Friday 29 September 2017

बीमारी बताई तो इलाज भी बताएं

पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा के जोरदार धमाके से मोदी सरकार और भाजपा को कितना नुकसान हुआ या आने वाले दिनों में होगा इससे भी बढ़कर विचारणीय मुद्दा ये है कि यदि नोटबंदी और जीएसटी से जैसा कि आलोचक मान रहे हैं अर्थव्यवस्था चौपट हो गई तब उसे पटरी पर लौटाने के तरीके कौन से होने चाहिये? यशवंत जी ने जिस तरह मोर्चा खोला उससे एक बात स्पष्ट हो गई कि वे पार्टी में अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध थे। भले ही उनके बेटे को मंत्रिमंडल में स्थान मिला परन्तु अपनी वरिष्ठता एवं अनुभव का समुचित उपयोग नहीं होने की टीस पूर्व वित्तमंत्री के मन में रह-रहकर उठ रही थी। परसों अखबारी लेख के जरिये सामने आई खुन्नस कल जुबानी जंग में बदल गई। समाचार माध्यमों के लिये अचानक श्री सिन्हा टीआरपी नामक आकर्षण बन गए और इसी दौरान उन्होंने दो बातों का खुलासा किया। पहली तो ये कि वे एक वर्ष से प्रधानमंत्री से मिलना चाह रहे थे किन्तु समय नहीं मिला और दूसरी ये कि जब स्वयं नरेन्द्र मोदी जीएसटी की खिलाफत किया करते थे तब पूरी भाजपा में वे अकेले इसके पक्षधर थे। लेकिन इसे नोटबंदी के नतीजे पूरी तरह सामने आने के बाद बजाय 1 जुलाई के 1 अक्टूबर से लागू करना था। बाकी तो उन्होंने वही सब दोहराया जो संदर्भित लेख में था। उनकी बातों को आधार बनाकर पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम भी सरकार पर चढ़ बैठे। यद्यपि बेटे जयंत द्वारा पिता की आलोचना के प्रत्युत्तर में सरकार के बचाव में लिखे लेख को विपक्ष ने सरकारी प्रेस नोट कहकर मखौल उड़ाया परन्तु इससे यशवंत जी के हमले की धार कुछ कमजोर तो हुई है। उनके समूचे हमले का केन्द्र बिन्दु रहे वित्तमंत्री अरूण जेटली ने तो और भी तीखा हमला बोलते हुए उन्हें 80 की उम्र में रोजगार की चाहत रखने वाला बता डाला। यही नहीं वाजपेयी सरकार में उन्हें वित्तमंत्री पद से हटाने का जिक्र करना भी वे नहीं भूले। इस प्रकार की चुभने वाली बातों से यही संकेत मिला कि सरकार की तरफ से यशवंत बाबू के प्रति नरमी की कोई संभावना नहीं है। बहरहाल पूरे विवाद में एक बात तो पूर्व वित्तमंत्री ने भी स्वीकारी कि जीएसटी एक अच्छी व्यवस्था है। उन्होंने उसे तीन माह बाद लागू करने की बात कहकर ये भी स्वीकार किया कि वे लम्बे समय तक उसे टालने के पक्ष में नहीं थे। बढ़ती बेरोजगारी और घटती विकास दर सहित निजी निवेश में गिरावट के जो आरोप उनकी तरफ से लगाए गए वे भी किसी प्रमाण के मोहताज नहीं हैं परन्तु अब तक श्री सिन्हा ने उन उपायों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा जो मौजूदा संकट से देश को निकालने में मददगार बन सकें। एक अनुभवी प्रशासक, राजनीतिक नेता तथा पूर्व वित्तमंत्री रहे व्यक्ति को चाहिए था कि वह वित्तमंत्री को पत्र लिखकर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने संबंधी रास्ते सुझाकर जिस समाचार पत्र में उन्होंने आलोचनात्मक लेख लिखा उसी में यदि नोटबंदी और जीएसटी से उत्पन्न व्यवहारिक परेशानियों से निकलने के नुस्खे भी वे बताते तब भी वे ध्यान आकर्षित करते तथा चर्चा में आ जाते। हॉलांकि सरकार की आलोचना में उलझे रहने की वजह से भले ही वे विपक्ष के चहेते बन गए तथा समाचार माध्यमों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया हो किन्तु ये सनसनी तभी तक रहेगी जब तक कोई दूसरा धमाका न हो जाए। फर्ज करें यदि हनीप्रीत फरारी से निकलकर पुलिस अथवा अदालत के सामने पेश हो जाएं तो यशवंत बाबू साधारण समाचार बनकर रह जायेंगे। उन्होंने जो भी मुद्दे उठाये वे सामयिक एवं पूरी तरह प्रासंगिक हैं। उन्होंने जिस अंदाज में आलोचना की वह क्षणिक आवेश बनकर रह जाएगा यदि वे यह नहीं बताते कि नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था पर पड़े बुरे असर को दूर करने के लिये क्या किया जावे? कोई चिकित्सक मरीज की बीमारी का बखान तो चिल्लाकर करे परन्तु उसका इलाज न सुझाए तब उसके बारे में क्या राय बनेगी ये श्री सिन्हा को सोचना चाहिए। यशवंत जी को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि उनकी लिखित और जुबानी आलोचना एक बुद्धिजीवी अथवा अर्थशास्त्री की न होकर एक राजनीतिक नेता की अभिव्यक्ति है और इसलिये उसका उत्तर भी राजनीतिक शैली में ही मिलेगा। यशवंत सिन्हा एक धीर-गंभीर व्यक्तित्व के रूप में सम्मनित रहे हैं। बेहतर होगा वे अपनी इस छवि को बनाए रखें वरना वे भी शत्रुघ्र सिन्हा की कतार में खड़े हो जायेंगे जिन्हें अब कोई भी गंभीरता से नहीं लेता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

सवाल शिवपाल के भविष्य का है

लगता है मुलायम सिंह यादव के भीतर छिपा पहलवानी जोश ठंडा पड़ गया। तभी तो गत 25 तारीख को नई पार्टी की घोषणा करते-करते वे अपने बेटे को नालायक कहते हुए उस पर आशीर्वाद बरसाने में नहीं चूके और अब वे उसके आमंत्रण पर सपा के सम्मेलन में जाने को राजी होते बताए जा रहे हैं। गत दिवस अखिलेश तीन महीने बाद पिताश्री से मिले जबकि दोनों के घरों की बीच चन्द कदम का फासला ही है। अब यदि मुलायम सिंह अखिलेश के न्यौते पर पार्टी के अधिवेशन में चले गए तो उनके हनुमान बने भाई शिवपाल का क्या होगा ये बड़ा सवाल बनकर सामने आ रहा है और फिर उस मंच पर वे रामगोपाल यादव भी होंगे जिन्होंने मुलायम को हटाकर अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पेश किया था। बाप-बेटे के बीच की कलह यदि सुलह में बदलती है जो इसका असर सपा-बसपा के संभावित गठजोड़ पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। विधानसभा चुनाव में सूपड़ा साफ हो जाने के बाद ये चर्चा तेजी से चल पड़ी थी कि भाजपा को रोकने के लिये अखिलेश बसपा के साथ हाथ मिलाने की तरफ बढ़ रहे हैं। इसे बुआ (मायावती) और भतीजे का गठबंधन भी कहा जाने लगा किन्तु ये तब की स्थिति थी जब मुलायम और शिवपाल, अखिलेश की सपा से बाहर थे। यदि यादव परिवार की अंर्तकलह खत्म हो गई तब मायावती सपा के साथ आने की शायद ही सोचेंगी। हालांकि पिता-पुत्र के बीच ्रसौजन्यता और परस्पर प्रेम व सम्मान का आदान-प्रदान होता रहा और जैसी स्थितियां बन रही हैं उनके मद्देनजर पुनर्मिलन समारोह भी शीघ्र संभावित है किन्तु लाख टके का सवाल ये है कि तब शिवपाल क्या करेंगे? कुल मिलाकर ये लग रहा है कि समाजवादी पार्टी के भीतर हुआ महाभारत बाप-बेटे के बीच नहीं वरन चाचा-भतीजे में पार्टी पर वर्चस्व कायम करने को लेकर हुआ था। मुलायम सिंह ये समझ गए हैं कि अब कोई करिश्मा करने का दम-खम उनमें बचा नहीं है। इसीलिये वे भूल जाओ और माफ करो कि नीति पर चल पड़े हैं। देखने वाली बात ये होगी कि शिवपाल बड़े भाई को तो एक बार बर्दाश्त कर भी लें किन्तु वे उस रामगोपाल के साथ किस तरह बैठ सकेंगे जिसने उनकी जड़ें खोदने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 September 2017

देखें जयंत को क्या जवाब देंगे यशवंत

यशवंत सिन्हा भले ही रास्वसंघ की शाखा से होते हुए भाजपा में नहीं आये परन्तु यहां वहां भटकते हुये जबसे पार्टी में आये तब से उसी में जमे जुए हैं। अपने प्रशासनिक अनुभव, बुद्धिजीवी सोच तथा अभिजात्यवर्गीय शालीनता के कारण उनकी छबि एक धीर-गंभीर नेता की रही है। वाजपेयी सरकार में वे वित्त मंत्री भी रहे। भाजपा ने भी श्री सिन्हा को भरपूर सम्मान दिया। पहले राज्यसभा तथा बाद में लोकसभा भेजा। लेकिन 2014 के चुनाव में यशवंत बाबू ने अपनी हजारीबाग सीट छोड़ दी और अपने पुत्र जयंत को आगे कर दिया जो आईआईटी दिल्ली से तकनीकी डिग्री और हार्वर्ड विवि से प्रबंधन में उपाधि लेने के बाद विश्वस्तरीय मुद्रा संगठनों में काम कर चुके थे। उनके अनुभव तथा योग्यता का मूल्यांकन करते हुए प्रधानमंत्री ने जयंत को वित्त राज्यमंत्री बनाकर अरुण जेटली का सहयोगी बना दिया। यद्यपि अपनी पत्नी पुनीता कुमारी सिन्हा के इन्फोसिस सहित कुछ बड़ी कंपनियों में निदेशक बनने पर जयंत पर उंगलियां उठीं परन्तु कोई गंभीर आरोप नहीं लग सका। बाद में प्रधानमंत्री ने उन्हें वित्त से हटाकर उड्डयन मंत्रालय दे दिया। इस बारे में कहा गया कि निवेश के क्षेत्र में जयंत के व्यापक अनुभव के कारण एयर इंडिया की दशा सुधारने हेतु उनका मंत्रालय बदला गया। लेकिन शान्त स्वभाव के माने जा रहे जयंत के विपरीत उनके पिता यशवंश बाबू समय-समय पर मोदी सरकार की नीतियों की मुखर होकर आलोचना करने लगे। बयान और लेख इसका जरिया बने। बौद्धिक वर्ग से जुड़े श्री सिन्हा की आलोचना के पीछे एक कारण ये भी बताया जाता है कि बेटे को लोकसभा में भेजने के बाद वेे झारखंड के मुख्यमंत्री पद के आकांक्षी थे जो उन्हें नहीं मिला। नीति आयोग, वित्त आयोग या अन्य कोई पद भी झोली में नहीं आया तब उन्हें राज्यसभा सीट की तलब हुई लेकिन पूर्व में की गई आलोचनात्मक टिप्पणियों के उपरांत प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की नजरों में वे उस बुजर्ग जमात के हिस्से मान लिये गये जो अपनी पूछ-परख कम होने पर बड़बड़ाया करती है। गत दिवस यशवंत बाबू फिर सुर्खियों में आ गए। एक अंग्रेजी दैनिक में लिखे लेख में उन्होंने नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के लिये वित्तमंत्री अरुण जेटली को कठघरे में खड़ा करते हुए जो-जो कहा उससे भाजपा जितनी आहत हुई उससे ज्यादा कांग्रेस प्रफुल्लित हो गई क्योंकि अर्थव्यवस्था के ढलान पर होने को लेकर जो कुछ भी कांग्रेस कहती आ रही थी उसे श्री सिन्हा ने अपने लेख के माध्यम से विधिवत सत्यापित कर दिया। लेख की टाइमिंग भी विपक्ष को काफी अनुकूल लगी। राहुल गांधी और पी. चिदम्बरम ने बिना देर किये पूर्व वित्तमंत्री के तमाम आरापों को हाथों-हाथ लिया। सरकार की तरफ से यशवंत जी के विश्लेषण पर कोई खास टिप्पणी नहीं आई किन्तु गृहमंत्री राजनाथ ने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने विषयक बयान देकर जरूर चौंकाया क्योंकि वित्तीय विषयों पर उनका न कोई दखल रहा, न ही रुचि। बहरहाल वित्तमंत्री श्री जेटली की चुप्पी जरूर काबिले गौर रही क्योंकि श्री सिन्हा के तरकश में जितने भी तीर थे वे सभी उन्हीं पर छोड़े गये। इस संबंध में सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि यशवंत जी ने अपने पुत्र जयंत को आलोचना से सदैव परे रखा जो मोदी सरकार के बनते ही वित्त विभाग में बिठाए गए थे। यही नहीं सरकार की आर्थिक नीतियों के विश्लेषण और बचाव में भी उन्हें आगे किया जाता रहा। पिता की तरह जयंत भी अत्यंत सौम्य एवं कुशाग्र बुद्धि संपन्न दिखते हैं। गत दिवस वित्तमंत्री पर पिता द्वारा छोड़ी गई मिसाईलों के प्रत्युत्तर में आज बेटे ने भी अंग्रेजी समाचार पत्र में लेख लिखकर सारे आरोपों को खारिज कर दिया तथा एक-दो तिमाही के आधार पर निष्कर्ष निकालने को जल्दबाजी बताते हुए दावा किया कि प्रधानमंत्री द्वारा जिस नये भारत के निर्माण की परिकल्पना की गई है उसमें ये आर्थिक नीतियां सहायक होंगी जिनका उद्देश्य तात्कालिक की बजाय दूरगामी फायदे दिलवाना है। अभी तक यशवंत सिन्हा को भाजपा के भीतर से केवल एक समर्थक मिल सका है और वे हैं शत्रुघन सिन्हा जो मंत्री नहीं बनाए जाने की वजह से स्थायी तौर पर कोप भवन में जाकर बैठ गये। यशवंत बाबू के धमाके ने शत्रु का हौसला बढ़ाया किन्तु जयंत ने पिता के सारे आरोपों को उन्हीं की शैली में नकारकर एक रोचक स्थिति उत्पन्न कर दी है। चूंकि वित्तमंत्री पर किये गये हमले का जवाब बेटे की तरफ से दिया गया इसलिये अब देखने वाली बात ये रहेगी कि यशवंत बाबू अपनी तोपों का मुंह क्या बेटे की तरफ भी मोड़ते हैं या फिर अपनी बात का गलत अर्थ निकाले जाने जैसी सफाई देकर ठंडे हो जायेंगे। यूं भी उन्होंने जो कुछ कहा वह न तो नया था न ही अनोखा। नोटबंदी और जीएसटी के विरोध में वह सब रोजाना कहा सुना जाता रहा है। उस लिहाज से यशवंत बाबू का पूरा लेख अरुण जेटली पर खुन्नस निकालने वाला बन गया। प्रधानमंत्री ने गरीबी देखी है लेकिन वित्तमंत्री सभी को गरीबी देखने बाध्य कर देंगे जैसा कटाक्ष एक तरह से श्री सिन्हा की उस भड़ास जैसा दिखता है जो अपेक्षाएं पूरी न होने का परिणाम है। इतना जरूर है कि उनकी आलोचना ने कांग्रेस के हाथ में एक हथियार दे दिया। खासतौर पर पूर्व वित्तमंत्री पी चिदम्बरम को जो अपने बेटे कार्ति पर सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के कसते शिकंजे से परेशान हैं। यशवंत बाबू का ये कहना कि वे नहीं बोले तो राष्ट्रीय कर्तव्य निभाने में विफल रहेंगे, अपनी जगह ठीक है। उनका ये कहना भी गलत नहीं है कि उनकी राय से सहमत होने के बाद भी भयवश तमाम भाजपा नेता चुप हैं। लेकिन श्री सिन्हा आलोचना के अपने नैसर्गिक अधिकार का उपयोग करते हुए एक अनुभवी बुजुर्ग की तरह वित्तमंत्री और सरकार को सलाह देने के अपने कर्तव्य को भूल गये। जो राहुल और पी. चिदम्बरम श्री सिन्हा द्वारा श्री जेटली की आलोचना को शत-प्रतिशत सही मान रहे हैं क्या उन्होंने बतौर वित्तमंत्री यशवंत बाबू की नीति और निर्णयों की प्रशंसा की थी? इस आधार पर श्री सिन्हा ने जो लिखा वह समीक्षत्मक तौर पर रहता तब ज्यादा उपयोगी माना जाता परन्तु उन्होंने अपने चर्चित लेख में पहले से चल रही बातों को ही दोहराया है जिससे बात असल मुद्दों से भटककर राजनीतिक दाँव-पेंच में उलझकर रह गई। अब चूंकि बेटे ने बिना विलंब किये पिता की तमाम टिप्पणियों का सिलसिलेवार जवाब दे ही दिया है तब इस बात की प्रतीक्षा रहेगी कि पिता श्री बेटे के कान खींचते हुए उसे बड़ों से जुबान लड़ाने के लिये फटकारते हैं या फिर मुलायम सिंह शैली में दांत निपोरते हुए कहेंगे कि क्या करें नालायक तो है पर फिर भी बाप होने के नाते मेरा आशीर्वाद उसे रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 September 2017

घाटी में लौट रही है अमन की बहार

काफी समय से कश्मीर को लेकर राजनीति काफी हद तक उदासीन है। रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने को लेकर उठे विवाद के परिप्रेक्ष्य में अवश्य घाटी से निकाल बाहर किये गये कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की चर्चा चली परन्तु फिर बात यहां-वहां घूमती रही। यूं भी देश में कहीं न कहीं कुछ न कुछ ऐसा होता है जिसके कारण समाचार माध्यम सारा काम छोड़ उस पर जुट जाते हैं। बीते काफी दिनों से हनीप्रीत खबरों की मंडी में ऊँचे भाव पर चल रही हैं। गत दिवस उनकी अग्रिम जमानत रद्द होने की ब्रेकिंग न्यूज देर रात तक हड़कंप मचाती रही। लेकिन सारा दोष समाचार बेचने वाली जमात को भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि फिल्मों की तरह ही खबरों का भी एक बॉक्स ऑफिस बन गया है जिसमें कला फिल्मों की तरह अच्छी रचनात्मक खबर कब आती और चली जाती है पता ही नहीं चलता वहीं रोमांस, एक्शन, कॉमेडी जैसे नुस्खों पर आधारित फिल्म हफ्ते भर में 100-200 करोड़ समेट लेती है। राम-रहीम की गुफा और हनीप्रीत के हुस्न ने गौरी लंकेश को विस्मृतियों की गहरी खाई में धकेल दिया। चंडीगढ़ के करीब मोहाली में एक वरिष्ठ पत्रकार की हत्या को भी प्राईम टाईम में अपेक्षित जगह नहीं मिली। कहने का आशय इतना ही है कि कश्मीर घाटी के हालातों पर शाम को चार-छह जाने-पहिचाने चेहरों को बिठाकर अंतहीन चों-चों करवाने वाले टीवी चैनल ही नहीं समाचार पत्रों में भी घाटी के तेजी से सुधर रहे हालातों की वैसी जानकारी नहीं आती जैसी अपेक्षित है। 2017 की शुरूवात से ही केन्द्र सरकार द्वारा दिये गये खुले हाथ के कारण सुरक्षा बलों ने चुन-चुनकर आतंकवादियों को निपटाना शुरू कर दिया। एनआईए ने हुर्रियत पर छापेमारी कर धन की आपूर्ति रोक दी। न केवल घाटी वरन् देश के अन्य हिस्सों में बैठे अलगाववाद के समर्थकों की गर्दन में भी फंदा कस दिया गया। हुर्रियत के लगभग सभी बड़े नेताओं और उनके नाते-रिश्तेदारों की ऐसी घेराबंदी कर दी गई कि वे उससे निकल ही नहीं पा रहे। सीमा पर घुसपैठ रोकने के बारे में भी सुरक्षा बल बेहद सतर्क हो गये जिससे घाटी में बड़ी वारदात नहीं हो सकी। पत्थर फेंकने वाली भीड़ को भुगतान करने वाले ठेकेदारों पर शिकंजा कसने के भी अच्छे परिणाम निकले हैं। ऑपरेशन ऑल आऊट के जरिये सेना तथा उसके सहयोगी सुरक्षा बलों ने घाटी के आतंक प्रभावित इलाकों के कोने-कोने से पाक समर्थक दहशतगर्दों को निकालकर उनके सही अंजाम तक पहुंचा दिया। बड़ी आतंकी घटनाओं के सूत्रधारों को चुन-चुनकर मार दिये जाने से न केवल घाटी का दक्षिणी हिस्सा बल्कि अन्य इलाकों में भी आतंकवादियों की गतिविधियां खत्म भले न हुईं हों परन्तु ठहर जरूर गई हैं। पहले ये देखने में आता था कि आये दिन सुरक्षा बलों के जवान और अधिकारी शहीद हो जाया करते थे परन्तु अब बाजी पलट गई है। आतंकवादी और घुसपैठियों को मार गिराये जाने का समाचार दिनचर्या जैसा बन गया है। थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत सहित अन्य वरिष्ठ सैन्य अधिकारी भी ऑपरेशन ऑल आऊट पर पैनी नजर रख रहे हैं। इसी संदर्भ में जनरल का दो दिन पहले का बयान काफी उत्साहवर्धक रहा जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों को जमीन में ढाई फुट नीचे पहुंचाने जैसी बात कही थी। खबर है केन्द्र सरकार ने भी फौज को परिस्थितियों के अनुसार निर्णय करने की छूट दे दी है। तभी तो सेना की तरफ से जरूरत पडऩे पर दोबारा सर्जिकल स्ट्राइक सरीखा कदम उठाने जैसा बयान आता रहता है। जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती का ताजा बयान इस बात का प्रमाण है कि घाटी में हालात सामान्य होने की तरफ बढ़ रहे हैं। अब आतंकवादी के मारे जाने पर भीड़ का उन्मादी रूप नजर नहीं आ रहा। एन्काउन्टर स्थल पर सुरक्षा बलों के अभियान में बाधा डालकर आतंकवादी को सुरक्षित निकल भागने में मदद करने जैसी घटनाएं भी नहीं सुनाई दे रहीं। यद्यपि ये मान लेना तो पूरी तरह सही नहीं होगा कि कश्मीर घाटी में आतंकवाद और अलगाववाद पूरी तरह समाप्त हो गया है परन्तु ये तो माना ही जा सकता है कि अब सुरक्षा बलों का दबाव बढ़ गया है। यही कारण है कि न हुर्रियत की तरफ से जहर बुझे तीर छोड़े जा रहे हैं और न ही अलगाववाद का बीजारोपण करने वाले शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूख और पोते उमर की जुबान ज्यादा चल पा रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये देखी जा रही है कि आतंकवादी गुटों का नेतृत्व करने वालों का सफाया करने में सुरक्षा बलों की रणनीति जिस तरह कामयाब रही उसने लगभग हाथ से निकल चुकी बाजी को काफी हद तक उलट दिया है। 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री ने जब कश्मीर पर गले लगाने वाली टिप्पणी की तब ये लगा कि शायद ढुलमुल नीतियां फिर वापिस आ जायेंगी। बीच में भाजपा नेता राम माधव द्वारा सभी से बात करने जैसा बयान देकर हुर्रियत के प्रति नरम रूख का संकेत दिया था। उसके बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी श्रीनगर गये तो लगा कि वे भी वार्ता का घिसापिटा सिलसिला फिर शुरू करेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलगाववादियों पर बल प्रयोग को लेकर नाक-मुंह सिकोडऩे वाली मेहबूबा मुफ्ती भी अब केन्द्र के साथ पूरी तरह सामंजस्य बनाकर चल रही हैं। इस प्रकार ये कहा जा सकता है कि विगत कुछ महीनों से चल रहा ऑपरेशन ऑल आऊट नामक अभियान अपने उद्देश्य में अब तक तो काफी सफल रहा है। केन्द्र सरकार ने भी जिस तरह धैर्य के साथ स्थितियों का विश्लेषण कर विश्व बिरादरी के सामने पाकिस्तान के कपड़े उतारे उससे भी काफी फायदा हुआ है। अच्छा होगा यदि समाचार माध्यम और विभिन्न राजनीतिक दल कश्मीर में सुधर रहे हालातों पर सकारात्म्क चर्चा एवं प्रतिक्रियाएं दें जिससे सुरक्षा बलों का उत्साहवर्धन हो तथा अलगाववादियों की हिम्मत टूटे। रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने का विरोध कर केन्द्र सरकार ने जो सख्ती दिखाई उसका भी सकारात्मक परिणाम देखने मिल रहा है।

-रवींद्र वाजपेयी

Tuesday 26 September 2017

सौभाग्य को दुर्भाग्य से बचाना होगा

पूरा देश प्रतीक्षा करता रहा कि शायद प्रधानमंत्री कल शाम अर्थव्यवस्था में आये ठहराव को रोकने के लिये आर्थिक पैकेज की घोषणा करेंगे किन्तु भाजपा के पितृपुरुष पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती एवं शताब्दि वर्ष पर उन्होंने 4 करोड़ गरीबों के घरों में बिजली कनेक्शन देने हेतु सौभाग्य योजना का एलान कर सभी को चौंका दिया। राजनीतिक तौर पर इसे 2019 के चुनावी समर की तैयारी के रूप में देखा रहा है। जिन परिवारों के नाम 2011 की जनगणना के आधार पर गरीब के रूप में दर्ज हैं उन्हें बिजली कनेक्शन नि:शुल्क दिया जावेगा और जिनके नाम नहीं शामिल हो सके उनसे मात्र 500 रुपये लेकर बिजली कनेक्शन देने की योजना का शायद ही कोई विरोध करेगा। जिसके पास 500 रुपये भी नहीं होंगे उसे 10 मासिक किश्तों में भुगतान की सुविधा मिलेगी। एलईडी बल्ब, पंखा, मोबाईल चार्जिग प्वाईंट जैसी न्यूनतम विद्युत व्यवस्था से गरीब का घर रोशन हो तथा उसकी जिंदगी में सुविधाओं का उजाला हो सके ये कौन नहीं चाहेगा। जहां खंबे और तार नहीं पहुंच सकेंगे वहां सौर ऊर्जा से बिजली देने की बात भी नरेन्द्र मोदी ने की जिसका रख-रखाव पांच साल तक सरकार द्वारा किया जावेगा। सौभाग्य योजना के तहत सरकारी अमला विद्युत विहीन घरों में खुद जाकर उन्हें कनेक्शन देगा। 16000 करोड़ रुपये के खर्च वाले इस कार्यक्रम का लगभग 90 प्रतिशत भार केन्द्र तथा बचा हुआ राज्य वहन करेंगे। 2022 तक सभी को मकान देने की महत्वाकांक्षी योजना पर तेजी से काम कर रही मोदी सरकार ने 18000 ग्रामों तक विद्युत पहुंचाने के लक्ष्य को काफी हद तक पूरा कर ये तो साबित कर ही दिया कि यदि इच्छाशक्ति तथा उद्देश्य में ईमानदारी हो तो असंभव को भी आसान और संभव बनाया जा सकता है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री का ये अप्रत्याशित कदम चुनावी पैंतरा है। हिमाचल और गुजरात के चुनाव में इसका लाभ शायद नहीं मिलेगा किन्तु लोकसभा चुनाव तक अवश्य इसके परिणाम महसूस किये जा सकेंगे। गत दिवस ही दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बड़ी बैठक शुरू हुई। दीनदयाल जी की जन्म शताब्दि के संदर्भ में ऐसी अनेक योजनाएं भाजपा शासित राज्य भी चला रहे हैं। श्री मोदी ने देश में बिजली के अतिरिक्त उत्पादन की बात कहकर इस सवाल को अभी से खत्म कर दिया कि जब बिजली है नहीं तो नए कनेक्शन देने का लाभ ही क्या है? दरअसल वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में जिस तेजी से काम चल रहा है उसे देखते हुए ऊर्जा संकट पर विजय प्राप्त करने की स्थिति बनती जा रही है। सौर ऊर्जा संबंधी उपकरण चूंकि विदेशों से आते थे अत: उनका लगाना घाटे का सौदा माना जाता रहा परन्तु अब उनका उत्पादन देश में भी होने लगा है जिसकी वजह से  प्रत्येक भवन की खाली छत पर सौर ऊर्जा के संयंत्र लगाने की तैयारी शासकीय स्तर पर की जा रही है। इस विषय में उत्साहित करने वाली बात ये है कि अब जनता के मन में भी सौर ऊर्जा के घरेलू उपयोग के फायदे बैठ गए हैं। कुल मिलाकर देखने वाली बात ये है कि यदि देश बिजली उत्पादन के क्षेत्र में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो जाता है तब गरीबों के घर का अंधेरा भी दूर होना जरूरी है। प्रधानमंत्री द्वारा घोषित सौभाग्य योजना का घोषित उद्देश्य तो मतदाता को लुभाना है लेकिन श्री मोदी की इस बात के लिये तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने मुफ्त बिजली के नाम पर बंटने वाली खैरात से परहेज किया। जिस तरह उज्ज्वला योजना के अंतर्गत मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन गरीब परिवारों में बांटे गए परन्तु नियमित रूप से गैस सिलेण्डर हेतु उसे भुगतान करना पड़ रहा है ठीक वैसे ही सौभाग्य योजना को सौजन्य भेंट का रूप दिया गया है जिसमें बिजली की खपत पर निर्धारित पैसा कनेक्शनधारी को देना पड़ेगा। इस आधार पर ये एक अच्छी सोच पर आधारित योजना है जिसके दूरगामी परिणाम गरीबों के जीवनस्तर में सुधार के रूप में सामने आने की उम्मीद की जा सकती है किन्तु प्रधानमंत्री द्वारा अतीत में की गई हर घोषणा अंजाम तक नहीं पहुंच सकी वरना विपक्ष के पास कोई मुद्दा ही नहीं बचता। इस दृष्टि से ये भी देखा जाना चाहिए कि केन्द्र जिस उद्देश्य से सौभाग्य योजना लेकर आया है वह दुर्भाग्य का शिकार न हो जाए क्योंकि प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी और दूरंदेशी के बावजूद अच्छे दिन का एहसास हो नहीं पा रहा। इस संबंध में ये सावधानी भी बरतनी होगी कि वास्तविक गरीब ही लाभान्वित हों वरना हाल ही में गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) कार्डधारियों में संपन्न लोगों के शामिल होने का मामला भी सामने आया था। गरीबों के नाम पर चल रही तमाम कल्याणकारी योजनाओं का जिस तरह सरकारी विभाग तथा बिचौलिये मिलकर दुरूपयोग करते हैं उसकी वजह से इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे से लगाकर तो नरेन्द्र मोदी की जन-धन योजना तक को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। लालकिले से होने वाली हर घोषणा पर यदि सही तरीके से अमल हो पाता तो हम चीन से काफी आगे निकल सकते थे।

-रवींद्र वाजपेयी