Saturday 27 February 2021

कृषि प्रधान की बजाय चुनाव प्रधान देश बनकर रह गया भारत



भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता रहा है। यहाँ की अर्थव्यवस्था के साथ ही  लोक संस्कृति और जीवन शैली पर भी ग्रामीण प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिकता के रंग में ढले लोग भी ग्रामीण परिवेश को जीने के लिए पांच सितारा होटलों के साथ ही रिसार्ट जाते हैं। भारत की राजनीति भी ग्रामीण इलाकों से प्रभावित होती है जिसके कारण हर राजनीतिक दल खेती और किसानी के हित की बात किया करता है। देश के किसान नए कृषि संशोधन कानूनों को लेकर जो आन्दोलन कर रहे हैं उसने पूरे देश ही नहीं अपितु दुनिया का भी ध्यान खींचा है। लेकिन इस सबसे अलग हटकर देखें तो भारत को कृषि  प्रधान देश कहना अब सही नहीं रहा। इसका कारण राजनीति का अतिरेक है जिसने पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। गत दिवस ही चुनाव आयोग ने बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी और केरल की विधानसभा का चुनाव कार्यक्रम घोषित किया। मार्च के अंतिम सप्ताह से ये सिलसिला शुरू होकर मई महीने के प्रथम सप्ताह में पूरा हो सकेगा। हालांकि इसकी तैयारी महीनों पहले से चल रही थीं। खासकर बंगाल में भाजपा और तृणमूल के बीच चल रहा मुकाबला साधारण राजनीतिक विरोध तक सीमित न रहकर हिंसात्मक घटनाओं तक जा पहुंचा जिसके कारण राजनीतिक सहिष्णुता बंगाल की  खाड़ी में गहराई तक डूब चुकी है। असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी और  केरल में भी राजनीतिक खींचातानी चरम पर है। पिछली सर्दियों में बिहार के चुनाव होते ही इन राज्यों में मोर्चेबंदी शुरू हो गई थी। भारत की जनता के लिए ये सब रोजमर्रे की बातें हो चली  हैं क्योंकि देश के किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहने से समाचार माध्यमों के जरिये वहां के समाचार छाये रहते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि राज्यों के चुनाव अब केवल राज्यों तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय परिदृश्य को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए बंगाल के चुनाव में भाजपा का पूरा केन्द्रीय नेतृत्व कमर कसकर डटा हुआ है। वहीं कांग्रेस के वरिष्ट नेता राहुल गांधी ने केरल में खूंटा ठोंक  रखा है। रोचक बात ये भी है कि कांग्रेस जिस वाम मोर्चे के विरुद्ध केरल के मैदान में है उसी के साथ बंगाल में उसका चुनावी गठबंधन है। तमिलनाडु में लगभग चार दशकों के बाद करुणानिधि और जयललिता के बिना चुनावी जंग लड़ी जा रही है जिसका असर पुडुचेरी पर भी पड़ता है। असम में नागरिकता कानून को लकर विवाद अपने चरम पर हैं। राजनीतिक मुकबले का ये दौर खत्म होते ही उप्र, उत्तराखंड, मणिपुर, पंजाब और गोवा के चुनाव की हलचल शुरू हो जायेगी जहां 2022 में विधानसभा चुनाव होंगे। उसके बाद बारी आयेगी कर्नाटक और गुजरात की और फिर मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावी बिगुल बज उठेगा जिसके बाद आ जायेंगे 2024 के लोकसभा चुनाव। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि चुनाव भारत का राष्ट्रीय उद्योग बन गया  है। लोकतंत्र और चुनाव में चोली दामन का रिश्ता है लेकिन हमारे देश में चुनावी कार्यक्रम इस तरह गड़बड़ा गया है कि राष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दे गौण हो जाते हैं तथा समूची निर्णय प्रक्रिया चुनावी लाभ - हानि की दृष्टि से लिये गये तात्कालिक निर्णयों पर आकर टिक जाती है। गत दिवस चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम घोषित किये जाने के कुछ देर पहले तक विभिन्न राज्यों ने अनेक फैसले करते हुए मतदाताओं के समक्ष दाना डालने का प्रयास किया। हालाँकि बीते कुछ समय से भी ये सिलसिला चला आ रहा है। अब घोषणापत्रों में मुफ्त उपहारों की झड़ी लगेगी। ममता ने सस्ते भोजन में अंडा देने की पेशकश की तो भाजपा ने  मछली देने का लालच दे डाला। कोई मजदूरी बढ़ा रहा है तो कोई नई नौकरियां देने के वायदे के साथ मैदान में है। भाजपा की केंद्र सरकार चुनावी राज्यों को नयी-नयी सौगातें  बांटने में आगे-आगे है। प्रधानमन्त्री खुद प्रधान सेनापति की भूमिका में हैं। इस सबके कारण देश की विकास प्रक्रिया पर विपरीत असर होता है। सबसे बड़ी बात चुनावी खर्च में हो रही  बेतहाशा वृद्धि है जिससे चन्दा उद्योग जोर पकड़ता है जिसका अंतिम परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव का जो मुद्दा उछाला उसे बौद्धिक स्तर पर तो अच्छा समर्थन मिला लेकिन राजनीतिक दल उसे लेकर पूरी तरह उदासीन हैं। स्मरणीय है 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते रहे। लेकिन 1971 में  लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ ही चुनावी  कार्यक्रम अस्त-व्यस्त होकर रह गया। इस स्थिति को कैसे सुधारा जा सकता है ये बड़ा सवाल है क्योंकि इसके लिए राष्ट्रीय पार्टियों को तो कम से कम एकमत होना पड़ेगा। चुनावी राजनीति पर क्षेत्रवाद और जातिगत समीकरणों के प्रभाव का कारण भी अलग-अलग चुनाव ही हैं । समय आ गया है जब इस बारे में गम्भीरता और जिम्मेदारी के साथ विमर्श हो। वरना अर्थव्यवस्था पर चुनावी खर्च का दुष्प्रभाव पड़ता रहेगा। ये कहना गलत न होगा कि एक देश एक चुनाव की व्यवस्था विकास दर में कम से कम दो से तीन फीसदी की बढ़ोतरी करने में सहायक होगी। उससे भी बड़ी बात है कि इससे राजनीतिक कटुता भी घटेगी और जनता को राजनीति से हटकर राष्ट्रीय महत्व के अन्य विषयों पर सोचने का अवसर मिलेगा। 2004 से केन्द्र की सरकार को लेकर तो स्थायित्व बना हुआ है लेकिन प्रदेश के फुटकर चुनाव समूचे वातावारण में  अस्थिरता बनाये रखते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि केंद्र सरकार  नीतियों का सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं कर पाती क्योंकि प्रधानमन्त्री पर हर समय चुनाव जिताने का दबाव जो बना रहता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 26 February 2021

गोडसे पूजक को शामिल कर खुद को कठघरे में खड़ा कर लिया कमलनाथ ने



मप्र में हिन्दू महासभा के एक नेता द्वारा गत दिवस कांग्रेस की सदस्यता लिए जाने पर राजनीतिक बवाल मचा है। उक्त नेता द्वारा कुछ साल पहले महात्मा गांधी के हत्यारे नथूराम गोडसे की मूर्ति की पूजा किये जाने के चित्र सोशल मीडिया के जरिये प्रसारित होते ही टिप्पणियों की बाढ़ आ गई। कांग्रेस के लिए निश्चित रूप से ये बहुत बड़े असमंजस की घड़ी है। अतीत में भाजपा के अनेक नेता भी उसका दामन थाम चुके हैं लेकिन गोडसे की पूजा करने वाले व्यक्ति को पार्टी में शामिल किये जाने का फैसला मप्र के पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव को ही रास नहीं आया जिसका प्रमाण उनका वह ट्वीट  है जिसमें उन्होंने तंज  कसा कि गांधी हम शर्मिन्दा हैं ...। चूंकि उक्त कृत्य  प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की मौजूदगी में हुआ इसलिए पार्टी के बाकी नेता न थूक पा रहे हैं और न ही निगलने की स्थिति में हैं। वहीं  भाजपा को बैठे-बिठाये एक मुद्दा मिल गया कांग्रेस पर हमलावर होने का। एक तरह से ये भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने इस  निर्णय से भाजपा को क्लीन चिट दे दी। वैसे बाबूलाल चौरसिया नामक उक्त नेता का दावा है कि वे जन्मजात कांग्रेसी हैं और पिछले नगर निगम चुनाव में कांग्रेस द्वारा टिकिट काट दिए जाने से हिन्दू महासभा में चले गये थे। हालांकि वे गोडसे की मूर्ति की पूजा वाले कार्यक्रम का हिस्सा न बने होते तब शायद इतना हल्ला नहीं मचता। कांग्रेस के अनेक नेताओं ने भी कांग्रेस में इस नए सदस्य के आगमन पर नाक सिकोड़ी है। वह पहले कांग्रेसी था या नहीं ये बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि आजकल कौन कब किस पार्टी से निकलकर दूसरी में चला  जाए और फिर लौटकर घर वापिसी का राग अलापे ये कहना मुश्किल है। नवजोत सिंह सिद्धू ने भाजपा में रहते हुए राहुल गांधी और डा. मनमोहन सिंह पर जितने तीखे कटाक्ष किये उनके मद्देनजर उन्हें कांग्रेस  में बर्दाश्त किया जाना नाकाबिले बर्दाशत था। इसी तरह विगत लोकसभा चुनाव में मायावती ने उन मुलायम सिंह यादव का प्रचार किया जो गेस्ट हाउस  काण्ड के बाद उनके लिए दुशासन से कम न थे। और भी ऐसे अनगिनत वाकये हैं जो सिद्धांतविहीन दलबदल के उदाहरण के तौर पर जाने जाते हैं लेकिन गोडसे पूजक का कांग्रेस प्रवेश निश्चित रूप से चौंकाने वाला है। ऐसा नहीं है कि भाजपा भी इस मामले में दूध की धुली हो। कुछ बरस पहले बाहुबली नेता कहे जाने वाले डीपी यादव को उसने अपना सदस्य बनाया था लेकिन चौतरफा फजीहत के बाद शाम होते-होते उनकी छुट्टी कर दी गयी। अपराधी नेताओं से भी किसी पार्टी को परहेज नहीं रहा। लेकिन आज भी भारतीय राजनीति में गांधी जी के नाम पर थोड़ी बहुत लोकलाज  बची हुई है। उनके वैचारिक विरोधी भी उनका  नाम आदर से लेते हैं।  उस दृष्टि से बाबूलाल चौरासिया को सदस्यता देकर कांग्रेस ने अपने हाथों से अपने चेहरे पर कालिख पोत ली है। इस बारे में  शोचनीय बात ये है कि उक्त नेता का इतना आभामंडल भी  नहीं है जिससे वह कांग्रेस के लिए बड़ा जनसमर्थन जुटा सके। मान लीजिये ऐसा है तब भी जितने वोट वे दिलवाएंगे उससे ज्यादा गोडसे पूजक की उनकी तस्वीर नुकसान करवा देगी। कमलनाथ बहुत ही अनुभवी नेता हैं जिनकी राजनीतिक समझ पर संदेह नहीं किया जाता किन्तु बाबूलाल चौरासिया जैसे  महत्वहीन व्यक्ति को अपनी मौजूदगी में पार्टी की सदस्यता देकर उन्होंने अपना अवमूल्यन करवा लिया। वैसे भी  वर्तमान में कांग्रेस बिना राजा की फौज जैसी होती जा रही है। बजाय भाजपा से लड़ने के उसके शीर्ष नेता आपस में लड़ने में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं। राहुल गांधी द्वारा दक्षिण भारत के मतदाताओं को अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व बताये जाने पर जिस तरह से उत्तर भारत  के अनेक कांग्रेस नेताओं ने खुलकर नाराजगी जताई उससे ये बात खुलकर सामने आई है कि पार्टी में नीतिगत एकता नहीं रही और सब उसे अपने ढंग से चलाना चाह रहे हैं। मप्र में कमलनाथ की सरकार के गिरने के पीछे भी व्यक्तिगत खींचातानी ही रही। ऐसे समय जब श्री गांधी दक्षिण भारत के दौरे पर हैं तब पुडुचेरी की सरकार गिर गयी लेकिन ऐसा लगा ही नहीं कि कांग्रेस के उच्च नेतृत्व को उससे कोई  फर्क पड़ा हो। इसका एक कारण ये भी है कि कांग्रेस में राज्य और स्थानीय स्तर पर जनाधार वाले नेताओं को किनारे बिठाकर दरबारी  संस्कृति को बढ़ावा दिया गया जिससे वास्तविक स्थिति से शीर्ष नेतृत्व अनभिज्ञ रहता है। फिलहाल पार्टी के पास राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सरकार है जबकि  महाराष्ट्र में वह शिवसेना और राकांपा  की जूनियर पार्टनर है। लेकिन उसके कब्जे वाले उक्त तीनों राज्यों में सिर्फ छत्तीसगढ़ में राजनीतिक शांति है लेकिन पंजाब में अमरिंदर और सिद्धू के बीच तलवारें चल रही हैं तो राजस्थान में गहलोत और पायलट में सांप और नेवले जैसा बैर किसी से छिपा नहीं है। मप्र में भी कमलनाथ की उनके करीबी रहे दिग्विजय सिंह के साथ पहले जैसी नहीं पट रही। बाबूलाल चौरसिया सरीखे मामूली व्यक्ति को सदस्य बनाकर कमलनाथ ने कांग्रेस के माथे पर व्यर्थ में बदनामी पोत दी। अब किस मुंह से पार्टी गांधी के हत्यारों को गाली देगी ये बड़ा सवाल है। भाजपा की देखासीखी राम भक्ति का दिखावा करने के बाद श्री नाथ ने गोडसे की पूजा कर चुके व्यक्ति को पार्टी में जगह देकर खुद को कठघरे में खड़ा कर दिया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 25 February 2021

खेल के मैदान से भी आती है तरक्की : अहमदाबाद का अनुसरण बाकी राज्य भी करें



अहमदाबाद में विश्व के सबसे बड़े क्रिकेट मैदान का  शुभारम्भ होने के साथ ही विश्वस्तरीय खेल काम्पलेक्स की भी घोषणा  हुई। इसके साथ ही ये संभावना भी व्यक्त्त की जाने लगी कि इसके बन  जाने के बाद  भारत छह महीने के भीतर ओलम्पिक करवा सकेगा। ये दावा भी किया जा रहा है कि  अहमदाबाद भारत की  खेल राजधानी के रूप में जाना जाएगा। स्टेडियम के नामकरण को लेकर राजनीतिक विवाद भी उत्पन्न हो गये हैं जो हमारे देश के लिए नई बात नहीं है। ये बात भी उठेगी कि बड़े प्रकल्प गुजरात ही ले जाए जा रहे हैं। मसलन बुलेट ट्रेन मुम्बई से अहमदाबाद चलेगी। हाल ही में प्रधानमंत्री ने समुद्र जल यातायात की शुरुवात भी सूरत के पास ही की। सरदार सरोवर के पास सरदार पटेल की जो मूर्ति लगवाई गयी वह विश्व में सबसे ऊंची होने से पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। हाल ही में उस स्थान के लिए 9 नई  रेलगाड़ियां भी शुरू की गईं। हालाँकि एक जमाने में पंजाब और हरियाणा में खेलों के विकास के लिए अनेक केंद्र विकसित हुए किन्तु अहमदाबाद के इस प्रस्तावित काम्प्लेक्स के बनने के बाद खिलाड़ी इसकी तरफ आकर्षित होंगे। भारत जैसे देश में जहाँ गरीबी , बेरोजगारी , बेघरबारी और भुखमरी जैसी  समस्याएं हैं वहां खेल सुविधाओं पर मोटी रकम खर्च करने के औचित्य पर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन इस बारे में चीन का उदाहरण सबके सामने है जिसने आर्थिक विकास के समानंतर खुद को खेलों के क्षेत्र में भी विकसित देशों के मुकाबले बराबरी से खड़ा कर लिया। ओलम्पिक की पदक तालिका में चीन अग्रणी देशों की  कतार में आ गया है। ओलम्पिक की मेजबानी कर उसने अपनी  प्रबंधन क्षमता से भी विश्व बिरादरी को प्रभावित किया। उस दृष्टि से भारत बहुत पीछे है। क्रिकेट, बैडमिन्टन , कुश्ती और बॉक्सिंग को छोडकर बाकी  खेलों में हमारी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इसका कारण विश्वस्तरीय सुविधाओं के साथ प्रशिक्षण का अभाव है। वैसे बीते एक-डेढ़ दशक  में  छोटे शहरों से जैसी खेल प्रतिभाएं निकलीं उनसे आशा बंधी है लेकिन अच्छा प्रशिक्षण और सुविधाएँ मिल सकें तो बड़ी बात नहीं  135   करोड़ की आबादी वाले देश में ओलम्पिक पदक जीतने वालों की संख्या में सम्मानजनक वृद्धि हो सके। अहमदाबाद में बनने वाला कामप्लेक्स भारत को खेलों के क्षेत्र में विश्वस्तर पर ला खड़ा करेगा ये उम्मीद पूरी तरह सही है। इस बारे में ध्यान रखने वाली बात ये है कि खेल भी अब उद्योगों की शक्ल  ले चुके हैं। आईपीएल ने इंग्लिश काउंटी के साथ ही ऑस्ट्रेलिया के क्लब क्रिकेट की रंगत फीकी कर दी और वह बहुत बड़ा ब्रांड बन गया जिसके कारण भारतीय क्रिकेट नियन्त्रण मंडल को अकल्पनीय कमाई होने लगी। खेलों से पैसा कमाने की शुरुवात ऑस्ट्रेलिया के कैरी  पैकर नामक टीवी चैनल मालिक ने की थी। उसने दुनिया भर के क्रिकेटरों को मोटी रकम देकर जो विश्व श्रृंखला करवाई उसने एकदिवसीय और बाद में  टी - 20 क्रिकेट की शुरुवात की। उसी के बाद से क्रिकेट  विश्व कप प्रारम्भ हुआ। फुटबाल विश्व कप के अलावा यूरोप के फुटबाल क्लब  अपने आप में एक उद्योग हैं। आजकल खेलों से केवल खिलाड़ी , प्रशिक्षक और प्रायोजक  ही नहीं कमाते अपितु ये बड़ी संख्या में रोजगार प्रदान करने का माध्यम भी हैं। भारत के ऐसे अनेक गुमनाम क्रिकेटर आईपीएल के बाद करोड़पति हो गए जिन्हें भारतीय टीम में खेलने का अवसर शायद कभी नहीं मिलता। अहमदाबाद का खेल काम्प्लेक्स उस लिहाज से पूरे देश के लिए दिशासूचक बन सकता है। वैसे क्रिकेट नियन्त्रण मंडल देश भर में स्टेडियम बनाने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करता है जिसके अच्छे परिणाम निकले हैं। गुजरात में विश्व के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम के बाद  विशाल खेल प्रशाल बनाने की योजना वाकई उत्साह जगाने वाली है। इस क्षेत्र में निजी निवेश भी मिलने की प्रबल सम्भावना है। बेहतर हो अन्य राज्य सरकारें  भी अहमदाबाद की तर्ज पर खेल काम्पलेक्स बनाने की तरफ ध्यान दें। अच्छे स्टेडियम और खेल प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था भी अर्थव्यस्था को मजबूती प्रदान करने में सहायक होती हैं। भारत एक दिवसीय  और टी-20  क्रिकेट विश्वकप के अलावा राष्ट्रमंडल और एशियाड की मेजबानी सफलतापूर्वक कर चुका है किन्तु विश्व ओलम्पिक के आयोजन के उसके दावे को अब तक स्वीकार नहीं किया जा सका क्योंकि उसके लिए जरूरी खेल संबंधी संरचना का अभी भी अभाव है। जिस तरह राजमार्ग , हवाई अड्डे, बंदरगाह , फ्लाय ओवर, गगनचुम्बी इमारतें , तेज गति की रेलगाड़ियाँ और वायु सेवा विकास के प्रतीक हैं वैसे ही खेल संबंधी सुविधाएँ भी मौजूदा विश्व में विकास का मापदंड मानी जाती हैं। खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन पर्यटकों को भी आकर्षित करता है। अमेरिका  में कहा जाता है कि विकास अच्छी सड़कों पर चलकर आता है लेकिन 21 वीं सदी में खेल के मैदान भी मुल्क की तरक्की का पैमाना बन गये हैं।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 24 February 2021

मंत्री टूटे-फूटे बंगलों में न रहें लेकिन जनता के धन पर ऐश औचित्यहीन



मप्र की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। राज्य सरकार लगातार कर्ज लेने को मजबूर है। सरकारी भुगतान रुके पड़े हैं। विकास कार्य भी प्रभावित हो रहे हैं। कोरोना काल में सरकारी राजस्व भी घट गया जिसकी भरपाई होना मुश्किल है। ऊपर से लॉक डाउन के दौरान गरीबों को राहत देने पर अतिरिक्त व्यय हुआ।  इस सबके बावजूद शिवराज सिंह चौहान की सरकार के कतिपय मंत्रियों के आवास की साज-सज्जा पर करोड़ों रूपये खर्च किया जाना ये दर्शाता है कि सत्ता में आने के बाद जनता के सेवक बने रहने का ढोंग रचने वाले जनप्रतिनिधि किस तरह से सरकारी  धन की होली खेलते हैं। गत दिवस राज्य विधानसभा में एक प्रश्न के जवाब में  दी गई  जानकारी से जो आंकड़े सामने आये वे ये साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि सत्ता में आते ही चाल, चरित्र और चेहरे की सारी बातें भोपाल के ताल में डूब जाती हैं। मुख्यमंत्री सहित अनेक मंत्रियों के सरकारी आवास की साज-सज्जा पर खर्च हुए करोड़ों रुपयों का क्या औचित्य था ये समझ से परे है। लोक निर्माण मंत्री गोपाल भार्गव ने अकेले ही 56 लाख का काम अपने आवास  पर करवा लिया। वहीं गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने 44 लाख फुंकवा दिए। मुख्यमंत्री के पास शामला हिल के साथ ही एक और बँगला है। दोनों में मिलाकर 32 लाख के करीब का काम हुआ। अन्य मंत्रियों के नाम भी इस सूची में हैं। हमारे देश में इस तरह की शाही फिजूलखर्ची चूँकि सत्ता की पहिचान बन गई हुई इसलिए किसी को न ऐतराज होता है और न ही  आश्चर्य किन्तु जनता के नजरिये से देखें तो इस अय्याशी का बोझ आखिरकार उसी के कन्धों पर पड़ता है। पिछली सरकार के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी मुख्यमंत्री आवास में जाने के पहले बड़े पैमाने पर सुधार और साज-सज्जा करवाई थी। हालांकि ऐसा करने वाला मप्र अकेला राज्य नहीं है। केंद्र सरकार के मंत्री भी इस बारे में पीछे नहीं हैं। मनमोहन सरकार में मंत्री बने शशि शरूर तो कई महीनों पञ्च सितारा होटल में रहे क्योंकि उन्हें आवंटित सरकारी बंगले की  साज-सज्जा उनके मुताबिक बहुत ही निम्न स्तर की थी। सवाल ये है कि सरकार बदलते ही मंत्रियों के बंगलों को नए सिरे से सजाने का औचित्य क्या है ? आखिरकार उनके पूर्ववर्ती मंत्री भी तो सरकारी खर्च  पर ऐशो-आराम से ही रहते होंगे। व्यक्तिगत रूचि अथवा आवश्यकता के अनुसार छोटे-मोटे सुधार करवाना तो लाजमी है लेकिन बेरहमी के साथ लाखों रूपये फूंक देना जनता के धन की लूटपाट नहीं तो और क्या है ? भाजपा खुद को स्व.दीनदयाल उपाध्याय से प्रेरित बताती है, लेकिन सत्ता में आते ही उसके मंत्री गण पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े उस आम नागरिक की परेशानियों  को भूल जाते हैं जिसकी  चिंता करने का उपदेश दीनदयाल जी ने दिया था। मप्र की मौजूदा सरकार के पहले बनी कमलनाथ सरकार 15 महीने में ही गिर गई थी। उसके मंत्रियों ने भी अपने बंगलों पर बेतहाशा खर्च किया था। महज 15 महीनों बाद ही उन्हीं बंगलों पर दोबारा लाखों रूपये लुटा देना जनता के धन की  बर्बादी नहीं तो और क्या है? हालाँकि ऐसी बातें हमारे देश में जल्द ही भुला दी जाती हैं लेकिन अब जबकि सरकारी खर्च चलाने के लिए पेट्रोल-डीजल पर अनाप-शनाप कर थोपा जा रहा है तब इस तरह की फिजूलखर्ची को जनता के  साथ धोखा ही कहा जाना चाहिए। मंत्री गण टूटे-फूटे घरों में रहें ये कोई नहीं चाहेगा। उनके आवास पर सैकड़ों लोग मिलने आते हैं। निर्वाचन क्षेत्र से आने-जाने वालों को ठहराने की व्यवस्था भी उन्हें करनी होती है। बावजूद इसके सत्ता  बदलते ही सरकारी आवास पर किया जाने वाला भारी-भरकम खर्च जन अपेक्षाओं के पूरी तरह विपरीत है। शिवराज सिंह जनता से जुड़े नेता हैं तथा  हमेशा गाँव और गरीब की बात करते हैं। आम लोगों के दु:ख-दर्द में शामिल  होकर अपनी संवेदनशीलता साबित करने  में भी पीछे नहीं रहते, परन्तु  उनकी सरकार उस सादगी को अपनाने के  प्रति पूरी तरह लापरवाह है जिसका उदाहरण मप्र में भाजपा के पितृ पुरूष रहे स्व. कुशाभाऊ ठाकरे और स्व.प्यारेलाल खंडेलवाल जैसे नेताओं ने प्रस्तुत किया था। हालाँकि समय  के साथ बहुत  कुछ बदलता है और उस लिहाज  से  भाजपा भी पार्टी विथ डिफऱेंस का कितना भी दावा करे किन्तु सत्ता में आने के बाद नेताओं के आचरण में बदलाव तो आता ही है। लेकिन रास्वसंघ की पाठशाला से निकले स्वयंसेवक भी जब सत्ता रूपी मेनका के मोहपाश में फंसते हैं तब उनके समर्थक भी ये कहने को बाध्य हो जाते हैं कि हमाम में जाने के बाद सभी एक जैसे हो जाते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 23 February 2021

पुडुचेरी : कांग्रेस के हाथ से एक राज्य और खिसक गया




दक्षिण भारत में कांग्रेस का एकमात्र दुर्ग भी ढह गया। केंद्र शासित  पुडुचेरी की विधानसभा सदस्य संख्या 33 है। उनमें से एक कांग्रेस  विधायक अयोग्य ठहराया जा चुका था। उसके बाद नाटकीय घटनाक्रम में छह कांग्रेस विधायकों ने सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। एक द्रमुक विधायक ने भी वही राह पकड़ ली। इस कारण सरकार अल्पमत में आ गई। बजाय बहुमत साबित करने के मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी ने अपना इस्तीफा उपराज्यपाल को सौंप दिया। विपक्ष ने चूँकि सरकार बनाने से इंकार कर दिया है इसलिए राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प बच रहता है। उल्लेखनीय है आगामी अप्रैल-मई में विधानसभा के चुनाव होना हैं। हाल ही में उपराज्यपाल पद से किरण बेदी को हटाकर तमिलनाडु के राज्यपाल को ही पुडुचेरी का जिम्मा सौंपा गया था। इसके पीछे मुख्यमंत्री के साथ श्रीमती बेदी के तनावपूर्ण रिश्ते बताये जाते थे। श्री सामी ने राष्ट्रपति से मिलकर उनकी शिकायत भी की थी। गत दिवस त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने केंद्र सरकार और श्रीमती बेदी पर राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करने का आरोप भी लगाया। वैसे इस राज्य में ये नई बात नहीं है। अब तक यहाँ बनी दस में से केवल चार सरकारें ही अपना कार्यकल पूरा कर सकी हैं। यह राज्य वैसे तो तमिलनाडु की राजनीतिक संस्कृति का पालन करते हुए द्रमुक और अन्नाद्रमुक के कब्जे में ही रहा लेकिन अधिकतर सरकारें गठबंधन की रहने से राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। यद्यपि  श्री नारायणसामी ने बीते पांच साल ठीक-ठाक ही  काटे। बावजूद इसके कि श्रीमती बेदी के उपराज्यपाल बनने के बाद से सरकार और राजभवन में टकराव शुरु हो गया। इस बारे में मुख्यमंत्री के आरोपों को पूरी तरह से नकारना गलत  होगा क्योंकि भाजपा का मौजूदा नेतृत्व साम, दाम, दंड, भेद की नीति पर चलने में तनिक भी संकोच नहीं करता जिसकी वजह से गैर भाजपा राज्य सरकारों के साथ राज्यपालों के रिश्ते तल्खी भरे हो  जाते हैं। श्रीमती बेदी ने भी पुडुचेरी में नियुक्त होते ही मुख्यमंत्री के समानांतर अपनी गतिविधियां शुरू कर दी थीं जो उनकी पहिचान रही है। वैसे भी केंद्र शासित राज्य की सरकार उपराज्यपाल के नियन्त्रण में कार्य करने के लिए मजबूर रहती है। लेकिन ताजा मामले में पूरा ठीकरा उपराज्यपाल और केंद्र सरकार पर फोड़ना  भी  उचित नहीं होगा। मुख्यमंत्री अनुभवी राजनेता हैं। ऐसे में उनका दायित्व था कि वे अपने विधायकों के बीच पनप रहे असंतोष को सही समय पर पढ़ते हुए उसे दूर करने का समुचित प्रयास करते। कांग्रेस का आला नेतृत्व भी इस राज्य में हो रही उठापटक से पूरी तरह अनजान बना रहा अथवा उसने जानबूझकर आँख  - कान बंद कर रखे ये तो वही जाने लेकिन दक्षिण की अपनी एकमात्र सरकार को बचा पाने में उसकी विफलता नेतृत्व की कमजोरी ही कही जायेगी। जहां तक भाजपा का सवाल है तो दक्षिण में अभी तक वह कर्नाटक से आगे नहीं बढ़ पाई है और आंध्र और तेलंगाना में भी  सत्ता से वंचित ही है। केरल में अवश्य रास्वसंघ के बलबूते उसने अपनी पहिचान बनाई है लेकिन तमिलनाडु और पुडुचेरी में पैर जमाना उसके लिए टेढ़ी खीर है। तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक के साथ उसका गठबंधन तो है लेकिन वहां की राजनीति में उसका आभामंडल प्रभावित नहीं करता। यद्यपि करूणानिधि और जयललिता के न रहने के बाद स्थानीय राजनीति में जो शून्य उत्पन्न हुआ उसमें भाजपा अपने लिए जगह तलाशने में जुटी हुई है । उसे  उम्मीद है कि तमिलनाडु और पुडुचेरी की द्रविड़ आन्दोलन प्रभावित राजनीति में हिन्दू धर्म के प्रति असंदिग्ध आस्था रखने वाला वर्ग अंतत: उसके प्रति आकर्षित होगा। पुडुचेरी के ताजा नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम के पीछे भी भाजपा की वही रणनीति हो सकती है जो उसने जम्मू-कश्मीर में अपनाई थी। हालाँकि अभी तक उसका खुलासा नहीं हुआ लेकिन कांग्रेस के घटते प्रभाव के मद्देनजर भाजपा उसका स्थान लेते हुए खुद को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित करती जा रही है जो उसकी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है जिसकी सफलता पूर्वोत्तर राज्यों में देखी जा चुकी है। उस आधार पर पुडुचेरी का ताजा राजनीतिक घटनाक्रम जऱा भी आश्चर्यचकित नहीं करता। मुख्यमंत्री श्री सामी द्वारा केंद्र सरकार और उपराज्यपाल पर लगाये गए आरोपों के बावजूद कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व के साथ आलाकमान की कमजोरी भी इस मामले में उजागर हुई है। कर्नाटक, मप्र और अब पुडुचेरी में जो कुछ भी  हुआ उससे भाजपा की  सत्ता लिप्सा भले सामने आई लेकिन कांग्रेस की अपने लोगों पर ढीली होती पकड़ भी प्रमाणित होती जा रही है। पार्टी के लिए ये चिंतन के साथ ही  चिंता का भी विषय  है कि आखिर उसके अपने लोग ही उसे छोड़-छोड़कर क्यों भाग रहे हैं ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 22 February 2021

पेट्रोल-डीजल की कीमतों को बेलगाम छोड़ना समझ से परे



कोरोना काल में केंद्र और राज्य दोनों की आर्थिक स्थिति खराब हो जाने से राजस्व  में जबरदस्त कमी आई। उद्योग-व्यापार बंद हो  गये और लोगों की आवाजाही भी रुक गयी। निश्चित रूप से उन हालातों में देश और प्रदेश चलाना बहुत बड़ी समस्या थी किन्तु किसी तरह से गाड़ी खींची जाती रही। प्रत्यत्क्ष करों से होने वाली आय में भी जबर्दस्त गिरावट देखी गई। लेकिन ज्योंही लॉक डाउन हटा त्योंही स्थितियां सामान्य होने लगीं।  उस दौरान अर्थव्यवस्था को लगा  झटका  मामूली नहीं था। उत्पादन शुरू होने के बाद भी बाजारों में मांग नहीं होने से कर की उगाही लक्ष्य के अनुसार नहीं हो पा रही थी। लॉक डाउन हटने के कुछ महीने बाद तक जीएसटी की वसूली भी अपर्याप्त थी। ऐसे में केंद्र और राज्य  सरकार को  राजस्व वसूली का सबसे आसान स्रोत समझ आया पेट्रोल और डीजल। भले ही सरकार ये दावा करती हो कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय उतार-चढ़ाव पर निर्भर हैं लेकिन भारत में केंद्र और राज्यों द्वारा पेट्रोलियम पदार्थों पर जितना कर लगाया जाता हैं वह विकसित देशों को तो छोड़ दें भारत से आकार और आर्थिक दृष्टि से कमजोर छोटे-छोटे देशों तक की तुलना में बहुत ज्यादा है जिसके आंकड़े किसी से छिपे नहीं हैं। सरकारी करों की विसंगति का प्रमाण ही है कि विभिन्न राज्यों में पेट्रोल डीजल के दाम अलग-अलग हैं। उदहारण के तौर पर उप्र और मप्र में पेट्रोल डीजल की कीमतों में तकरीबन 8 रूपये प्रति लिटर का अंतर है। मप्र उन राज्यों में है जो पेट्रोल-डीजल पर सबसे जयादा कर लगाते हैं। एक समय था जब देश में पेट्रोल 70-75 रु. प्रति लिटर के स्तर पर था तब गोवा में स्व. मनोहर पार्रिकर की सरकार ने उसे 50-52 रु. प्रति लिटर पर रोके रखा। देखने वाली बात ये हैं कि अनेक अवसरों पर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में गिरावट आने पर राज्य सरकारों ने कर बढ़ाकर उपभोक्ता को उसके लाभ से वंचित कर दिया। निश्चित रूप से विलासिता की कुछ वस्तुएं ऐसी हैं जिन पर सरकारें बेतहाशा कर  थोपकर अपना खजाना भर सकती है किन्तु पेट्रोल-डीजल को उस श्रेणी में रखा जाना औचित्यहीन है क्योंकि वह आम जनता की  रोजमर्रे की आवश्यकता  बन चुके हैं। यहाँ  तक कि निम्न मध्यमवर्गीय उपभोक्ता भी उसके खरीददार हैं। लॉक डाउन हटने के बाद से पेट्रोल- डीजल और रसोई गैस की कीमतों में जिस तरह से वृद्धि होती जा रही है वह चौंकाने वाली है। यद्यपि इसके लिए सऊदी अरब द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कमी किया जाना बड़ा कारण बताया जाता है किन्तु भारत में केंद्र और राज्य सरकारें  इस बारे में काफी हद तक  मुनाफाखोरों जैसा आचरण कर रही हैं। सरकार एक तरफ तो उद्योगों, किसानों और  नौकरपेशा के हित के लिए राहत के पैकेज घोषित किया करती हैं  लेकिन जिन पेट्रोल और डीजल की कीमतें समूची अर्थव्यवस्था को प्राथमिक स्तर से ही  प्रभावित करती हैं उनके बारे में वह बेहद असम्वेदनशील है। आम तौर पर तो इसके लिए केंद्र सरकार को कसूरवार ठहराया जाता है किन्तु ये कहना  गलत न होगा कि राज्य सरकारें भी इस बारे में कम बेरहम नहीं  हैं। यही कारण है कि पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के अंतर्गत लाने के लिए कोई राज्य सरकार तैयार नहीं है। अब जबकि पेट्रोल-डीजल के दाम शतक बनाने की स्थिति में आ गए हैं और केंद्र सरकार ने अपना पल्ला  झाड़कर मामला पेट्रोलियम कम्पनियों पर छोड़ दिया है तब इस बात का भी विश्लेषण होना चाहिए कि लम्बे लॉक डाउन के बाद भी इन कम्पनियों ने आखिर जबरदस्त मुनाफा कैसे कमाया? और यदि कमा भी लिया तब अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के साथ ही उन्हें दाम घटाकर जनता को राहत देने की उदारता दिखानी चाहिए। लेकिन जिस तरह से रोजाना कीमतें बढ़ रही हैं और केंद्र तथा राज्य सरकारें चुपचाप उनसे होने वाले लाभ को उदरस्थ करती जा रही हैं , वह लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विरुद्ध है। मोदी सरकार ने कोरोना काल में जनता को जमकर राहतें बांटी लेकिन पेट्रोल-डीजल की कीमतों ने सारी कसर पूरी कर दी। इसका असर महंगाई बढ़ने  के रूप में सामने आया है। परिवहन का खर्च बढ़ने से हर चीज की कीमतें बढ़ती हैं। ये जानने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। हालांकि केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गत दिवस इस बारे में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए राज्यों से भी इस बारे में उपाय करने कहा है। लेकिन जिस आर्थिक समस्या से केंद्र जूझ  रहा है वही तो राज्यों के सामने है। ऐसे में जरूरी हैं कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों के बारे में ऐसा कोई फैसला लिया जाए जिससे कि वे न्यायोचित ठहरायी जा सकें। मौजूदा स्थिति में तो क्या हो रहा है किसी को समझ में नहीं आ रहा। सर्वोत्तम तरीका तो यही होगा कि पेट्रोलियम चीजों को भी जीएसटी के अंतर्गत लाते हुए मूल्यों को युक्तियुक्त बनाया जावे। सरकार विभिन्न मदों में जो राहत जनता को देती है वह पेट्रोल-डीजल की कीमतों के जरिये वापिस भी ले लेती है। भले ही प्रधानमन्त्री की लोकप्रियता बनी हुई है और केंन्द्र  सरकार के प्रति आम धारणा  भी सकारात्मक है लेकिन इसे स्थायी मान लेना सही नहीं होगा । आखिर खाने-पीने की चीजों के बाद पेट्रोल-डीजल की कीमतें ही आम जनता को सबसे ज्यादा खुश या नाराज करती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 20 February 2021

फसल जलाने का सुझाव हर दृष्टि से अनुचित




दो दिन पहले किसान आन्दोलन के अंतर्गत रेलें रोकने का जो प्रयास  गया वह  पंजाब , हरियाणा , राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही  आम तौर पर सीमित रहा | किसान नेता खास तौर पर राकेश टिकैत  अब दिल्ली के धरना स्थल को छोड़कर किसान पंचायतें करने बाहर घूम रहे हैं | इस कारण दिल्ली की सीमा पर  जमावड़ा पहले  जैसा नहीं रहा |  नेताओं के बयानों में  भले ही अभी भी सख्ती नजर आ रही हो लेकिन कहीं न कहीं हताशा और उससे उत्पन्न गुस्सा भी महसूस होने लगा है | विगत दिवस श्री टिकैत ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि किसान  अपनी फसल भले जला देंगे लेकिन धरना स्थल छोड़कर नहीं जायेंगे | इसी तरह गुरनाम सिंह चढूनी ने 26 जनवरी की हिंसा के आरोपी किसानों को सलाह दी कि पुलिस वाले  उनके घर आयें तो उन्हें  रोककर रखें लेकिन  दुर्व्यवहार न करें | एक किसान पंचायत में श्री टिकैत ने कहा कि जो भी भाजपा नेता को बुलाएगा उसे 100 लोगों को भोजन देना पड़ेगा | इसी के साथ अब दिल्ली के निकट  गाजीपुर , टिकरी और सिंघु नमक स्थान पर बीते 86 दिनों से चले आ रहे धरने में उपस्थिति लगातार घट रही है | युवाओं का हुजूम भी पहले जैसा नहीं है | भले ही किसान नेता पक्के शौचालय बनवाने के साथ गर्मियीं में कूलर और एयर कंडीशनर लगवाने जैसे प्रलोभन दे रहे हैं लेकिन किसान अब और नुकसान झेलने से बच रहे हैं | ये स्थिति आन्दोलन में आ रहे ठहराव को दर्शाती है | जिसका सबसे बड़ा कारण गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय राजधानी में हुआ उपद्रव था जिसने शांतिपूर्ण आन्दोलन पर हिंसा  रूपी धब्बा लगा दिया | बची - खुसी कसर किसान नेताओं के बीच आन्दोलन पर वर्चस्व कायम रखने के लिए चली खींचातानी ने पूरी कर दी | विशेष रूप से श्री टिकैत ने जिस तरह आंदोलन को गाजीपुर में  केन्द्रित करने का दांव चला उसने नेताओं के बीच सामंजस्य का अभाव उत्पन्न कर दिया | श्री टिकैत द्वारा फसल जलाने जैसी बात कहना बहुत ही खतरनाक संकेत है | बड़े किसान भले ही ऐसा कदम उठाने में सक्षम हों लेकिन छोटे और मध्यम श्रेणी के किसान के लिए ये आत्मघाती होगा | श्री टिकैत को ये नहीं भूलना चाहिए कि नेताओं के भड़काऊ बयानों की वजह से ही भावावेश में अनेक किसानों ने आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया | किसी भी आन्दोलन में जोश की अपनी भूमिका होती है लेकिन होश उससे भी ज्यादा जरूरी है | फसल जलाने जैसा कदम  न सिर्फ किसान अपितु समूचे देश की क्षति होगी | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


केरल और महाराष्ट्र की खबरें खतरे की घंटी



केरल और महाराष्ट्र  में कोरोना का कहर  जारी है तथा  वैक्सीन आने के बाद भी नए मरीज बढ़ रहे हैं | केरल  उन राज्यों में है जिसने शुरुवाती दौर में कोरोना की रोकथाम के जो इंतजाम किये वे अन्य राज्यों के लिए प्रेरणास्रोत बन गये | लेकिन लॉक डाउन में ढील मिलने के बाद वहां कोरोना ने दोबारा दस्तक दी और वह  तेजी से फ़ैलने लगा | यही हाल महाराष्ट्र का है जहां कोरोना की तीसरी लहर आने से  अनेक शहरों में नए सिरे से कर्फ्यू  लगाने की नौबत आ गयी | हॉलांकि बाकी राज्यों में  कोरोना के नए मामलों में  निरंतर कमी आई है लेकिन किसी भी संक्रामक रोग में एक मरीज से लाखों व्यक्ति संक्रमित हो सकते हैं |  चीन से निकलकर पूरी दुनिया में कोरोना का फैलाव इसका उदाहरण है | ये देखते हुए अभी पूरी तरह सावधानी रखनी होगी | बीते कुछ समय से माना जाने लगा था कि भारत ने कोरोना को परास्त कर दिया | बड़े पैमाने पर टीकाकरण शुरू होने  से लोगों का हौसला  भी बढ़ा | लेकिन दूसरी तरफ आम जनता में जिस तरह की निर्भयता  देखी जा रही है वह  खतरनाक साबित हो सकती है | अभी भी ऐसे अनेक  मामले आ रहे हैं जिनमें मरीज में  कोई लक्षण नहीं दिखने के बाद भी वह  संक्रमित पाया गया और अनदेखी की वजह से उसकी स्थिति गंभीर हो गयी | इसीलिये कोरोना को लेकर किसी भी तरह की लापरवाही जानलेवा हो सकती है | पूरी जनता का टीकाकरण होने में अभी काफी समय लगेगा | अर्थव्यवस्था में आये ठहराव को रोकने के लिए भले ही लॉक डाउन हटा लिया गया और तकरीबन सभी गतिविधियाँ सामान्य हो चली हैं किन्तु उसकी वजह से शारीरिक दूरी  के प्रति जनता  लापरवाह हो गई  | बिना मास्क लगाये लोग घूमते देखे  जा सकते हैं  | बाजारों में भीड़ भी  पहले जैसी है |  सार्वजनिक परिवहन के जरिये  लोगों का आना - जाना भी शुरू हो गया | अब तो  सिनेमाघरों को भी छूट मिल गई | भले ही  दीपावली के बाद कोरोना के  विस्फोट की आशंका निर्मूल साबित हुई किन्तु वह पूरी तरह से लुप्त नहीं हुआ | यूरोप के अनेक देशों में उसके नए रूप में आ धमकने का भारत पर ज्यादा  प्रभाव न पड़ा हो लेकिन पहले से मौजूद संक्रमण के मामले इक्का - दुक्का सामने आते रहे | वैक्सीन आने के बाद पूरे देश ने राहत की सांस तो  ली लेकिन उसकी वजह से जो  अति आत्मविश्वास देखने मिल रहा है वह खतरनाक हो सकता है | केरल और महाराष्ट्र से आ रही खबरों ने चिंता के कारण उत्पन्न कर दिए हैं | बेहतर हो पूरे देश में इसे लेकर सतर्कता बरती जाए | उल्लेखनीय है लॉक डाउन हटने के बाद पर्यटन भी प्रारम्भ हो चुका है तथा होटल और रेस्टारेंट में भी आवाजाही शुरू हो चुकी है | इस कारण कोरोना के संक्रमण की आशंका बदस्तूर बनी हुई है | भारत के लोगों ने लॉक डाउन के  दौरान जिस धैर्य और अनुशासन का परिचय दिया उसे जारी रखने की जरूरत है | टीकाकरण और हर्ड इम्युनिटी को लेकर पूरी तरह निश्चिन्त हो जाना जल्दबाजी होगी | केरल और महाराष्ट्र के ताजा हालात से पूरे देश को सतर्क हो जाना चाहिए वरना अब तक के सारे किये - कराये पर पानी फिर जाएगा | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 19 February 2021

जीवनदायिनी नदियों के जीवन की रक्षा ही सही भक्ति



आज पुण्यसलिला नर्मदा  का प्राकट्य उत्सव समूचे नर्मदा क्षेत्र में पूरे भक्ति भाव से मनाया जा रहा है | सुबह से ही भक्तगण नर्मदा तटों पर एकत्र होकर इस  जीवनदायिनी सरिता के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त कर  रहे हैं | इस दौरान लाखों श्रद्धालु उसके जल में स्नान करने के साथ ही दीपदान और पूजन सामग्री  प्रवाहित करेंगे | नर्मदा तटों पर मेले जैसा माहौल बना रहेगा | लेकिन  कल सुबह उन घाटों के जो चित्र समाचार  माध्यमों के जरिये प्रसारित होंगे वे विचलित करने वाले रहेंगे | सर्वत्र गंदगी दिखाई देगी | किनारों पर फूल वगैरह उतराते मिलेंगे | सौभाग्यवश नर्मदा उन गिनी - चुनी नदियों में से है जो प्रदूषण से काफी हद तक मुक्त है | इसका कारण इसके किनारे बसे  शहरों में अपेक्षाकृत कम औद्योगिकीकरण होना है | लेकिन बीते कुछ वर्षों से नर्मदा भक्ति जिस तेजी से बढ़ी उसकी वजह से इस पवित्र नदी का  हाल भी अन्य नदियों  जैसा होने का खतरा बढ़ गया है | भगवान शिव की पुत्री होने से उसका पौराणिक महत्व भी है | ये एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है | नर्मदा के महात्म्य पर पुराण की रचना भी की गई | आद्य शंकराचार्य ने इस पर जो अष्टक लिखा वह नर्मदा भक्तों की जुबान पर रहता है | समूचे नर्मदा क्षेत्र में नमामि देवी नर्मदे का स्वर सुनाई देता है | बीते काफी समय से यह भक्तों के साथ राजनेताओं की श्रद्धा का केंद्र भी बन गई है | कुछ इसकी  परिक्रमा करते हैं तो कुछ नित्य दर्शन | लेकिन इस सबसे अलग हटकर आज के दिन नर्मदा पर हो रहे अत्याचार पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए | नर्मदा से अवैध रेत उत्खनन में राजनेताओं की भूमिका सर्वविदित है | सरकारी बंदिशें इस कारण बेअसर होकर रह जाती हैं | इसी तरह से साधु - संतों ने नर्मदा के किनारों पर अपने आश्रम बना लिए हैं | आवासीय बस्तियां भी कुकुरमुत्तों की शक्ल में नजर आती हैं | ये सब मिलकर नर्मदा को प्रदूषण की गर्त में धकेलने का काम कर रहे हैं , जो चिंता का विषय होना चाहिए | आज माँ स्वरूप इस नदी के  प्राकट्य दिवस पर  केवल उसकी पूजा - अर्चना तक सीमित न रहकर उसकी रक्षा के प्रति दायित्वबोध जाग्रत करने पर भी विचार किया जाना जरूरी है | हमारे देश में नदियों को माँ मानकर पूजित किया जाता है | छोटी - छोटी नदियों को भी गंगा का प्रतीक मानकर लोग अपना श्रद्धा भाव व्यक्त करते हैं | नदी स्नान आध्यात्मिक विधान का हिस्सा है | कुम्भ और उस सदृश अन्य मेले नदियों के किनारे ही आयोजित होते हैं | त्यौहारों पर नदियों में स्नान की परम्परा है | लेकिन बढ़ती आबादी और बेतहाशा शहरीकरण ने नदियों के अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है | दुर्भाग्य से नर्मदा की पवित्रता भी अब प्रदूषण की चपेट में आने लगी है | मप्र के अमरकंटक से गुजरात के भड़ूच तक की इसकी यात्रा प्रकृति की गोद में होती है | इसे सौन्दर्य की नदी भी कहा गया है | लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि ये सौन्दर्य पहले जैसा नहीं रहा | कारण वही हैं जिनकी वजह से गंगा और यमुना दुर्दशा का शिकार हुईं | ऐसे में अनगिनत नर्मदा भक्तों का ये दायित्व है कि वे आज के दिन नर्मदा के पूजन - अर्चन के साथ ही  उसकी रक्षा का प्रण लेकर उस दिशा में प्रयास भी  करें | नर्मदा की विलक्षणता नदियों की पवित्रता के अभियान का आधार बन सके तो ये बहुत बड़ी बात हो सकती है | भारत को प्रकृति ने नदियों के रूप में जो उपहार दिया उसे सहेजकर रखना उसके भक्तों का कर्तव्य है | यदि हम नदियों की पवित्रता को सुरक्षित रखने के प्रति उदासीन  हैं तो फिर ये कहना गलत न होगा कि उनके प्रति  हमारी भक्ति महज पाखंड है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 18 February 2021

जब तक भ्रष्ट तंत्र की पूंजी से राजनीति की दुकान चलेगी तब तक सुधार असंभव



मप्र के सीधी  जिले में दो दिन पूर्व बाणसागर की नहर में यात्री बस गिर जाने से 50  से ज्यादा मौतें हो जाने के बाद मुख्यमंत्री से लेकर निचले स्तर तक शासन और प्रशासन हरकत में हैं | जिम्मेदार ठहराये जा रहे तमाम अधिकारियों और कर्मचारियों को  स्थानान्तरण और निलंबन देकर जनता के गुस्से को ठंडा करने का घिसा - पिटा तरीका भी आजमाया जा रहा है | मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शोक  संतप्त परिवारों तक  व्यक्तिगत  पहुंचकर अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया | मृतकों और घायलों के परिजनों को नियमानुसार मुआवजा भी  बांट दिया जाएगा | जांच रूपी  सरकारी कर्मकांड भी ऐसे हादसों के बाद होता ही है | जिस जगह दुर्घटना हुई वहां की व्यवस्थाएं सुधारने के लिए भी उठापटक की जायेगी | और फिर कुछ समय  बाद सब भूलकर पूरी व्यवस्था अपने ढर्रे में लौट आयेगी | कुछ साल पहले पन्ना के निकट एक बस में आग लगने के बाद सड़क परिवहन के नियमों का पालन करने के लिए सरकारी मुस्तैदी दिखाते हुए  खटारा  बसों को चलने से रोकने के लिए सख्ती की गई | निर्धारित संख्या से ज्यादा सवारियां बिठाये जाने वाली यात्री बसों के विरुद्ध कार्रवाई हुई | लेकिन  लेश मात्र सुधार  नहीं दिखा | इसलिए  ताजा हादसे के बाद परिवहन व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियां जस की तस बनी रहेंगी ये कहना  गलत नहीं होगा | सही बात  ये है कि परिवहन महकमा भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा है | आरटीओ नाम आते ही आम नागरिक के मन में ये बात आ जाती है कि  बिना घूस और दलालों के उस दफ्तर में एक कागज भी इधर से उधर करवाना टेढ़ी - खीर है | ऐसा नहीं है कि सरकार में बैठे नेता और प्रशासन चलाने  वाले  साहेब बाहादुरों की फौज को कुछ पता न हो लेकिन परिवहन  विभाग एक तरह से राजनेताओं के लिए दुधारू गाय की तरह है | कहते हैं परिवहन आयुक्त का पद  कुबेर के खजाने का मालिक होने जैसा है | सत्तारूढ़ पार्टी के खर्चे चलाने में इस महकमे का सहयोग किसी से छिपा नहीं है | राजनीतिक रैलियों के लिए मुफ्त में बसों का इंतजाम परिवहन विभाग के सहयोग से होना भी जगजाहिर है | केवल सरकार में बैठे लोग ही नहीं अपितु विपक्ष की राजनीति चलाने में भी परिवहन विभाग पूरी  सौजन्यता दिखाता है | यही हाल लोक निर्माण विभाग का है | जिसमें जबरदस्त भ्रष्टाचार होता है | इन विभागों को मलाईदार इसीलिये कहा जाता है | मुख्यमंत्री अपने खासमखास को इन विभागों का मंत्री क्यों बनाते हैं ये साधारण बुद्धि वाला भी बता देगा | संदर्भित हादसे के पीछे  परिवहन और लोक निर्माण विभाग के अलावा पुलिस को भी कठघरे में खड़ा किया  जा रहा है | जाम लगने के कारण बस चालक ने जिस वैकल्पिक मार्ग को चुना वह जानलेवा बन गया | यदि यातायात को सुव्यवस्थित करने वाली पुलिस कर्तव्यनिष्ठ हो जाये तो सड़क दुर्घटनाएं काफी हद तक रोकी जा सकती हैं | लेकिन सवाल ये हैं कि ये साहस कौन करेगा ? भारत में राजनीति का जो रंग - रूप और तौर - तरीके हैं उनके चलते भ्रष्टाचार रोकना असंभव मान लिया गया है | सत्ता में बैठा कोई नेता ईमानदार भले हो लेकिन उसे भी अपनी पार्टी को चलाने के लिए भ्रष्ट नौकरशाहों से उगाही करनी होती  है | आरटीओ , लोक निर्माण विभाग और पुलिस के अलावा लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी भी वह विभाग है जिसमें भरी।मलाई पर राजनेताओं की लार टपकती  है | ऐसे में जो हादसा  सीधी में हुआ उसकी पुनरावृत्ति रोकने के दावे सिवाय झूठ के और कुछ भी नहीं हैं | दुर्घटनाएं होंगी , लोग मरते रहेंगे और भ्रष्ट व्यवस्था से चलने वाली राजनीति मुआवजे बाँटकर अपनी संवेदनशीलता का भौंड़ा प्रदर्शन करती रहेगी | हादसे के लिए जिम्मेदार माने जा रहे चंद सरकारी मुलाजिम भले ही निलम्बित या स्थानांतरित कर दिए जाएँ लेकिन मौत न निलम्बित की जा सकती है और न ही स्थानांतरित | जब तक मलाईदार विभागों से उगाही  राजनेता करते रहेंगे तब तक व्यवस्था में सुधार की बात सोच लेना मूर्खीं के स्वर्ग में रहने के समान होगा | ऐसे हादसों के बाद जनता के गुस्से की आग पर पानी डालने के जो परंपरागत तरीके हैं वे भी भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के उपाय होते हैं | जिन विभागों की लापरवाही के चलते ऐसे हादसे होते हैं उनकी कार्यप्रणाली में कोई सुधार या बदलाव तब तक नहीं हो सकता जब तक उनका आर्थिक शोषण   राजनेता बंद नहीं करते | आरटीओ से मुफ्त बसों तथा  टैक्सियों का जुगाड़ करने और पुलिस और लोक निर्माण विभाग का  कामधेनु की तरह उपयोग करने वाली राजनीतिक संस्कृति के चलते लोगों के सस्ते में बेमौत मरने की घटनाए दोहराई जाती रहेंगीं | हाल ही में मुरैना में नकली  जहरीली शराब से काफी लोग मारे जाने के बाद खूब  हल्ला मचा | उसके बाद दो - चार दिन शिव जी के तांडव की तरह राज्य सरकार ने खूब सख्ती दिखाई लेकिन आबकारी महकमा   किसी भी राज्य सरकार के लिए नोट छापने की मशीन होने से उसमें भ्रष्टाचार को रोक पाना असम्भव माना जाता है | शिवराज सिंह चौहान व्यक्तिगत रूप से बहुत ही सम्वेदनशील और भावुक इंसान हैं जो जनता से सीधा संपर्क और संवाद करने में सिद्धहस्त हैं | लेकिन क्या वे  भ्रष्टाचार और राजनीति के गठजोड़ को रोकने का जोखिम उठाने का दुस्साहस कर सकते हैं और जवाब है नहीं क्योंकि राजनीति बिना पैसे के नहीं चल सकती और उस पैसे का बड़ा स्रोत सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार ही है | सीधी बस हादसे के लिए जिम्मेदार  मानकर हाल - फ़िलहाल जिन्हें निलम्बित अथवा स्थानांतरित किया गया वे  सब कुछ समय बाद बहाल हो जायेंगे क्योंकि एक भ्रष्ट की जांच जब दूसरा भ्रष्ट करेगा तब और क्या उम्मीद की जा सकती हैं | कुछ समय पूर्व प्रदेश  के एक परिवहन आयुक्त का लिफाफे लेते हुए वीडियो सार्वजनिक होने के बाद उनकी जांच हुई लेकिन वे बेदाग़ करार दिए गये क्योंकि जिस अफसर को उनकी जांच का काम मिला वह उन्हीं के मूल विभाग में  कनिष्ठ पद पर था | इसीलिये जब उनको निर्दोष बताया गया तब उसका खूब मजाक उड़ा | इस हादसे के लिए जिम्मेदार सरकारी लोगों को भी ऐसी ही रस्म अदायगी के बाद राहत दे दी जायेगी क्योंकि जब तक सरकारी तंत्र द्वारा प्रदत्त पूंजी से राजनीति नामक  दुकान चलेगी तब तक किसी सुधार की कल्पना करना ही व्यर्थ है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 13 February 2021

नेताओं की अदूरदर्शिता से कमजोर पड़ रहा किसान आन्दोलन



दिल्ली के विभिन्न प्रवेश द्वारों पर चल रहे किसान आन्दोलन में अब पहले जैसी धार नहीं रही। 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद किसान संगठनों के बीच मतभेद उभरने की खबरें भी आईं। इसकी  वजह भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का आन्दोलन पर एक तरह से कब्जा कर लेना बताया जा रहा है। वे बड़ी ही चतुराई से आन्दोलन को जाट समुदाय के बीच केन्द्रित करते हुए उसके चेहरे बन बैठे। उप्र और उत्तराखंड में चकाजाम नहीं करने का उनका निर्णय भी किसान संयुक्त मोर्चे के अधिकतर नेताओं को रास नहीं  आया। उसके बाद से ऐसा लगने लगा कि मोर्चे में पहले जैसा सामंजस्य नहीं है। श्री टिकैत द्वारा 2 अक्टूबर तक आन्दोलन करने की घोषणा को लेकर भी मोर्चे के भीतर नाराजगी देखी जा रही है। ताजा समाचारों के अनुसार न सिर्फ टिकरी और सिंघु अपितु राकेश के अपने गढ़ गाजीपुर में भी किसानों की उपस्थिति घटने लगी है। सड़कों पर ताने गये तम्बुओं के अतिरिक्त ट्रैक्टर ट्रॉली में जो आवास व्यवस्था की गई थी उनमें भी किसानों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। किसान  नेता चाहे जितना दावा करें लेकिन  छह महीने की जिस तैयारी से धरने की शुरुवात हुई थी , उसका दम निकलने लगा  है। रबी फसल की कटाई भी नजदीक आती जा रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि अपना घर - खेत छोड़कर कड़कड़ाती सर्दी में खुले आसमान के नीचे बैठने वाले आन्दोलनकारी भी इस बात से निराश हो चले हैं कि अभी तक उनके हाथ कुछ नहीं लगा और दर्जन भर वार्ताओं के बाद भी समझौते की सम्भावना नजर नहीं आ रही। ये सोचना तो जल्दबाजी होगी  कि आन्दोलन पूरी तरह विफल हो गया लेकिन ये कहना भी गलत न होगा कि किसान नेता लंबे आन्दोलन की जमीनी तैयारी ठीक से नहीं कर पाए जिससे वह सीमित क्षेत्र तक सिमटकर रह गया। यही वजह है कि सरकार बजाय झुकने के अपनी बात पर अड़ी हुई है। पंजाब और हरियाणा के समृद्ध किसान भले ही अभी भी धरना स्थल पर जमे हों लेकिन छोटे किसान का धैर्य जवाब देने लगा। हालाँकि किसान संगठनों ने नए जत्थे बुलवाने की व्यवस्था बनाई जो कुछ समय तक चली भी  । लेकिन अब वह सिलसिला कमजोर पड़ने लगा है । पंजाब के गाँवों में जुर्माने की  धमकी के बाद भी लोगों में पहले जैसा उत्साह नहीं रहा तो इसकी वजह आन्दोलन का दिशाहीन होना ही है। जो नेता एकता का प्रदर्शन करते हुए नजर आते थे वे अब अलग - अलग बयान देते हुए एक दूसरे के फैसलों पर सवाल उठाने लगे हैं। राष्ट्रव्यापी चकाजाम को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से भी आन्दोलन का दबाव कम हुआ है। 18 फरवरी को रेल रोकने की जो घोषणा की गई है उसको लेकर भी विशेष तैयारी नजर नहीं आ रही। लेकिन श्री टिकैत द्वारा हरियाणा और राजस्थान का दौरा करने के बाद अन्य  राज्यों में जाने का जो फैसला किया गया वह बुद्धिमत्तापूर्ण कदम है। सही बात तो ये है कि सीधे दिल्ली को घेरकर बैठ जाने के पहले  यदि किसान नेता देशव्यापी दौरे करते हुए किसानों और जनता दोनों के बीच अपनी बात पहुँचाते तो आन्दोलन के प्रति ज्यादा समर्थन जुटाया जा सकता था। आन्दोलन की शुरुवात पंजाब से चूंकि हुई इसलिए दूसरे राज्यों ने उस पर ध्यान नहीं दिया  और यही  सबसे बड़ी गलती हुई क्योंकि दिल्ली के बाहर जो जमावड़ा हुआ उसमें सिखों की बहुतायत होने से आन्दोलन पर एक समुदाय विशेष का ठप्पा लग गया।  अनेक राज्यों से  संगठनों के नेतागण तो मंच लूटने जा पहुंचे लेकिन उनके साथ किसानों की अपेक्षित संख्या नहीं होने से वे दबाव बनाने की स्थिति में नहीं आ सके। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि जो काम  श्री टिकैत तथा बाकी नेता अब कर रहे हैं वही आन्दोलन शुरू  करने के पहले कर लिया जाता तो भले ही दिल्ली में आयोजित धरने में देश भर से किसान नहीं आ पाते परन्तु  वे अपने - अपने स्थानों पर नए कृषि कानूनों का विरोध करते । और फिर किसानों के आयोजन में योगेन्द्र यादव जैसे गैर किसान के प्रवेश से सरकार के साथ समझौते की गुंजाईश खत्म हो गई। यदि संयुक्त मोर्चे में शामिल किसान नेता प्रारम्भ से  ही देश भर में दौरे पर निकल  गये होते तो कृषि मंत्री को संसद में ये कहने का अवसर न मिलता कि आन्दोलन एक ही राज्य का है। लेकिन किसानों का नेता होने का दावा करने वाले सुर्खियों  में रहने का मोह नहीं छोड़ सके और दिल्ली तक ही सीमित रहे। आन्दोलन लम्बा खिंचने के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकलने से समाचार माध्यमों में भी अब उसको लेकर पहले जैसी रूचि नहीं रही। बची - खुची कसर पूरी कर दी राकेश टिकैत की महत्वाकांक्षा ने। सच्चाई ये है कि देश के  जनमानस में  किसानों के प्रति तो सहानुभूति , समर्थन और सम्मान का भाव है किन्तु किसान नेताओं के प्रति नहीं। और ये परखी हुई बात है कि किसी भी आन्दोलन को सफलता तभी मिलती है जब उसे जनता का भावनात्मक समर्थन मिले , जो  अब तक  यह आन्दोलन हासिल करने में विफल रहा । और इसके लिये उसे खड़ा करने वाले वे नेता और संगठन जिम्मेदार  हैं जिनमें दूरदर्शिता का नितांत अभाव है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 12 February 2021

महामहिम शब्द की सार्थकता को बनाये रखने की जिम्मेदारी है राज्यपालों की



हालाँकि ये पहली बार नहीं हो रहा लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे महानुभावों की निर्वाचित सरकार के नेता से पटरी नहीं बैठने के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी को सरकारी विमान उपलब्ध नहीं होने पर उनका किसी एयर लाइंस की नियमित उड़ान से देहरादून जाने का है। जैसी कि खबर है उसके अनुसार राज्यपाल को हवाई अड्डा पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि राज्य सरकार द्वारा उन्हें सरकारी विमान देने से मना कर दिया गया जिसके बाद वे यात्री विमान की टिकिट खरीदकर अपने गंतव्य को रवाना हो गये। बवाल मचा तो राज्य सरकार ने सफाई दी कि राजभवन को इस बारे में पहले ही सूचित किया जा चुका था किन्तु राज्यपाल को उसकी जानकारी नहीं होने से वे हवाई अड्डे जा पहुंचे। विमान हेतु राज्य सरकार ने क्यों मना किया इसका खुलासा अभी नहीं हुआ किन्तु प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि श्री कोश्यारी और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बीच सम्बन्ध अच्छे नहीं होने से आये दिन तनाव उत्पन्न होता है। दरअसल पिछले विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र में सरकार के गठन को लेकर बनी अनिश्चितता के बीच  श्री कोश्यारी ने जिस तरह सुबह-सुबह देवेन्द्र फडनवीस और अजीत पवार को शपथ दिलवाई उसकी खुन्नस श्री ठाकरे के मन में है। उसके बाद भी विभिन्न अवसरों पर दोनों के बीच टकराहट होती रही। कंगना रनौत और अर्नब गोस्वामी के मामले में भी राजभवन और मुख्यमंत्री आमने-सामने आये। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच खींचातानी का दूसरा नजारा इन दिनों बंगाल में देखा जा सकता है। राज्यपाल जगदीप धनखड़ खुले आम मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की मुखालफत करते रहते हैं। गत दिवस तो उन्होंने लोकतंत्र बचाने के लिए ममता सरकार की विदाई को जरूरी बताकर आग में घी डालने जैसा काम कर डाला। हालाँकि ममता भी राज्यपाल के विरुद्ध अमर्यादित टिप्पणियाँ करने से बाज नहीं आतीं। लेकिन श्री धनखड़ भी मर्यादाएं लाघने में संकोच नहीं करते। ऐसे मामलों का मुख्य कारण केंद्र और राज्य में परस्पर विरोधी सरकारें होना है। राज्यपाल चूँकि केंद्र द्वारा नियुक्त होता है इसलिए उसकी वफादारी भी उसके प्रति ज्यादा रहती है। संघीय ढांचे में  राज्य का शासन संविधान के मुताबिक चले ये देखने के लिए राज्यपाल का पद बनाया गया था परन्तु धीरे-धीरे वह राजनीति के मकड़जाल में फंस गया। जब तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था तब तक ये स्थिति नहीं बनीं लेकिन जबसे केंद्र और राज्यों की सरकारें अलग-अलग दलों  की बनने लगीं तब से इस तरह के विवाद बढ़ते गए। विशेष रूप से क्षेत्रीय दलों की राज्य सरकारों का केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल से पंगा होता ही रहता है। इसमें ज्यादा गलती किसकी होती है ये कह पाना कठिन है लेकिन ये बात शत-प्रतिशत सही है कि अधिकतर राज्यपाल अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता से बंधे होने के कारण संवैधानिक पद की गरिमा बनाये रखने में विफल रहते हैं। रोमेश भंडारी, बूटा सिंह और ऐसे ही अनेक उदाहराण हैं जिन्होंने राजभवन में बैठकर राजनीतिक नेता की तरह आचरण किया जिससे  इस पद का मान-सम्मान कम हुआ। वैसे काँग्रेस का रिकॉर्ड इस बारे में बहुत ही कलंकित है जिसने अपने एकाधिकार वाले जमाने में विपक्षी दल की राज्य सरकारों को बिना ठोस कारण के बर्खास्त करने का खेल जमकर खेला। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बोम्मई मामले में दिए फैसले के बाद जरूर ये सिलसिला रुका लेकिन अभी भी राज्यपाल केंद्र के एजेंट की छवि से बहर नहीं निकल पा रहे। श्री कोश्यारी और श्री धनखड़ का उल्लेख तो सामयिक होने से  महज सांकेतिक है लेकिन  समय आ गया है जब इस संवैधानिक पद के अधिकार और उसकी भूमिका पर नए सिरे से विचार किया जावे। इस बारे में एक बात स्पष्ट है कि देश में बहुदलीय व्यवस्था अब एक वास्तविकता है। क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को नकारना भी सच्चाई से आँखें मूँद लेना है। ऐसे में राजभवन  और राज्य सरकार के बीच छोटी - छोटी बातों पर होने वाले विवाद लोकतंत्र के सम्मान को ठेस पहुंचाते हैं। राज्यपाल द्वारा विधानसभा से पारित विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किये जाने से वह लागू नहीं हो पाता। मप्र के राज्यपाल रहे भाई महावीर और मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बीच भी तनातनी चली जिसके बाद महामहिम ने सरकारी विमान का उपयोग बंद कर दिया था। उन्होंने भी अनेक विधेयकों पर लम्बे समय तक हस्ताक्षर नहीं किये। विवाद तो विरोधी विचारधारा के राष्ट्रपति को लेकर भी होता है। हाल ही में संसद का बजट सत्र शुरू होने पर राष्ट्रपति के अभिभाषण का विपक्ष द्वारा बहिष्कार किया जाना इसका प्रमाण है। निश्चित रूप से इस तरह के विवाद अशोभनीय लगते हैं। यद्यपि कुछ ऐसे उदाहराण भी हैं जिनमें विरोधी राजनीतिक विचारधारा के महामहिमों से प्रधानमन्त्री या मुख्यमंत्री के रिश्ते बहुत ही सौजन्यतापूर्ण रहे। इनमें डा.शंकरदयाल शर्मा और अटलबिहारी वाजपेयी तथा प्रणब मुखर्जी और नरेंद्र मोदी उल्लेखनीय हैं। लेकिन राज्यों में ऐसा कम ही होता है। यही वजह है कि क्षेत्रीय दलों द्वारा राज्यपाल के पद को ही विलोपित किये जाने की मांग उठाई जाती रही है। मौजूदा दोनों प्रकरणों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों ही टकराव के बहाने खोजते दिखाई देते हैं लेकिन राजभवन से ज्यादा गम्भीरता और गरिमामय व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। उस दृष्टि से श्री कोश्यारी और श्री धनखड़ को अपनी  राजनीतिक प्रतिबद्धता से परे संवैधानिक लक्ष्मण रेखा के भीतर रहकर ही आचरण करना चाहिए। उद्धव ठाकरे और ममता बैनर्जी को भी  सौजन्यता और शालीनता का प्रतीक नहीं माना जाता लेकिन संवैधानिक पद पर विराजमान महानुभाव को महामहिम शब्द की सार्थकता को बनाये रखने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 11 February 2021

समझौते के बाद भी चीन पर विश्वास करना भूल होगी



चीन सरकार द्वारा बीते 9 माह से लद्दाख में चल रहे विवाद के सुलझने संबंधी जानकारी  देते हुए  बताया गया कि पेंगोंग झील के करीब  दोनों सेनाओं का जमावड़ा खत्म हो जायेगा और तय प्रक्रिया के अंतर्गत सेनाएं पूर्ववत पीछे हट जायेंगी। हालांकि कल तक रक्षा मंत्रालय या भारत सरकार के अन्य किसी अधिकृत स्रोत से इसकी पुष्टि नहीं  हुई थी।लेकिन आज रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में इसकी पुष्टि कर दी ।उन्होंने साफ किया कि भारत ने कुछ भी नहीं खोया । टैंकों की वापिसी के साथ इसका सिलसिला शुरू होगा और सबसे आखिर में सैनिक पीछे हटेंगे। यदि वाकई ऐसा हुआ है तब ये भारत की सैन्य शक्ति का ही प्रभाव माना  जायेगा जिसने चीन को पहली बार झुकने को मजबूर कर दिया। सही बात तो ये है कि  गलवान घाटी में हुई खूनी मुठभेड़ में भारतीय सैन्य टुकड़ी पर धोखे से किये हमले के बाद की गई जवाबी कार्रवाई में हमारे जवानों ने चीनी सैनिकों की जिस तरह धुनाई की उसके बाद चीन की अकड़ कम हुई वरना वह बात करने को भी राजी नहीं होता। उस समय कोरोना के प्रकोप से पूरा देश पीडि़त था। चीन को लगा कि वह 1962 की पुनरावृत्ति कर लेगा जब भारत को करारी हार झेलनी पड़ी और उसने हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा ली। लेकिन 2020 में उसे एकदम उल्टा अनुभव हुआ। भारत ने पूरी सीमा पर जबरदस्त सैन्य मोर्चेबंदी करते हुए चीन को साफ़ संकेत दे दिया कि वह धमकियों से डरने वाला नहीं है। अग्रिम चौकियों तक़ सड़क और पुल  के साथ ही हवाई अड्डा बनाकर लड़ाकू विमानों के अलावा  मिसाइलों की तैनाती तो की ही गई , प्रधानमन्त्री , रक्षा मंत्री और सेनाध्यक्ष ने भी अग्रिम मोर्चों पर जाकर सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए चीन को विस्तारवादी रवैया छोडऩे के प्रति आगाह किया। सबसे बड़ी बात ये हुई कि भारत ने इस विवाद में किसी और को मध्यस्थ नहीं बनाया और चीन को बातचीत की टेबिल पर बैठने बाध्य कर दिया। रणनीतिक महत्व के अनेक स्थानों  पर भारतीय सैनिकों ने अपना आधिपत्य स्थापित कर सामरिक तौर पर बढ़त भी ले ली। लेकिन सैन्य तैयारियों के समानांतर भारत ने आर्थिक मोर्चे पर जो आक्रामक रवैया अपनाया उसने चीन पर अतिरिक्त  दबाव बनाया। भारत को  जो वैश्विक समर्थन मिला उसकी वजह से भी चीन परेशान हुआ। एक साल पहले तक वह आर्थिक महाशक्ति के तौर पर  अमेरिका तक को चुनौती देने की स्थिति में आ गया था। लेकिन कोरोना के बाद से उसके प्रति पूरी दुनिया गुस्से के साथ ही घृणा से भी भर उठी। भारत सरकार ने एक के बाद एक ऐसे कदम उठाये जिनकी वजह से चीन से होने वाले आयात में बड़ी कमी आई। देश  को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में उठाये गये कदमों का जमीनी असर भले ही अभी उतना न महसूस हुआ हो लेकिन भावनात्मक तौर पर न सिर्फ उपभोक्ता अपितु उद्योगपति भी चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को लेकर उदासीन होने लगे। इस नीति से वह जबरदस्त दबाव में आया। ये  कहना गलत न होगा कि सीमा पर सैन्य स्तर से  दिए गए माकूल जवाब के अलावा आर्थिक दृष्टि से उसकी दुखती रग पर हाथ रखने की  रणनीति  बहुत  कारगर रही। चीन को ये एहसास कतई न था कि भारत इतनी बड़ी तैयारी के साथ युद्ध के लिए खड़ा हो जाएगा। कूटनीतिक मोर्चे पर हमारी ओर से कड़क रवैया दिखाए जाने से भी चीन की अकड़ कम हुई। लेकिन चीन और धोखा एक दूसरे  के पर्याय हैं। धूर्तता  उसकी रग - रग में भरी हुई है। भले ही वह माओ युग  के लौह  आवरण को तोड़कर साम्यवादी चोला पहिनने के बाद भी पूंजी के फेर में फंस गया हो लेकिन उसकी सोच में जो कुटिलता है वह कुत्ते की पूंछ समान है। बीते 9 महीनों में भारत की तरफ से मिले कड़े जवाब से वह निश्चित तौर पर बौखलाया है। सीमा पर हमारी  मोर्चेबंदी से वह जितना विचलित हुआ उससे ज्यादा मार उसे आर्थिक मोर्चे पर पड़ रही है। गलवान घाटी के संघर्ष के बाद भारत में चीन के ग्लैमर से प्रभावित तबके की  मानसिकता भी काफी हद तक बदली है जिसकी वजह से आत्मनिर्भर भारत के प्रति लोगों का आग्रह बढ़ा। बीते कुछ महीनों में वैश्विक आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई है।  ऐसे में चीन ऊपरी तौर पर भले ही समझौतावादी  रवैया दिखा रहा हो लेकिन वह दोबारा कोई हरकत नहीं करेगा इसकी कोई शाश्वति नहीं  दी जा सकती। इसलिए  सेनाओं की वापिसी यदि हो जाए तब भी भारत को सतर्क  रहना होगा क्योंकि गलवान में हुई पिटाई का बदला लेने के लिए वह कब क्या कर बैठे ये कह  पाना मुश्किल है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 10 February 2021

संसद में सौजन्यता : काश, ऐसे दृश्य आगे भी देखने मिलें



किसी राजनेता की मृत्यु के उपरान्त आयोजित  श्रृद्धांजलि सभा में विरोधी विचारधारा वाले नेतागण भी  प्रशंसा करते हुए उसके गुणों का बखान करते हैं। इस दौरान कहीं से भी नहीं  लगता कि ये वही लोग हैं जो जीवित रहते तक उसकी बखिया उधेड़ने का कोई  मौका नहीं  छोड़ते थे। इसी तरह रास्ते में शवयात्रा देखकर देखकर हर कोई रुक जाता है और मन ही मन मृतक की शांति के लिए अपने इष्ट से प्रार्थना करता है। ये सम्वेदनशीलता ही मानवीयता का आधार है। लेकिन आज की राजनीति में जब विरोधी विचारधारा के लोगों में मतभेद शत्रुता के चरम पर पहुँच जाते हैं तब आश्चर्य से ज्यादा दु:ख होता है। उस दृष्टि से गत दिवस राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे  वरिष्ठ कांग्रेस सांसद  गुलाम नबी आजाद के कार्यकाल की समाप्ति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण के दौरान भावुक  हो जाना चर्चा का विषय बन गया। उन्होंने श्री आजाद के संसदीय योगदान के साथ उनके व्यक्तित्व की तो प्रशंसा की ही लगे हाथ ये भी कह दिया कि वे लौटकर आएंगे और उनके अनुभवों का लाभ लिया जावेगा। भावुक तो श्री आजाद भी हुए और इंदिरा जी तथा संजय गांधी के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी का भी स्मरण किया। भावनाओं के इस प्रवाह का राजनीतिक विश्लेषण भी बिना देर किये शुरू हो गया। किसी को प्रधानमन्त्री के आंसुओं में नाटकीयता दिखी तो किसी को राजनीति। श्री आजाद के भाषण में भी उनकी पार्टी की अंदरूनी खींचतान की झलक दिखाई दी , जिसके चलते उन्हें राज्यसभा की सदस्यता से वंचित होना पड़ा। ये कयास लगाये जाने लगे कि केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने में उनकी सहायता ले सकती है। ज्ञातव्य है श्री  आजाद इस राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे हैं और वर्तमान परिदृश्य में डा. फारुख अब्दुल्ला के अलावा एकमात्र नेता हैं जिनकी राष्ट्रीय राजनीति में पहिचान है। चूँकि श्री आजाद अधिकतर समय केंद्र में ही रहे इसलिए राजनीतिक तौर पर वे राष्ट्रीय मुद्दों के बेहतर जानकार है। बतौर सांसद भी उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही। हालांकि कांग्रेस में वे प्रथम पंक्ति के नेता नहीं बन सके और इसका कारण संभवत: जम्मू कश्मीर का राष्ट्र की मुख्यधारा से कटा रहना ही रहा। लेकिन 370 और 35 ए हटने के बाद से वहां  के हालात पूरी तरह बदल गये हैं। यद्यपि श्री आजाद ने उस निर्णय का राज्यसभा में पूरी ताकत से विरोध किया था लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी  ये एहसास हो चला है कि वे संवैधानिक प्रावधान इतिहास हो चले हैं। ऐसे में यदि वे अपनी भूमिका को नए सिरे से तय करने की सोच रहे हों तो उसमें आश्चर्य नहीं  होना चाहिए। लेकिन प्रधानमन्त्री ने जिस तरह उनकी तारीफ के पुल बांधे उस पर अधिकतर प्रातिक्रियाएं व्यंग्यात्मक ही रहीं। विशेष रूप से श्री मोदी का ये कहना कि उन्हें निवृत्त नहीं रहने दिया जावेगा  , नये राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे गया किन्तु इससे अलग हटकर देखें तो इस तरह की सौजन्यता को  केवल राजनीतिक दृष्टि से ही देखा जाना अटपटा लगता है। पंडित नेहरु के दौर में विपक्ष इतना तगड़ा नहीं था । फिर भी संसद में विपक्ष के जो नेता होते थे वे प्रधानमंत्री की कटु आलोचना करने में लेशमात्र भी  संकोच नहीं करते थे परन्तु  नेहरु जी ने उसे शत्रुता नहीं समझा। दरअसल राजनीति में कटुता का दौर शुरू हुआ 1975 में आपातकाल के साथ जब इंदिरा जी ने  समूचे विपक्ष को जेल में ठूंसकर संसद को बंधक बना लिया था। यहां तक कि बाबू जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी जैसी वयोवृद्ध हस्तियों तक को नहीं बख्शा। भले ही आपातकाल दो साल के भीतर अलविदा हो गया लेकिन राजनीति में शत्रुता के जो बीज बो गया उसकी फसल गाजर घास की तरह देश भर में फैल चुकी है। ये देखते हुए संसद या इसके बाहर नेतागण एक-दूसरे की तारीफ  या तो किसी शोक प्रसंग के दौरान करते हैं या फिर स्वार्थवश। लोकतंत्र में वैचारिक विरोध के समानांतर सौजन्यता और मानवीयता निहायत जरूरी है। नेहरु जी और लोहिया जी की नोक झोंक , और नेहरु जी मृत्यु के बाद संसद में अटल जी  द्वारा दिया गया भाषण भारतीय लोकतंत्र की सबसे सुखद स्मृतियों में से है। ऐसे में प्रधानमन्त्री और गुलाम नबी आजाद के भावुक हो जाने में नाटकीयता और राजनीतिक गुणा- भाग देखना इस बात का परिचायक है कि राजनीति में सौजन्यता आश्चर्यचकित करने लगी है। हालांकि आज के दौर में वैचारिक छुआछूत तो लगभग खत्म सी है। वामपंथ और भाजपा के बीच ही पूरी तरह से छत्तीस का आँकड़ा है। वरना अन्य  सभी दलों के बीच आवाजाही को लेकर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। ऐसे में श्री आजाद और प्रधानमन्त्री के बीच कोई खिचड़ी पक रही है तो बड़ी बात नहीं। कश्मीर को लेकर जहां केंद्र सरकार को ऐसे  स्थानीय  लोग चाहिए जो वहां की जमीनी सच्चाई से वाकिफ हों , वहीं श्री आजाद को भी अपनी राजनीति जिंदा रखने की चिंता है। लेकिन इस तरह की भावनाएं और संवाद संसद में यदि सामान्यत: व्यक्त होने लगें तो इससे निचले स्तर तक फ़ैल चुकी कटुता में कमी लाई जा सकती है , जो आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। बेहतर हो संसद सत्रों के दौरान ही इस तरह के आयोजन रखे जाएं जिनमें राजनीतिक कड़वाहट से ऊपर उठकर सौजन्यता और शिष्टाचार नजर आये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 9 February 2021

कानूनों को स्थगित रखकर वार्ता जारी रखना ही बेहतर विकल्प है



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा संसद में दिए  भाषण में किसानों के साथ  वार्ता  जारी रहने की बात कहे जाने के बाद किसान नेताओं ने  अपनी जो सहमति व्यक्त की वह सकारात्मक संकेत है | एक नेता ने तो स्थान और तारीख बताने तक की मांग कर डाली | लेकिन साथ - साथ उनका  ये भी कहना है कि न्यूनतम  समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) को लेकर आश्वासन नहीं , कानूनी व्यवस्था की जावे | राकेश टिकैत ने इस बारे में प्रधानमन्त्री द्वारा दिए गए आश्वासन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि देश भरोसे पर नहीं वरन कानून से चलता है | ऐसे में सवाल उठता है कि जब किसानों की मूल मांगों को जस का तस मानने के लिए सरकार राजी नहीं है और  किसान नेता कृषि कानूनों को कतिपय संशोधनों के साथ स्वीकार करने से असहमत हैं तब प्रधानमन्त्री के आह्वान पर बातचीत शुरू हो भी जाए तो उसका नतीजा दर्जन भर पिछली वार्ताओं जैसा ही होना तय है | किसान नेताओं को श्री मोदी की ये बात तो समझ  आ गई कि  बातचीत जारी रखी जावे लेकिन उनका ये सुझाव अनसुना कर दिया गया कि आन्दोलन स्थल पर बैठे बुंजुर्गों को घर भेज दिए जाने के साथ ही आन्दोलन समाप्त कर  बातचीत जारी रहे | लेकिन श्री टिकैत का ये कहना कि देश कानून  से चलता है भरोसे से नहीं , दोनों पक्षों के बीच अविश्वास को बढ़ाने वाला ही है | जहाँ तक बात न्यूनतम समर्थन मूल्य की है तो उसकी कानूनी गारंटी देना पूरी तरह अव्यवहारिक होगा | कल को उपभोक्ता ये मांग करने लगेंगे कि कृषि  उत्पादों का अधिकतम मूल्य भी कानूनन तय किया जाये | ऐसे में सरकार के लिए उस स्थिति का सामना करना कठिन होगा | और फिर कृषि उत्पादों की संख्या भी लगातार बढ़ाई जा रही है | हाल ही में केरल सरकार ने साब्जियों  के न्यूनतम मूल्य निश्चित किये हैं | लेकिन सवाल ये है कि सरकार क्या - क्या खरीदेगी ? सार्वजनिक वितरण प्रणाली ( राशन ) के लिए खरीदे जाने वाले अनाज तक के लिए भण्डारण व्यवस्था अपर्याप्त होने से करोड़ों रु. का अनाज हर साल बर्बाद हो जाता है | और फिर किसान संगठन ये बताने में असमर्थ हैं कि यदि कोई किसान अपनी तात्कालिक जरूरत पूरी करने के लिए अपना उत्पादन न्यूनतम कीमत से कम किसी को बेच दे तब उसको कौन रोकेगा ? वैसे भी अधिकतर छोटे और मध्यम किसान अपनी फसल गाँव में ही बेच देते हैं | ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार भले खरीद करे जो वह करती भी  है , लेकिन उसके लिए व्यापारी को बाध्य करने का कानून बनाये जाने के बाद भी उसे  लागू नहीं किया जा सकेगा | किसान  संगठनों का ये कहना गलत नहीं है कि उनका उत्पाद सस्ते में खरीदकर व्यापारी और उद्योगपति उस पर जबर्रदस्त मुनाफा कमाते हैं | आलू चिप्स और मक्के के आटे का उदाहरण इस दौरान खूब सुनने मिला | लेकिन इसका कारण भंडारण क्षमता और प्रसंस्करण सुविधाओं का जरूरत के अनुसार विकास नहीं किया जाना है | महाराष्ट्र के कुछ इलाके फलों की खेती के लिए काफी प्रसिद्ध हैं | उनमें फलों के रस , जैम , जैली आदि बनाने के उद्योग भी लग गये जिससे किसान को उसके उत्पाद का अच्छा मूल्य मिलता है  | देश के विभिन्न हिस्सों से आये दिन ऐसी खबरें आती हैं जिनमें कम लागत पर खेती और उससे जुड़े कारोबार से अच्छी कमाई के अवसर उत्पन्न किये जा सके | पहले कृषि के साथ पशुपालन भी अनिवार्य रूप से जुड़ा होता था लेकिन जबसे बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ली तबसे उस दिशा में किसानों की रूचि कम होती गई | पशुपालन किसानों के लिए अतिरिक्त आय का सशक्त माध्यम बन सकता है | श्री टिकैत ने सरकार को 2 अक्टूबर तक का समय दिया है , कृषि क़ानून वापिस लेने के लिए | जाहिर है इस अवधि में उन कानूनों के फायदे और नुकसान काफी हद तक सामने आने लगेंगे  | किसान संगठन कानून वापिसी पर जोर दे रहे हैं | यदि सरकार वैसा करने के बाद शांत  बैठ जाए तब भी यथास्थिति बनी रहेगी | ऐसे में अच्छा  यही होगा कि सरकार द्वारा दिए गए प्रस्ताव के अनुसार तीनों कानूनों का क्रियान्वयन साल - डेढ़ साल तक स्थगित रखा जावे और इस दौरान  दोनों पक्ष आपसी   सहमति से जरूरत के मुताबिक उनमें संशोधन कर् लें |  किसान  नेता यदि प्रधानमंत्री द्वारा  संसद में दिए गए आश्वासन पर  अविश्वास करते रहेंगे तो गतिरोध बना रहेगा | उनको ये सोचना चाहिए कि दो महीने से भी ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी वे आन्दोलन के प्रति आम जनता की  वैसी सहानुभूति और समर्थन हासिल नहीं कर सके जो कृषि प्रधान देश होने के नाते अपेक्षित था | 26 जनवरी को दिल्ली में जो हुआ उससे आन्दोलन का नैतिक पक्ष कमजोर हुआ जिसके कारण 1 फरवरी को संसद घेरने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा और उसके बाद आयोजित चकाजाम का भी वैसा असर नहीं हुआ जैसा प्रचारित किया जा रहा था | इसके बाद ही किसान नेताओं के बीच के मतभेद भी सार्वजनिक हुए और अब ये सुनने में आ रहा है कि पंजाब और हरियाणा के साथ ही उप्र से दिल्ली को होने वाली दूध और सब्जियों की आपूर्ति रोकी जायेगी | ऐसा करने से किसान सरकार पर कितना दबाव बना पायेंगे ये तो वे ही जानें लेकिन  दिल्ली के करोड़ों वाशिन्दे अवश्य इस आन्दोलन के प्रति नाराजगी रखने बाध्य हो जायेंगे | इस धमकी से ये भी साबित होने लगा है कि आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों को भी कुछ सूझ नहीं रहा | समूचे परिदृश्य पर निगाह डालने के बाद यही उचित प्रतीत होता है कि प्रधानमन्त्री के आह्वान को स्वीकार करते हुए किसान नेता सकारात्मक रवैया प्रदर्शित करते हुए  कानूनों को वापिस लिए जाने की बजाय उनके स्थगन पर राजी हों | उन्हें इस वास्तविकता को समझ लेना चाहिये कि हवा में चलाये तीर किसी काम नहीं आते |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 8 February 2021

ये इससे बड़े हादसे की चेतावनी भी हो सकती है



गत दिवस उत्तराखंड के चमोली में हिमशैल ( ग्लेशियर ) के टूटने से जो हालात उत्पन्न हुए वे प्रलय के पूर्वाभ्यास से कम नहीं थे | देखते   - देखते जल सैलाब आया और उसकी चपेट में आई हर चीज पलक झपकते बर्बाद हो गयी | शुरुवाती आंकड़ों में जनहानि की जो जानकारी आई उसमें और वृद्धि की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता | ऋषि गंगा नामक अलकनंदा की सहायक नदी पर बन रहे बाँध सहित कुछ और पनबिजली परियोजनाओं का  निर्माण भी तबाही  का शिकार हो गया | उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा का ये पहला  मामला नहीं है | बढ़ते वैश्विक तापमान से ग्लेशियरों के सिकुड़ने का सिलसिला निर्बाध जारी है | लेकिन  सबसे बड़ी बात ये हुई कि बजाय गर्मियों के सर्दियों के मौसम में बर्फ का पहाड़ टूटकर  भयंकर बर्बादी का कारण बन गया | जिस नन्दा देवी क्षेत्र में हादसे की जगह स्थित है उसे बेहद संवेदनशील मानकर पर्यावरण वैज्ञानिक  प्राकृतिक संतुलन से की जा रही छेड़छाड़ के प्रति चेताते रहे हैं | 2013 में  हुए केदारनाथ हादसे के बाद भी विशेषज्ञों की अनेक समितियाँ बनीं जिनकी रिपोर्ट में उत्तराखंड में विकास कार्यों के कारण पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर चिंता व्यक्त की गई थी किन्तु जैसी कि प्रारम्भिक जानकारी आई उसके अनुसार उनके  सुझावों पर गौर करने की जरूरत ही नहीं समझी गई | एक बात और भी जो इस हादसे के संदर्भ में उल्लिखित है , वह है उत्तराखंड में फोरलेन सड़कों का जाल बिछाने के लिये पहाड़ों को तोड़ने - फोड़ने के लिए किये जाने वाले विस्फोटों के  कम्पन से हिमशैलों का आधार कमजोर हो जाना | कुछ लोग इस हादसे में चीन के हाथ होने का भी जिक्र कर रहे हैं परन्तु  उस बारे में बिना पुख्ता सबूत के कुछ कहना उचित न होगा | लेकिन हमारे हिस्से की जो गलतियाँ हैं उनसे नहीं सीखने की चारित्रिक विशेषता की वजह से ऐसे किसी भी हादसे के बाद बुद्धिविलास तो बहुत होता है लेकिन ठोस काम नहीं होने से समय - समय पर उनकी पुनरावृत्ति होती रहती है | ताजा दुर्घटना के असली कारण की जाँच के बाद एक बार फिर मोटी - मोटी रिपोर्टों की फाइलें सरकारी आलमारियों की शोभा बढ़ाएंगी |  मरने वालों के परिवारों को नगद राशि का ऐलान तो राज्य और केंद्र दोनों सरकारों ने कर ही दिया , राहत और बचाव के काम भी कल से ही चल रहे हैं | कहा जा रहा है कि निजी क्षेत्र के तहत बन रही एक पनबिजली परियोजना का काम तो 95 फीसदी पूरा हो चुका था जो पूरी तरह मिट्टी में मिल गया | आर्थिक क्षति का आकलन  कमोबेश हो ही जाएगा लेकिन प्रभावित इलाके के पर्यावरण को जो नुकसान हुआ वह अपूरणीय है क्योंकि मानव निर्मित किसी ढांचे को तो दोबारा बनाया जा सकता है लेकिन एक पहाड़ के धराशायी होने के बाद उसका पुनर्निर्माण संभव नहीं होता | उत्तराखंड भारत की  सबसे पवित्र गंगा और यमुना नदी का उद्गम स्थल है | इसे देवभूमि भी कहा जाता है | हिन्दुओं और सिखों के पवित्र तीर्थ  होने के साथ ही यहाँ  पर्यटन के भी अनेक प्रसिद्ध स्थल होने से लाखों तीर्थयात्री और सैलानी प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं | एक जमाना था जब चारधाम यात्रा पैदल की जाते थी किन्तु विज्ञान और तकनीक के विकास ने आवागमन के जो आधुनिक साधन विकसित किये उनकी वजह से उत्तराखंड ही नहीं वरन समूचे पहाड़ी क्षेत्रों का प्राकृतिक संतुलन पूरी तरह से बिगड़ चुका है | वर्तमान में चार धाम की यात्रा  के  लिए चौड़ी बारहमासी सडकें बनाये जाने के कारण पहाड़ों के आकार और आधार पर प्रहार हो रहा है | गत दिवस जो कुछ हुआ  उसने उन  तमाम आशंकाओं को सही  साबित कर दिया जो इसी क्षेत्र में दशकों पहले शुरू हुए चिपको आन्दोलन के समय से व्यक्त की जाती रही हैं | टिहरी बाँध परियोजना का विरोध करने वालों ने जो - जो खतरे बताये थे वे सब धीरे - धीरे सामने आते जा रहे हैं | सुन्दरलाल बहुगुणा और उन जैसे अनेक लोगों ने उत्तराखंड में  पर्यावरण संरक्षण के लिए जो आन्दोलन और अभियान चलाये उनको समर्थन और सम्मान तो खूब मिला लेकिन उनके सुझावों और मांगों को उपेक्षित किये जाने की वजह से हिमालय अपना धीर - गम्भीर स्वभाव बदलने पर बाध्य हो गया | प्रकृति की  अपनी  स्वनिर्मित संतुलन प्रणाली है जो मानव जाति के अस्तित्व को सुरक्षित रखती है लेकिन मनुष्य की विकास संबंधी वासना ने उस संतुलन को पूरी तरह तहस - नहस कर दिया | इस बारे जो लापरवाही बरती गई वह आपराधिक उदासीनता के सबसे बड़े उदाहरणों में से है | भारतीय जीवन शैली और ज्ञान परम्परा में प्रकृति के साथ संघर्ष की बजाय सामंजस्य बिठाने की जो सीख थी उसे विस्मृत कर दिए जाने से ही इस तरह के हादसों की पुनरावृत्ति जल्दी - जल्दी  होने लगी है | प्रकृति का धैर्य जब टूटता है तब तबाही के तौर पर उसकी अभिव्यक्ति होती है | गत दिवस हुआ हादसा वैसे तो अपने   आप में बहुत बड़ा था लेकिन उसे इससे   बड़ी किसी प्राकृतिक आपदा की पूर्व चेतावनी के तौर पर भी  लिया जाना चाहिए | आश्चर्य इस बात का है कि  अपनी  संचार क्रान्ति पर इठलाने वाली मानव जाति प्रकृति द्वारा  दिए जाने वाले संकेतों को समझने में असमर्थ है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 6 February 2021

टिकैत के बढ़ते वर्चस्व ने सरकार को दबाव मुक्त कर दिया



ऐसा लगता है केंद्र सरकार ने भी ये भांप लिया है कि नए कृषि संशोधन कानूनों के विरोध में हो रहा किसान आन्दोलन गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हुए उपद्रव के बाद अपराधबोध से ग्रसित होकर रह गया है | हालाँकि दिल्ली  के बाहर टिकरी और  सिंघु में आन्दोलनकारियों का जमावड़ा है लेकिन जिस तेजी से उसका केंद्र गाजीपुर स्थानांतरित हुआ उसकी वजह से आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा संयुक्त मोर्चा तो पृष्ठभूमि में चला गया और भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत आन्दोलन के चेहरे बन गये | यद्यपि वे आये दिन इस बात का स्पष्टीकरण देते हैं कि सभी नीतिगत फैसले  सामूहिक तौर पर ही लिए जाते हैं लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि पंजाब के जो  नेता आन्दोलन की अगुआई कर रहे  थे वे खबरों से बाहर हो गये और समाचार माध्यमों को भी राकेश टिकैत में ही टीआरपी नजर आने लगी | गाजीपुर में लगे  आन्दोलन के मंच पर यदाकदा सिख समुदाय का एकाध प्रतिनिधि नजर आ जाता है लेकिन मुख्य रूप से अब वहां जाटों का बोलबाला है जो निकटवर्ती इलाकों में ही रहते हैं | 28 जनवरी को राकेश के नाटकीय दांव ने किसान आन्दोलन का समूचा रंग - रूप बदल दिया और देखते - देखते वह एक समुदाय विशेष की सामाजिक  एकता और सम्मान पर आकर अटक गया | किसान पंचायतों की जगह जाटों की खाप पंचायतों ने ले ली और राजनेताओं को आन्दोलन के पास तक न फटकने देने वाली  जिद भी एक  झटके में दरकिनार कर दी गई | जो राजनेता किसान आन्दोलन को दूर से देखते थे वे राकेश टिकैत को समर्थन देने आने लगे | हालांकि उन्होंने उनको मंच और माइक न देने के साथ ही आन्दोलन की जमीन पर वोटों की फसल की उम्मीद छोड़ देने की नसीहत भी दे डाली लेकिन ये बात किसी से छिपी नहीं रह सकी कि आन्दोलन का मुख्यालय अघोषित तौर पर जैसे ही गाजीपुर सरका त्योंही राजनेताओं की आवाजाही वहां बढ़ गयी | यहाँ तक कि विपक्ष का संयुक्त प्रतिनिधमंडल उनसे मिलने आ रहा था जिसे प्रशासन ने रोक दिया | इसी के साथ ही हरियाणा के जाट बहुल इलाकों में भी खाप पंचायतें होने लगीं जिनमें राकेश या उनके भाई नरेश ने शिरकत की | लेकिन प्रारंभिक रोकथाम के बावजूद उनमें राजनेताओं को मंच मिलने लगा | जिससे किसान आन्दोलन में राजनीति खुलकर घुसने में कामयाब हो गई | जो विपक्षी नेता धरना स्थल पर नहीं आये उन्होंने भी फोन पर राकेश से बात कर अपना समर्थन दिया | इस पर उनके द्वारा ये सफाई दी गयी कि कोई समर्थन दे तो उसमें बुराई क्या है ? धीरे - धीरे टिकैत परिवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा सामने आने लगी जिस पर राजनेता भी निगाह जमाये हुए थे | उल्लेखनीय है अगले साल इन्हीं दिनों उप्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और किसान आन्दोलन के बहाने राजनीतिक गोटियाँ बिठाने की कोशिशें तेज हो चली हैं | टिकैत परिवार अब तक चुनावी राजनीति में कुछ नहीं कर सका | राकेश दो चुनाव  लड़कर बुरी तरह हारे | लेकिन तब वे रालोद पर आश्रित थे लेकिन अब उन्हें लगने लगा है कि वे जाट मतों की फसल अकेले काटने में सक्षम हैं | लेकिन इसकी भनक लगते ही चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयंत चौधरी ने गत दिवस रालोद के बैनर तले किसान महापंचायत आयोजित कर बड़ी भीड़ बटोरकर टिकैत परिवार को एक तरह से ये संकेत दे दिया कि वे खुद को जाट समुदाय का चौधरी समझने की भूल न करें | इस तरह पहले खालसा से खिसककर जो किसान आन्दोलन खाप के हाथ में आया था अब वह जाट राजनीति के मकड़जाल में उलझने लगा है | बीती 2 फरवरी को केंद्र सरकार के साथ होने वाली बातचीत जिस तरह बिना होहल्ले के रद्द हुई , वह रहस्यमय है | उसके बाद राकेश ने आन्दोलन को अक्टूबर तक खींचने की घोषणा कर डाली | प्रधानमन्त्री और संसद का माथा नहीं झुकने नहीं देंगे जैसा उनका बयान भी किसी अंदर की बात का हिस्सा बन गया | आज होने वाले चकाजाम से उप्र और उत्तराखंड को मुक्त रखने वाला बयान देकर राकेश ने ये साबित कर दिया कि वे संयुक्त किसान मोर्चे के स्वयंभू प्रवक्ता बन बैठे हैं | उप्र और उत्तराखंड में चका जाम नहीं किये जाने का कोई औचित्य भी वे नहीं बता सके | संयुक्त्त मोर्चे के जो प्रमुख नेता लगातार दो महीनों तक अग्रिम मोर्चे पर रहकर सुर्ख़ियों में रहे वे 26 जनवरी के बाद से जिस तरह से शांत हो गए वह किसी रणनीति के अंतर्गत है या आन्दोलन में आई दरार उसके पीछे है ये फिलहाल तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता । लेकिन ये बात साफ़ है कि बीते एक सप्ताह में किसान आन्दोलन टिकैत परिवार के कब्जे में आ गया है | और उसी के बाद केंद्र सरकार ने भी अपना रुख कड़ा कर लिया | प्रधानमन्त्री ने एक फोन कॉल की दूरी वाली बात कहते हुए भी साफ़ कर दिया था कि आख़िरी वार्ता के समय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर  द्वारा रखे गये प्रस्ताव पर किसान नेता अपना जवाब लेकर आयें | उसके बाद राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी कृषि कानूनों की जमकर तारीफ किये जाने से ये लगा कि सरकार पूरी तरह दबाव मुक्त हैं | और गत दिवस संसद में श्री तोमर द्वारा जिस तरह के आक्रामक तेवर दिखाए गये उससे लगता है सरकार लचीला रुख छोड़ चुकी है | उसके बाद प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्री का भाषण सुनने की सलाह देकर न सिर्फ विपक्ष अपितु किसान आन्दोलन के कर्ताधर्ताओं को भी ये एहसास करवा दिया कि अब सरकार से किसी नरमी की उम्मीद न करें | ये बात भी गौर तलब है कि राकेश टिकैत के बयानों में तीखेपन और तल्खी  की जगह अब दार्शनिक अंदाज ने ले ली है जिसमें स्वाभाविकता कम और बनावटीपन ज्यादा दिखाई देता है | इस प्रकार  अब किसान आन्दोलन की धार यदि कमजोर हो रही है तो उसकी वजह  साफ़ है | पंजाब का वर्चस्व लगातार घट रहा है | दो दिन पहले जिस तरह  से कुछ विदेशी हस्तियों ने आन्दोलन के समर्थन में बयान दिया उससे भी उसका नैतिक पक्ष कमजोर हुआ है | रही - सही  कसर टिकैत परिवार की एकला चलो नीति और राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी कर  रही है | संयुक्त मोर्चे के बाकी नेता टिकैत परिवार के इस आचरण  से हतप्रभ हैं लेकिन कुछ करने के स्थिति भी उनकी नजर नहीं आ रही | इन्हीं सब कारणों से दो महीने तक दबाव में दिखी केंद्र सरकार अब ऊंची आवाज में बात  करते हुए दिख रही है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 5 February 2021

ऐसी ही कार्रवाई जनता के लिफ्ट में फंसने पर भी होनी चाहिए



 दो दिन पहले एक खबर आई कि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राजधानी भोपाल स्थित सचिवालय की लिफ्ट में कुछ मिनिटों  के लिए फंस गये | पलक झपकते अमला सक्रिय हुआ और वे सुरक्षित निकल आये | लिफ्ट में खराबी को अव्वल दर्जे की  लापरवाही मानकर दो - तीन शासकीय कर्मियों को  निलम्बित कर दिया गया  | ऐसा करना लाजमी भी था  | आखिरकार सूबे के मुख्यमंत्री की सुरक्षा में किसी भी प्रकार की चूक को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता | गनीमत रही जो लिफ्ट में आई तकनीकी खराबी को तत्काल ठीक कर लिया गया जिससे श्री चौहान को ज्यादा देर उसके भीतर नहीं रुकना पड़ा | लेकिन छोटी सी ये घटना अनेक सवाल पैदा कर गई | हमारे देश में लिफ्ट खराब होना कोई अनोखी बात नहीं मानी जाती | आखिर मशीन है तो  खराब भी होगी | लेकिन उसका संज्ञान तभी लिया जाता है जब किसी विशिष्ट व्यक्ति को  उस कारण असुविधा हो जाए | उस दृष्टि से ये कहना गलत न होगा कि यदि राज्य सचिवालय की अन्य कोई लिफ्ट खराब हुई होती तब संभवतः न उसकी अख़बारों में खबर आती और न ही निलम्बन जैसी कोई  कार्रवाई होती | सचिवालय प्रदेश सरकार का प्रशासनिक मुख्यालय है जहां से शासन का संचालन किया जाता है | मुख्यमंत्री सहित  दर्जनों बड़े अधिकारी और उनके मातहत काम करने वाला अमला यहीं बैठता है | आम जनता भी आती -  जाती  रहती है , जिसे प्रवेश पत्र लेना  होता है | आधुनिक तकनीक की दर्जनों लिफ्ट लगी हैं | उनके रखरखाव का ध्यान भी रखा जाता है | लेकिन सचिवालय से दूर राजधानी में ही न जाने कितनी ऐसी बहुमंजिला इमारतें होंगीं जिनकी लिफ्ट आये दिन खराब होने से लोग हलाकान होते हैं | पुराने मॉडल की लिफ्ट में  लोगों के घंटों फंसे रहने के समाचार  भी अक्सर सुनाई देते हैं | सबसे बड़ी परेशानी अस्पतालों की लिफ्ट खराब होने से होती है | सरकारी अस्पतालों में तो लिफ्ट का खराब होना बहुत आम है | इसकी वजह से आम जनता को कितनी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं इसका अंदाज लगाया जा सकता है लेकिन शायद ही किसी ने सुना या पढ़ा हो कि सरकारी अस्पताल की लिफ्ट खराब होने पर किसी का निलम्बन किया गया | हमारा आशय मुख्यमंत्री की लिफ्ट में आई खराबी को नजरंदाज करने या  हलके में लिए जाने से  कदापि  नहीं है | लेकिन प्रजातंत्र में हर व्यक्ति के अधिकारों और सुख - सुविधाओं के प्रति समान सोच होनी चाहिए | ऐसे में ये अपेक्षा करना गलत नहीं है कि मुख्यमंत्री की लिफ्ट खराब होने पर जिस तत्परता से दोषी सरकारी कर्मियों पर गाज गिराई गयी वैसी ही दंडात्मक कार्रवाई हर सरकारी लिफ्ट की खराबी पर की जाये तो व्यवस्था के प्रति बढ़ता जा रहा असंतोष और अविश्वास  कुछ कम हो सकता है | अति विशिष्ट लोगों की सुरक्षा और सुविधाएँ निश्चित रूप से आम नागरिक की तुलना में बेहतर होनी चाहिए  लेकिन दोनों में जमीन - आसमान का अंतर लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है | इसी तरह उनके आगमन पर किया जाने वाला टीम - टाम भी सामंतवादी दौर की याद  दिलाता है | गत वर्ष जबलपुर में महामहिम राष्ट्रपति जी के आगमन के दो महीने पहले नगर निगम के आलीशान सभागार मानस भवन  को बंद कर नए सिरे से उसकी साज - सज्जा पर बड़ी राशि खर्च कर दी गयी | कतिपय कारणों से राष्ट्रपति महोदय का आगमन नहीं हुआ | प्रश्न ये है कि भारत सरीखे देश में इस तरह की सोच कब तक जारी रहेगी ? राष्ट्रपति बनते समय उनके  जीवन परिचय में बताया गया था कि वे बेहद साधारण पृष्ठभूमि से आये थे | ऐसे में वे शायद खुद भी इस तरह के शाही इंतजाम को पसंद न करते हों लेकिन जिन लोगों के हाथ में शासन - प्रशासन की व्यवस्था है वे आज भी अंग्रेजी राज की यादें ताजा किया करते हैं | मप्र के मुख्यमंत्री श्री चौहान भी बेहद सरल व्यक्ति हैं जिनका जनता से सीधा जुड़ाव उनकी लोकप्रियता  का सबसे बड़ा कारण है | लिफ्ट में उनके फंसने पर निलम्बित हुए कर्मचारियों की खबर भी उनकी  जानकारी में आई होगी | ऐसे में ये अपेक्षा करना गलत नहीं है  कि कम से कम प्रदेश भर के सरकारी अस्पतालों में लगी लिफ्ट बंद होने पर भी प्रशासन ऐसी ही त्वरित कार्रवाई करे जिससे आम जनता को लोकतंत्र की सार्थकता का एहसास हो सके | बात छोटी सी है लेकिन उसका  सांकेतिक मह्त्व बहुत बड़ा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 4 February 2021

किसानों और कर्मचारियों जैसी चिंता छोटे और मध्यम व्यापारी की भी करे शिवराज सरकार



मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किसान हितैषी माने जाते हैं | खुद भी ग्रामीण पृष्ठभूमि और कृषक परिवार से हैं | सत्ता में आने के बाद उन्होंने कृषि और कृषकों के लिए काफी कुछ किया | परिणामस्वरूप मप्र अन्न उत्पादन में अग्रणी राज्य बन गया | विशेष रूप से गेंहू की सरकारी खरीदी में तो वह पंजाब और हरियाणा दोनों को टक्कर देने की स्थिति में आ गया | वैसे भी मप्र का गेंहू गुणवत्ता में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है | इसका प्रमाण उसका आटा बेचने वाली अनेक कम्पनियों के विज्ञापन हैं जिनमें वे मप्र से गेंहू खरीदे जाने का उल्लेख प्रमुखता  से किया करती हैं | लेकिन 2018 के चुनाव में शिवराज  सरकार सत्ता से बाहर हो गई और कारण बने किसान जिन्हें कांग्रेस ने कर्ज माफी का वायदा करते हुए अपने पाले में खींचने में सफलता हासिल की | राहुल गांधी हर सभा में ये आश्वासन दोहराते थे  कि कांग्रेस की सरकार बनते ही 10 दिनों के भीतर किसानों के 2 लाख तक के कर्जें माफ कर दिए जायेंगे | वह आश्वासन तुरुप का पत्ता साबित हुआ | लेकिन वह वायदा कमलनाथ सरकार के गले की फांस बन गया | आर्थिक और व्यवहारिक दोनों परेशानियां सामने आ खड़ी हुईं | उधर किसानों ने भी कर्ज देने वाली संस्थाओं को पैसा देना बंद कर दिया | ऐसा नहीं है कि उस सरकार ने कुछ  भी न किया हो परन्तु  जब तक वह हालात को अपने नियन्त्रण में ले पाती उसकी विदाई हो गई और शिवराज सिंह का राजयोग उन्हें सत्ता में वापिस ले आया | लेकिन सता सँभालते ही उन्हें भी सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने वाली स्थिति से जूझना पड़ा | इधर  शपथ ग्रहण हुआ और उधर कोरोना के कारण लॉक डाउन शुरू हो गया | उसकी वजह से शासन - प्रशासन की पूरी शक्ति और संसाधन कोरोना की  रोकथाम पर केन्द्रित हो गए | हालांकि लॉक डाउन में शिथिलता आने से जनजीवन और कारोबार सामान्य स्थिति में लौटने लगे परन्तु  ऐसा होते - होते आ गयी किसान आन्दोलन की  लहर | वैसे  मप्र में इसका असर अब तक तो न के बराबर है लेकिन शिवराज सिंह चूँकि अनुभवी शासक हैं इसलिए उन्होंने संकट की सम्भावनाओं को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाना  शुरू किये  जिनके अंतर्गत बीते कुछ दिनों से किसान समुदाय को प्रसन्न करने के लिए अनेक तरीके अपनाये जा रहे हैं | इनमें सबसे ताजा है कर्ज माफी | ये कहना गलत न होगा कि राज्य की  जर्जर आर्थिक स्थिति को देखते हुए शायद राज्य सरकार ये निर्णय अभी और टालती लेकिन दिल्ली में चल रहे किसान आन्दोलन की तपिश से मप्र को बचाने के लिए  मुख्यमंत्री ने बिना देर किये खाली खजाने को और खाली करने जैसा दुस्साहस कर डाला |  दरअसल  शिवराज सिंह भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ही सदैव  चुनावी मूड   में रहते हुए काम करते हैं | इसलिये ये मान लेना सही है कि कर्ज माफी के जरिये वे किसान आन्दोलन को पनपने से तो रोक ही रहे हैं लेकिन उनकी नजर अभी से 2023 के चुनाव पर है | कांग्रेस के लिए उनका ये पैंतरा निश्चित तौर पर बड़ा राजनीतिक धक्का है क्योंकि किसानों की कर्ज माफी के मामले में वह अपराधबोध से दबी हुई है | लेकिन शिवराज सिंह की इस दरियादिली या राजनीतिक दांव में भी वोट बैंक की राजनीति ही है | कर्मचारी और किसान नामक दो दबाव समूह किसी  भी सरकार को झुकाने में सक्षम मान लिए गए हैं | इसलिए हर सरकार इनकी मिजाजपुर्सी में लगी रहती है जबकि  लघु और मध्यम हैसियत के व्यापारी को भी कोरोना के कारण जबरदस्त नुकसान हुआ परन्तु उसे किसी भी सरकार ने राहत नहीं दी | इसका कारण उसका असंगठित होना है | कहने को तो प्रदेश  में व्यापारियों के बड़े - बड़े संगठन हैं लेकिन उनमें जमे बैठे पदाधिकारी शासन और प्रशासन से टकराने में डरते हुए निजी स्वार्थपूर्ति तक ही सीमित रहते हैं जिससे  छोटे व्यापारी की सुनवाई नहीं हो पाती | सरकारी महकमा भी इन्हें जी भरकर दबाता है | ये देखते हुए शिवराज सरकार को चाहिए कि छोटे और मझोले श्रेणी के व्यापारी वर्ग को कर्ज माफी या करों में विशेष रियायत से लाभान्वित करें | भाजपा वैसे भी व्यापारियों की पार्टी मानी जाती रही है | ये वह वर्ग है जो उसके साथ उस समय भी जुड़ा रहा जब वह विपक्ष में होती थी | भले ही  शिवराज सिंह ने पिछले कार्यकाल में समाज के सभी वर्गों के लोगों को अपने निवास पर बुलाकर उनकी समस्याएँ दूर करने का अभियान चलाया जिसमें लघु और मध्यम व्यापारी भी थे लेकिन उन्हें अपेक्षित लाभ न मिल सका | किसान आन्दोलन मप्र में पाँव न जमा सके इसलिए राज्य सरकार खेती और किसानों के लिए तो बहुत कुछ करती दिख रही है | इसी तरह कर्मचारी वर्ग भी सरकार का हिस्सा होने का लाभ लेने से नहीं चूकता | लेकिन कम पूंजी से कारोबार करने वाले छोटे व्यापारी भी मौजूदा समय में काफी परेशान हैं | ऐसे में शिवराज सरकार को अपनी सम्वेदनशीलता का और विस्तार करते हुए इस वर्ग के लिए भी ऐसा कुछ करना चाहिए जिससे वह अपने को उपेक्षित महसूस न करे | आखिर किसान अन्नदाता है तो व्यापारी भी तो करदाता है | लेकिन उसे न किसी प्रकार की आर्थिक सुरक्षा प्राप्त है और न ही सामाजिक | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 3 February 2021

मध्यम वर्ग की अनदेखी अन्याय : आय कर छूट की सीमा 10 लाख की जाए



बजट के बाद देश के मध्यम वर्ग में , जिसे सामान्यतः नौकरपेशा माना  जाता है बहुत निराशा है |  इस वर्ग का कहना है कि बजट बनाते समय सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की  , वह सभी वर्गों के लिए कुछ न कुछ करती है लेकिन मध्यम वर्ग उपेक्षित रह जाता है | कोरोना काल में बड़ी संख्या में नौकरियां चली गईं | शासकीय कर्मियों का  महंगाई भत्ता स्थिर कर दिया | निजी क्षेत्र ने तो सीधे - सीधे वेतन में ही कटौती कर डाली | इसी तरह महीनों कारोबार बंद रहने से मध्यम वर्गीय व्यापारी की आर्थिक दशा भी डगमगा गई | हालात किसी से छिपे नहीं हैं | यद्यपि  इसके लिए सरकार को दोष देना कतई ठीक नहीं होगा क्योंकि समस्या  अभूतपूर्व और पूरी तरह अकल्पनीय थी | और उसने जो और जैसा भी बन सका किया भी | करोड़ों गरीबों को मुफ्त अनाज देने का फैसला बहुत ही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शितापूर्ण था | बैंकों से कर्ज वसूली को टालकर सरकार ने उद्योग और व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी समयानुकूल राहत दी | बिजली बिल के साथ ही स्थानीय निकायों के करों की वसूली भी स्थगित रखी गई | आयकर और जीएसटी के बारे में भी मोहलत दी जाती रही | लेकिन जैसे ही लॉक डाउन हटा त्योंही सब कुछ पहले जैसा  हो गया | सरकारी महकमे ठेठ पठानी शैली  में वसूली पर आमादा हो गए | बैंक वाले भी सुबह - शाम परेशान करने में जुट गए | सरकार का खजाना खाली होने से ऐसा करना स्वाभाविक ही था | लोगों को उम्मीद थी कि शायद बैंकों  का ब्याज कुछ माफ़ हो जाएगा परन्तु ऐसा नहीं हुआ | लेकिन इस सबके बीच सबसे ज्यादा पिसा मध्यम वर्ग जिसे न मुफ्त अनाज मिला और न ही अन्य किसी प्रकार की सहायता | उसकी तनख्वाह और भत्ते भी घट गये | जिनकी  नौकरी गई उनकी  पीड़ा के लिए तो शब्द ही नहीं हैं | ऐसे में कर्मचारी और मझोले किस्म के व्यापारी को लग रहा था कि केन्द्रीय  बजट में उसकी समस्याओं का कुछ न कुछ निदान तो होगा | हालांकि  निर्मला सीतारमण ने ये एहसान तो अवश्य किया कि करों का बोझ नहीं बढ़ाया किन्तु उसमें किसी भी प्रकार की कमी नहीं किये जाने से  निराशा और बढ़ गई | इस वर्ग को  उम्मीद थी कि आयकर सहित अन्य करों में उसे कुछ रियायत मिलेगी | करों में छूट की सीमा बढ़ाये जाने के साथ ही अन्य बचत योजनाओं पर  लाभ बढ़ाये जाने की अपेक्षा भी थी | लेकिन वित्त मंत्री ने उस बारे में कुछ नहीं किया | सबसे प्रमुख बात ये है कि नौकरपेशा मध्यम वर्ग ही ईमानदारी से आय कर देता है | इसके साथ ही अप्रत्यक्ष करों में भी बतौर उपभोक्ता उसका  बड़ा योगदान  है | कोरोना काल के बाद बाजारों में मांग बढाने के लिए तरह - तरह के जतन किया जा रहे हैं | आर्थिक विशेषज्ञ भी ये मान रहे हैं कि जब तक बाजार में उपभोक्ताओं की भीड़ नहीं उमड़ती तब तक अर्थव्यवस्था रफ़्तार नहीं  पकड़ सकती | लेकिन ये भीड़ मध्यम वर्ग की ही हो सकती है | ऐसे में ये जरूरी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की इस रीढ़ को और मजबूत किया जाए | लेकिन श्रीमती सीतारमण ने  इस वर्ग को एक तरह से हाशिये  पर धकेल दिया गया है | अभी बजट संसद के सामने विचारार्थ प्रस्तुत हुआ है | ऐसे में  उसमें संशोधन की गुंजाईश है | बेहतर होगा मध्यम वर्ग को आयकर में छूट सहित बचत योजनाओं से मिलने वाले लाभों में भी वृद्धि हो जिससे इस वर्ग के पास अतिरिक्त पैसा आये  ताकि वह बाजार की  रौनक बढ़ाने में मददगार हो सके | कोरोना काल में इस वर्ग के मन में असुरक्षा का जो भाव आ गया है उसके कारण खरीदी के प्रति उसका हौसला कमजोर हुआ है जिसे बढ़ाये बिना अर्थव्यवस्था में उछाल लाना कठिन होगा |  वित्तमंत्री यदि वाकई वित्तीय वर्ष 2021- 22 में 11 फीसदी  की विकास दर के अनुमान को हकीकत में बदलना चाहती हैं तब उन्हें बजट पर बहस के दौरान संशोधन पेश करते हुए आयकर छूट की सीमा 10 लाख कर देनी चाहिए | ऐसा होने पर भले ही आयकर  की कमाई कम हो जाये लेकिन उससे होने वाली कर की बचत सीधे बाजार में आयेगी जिससे उद्योग - व्यापार तो फलेंगे - फूलेंगे ही लगे हाथ  सरकारी खजाने में ही जीएसटी के तौर पर जबरदस्त राजस्व आयेगा | हमारे देश में बजट दर बजट प्रयोग होते आये हैं | कुछ कारगर रहे तो कुछ असफलता की खाई में गिरकर विलुप्त हो गए | ऐसे में निर्मला जी इस सुझाव को भी अमल में लाकर  देख लें | वे चाहें तो इसे कोरोना काल के मद्दे नजर अस्थायी राहत के  तौर पर लागू करें और यदि उसके अनुकूल नतीजे आयें तो उसे आगामी सालों में भी जारी रखा जाये | मौजूदा हालात में  आयकर छूट की सीमा बढाकर 10 लाख  किया जाना भी क्रान्तिकारी  कदम होगा | वैसे भी देश के इतने विशाल वर्ग को बजट में ठेंगा दिखाना उसके साथ अन्याय नहीं तो और क्या है ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 2 February 2021

मध्यम वर्ग और किसान के तुष्टीकरण से बचने का जोखिम उठाया वित्त मंत्री ने



मोदी सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2021 - 22 के लिए आम बजट गत दिवस लोकसभा में पेश किया गया | कोरोना और किसान नामक दो मुद्दे बजट के पहले सरकार पर दबव बनाये हुए थे | ऊपर से असम , बंगाल , तमिलनाडु और केरल के विधानसभा चुनाव रूपी चुनौतियां  सामने खड़ी हुई हैं | ऐसे में लोकप्रिय बजट देते हुए आम जनता को खुश करना अपेक्षित था | राहुल गांधी सहित अनेक आर्थिक विशेषज्ञ  कोरोना काल के दौरान ही ये मांग करने लगे थे कि सरकार लोगों को नगद राशि दे जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़े और बाजार गुलजार हो सकें | सैद्धांतिक तौर पर ये सलाह बहुत ही व्यवहारिक थी | केंद्र सरकार ने समाज के गरीब तबके के बैंक खातों में कुछ राशि जमा भी  करवाई किन्तु वह बहुत ही कम रही | चूंकि करोड़ों लोगों से रोजगार छिन गया था इसलिये उनका पेट भरने के लिए मुफ्त अनाज देने का विकल्प सरकार ने चुना जो काफी हद तक कारगर भी रहा | लेकिन परेशानी तो समाज के हर वर्ग के सामने थी | उद्योग - व्यापार चौपट हो चुका था | परिणामस्वरूप सरकार की राजस्व वसूली भी घट गई  | वित्तीय घाटा और विकास दर संबंधी सभी अनुमान गड़बड़ा गए | जैसे - तैसे हालात सामान्य होने को आये तो किसान आन्दोलन ने नई मुसीबत पैदा कर दी | ऐसे में एक लोकप्रिय बजट की  अपेक्षा पूरा देश कर रहा था | आशय आयकर में छूट और आम उपभोक्ता वस्तुओं को सस्ता करने से है | लेकिन निर्मला सीतारमण द्वारा जो बजट पेश किया गया उसका शेयर बाजार सहित उद्योग जगत और उदारीकरण के समर्थक आर्थिक विशेषज्ञों ने तो दिल खोलकर स्वागत किया किन्तु आम जनता , नौकरीपेशा और  किसान को इसमें ऐसा कुछ भी नहीं  दिख रहा जिस पर वह संतोष कर सके | विपक्ष से तो खैर बजट की तारीफ अनपेक्षित रहती ही है | सवाल ये है कि फिर बजट में ऐसा क्या है जिसके कारण आर्थिक मामलों के वे जानकार भी इसकी प्रशंसा कर रहे हैं जो मोदी सरकार की नीतियों और क्रियाकलापों के कटु आलोचक के तौर पर  विख्यात हैं | उत्तर में ये कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ने इस बजट में चुनाव की देहलीज पर खड़े राज्यों में विकास  के लिए तो खजाना खोल दिया है लेकिन पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर नजर डालें तो इसे लोकलुभावन बजट नहीं कहा जा सकता | ऐसे में इसकी प्रशंसा केवल इस कारण हो रही है कि सरकार ने सीधे जनता के हाथ में पैसे देने की बजाय विकास कार्यों में तेजी लाकर रोजगार और मांग बढ़ाने को प्राथमिकता दी | सबसे प्रमुख बात ये रही कि कोरोना के कारण उत्पन्न हालातों के मद्देनजर स्वस्थ भारत की सोच को मजबूत करने के लिए स्वास्थ्य संबंधी आवंटन  35 हजार करोड़ कर दिया गया | इसी तरह शिक्षा को भी महत्व दिया गया | लेकिन सबसे ज्यादा जिस क्षेत्र पर सरकार का ध्यान दिखाई दिया वह है अधोसंरचना संबंधी प्रकल्पों के लिए एक लाख करोड़ से भी ज्यादा का प्रावधान | इसी के साथ ही पर्यावरण संरक्षण को भी सरकार की चिंताओं में शामिल किया गया है | वित्त मंत्री ने पुराने वाहनों के बारे में जो स्क्रैप नीति बनाई वह भी कालान्तर में कारगर होगी ये उम्मीद लगई जा रही है | लेकिन सबसे बड़ा कदम जो इस बजट के ज़रिये उठाया गया है वह है विनिवेश और निजीकरण | कुछ सरकारी बैंक और जीवन बीमा निगम में निजी क्षेत्र को प्रवेश देने का फैसला निःसंदेह दुस्साहसी है जिसका विरोध भी सुनाई देने लगा है | बीमा क्षेत्र में 74 फीसदी विदेशी निवेश की  अनुमति दिया जाना पूंजी बाजार में आवक बढ़ाने में सहायक बन सकता है | और भी  ऐसा बहुत कुछ बजट में है जो आम जनता के नजरिये से तो  किसी काम का नहीं है लेकिन आलोचक भी दबी जुबान ही सही किन्त्तु ये मान रहे हैं कि वित्त मंत्री ने जो लक्ष्य तय किये हैं वे लम्बे समय के लिए हैं | बजट में अनुत्पादक व्यय की बजाय पूंजीगत खर्च पर जोर देकर सरकार ने विनिवेश के औचित्य को सबित करने का जो प्रयास किया वह आलोचकों के सबसे अधिक निशाने पर है | इस बारे में ये संदेह भी व्यक्त किया जा रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि सरकार अपनी संपत्ति बेच भी दे और पैसा भी  खुर्द - फुर्द हो जाए | लेकिन इस बजट की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमें किसी वर्ग विशेष के तुष्टीकरण की बजाय ठोस वास्तविकताओं पर ध्यान दिया गया है | जो लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं उनका कहना भी है कि ये आत्मनिर्भर , स्वस्थ , शिक्षित , सुरक्षित और विकसित भारत का बजट है लेकिन ये सब होते - होते लंबा समय लग जाएगा | इस आधार पर मोदी सरकार ने कर्मचारी और किसान जैसे वर्ग के दबाव से मुक्त रहते हुए विकासोन्मुखी बजट पेश करते हुए लोकप्रियता की बजाय वास्तविकता को केंद्र बिंदु बनाया जो राजनीतिक दृष्टि से खतरा मोल लेने जैसा है | अपने सबसे बड़े समर्थक मध्यम वर्ग के अलावा  किसानों को लुभाने की बजाय विकास कार्यों के साथ ही शिक्षा , स्वास्थ्य , पर्यावरण , सुरक्षा और  आत्मनिर्भरता पर बजट को केन्द्रित रखकर 21 वीं सदी के तीसरे दशक की जो दिशा तय की है यदि वह इस देश की राजनीतिक संस्कृति  में रच बस जाए तो आने वाले कुछ सालों में भारत की तकदीर और तस्वीर दोनों बदल सकती हैं | बशर्ते सरकारी मशीनरी ईमानदारी से काम करे और सभी सत्ताधारी क्षणिक लाभ की बजाय दूरगामी लक्ष्यों को प्राथमिकता दें | कोरोना के बाद का भारत आत्मविश्वास से भरा हुआ है और उसी की झलक इस बजट में दिखाई देती है | उम्मीद की जानी चाहिए कि गत एक वर्ष  की मनहूसियत आने वाले वित्तीय साल में दूर हो सकेगी | बीते  दो महीनों से जीएसटी की रिकॉर्ड वसूली ने निश्चित तौर पर वित्तमंत्री का हौसला बढ़ाया है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 1 February 2021

किसान की पगड़ी और प्रधानमन्त्री का सिर नहीं झुकने देंगे जैसी टिप्पणी में छिपे कई संकेत



दो महीने से चले आ रहे किसान आन्दोलन का केंद्र अब दिल्ली के बाहरी इलाके गाजीपुर में स्थानांतरित हो गया है | ये जगह पश्चिमी उप्र का प्रवेश द्वार है जहाँ जाट समुदाय का वर्चस्व है | 26 जनवरी को हुए बलवे के बाद पंजाब प्रायोजित आन्दोलन बदनाम हो गया लेकिन  भारतीय किसान यूनियन नामक संगठन के नेता राकेश टिकैत ने बड़ी ही चतुराई से आन्दोलन को बिखरने से न सिर्फ रोक लिया अपितु खुद उसके सबसे बड़े नेता बन गये | इसका तात्कालिक परिणाम ये हुआ कि जिस आन्दोलन पर सिखों का कब्जा दिखाई देता था वह जाटों की मुट्ठी में आ गया | हालांकि इसे परिस्थितिजन्य बदलाव कहा जा सकता है लेकिन इसके पीछे भी कहीं न कहीं टिकैत बंधुओं की अपनी महत्वाकांक्षा छिपी  हुई है | स्मरणीय है किसान  संगठनों और सरकार के बीच वार्ताओं के बीच ही यूनियन के अध्यक्ष और राकेश के बड़े भाई नरेश टिकैत ने खुले आम आरोप लगाया था कि वार्ता में जब भी समाधान की सम्भावना नजर आने लगती है तब कतिपय नेता रायता फैलाते हुए गतिरोध बनाये रखने का कारण बन जाते हैं | हालांकि उन्होंने किसी का नाम तो नहीं लिया लेकिन उसके बाद पंजाब के एक किसान नेता द्वारा दिल्ली में अनेक राजनीतिक नेताओं से मिलने का  मप्र के किसान नेता शिवकुमार कक्का द्वारा विरोध किये जाने पर उक्त नेता द्वारा उन्हें रास्वसंघ का एजेंट बता दिया गया | उक्त दो उदाहरणों से ये साफ़ हो चला था कि किसान संगठनों के बीच अन्तर्विरोध और अविश्वास बना हुआ था | भले ही ये आंदोलन पंजाब से शुरू हुआ लेकिन जब ये दिल्ली के दरवाजे पर आया तब टिकैत परिवार को  लगा कि इसका नेतृत्व येन केन प्रकारेण उनके हाथ आ जाए | हालाँकि किसानों के बीच अच्छी पकड़ की बावजूद  राकेश टिकैत दो बार चुनाव लड़े लेकिन  सजातीय जाट मतदाताओं का समर्थन हासिल करने में भी उनको सफलता नहीं मिली | इस बारे में एक बात बड़ी ही महत्वपूर्ण है कि चौधरी चरण सिंह के वारिस बने उनके बेटे अजीत सिंह अब राजनीतिक हाशिये पर हैं और उनके बेटे जयंत भी लगातार दो चुनाव हारकर अप्रासंगिक हो गये हैं | इस कारण जाट समुदाय में कोई बड़ा राजनीतिक चेहरा नजर नहीं आ रहा | हालाँकि भाजपा ने जाटों में से अनेक नेताओं को अपनी तरफ खींचकर राजनीतिक ओहदा दिया लेकिन वे पूरे समुदाय को प्रभावित करने में सक्षम  नहीं हैं | राकेश और नरेश टिकैत को किसान आन्दोलन में उतनी रूचि नहीं थी क्योंकि उनके प्रभाव वाले पश्चिमी उप्र की  समस्याएँ पंजाब और हरियाणा की तुलना में काफी अलग हैं | लेकिन उन्होंने दूसरों के मंच पर कब्जे का सुनहरा अवसर लपक लिया | संयोगवश 26 जनवरी को आन्दोलन के अनियंत्रित होने के बाद से पंजाब के किसान नेता कमजोर पड़ने  लगे और टिकैत बंधुओं ने बिना देर किये सहायक कलाकार की बजाय खुद को नायक की भूमिका में ला खड़ा किया | शुरू में ऐसा लगा कि उनका शो भी फ्लॉप होगा लेकिन घटनाचक्र जिस तेजी  से घूमा उसके कारण टिकैत बंधु किसान आन्दोलन के प्रतीक बनकर समूचे परिदृश्य पर छा  गये | न सिर्फ  पाश्चिमी  उप्र बल्कि हरियाणा की खाप पंचायतों ने अभूतपूर्व सक्रियता दिखाते हुए इसे किसान की  आड़ में  जाट अस्मिता से जोड़ दिया | यही नहीं तो जिन  राजनीतिक  नेताओं को अब तक आन्दोलन स्थल पर फटकने की इजाजत तक न थी वे खुले आम आकर राकेश के प्रति समर्थन व्यक्त करते दिखने लगे |  सबसे मजेदार बात ये है कि वे अपने साथियों सहित गिरफ्तारी देने जा रहे थे किन्तु भाजपा विधायक द्वारा की गई  कथित हरकत के बाद  बिदक गये जो कि उनकी रणनीति का हिस्सा था | जिस सुनियोजित ढंग से खाप पंचायत आयोजित हुईं और गाजीपुर में शक्ति प्रदर्शन किया गया उसमें कृषि कानून से ज्यादा राकेश टिकैत और उनके बहाने जाट समुदाय को गोलबंद ,किये जाने की कोशिश अधिक थी | दो दिन पहले  तक ऐसा लग रहा था कि किसानों  के साथ केंद्र सरकार की सम्वाद प्रक्रिया पूरी तरह ठप्प हो गई लेकिन सर्वदलीय बैठक  और  रेडियो पर प्रधानमन्त्री की मन की बात का प्रसारण होने के बाद 2 फरवरी को फिर बातचीत किये जाने का फैसला सामने आ गया | यही नहीं तो टिकैत बन्धु किसान की पगड़ी और प्रधानमन्त्री के साथ ही संसद के सम्मान को बनाए  रखने जैसी बातें करने लगे | हालाँकि न सरकार ने कानून वापिस लेने का संकेत दिया और न ही टिकैत या अन्य किसी किसान नेता द्वारा अपनी घोषित नीति से पीछे हटने का | फिर भी बातचीत का सिलसिला किस आधार पर शुरू किया जा रहा है ये बताने कोई तैयार नहीं | और जब इस बारे में राकेश से पूछा गया तब वे बोले ये अंदर की बात है | राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि सरकार के साथ समझौता हो न हो लेकिन  राकेश और नरेश टिकैत की जुगलबन्दी ने एक झटके में पंजाब के वर्चस्व से किसान आन्दोलन को अपने हाथों में केन्द्रित कर लिया है जो संभवतः केंद्र और भाजपा दोनों को रास आने वाला है | इस बारे में उल्लेखनीय है कि बादल परिवार से अलगाव के बाद भाजपा  के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जो सिख समुदाय और गुरुद्वारों के साथ समन्वय स्थापित कर सके | लेकिन जाटों के साथ ये परेशानी नहीं आयेगी क्योंकि पश्चिमी उप्र के राजनीतिक समीकरण भाजपा के काफी अनुकूल रहे हैं और शुरुवाती  नाराजगी के बावजूद चुनाव में जाट उसे ही  समर्थन देते हैं | मौजूदा प्रकरण का पटाक्षेप कैसे होगा और होगा भी या नहीं ये आज कह पाना कठिन है लेकिन 26 जनवरी के बाद अचानक बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे माना जा सकता है कि किसान आन्दोलन की दिशा बदल सकती है और इसका कारण टिकैत बंधु बनेंगे  | विभिन्न किसान संगठनों के नेताओं ने सार्वजनिक   तौर पर ये स्वीकार किया कि राकेश और नरेश ने आन्दोलन को नवजीवन दे दिया | भाजपा के विरोध में खड़े विपक्ष को भी अचानक जाटों के नए नेता के रूप में टिकैत नजर आने लगे | 2 फरवरी को होने वाली बातचीत किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगी या पहले की तरह गतिरोध  बना रहेगा ये तो बैठक के बाद ही सामने आयेगा लेकिन राकेश की ये टिप्पणी  कि सरकार की कोई मजबूरी हो तो हमें बताये और हम प्रधानमंत्री का सिर नहीं झुकने देंगे , समूचे प्रकरण में किसी नए मोड़ का  संकेत है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी