Monday 19 February 2018

छोटे कर्जदार परेशान : अरबपतियों पर बैंक मेहरबान

नीरव मोदी सीनाजोरी पर उतर आए हैं। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक को खुले शब्दों में  बता दिया कि डूबन्त रकम वसूल करने की उसकी क्षमता समाप्त हो चुकी है क्योंकि बैंक प्रबंधन ने जल्दबाजी में जो कदम उठाए उनकी वजह से उनके ब्रांड की छवि पूरी तरह से मिट्टी में मिल गई। स्मरणीय है घोटाला उजागर होने के बाद नीरव ने आश्वस्त किया था कि वह अपने ब्रांड की साख को बेचकर बैंक की रकम अदा कर देगा लेकिन उसने जो नया पैंतरा दिखाया उसमें तो बैंक को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। नीरव ने बिना लागलपेट के बता दिया कि उसने बैंक को धैर्य रखने कहा था किंतु हड़बड़ाहट करते हुए पहले तो पंजाब नेशनल बैंक ने प्रकरण को सार्वजनिक कर दिया। उसके बाद समाचार माध्यमों ने जिस बेरहमी से पूरे मामले की शल्य क्रिया की उससे वह और बिगड़ गया। बची-खुची कसर पूरी कर डाली प्रवर्तन निदेशालय और आयकर छापों ने जिससे उसका देशव्यापी कारोबार चौपट हो गया। इन सबके परिणामस्वरूप उसका पूरा व्यवसाय ठप हो गया। नीरव ने एक बात और भी कही कि बैंक द्वारा प्रचारित 11300 करोड़ की राशि अतिरंजित है और उस पर केवल 5 हजार करोड़ की देनदारी है। शायद उसे लग रहा होगा कि बैंक की शिकायत पर की गई छापेमारी में जप्त की गई चल-अचल -सम्पत्ति से ही बैंक की रकम वसूल हो जाएगी। नीरव यदि देश में ही रहता तब उसकी सफाई पर एकबारगी यकीन भी किया जाता किन्तु मामला उजागर होने के पूर्व ही सपरिवार पलायन ने उसके इर्दगिर्द बने सन्देह के घेरे को और गहरा कर दिया है। ऐसे ही आरोप विजय माल्या ने भी बैंकों पर लगाए थे। वह भी ये भरोसा दिलाता रहा कि बैंकों का पूरा पैसा लौटा देगा लेकिन लंदन में बैठकर गिरफ्तारी के विरुद्ध कानूनी लड़ाई लडऩे के उसके तौर-तरीकों से स्पष्ट है कि माल्या की नीयत में ही खोट है। जैसी बातें माल्या प्रकरण में निकलकर आईं ठीक वही सब नीरव को लेकर ज्ञात हो रही हैं। माल्या ने भी आरोप लगाया था कि वह कर्ज देने वाले बैंकों के साथ समझौता करने को तैयार था लेकिन उनके अडिय़लपन ने खेल बिगाड़ दिया। जानकार सूत्रों का कहना था कि माल्या ने कर्ज की मूल राशि चुकाने का प्रस्ताव देते हुए ब्याज में छूट की मांग रखी थी। पूर्व में भी विभिन्न बैंकों ने डूबते हुए कर्ज की वसूली में ब्याज छोड़कर मूलधन पर संतोष कर लिया था जिसे आधार बनाकर माल्या भी वैसी ही सुविधा चाह रहा था लेकिन अपनी गर्दन बचाने के लिए बैंक प्रबंधन ने उसकी गर्दन जोर से दबाने की कोशिश ज्योंही की त्योंही वह फुर्र हो गया। नीरव के मामले में भी वही सब दोहराए जाने की बात निकल रही है। मसलन वह बैंक से मिलकर बीच का रास्ता निकालने के लिए प्रयासरत था लेकिन सफलता नहीं मिली तो गिरफ्तारी से बचने देश छोड़कर चल दिया। उसके भागने के बाद की गई कड़ी कार्रवाई ने उसके विशाल आर्थिक साम्राज्य की ईंटें हिलाकर रख दीं। इन दोनों प्रकरणों में एक बात स्पष्ट हो गई कि बैंकों से बड़े कर्ज लेकर कारोबार करने वालों की गतिविधियों पर नजर रखने की कोई प्रणाली हमारे देश में नहीं है। ताजा खबरों के अनुसार देश के तमाम धनकुबेरों ने विदेशी नागरिकता ले रखी है। सबका मकसद कर्ज लेकर फरार होने का भले ही न हो लेकिन इसे साधारण समझकर उपेक्षित कर देना भी ठीक नहीं होगा। माल्या और नीरव प्रकरण के बाद अब भारत सरकार के लिए जरूरी हो गया है कि वह उन बड़े कारोबारियों की पूरी जानकारी हासिल करे जो भारतीय बैकों अथवा सरकारी एजेंसियों से न सिर्फ  करोड़ों-अरबों का कर्ज ले चुके हैं अपितु उसका बड़ा हिस्सा विदेशों में बतौर अचल संपत्ति निवेश भी कर रखा है। बैंक प्रबन्धन को भी समय-समय पर ये देखना चाहिये कि उसके द्वारा दिए कर्ज का बड़े उद्योगपति सही जगह उपयोग कर रहे हैं या नहीं? उक्त दोनों मामलों के अलावा कानपुर के एक और धनकुबेर कोठारी की करतूत प्रकाश में आ गई। यद्यपि वह देश छोड़कर नहीं गया लेकिन उस पर भी अरबों रु.पचा जाने का आरोप है। मोटी-मोटी जानकारी के अनुसार भारत के लगभग सभी बैंकों का जो पैसा बड़े कर्जदारों के पास फंसा पड़ा है उसी की वजह से बैंकिंग प्रणाली बैसाखियों पर चलने मज़बूर हो चुकी है। अर्थव्यवस्था को लग रहे हिचकोलों के लिए भी डूबन्त कर्ज बड़ी वजह माने जा रहे हैं। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से परे हटकर सोचें तो पूरे देश में इस बात पर गुस्सा है कि बैंक और सरकार छोटे और मध्यम श्रेणी के कर्जदारों पर तो वसूली में सीमा से बाहर जाकर भी सख्ती करते हैं वहीं करोड़ों-अरबों डकार जाने वालों के प्रति सौजन्यता बरती जाती है और उन्हें विदेश भाग जाने का भरपूर अवसर भी दिया जाता है। इन प्रकरणों में बैंक अधिकारियों के साथ उच्चस्तर के प्रबंधन की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है क्योंकि इतने बड़े कर्ज बिना संचालक मण्डल की स्वीकृति के नहीं दिए जा सकते। कुल मिलाकर भगोड़े कर्जदारों से बिना किसी भी तरह की सहानुभूति रखे कहा जा सकता है कि ऐसे प्रकरणों को सही समय पर निपटाने में जो लापरवाही बरती गई ये उसी का नतीजा है। आगे ऐसा न हो इसकी पुख्ता व्यवस्था करना जरूरी है वरना बैंकों से कर्ज लेकर न चुकाने वालों का हौसला बुलन्द होता जाएगा। ये विडम्बना ही है कि कर्ज में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें तो नित्यप्रति आती रहती हैं लेकिन अरबों का कर्ज लेने वाले देश छोड़कर विदेशों में विलासितापूर्ण जीवन बिताते हुए पूरी व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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