज हो जाती है। कश्मीर में इसका अनुभव हो चुका है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 25 July 2023

ज्ञानवापी : पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई का विरोध अनुचित



वाराणसी में यूं तो अनेक मस्जिदें होंगी लेकिन ज्ञानवापी को लेकर ही क्यों विवाद होता रहा इसका कारण जानना कठिन नहीं है। हिंदुओं के आराध्य भगवान शंकर के जो 12 ज्योतिर्लिंग हैं उनमें सर्वाधिक श्रद्धालु जहां जाते हैं उनमें से एक है काशी विश्वनाथ । वाराणसी में इस परिसर से एकदम सटी बनी है ज्ञानवापी मस्जिद जिसके बारे में हिंदुओं का दावा है कि मुगल शासन में उसका निर्माण विश्वनाथ मंदिर की जमीन पर  जबरन किया गया था। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं कि उक्त मंदिर इस्लामिक शासकों द्वारा अनेक बार तोड़ा गया। ज्ञानवापी मस्जिद औरंगजेब की समकालीन है। उसके भीतर ही हिंदुओं की एक देवी का स्थान है जिसकी पूजा का अधिकार भी अदालत द्वारा दिया जा चुका है। अयोध्या के राम मंदिर  की तरह ही वाराणसी में ज्ञानवापी और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि से सटी शाही मस्जिद का विवाद अदालत जा पहुंचा। ज्ञानवापी के वजू खाने में शिवलिंग मिलने की खबर ने तो इस मुद्दे को और गर्मा दिया । दीवारों पर कमल सहित अनेक ऐसे प्रतीक चिन्ह भी देखने मिले जो सनातनी परंपरा का प्रमाण हैं । अदालत द्वारा अंततः ये तय किया गया कि एएसआई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) को  वास्तविकता पता लगाने का दायित्व दिया जाए। उल्लेखनीय है अयोध्या विवाद का निपटारा भी पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई में मिले प्रमाणों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने किया था। यदि मुस्लिम पक्ष  को विश्वास है कि उक्त मस्जिद के निर्माण में वहां बने हिंदू धर्म स्थान को नहीं तोड़ा गया  तब एएसआई को खुदाई करने का जो काम अदालत ने सौंपा उससे मुस्लिम पक्ष को सहमत हो जाना चाहिए । इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं करेगा कि काशी विश्वनाथ मंदिर भारत में इस्लाम के आगमन के पूर्व से ही वहां पर है। मुगल तो बहुत बाद में आए और औरंगजेब का शासन आते तक तो वह सल्तनत कई पीढ़ी पुरानी हो चुकी थी। ऐसे में जो प्रमाण सामने नजर आते हैं वे हिंदुओं के दावे की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त हैं । लेकिन मुसलमानों को ये कहने का मौका न मिले कि उनका पक्ष नहीं जाना गया , पुरातत्व सर्वेक्षण को खुदाई करने कहा गया जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए। आज मुस्लिम पक्ष की अर्जी पर उच्च न्यायालय में सुनवाई हो रही है । गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने आज से होने वाली खुदाई पर इसीलिए रोक लगा दी जिससे मुसलमान खुदाई के आदेश को चुनौती दे सकें। इस बारे में एक बात शीशे की तरह साफ है कि ज्ञानवापी विवाद का हल बातचीत से निकलने की संभावना शून्य है। दोनों पक्षों के पास अपने दावे और तर्क हैं । धार्मिक मामलों में भावनाएं भी आड़े आती हैं। ऐसे में यही तरीका बच रहता है कि खुदाई करके देख लिया जाए कि वहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई या नहीं ? यदि पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम मंदिर से जुड़े अवशेषों को ढूंढ निकालती है तब मुस्लिम पक्ष को जिद छोड़कर स्वेच्छा से मस्जिद हटाने की समझदारी दिखानी चाहिए। ऐसा ही मामला मथुरा स्थित कृष्ण जन्मभूमि का भी है। सैकड़ों साल पहले हिंदुओं के प्रमुख आराध्यों से जुड़े धर्म स्थलों से सटाकर मस्जिद बनाने वालों ने निश्चित रूप से इस्लाम के नाम पर जोर - जबरदस्ती का सहारा लिया। काशी विश्वनाथ के मंदिर को भी अनेक बार तोड़ा गया। और बाद में वहीं ज्ञानवापी खड़ी की गई।  इस्लामिक इतिहास के अच्छे - खासे जानकार भी ये बता पाने में असमर्थ हैं कि उस दौर के मुस्लिम हुक्मरानों ने ऐसी जगहों पर मस्जिदें क्यों बनाईं जिनके एकदम करीब घंटा - घड़ियाल की आवाजों के बीच मूर्ति पूजा होती हो , जो  उनके मजहब में निषिद्ध है। जाहिर है ऐसा हिन्दुओं को चिढ़ाने और डराने के लिए किया गया था। बेहतर होता आजादी के बाद ऐसे मसलों को उसी तरह सुलझा लिया जाता जिस तरह देशी रियासतों का भारत संघ में विलीनीकरण करवाया गया। लेकिन विभाजन से बने हालातों में तत्कालीन सत्ताधीश मुस्लिम तुष्टिकरण में लिप्त होकर भविष्य में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को नजरंदाज कर बैठे , जिसका दुष्परिणाम देश भोग रहा है। ये भी दुर्भाग्य है कि ज्यादातर राजनीतिक दल  ऐसे विवादों के हल में सहायक बनने की बजाय मुस्लिम वोट बैंक के लालच में सच्चाई को न व्यक्त करते हैं और न ही स्वीकार। ऐसे में ज्ञानवापी प्रकरण में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को खुदाई से रोकने का उद्देश्य मामले को टालते रहने के सिवाय और कुछ भी नहीं है।  अयोध्या में हुई खुदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की जिस टीम द्वारा की गई उसका नेतृत्व के.के मोहम्मद नामक  मुसलमान ने किया था । चूंकि खुदाई में पाए गए अवशेषों से हिंदू मंदिर होने का प्रमाण मिला इसलिए उन्होंने निःसंकोच अपनी रिपोर्ट में सच्चाई रख दी। मुस्लिम पक्ष को ऐसा ही डर ज्ञानवापी के बारे में लग रहा है । और इसीलिए वह पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई में रुकावट डालने प्रयासरत है । लेकिन मुसलमानों में थोड़े - बहुत जो लोग शिक्षित होकर आधुनिक सोच से जुड़े हैं , उनको चाहिए खुलकर आगे आएं और अपने समुदाय को बरगलाने वाले लोगों से बचने की सलाह दें। यदि खुदाई मुस्लिमों के पक्ष में गई तब ज्ञानवापी संबंधी हिंदुओं का दावा तथ्यहीन साबित हो जायेगा । लेकिन अयोध्या की तरह यहां भी हिंदू संस्कृति के प्रतीक चिन्ह मिले तब मुस्लिम नेताओं को  यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि  वह स्थान काशी विश्वनाथ का ही हिस्सा है जिस पर धर्मांध मुस्लिम शासकों ने जबरदस्ती मस्जिद खड़ी की थी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 24 July 2023

वाराणसी सम्मेलन : मंदिरों को सुव्यवस्थित बनाने की दिशा में अच्छा कदम



वाराणसी में मंदिरों की व्यवस्थाओं को लेकर आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन एक सार्थक पहल है। इसमें सनातन , बौद्ध , जैन और सिख सभी के प्रतिनिधि हैं। पहले तो केवल भारत के बाहर उन्हीं देशों में हिन्दू मंदिर थे जहां भारतीय लोगों का आना - जाना रहा। फिर बौद्ध धर्म भी पहुंचा । कंबोडिया का अंगकोर वाट तो दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मंदिर है। श्रीलंका में बौद्ध बाहुल्य होने के बावजूद अनेक हिन्दू मंदिर भी हैं। इसी तरह इंडोनेशिया वैसे तो इस्लामिक देश है किंतु वहां सांस्कृतिक विरासत के रूप में रामलीला का मंचन होता है । मारीशस , फिजी और कैरीबियन देशों में भी हिंदू मंदिर काफी पुराने हैं । और अब तो कैनेडा ,अमेरिका , ब्रिटेन सहित अनेक यूरोपीय देशों में सनातन धर्म के अनुयायियों के आस्था केंद्र मंदिरों की शक्ल में दिख जाते हैं । गुरुद्वारों और मठों की भी लंबी श्रृंखला है । इस्कान , स्वामीनारायण , रामकृष्ण मिशन और ब्रह्मर्षि मिशन जैसी संस्थाओं ने भी विश्व भर में मन्दिर स्थापित किए। भारत में तो हर कदम पर मंदिर नजर आ जाते हैं। लेकिन कुछ को छोड़कर बाकी में समुचित व्यवस्था नहीं है। सार्वजनिक स्थानों पर मंदिर बनाने की शिकायतें भी आम हैं। बड़े - बड़े मंदिरों पर कब्जे के लिए नामचीन हस्तियां लड़ती हैं। त्यौहारों के अवसर पर उचित प्रबंधन के अभाव में प्रसिद्ध मंदिरों में उमड़ने वाली भीड़ की वजह से अनेक हादसे हो चुके हैं। एक बात और जो महसूस की जा रही है कि सनातन और उससे जुड़े अन्य भारतीय धर्मों के मंदिरों में प्रशिक्षित पुजारी और अन्य सहयोगी न होने से उनकी गरिमा घट रही है। ऐसे में वाराणसी के मंदिर सम्मेलन में दुनिया भर के मंदिरों को टेंपल कनेक्ट नाम से जोड़ते हुए उनमें प्रशिक्षित पुजारी एवं अन्य कर्मचारी रखे जाने की दिशा में बढ़ाये गए कदम का अच्छा प्रभाव पड़ेगा। हो सकता है इसे धर्म के अनेक सौदागर पसंद न करें क्योंकि इससे उनकी आय का स्रोत बंद हो जायेगा किंतु भारतीय संस्कृति और धर्मों को जीवंत रखने वाले हजारों मंदिरों और मठों को व्यवस्थित स्वरूप देना उनकी प्रतिष्ठा सुरक्षित रखने के अलावा ज्यादा से ज्यादा लोगों को उनसे जोड़ने के लिए जरूरी है । देश के अनेक बड़े मंदिरों का प्रबंधन सरकार द्वारा बनाई गई समिति देखती है। धर्माचार्य इसका विरोध भी करते हैं । लेकिन दूसरी तरफ ये भी सच्चाई है कि मंदिर जैसी पवित्र जगह में भी जब उससे जुड़े लोग बेईमानी करते हैं तब दुख होता है। उस दृष्टि से यदि मंदिरों में धार्मिक तौर - तरीकों अर्थात पूजा - अनुष्ठान में विधिवत प्रशिक्षित व्यक्ति रखे जाएं तो उसका सकारात्मक प्रभाव जरूर होगा। इसके साथ ही विशेष अवसरों पर धार्मिक केंद्रों में श्रद्धालुओं की बढ़ती जा रही संख्या से जो अव्यवस्था होती है उसे रोकने के उपायों पर भी इस सम्मेलन में विचार किया जाना बुद्धिमत्तापूर्ण सोच है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब योग को संरासंघ से मान्यता दिलवाई तो दुनिया भर में उसका आकर्षण बढ़ा और तब ये महसूस हुआ कि इसके लिए प्रशिक्षित योग शिक्षकों की नितांत आवश्यकता है । उसके बाद से विभिन्न विश्व विद्यालयों में योग के पाठ्यक्रम प्रारंभ हुए और बीते कुछ वर्षों में देश ही नहीं , विदेशों तक में हजारों योग प्रशिक्षकों को रोजगार मिला। सनातन धर्म से जुड़े कर्मकांड की शिक्षा जिन गुरुकुलों में दी जाती है उनमें आने वाले छात्रों की संख्या में लगातार कमी आने का कारण रोजी - रोटी की समस्या भी है । लेकिन यदि उन्हें मंदिरों से समुचित मानदेय की व्यवस्था हो तो इस क्षेत्र में भी रोजगार सृजन के नए अवसर उत्पन्न किए जा सकते हैं। जो बातें सम्मेलन से निकलकर आई हैं उनके अनुसार विदेशों में स्थित मंदिरों में भी अच्छे पुजारी और उनके सहयोगी कर्मियों की जरूरत है । गुरुद्वारों में भी ग्रंथियों को भारत से भेजे जाने की व्यवस्था है। भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म जिस तरह से वैश्विक स्वरूप लेता जा रहा है उसे देखते हुए मंदिरों और मठों आदि की व्यवस्था में सुधार बेहद जरूरी है। इसी के साथ देश और दुनिया भर के मंदिरों को एक साथ लेकर उन सबको आधुनिक प्रबंधन के साथ इस तरह जोड़ा जाना जरूरी है जिससे उनके परिसर में अनुशासन का एहसास हो। दर्शनार्थियों की संख्या को किस तरह व्यवस्थित किया जाए जिससे कोई दुर्घटना न हो इस दिशा में विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है। पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित प्राचीन ऐतिहासिक मंदिरों में आवागमन भी समस्या है। इसके अलावा हजारों मंदिर ऐसे हैं जिनका समुचित जीर्णोद्धार कर दिया जाए तो उनका प्राचीन वैभव लौटाया जा सकता है। इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि कि मंदिर चाहे छोटा हो अथवा बड़ा , उससे केवल पुजारियों की आजीविका ही नहीं चलती। अपितु पूजन सामग्री , फूल मालाएं , धार्मिक साहित्य आदि का विक्रय करने वाले भी अपना परिवार चलाते हैं। अनेक बड़े मंदिर अपनी आय से बड़े कल्याणकारी कार्य भी करते हैं । कुछ लोग हैं इस बात का उलाहना देते हैं कि मंदिरों पर पैसा खर्च करने के बजाय अस्पताल , विद्यालय , छात्रावास और शौचालय जैसी सुविधाओं पर खर्च किया जावे। उनकी बात को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता किंतु इस बारे में भी विचार करना जरूरी है कि समाज में धर्म के प्रति झुकाव भी जरूरी है और व्यवस्थित मंदिर इस दिशा में उपयोगी हो सकते हैं। उनमें जाने से व्यक्ति में परोपकार का भाव जागता है। हाल ही में वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर परिसर के साथ ही उज्जैन के महाकाल मंदिर को नया स्वरूप दिये जाने के जो नतीजे देखने मिले उसके बाद से मंदिरों को सुंदर , सुव्यवस्थित और सुविधा संपन्न बनाने के प्रति रुझान बढ़ा है। वाराणसी में आयोजित मंदिर सम्मेलन में इस बारे में जो योजना बनेगी उसका सुपरिणाम भविष्य में नजर आने की उम्मीद की जा सकती है। बड़े धर्माचार्य भी इस पहल को संरक्षण और सहयोग दें ये भी अपेक्षा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 22 July 2023

चंद्रचूड़ का पत्र : न्यायपालिका के साथ नेताओं - नौकरशाहों पर भी निशाना



देश के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ खानदानी न्यायाधीश कहे जा सकते हैं। उनके पिता भी सबसे लंबे समय तक इसी पद पर रहे । लेकिन श्री चंद्रचूड़ की शैक्षणिक - पेशेवर योग्यता और क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता। ये कहना गलत न होगा कि न्याय की सर्वोच्च आसंदी पर उनके विराजमान होने के बाद से न्यायपालिका में काफ़ी हलचल आई है। अदालत में सख्ती के अलावा विभिन्न विषयों पर सार्वजनिक रूप से व्यक्त किये गए उनके विचारों से ये झलकता है कि वे अपनी पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीशों से काफी हटकर हैं। या यूं कहें कि वे नई पीढ़ी के उन न्यायाधीशों की अगुआई  करते हैं जो लीक से हटकर चलने में विश्वास करती है। उनके कतिपय निर्णय सरकार के लिए असुविधाजनक साबित हुए हैं । लेकिन अनेक मामलों में उन्होंने अपने न्यायिक दायित्व का निर्वहन जिस कुशलता से किया उसकी वजह से वे कुछ हद तक जनता का विश्वास जीतने में सफल हुए हैं। यद्यपि कालेजियम जैसे मुद्दों पर उनका रुख परंपरागत ही है । जिसकी आलोचना किए जाने पर किरण रिजजू को कानून मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। बावजूद उसके वे न्यायपालिका की प्रचलित छवि को बदलने के संकेत देते रहते हैं । इसका  ताजा प्रमाण है इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश गौतम चौधरी और उनकी पत्नी को रेल यात्रा के दौरान नाश्ता उपलब्ध न होने पर उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार प्रोटोकाल द्वारा रेलवे प्रबंधक को भेजे गए नोटिस पर उनकी प्रतिक्रिया । उक्त घटना के बाद श्री चंद्रचूड़ ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को प्रेषित पत्र में इस बात पर जोर दिया है कि न्यायाधीशों के लिए निर्धारित शिष्टाचार (प्रोटोकाल) का उपयोग इस तरह न किया जाए जिससे दूसरों को असुविधा हो और न्यायपालिका पर उंगलियां उठें। श्री चंद्रचूड़ ने रजिस्ट्रार प्रोटोकाल द्वारा रेलवे के प्रबंधक को भेजे नोटिस को एक न्यायाधीश की इच्छा से भेजा पत्र बताते हुए लिखा कि उनके पास रेलवे कर्मियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है। और यह भी कि शिष्टाचार को विशेषाधिकार नहीं माना जाना चहिए। उन्होंने उक्त पत्र से  सहयोगी न्यायाधीशों को अवगत करवाने का आग्रह करते हुए समझाइश दी कि न्यायपालिका के  भीतर आत्मचिंतन और परामर्श की जरूरत है। श्री चंद्रचूड़ द्वारा लिखा गया पत्र वैसे तो न्यायपालिका पर केंद्रित है किंतु यह उन सभी नेताओं , नौकरशाहों और सत्ता से अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े महानुभावों पर भी कटाक्ष है जो बतौर शिष्टाचार मिलने वाले सम्मान को अधिकार मान लेते हैं। हाल ही में रेल मंत्री अश्विन वैष्णव ने रेल मंत्रालय के दफ्तरों में भृत्य को बुलाने घंटी बजाने की प्रथा बंद करवा दी। साथ निर्देश दिया कि फील्ड या अन्यत्र काम के लिए जाने पर नाश्ते में समय नष्ट करने के बजाय काम पर ध्यान दें। उल्लेखनीय है बालासोर रेल हादसे के बाद राहत और बचाव के साथ ही दुर्घटनाग्रस्त रेल लाइन पर दोबारा यातायात शुरू होने तक वे स्वयं कई दिनों तक रेल कर्मियों के साथ मौके पर ही रहकर उनका उत्साहवर्धन करते रहे। उस दृष्टि से श्री चंद्रचूड़ ने न्यायाधीश श्री चौधरी को नाश्ता न मिलने पर रेलवे के अधिकारी को भेजे गए नोटिस पर जो परिपत्र जारी किया वह स्वागतयोग्य है। विशेष तौर पर इसलिए क्योंकि नेता और नौकरशाह तो प्रोटोकाल को लेकर चाहे जब विवादों में घिर जाते हैं लेकिन न्यायाधीशों से शासन और प्रशासन सभी भयभीत रहते हैं । इसका कारण भी सर्वविदित है। हालांकि श्री चंद्रचूड़ की समझाइश के बाद न्यायपालिका में आमूल परिवर्तन हो जाएगा ये उम्मीद करना जल्दबाजी होगी किंतु इसे शुरुआती कदम तो माना जा सकता है । वरना उच्च या सर्वोच्च न्यायालय तो बड़ी बात है , छोटी अदालत तक के  न्यायाधीश भी अपेक्षा करते हैं कि वे जहां से गुजरें बाअदब , बामुलाहिजा होशियार का ऐलान होता रहे। यद्यपि सभी न्यायाधीश सम्मान के पात्र हैं फिर चाहे वे  सर्वोच्च न्यायालय के हों या  सबसे निचली अदालत के। लेकिन इसके लिए ये भी जरूरी है कि वे उस सम्मान के साथ जुड़ी मर्यादा का उल्लंघन न करें ताकि जैसा श्री चंद्रचूड़ ने लिखा , न्यायपालिका सार्वजनिक आलोचना से बच सके। उनका ये कहना भी बहुत ही महत्वपूर्ण कि उसके भीतर इस बारे में आत्मचिंतन और परामर्श हो। यदि उनकी भावना को व्यवहारिक रूप में परिवर्तित किया जा सके तो देश में जो नव सामंतशाही है उसको खत्म करने का  रास्ता खुल सकता है। अक्सर इस मामले में लोग दूसरों को तो उपदेश देते हैं किंतु खुद अमल नहीं करते। श्री चंद्रचूड़ ने अपने कार्यक्षेत्र में जो मुहिम शुरू की वह एक राष्ट्रीय आंदोलन बनना चाहिए क्योंकि वीआईपी कल्चर ने आजादी के 75 साल बाद भी गुलामी के दौर की तमाम व्यवस्थाओं को ज्यों का त्यों जारी रखा है जो लोकशाही के अधूरेपन का जीवंत प्रमाण है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 21 July 2023

मणिपुर : राष्ट्रपति शासन लगाकर सेना की तैनाती ही एकमात्र विकल्प




उत्तर पूर्व का राज्य मणिपुर बीते ढाई महीने से पूरी तरह  अराजकता में फंसा हुआ है। मैतेई और कुकी नामक  आदिवासी समुदायों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में प्रदेश और प्रशासन दो हिस्सों में बंट गया है । एक दूसरे के हिस्से में जाना मौत को गले लगाने जैसा है। पुलिस और सशस्त्र बलों के हथियार लूटकर दोनों समूहों ने अपनी सेना बना ली है । अस्थाई तौर पर बनाए  बंकरों में नौजवान इस तरह तैनात हैं जैसे सामने शत्रु देश की सीमा हो। राजधानी इंफाल तक सुरक्षित नहीं है। प्रशासन पूरी तरह लाचार नजर आ रहा है। पूरे राज्य में खंडहर हो चुके मकान और अन्य इमारतें नजर आती हैं। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि इसके लिए राज्य की सरकार जिम्मेदार है जो उच्च न्यायालय द्वारा मैतेई समुदाय को अनु.जनजाति का दर्जा दिए जाने संबंधी फैसले के बाद उत्पन्न स्थिति से सही ढंग से निपटने में असफल रही और उपद्रवियों को नियंत्रित करने के बजाय हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखती रही। लेकिन केंद्र सरकार ने भी  आकलन में देर करते हुए राज्य सरकार की क्षमता पर  जरूरत से ज्यादा भरोसा  किया । कुकी समुदाय द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले के बाद की जाने हिंसा के बारे में खुफिया एजेंसियों द्वारा भी सही समय पर जानकारी या तो दी नहीं गई या फिर जिम्मेदार लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह भी त्यागपत्र देने का ऐलान करने के बाद पीछे हट गए । केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह  मणिपुर में कुछ दिन डेरा डाले रहे लेकिन उसका भी कोई असर नहीं हुआ। सरकारी कर्मचारी जिन स्थानों पर पदस्थ थे उन्हें छोड़कर अपने समुदाय के कब्जे वाले क्षेत्र में चले गए हैं। राज्य सरकार ने भी उनको वैसा करने की अनुमति दे दी है क्योंकि मैतेई प्रभाव वाले इलाके में कुकी की जान  खतरे में है और ऐसा ही दूसरी तरफ है। सवाल ये है कि अब तक वहां राष्ट्रपति शासन लगाकर स्थिति को संभालने का निर्णय क्यों नहीं लिया गया जबकि राज्य और केंद्र दोनों में भाजपा की ही सरकार है । मौजूदा परिस्थिति में मुख्यमंत्री बदलने से भी कुछ लाभ नहीं होगा क्योंकि राज्य में ऐसा एक भी राजनीतिक नेता नहीं है जिसे दोनों समुदायों का विश्वास हासिल हो। लेकिन इस सबके बीच गत दिवस 4 मई को मैतेई हमलवारों द्वारा एक गांव पर धावा बोलकर पकड़ी गई दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने का वीडियो सोशल मीडिया के जरिए प्रसारित होने के बाद पूरे देश में जबरदस्त रोषपूर्ण प्रतिक्रिया हुई। सर्वोच्च न्यायालय से संसद तक उसकी गूंज सुनाई दी। मणिपुर पर अब तक खामोश रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सामने आकर उक्त घटना को पूरे देश को शर्मसार करने वाला बताया। विपक्ष को भी संसद का  सत्र शुरू होते ही केंद्र सरकार को घेरने का जोरदार मुद्दा हाथ लग गया जिसका लाभ लेने में उसने लेश मात्र भी देर नहीं लगाई । आनन - फानन में  दोषी लोगों की गिरफ्तारी होने के बाद मुख्यमंत्री ने उन्हें फांसी तक पहुंचाने की बात कहते हुए शेखी तक बघारी लेकिन उनका ये कहना चौंकाने वाला है कि ऐसे हजारों मामले हैं और उसी लिए इंटरनेट बंद कर दिया गया है। सवाल ये हैं कि यदि ऐसे हजारों मामले थे तो राज्य सरकार ने अब तक क्या कदम उठाए और महिलाओं को नग्न घुमाए जाने की रिपोर्ट थाने में दर्ज हो जाने के दो महीने बाद भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई ? यदि उक्त वीडियो प्रकाश में नहीं आता तब कल जो मुस्तैदी दिखाई गई वह भी न होती। हालांकि , ये  बात विचारणीय है कि 4 मई की घटना का वीडियो संसद के  सत्र तक क्यों दबाकर रखा गया ? जाहिर है इसके पीछे भी उन ताकतों का हाथ है जो मणिपुर में लगी आग को ठंडी करने के बजाय उसे और भड़काने में जुटे हुए हैं। मणिपुर में कुकी समुदाय मूलतः म्यांमार से आकर पर्वतीय क्षेत्रों में बस गया और अभी भी सीमा पार से अवैध रूप से घुसपैठ जारी है। इनके द्वारा अफीम की खेती कर तस्करी के जरिए उसे विदेश भेजने की बात भी  सामने आ चुकी है जिसमें विदेशी हाथ होना अवश्यंभावी है। ये देखते  हुए इस राज्य को पूरी तरह स्थानीय प्रशासन के भरोसे छोड़कर रखना भूल साबित हुआ है। महिलाओं के अपमान की जो घटना सामने आई वह किसी भी दृष्टि से सहनीय नहीं है। मैतेई और कुकी समुदायों के बीच चाहे जितनी भी दुश्मनी हो लेकिन उसके लिए किसी महिला को नग्न कर उसका जुलूस निकालना जघन्यतम अपराध है जिसकी सजा भी उसी के अनुरूप दी जाए। ऐसे में अब मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाकर सेना को तैनात किए जाने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है । साथ ही  दो नग्न महिलाओं के वीडियो को अपने व्यापार का जरिया बना लेने वाले  चैनलों तथा सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों पर भी नकेल कसी जानी चाहिए क्योंकि ऐसे चित्र विकृत मानसिकता को बढ़ावा  देते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 20 July 2023

इंदिरा के साथ भी इंडिया जोड़ा गया था जिसे जनता ने पसंद नहीं किया




विपक्षी दलों ने अपने गठबंधन का नाम इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायन्स ) रख लिया। इसका उद्देश्य ये है कि भाजपा के नेतृत्व में कार्यरत एनडीए , इंडिया शब्द के विरुद्ध कुछ नहीं बोल पाएगा और विपक्ष इंडिया के नाम पर जनता को भावनात्मक तरीके से अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हो सकेगा । ये वैसा ही  है जैसे टाटा कंपनी ने  अपने नमक को देश का नमक प्रचारित कर  और अमूल ने अपने नाम के साथ टेस्ट ऑफ इंडिया  जोड़कर ग्राहकों को लुभाने की रणनीति बनाई। कांग्रेस ने भी देश आजाद होने के बाद तिरंगे को ही अपना झंडा बनाया। अंतर बस इतना रखा कि राष्ट्रध्वज में अंकित अशोक चक्र की बजाय  अपने झंडे में चरखा लगा दिया। उसका मकसद लोगों के मन में ये भाव बनाए रखना था कि कांग्रेस ही देश का प्रतिनिधित्व करती है। हालांकि कालांतर में पार्टी के विभाजन के चलते पहले बछड़ा और अब हाथ के पंजे ने चरखे का स्थान ले लिया किंतु तिरंगा आज भी यथावत है। सुनने में आया है कि विपक्ष के अनेक नेता गठबंधन का संक्षिप्त नाम इंडिया रखे जाने के पक्ष में नहीं थे । वामपंथी तो सेकुलर शब्द नहीं होने से असहमत थे। इस गठबंधन के शिल्पकार नीतीश कुमार भी कुछ और नाम चाहते थे किंतु कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जोर देकर यह नाम रखवाया । सवाल ये है कि यदि भाजपा ने एनडीए नाम को ही जारी रखा तो यूपीए ( संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ) नाम के साथ ही  गठबंधन चल सकता था क्योंकि कांग्रेस सहित अनेक दल पहले से ही उसके साथ जुड़े रहे। लेकिन जैसा समझ में  आ रहा है न सिर्फ नीतीश अपितु शरद पवार और ममता बैनर्जी भी ये एहसास नहीं करवाना चाहते कि वे कांग्रेस के नेतृत्व में काम कर रहे हैं। वैसे भी भाजपा विरोधी इस गठबंधन की बुनियाद नीतीश ने ही रखी वरना ममता कभी कांग्रेस और वामपंथियों के साथ न बैठतीं और न अरविंद केजरीवाल , कांग्रेस के। इसीलिए यूपीए की बजाय गठबंधन को कोई और नाम देने का विचार बना । लेकिन अंततः कांग्रेस ने ही अपनी पसंद का नाम तय करवा लिया। लेकिन गठबंधन का नेता कौन होगा इस पर पेच फंसा हुआ है। अभी तक हुई दो बैठकों से ये समझ में आया है कि ये गठबंधन आगामी लोकसभा चुनाव  के मद्देनजर बनाया जा रहा है। ऐसे में राज्यों के चुनाव में गैर भाजपा दलों के बीच आपसी तालमेल किस प्रकार बनेगा ये स्पष्ट नहीं है। इसकी पहली बानगी तो तेलंगाना ही है जहां के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव विपक्षी एकता के लिए नीतीश से पहले सक्रिय हुए थे परंतु उनके राज्य के चुनाव में चूंकि कांग्रेस  प्रतिद्वंदी के तौर पर सामने है इसलिए वे इस गठबंधन से दूर हो गए। यही स्थिति भविष्य में प. बंगाल की है जहां तृणमूल की कांग्रेस और वामपंथी गठबंधन से कट्टर दुश्मनी है। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी कांग्रेस को कितना हाथ रखने देगी ये भी कोई नहीं जानता। ऐसी ही स्थिति उ.प्र में भी है जहां अखिलेश यादव 2017 में राहुल के साथ गठबंधन करने का नुकसान अब तक नहीं भूले। इसीलिए बेंगलुरु बैठक में न तो गठबंधन का नेता निश्चित हो सका और न ही राज्यों में किस तरह की हिस्सेदारी होगी इसका कोई फार्मूला बना। रही बात लोकसभा सीटों के बंटवारे की तो कांग्रेस  खुद को मुखिया मानकर  फैसला करने का प्रयास करेगी तो फिर गांठ बनना तय है क्योंकि जितनी भी छोटी पार्टियां बेंगलुरु बैठक में आईं उनसे बड़े दिल की अपेक्षा करना भूल होगी। कांग्रेस की दुविधा भी ये है कि वह जितना झुकेगी बाकी पार्टियां उसे उतना ही झुकाएंगीं। ऐसे में मुंबई में होने वाली  अगली बैठक में जब नेता के नाम के साथ प्रधानमंत्री पद के  चेहरे का सवाल आएगा तब इस गठबंधन की मजबूती पता चलेगी । हालांकि इस  कवायद का ये असर हुआ कि  दिन ब दिन छोटा होता दिख रहा एनडीए अचानक अपने विस्तार में लग गया और बेंगलुरु बैठक के समय ही  भाजपा ने  दिल्ली में तीन दर्जन से ज्यादा दलों को एकत्र कर अपनी ताकत दिखाकर ये भी बता दिया कि उनमें  गठबंधन के नाम और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर आम सहमति है। उस दृष्टि  से इंडिया नामधारी  गठबंधन के सामने अभी अनेक बाधाएं हैं। आम आदमी पार्टी जैसे नए दल ने कांग्रेस को जिस तरह झुकाया उससे अन्य पार्टियां भी ऐसा करने का साहस जुटाए बिना नहीं रहेंगी। मुंबई बैठक में ये बात भी साफ हो जाएगी कि राजस्थान , म. प्र  और छत्तीसगढ़ में  आम आदमी पार्टी तथा सपा  क्या कांग्रेस के लिए मैदान छोड़ेंगी ? उल्लेखनीय है श्री केजरीवाल पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के साथ लगातार राजस्थान और छत्तीसगढ़ का दौरा कर कांग्रेस सरकार के विरुद्ध तीखे हमले कर रहे हैं। एक बात ये भी कि नीतीश और लालू प्रसाद यादव बेंगलुरु में संयुक्त पत्रकार वार्ता से पहले ही पटना लौट गए। ऐसा ही पटना बैठक के बाद आम आदमी पार्टी के नेताओं ने किया था। कहा जा रहा है नीतीश इस बात से खुश नहीं हैं कि कांग्रेस उनकी कोशिश का श्रेय लूटने के फेर में है । बेंगलुरु में लगाए गए बैनर - पोस्टरों पर भी सोनिया , राहुल और मल्लिकार्जुन खरगे को प्रमुखता से उभारा गया जबकि बाकी विपक्षी नेताओं के चित्र छोटे कर दिए गए। दरअसल यह गठबंधन नीतीश द्वारा खुद को श्री मोदी के समकक्ष साबित करने के मकसद से बनाया गया था किंतु कांग्रेस जिस तरह से उन्हें पीछे धकेलकर आगे आने के प्रयास में है , उससे वे चौकन्ना हो उठे हैं। 1974 में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा का जो नारा दिया  , उसे जनता ने पूरी तरह ठुकरा दिया था। लगभग आधी सदी के बाद कांग्रेस एक बार फिर इंडिया शब्द को भुनाने का  प्रयास कर रही है। देखना है इस बार क्या होता है? 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 19 July 2023

अमेरिका और इटली की खबरों से हमें भी सावधान हो जाना चाहिए




वैसे तो दुनिया में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिस पर लगातार लिखा जा सकता है किंतु कुछ खबरें ऐसी होती हैं जो हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों पर गहरा असर डालने वाली होने के बावजूद महज इसलिए नजरंदाज कर दी जाती हैं क्योंकि उनमें सनसनी नहीं है। ऐसा ही समाचार है ,अमेरिका के कैलिफोर्निया में तापमान का 55 और इटली में 50 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाना। वहां ये गर्मियों का मौसम है लेकिन पारा अरब के मरुस्थली देशों के बराबर जा पहुंचे ये खबर दिल को दहलाने वाली है। जिन देशों को ठंडा मानकर सैलानी अपनी गर्मियां बिताने जाते हैं , उनमें भी तापमान का आंकड़ा अर्धशतक पार करने लगे तो इसे साधारण बात मानकर उपेक्षित करना बहुत बड़ी मूर्खता होगी। कैलिफोर्निया , अमेरिका का वह हिस्सा है जहां का तापमान न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन की अपेक्षा ज्यादा रहता है। वहां रह रहे भारतीय इस बात से खुश रहते हैं कि उनको अमेरिका की कंपकपाने वाली सर्दी  का सामना नहीं करना पड़ता । इसी तरह इटली पर्यटकों की पसंदीदा जगह है। वहां के समुद्र तट अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन जो ताजा हालात हैं उनमें कैलिफोर्निया और इटली दोनों भारत के जैसलमेर और अरब के रेगिस्तानी इलाकों की गर्मियों का एहसास करवा रहे हैं जहां तापमान 50 डिग्री के पार जाना साधारण बात होती है।  यूरोप के इस देश में चल रही ग्रीष्म लहर जिस तरह से लोगों को हलाकान कर रही है वह केवल इटली या इस महाद्वीप के ही नहीं वरन समूचे विश्व के लिए चिंता का कारण है ।  इसके माध्यम से प्रकृति अपने बदलते स्वभाव का ऐलान कर रही है। दरअसल जब यूरोप के किसी देश में तापमान 50 डिग्री जाने लगे तब ये सोचना कठिन नहीं होगा कि पृथ्वी गर्म हो रही है और अब उसके ध्रुवों के नजदीक रहने वाले भी सूरज से निकलती आग से नहीं बच सकेंगे। सबसे बड़ी बात ये है कि यूरोपीय देशों में साल दर साल बढ़ती गर्मी से उत्तरी ध्रुव के हिमशैल (ग्लेशियर ) लगातार छोटे होते जा रहे हैं । समय - समय पर बर्फ के विशालकाय टुकड़े टूटकर समुद्र में आने लगे हैं। ये स्थिति वाकई दहलाने वाली है। दुनिया के नष्ट होने की जो भविष्यवाणियां समय - समय पर की गईं वे भले ही  मजाक का पात्र बनती रही हों किंतु यदि पृथ्वी के उन हिस्सों में जहां की गर्मियां भी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों से ज्यादा ठंडी रहती थीं,तापमान रेगिस्तान का एहसास करवाने लगे तब इसे साधारण मान लेना  भावी पीढ़ियों के भविष्य को झुलसने के लिए छोड़ देने जैसा होगा। अमेरिका और इटली की गिनती विकसित और संपन्न देशों में होती है जो पर्यावरण संरक्षण के लिए  भारत जैसे विकासशील देश की तुलना में कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं। हमारे देश में जहां जाएं गंदगी नजर आती है। वायु प्रदूषण के अलावा शुद्ध पेयजल भी सभी को सुलभ नहीं है। गंगा जैसी पवित्र मानी जाने वाली नदी भी लाख प्रयासों के बाद प्रदूषित हो गई है। देश की राजधानी में बहने वाली दूसरी पवित्र नदी यमुना का जल तो किसी नाले से भी बदतर है।  सैकड़ों छोटी नदियां लुप्त होने के कगार पर हैं। हिमालय अपनी मजबूती खोने के प्रमाण लगातार दे रहा है। गर्मियों में तापमान का 45 डिग्री पार कर जाना मामूली हो गया है। दिल्ली की हवा में समाया धुंआ दमघोंटू हो जाता है। वाहनों की बेतहाशा संख्या की वजह से छोटे - बड़े सभी शहर प्रदूषण का शिकार हैं। इसका असर वनों पर भी पड़ रहा है। बढ़ते तापमान से हरियाली वाले इलाके भी अब सूखने लगे हैं। भूजल स्तर लगातार घटने से नई समस्या उत्पन्न हो रही है। 2030 तक पृथ्वी  को गर्म होने से रोकने के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय संधि हुई थी वह कोविड के बाद बेमानी होकर रह गई। पहाड़ों पर सैलानियों द्वारा छोड़ा कचरा उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। अब तो अंतरिक्ष में भी बेकार हो चुके उपग्रह और रॉकेट समस्या बन रहे हैं। समूचे परिदृश्य पर नजर डालें तो विकास की दौड़ अब विनाश के रास्ते पर बढ़ चली है। ये सब अचानक नहीं हुआ । इसके बारे में चेतावनियां भी लगातार मिलती रहीं किंतु उनके प्रति उपेक्षाभाव और लापरवाही के कारण धीरे - धीरे जो स्थितियां निर्मित हुईं उनका चरमोत्कर्ष अमेरिका और इटली से आ रही खबरों से  पता चलता है। हालांकि , काफी देर हो चुकी है किंतु अभी भी सब कुछ हाथ से नहीं निकला । दूसरे देशों में क्या हो रहा है इसकी बजाय हमें ये देखना चाहिए। कि  हम अपने निकट के  पर्यावरण को नष्ट होने से बचाने क्या कर सकते हैं ? देश में जहां देखो वहां पौधारोपण होता रहता है। नेताओं के अलावा विभिन्न सामाजिक संगठन और व्यक्तिगत स्तर पर भी इस बारे में जागरूकता दिखाई देती है। लेकिन ये भी सोचने वाली बात है कि बीते दस साल में जितने पौधे रोपे गए यदि वे ही विकसित हुए होते तो हर शहर हरा - भरा नजर आता। विकास कार्य हेतु बड़े - बड़े वृक्षों की कटाई तो आनन - फानन कर दी जाती है लेकिन उसके बदले जो पौधे लगाए जाते हैं उनमें से ज्यादातर पनपने से पहले ही सूख जाते हैं। ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि विकास की समूची परिभाषा समयानुकूल बदली जावे। नए राजमार्ग बनने से सड़क यातायात सुलभ हुआ है लेकिन उसके लिए जिस पैमाने पर वृक्षों का कत्ल किया गया उसकी भरपाई नहीं होने से  इन विश्वस्तरीय सड़कों में रूखेपन का एहसास होता है। ये देखते हुए इटली और  अमेरिका के अलावा ब्रिटेन जैसे ठंडे देशों में बढ़ते तापमान की खबरों से हमें सचेत हो जाना चाहिए । आग लगने के बाद कुआ खोदने की प्रवृत्ति त्यागकर आने वाले खतरों का मुकाबला करने की तैयारी समय की मांग है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 18 July 2023

नकली गरीबों का पर्दाफाश किए बिना सच्चाई सामने नहीं आयेगी





किसी बात को जोर देकर कहना हो तो आंकड़ों का सहारा लेकर ये साबित करने की कोशिश होती है कि वे पर्याप्त अध्ययन के उपरांत एकत्र किए तथ्यों  पर आधारित हैं। हालांकि , अब चंद अपवाद छोड़ कुछ भी गोपनीय नहीं रह गया है किंतु जब सरकार किसी विषय पर आंकड़े पेश करती है तब  उन पर यकीन हो अथवा न हो,   लेकिन उन्हें ही अधिकृत माना जाता है। उस दृष्टि से आज गरीबी को लेकर नीति आयोग के जो आंकड़े सार्वजनिक किए गए उनके अनुसार 2015 - 16 और 2019 - 20 के बीच लगभग 10 (9.89) प्रतिशत लोग गरीबी से उबर गए। बहुआयामी गरीबी सूचकांक ( मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स) के अंतर्गत  एकत्र की गई जानकारी का विश्लेषण करने के बाद जारी उक्त आंकड़ों में ये भी बताया गया है कि किस राज्य में गरीबी कितनी कम हुई ? इसके साथ ही शिक्षा , स्वास्थ्य , पोषण , मृत्यु दर तथा जीवन स्तर के बारे में भी जानकारी जुटाकर जनता के संज्ञान में लाई गई है। उल्लेखनीय है मोदी सरकार ने योजना आयोग भंग करने के उपरांत उसे  नीति आयोग के नाम से पुनर्गठित किया और इसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल करते हुए इसकी गतिविधियों को पेशेवर रूप देने का प्रयास किया । आयोग द्वारा समय - समय पर आर्थिक और समाजिक मुद्दों पर अपनी रिपोर्ट और निष्कर्ष सार्वजनिक किए जाते रहे हैं। उनकी सच्चाई पर बहस भी हुई और सवाल भी उठे । लेकिन गरीबी में कमी आने की जो जानकारी सामने आई उसका समय बेहद महत्वपूर्ण है। कुछ महीनों के भीतर चार - पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उसके बाद 2024 के अप्रैल - मई में लोकसभा का महा - मुकाबला होगा। ऐसे में ये कहना गलत न होगा कि नीति आयोग द्वारा गरीबी के जो आंकड़े प्रसारित किए गए वे दरअसल सरकार की चुनावी रणनीति के  हिस्से हैं । इन आंकड़ों से ये दर्शाने का प्रयास किया गया है कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जो कार्य हुए उनके परिणामस्वरूप गरीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और उनमें से तकरीबन 10 फीसदी उस शर्मनाक दायरे से निकल आए। इनमें राज्यों की स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है। चौंकाने वाली बात ये भी है कि बिहार में गरीबी के चक्रव्यूह से बाहर आने में 18 प्रतिशत लोग कामयाब हुए। यद्यपि अभी भी वहां  34 फीसदी लोग गरीबी की गिरफ्त में बने हुए हैं। नीति आयोग के आंकड़ों को बिना किसी ठोस आधार के  प्रथम दृष्टया नकारना तो उचित नहीं प्रतीत होता किंतु इस बारे में ये अवश्य कहा जा सकता है कि ये सुखद स्थिति कोरोना महामारी के पूर्व की है। ये बात सभी स्वीकार करेंगे कि वर्ष 2020 , 21 और 22 के दौरान उक्त महामारी ने  दुनिया के आर्थिक और सामाजिक हालातों को सिरे से उलट - पुलट दिया और भारत भी उससे अछूता नहीं रहा। मार्च 2020 में पहला लॉक डाउन लगते ही केंद्र सरकार ने गरीबों को निःशुल्क अनाज देने की जो व्यवस्था की थी , वह अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौट आने के दावों के बीच भी जारी है । चूंकि देश में पूरे पांच साल कहीं न कहीं  चुनाव होते रहते हैं , इसलिए अब किसी भी सरकार के लिए इस सुविधा को बंद करना आत्महत्या जैसा होगा। इसके अलावा विभिन्न राज्य सरकारें वोट बैंक को मजबूत करने के लिए गरीबी के दायरे में आने वालों को नगद राशि के अलावा , सस्ता रसोई गैस सिलेंडर , मुफ्त में बिजली , चिकित्सा, शिक्षा तथा ऐसे ही मुफ्त उपहार बांट रही हैं । उन्हें देखते हुए गरीबी घटने संबंधी उक्त आंकड़ों पर सहसा विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है। ये कुछ वैसा ही है जब कुछ चीजों के दाम आसमान छूने के दौरान सरकार महंगाई में कमी आने का दावा आंकड़ों के साथ पेश करती है। हालांकि , ये बात भी सही है कि गरीबों की असली संख्या में भी बहुत विसंगतियां हैं। मसलन आयुष्मान योजना का लाभ उठाने आर्थिक तौर पर अनेक संपन्न लोग भी गरीबों की सूची में शामिल हो गए। इसी तरह जिन गरीबों को हर माह मुफ्त अनाज मिलता है उनमें से तमाम लोग उसे सस्ते मूल्य पर किराने की दुकान में बेचकर नगदी प्राप्त कर लेते हैं। बीते कुछ सालों में आधार कार्ड से संबद्ध होने के बाद बहुत बड़ी संख्या में राशन कार्ड रद्द किए गए। ये सब देखते हुए गरीबी संबंधी जो बहुआयामी आंकड़े नीति आयोग ने पेश किए उनकी पुष्टि तभी हो सकेगी जब कोरोना के बाद की तुलनात्मक स्थिति भी सामने आए। दरअसल गरीबी , बेरोजगारी और महंगाई के बारे में सरकारी आंकड़े सही होने के बाद भी सही नहीं लगते क्योंकि उनको एकत्र करने वाले भी सरकार के ही लोग होते हैं। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उसके बाद देश ने विभिन्न मोर्चों पर उल्लेखनीय प्रगति की लेकिन उसके साथ ही गरीबी रेखा से नीचे की स्थिति भी पैदा हो गई , जो परस्पर विरोधाभासी है। अब गरीबी है , तो बेरोजगारी भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी ही। समय आ है जब आंकड़ों की बाजीगरी से ऊपर उठकर समस्या के वास्तविक स्वरूप और आकार को स्वीकार कर उसके समयबद्ध समाधान की इच्छा शक्ति उत्पन्न की जाए। जो देश मंगल और चंद्रमा पर अपना यान भेजने को तैयार है और जिसकी अर्थव्यवस्था पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन गई है वहां गरीबी और बेरोजगारी जैसे शब्द किसी कलंक से कम नहीं है । लेकिन ये तभी दूर हो सकते हैं जब निठल्ले बैठे लोगों को  घर बैठे खिलाने के बजाय उनसे मेहनत - मशक्कत करवाने की व्यवस्था हो। कृत्रिम गरीबों का पर्दाफाश भी होना चाहिए। सरकारी जमीन पर झुग्गी बनाकर , मुफ्त की  बिजली से डिश टीवी चलाने वाले , स्कूटर और मोबाइल फोन पर दिन भर बतियाने वाले , नवयुवकों को गरीब मानकर उनका पेट भरना देश के भविष्य को अंधकारमय बनाने जैसा होगा। इस बात को हमारे राजनेता जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा। वरना आंकड़ों से  दिल बहलाने का ये सिलसिला यूं ही जारी रहेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 17 July 2023

गठबंधन राजनीति में अवसरवादियों के दोनों हाथों में लड्डू




बैंगलुरु में कांग्रेस द्वारा आमंत्रित 26 दलों की बैठक में विपक्षी एकता का ताना - बाना बुना जाएगा। उधर दिल्ली में भाजपा ने जो बैठक बुलाई है उसमें 30 दलों के शामिल होने का दावा है।  अंतर ये हैं कि बेंगलुरु में जमा  विपक्षी दलों के गठबंधन का नाम तक निश्चित नहीं हुआ । प्रधानमंत्री पद को लेकर भी असमंजस है । दूसरी तरफ  भाजपा प्रायोजित  बैठक जिस एनडीए के बैनर तले हो रही है उसकी ओर से  नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार होंगे। गौरतलब है भाजपा के पास जहां लोकसभा में अपना स्पष्ट बहुमत है वहीं कांग्रेस  अर्धशतक पर ही सिमटी हुई है । इसीलिये  शरद पवार, ममता बैनर्जी ,  लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार , और स्टालिन जैसे नेता  उस पर हावी रहते हैं। आम आदमी पार्टी ने भी बेंगलुरु बैठक में आने  जो शर्त रखी उसे कांग्रेस को स्वीकार करना पड़ा। और फिर इस बैठक के पहले ही महाराष्ट्र में एनसीपी  टूट गई । विपक्षी एकता की मुहिम के जवाब में भाजपा ने भी एनडीए का कुनबा बढ़ाते हुए जीतनराम मांझी और ओमप्रकाश राजभर के अलावा आंध्र की एक क्षेत्रीय पार्टी को भी अपने पाले में खींच लिया। ये भी चर्चा है कि महाराष्ट्र जैसा धमाका बिहार में भी होने वाला है । चचाओं के अनुसार जनता दल (यू) के अनेक विधायक और  नेता लालू की पार्टी आरजेडी को जरूरत से ज्यादा खुला हाथ दिए जाने से नाराज हैं। तेजस्वी का नाम नौकरी घोटाले की चार्जशीट में आ जाने के बाद नीतीश की पार्टी में ये भय व्याप्त है कि लालू  परिवार द्वारा किए गए भ्रष्टाचार  से उसकी छवि भी खराब हो जायेगी। इसलिए उससे पिंड छुड़ा लिया जाए।  भाजपा इस स्थिति का लाभ लेने तैयार बैठी है । ऐसे में  नीतीश सरकार खतरे में पड़ी तब उसका सीधा असर विपक्ष के गठबंधन पर पड़ेगा । इस प्रकार  2024 के लोकसभा चुनाव के लिए दोनों पक्ष अपने खेमे को ताकतवर बनाने में जुटे हुए हैं । लेकिन इसमें सैद्धांतिक या वैचारिक पक्ष के लिए कोई स्थान नहीं है। अवसरवाद और उपयोगितावाद के मुताबिक नेताओं का इस या उस गठबंधन से जुड़ने  का सिलसिला जारी है। दिल्ली और पंजाब में  कांग्रेस की जड़ें खोदने वाले अरविंद केजरीवाल कांग्रेस की गोद में बैठने मात्र इसलिए राजी हो गए क्योंकि उसने केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश का विरोध करने की मांग मान ली। इसी तरह  की सौदेबाजी उ.प्र में ओमप्रकाश राजभर के साथ भाजपा ने की जिसके बाद वे एनडीए का हिस्सा बनने राजी हो गए । खबर ये भी है कि उनको योगी मंत्रीमंडल में शामिल किया जा रहा है। ज्ञातव्य है श्री राजभर पहले भी भाजपा के साथ मिलकर सत्ता में रह चुके हैं। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने अखिलेश यादव के साथ मिलकर भाजपा को हराने में पूरी ताकत झोंकी किंतु असफलता हाथ लगी तो  उनके विरुद्ध बयानबाजी करने लगे और अब मौका मिलते ही भाजपा के साथ आकर सत्ता की रेवड़ी खाने का इंतजाम कर लिया। महाराष्ट्र में अजीत पवार और भाजपा के बीच जिस तरह की बयानबाजी अतीत में हुई उसको देखने के बाद उनका एकाएक हृदय परिवर्तन क्यों हुआ ये बताने की जरूरत नहीं है । भाजपा ने भी अजीत को भ्रष्ट साबित करने क्या कुछ नहीं कहा ? लेकिन अब वे महाराष्ट्र सरकार में उप मुख्यमंत्री बन बैठे। ज्यों- ज्यों लोकसभा चुनाव नजदीक आते जायेंगे त्यों - त्यों ऐसा आवागमन देखने मिलता रहेगा। राजनीति में  रहने वाले कहें कुछ भी किंतु उनके मन में ले - देकर सत्ता ही घूमती रहती है। इस बारे में अजीत पवार की स्पष्टवादिता अच्छी लगी जो बिना लाग लपेट के कहते हैं कि उनका लक्ष्य मुख्यमंत्री बनना है। ओमप्रकाश राजभर भी अखिलेश के साथ  इस उम्मीद से जुड़े थे कि उनकी सत्ता आने वाली थी किंतु जब वह उम्मीद पूरी नहीं हुई तो उन्होंने उसी भाजपा के साथ दोबारा याराना बिठा लिया जिसे कुछ दिन पहले तक जी भरकर गरियाया था। सवाल ये है कि किसी पार्टी का नेतृत्व दूसरी पार्टी से आए नेता के लिए घर के दरवाजे खोलने के लिए अपने परिवारजनों से पूछे बिना ही फैसला कैसे कर लेता है? अजीत पवार अब तक दो बार भाजपा के साथ आकर उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं।  लेकिन दोनों बार इसकी जानकारी भाजपा कार्यकर्ताओं भी तभी मिली जब शपथ ग्रहण का समाचार प्रसारित होने लगा। इसी तरह दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस जन किसी भी सूरत में आम आदमी पार्टी से नजदीकी नहीं चाहते लेकिन पार्टी के आला नेतृत्व ने उसकी जिद के सामने झुकते हुए दिल्ली सरकार संबंधी  अध्यादेश के विरोध का आश्वासन दे दिया जबकि  कांग्रेस के  अनेक नेताओं ने उक्त अध्यादेश का स्वागत किया है। इसी तरह जीतनराम मांझी और ओमप्रकाश राजभर जैसे नेताओं को अपने साथ बिठाने से भाजपा की वजनदारी घटती है। उस पर आजकल ये आरोप लगता है कि वह सत्ता की लालच में बेमेल समझौते कर रही है और अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हुए बाहर से आए मौकापरस्तों  को उपकृत करने में तनिक भी संकोच नहीं  करती। कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है जिसने राहुल गांधी को पप्पू नाम देने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पार्टी को तहस नहस करवा दिया। हार्दिक पंड्या और कन्हैयाकुमार भी ऐसे ही उदाहरण हैं। अब आम आदमी पार्टी के सामने झुककर उसने दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस जनों की स्थिति हास्यास्पद बना दी है। बीते कुछ समय से ये आवागमन कुछ ज्यादा ही तेज हो चला है जिसके कारण राजनीतिक दलों की अपनी पहिचान नष्ट हो रही है। यद्यपि ,  इसकी चिंता बेमानी हो गई है क्योंकि चुनाव तो नेता के चेहरे पर लड़ा जाने लगा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 15 July 2023

समान नागरिक संहिता : मुस्लिम समाज अधिक जागरूक




समान नागरिक संहिता को लेकर विधि आयोग द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों से आपत्तियां और सुझाव भेजने की अपील की गई थी । कल उसकी अंतिम तिथि तक विभिन्न  व्यक्तियों  और धार्मिक संगठनों के अलावा  अन्य संस्थाओं से 60 लाख सुझाव आने के बाद अंतिम तिथि 28 जुलाई कर दी गई है। ऐसा क्यों किया गया इसका कारण तो स्पष्ट नहीं हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार किसी को ये कहने का अवसर नहीं देना चाहती कि उसे अपनी बात रखने का मौका नहीं मिला। गौरतलब है 2018 में इस पर  मात्र 76 हजार सुझाव आये थे। भारत के अलावा कैनेडा , ब्रिटेन और खाड़ी देशों से भी बड़ी संख्या में सुझाव और आपत्तियां प्राप्त होने से  साबित हो गया कि इस मुद्दे पर विदेशों में रहने वाले भारतीयों के मन में भी काफी उत्सुकता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार विधि आयोग को मिले सुझाव और आपत्तियों में मुस्लिम संगठनों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा रही  क्योंकि समान नागरिकता संहिता  का सबसे ज्यादा प्रभाव उन्हीं पर पड़ने की संभावना है। हालांकि ,  जैसी चर्चा है उसके अनुसार हिंदू , जैन , सिख समुदायों पर भी  कुछ असर पड़ेगा जिसे लेकर प्रतिक्रियाएं आई भी हैं। आदिवासी समुदाय को तो नई संहिता से बाहर रखने की बात भी कही गई है। लेकिन ज्यादतार मामलों में मुस्लिम  समाज के पारिवारिक और सामाजिक रीति - रिवाजों  में ही चूंकि बदलाव की संभावना है इसलिए उसकी सक्रियता लाजमी है ।  उस दृष्टि से हिंदुओं के लिए ये शोचनीय स्थिति है जिनमें से अधिकतर चाहते तो ये हैं कि समान नागरिक संहिता लागू हो किंतु जितनी जागरूकता और सक्रियता मुस्लिम समुदाय प्रदर्शित करता है उतनी हिंदुओं में नहीं पाई जाती । हालांकि धार्मिक मामलों में जैन और सिख समुदाय भी काफी संगठित और मुखर है किंतु मुसलमानों में इस्लाम और उससे जुड़ी परंपराओं के प्रति कुछ ज्यादा ही लगाव है।  समान नागरिक संहिता जैसे मसले पर जिस तत्परता से मुस्लिम धर्म गुरु , संगठन और राजनीतिक नेता सामने आए वह इसका प्रमाण है। 14 जुलाई तक 60 लाख सुझाव और आपत्तियां आने के बाद विधि आयोग द्वारा अंतिम तिथि बढ़ाकर 28 जुलाई तक बढ़ाए जाने से ये संकेत मिला है कि संसद के मानसून सत्र में समान नागरिक संहिता का विधेयक प्रस्तुत करने का इरादा केंद्र सरकार द्वारा टाल दिया गया है। पहले ये कहा जा रहा था कि इसके पीछे भाजपा की ये रणनीति है  है कि म.प्र , छत्तीसगढ़  और राजस्थान के विधानसभा चुनाव के पूर्व समान नागरिक संहिता का विधेयक संसद में पारित करवा लिया जावे । यहां तक कि जबसे प्रधानमंत्री द्वारा इसकी चर्चा छेड़ी गई तभी से इस पर खूब बहस चल रही है। वहीं मुस्लिम समाज में  इसको लेकर नाराजगी के साथ भय भी देखा जा रहा है । इसके पीछे मुल्ला - मौलवियों की भूमिका ज्यादा है जिन्हें इस बात का अंदेशा है कि  उनकी पूछ - परख घट जाएगी। मुस्लिम समाज के लोग शरीयत से बंधे होने के कारण छोटी - छोटी बातों और विवादों के हल के लिए मौलवियों की शरण में  आते हैं। विशेष रूप से विवाह और तलाक जैसे विषयों पर वैसा करना उनकी मजबूरी है । समान नागरिक संहिता ऐसे मामलों में  चूंकि बड़े बदलाव का कारण बनेगी लिहाजा पुरुष वर्ग के साथ ही मौलवियों में भी घबराहट है और इसीलिए उनकी आपत्तियों की संख्या  ज्यादा है। महत्वपूर्ण बात ये है कि  प्रस्तावित संहिता का प्रारूप सामने नहीं आने से  तरह - तरह की अफवाहें भी फैलाई जा रही हैं। मसलन मुस्लिमों को विवाह के समय फेरे लगाने पड़ेंगे और अंतिम संस्कार  अग्नि पर होगा न कि दफनाकर। यद्यपि अनेक सर्वे ये बता रहे हैं कि मुस्लिम महिलाओं में इस बात को लेकर काफी खुशी है कि समान नागरिक संहिता उनको तलाक और पारिवारिक संपत्ति में हिस्से जैसे अनेक अधिकार देगी । 28 जुलाई तक आने वाले सुझाव और आपत्तियों का अवलोकन करने में लंबा समय लगने की बात पर  ये भी कहा जा रहा है कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इसको जल्दबाजी में लागू करने के पक्ष में नहीं है । उसका सोचना है लोकसभा चुनाव में इसे बड़ा मुद्दा बनाने से ज्यादा लाभ होगा। हालांकि जिन राज्यों में निकट भविष्य में चुनाव हैं उनमें भी समान नागरिक संहिता की चर्चा तो है। विधि आयोग जो रिपोर्ट बनाएगा वह निश्चित तौर पर काफी निर्णायक होगी। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा लाभ ये  हुआ कि शाहीन बाग जैसा तमाशा दोहराने के इच्छुक लोगों को शरारत का मौका नहीं मिला।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 14 July 2023

देश की राजधानी के ये हाल हैं तो ...



देश  की राजधानी इन दिनों पानी - पानी हो गई है। जिस यमुना को प्रदूषण का पर्यायवाची मान लिया गया है वह जबरदस्त  उफान पर है। उसका जल मानव निर्मित अवरोधों को धता बताते हुए भीतर तक घुस आया है । इसकी वजह से सारी व्यवस्थाएं अस्त व्यस्त हो चली हैं। दिल्ली सरकार अपने को असहाय महसूस करने के बाद सेना से मदद मांग रही है। स्थिति की गंभीरता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी हजारों कि.मी दूर फ्रांस से भी दिल्ली के ताजा हालात पता कर रहे हैं । शिक्षण संस्थानों , विशेष रूप से विद्यालयों में तो पहले से ही अवकाश घोषित कर दिया गया है। हालांकि ये स्थिति केवल दिल्ली की नहीं है। इस साल मानसून आने के साथ ही राजस्थान ,  गुजरात , हिमाचल और दिल्ली में असाधारण तौर पर ज्यादा वर्षा होने से  सभी निकटवर्ती नदियां उफान पर हैं। राजस्थान में रेगिस्तानी इलाकों से सटे शहरों तक में जल प्लावन के नजारे हैं। यद्यपि ये कोई अनोखा अनुभव नहीं है। प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य में ऐसे हालात बनते हैं। कुछ दिन तो खूब हल्ला मचता है । शासन - प्रशासन के अलावा जनप्रतिनिधि गण, स्वयंसेवी संगठन तथा धर्मादा संस्थाएं राहत कार्यों में सहयोग देते हैं । आपदा प्रबंधन की टीमों के साथ सेना भी बचाव अभियान में जुटती है । ऐसे समय सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है प्रभावित इलाकों में राहत और बचाव की व्यवस्था करना। उस दृष्टि से जितना हो सकता है किया भी  जाता है। दिल्ली , राजस्थान , हिमाचल और पंजाब सभी में स्थानीय प्रशासन  जरूरत पड़ने पर सेना की सहायता भी ले रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी सेना से मदद मांगी है। लेकिन इसका आशय ये भी है कि राज्य सरकार के पास इस तरह के हालात से निपटने के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। और इसका कारण ये है कि किसी दुर्घटना और प्राकृतिक आपदा के समय राहत और बचाव का काम तो खूब होता है किंतु इसकी पुनरावृत्ति न हो , इस बारे में सोचने की बुद्धिमत्ता नहीं दिखाई जाती । 2014 में देश की सत्ता संभालते ही श्री मोदी ने 100 स्मार्ट सिटी की महत्वाकांक्षी योजना प्रारंभ की थी। इसके अंतर्गत चुनिंदा  शहरों में  सुनियोजित विकास का ढांचा खड़ा करने की योजना बनी । करोड़ों रुपए इन शहरों को दिए भी गए । कुछ में तो अच्छा काम हुआ , और हो रहा है , लेकिन ज्यादातर में जनता के धन की होली जलाई जा रही है। उसके पहले भी शहरों के विकास को लेकर जो अदूरदर्शी रवैया रहा उसी का दुष्परिणाम वर्षा काल में देखने मिलता है। जहां तक बात दिल्ली की है तो  वह केवल एक महानगर नहीं रहा। अपितु उसके साथ हरियाणा का गुरुग्राम ( गुड़गांव ) और उ.प्र के नोएडा तथा गाजियाबाद जैसे शहर जोड़कर एनसीआर ( राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ) नामक वृहत स्वरूप दे दिया गया है। बढ़ती आबादी की वजह से राजधानी के  समीपवर्ती इलाकों में आवासीय क्षेत्र विकसित करना जरूरी भी था और मजबूरी भी किंतु ऐसा करते समय भविष्य की जरूरतों का ध्यान नेताओं और नौकरशाहों ने नहीं रखा जिसकी वजह से दो शहरों के बीच का खाली स्थान भी कांक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुका है। कुछ समय पूर्व म.प्र की राजधानी भोपाल में सरकार के सचिवालय में आग लग गई । बहुमंजिला इमारत होने से स्थानीय निकाय के पास अग्निशमन की जो व्यवस्था थी वह उतनी ऊंचाई की आग बुझाने में असमर्थ नजर आई । जिसके बाद वायुसेना  की मदद हेतु खुद मुख्यमंत्री ने गुहार लगाई। आजकल मझोले किस्म के शहरों तक में बहुमंजिला अट्टालिकाएं तानी जा रही हैं किंतु अग्निशमन की व्यवस्था दो - चार मंजिल से ज्यादा नहीं होने से लोगों की जान खतरे में बनी रहती है। दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे शहरों में यदि बाढ़ का पानी भरता है तो फिर ये कहना गलत नहीं होगा कि विकास की जो योजना बनाई गई उसमें दूरदर्शिता का नितांत अभाव था या फिर वह आज की जरूरत के लिहाज से अपर्याप्त हो चुकी है।  राष्ट्रीय राजधानी और अन्य प्रमुख शहर देश की छवि प्रदर्शित करते हैं। लेकिन मुंबई , चेन्नई , कोलकाता , बेंगलुरु इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसका कारण अनियोजित विकास और तदर्थ सोच ही है। बरसाती पानी की निकासी के लिए जो नाले बनाए गए थे , उन पर या तो अतिक्रमण हो गए या उनकी सफाई नहीं होती। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कोई परेशानी या मुसीबत कभी - कभार आए तब तो उसके बारे में उपेक्षा भाव समझ में आता है किंतु जहां हर बरसात में नाव चलने की नौबत आती है वहां सुधार क्यों नहीं होता , यह प्रश्न अनुत्तरित है। आरोप - प्रत्यारोप के रूप में राजनेता अपना खेल खेलें , किंतु ऐसे मामलों में सार्थक और परिणाममूलक विकास योजना बनाई जानी चाहिए। अति वृष्टि से उत्पन्न समस्या अपवाद हो सकती है किंतु यदि वह हर साल उत्पन्न होती है तब उसका स्थायी इलाज भी होना चाहिए। दिल्ली चाहे तो उसका उदाहरण पेश कर सकती है। शहरों के बेतरतीब  और असीमित विकास की समीक्षा का राष्ट्रीय कार्यक्रम समय की मांग है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 13 July 2023

तृणमूल की प्रमुख प्रतिद्वंदी बनी भाजपा : कांग्रेस और वामदल पिछड़े




प. बंगाल में संपन्न पंचायत चुनाव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को भारी बहुमत मिला । लगभग 65 फीसदी सीटें जीतकर उसने  अपनी पकड़ साबित कर दी।   हालांकि उच्च न्यायालय ने  परिणामों को अंतिम रूप दिए जाने के पहले चुनाव आयोग द्वारा हिंसा की घटनाओं संबंधी रिपोर्ट का संज्ञान लेने की बात कही है और ये भी पूछा है कि मतदान के दिन हजारों केंद्रों पर गड़बड़ी की शिकायतों के बाद केवल 600 केंद्रों पर ही दोबारा मतदान क्यों करवाया गया ? लेकिन सभी जानते हैं कि  ऐसे मामलों में जो जीता वही सिकंदर,  वाली बात ही लागू होती है। प. बंगाल को जानने  वालों के लिए ये परिणाम अचंभा नहीं हैं। एक दौर था जब  वाम मोर्चे को ऐसी ही जीत मिला करती थी। उस समय मार्क्सवादी आतंक के साए में चुनाव होते थे । लेकिन ताजा चुनाव परिणामों में कुछ ऐसे संकेत भी छिपे हुए हैं जो भावी राजनीति को दिशा देने वाले हो सकते हैं । अव्वल तो ये कि ममता को चुनौती देने की हैसियत कांग्रेस और वामपंथी खो चुके हैं और उनकी जगह भाजपा ने ले ली है जो विधानसभा चुनाव की  तरह से ही त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में  15  से 20 फीसदी सीटें जीतकर  तृणमूल कांग्रेस का  विकल्प बनने की स्थिति में आ गई है। कांग्रेस तथा वामपंथी मिलकर भी उससे बहुत पीछे हैं। एक बात और  काबिले गौर है कि 2018 की अपेक्षा तृणमूल द्वारा जीती सीटों की संख्या में कुछ कमी आई  वहीं भाजपा के अलावा कांग्रेस - वामपंथी गठबंधन की शक्ति में भी मामूली ही सही किंतु वृद्धि तो हुई है।सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात रही अनेक मुस्लिम इलाकों में क्षेत्रीय मुस्लिम दल को मिली सफलता । इससे तृणमूल की  दिक्कतें बढ़ सकती हैं। वहीं भाजपा के लिए भी चिंता का विषय है कि दार्जिलिंग अंचल में गोरखा संगठन ने बाजी मार ली जहां  की लोकसभा सीट पर भाजपा काफी समय से काबिज है।  खास बात ये भी  है कि 2018 में जहां तृणमूल के तकरीबन 35 फीसदी प्रत्याशी निर्विरोध जीते वहीं इस बार वह संख्या घटकर आधे से भी कम रह गई। संभवतः हिंसा में वृद्धि का एक कारण ये भी है। खुश होने का कारण तो कांग्रेस और वामदलों के पास भी है जिनकी ताकत में हल्की सी बढ़ोतरी हुई है  परंतु मुख्य विपक्षी  बनने की उनकी चाहत फिर अधूरी रह गई । ये साफ हो गया है कि राज्य में  भाजपा के पांव से जमते जा रहे हैं। इस चुनाव को 2024 की रिहर्सल मानना तो जल्दबाजी है क्योंकि पूरा मुकाबला ममता के इर्द - गिर्द ही घूमता रहा। विपक्ष जो भी कहे लेकिन आज की स्थिति में सुश्री बैनर्जी के पास वैसी ही ताकत है जैसी कभी स्व.ज्योति बसु के साथ थी। लेकिन  लोकसभा चुनाव के नतीजे भी ऐसे हों ये जरूरी नहीं क्योंकि तब प्रचार में राष्ट्रीय नेताओं की  मौजूदगी रहेगी। और फिर चुनाव पर्यवेक्षकों  के अलावा सुरक्षा बल भी स्थानीय नहीं  होंगे। इसीलिए 2018 के पंचायत चुनाव के बाद 2019 में लोकसभा के  मुकाबले में भाजपा ने जबरदस्त सफलता हासिल की जबकि उसके तीन विधायक ही थे जो मौजूदा स्थिति में बढ़कर 70 के करीब  हैं ।  इस चुनाव का सीधा - सादा फलितार्थ यही है कि राज्य में अब भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है ।हालांकि उसके पास कद्दावर प्रादेशिक नेताओं का अभाव है। उसका अपना कैडर बाहरी नेताओं के आने से काफी उपेक्षित हुआ है। ममता का साथ छोड़कर आए नेताओं में सुवेंदु अधिकारी ने जरूर हिम्मत दिखाई है । नंदीग्राम में उनको हराने के बाद उनका कद  और ऊंचा हुआ और भाजपा ने भी  नेता प्रतिपक्ष बनाकर उनका महत्व बढ़ाया । पंचायत चुनाव में भी उन्होंने  नंदीग्राम में भाजपा का दबदबा बनाए रखा। यद्यपि  उन्हें ममता की टक्कर का नहीं माना जा सकता । फिर भी पार्टी का मानना है लोकसभा चुनाव के समीकरण अलग होंगे क्योंकि ममता यदि  प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं बनाई जातीं तब उनके लिए पंचायत जैसे परिणाम दोहराना आसान नहीं होगा और कर्नाटक  की तरह ही मुस्लिम मतदाताओं का एक वर्ग ममता से छिटककर कांग्रेस के साथ आ सकता है। विपक्ष की जो बैठक 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में होने जा रही है उसमें कांग्रेस और वामदल ,  पंचायत चुनाव के मुद्दे पर  ममता को किस तरह घेरते हैं ,  इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा क्योंकि अब तक के रवैये के अनुसार वे लोकसभा चुनाव में एक भी सीट किसी के लिए छोड़ने राजी नहीं हैं। लेकिन  तृणमूल  यदि कांग्रेस और वामदलों के साथ सीटों का बंटवारा करने सहमत हो गई तब भाजपा के लिए 2019 जैसी सुखद स्थिति बनना कठिन होगा। हालांकि उसके लिए ये भी कम उपलब्धि नहीं है कि उस प.बंगाल में तृणमूल के बाद दूसरी पार्टी बन गई ,  जहां 10 साल पहले उसके लिए सांसद - विधायक तो क्या पार्षद जितवाना भी सपने देखने जैसा था।


- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 12 July 2023

सुख देने वाली प्रकृति को दुख देना तो क्रूरता है


वर्षा काल में कच्चे मकानों के  धसकने , कीचड़ और बाढ़ जैसी दिक्कतें आती हैं। शहरों में निकासी न होने से जलभराव की समस्या भी आम है। पर्यावरण असंतुलन के कारण हो रहे ऋतु परिवर्तन से राजस्थान जैसे मरुस्थलीय राज्य में भी जलप्लावन की स्थिति बनने लगी है। गुजरात में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। उ.प्र , बिहार के अलावा पूर्वोत्तर के असम का भी बाढ़ से जन्मजात नाता है। लेकिन देश के पर्वतीय क्षेत्रों से आ रही खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं। उत्तराखंड और हिमाचल का समूचा पहाड़ी इलाका इन दिनों बाढ़ और भूस्खलन का शिकार है। जगह - जगह सैलानी फंसे हुए हैं । सैकड़ों वाहन रास्ता खुलने का इंतजार कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर सड़कें नष्ट हो चुकी हैं , अनेक महत्वपूर्ण पुल बह गए। इन सबकी मरम्मत में लंबा समय और बड़ी राशि खर्च होगी। गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तीर्थ यात्रियों के साथ ही पर्यटकों का सैलाब उमड़ पड़ता है। कश्मीर में अमरनाथ यात्रा वर्षाकाल में आयोजित होती है। इसके कारण समूचे पर्वतीय क्षेत्र में लाखों लोगों की आवाजाही बनी रहती है। हालांकि तीर्थयात्राएं और पर्यटन दोनों न जाने कब से होते आ रहे हैं किंतु सड़कों सहित आवागमन के साधनों के विकास ने पहाड़ों से जुड़ी नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली कहावत को पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है। कहने का आशय ये कि जिन पर्वतीय क्षेत्रों में तीर्थाटन और पर्यटन हेतु जाना बेहद कठिन और खतरों से भरा माना जाता था वह आजकल बच्चों का खेल बन गया है । तीर्थ यात्रा और पर्यटन को मिलाकर अब धार्मिक पर्यटन नामक नया कारोबार जोर पकड़ चुका है। किसी समाज में तीर्थयात्रा और पर्यटन क्रमशः आध्यात्मिकता और खुशनुमा सोच के प्रतीक होते हैं।  उस लिहाज से इन दोनों क्षेत्रों में यदि लोगों की रुचि बढ़ी तो धार्मिकता के साथ ही उसे अर्थव्यवस्था के लिए भी सुखद कहा जा जाना चाहिए । बीते दो पर्यटन मौसमों में जम्मू कश्मीर सहित हिमाचल में सैलानियों की रिकार्ड संख्या को अर्थव्यवस्था में आई उछाल के तौर पर देखा गया। इस साल तो वह रिकार्ड भी टूट गया। यही हाल उत्तराखंड के चार धामों के है। कुछ साल पहले केदारनाथ में जलप्रलय के बाद व्यवस्थाओं में काफी सुधार किए गए थे ।  आपदा प्रबंधन और आवागमन को सुगम और सुरक्षित  बनाने हेतु भी  प्रयास  हुए । परिणामस्वरूप इन दुर्गम स्थानों की यात्रा बेहद आसान बन गई है। यहां तक कि मनाली होते हुए लेह (लद्दाख ) जाने के लिए लगने वाला तीन दिन का समय घटकर आधे से भी कम रह गया है। लेकिन सुविधाओं के विकास से हिमालय स्थित तीर्थ और पर्यटन स्थलों तक पहुंचने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है । वह पहाड़ों की सेहत के लिए कितनी नुकसानदेह है इसकी चर्चा  ज्यादातर भूगर्भशास्त्रियों , मौसम  विशेषज्ञों , पर्यावरणविदों और चंद बुद्धिजीवियों तक ही सीमित है। भावी पीढ़ियों की चिंता करने वाले कुछ और भी लोग हैं जो इस दिशा में सोचते हैं । उदाहरण के लिए सुंदरलाल बहुगुणा और उन जैसे न  जाने कितनों ने अपना समूचा जीवन पर्वतीय के क्षेत्रों प्राकृतिक संतुलन को बचाए रखने झोंंक दिया । भले ही उनको ढेरों  सम्मान और पुरस्कार दिए गए परंतु उनकी बातों पर अमल न होने का ही नतीजा है कि जोशीमठ शहर सहित उत्तराखंड में फैले सदियों पुराने अनेक मंदिर धसक रहे हैं। पहाड़ों पर बारिश पहले भी होती थी जिसके कारण मैदानी इलाकों में बाढ़ आती रही किंतु अब पहाड़ों में बसे शहर और ग्रामीण क्षेत्र भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। इसका कारण इन पर्वतीय क्षेत्रों की प्राकृतिक संरचना से की जा रही अविवेकपूर्ण छेड़छाड़ ही है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के बाद सड़कों को चौड़ा करने पहाड़ों को तोड़ने जैसी कारस्तानी ने समूचे उत्तराखंड और हिमाचल को खतरों में झोंक दिया हैं । बढ़ते यात्री वहां के लोगों के लिए  आर्थिक समृद्धि का कारण तो बन रहे हैं लेकिन इसके लिए हिमालय के सीने को जिस तरह छेदा जा रहा है वह अपराध से भी ज्यादा  पाप है। हालांकि ऐसे विचार को विकास विरोधी कहकर खारिज कर दिया जाता है । इसके अलावा संपन्न देशों के पर्वतीय क्षेत्रों में अधो संरचना के विकास का उदाहरण भी दिया जाता है  किंतु उन देशों के मौसम , भूगर्भीय रचना , कम जनसंख्या और सबसे बड़ी बात नियम कानूनों के प्रति दायित्वबोध के कारण प्राकृतिक संतुलन को तुलनात्मक तौर पर उतना नुकसान नहीं होता। उस दृष्टि से हमारे देश की  स्थिति चिंताजनक है। यही कारण है कि पर्वतीय क्षेत्रों में हुए विकास के बाद लोगों में स्वच्छंदता आ गई जिससे विकास का परिणाम विनाश के तौर पर आया। गत वर्ष अमरनाथ में जो जनसैलाब आया उसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता था। समूचा हिमालय उसी तरह व्यवहार करने लगा है। ये देखते हुए अब ये जरूरी  है कि पहाड़ों को भी सांस लेने का समय दिया जाए। केवल लोगों की संख्या पर नियंत्रण ही नहीं बल्कि वहां वाहनों की आवाजाही  से उत्पन्न शोर शराबे , हेलीकॉप्टरों से होने वाले कम्पन आदि को भी कम किया जावे। बैटरी चालित वाहनों की अनिवार्यता भी एक कदम हो सकता है। साल दर साल बढ़ती आपदाओं में मानवीय जिंदगियों के  साथ -  साथ जो आर्थिक नुकसान होने लगा है उसके बाद अब पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के स्वरूप में बदलाव करना जरूरी हो गया है। जो प्रकृति हमें सुख दे ,  उसे हम दुख दें तो ये उसके प्रति क्रूरता ही होगी। लगातार आ रहे संकेतों के  बाद भी यदि हम नहीं चेते तो फिर ये मान लेना गलत न होगा कि हम किसी बड़े हादसे को निमंत्रण दे रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 11 July 2023

जनसंख्या के बोझ को बढ़ने से रोकने कदम उठाना जरुरी



आज विश्व जनसंख्या दिवस है। पूरी दुनिया में ये विमर्श चल रहा है कि यदि आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो धरती पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन कम होते - होते खत्म होने की कगार पर पहुंच जायेंगे और तब उनके लिए वैसी ही लड़ाई होगी जैसी एक साल से भी ज्यादा समय से रूस और यूक्रेन के बीच चली आ रही है। इसके पहले से पश्चिम एशिया में जिस तरह की अशांति है उसका कारण भी कच्चे तेल नामक काला सोना ही है। चीन के विस्तारवाद के पीछे भी प्राकृतिक संसाधनों को हथियाना है। पेट्रोल और गैस के अलावा भविष्य में पेय जल की समस्या भी विकराल होने जा रही है।और तब उसके लिए भी संघर्ष होगा। उल्लेखनीय है भारत हाल ही में चीन को पीछे छोड़ सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। दूसरी तरफ चीन और जापान सरीखे देश जन्म दर में गिरावट से चिंतित हैं क्योंकि उसके कारण उनके उद्योगों को श्रमिक मिलने की किल्लत होने लगी है। हालांकि परिवार नामक संस्था के टूटने की वजह से भी अनेक विकसित देशों में आबादी का आंकड़ा ठहरा हुआ है। यूरोप के कुछ छोटे देश ऐसे हैं जिनकी आबादी तो लाखों में है किंतु अपने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों और तकनीकी विकास के कारण वे दुनिया के विकसित और संपन्न राष्ट्रों में शुमार होते हैं।  भारत सदृश विशाल देश तक उनसे आर्थिक सहायता और तकनीकी सलाह लेते हैं। स्वीडन की बोफोर्स तोप इसका उदाहरण है। लेकिन इन देशों में बेहतर जिंदगी के चलते अन्य देशों के नागरिक जिस तेजी से यहां बसते जा रहे हैं उसकी वजह से माहौल बिगड़ने का अंदेशा है विशेष रूप से अरब देशों से शरणार्थी बनकर आए मुस्लिम समस्या बन रहे हैं । दुनिया की बढ़ती आबादी से  जमीन और पानी की कमी ही नहीं हो रही बल्कि वाहनों की बढ़ती संख्या से पर्यावरण के लिए भी खतरा पैदा हो गया है। समुद्र में चल रहे हजारों जहाज और आकाश में विचरते वायुयानों से जो प्रदूषण होता है उसका दुष्प्रभाव धरती पर रहने वालों पर भी पड़ रहा है। विशेषज्ञों का निष्कर्ष ये है कि आज जितने संसाधन पृथ्वी पर हैं वे जनसंख्या के अनुपात में रोजाना घट रहे हैं। सुविधाजनक और विलासिता पूर्ण जीवनशैली के प्रति बढ़ते रुझान के कारण प्रकृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है। यही कारण है कि प्राकृतिक आपदाओं का आगमन जल्दी - जल्दी होने लगा है। विकास की वासना ने जानलेवा कोरोना के वायरस पूरी दुनिया में फैलाकर मानव जाति को ज्ञात इतिहास की जो सबसे बड़ी महामारी दी उससे ये भी साबित हो गया कि मनुष्य की अनगिनत कथित उपलब्धियां किसी न किसी बिंदु पर आकर शक्तिहीन हो जाती हैं । अमेरिका जैसा विकसित और ताकतवर देश भी चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय कुछ न करने की स्थिति में आ जाता है। विश्व भर में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर चिंता व्यक्त की जा रही है किंतु इस संकट को हल करने की दिशा में जितना दिखावा होता है उसका आधा भी काम नहीं होने से स्थिति एक कदम आगे दो कदम पीछे की बन चुकी है। विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन के लिए उपदेश देने वाले बड़े राष्ट्र खुद पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। चीन ने अपनी आबादी में वृद्धि को तो जोर -  जबरदस्ती से थाम लिया लेकिन कार्बन उत्सर्जन के मामले में वह बेहद लापरवाह है। विश्व की जो संस्थाएं इस बारे में जांच आदि करती हैं उनसे भी चीन किसी प्रकार का सहयोग नहीं करता। भारत की ही बात करें तो हमारी आबादी 143 करोड़ के आसपास आ गई है। आर्थिक विकास के मामले में चीन से हमारा मुकाबला है । लेकिन उसने एक तरफ तो अपनी जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण किया वहीं दूसरी तरफ विशाल आबादी को निठल्ला बैठे रहने के बजाय उत्पादकता से जोड़ा जिसका नतीजा ये हुआ कि अफीमचियों के देश के तौर पर कुख्यात चीन ने अमेरिका को टक्कर दे डाली। साम्यवादी सत्ता के बाद भी उसने उदारीकरण की पश्चिमी अवधारणा को अपने अनुरूप बनाया उसी का परिणाम रहा कि दुनिया की लगभग सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन में अपनी उत्पादन इकाईयां लगाई। दूसरी तरफ भारत में साठ और सत्तर के दशक तक परिवार नियोजन का जो अभियान जोर - शोर से चलाया जाता था वह उपेक्षा का शिकार होकर रह गया। चुनावी राजनीति ने जिस मुफ्त संस्कृति का विकास किया उसकी वजह से आज भारत में करोड़ों लोग बिना हाथ - पैर चलाए सरकारी सहायता के बल पर अपना पेट भर रहे हैं। विरोधाभासी चित्र ये है कि  बेरोजगारी के आंकड़े तो सर्वकालीन उच्च स्तर पर हैं लेकिन खेती , उद्योग और छोटे कारोबारी तक  कामगारों की कमी से त्रस्त हैं। चीन ने जिस आबादी को संसाधन बनाया वही हमारे देश में बोझ बनकर रह गई। इसके लिए निश्चित रूप से हमारे देश की राजनीति उत्तरदायी है जिसने  कामचोरी को बढ़ावा  दिया। किसी को हजार -  दो हजार बेरोजगारी भत्ता देने के बजाय यदि उससे रोजाना घंटे - दो घंटे भी काम करवाया जाए तो उसे श्रम का महत्व समझ आएगा । इसी तरह महिलाओं के खातों में  पांच सौ - हजार जमा करने से उनका सशक्तीकरण हो जायेगा , ये सोचना मूर्खों के  स्वर्ग में रहने जैसा है। ये सच है कि चीन में चुनाव महज दिखावा है इसलिए वहां रेवड़ियां नहीं बांटी जाती और काम करने में सक्षम प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादकता से जोड़ा गया है। इसके विपरीत हमारे देश में तो चुनाव कभी न खत्म होने वाला महोत्सव है जिसके दौरान जो मांगोगे वहीं मिलेगा वाली दरियादिली दिखाई जाती है। और तो और जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने  में भी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप जैसी बातें आड़े आने लगती हैं। ये देखते हुए समय आ गया है देश को अपनी विदेश , रक्षा , वित्तीय और शिक्षा नीति की तरह ही जनसंख्या नीति भी बनानी  चाहिए। दुनिया का उत्पादन केंद्र बनने की उम्मीद और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने की  महत्वाकांक्षा में जनसंख्या का बोझ बड़ी बाधा बन सकती है। जनसंख्या दिवस के  अवसर पर इस दिशा में त्वरित निर्णय करने पर विचार होना चाहिए।
- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 10 July 2023

वरना कांग्रेस और वामपंथी बंगाल में दोबारा पैर नहीं जमा सकेंगे



प.बंगाल में पंचायत चुनाव के दौरान बीते एक माह के भीतर 35 लोगों के मारे जाने का जो आंकड़ा आया वह सरकारी है। माना जा रहा है चुनावी हिंसा में और भी ज्यादा लोगों ने जान गंवाई। अकेले मतदान के ही दिन 15 लोग मौत का शिकार हुए। हालांकि इस राज्य के लिए ये नई बात नहीं है। लगभग हर चुनाव में वहां लोगों की बलि चढ़ती रही है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच खूनी झड़प के अलावा असामाजिक तत्व भी चुनाव के बहाने अपने प्रतिद्वंदी को कमजोर करने के लिए खून - खराबा करने से बाज नहीं आते। जब बंगाल में मार्क्सवादी सरकार थी तब इस तरह की हिंसा के विरुद्ध कांग्रेस में रहते वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी बहादुरी के साथ संघर्ष किया करती थीं। अनेक बार तो उन पर व्यक्तिगत हमले हुए जिसमें उन्हें चोट भी आई। लेकिन जब केंद्र में बैठी कांग्रेस सरकार ने वामपंथी अत्याचार के विरुद्ध उनके संघर्ष को महत्व नहीं दिया तब उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नामक पार्टी बनाकर अलग रास्ता पकड़ लिया और जी - तोड़ मेहनत करते हुए अंततः वामपंथियों के  मजबूत दुर्ग को जमींदोज कर ये स्थिति पैदा कर दी कि  वर्तमान विधानसभा में एक भी साम्यवादी सदस्य नहीं है।  इस प्रकार ममता ने वह पराक्रम कर दिखाया जो इंदिरा गांधी और अतलबिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गजों तक से न हो सका । इसमें दो राय नहीं हैं कि लगातार तीन विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतकर उन्होंने प.बंगाल में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। और इसी के दम पर उनमें प्रधानमंत्री बनने की  महत्वाकांक्षा  उत्पन्न हुई । सादगी भरे रहन - सहन के लिए उनकी प्रशंसा हर कोई करता है। केंद्र में मंत्री रहने के दौरान भी वे साधारण जीवन शैली का परिचय देती रहीं। ऐसे में उनसे उम्मीद की जाती थी कि मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वे प.बंगाल में वामपंथी सत्ता के दौर में बने भय के वातावरण से लोगों को मुक्ति दिलाएंगी किंतु कुर्सी पर विराजमान होने के बाद उन्होंने भी वही तौर - तरीके अपनाना शुरू कर दिया जिनसे ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमंत्री काल में जनता त्रस्त हो चुकी थी। राजनीतिक आतंकवाद का जो वीभत्स रूप वामपंथी सरकार के समय दिखाई देता था वही तृणमूल के नाम से पूरे राज्य में नजर आता है क्योंकि मार्क्सवादी पार्टी के साथ मिलकर गुंडागर्दी करने वाला तबका धीरे - धीरे तृणमूल में घुस आया। ऐसा नहीं है कि ममता इससे अनजान थीं किंतु  अपने  राजनीतिक लाभ  की वजह से वे चुप रहीं।  पंचायत चुनाव को लेकर शुरू से  हिंसा होने की आशंका थी । ऐसे में जब उच्च न्यायालय ने  केंद्रीय बल तैनात किए जाने का निर्देश दिया तब उसको रोकने के लिए जिस तरह राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय तक गई उससे  स्पष्ट हो गया कि हिंसा को रोकने में उसकी रुचि नहीं थी । इसीलिए ये कहा  जा रहा है कि मतदान के दिन हुई हिंसा में कहीं न कहीं उसकी भूमिका भी रही। केंद्रीय बल के उच्च अधिकारियों की ये शिकायत काबिले गौर है कि राज्य निर्वाचन आयोग और प्रशासन ने संवेदनशील मतदान केंद्रों की जानकारी उनको नहीं दी। सैकड़ों आपत्तियों के बाद ही लगभग 600 मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराया जा रहा है। इन चुनावों में कौन जीतेगा ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ये कि ऐसे चुनाव का लाभ ही क्या जो राज्य सरकार के संरक्षित आतंक के साए में हुआ। लोकसभा चुनाव में चूंकि केंद्रीय चुनाव आयोग की भूमिका होती है और अन्य राज्यों के अधिकारी और पुलिस बल तैनात रहते हैं , इसलिए राज्य सरकार प्रशासन का दुरुपयोग नहीं कर पाती और गुंडागर्दी भी नियंत्रण में रहती है किंतु विधानसभा , स्थानीय निकाय और पंचायत  चुनाव में तो राज्य सरकार ही सर्वेसर्वा होती है। ऐसे में यदि हिंसा और हत्या तथा बूथ लूटने की घटनाएं हुईं  तब उसे जिम्मेदार ठहराना गलत न होगा। राज्यपाल इस बारे में अपनी जो रिपोर्ट केंद्र को सौंप रहे हैं उसका ये कहकर ममता विरोध करेंगी कि वे भाजपा द्वारा नियुक्त किए गए हैं ।   ऐसे में इस चुनाव को लेकर कांग्रेस का क्या रुख है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर तो वह भाजपा विरोधी विपक्ष का गठबंधन बनाने प्रयासरत है वहीं प.बंगाल में वामपंथी दलों के साथ मिलकर ममता के विरुद्ध मैदान में है।   बहरहाल , पंचायत चुनाव में जो कुछ हुआ उसके बाद ये कहना गलत न होगा कि ममता भी अपनी पूर्ववर्ती मार्क्सवादी सरकार के तरह ही निरंकुश हैं और विरोध को किसी भी कीमत पर कुचलने में संकोच नहीं करती। ऐसे में कांग्रेस और वामपंथी मिलकर  इन चुनावों में हुई धांधली , हिंसा और हत्याओं को मुद्दा बनाकर विरोध में आगे नहीं आते तब फिर उन्हें इस राज्य में अपने पैर दोबारा जमाने की उम्मीद छोड़ देना चाहिए ।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 8 July 2023

हिंसा , हत्या और प.बंगाल समानार्थी हो चले चुनाव आयोग का असहाय बना रहना चिंता का विषय




कल प.बंगाल में पंचायत चुनाव हेतु मतदान के दौरान हुई हिंसा में 15 लोगों की मृत्यु हो गई। मतदान केंद्र के निकट बम धमाके , गोलियां दागने और ईवीएम लेकर भागने के चित्र भी प्रसारित हुए। यद्यपि ये पहला अवसर नहीं है जब इस राज्य में ऐसा हुआ हो। मतदान के पहले  से ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच खूनी संघर्ष की खबरें आने लगी थीं। बीते 30 दिनों में लगभग 40 लोग मारे गए। 
हालात इस कदर बिगड़ गए कि उच्च न्यायालय ने केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश दे दिया जिसके विरुद्ध ममता बैनर्जी की सरकार सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंची किंतु  वहां भी उसे निराशा हाथ लगी । 
इस राज्य में चुनावी हिंसा और राजनीतिक हत्याओं का दौर तबसे शुरू हुआ जब वामपंथी मोर्चे की  सरकार सत्ता में आई। जिसके बाद लगभग चार दशक तक  प.बंगाल में साम्यवादी विचारधारा का नंगा नाच देखने मिलता रहा। विरोधियों से वैचारिक असहमति का अंजाम उसे रास्ते से हटा दिए जाने के तौर पर देखने मिलने लगा। उस दौर में कांग्रेस ही मुख्य वाममोर्चे की प्रतिद्वंदी होती थी किंतु उसी पार्टी की केंद्रीय सत्ता ने अपने स्वार्थवश ज्योति बसु के अत्याचार के विरुद्ध मौन साधे रखा । 
उसी से नाराज होकर ममता बैनर्जी ने कांग्रेस को मार्क्सवादियों की बी टीम बताते हुए तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की । उनको इस बात की पीड़ा रही कि वामपंथियों की खूनी राजनीति के विरुद्ध लड़ते हुए वे भी हिंसा का शिकार हुईं किंतु कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने उनको समुचित संरक्षण और समर्थन नहीं दिया। 
जब बंगाल की शेरनी की छवि के साथ ममता ने ज्योति बाबू के उत्तराधिकारी  बुद्धदेव भट्टाचार्य की सत्ता को उखाड़ फेंका तब वह परिवर्तन  1977 में जनता पार्टी के हाथों इंदिरा गांधी की तानाशाही के पराभव से कम नहीं था। इसीलिए आम जनता को आशा थी कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार प.बंगाल के गौरवशाली अतीत को पुनर्स्थापित करने में सफल रहेंगी किंतु जल्द ही देखने मिलने लगा  कि जितने भी असामाजिक तत्व वामपंथी दलों के दमनचक्र में सहयोगी थे ,  वे सब तृणमूल में घुस आए और सत्ता बदलने के बाद भी यह राज्य व्यवस्था परिवर्तन से वंचित रहा। 

ममता बैनर्जी की वामपंथियों से घृणा तो समझ में आती है क्योंकि  साम्यवादी सरकार ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टियों से प्रताड़ित करने में कसर नहीं छोड़ी थी । लेकिन समूचे विपक्ष को हिंसा के बल पर आतंकित करने की उसी नीति को अपनाने से  उनकी अपनी छवि को तो बट्टा लगा ही ,  इस राज्य को भी अराजक स्थिति में ला खड़ा किया। पिछले विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थितियां देखने मिलीं। 
लेकिन सबसे बड़ी चिंता का  विषय ये है कि प.बंगाल में राजनीतिक हत्याएं रोजमर्रे की बात हो चली हैं। अपराधिक तत्व तृणमूल के झंडे तले पूरे समाज में भय का वातावरण बनाए रखते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति बहुत ही खराब है। गत दिवस पंचायत चुनाव के दौरान मारे गए लोगों में चूंकि कोई बड़ा नेता नहीं था लिहाजा दिल्ली तक हलचल नहीं मची। मरने वाले या तो पार्टियों के कार्यकर्ता रहे या चुनाव में गड़बड़ी करने किराए पर लाए गए अपराधी । ऐसे में मृतकों के परिवारजनों को किसी प्रकार के  मुआवजे की उम्मीद तो की नहीं जा सकती किंतु ये सवाल तो उठता ही रहेगा कि आखिर इस राज्य में  चुनावी हिंसा और राजनीतिक हत्याओं का ये चलन कब तक जारी रहेगा ? 
इस बारे में रोचक बात ये भी है कि ममता     वैसे तो कांग्रेस से इस बात को लेकर बेहद नाराज हैं कि उसने उस वामपंथी मोर्चे से गठबंधन कर लिया है जिससे उनकी जन्मजात दुश्मनी है। लेकिन उसी कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा के विरुद्ध गठबंधन बनाने विपक्षी बैठक में भी शिरकत करती हैं। गौरतलब है पंचायत चुनाव में केंद्रीय बलों की तैनाती हेतु कांग्रेस ने भी अदालत के दरवाजे खटखटाए थे और उसके कार्यकर्ता   हिंसा के शिकार भी हुए।
जहां तक वाम मोर्चे का सवाल है तो प.बंगाल को साम्यवाद का अभेद्य गढ़ बनाने की कोशिश में उसने विरोधियों को मौत के घाट उतारने की  जिस माओवादी शैली को प्रोत्साहित किया और आज वही उनके लिए भी जानलेवा बन गई। 

 अब इस बात का डर  है कि प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा में डूबी ममता आगामी लोकसभा चुनाव के पहले से ही राज्य में विपक्ष का दमन शुरू कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि विधानसभा चुनाव में भारी - भरकम जीत के बावजूद भी पिछले लोकसभा चुनाव में वे भाजपा के बढ़ते कदमों को नहीं रोक सकीं। उसी के बाद भाजपा गत विधानसभा चुनाव में 3 से बढ़कर 73 पर जा पहुंची। 
पंचायत चुनाव में एक बार फिर सुश्री बैनर्जी ने साबित कर दिखाया कि वामपंथी मोर्चे और उनकी सरकार में सिर्फ नाम का अंतर है । वह नागनाथ थी  तो ये सांपनाथ । प.बंगाल की जनता हर चुनाव में बढ़ - चढ़कर मतदान करती है । वहां राजनीतिक जागरूकता भी है किंतु उसे बदले में वही मिलता है जिसका नजारा गत दिवस देखने मिला। 
सोचने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग ऐसे मामलों में असहाय होकर रह जाता है। और ये भी कि चुनावी हिंसा में मारे जाने वाले  साधारण लोग होते हैं । जिन राजनीतिक  पार्टियों के इशारे या बहकावे पर वे अपनी जान पर खेल जाते हैं वे भी उनके परिवारजनों के लिए कुछ करती हैं ,  ये भी शोध का विषय है क्योंकि मूर्तियां और स्मारक नेताओं के ही बनते हैं  , कार्यकर्ता तो बेगारी करने बना है।

आलेख : रवीन्द्र वाजपेयी 

क्षेत्रीय पार्टियां अपनी विश्वसनीयता खोती जा रहीं


महाराष्ट्र में हुई राजनीतिक उठापटक के बाद ये सवाल उठने लगा है कि क्या एक  परिवार द्वारा नियंत्रित होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य अंधकारमय है। जिस तरह से एनसीपी में टूटन हुई उसके पीछे सीधा - सीधा कारण यही समझ में आया कि शरद पवार ने अपने  उत्तराधिकार का निर्णय करते समय राजनीतिक दृष्टि से विचार करने के बजाय अपनी संतान को ज्यादा महत्व दिया । बीते अनेक दशकों से ये माना जाता रहा था कि उनके भतीजे अजीत पवार ही इस पार्टी का भविष्य होंगे किंतु जब इस बारे में अंतिम फैसला करने का समय आया तो श्री पवार ने बेटी सुप्रिया सुले को बागडोर सौंप दी। इसके बाद वही हुआ जो होना था। अजीत ने कई महीनों से चली आ रही अटकलों को सही साबित करते हुए बगावत कर दी और भाजपा के संरक्षण में चल रही महाराष्ट्र सरकार में उपमुख्यमंत्री बन गए। उनके साथ प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे श्री पवार के अति विश्वस्त भी बगावत में शामिल हो गए । इसका कारण भी यही माना जा रहा है कि उन दोनों को सुप्रिया के मातहत काम करने में अपनी तौहीन लग रही थी। श्री पटेल को तो एनसीपी का दूसरा कार्यकारी अध्यक्ष तक बना दिया गया था। हालांकि पार्टी पर किसका कब्जा रहेगा इसे लेकर  फिलहाल कानूनी पेंच फंसा हुआ है किंतु एक बात तो तय है पवार परिवार में आई इस दरार की वजह से एनसीपी की ताकत अब पहले जैसी नहीं रहेगी। ऐसा ही कुछ शिवसेना के साथ भी हुआ। स्व.बाल ठाकरे ने शुरुआत में शिवसेना में अपने भतीजे राज ठाकरे को आगे बढ़ाया जो बेहद तेज तर्रार युवा नेता के रूप में महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित होने लगे थे। जबकि उनके  पुत्र  उद्धव उन दिनों अपने फोटोग्राफी के शौक में डूबे हुए थे। लेकिन कालांतर में जब पार्टी की विरासत सौंपने का समय आया तब उन्होंने भी सक्रिय भतीजे के स्थान पर निष्क्रिय बेटे पर भरोसा किया जिसकी वजह से वे मनसे ( महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) नामक नई पार्टी बनाकर अलग जा बैठे। उसके बाद की कहानी सब जानते हैं। जो भाजपा कभी शिवसेना के पीछे चला करती थी वह उससे बड़ी ताकत बन गई। ये उदाहरण अन्य राज्यों में भी दोहराया जाता रहा। उ.प्र में स्व.मुलायम सिंह यादव के पुत्र प्रेम के कारण सपा में विभाजन हुआ और अनेक पुराने समाजवादी यहां - वहां बिखर गए। बिहार में लालू यादव का कुनबा प्रेम भी जगजाहिर है। झारखंड में शिबू सोरेन की विरासत बेटे हेमंत के पास है तो हरियाणा में देवीलाल परिवार भी आखिर बिखरकर रह गया। जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के वर्चस्व के कारण पार्टी के अनेक वरिष्ट नेता उसे छोड़ गए। तेलुगु देशम भी इसी का शिकार हो गई। बसपा सुप्रीमो मायावती भी भतीजे प्रेम के कारण नुकसान उठा रही हैं ।अकाली दल में हुई टूटन भी स्व.प्रकाश सिंह बादल के पुत्र मोह के कारण देखने मिली । महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम ने क्षेत्रीय दलों के भविष्य पर तो प्रश्नचिन्ह लगाया ही ये बात भी सामने आने लगी है कि राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ती रुचि अंततः उनके कमजोर होने के रूप में सामने आती है क्योंकि  किसी राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ने की वजह से उनकी अपनी वैचारिक पहिचान नष्ट होने लगती है। और धीरे - धीरे वे अपने ही प्रभावक्षेत्र में कमजोर होते जाते हैं। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में जितने भी क्षेत्रीय दल भाजपा विरोधी गठबंधन में शामिल होने सक्रिय हैं वे सब कांग्रेस के इर्द - गिर्द घूम रहे हैं। अतीत में जो छोटे - छोटे दल मिलकर तीसरे मोर्चे की शक्ल में सौदेबाजी करने में सफल रहे वे भी आज कांग्रेस अथवा भाजपा की परिक्रमा कर रहे हैं। यद्यपि आज भी ममता बैनर्जी और स्टालिन जैसे क्षेत्रीय छत्रप हैं किंतु उनके पार्टी में भी परिवार का कब्जा बनाए रखने की कोशिश अंतर्कलह का कारण बन रही है। स्टालिन के भाई और बहिनें भी सत्ता में बंटवारे के लिए दबाव बनाया करते हैं तो ममता द्वारा भतीजे को महत्व दिए जाने से पुराने साथी छिटक रहे हैं। तेलंगाना में  के.सी.राव की बेटी उत्तराधिकारी बनती दिख रही हैं। हालांकि इन सबने कांग्रेस से ही ये सीखा है  कि पार्टी को परिवार की निजी जागीर बनाकर रखा जाए। उ.प्र में चौधरी चरणसिंह की पार्टी बेटे के बाद पोता चला रहा है। इस सबसे ये  निष्कर्ष निकाला जा सकता है क्षेत्रीय पार्टियां अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही हैं। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों यदि थोड़ा सा धैर्य रखें तो छोटे दलों पर उनकी निर्भरता कम हो सकती है। कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास जिस तरह बढ़ा उसे कायम रखना उसके लिए हितकारी रहेगा। इसी तरह भाजपा को भी  छोटी पार्टियों को साथ लाने की बजाय अपने कैडर को मजबूत करना चाहिए। छोटे दलों द्वारा  अनुचित दबाव और सौदेबाजी की नीति देश के लिए कितनी नुकसानदेह हो रही है ये सर्वविदित है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 7 July 2023

ऐसा कुकृत्य मनुष्य तो क्या पशु के साथ भी नहीं होना चाहिए



 म.प्र के सीधी जिले में एक सवर्ण युवक द्वारा अनु. जनजाति के  एक व्यक्ति पर पेशाब करने का वीडियो सामने आने से राजनीतिक आरोप - प्रत्यारोप का चिर  - परिचित दौर चल पड़ा है। इस प्रकरण की गूंज दिल्ली सहित और राज्यों में भी सुनाई दे रही है। एक आदिवासी के साथ घिनौनी हरकत करने वाला व्यक्ति भाजपा विधायक से जुड़ा बताया जाने से बवाल कुछ ज्यादा ही है। वैसे  विधायक  इसका खंडन कर रहे हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव नजदीक होने से भाजपा ने  रक्षात्मक होना बेहतर समझा। आरोपी पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लगाते हुए उसके घर पर बुलडोजर चलवाने की कार्रवाई भी अविलंब की गई। कांग्रेस के लिए तो ये बिन मांगी मुराद थी इसलिए उसने भाजपा पर आदिवासी विरोधी होने की तोहमत लगा दी। राहुल गांधी से मायावती तक ने ट्विटर पर प्रदेश सरकार और भाजपा  पर दनादन मिसाइलें दाग दीं।  निश्चित रूप से उक्त घटना बेहद अमानवीय थी। आदिवासी या दलित इंसान तो क्या पशु के ऊपर भी पेशाब करने जैसा कृत्य या तो मानसिक तौर पर विक्षिप्त व्यक्ति ही कर सकता है या जिसकी राक्षसी प्रवृत्ति हो। राजनीति के अपने तौर - तरीके होते हैं और उस दृष्टि से कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों के नेताओं की बयानबाजी से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। यदि भाजपा सत्ता में न होती तब वह भी ऐसा ही करती। लेकिन इस घटना के सामने आते ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस तत्परता से पीड़ित आदिवासी को भोपाल  बुलवाकर मुख्यमंत्री निवास में उसके चरण धोकर उससे क्षमा मांगी वह आग को भड़कने से रोकने का सबसे अच्छा तरीका था। भले ही इसे नाटकबाजी कहा जाए किंतु उन्होंने सही समय पर सही कदम उठाया। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने भी जांच समिति गठित कर अच्छी पहल की। देर सवेर जनजाति आयोग वगैरह भी इस मामले की जांच करने आ सकते हैं। कुछ एनजीओ तो ऐसे अवसर की तलाश ही करते रहते हैं। हो सकता है इस मुद्दे को विधानसभा चुनाव तक जिंदा रखने की कोशिश भी होती रहे। बहरहाल , जो हुआ उसकी जितनी निंदा की जाए कम है।  आरोपी को भी कड़े से कड़ा दंड  मिलना चहिए। लेकिन ऐसे मामलों में  राजनीति से ऊपर उठकर जब तक विचार नहीं होता तब तक इनकी पुनरावृत्ति होती रहेगी। अनु. जाति या जनजाति के किसी व्यक्ति के साथ होने वाला अत्याचार उच्च जाति वाले करें या उनके अपने कुनबे का कोई व्यक्ति , दोनों का अपराध एक जैसा होगा क्योंकि यहां सवाल जाति का नहीं इंसानियत का है। हमारे ही समाज में विक्षिप्त मानसिकता के कुछ लोग कभी - कभार पशुओं के साथ दुराचार जैसा कुकृत्य कर डालते हैं।उसके लिए भी दंड का प्रावधान है। इसी तरह यदि किसी सवर्ण के ऊपर कोई व्यक्ति चाहे उसकी जाति कोई भी हो ,  पेशाब करने जैसी गंदी हरकत करे तो उसकी  निंदा और सजा भी उतनी ही कड़ी होनी चाहिए । स्मरणीय है मनुष्य को ईश्वर ने बनाया है जबकि जाति नामक व्यवस्था मनुष्य द्वारा बनाई गई है। आजादी की लड़ाई के दौरान ही महात्मा गांधी ने इस बात को भांप लिया था कि जातियों में बिखरा समाज एकता के सूत्र में बंधकर नहीं रह सकेगा । ब्रिटिश सत्ता कायम होने के पहले भी समाज में वर्ण व्यवस्था थी जिसे धीरे - धीरे जातिगत पहिचान दी गई। अछूतोद्धार का अनुष्ठान उसी पहिचान को नष्ट करने हेतु प्रारंभ किया गया था। लेकिन स्वाधीन भारत में इसे चुनाव जीतने के नुस्खे में बदल दिया गया और धीरे - धीरे हालात यहां तक आ पहुंचे कि दलितों में भी अति दलित और पिछड़ों में  अति पिछड़े सामने आने लगे। सबसे अधिक चिंता का विषय ये है कि आरक्षण की खींचतान ने दलितों और पिछड़ों के बीच भी वैमनस्यता का भाव उत्पन्न कर दिया । ये समस्या अब लाइलाज बीमारी की तरह सामने आ चुकी है जिसके चलते किसी नेता की पहिचान उसके व्यक्तित्व की बजाय उसकी जाति से होने लगी है। हमारे देश में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि जात न पूछो साधु की , किंतु इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि संसद और विधानसभा में चुनकर आए अनेक साधु - सन्यासी भी अपनी जाति को लेकर बेहद मुखर रहते हैं। महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने वालों में म.प्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती भी रही हैं जिनकी जाति के बारे में ज्यादातर लोग तभी जान सके जब वे खुलकर राजनीति में आईं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी अपनी पिछड़ी जाति का खुलासा करना पड़ा । वहीं राहुल गांधी अपने ब्राह्मण होने का ऐलान करते घूमने लगे। लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के बेटों ने विवाह तो अंतर्जातीय किए किंतु वोटों की खातिर वे पिछड़ी जाति का मुखौटा उतारने तैयार नहीं हैं। ऐसे और भी उदाहरण हैं । यही वजह है कि आजादी के अमृत महोत्सव तक पहुँचने के बाद भी जाति हमारी राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बनी हुई है। म.प्र की उक्त घटना केवल किसी पार्टी अथवा नेता के लिए ही नहीं अपितु पूरे समाज के लिए चिंता और चिंतन का विषय है । 21वीं सदी में भी जाति को किसी मनुष्य की सामाजिक हैसियत का मापदंड माना जाना चौंकाता है। जिन राजनेताओं से ये उम्मीद थी कि वे इस बुराई को समाप्त करेंगे वे ही इसे बढ़ावा देने के लिए दोषी हैं किंतु दुर्भाग्य ये है कि उनके लिए कोई सजा नहीं है।


- रवीन्द्र वाजपेयी