Wednesday 28 February 2018

समाचार माध्यम : आत्मावलोकन का समय

अभिनेत्री श्रीदेवी का पार्थिव शरीर कल रात्रि मुंबई आ गया। उनकी मौत को लेकर चल रही अटकलों का सिलसिला भी फिलहाल थम गया क्योंकि दुबई पुलिस ने बाथ टब में गिरने की वजह से मृत्यु की पुष्टि करते हुए प्रकरण की फाइल बंद करते हुए उनके पति बोनी कपूर पर व्यक्त किये संदेह को दूर कर दिया।  हालांकि अभी रहस्य की कई परतें खुलना शेष हैं क्योंकि सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने श्रीदेवी की हत्या और उसमें दाऊद इब्राहीम जैसी किसी भूमिका की सुरसुरी छोड़कर ये संकेत कर दिया कि इस दुखांत के बाद भी पटकथा के कुछ हिस्से सामने आएंगे। बहरहाल इस दुखद घटना को लेकर इलेक्ट्रॉनिक समाचार माध्यमों की अति सक्रियता और अतिरंजित प्रसारण को लेकर एक बार फिर बहस चल पड़ी  है। सोशल मीडिया पर यूँ तो पक्ष-विपक्ष दोनों ही आपस में भिड़े किन्तु अधिकाँश लोगों ने टीवी चैनलों में चल रहे टीआरपी के खेल की आलोचना ही की। आम और खास दोनों तरह के लोगों ने टीवी चैनलों द्वारा समाचार को व्यापार बनाए जाने पर ऐतराज जताया तो कुछ ऐसे भी रहे जो ये कहने से बाज नहीं आए कि क्या दिखाया जाए, क्या नहीं ये तो चैनलों का अधिकार है और यह भी की जिस सामग्री की लोग आलोचना करते हैं उसे ही देखते भी हैं। ये पहला अवसर नहीं है जब टीवी चैनलों द्वारा किसी प्रसंग को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने पर उंगलियां उठी हों। किसी भी सनसनीखेज खबर को चैनल वाले तब तक घसीटते हैं जब तक कोई दूसरा वैसा ही मुद्दा हाथ न आ जाए। रही बात किसी समाचार को अतिरंजित महत्व देने या अनावश्यक खींचने की तो इसके लिए समाज के मानसिक स्तर को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये। फिल्मों में  खुलेपन के चलते मर्यादाओं का उल्लंघन करने के आरोप पर स्व.राज कपूर ने एक बार कहा था कि उसकी आलोचना करने वाले भी ब्लैक में टिकिट खरीदकर सिनेमा देखते हैं। टीवी चैनल वालों का भी यही तर्क है कि यदि पसंद नहीं तो देखते क्यों हो? कई बरस पहले तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकांत के निधन पर एक टीवी चैनल का संवाददाता उनके निवास से रिपोर्टिंग कर रहा था। स्टूडियो में बैठे एंकर ने अचानक उससे पूछ लिया, वहां का माहौल कैसा है? बाद में जनसत्ता के प्रधान संपादक स्व. प्रभाष जोशी ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि जिस घर में किसी का शव रखा हो वहाँ के माहौल के बारे में पूछना मूर्खता नहीं तो और क्या था? प्रभाष जी अपनी बेबाक और तीखी टिप्पणियों के लिए विख्यात थे। वह दौर समाचार पत्र और पत्रिकाओं का था जिसे अब प्रिंट मीडिया कहा जाता है। टीवी समाचार पर भी दूरदर्शन का एकाधिकार था। लेकिन केबल टीवी के आगमन ने इस क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया और देखते-देखते अंग्रेजी और हिंदी के अलावा प्रादेशिक भाषाओं के समाचार चैनल भी शुरू हो गए। इसकी वजह से समाचारों का प्रवाह , सम्प्रेषण की गति और निरंतरता तो बढ़ी लेकिन गुणवत्ता का ह्रास हुआ। क्योंकि समाचार पत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन तो एक निश्चित समय पर ही होता है जबकि टीवी चैनलों ने 24&7 का जो लबादा ओढ़ लिया वह उनके लिए बोझ जैसा साबित हुआ। यही वजह है कि उनके पास उसी समाचार को मसाला लपेटकर दिखाने और फिल्म निर्माता की तरह उसे बॉक्स ऑफिस पर हिट करने की मजबूरी आ गई। यहीं से शुरु हुआ टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) का खेल। टीवी चैनलों को मिलने वाले विज्ञापनों का आधार भी टीआरपी ही होती है। इसलिए समाचार का व्यापारीकरण करने का चलन धीरे-धीरे समाचार की मूल आत्मा पर हावी हो गया। श्रीदेवी की मृत्यु ही नहीं किसी अन्य सनसनीखेज घटना पर भी टीवी समाचार चैनलों का यही  रवैया रहता है। पत्रकारिता के भविष्य और पवित्रता के लिए ये कितना अच्छा या बुरा है इस पर बहस और विवाद दोनों चलते रहते हैं। टीवी एंकरों की सितारा छवि अन्य समाचार माध्यमों के लिए ईष्र्या का कारण भी बन गई है। राष्ट्रीय स्तर के प्रिंट मीडिया में कार्यरत पत्रकार को भी वह प्रसिद्धि और पहिचान नहीं मिल पा रही जितनी किसी टीवी पत्रकार को कम समय में मिल जाती है। समाचार जगत ने जितनी तेजी से उद्योग का दर्जा  लिया वह भी चिंता और चिंतन दोनों का विषय है क्योंकि स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है। टीवी चैनलों की देखादेखी अब समाचार पत्र-पत्रिकाएं भी अपनी स्वाभाविकता छोड़कर कृत्रिमता की ओर भाग रहे हैं जिससे समाचार अब शो केस में विक्रय हेतु सजाकर रखी वस्तु की तरह हो गए हैं। जहां तक पाठक और दर्शकों का प्रश्न है तो वे भी उपभोक्तावाद के इस बवंडर में उडऩे मजबूर हैं। जिस तरह राजनीतिक नेताओं के लिए सब.... हैं जैसी टिप्पणियां सुनाई  देती हैं ठीक वैसे ही अब समाचार माध्यमों के बारे में सुनाई देने लगा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ग्लैमर ने पत्रकारिता में गुणात्मक और वैचारिक बदलाव को जन्म दिया है जिसका परिणाम अंतत: टीआरपी के रूप में सामने आ रहा है। किसी समाचार की सहज और ईमानदार प्रस्तुति करने वाले चैनल की दशा दूरदर्शन जैसी हो जाती है। ये स्थिति समाचार माध्यमों के भविष्य के लिए कितनी अच्छी या बुरी है इसका मंथन करने के साथ ही सोचने वाली बात ये है कि पत्रकारिता अब विशुद्ध पत्रकारों के हाथ से निकलकर पूरी तरह से बाज़ारवादी औद्योगिक संस्कृति की गिरफ्त में आती जा रही है जिसके कारण उसकी विश्वसनीयता पर खतरा बढ़ते-बढ़ते इस हद तक आ पहुंचा कि 'बिकाऊ मीडियाÓ जैसी गाली उसके लिए धड़ल्ले से प्रयुक्त होने लगी। जिसका प्रतिवाद न कर पाना ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि समाचार माध्यमों से जुड़े लोग अपराधबोध से दबे हुए हैं। उदारीकरण ने समाज की सोच को हर तरह से प्रभावित किया है और समाचार माध्यम भी उससे अछूते नहीं रह सकते किन्तु इस पेशे से जुड़े लोगों को ये सोचना चाहिए कि अब जनमत को प्रभावित करने की उनकी ताकत कम होने लगी है क्योंकि समाज ने अपना खुद का माध्यम अपना लिया है जिसे सोशल मीडिया कहा जा रहा है। दूसरों की छीछालेदर करने के स्वयंभू अधिकार से सम्पन्न समाचार माध्यमों को ये जान लेना चाहिए कि उनकी टांग खींचने वाले भी हर घर और तबके में मौजूद हैं। सूचना क्रांति का ये विस्फोट परमाणु शक्ति की खोज जैसा है जो सृजन और विध्वंस दोनों का कारण बन सकता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 27 February 2018

अभिभाषण : रसविहीन फल होकर रह गए


मप्र विधानसभा का बजट सत्र गत दिवस राज्यपाल महोदय के अभिभाषण से प्रारम्भ हुआ। संसदीय परम्परा में प्रति वर्ष एक बार महामहिम सदन को संबोधित करने पधारते हैं और सरकार द्वारा लिखकर दिए भाषण को अक्षरश: बांच देते हैं। बाद में सदन उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करता है। चूंकि अभिभाषण का एक- एक शब्द सरकार रचित होता है इसलिए सत्ता पक्ष उसका गुणगान करता है तो विपक्ष उसे तथ्यहीन और झूठ का पुलिंदा बताकऱ उसकी धज्जियां उड़ाने से बाज नहीं आता। ये सिलसिला आज़ादी के बाद से अनवरत चलता आ रहा है। संसद में राष्ट्रपति दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हैं जिसके बाद दोनों सदन अलग-अलग धन्यवाद प्रस्ताव पारित करते हैं। ये प्रस्ताव  सरकार के बहुमत का प्रमाणीकरण होने से  सत्ता पक्ष की नाक का सवाल होता है जिसमें संशोधन लाने का अधिकार तो विपक्ष के पास होता है बशर्ते सदन उसे पारित करे। बजट सत्र के पहले दिन होने वाली इस औपचारिकता का निर्वहन बेहद उबाऊ होता है। अभिभाषण की ये परम्परा ब्रिटेन से ली गई है जहां संसदीय प्रजातन्त्र और राजतन्त्र एक साथ कायम होने से राजप्रमुख के तौर पर महारानी बजट सत्र के प्रथम दिवस संसद को सम्बोधित करती हैं। बाद में दोनों सदन उनका आभार व्यक्त करते हैं। भारत में भी उसी परम्परा को अपनाते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल के अभिभाषण और उसके प्रति धन्यवाद प्रस्ताव की परिपाटी चली आ रही है किन्तु इस परंपरा के प्रति सत्ता और विपक्ष दोनों का रवैया पूरी तरह रस्म अदायगी जैसा होकर रह गया है। विपक्ष अभिभाषण को पूरी तरह से जहां ख़ारिज करने में नहीं सकुचाता वहीं सत्ता पक्ष अपने ही लिए लिखे अभिनंदन पत्र की शान में कसीदे पढऩे के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देता  है। दो चार दिन की बहस के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पारित तो कर दिया जाता है लेकिन उसके बाद फिर उसकी याद किसी को नहीं रहती। सच कहें तो ये लकीर के फकीर बने रहने का उदाहरण है। संसदीय प्रणाली समृद्ध परंपराओं पर आधारित है। पं. नेहरु सहित संविधान सभा में मौजूद कई दिग्गज नेता चूंकि इंग्लैंड में शिक्षित हुए थे  इसलिए वहां के संविधान और संसदीय प्रणाली से प्रभावित होने से बहुत सारी ब्रिटिश परम्पराएं हमारे संसदीय व्यवस्था में भी जस की तस लागू कर गए जिनमें एक राष्ट्रपति और राज्यपाल के अभिभाषण भी हैं  लेकिन 70 साल के अनुभव बताते हैं कि ये परंपरा अर्थ और महत्व दोनों खो बैठी है तथा सत्ता और विपक्ष दोनों इसे मज़बूरी मानकर ही ढो रहे हैं। यही वजह है कि इसके प्रति आम जनता में कोई रुचि नहीं बची है। यद्यपि किसी ने अब तक इस परिपाटी को खत्म करने की बात नहीं कही किन्तु या  तो इस अभिभाषण के प्रति सदन के भीतर दोनों पक्षों के साथ  ही जनता के मन में भी सम्मान और रुचि उत्पन्न की जावे या फिर इस परम्परा को ससम्मान विदा करना ही उचित होगा। ये विडंबना ही है कि सरकार द्वारा लिखित भाषण उन राष्ट्रपति और राज्यपालों को भी पढऩा पड़ता है जो सत्ता पक्ष की नीतियों और विचारधारा से असहमत होते हैं। वहीं विपक्ष भी अपनी विचारधारा वाले राष्ट्रपति या राज्यपाल के अभिभाषण की इसलिए बखिया उधेड़ता है क्योंकि वह सत्ता पक्ष द्वारा तैयार किया गया है। किसी परम्परा का शुभारंभ तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरतों के मदद्देनजऱ किया जाता है किन्तु समय - समय  पर यदि उनकी समीक्षा न हो तब वे अपनी उपयोगिता और सार्थकता दोनों खो बैठती हैं। यही वजह है कि अभिभाषण के दौरान विपक्ष की टोकाटाकी और हंगामे की खबरें तो प्रमुखता से प्रसारित  होती हैं जबकि अभिभाषण अखबार के भीतरी पन्ने पर कहीं गुम होकर रह जाता है। बेहतर हो इस बारे में गम्भीर चिंतन किया जावे। ये काम एक दिन में होना सम्भव नहीं होगा किन्तु सात दशक से अपनी सत्ता अपने हिसाब से चलाने के बाद कम से कम हमें ये तो देखना ही चाहिये कि क्या जरूरी और क्या नहीं है? संविधान में भी दर्जनों संशोधन हो चुके हैं। मोदी सरकार ने सैकड़ों अनुपयोगी कानूनों का अंतिम संस्कार कर दिया। उसी तरह अब अभिभाषण सरीखी परम्पराओं को जबरन लादे रहने पर भी समीक्षात्मक विचार होना जरूरी लगता है। राष्ट्रपति और राज्यपाल का बतौर संवैधानिक प्रमुख संसद या विधानसभा को सम्बोधित करना गलत नहीं है किंतु अभिभाषण के प्रति सत्ता और विपक्ष दोनों का गैर जिम्मेदाराना रवैया उनके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है। इस परंपरा का कोई न कोई सार्थक विकल्प ढूंढना समय की मांग है। भले ही परम्पराओं को वेदवाक्य मानने वाले कुछ लोगों को ये सुझाव निरर्थक लग सकता है किन्तु समय के साथ यदि आवश्यक बदलाव न हों तो फिर व्यवस्था भी जड़वत होकर रह जाती है। उसी तरह ये अभिभाषण नामक परम्परा भी रसहीन फल की तरह हो चुकी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 26 February 2018

पूर्वोत्तर से आ रहे बड़े बदलाव के संकेत


त्रिपुरा में मतदान हो चुका है। मेघालय और नागालैंड में कल मंगलवार को सम्पन्न होगा तथा मतगणना 3 मार्च को की जाएगी। त्रिपुरा में  पहली मर्तबा भाजपा न केवल मुकाबले में खड़ी है अपितु वामपंथियों के तीन दशक के एकाधिकार को तोड़कर सत्ता बनाने की स्थिति में आ गई है । चौंकाने वाली बात ये है कि 60 विधानसभा सीटों वाले उत्तर पूर्व के इस छोटे से राज्य में अब तक मुख्य विपक्षी दल रहने वाली कांग्रेस को एक भी सीट न मिलने की आशंका चुनाव विश्लेषक व्यक्त कर रहे हैं। वाकई ऐसा हुआ तब कांग्रेस के लिए ये शर्म से ज्यादा चिंता की बात होगी। वहीं भाजपा यदि सरकार बना लेती है तब असम और मणिपुर और अरुणाचल के बाद उत्तर पूर्व में यह उसकी चौथी सरकार होगी जो इसलिए महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय होगा क्योंकि कुछ बरस पहले तक मणिपुर और त्रिपुरा सदृश प्रदेशों में भाजपा का कोई नामलेवा तक नहीं था। वहां के स्थानीय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के जो सर्वेक्षण और एग्जिट पोल आए हैं उनके मुताबिक त्रिपुरा के युवा वर्ग में वामपंथी सरकार के प्रति काफी रोष व्याप्त है जिसकी वजह से भाजपा को अपने लिए उम्मीदें नजऱ आने लगी हैं। वैसे उसने एक क्षेत्रीय दल से भी हाथ मिला रखा है। इस राज्य में पार्टी की जड़ें जमाने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने काफी आक्रामक रणनीति बनाते हुए असम में पार्टी को सफलता दिलवाने वाली टीम को ही त्रिपुरा में मोर्चे पर डटा दिया। जैसे संकेत मिले हैं उनके अनुसार त्रिपुरा में यदि वामपंथी फिर सरकार में आए तब भी भाजपा का मुख्य विपक्ष के रूप में स्थापित होना तय है। त्रिशंकु विधानसभा बनने की हालत में भी भाजपा सरकार बनने के मजबूत आसार हैं। लेकिन कांग्रेस के पूर्ण सफाए की जो संभावना जताई जा रही है अगर वह सही निकली तब पार्टी के लिए ये बड़ा धक्का होगा। मेघालय और नागालैंड के बारे में जो मोटे-मोटे अनुमान सामने आए हैं उनमें भी भाजपा पहली मर्तबा लड़ाई में न सिर्फ  दिखाई दे रही है वरन वह सरकार बनाने के इरादे से मैदान में उतरी है। भले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सहित वहां के चर्च पदाधिकारी भाजपा को हिन्दू पार्टी बताकऱ ईसाई मतदाताओं को भयभीत कर रहे हों किन्तु छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों से समय रहते गठबंधन की वजह से कुछ बरस पहले तक इन पूर्वोत्तर राज्यों में अपरिचित बनी रही भाजपा का मैदान में मुस्तैदी से डटे रहना और राष्ट्रीय राजनीति के प्रतिनिधि के तौर पर अब तक उपस्थित कांग्रेस का विकल्प बनते जाना मायने रखता है। असम, अरुणाचल और मणिपुर में भाजपा पहले से ही काबिज है। यह उसकी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत अब तक अछूते रहे राज्यों में भी अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना है। दूसरी तरफ  कांग्रेस जिस तरह पूर्वोत्तर के इन छोटे-छोटे राज्यों में हांशिये पर सिमटती जा रही है वह उसके लिए अच्छा नहीं है। पूर्वोत्तर में पहले कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुआ करती थी किन्तु धीरे-धीरे वहां आदिवासियों की क्षेत्रीय पार्टियां पनप गईं जिन्हें ईसाई मिशनरियों ने संरक्षण और समर्थन देकर धर्मांतरण का अपना एजेंडा लागू किया। परिणामस्वरूप इन राज्यों में हिन्दू आबादी घटने के साथ ही साथ मिशनरियों की शह पर अलगाववादी ताकतें भी प्रभावशाली होती गईं। राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा पूर्वोत्तर में ज्यों-ज्यों सूखती गई त्यों-त्यों देशविरोधी शक्तियों की सक्रियता बढ़ती गई। म्यामांर, बांग्लादेश और चीन से इन ताकतों को पैसा, प्रशिक्षण, अस्त्र-शस्त्र और शरण मिलने से आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे ने स्थायी रूप से पैर जमा लिए। कश्मीर की तरह यहां भी भारत विरोधी भावनाएं यदि मजबूत हुईं तो उसके पीछे मिशनरियों और उनके साथ वामपंथी गुटों की संगामित्ति की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में रास्वसंघ और उसके अनुषांगिक संगठनों ने यहां की जनता को मुख्यधारा से जोडऩे का जो प्रयास किया उसकी वजह से भाजपा के प्रति झुकाव में बढ़ोतरी हुई। जो हिन्दू आबादी अपने को दांतों की बीच जीभ की स्थिति में अनुभव करते हुए दबी सहमी रहा करती थी वह एकाएक मुखर हो चली। तीन मार्च को आने वाले चुनाव परिणामों में यदि त्रिपुरा में भाजपा ने सरकार बना ली तो ये वामपंथियों से अधिक कांग्रेस के लिए बुरी खबर होगी क्योंकि साम्यवादी आंदोलन की जड़ें तो सूखने की कगार पर हैं ही किन्तु उसके स्थान पर भाजपा का उभार कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को वास्तविकता में बदलने की वजह बनता जाएगा। पूर्वोत्तर राज्यों की राजनीति यद्यपि राष्ट्रीय मुख्यधारा पर न्यूनतम प्रभाव डालती है किंतु भाजपा यदि वहां एक के बाद एक राज्य में  सत्ता हथियाती गई तब ये उल्लेखनीय होगा। क्या होगा इसका पता तो मतगणना के बाद ही चलेगा किन्तु इन छोटे -छोटे राज्यों की राजनीति को स्थानीय दबाव समूहों से मुक्त करवाकर भारत विरोधी शक्तियों को कमजोर करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियां मज़बूत होती हैं तो ये शुभ संकेत है लेकिन इसके लिए भाजपा को क्षणिक लाभ वाले समझौतों और गठबंधनों से बचकर रहना होगा वरना कांग्रेस का पतन होने में तो काफी लंबा समय लगा लेकिन भाजपा को उतना वक्त नहीं मिलेगा क्योंकि पूर्वोत्तर में भी पूर्वापेक्षा स्थितियां तेजी से बदल रही हैं और भारत विरोधी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां वहां इतनी आसानी से मैदान नहीं  छोड़ेंगीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 24 February 2018

आचार संहिता : बिना धार वाली तलवार

मप्र की मुंगावली और कोलारस विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। जीतने के लिए सभी मान्य और अमान्य तौर-तरीके आजमाए जाने की खबरें भी नित्यप्रति आती रहीं। जन और धनबल के अनुचित उपयोग को लेकर चुनाव आयोग के पास शिकायतों का ढेर लग गया। कुछ पर कार्रवाई हुई तो कुछ अभी जांच के दायरे में हैं। आयोग की सख्ती को लेकर भी भाजपा-कांग्रेस की अलग-अलग राय हैं। जिसकी बात नहीं सुनी गई वह आयोग की निष्पक्षता पर उँगलियाँ उठाने लगा। मतदान के एक दिन पहले भी भारी खींचातानी मची रही। दोनों पार्टियों ने चुनाव आयोग को अपने-अपने हिसाब से घेरा। जिसकी इच्छानुसार काम नहीं हुआ उसका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उधर आयोग ने कुछ शिकायतों पर तो फौरन कार्रवाई कर डाली वहीं कुछ को जांच प्रक्रिया के हवाले कर दिया। कुल मिलाकर जो कुछ हुआ वह किसी पुरानी फिल्म के रीमेक सरीखा ही है। चाहे आम चुनाव हो अथवा उपचुनाव,  आचार संहिता उल्लंघन के दर्जनों मामले आयोग बनाता  है। बड़े-बड़े  नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई का ढोल पीटा जाता है। किसी की गाड़ी से नगदी तो किसी के पास से शराब का स्टॉक जप्त किया जाता है। एक-एक गतिविधि पर निगाह रखी जाती है। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक पूरी तरह निष्पक्ष और कठोर दिखने का प्रयास भी करते हैं लेकिन चुनाव सम्पन्न होने के बाद आचार संहिता के उल्लंघन वाले प्रकरणों का क्या होता है ये किसी को पता ही नहीं चलता। कभी-कभार किसी छोटे-मोटे नेता या कार्यकर्ता को दोषी साबित किया गया हो तो वह भी लोगों के संज्ञान में उतना नहीं आया। इस सबसे लगता है चुनाव के दौरान आयोग की सख्ती केवल तदर्थ व्यवस्था बनकर रह गई है। उसके प्रति जो डर राजनीतिक दलों में दिखाई देता है वह भी दिखावटी ही है क्योंकि आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों को यदि समुचित दण्ड मिलता होता तब भविष्य में कोई दूसरा वैसी जुर्रत नहीं कर पाता। चुनाव के दौरान अनुचित तरीके अपनाने के आरोप साबित होने पर चुनाव जीतने के बाद भी किसी प्रत्याशी का निर्वाचन रद्द हो जाता है। वहीं हारने के बाद भी आयोग के नियमों का पालन न करने वाले प्रत्याशी के चुनाव लडऩे पर कुछ वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। लेकिन जो लोग आचार संहिता  उल्लंघन के दोषी पाए जाते हैं उनमें से अपवाद स्वरूप ही कोई दंडित होता होगा। यही वजह है कि चुनाव आयोग की जबरदस्त सख्ती के बावजूद आचार संहिता मजाक बनकर रह जाती है। मुंगावली और कोलारस उपचुनाव में आचार संहिता का उल्लंघलन दोनों खेमों से जमकर होने के सबूत सामने हैं। शिकायतें भी थोक के भाव हुईं। कुछ प्रकरण आयोग ने स्वविवेक से  पंजीबद्ध किये। छिटपुट कार्रवाई के टोटके भी किये गए किन्तु सभी जानते हैं कि चुनाव सम्पन्न होते ही रात गई, बात गई वाली कहावत दोहरा दी जाएगी। यही वजह है कि चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता का अत्यंत कठोरता से पालन कराए जाने के बावजूद न तो चुनाव में पैसा बहने से रोकना मुमकिन हुआ और न शराब एवं अन्य उपहारों का वितरण। बाहुबलियों और माफियाओं की भूमिका भी बदस्तूर जारी है। वाहनों पर बेतहाशा खर्च होता है। कुल मिलाकर चुनाव आयोग डाल-डाल तो राजनीतिक दल पात-पात की नीति पर चल रहे हैं। भले ही स्थिति ऊपर से पूर्वापेक्षा काफी सुधरी हो लेकिन न तो चुनाव सस्ते हो सके और न ही उनमें अनुचित तरीकों का उपयोग रोका जा सका। अपराधी तत्व अभी भी चुनाव लड़ते और लड़वाते हैं। प्रश्न ये है कि इस स्थिति को कैसे सुधारा जाए क्योंकि वर्तमान चुनाव प्रक्रिया जिस तरह की हो चुकी है उसमें किसी साधारण व्यक्ति का उसमें उतरना नामुमकिन सा होता जा रहा है। कहने को तो सभी अपेक्षा करते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग को राजनीति में आना चाहिए किन्तु व्यवहारिक तौर पर यदि ये कठिन है तो उसकी मुख्य वजह चुनाव प्रणाली ही है । चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावों को कम खर्चीला तथा अपराधियों से मुक्त कर साफ-सुथरा बनाने के लिए जो भी प्रयास किये वे सिद्धांतों के रूप में तो प्रतिष्ठित हो गए किन्तु व्यवहार में नहीं आ पा रहे तो उसका कारण राजनीतिक दलों का पूरी तरह सत्ताभिमुखी हो जाना है। येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने की वासना के चलते आचार संहिता का अचार डालकर रख दिया जाता है। यही कारण है कि चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की तमाम कोशिशें बेअसर होकर रह जाती हैं। ये स्थिति किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि धनबल और बाहुबल के जोर पर लड़े जाने वाले चुनाव लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर कर देते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी