Monday 26 February 2018

पूर्वोत्तर से आ रहे बड़े बदलाव के संकेत


त्रिपुरा में मतदान हो चुका है। मेघालय और नागालैंड में कल मंगलवार को सम्पन्न होगा तथा मतगणना 3 मार्च को की जाएगी। त्रिपुरा में  पहली मर्तबा भाजपा न केवल मुकाबले में खड़ी है अपितु वामपंथियों के तीन दशक के एकाधिकार को तोड़कर सत्ता बनाने की स्थिति में आ गई है । चौंकाने वाली बात ये है कि 60 विधानसभा सीटों वाले उत्तर पूर्व के इस छोटे से राज्य में अब तक मुख्य विपक्षी दल रहने वाली कांग्रेस को एक भी सीट न मिलने की आशंका चुनाव विश्लेषक व्यक्त कर रहे हैं। वाकई ऐसा हुआ तब कांग्रेस के लिए ये शर्म से ज्यादा चिंता की बात होगी। वहीं भाजपा यदि सरकार बना लेती है तब असम और मणिपुर और अरुणाचल के बाद उत्तर पूर्व में यह उसकी चौथी सरकार होगी जो इसलिए महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय होगा क्योंकि कुछ बरस पहले तक मणिपुर और त्रिपुरा सदृश प्रदेशों में भाजपा का कोई नामलेवा तक नहीं था। वहां के स्थानीय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के जो सर्वेक्षण और एग्जिट पोल आए हैं उनके मुताबिक त्रिपुरा के युवा वर्ग में वामपंथी सरकार के प्रति काफी रोष व्याप्त है जिसकी वजह से भाजपा को अपने लिए उम्मीदें नजऱ आने लगी हैं। वैसे उसने एक क्षेत्रीय दल से भी हाथ मिला रखा है। इस राज्य में पार्टी की जड़ें जमाने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने काफी आक्रामक रणनीति बनाते हुए असम में पार्टी को सफलता दिलवाने वाली टीम को ही त्रिपुरा में मोर्चे पर डटा दिया। जैसे संकेत मिले हैं उनके अनुसार त्रिपुरा में यदि वामपंथी फिर सरकार में आए तब भी भाजपा का मुख्य विपक्ष के रूप में स्थापित होना तय है। त्रिशंकु विधानसभा बनने की हालत में भी भाजपा सरकार बनने के मजबूत आसार हैं। लेकिन कांग्रेस के पूर्ण सफाए की जो संभावना जताई जा रही है अगर वह सही निकली तब पार्टी के लिए ये बड़ा धक्का होगा। मेघालय और नागालैंड के बारे में जो मोटे-मोटे अनुमान सामने आए हैं उनमें भी भाजपा पहली मर्तबा लड़ाई में न सिर्फ  दिखाई दे रही है वरन वह सरकार बनाने के इरादे से मैदान में उतरी है। भले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सहित वहां के चर्च पदाधिकारी भाजपा को हिन्दू पार्टी बताकऱ ईसाई मतदाताओं को भयभीत कर रहे हों किन्तु छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों से समय रहते गठबंधन की वजह से कुछ बरस पहले तक इन पूर्वोत्तर राज्यों में अपरिचित बनी रही भाजपा का मैदान में मुस्तैदी से डटे रहना और राष्ट्रीय राजनीति के प्रतिनिधि के तौर पर अब तक उपस्थित कांग्रेस का विकल्प बनते जाना मायने रखता है। असम, अरुणाचल और मणिपुर में भाजपा पहले से ही काबिज है। यह उसकी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत अब तक अछूते रहे राज्यों में भी अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना है। दूसरी तरफ  कांग्रेस जिस तरह पूर्वोत्तर के इन छोटे-छोटे राज्यों में हांशिये पर सिमटती जा रही है वह उसके लिए अच्छा नहीं है। पूर्वोत्तर में पहले कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुआ करती थी किन्तु धीरे-धीरे वहां आदिवासियों की क्षेत्रीय पार्टियां पनप गईं जिन्हें ईसाई मिशनरियों ने संरक्षण और समर्थन देकर धर्मांतरण का अपना एजेंडा लागू किया। परिणामस्वरूप इन राज्यों में हिन्दू आबादी घटने के साथ ही साथ मिशनरियों की शह पर अलगाववादी ताकतें भी प्रभावशाली होती गईं। राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा पूर्वोत्तर में ज्यों-ज्यों सूखती गई त्यों-त्यों देशविरोधी शक्तियों की सक्रियता बढ़ती गई। म्यामांर, बांग्लादेश और चीन से इन ताकतों को पैसा, प्रशिक्षण, अस्त्र-शस्त्र और शरण मिलने से आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे ने स्थायी रूप से पैर जमा लिए। कश्मीर की तरह यहां भी भारत विरोधी भावनाएं यदि मजबूत हुईं तो उसके पीछे मिशनरियों और उनके साथ वामपंथी गुटों की संगामित्ति की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में रास्वसंघ और उसके अनुषांगिक संगठनों ने यहां की जनता को मुख्यधारा से जोडऩे का जो प्रयास किया उसकी वजह से भाजपा के प्रति झुकाव में बढ़ोतरी हुई। जो हिन्दू आबादी अपने को दांतों की बीच जीभ की स्थिति में अनुभव करते हुए दबी सहमी रहा करती थी वह एकाएक मुखर हो चली। तीन मार्च को आने वाले चुनाव परिणामों में यदि त्रिपुरा में भाजपा ने सरकार बना ली तो ये वामपंथियों से अधिक कांग्रेस के लिए बुरी खबर होगी क्योंकि साम्यवादी आंदोलन की जड़ें तो सूखने की कगार पर हैं ही किन्तु उसके स्थान पर भाजपा का उभार कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को वास्तविकता में बदलने की वजह बनता जाएगा। पूर्वोत्तर राज्यों की राजनीति यद्यपि राष्ट्रीय मुख्यधारा पर न्यूनतम प्रभाव डालती है किंतु भाजपा यदि वहां एक के बाद एक राज्य में  सत्ता हथियाती गई तब ये उल्लेखनीय होगा। क्या होगा इसका पता तो मतगणना के बाद ही चलेगा किन्तु इन छोटे -छोटे राज्यों की राजनीति को स्थानीय दबाव समूहों से मुक्त करवाकर भारत विरोधी शक्तियों को कमजोर करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियां मज़बूत होती हैं तो ये शुभ संकेत है लेकिन इसके लिए भाजपा को क्षणिक लाभ वाले समझौतों और गठबंधनों से बचकर रहना होगा वरना कांग्रेस का पतन होने में तो काफी लंबा समय लगा लेकिन भाजपा को उतना वक्त नहीं मिलेगा क्योंकि पूर्वोत्तर में भी पूर्वापेक्षा स्थितियां तेजी से बदल रही हैं और भारत विरोधी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां वहां इतनी आसानी से मैदान नहीं  छोड़ेंगीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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