Saturday 27 February 2021

कृषि प्रधान की बजाय चुनाव प्रधान देश बनकर रह गया भारत



भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता रहा है। यहाँ की अर्थव्यवस्था के साथ ही  लोक संस्कृति और जीवन शैली पर भी ग्रामीण प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिकता के रंग में ढले लोग भी ग्रामीण परिवेश को जीने के लिए पांच सितारा होटलों के साथ ही रिसार्ट जाते हैं। भारत की राजनीति भी ग्रामीण इलाकों से प्रभावित होती है जिसके कारण हर राजनीतिक दल खेती और किसानी के हित की बात किया करता है। देश के किसान नए कृषि संशोधन कानूनों को लेकर जो आन्दोलन कर रहे हैं उसने पूरे देश ही नहीं अपितु दुनिया का भी ध्यान खींचा है। लेकिन इस सबसे अलग हटकर देखें तो भारत को कृषि  प्रधान देश कहना अब सही नहीं रहा। इसका कारण राजनीति का अतिरेक है जिसने पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। गत दिवस ही चुनाव आयोग ने बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी और केरल की विधानसभा का चुनाव कार्यक्रम घोषित किया। मार्च के अंतिम सप्ताह से ये सिलसिला शुरू होकर मई महीने के प्रथम सप्ताह में पूरा हो सकेगा। हालांकि इसकी तैयारी महीनों पहले से चल रही थीं। खासकर बंगाल में भाजपा और तृणमूल के बीच चल रहा मुकाबला साधारण राजनीतिक विरोध तक सीमित न रहकर हिंसात्मक घटनाओं तक जा पहुंचा जिसके कारण राजनीतिक सहिष्णुता बंगाल की  खाड़ी में गहराई तक डूब चुकी है। असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी और  केरल में भी राजनीतिक खींचातानी चरम पर है। पिछली सर्दियों में बिहार के चुनाव होते ही इन राज्यों में मोर्चेबंदी शुरू हो गई थी। भारत की जनता के लिए ये सब रोजमर्रे की बातें हो चली  हैं क्योंकि देश के किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहने से समाचार माध्यमों के जरिये वहां के समाचार छाये रहते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि राज्यों के चुनाव अब केवल राज्यों तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय परिदृश्य को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए बंगाल के चुनाव में भाजपा का पूरा केन्द्रीय नेतृत्व कमर कसकर डटा हुआ है। वहीं कांग्रेस के वरिष्ट नेता राहुल गांधी ने केरल में खूंटा ठोंक  रखा है। रोचक बात ये भी है कि कांग्रेस जिस वाम मोर्चे के विरुद्ध केरल के मैदान में है उसी के साथ बंगाल में उसका चुनावी गठबंधन है। तमिलनाडु में लगभग चार दशकों के बाद करुणानिधि और जयललिता के बिना चुनावी जंग लड़ी जा रही है जिसका असर पुडुचेरी पर भी पड़ता है। असम में नागरिकता कानून को लकर विवाद अपने चरम पर हैं। राजनीतिक मुकबले का ये दौर खत्म होते ही उप्र, उत्तराखंड, मणिपुर, पंजाब और गोवा के चुनाव की हलचल शुरू हो जायेगी जहां 2022 में विधानसभा चुनाव होंगे। उसके बाद बारी आयेगी कर्नाटक और गुजरात की और फिर मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावी बिगुल बज उठेगा जिसके बाद आ जायेंगे 2024 के लोकसभा चुनाव। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि चुनाव भारत का राष्ट्रीय उद्योग बन गया  है। लोकतंत्र और चुनाव में चोली दामन का रिश्ता है लेकिन हमारे देश में चुनावी कार्यक्रम इस तरह गड़बड़ा गया है कि राष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दे गौण हो जाते हैं तथा समूची निर्णय प्रक्रिया चुनावी लाभ - हानि की दृष्टि से लिये गये तात्कालिक निर्णयों पर आकर टिक जाती है। गत दिवस चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम घोषित किये जाने के कुछ देर पहले तक विभिन्न राज्यों ने अनेक फैसले करते हुए मतदाताओं के समक्ष दाना डालने का प्रयास किया। हालाँकि बीते कुछ समय से भी ये सिलसिला चला आ रहा है। अब घोषणापत्रों में मुफ्त उपहारों की झड़ी लगेगी। ममता ने सस्ते भोजन में अंडा देने की पेशकश की तो भाजपा ने  मछली देने का लालच दे डाला। कोई मजदूरी बढ़ा रहा है तो कोई नई नौकरियां देने के वायदे के साथ मैदान में है। भाजपा की केंद्र सरकार चुनावी राज्यों को नयी-नयी सौगातें  बांटने में आगे-आगे है। प्रधानमन्त्री खुद प्रधान सेनापति की भूमिका में हैं। इस सबके कारण देश की विकास प्रक्रिया पर विपरीत असर होता है। सबसे बड़ी बात चुनावी खर्च में हो रही  बेतहाशा वृद्धि है जिससे चन्दा उद्योग जोर पकड़ता है जिसका अंतिम परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव का जो मुद्दा उछाला उसे बौद्धिक स्तर पर तो अच्छा समर्थन मिला लेकिन राजनीतिक दल उसे लेकर पूरी तरह उदासीन हैं। स्मरणीय है 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते रहे। लेकिन 1971 में  लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ ही चुनावी  कार्यक्रम अस्त-व्यस्त होकर रह गया। इस स्थिति को कैसे सुधारा जा सकता है ये बड़ा सवाल है क्योंकि इसके लिए राष्ट्रीय पार्टियों को तो कम से कम एकमत होना पड़ेगा। चुनावी राजनीति पर क्षेत्रवाद और जातिगत समीकरणों के प्रभाव का कारण भी अलग-अलग चुनाव ही हैं । समय आ गया है जब इस बारे में गम्भीरता और जिम्मेदारी के साथ विमर्श हो। वरना अर्थव्यवस्था पर चुनावी खर्च का दुष्प्रभाव पड़ता रहेगा। ये कहना गलत न होगा कि एक देश एक चुनाव की व्यवस्था विकास दर में कम से कम दो से तीन फीसदी की बढ़ोतरी करने में सहायक होगी। उससे भी बड़ी बात है कि इससे राजनीतिक कटुता भी घटेगी और जनता को राजनीति से हटकर राष्ट्रीय महत्व के अन्य विषयों पर सोचने का अवसर मिलेगा। 2004 से केन्द्र की सरकार को लेकर तो स्थायित्व बना हुआ है लेकिन प्रदेश के फुटकर चुनाव समूचे वातावारण में  अस्थिरता बनाये रखते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि केंद्र सरकार  नीतियों का सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं कर पाती क्योंकि प्रधानमन्त्री पर हर समय चुनाव जिताने का दबाव जो बना रहता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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