Monday 28 February 2022

युद्ध के बाद गृहयुद्ध में फंस सकता है यूक्रेन : पुतिन की हेकड़ी से रूस भी संकट में



यूक्रेन पर रूस का कब्जा हो या न हो किन्तु  बुरी तरह बर्बाद होने के बाद वह लम्बे समय तक उबरने की स्थिति में नहीं रहेगा | भले ही युद्धविराम हो जाये लेकिन रूसी राष्ट्रपति पुतिन कब्जाए इलाके खाली कर देंगे ये मान लेना जल्दबाजी होगी | पुतिन का ये कदम  सद्दाम हुसैन द्वारा कुवैत पर किये गये कब्जे जैसा ही है जो अंततः उकी मौत का कारण भी बना | यद्यपि  विश्व बिरादरी चाहकर भी   पुतिन को सद्दाम जैसे अंजाम तक नहीं पहुंचा सकती क्योंकि उस  स्थिति में विश्व  युद्ध की आशंका सही साबित हो सकती है जो शायद ही कोई चाहेगा | लेकिन इससे हटकर देखें तो अमेरिका  ने इस  विवाद  में सीधे हस्तक्षेप न करते हुए भी अपना उल्लू तो सीधा कर ही लिया | अफगानिस्तान से उसको जिस तरह से हटना पड़ा वह किसी अपमान से कम नहीं था | जिस पर रूस ने भी खुशियाँ मनाई थीं | पुतिन का सोचना  था कि अफगानिस्तान में विकास संबंधी परियोजनाओं के जरिये वे वहां रूस  की मौजूदगी बनाये रखेंगे जो मध्य और पश्चिम एशिया पर नजर रखने में सहायक होगा | हालाँकि कुछ समय बाद ही वे समझ गये कि तालिबानी मानसिकता कुत्ते की पूंछ जैसी है जिसे सीधा करना असंभव है | लेकिन इसी बीच यूक्रेन के अमेरिका के निकट जाने की सम्भावना ने उनको  विचलित कर दिया जिसका परिणाम मौजूदा युद्ध है | शुरुवात में ये लगा था कि यूक्रेन के बचाव में अमेरिका और उसके साथी आकर मोर्चा संभालेंगे लेकिन वह उम्मीद हवा – हवाई होकर रह गई | इस नीति से वैश्विक स्तर पर अमेरिका की खूब थू – थू भी हुई लेकिन कूटनीति के जानकार  समझ रहे हैं कि अफगानिस्तान से बेइज्जत होकर निकला अमेरिका इतनी जल्दी दूसरी जगह उलझना नहीं चाहता था | इसीलिये उसने शुरुवाती स्तर पर तो यूक्रेन की पीठ पर हाथ रखा किन्तु जब पुतिन ने आक्रामक कदम  उठाया तब मदद करने से पीछे हट गया | यद्यपि इस संकट की जड़ में तो अमेरिका द्वारा रूस के दरवाजे पर जाकर बैठ जाने की योजना ही थी किन्तु पुतिन ने जिस तरह जल्दबाजी में युद्ध जैसे अंतिम हथियार से ही शुरुवात की उसके कारण उनका देश जीतता दिखते हुए भी पराजय जैसी स्थिति में फंस गया है | ये युद्ध वैसे भी बेमेल है क्योंकि यूक्रेन के पास खुद का सैन्यबल इतना नहीं था  जिससे वह रूस का मुकाबला कर सके |  खबर है दोनों के बीच  वार्ता की सम्भावना बन रही है | बेलारूस या अन्य किसी जगह दोनों देशों के प्रतिनिधि मिल बैठकर युद्द को रोकने और आपसी विवाद हल करने का प्रयास करेंगे | इसका जो परिणाम सतही तौर पर समझ आ रहा है वह यूक्रेन में सत्ता परिवर्तन ही है | उसके मौजूदा राष्ट्रपति कहें कुछ भी किन्तु वे रूसी हमले का सामना करने में पूरी तरह असमर्थ साबित हो चुके हैं | रूसी सेना को रोकने की कोशिश में निरपराध यूक्रेनी नागरिकों की जान सस्ते में जा रही है | प्रारम्भ में तो  रूसी सेना  नागरिकों को मारने से बची लेकिन अब वह भी बर्बरता पर उतरकर  लूटपाट तथा निर्दोष नागरिकों  की हत्या  में लिप्त होने लगी है | दरअसल अमेरिका भी यही चाहता रहा है और इसीलिये संरासंघ सुरक्षा परिषद में रूसी वीटो के कारण उसे दबाने में असफल रहने के बाद आर्थिक प्रतिबंधों के जरिये उसकी कमर तोड़ने का दांव चल दिया गया जिसका असर दिखाई देने लगा है | इस बारे में उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में  रूस की उपस्थिति अमेरिका जैसी कभी नहीं रही | सात दशक तक चली साम्यवादी व्यवस्था के कारण रूसी जनता भी विश्व बिरादरी में उतनी घुली मिली नहीं है |  भले ही वहां कहने को लोकतंत्र आ गया है लेकिन अब भी साम्यवादी सोच के अवशेष विद्यमान हैं जिनका प्रत्यक्ष अनुभव पुतिन के रवैये से हो रहा है | जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार यूक्रेन पर किये गये हमले के बाद रूस की जिस तरह से नाकेबंदी हो रही है उसका अंदाज शायद पुतिन नहीं लगा सके | इसीलिए बर्बादी के मंजर भले  ही यूक्रेन में  दिखाई दे रहे हों लेकिन रूस की  अर्थव्यवस्था अचानक जिस तरह संकट में आ गई है और विश्व बाजार में उसका बहिष्कार हो रहा है उसकी वजह से पुतिन यूक्रेन  पर सैन्य विजय के बावजूद अपने घर में घिरने लगे हैं | भले ही  उनके राजनीतिक प्रभुत्व को हाल – फ़िलहाल कोई खतरा न हो लेकिन रूस की वैश्विक छवि खराब होने से उसका व्यापार बुरी तरह प्रभावित होने लगा है | अमेरिका के साथ खड़े देशों ने रूस के वायुयानों को आने -- जाने से रोककर उसकी एयर लाइंस को आर्थिक नुकसान उठाने बाध्य कर दिया है | बीते तीन दशक में जिन निजी क्षेत्र की कंपनियों ने वैश्विक बाजार में अपना  कारोबार जमाया वे इन प्रतिबंधों के कारण बेकार होकर रह  गईं हैं | रूसी मुद्रा की कीमत तेजी से गिरने के कारण अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी है तथा महंगाई बढ़ने से आम रूसी नागरिक भी युद्ध के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं |  पुतिन द्वारा युद्ध विराम के लिए सहमत होने के पीछे रूसी जनमत का दबाव भी हो सकता है जो इस बात  से आशंकित है कि कहीं उनका देश यूक्रेन में  उसी तरह न फंस जाए जैसा अमेरिका साठ – सत्तर के दशक में वियतनाम में उलझा रहा | अफगानिस्तान में  टांग फ़साने का जो नुकसान रूस ने उठाया उसकी यादें भी ताजा हो उठी हैं | कुल मिलाकर यूक्रेन में भले ही पुतिन को पूरे तौर पर जीत हासिल हो जाये या  रूस वहां काबिज न होते हुए भी अपने मनमाफिक सरकार बनवाकर उसे अमेरिका के गोद में जाकर बैठने से रोक ले किन्तु  जिस तरह के प्रतिबन्ध उस पर दुनिया के अनेक देशों ने लगाये हैं यदि वे जारी रहे तब वह  विश्व बिरादरी में अलग – थलग पड़ जाएगा  | इस विवाद का सबसे बड़ा नुकसान शीत युद्ध के पुनर्जन्म के रूप में होगा | पुतिन को ये याद रखना चाहिये था कि सोवियत संघ ने दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने के लिए अन्तरिक्ष कार्यक्रमों और रक्षा तैयारियों  पर  तो  बेतहाशा खर्च किया लेकिन मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी  तकनीक के विकास में असफल रहने से आर्थिक महाशक्ति न बन सका | बीते तीन दशक में वह दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगा था | जी – 8 और ब्रिक्स जैसे संगठनों में उसकी उपस्थिति अनिवार्य बन गई थी किन्तु उनकी इस हठधर्मिता के कारण  जिन देशों को इस  विवाद से कुछ भी लेना देना नहीं था  उनकी सहानभूति भी यूक्रेन के साथ हो गई है | अनेक  देशों की जनता संकट में फंसे यूक्रेन को आर्थिक सहायता देने आगे आ रही है | कुछ  देशों ने हथियार भी वहां  भेजे हैं | इन सबसे लगता है यदि  युद्ध जारी रहा तब रूस के सामने भी नई समस्या पैदा हो जायेगी | हो सकता है अमेरिका सहित जो देश  अब तक इस जंग से प्रत्यक्ष रूप से दूर रहे वे भी देर – सवेर अपनी भूमिका का निर्वहन करने आगे आयें | भले ही पुतिन यूक्रेन  में सत्ता परिवर्तन करवाने में कामयाब हो जाएँ लेकिन जिस तरह से उनकी सेना ने यूक्रेन में तबाही की और आम जनता  को खून के आंसू रोने मजबूर किया उसके बाद वहां बनी  रूस समर्थक सरकार जनता का कितना भरोसा जीत सकेगी ये बड़ा सवाल है ? ऐसे में ये कहा जा सकता है कि अमेरिका ने यूक्रेन को धोखा देकर उसे तो बर्बादी की राह पर धकेला ही लेकिन उसके साथ ही रूस को भी ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया जिससे निकलना उसके लिए काफी कठिन होगा और उसकी बड़ी कीमत भी उसे चुकाना होगी | बड़ी बात नहीं युद्ध में परास्त होने के बाद यूक्रेन गृहयुद्ध की चपेट में फंस जाये क्योंकि अमेरिका रूस को परेशान  करने के लिए ऐसा करना पसंद करेगा | जिस तरह के हालात बीते कुछ दिनों में देखने मिले उनके मद्देनजर ये कहा जा सकता है कि  यूक्रेन को आग में झोंकने के प्रयास में पुतिन ने रूस के हाथ भी  जलवा दिए | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 26 February 2022

अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान को मरवाया और अब यूक्रेन को



1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तब रूस निरीह अवस्था में था | जनता बेसहारा होकर रह गई थी | साम्यवादी शासन के अंतर्गत जीवन यापन के लिए की गई व्यवस्था एक झटके में चरमरा गई | खाली जेब लोग अपने कुत्ते – बिल्ली तक बेचने तैयार हो गये | दुनिया का बड़े शक्ति केंद्र रहे देश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या थी कि रूसी युवतियां नाईट क्लबों में डांसर बनकर दुनिया के अनेक देशों में जाकर वेश्यावृत्ति करने से भी नहीं हिचकीं | धीरे – धीरे  हालात सुधरे और आर्थिक मोर्चे के साथ  ही कूटनीतिक और सैन्य लिहाज से रूस ने विश्व बिरादरी में दोबारा अपनी जगह बना ली | साम्यवादी दौर की जकड़न से निकली आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन होने से रूस के दरवाजे दुनिया के लिए खुल गए | एक समय  तो ऐसा आया जब  लगा कि अमेरिका और रूस दोनों के बीच शत्रुता और अविश्वास समाप्त हो चला है और  वे  दुनिया को  शांतिपूर्ण विकास हेतु सहायता देने प्रयासरत हैं | लेकिन जबसे रूस में पुतिन युग प्रारम्भ हुआ और उन्होंने अपनी पकड़ मजबूत की तभी से वह पुरानी ठसक में लौटता दिखने लगा , जिसका ताजा प्रमाण यूक्रेन  पर किया गया हमला है | पुतिन भले ही कह  रहे हैं कि रूस यूक्रेन पर कब्जा नहीं करना चाहता  किन्तु उनके इरादे किसी से छिपे नहीं हैं | लेकिन इस मामले में सबसे हास्यास्पद  स्थिति हो गई अमेरिका की , जिसके बलबूते यूक्रेन ने रूस जैसी बड़ी शक्ति से टकराने का दुस्साहस तो कर लिया किन्तु जब  जरूरत पड़ी तब अमेरिका और  उसके साथी देश  कन्नी काट गये | उधर संरासंघ में हमले  के विरुद्ध आये प्रस्ताव को रूस ने वीटो कर दिया | इस संकट की वजह नाटो नामक सैन्य संधि से यूक्रेन के जुड़ने की सम्भावना को माना जाता है , जिस पर रूस को  सख्त ऐतराज था | दूसरी तरफ अमेरिका और उसके साथी रूस को  चेतावनी देते रहे कि वह यूक्रेन को दबाने की जुर्रत न करे , अन्यथा वे उसके साथ खड़े होंगे | लेकिन जब रूस ने उस  पर विधिवत हमला कर दिया तब अमेरिका और नाटो के अन्य सदस्य ये कहते हुए दूर खड़े रहे  कि यूक्रेन इस संधि से जुड़ा नहीं है | गत दिवस यूक्रेन के राष्ट्रपति ने जिस कातर भाव से अमेरिकी रुख पर तंज कसा उसने इस विश्व महाशक्ति की धाक और साख दोनों मिट्टी में मिला दिए | इस बारे में याद रखने वाली बात ये है कि सोवियत संघ से अलग होते समय यूक्रेन के पास परमाणु अस्त्र थे किन्तु अमेरिका के दबाव में उसने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद उनको धीरे – धीरे नष्ट कर दिया | यदि उसने ऐसा न किया होता तब रूस शायद ही उसकी गर्दन दबोचने की हिमाकत कर पाता | यूक्रेन का हश्र क्या होगा , ये फ़िलहाल कह पाना कठिन है क्योंकि वास्तविक स्थिति स्पष्ट नहीं है | हालाँकि रूस बहुत भारी साबित हो रहा है और उसने यूक्रेन को तीन तरफ से घेर रखा है | कहते हैं राजधानी कीव तक रूसी फौजी आ चुके हैं | राष्ट्रपति के आह्वान पर जनता रूसियों से जूझने की हिम्मत भी दिखा रही है | पुतिन ये तो समझ रहे हैं कि यूक्रेन पर कब्जा करना उनके लिए उसी तरह नुकसानदायक  होगा जैसा सद्दाम हुसैन को कुवैत कब्जाने पर झेलना पडा था | इसीलिये उन्होंने कहना शुरू कर दिया है कि रूस केवल सत्ता पलटने में रूचि रखता है |  लेकिन असलियत ये है कि वे  वहां कठपुतली सरकार स्थापित करने की कोशिश में है | यद्यपि  अमेरिका के साथ जुड़े तमाम देशों द्वारा  रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए जाने  के दूरगामी नतीजों से भी  पुतिन अनभिज्ञ नहीं हैं | और इसीलिये उन्होंने  कब्जा न करने जैसी बात कही , क्योंकि जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार यूक्रेन में भी रूसी हमले के विरुद्ध जनता खड़ी हो रही है | पोलेंड ने भी युद्ध सामग्री यूक्रेन भेजना शुरू कर  दिया है | हालाँकि अभी  ये साफ़ नहीं है कि  इसके पीछे अमेरिका का हाथ हैं या नहीं लेकिन यदि ये मुहिम जारी रही तब जैसी कि आशंका शुरू से ही है ,  यूक्रेन दूसरा अफगानिस्तान बने बिना नहीं रहेगा | हो सकता है अमेरिका ने सीधे टकराने की बजाय ये विकल्प चुना हो जिससे वह रूस को लम्बे युद्ध में उलझाकर यूक्रेन में ही फंसाए रखे | वैसे  पुतिन भी अफगानिस्तान में रूसी दखल की कटु स्मृतियों से भली – भाँत्ति अवगत हैं किन्तु जिस मकसद से उन्होंने ये जोखिम मोल लिया उसे पूरा किये  बिना यूक्रेन छोड़ना  उनके लिए आत्मघाती होगा | हालात  इस हद तक  अनिश्चित हैं  कि अगले पल क्या होगा ये किसी को समझ में नहीं आ रहा किन्तु ये स्पष्ट  है कि यूक्रेन एक बार फिर रूसी हड़प नीति का शिकार हो गया | यदि पुतिन वहां कठपुतली सरकार बिठाने में सफल होते हैं तब वह रूसी उपनिवेश बनकर  रह जायेगा किन्तु लड़ाई लम्बी चली तो भी गृहयुद्ध की आग में जलने मजबूर होगा | भारतीय संदर्भ में देखें तो इस विवाद से  एक बात साफ़ हो गई कि  महाशक्तियाँ केवल अपने फायदे और नुकसान के बारे में ही सोचती हैं | ऐसे में किसी भी देश को उन पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए | अफगानिस्तान से जिस तरह अमेरिका हटा वह इसका प्रमाण है | कुछ दशक पूर्व रूस भी वहां अपने समर्थकों को तालिबानी आततायियों के सामने मरने छोड़ आया था | सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त अलग हुए देशों के आर्थिक विकास के प्रति भी अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों का  सहयोगात्मक रवैया रहा हो ऐसा नहीं दिखा जबकि उनमें से कुछ ने नाटो की सदस्यता भी ले ली थी | रही बात रूस की तो वह अभी तक सोवियत संघ से अलग हुए देशों को अपनी मर्जी से हांकने की इच्छा  छोड़ नहीं पा रहा | लेकिन यूक्रेन में उसने जो किया और उस पर अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने  जिस दोगलेपन का परिचय दिया उससे भारत जैसे देशों को ये समझ  लेना चाहिए कि अपनी सुरक्षा के लिए खुद सक्षम होना जरूरी है | 2020 की गर्मियों में चीन द्वारा लद्दाख अंचल की गलवान घाटी को हथियाने का जो प्रयास किया गया उसे भारत ने अपने सैन्यबल पर ही न सिर्फ निष्फल किया अपितु बड़ी सख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराने के साथ ही अग्रिम मोर्चे पर जबरदस्त मोर्चेबंदी करते हुए  ये एहसास करवा दिया कि भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने के लिए किसी बड़ी शक्ति का मोहताज नहीं है | दुर्भाग्य से सोवियत संघ से अलग होने के बाद यूक्रेन ने अमेरिका के फुसलाने पर अपने परमाणु अस्त्र तो नष्ट कर दिए किन्तु रूस के विस्तारवादी इरादों को जानने के बावजूद  अपने रक्षातन्त्र को अपेक्षित मजबूती नहीं दी | इस संकट के दौरान भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान रखकर जो नीति अपनाई वह पूरी तरह सही है | अमेरिका भले ही इससे कुछ समय तक नाराज  नजर आये लेकिन वैश्विक परिदृश्य में वह इस स्थिति में आ चुका है कि अपना रास्ता स्वतंत्र होकर चुन सके | यही कारण है कि दोनों महाशक्तियाँ भारत का समर्थन पाने लालायित नजर आ रही हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 25 February 2022

यूक्रेन संकट विस्तारवाद के नये दौर की शुरुवात : अगला कदम चीन उठाएगा



यूक्रेन विवाद शीतयुद्ध को पीछे छोड़कर अब युद्ध में तब्दील हो चुका है | रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की हठधर्मिता से पूरी दुनिया विनाश की आशंका  से ग्रसित है | द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका  भोग चुका यूक्रेन एक बार फिर अपने दुर्भाग्य को ढोने बाध्य है |  जो लोग ये सोचते हैं कि ये संकट अचानक उत्पन्न हुआ वे इतिहास से अनभिज्ञ हैं | दरअसल यूक्रेन ने रूस के वर्चस्व को कभी मन से स्वीकार नहीं किया | 1917  की बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस में जारशाही तो समाप्त हो गई किन्तु साम्यवादी साम्राज्य का नया दौर शुरू हुआ | जिसके अंतर्गत उसने अपनी सीमाओं को विस्तार देते हुए मध्य एशिया सहित निकटवर्ती तमाम छोटे – छोटे देशों को सैन्यबल से  कब्जे में ले लिया | लेकिन उस समय भी यूक्रेन ने  अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा जो साम्यवादी क्रांति का नेतृत्व करने वाले लेनिन को नागवार गुजरा और 1920 में रूस की सेनाओं ने इस देश पर बलात कब्जा कर उसे सोवियत संघ का हिस्सा बना लिया , जिसे उपनिवेश कहना गलत न होगा | इस बारे में एक बात  ध्यान रखने योग्य है कि सोवियत संघ कभी एक संगठित देश की पहिचान न पा सका और उसमें शामिल देशों ने अपनी सांस्कृतिक और क्षेत्रीय छवि बनाये रखी | लेकिन मास्को में बैठी साम्यवादी पार्टी  की सर्वोच्च सत्ता में रूसी वर्चस्व सदैव कायम रहा | भले ही यूक्रेन में जन्मे निकिता क्रुश्चेव जैसे कुछ नेता  अन्य देशों से रहे हों परन्तु कुल मिलाकर  केन्द्रीय सत्ता रूस के हाथ ही रही | ऐसा नहीं है कि उसका विरोध न होता हो लेकिन इतिहास साक्षी है कि विरोध की हर आवाज को  हमेशा के लिए बंद कर दिया गया | जोसेफ स्टालिन द्वितीय युद्ध के समय सोवियत संघ के शासक  थे | उस दौर में  अनगिनत ऐसे  लोगों को सायबेरिया के यातना शिविरों में भेज दिया गया जिन पर साम्यवादी तानाशाही का विरोध करने का शक था  | सही कहें  तो  स्टालिन ने जितना अत्याचार किया वह हिटलर की तुलना में कम न था | केजीबी नामक गुप्तचर एजेंसी  आतंक और निरंकुशता का पर्याय बन गई थी | हालाँकि स्टालिन के बाद अनेक उदारवादी माने जाने वाले चेहरे भी सत्ता में आये लेकिन साम्यवाद में विरोध को सहन न करने की जो जन्मजात मानसिकता  है वह बदस्तूर  कायम रही | सबसे बड़ी  बात ये रही कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ जैसे नारे के जरिये  बहुराष्ट्रवाद की प्रवर्तक सोवियत सरकार रूस का  वर्चस्व  बनाये रखने की प्रवृत्ति को त्याग न सकी | योजनाबद्ध तरीके से संघ  में शामिल बाकी  देशों के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों का  दोहन अपने हितों के लिए किये जाने के साथ ही रूसी भाषा बोलने वालों को योजनाबद्ध तरीके से उन देशों में बसाकर अपनी जड़ें मजबूत करने की दूरगामी कार्ययोजना अमल में लाई गई | हालाँकि इसके चलते अंतर्विरोध भी  पनपते रहे  , जिनका विस्फ़ोट 1991 में सामने आया |  परिणामस्वरूप सोवियत संघ नामक कृत्रिम संरचना  ध्वस्त होकर  अनेक नए देश उभरकर आ गये | हालाँकि इसके पीछे अमेरिका का हाथ माना गया किन्तु मिखाइल गोर्वाचोव नामक जिस नेता ने सोवियत संघ के विघटन का रास्ता प्रशस्त किया वह साम्यवादी घुटन से निकलना चाहता था वरना  उस व्यवस्था में परिंदा भी पर नहीं  मार सकता वाली बात पूरी तरह से लागू होती थी | सही बात ये है कि पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ साम्यवाद जिस तरह निरंकुशता का प्रतीक बनता गया उसकी  वजह से सोवियत संघ से जुड़े अनेक देश अलग होने आतुर हो उठे थे  | पूर्वी यूरोप के चेकोस्लोवाकिया नामक देश ने भी जब सत्तर के दशक  में उसके प्रभाव से आजाद होने का साहस किया तो सोवियत फौजों ने वही किया जो आज यूक्रेन में देखने मिल रहा है | दरअसल पुतिन राष्ट्रपति बनने के पहले उसी कुख्यात केजीबी के मुखिया रहे जो विरोधियों  के दमन में  नृशंसता से परहेज नहीं करती थी | इसीलिए  उन्होंने सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचते ही अपने विरोधियों को ठिकाने लगाकर जीवनपर्यंत शासन करते रहने की व्यवस्था लागू कर दी | लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा यहाँ जाकर भी थमी नहीं |  जबसे वे क्रेमलिन में जमे तभी से रूसी प्रभुत्व की पुनर्स्थापना में जुटे हैं  और यूक्रेन की आजादी उनके आँखों में खटकती रही |  पुतिन चाहते हैं कि सोवियत संघ से अलग हुए देश अभी भी रूस की सर्वोच्चता को स्वीकार करते रहें | इसी सोच के अंतर्गत उन्होंने अनेक देशों में रूस समर्थक शासक बिठा रखे हैं | यूक्रेन में भी काफी समय तक ऐसा रहा लेकिन ज्योंही उसने मास्को के इशारों की अनदेखी करते हुए  अमेरिकी प्रभाव में जाने का इरादा जताया त्योंही रूस की त्यौरियां चढ़ गईं जिसका अंतिम परिणाम दुनिया देख रही है | इस कदम के जरिये पुतिन ने ये दिखाने की कोशिश  की है  कि दुनिया का एकमात्र शक्ति केंद्र वाशिंगटन को मान लेना गलत होगा |  ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है  कि भले ही साम्यवाद रूस में न लौटे और सोवियत संघ जैसी व्यवस्था का पुनर्जन्म भी  न हो किन्तु पुतिन के मन में समाई  केजीबी प्रमुख की मानसिकता के कारण  विस्तारवाद और निरंकुशता की साम्यवादी नीतियां नए रंग रूप में सामने आ रही हैं | चूंकि चीन भी अब  आर्थिक उपनिवेशवाद रूपी हथियार का उपयोग करने पर आमादा है इसलिए उसने बिना देर लगाये पुतिन का समर्थन कर दिया | वैसे भी   दोनों का वैचारिक और व्यवहारिक शत्रु समान ही है | यूक्रेन संकट की परिणिति रूस समर्थक कठपुतली सरकार की स्थापना ही है | लेकिन बात यहीं तक रुकने वाली नहीं है | यदि विश्व जनमत इसी तरह असहाय रहकर मूकदर्शक बना रहा तो पुतिन अपनी मुहिम जारी रखेंगे क्योंकि आज जो देश अमेरिका के दबाव में रूस के विरुद्ध खड़े नजर आ रहे हैं वे ज्यादा दिनों तक अपने आर्थिक हितों को नजरंदाज करने की स्थिति में नहीं है |  उससे भी बड़ा खतरा ये है कि पुतिन के इस कदम ने चीनी तानाशाह शी जिनपिंग का रास्ता भी साफ़ कर दिया है जो न सिर्फ ताईवान और जापान के कुछ द्वीपों को हड़पना चाह रहे हैं  अपितु भूटान , नेपाल और मंगोलिया के कुछ इलाकों पर भी उनकी बुरी नजर बनी हुई है | दक्षिण चीन के समुद्री क्षेत्र पर बलात कब्जे के साथ ही वियतनाम , दक्षिण कोरिया , इंडोनेशिया भी  उनके निशाने पर है | श्रीलंका के अर्थतंत्र को भी चीन ने तोड़कर रख दिया है | जिस तरह दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया में नई आर्थिक , भौगोलिक तथा कूटनीतिक संरचना देखने मिली , वैसा ही कुछ – कुछ  कोरोना काल के बाद  होता लग  रहा है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 24 February 2022

पुतिन और जिनपिंग का मिलन वैश्विक शक्ति संतुलन के नये युग की शुरूवात



यूक्रेन संकट जिस स्थिति में पहुंच गया है उसमें रूस का पीछे हटना सम्भव नहीं लगता। उसके दो हिस्सों को स्वतंत्र देश की मान्यता देने के बाद उसने अपनी सेना यूक्रेन में प्रविष्ट करा दी जिससे युद्ध की स्थिति बन गई है। उधर अमेरिका ने भी निकटवर्ती देशों में युद्धक विमान और मिसाइलें आदि तैनात कर दी हैं। अमेरिका सहित उसके साथी देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिए हैं। हालाँकि इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी बड़ा धक्का लग सकता है क्योंकि वहाँ की तमाम बड़ी कम्पनियों के रूस के साथ जो व्यवसायिक करार हैं उन पर प्रतिबंधों के कारण संकट आ खड़ा हुआ है। सर्वाधिक चर्चा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की है जिन्होंने विश्व जनमत की अनदेखी करने की जुर्रत की। जिस तरह से उन्होंने अमेरिकी धौंस को ठेंगा दिखाते हुए यूक्रेन पर हमला कर उसके दो इलाकों को आजाद मुल्क बताकर मान्यता दे डाली उसके बाद संरासंघ पर सबकी निगाहें टिकी हुई थीं किन्तु संकट को टालने में नाकामयाबी से इस विश्व संगठन की उपयोगिता पर सवालिया चिन्ह लग रहे हैं। दरअसल पुतिन ने जिस तरह की दादागिरी दिखाई उसके पीछे सुरक्षा परिषद में प्राप्त वीटो का अधिकार है। अभी तक चीन ने भले ही तटस्थ भाव ही प्रदर्शित किया किन्तु ऐसा करना भी पुतिन का समर्थन ही है। वहीं ये संकट भारत के लिए भी कूटनीतिक असमंजस की स्थिति लेकर आया है और इसीलिये वह बातचीत के जरिये समाधान निकालने की नीति पर चल रहा है। हालाँकि अमेरिका ये धमकी दे रहा है कि वह रूस के साथ रक्षा समझौतों से पीछे हटे किन्तु भारत ने अब तक किसी की ओर झुकाव प्रदर्शित न करने का जो रुख अपना रखा है वह फिलहाल तो ठीक है लेकिन उसको अपनी भूमिका का निर्धारण बहुत ही सोच-समझकर करना होगा क्योंकि जिस तरह दो सांड़ों की लड़ाई में खेत की बाड़ को नुकसान पहुंचता है वही स्थिति महाशक्तियों के टकराने से बाकी देशों की होती है। भारत ने आजादी के बाद से ही अपने को गुट निरपेक्ष बनाकर रखा लेकिन अमेरिका की पाकिस्तान समर्थक नीति के कारण हमारा झुकाव रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) की तरफ  बना जिसने सुरक्षा परिषद में अपने वीटो से सदैव भारतीय हितों की रक्षा की। लेकिन 20 वीं सदी खत्म होते तक दुनिया की तस्वीर ही बदल गई और व्यापार तथा बाजार ने कूटनीतिक रिश्तों को नई शक्ल दे दी। चीन का माओ युगीन लौह आवरण जिस तरह टूटा और साम्यवाद के सबसे बड़े जीवित केंद्र में दुनिया भर की पूंजी आकर केन्द्रित हुई उसने शक्ति संतुलन के मापदंड बदल डाले। इसीलिए यूक्रेन के मौजूदा संकट में चीन की प्रत्यक्ष भूमिका भले न हो लेकिन पुतिन ने जिस तरह के दुस्साहस का प्रदर्शन किया वह चीनी हुक्मरान शी जिनपिंग के साथ उनकी जुगलबंदी के कारण ही संभव हो सका। बीते दिनों जब पुतिन ने ताईवान मुद्दे पर चीन को समर्थन की बात कही तभी दुनिया को हवा का रुख समझ लेना चाहिए था। सबसे बड़ी बात ये है कि आज के दौर में जहाँ पुतिन और जिनपिंग अपने-अपने देश में सर्वशक्तिमान नेता के रूप में स्थापित हो चुके है वहीं अमेरिका में महज दो साल के भीतर बाईडेन की लोकप्रियता में निरंतर कमी आती जा रही है और जिस डोनाल्ड ट्रम्प को मसखरा मानकर जनता ने हरा दिया वह तेजी से उभरने लगे हैं। गत दिवस उन्होंने जिस तरह से पुतिन की तारीफ  कर डाली उससे ये संकेत निकलकर आया है कि अमेरिका के भीतर ही विदेश नीति को लेकर एक राय नहीं है। अब तक के सूरते हाल से जो बात स्पष्ट हुई वह ये कि पुतिन पीछे नहीं हटेंगे। उनके सत्ता में आने के बाद रूस ने पुराने सोवियत गणराज्यों में जिसे जितना दबाना चाहा उसमें वे कामयाब रहे हैं। यूक्रेन  के क्रीमिया बंदरगाह पर रूस द्वारा बलपूर्वक कब्ज़ा किये जाने के बाद पूरी दुनिया जिस तरह असहाय बनी रही उसने पुतिन के हौसले बुलंद किये। उन्हें ये भी समझ में आ गया कि सोवियत संघ को पुनर्जीवित करना तो असंभव है लेकिन वैश्विक शक्ति संतुलन का पूरी तरह अमेरिका के हाथों में बना रहना भी एक ध्रुवीय दुनिया बनाने जैसा होगा। पुतिन इस बात को समझ चुके हैं कि अमेरिकी प्रभाव के कारण यूरोप के बड़े देश उनको समर्थन नहीं देंगे और इसीलिये उन्होंने बड़ी ही चालाकी और चतुराई से भारत को रक्षा प्रणाली देकर चीन पर दबाव बनाया। कोरोना काल के बाद चीन को लेकर विश्व भर में जिस अविश्वास का भाव पैदा हुआ उससे जिनपिंग भी परेशान थे। ताईवान मुद्दे पर अमेरिका के जबर्दस्त दबाव के कारण वे चाहकर भी कुछ करने में असमर्थ साबित हो रहे थे। दुनिया के बाजारों में चीनी सामान की मांग कम होने से भी उन्हें एहसास होने लगा था कि उनके देश को एक बार फिर अलग-थलग करने की सोच बन गई है। पाकिस्तान के रास्ते मध्य एशियाई देशों से होते हुए यूरोप तक पहुंचने के लिए वन बेल्ट वन रोड का महत्वाकांक्षी प्रकल्प जिस तरह झमेले में फंस गया उससे वे काफी परेशान थे। और इसीलिये चीन ने बिना देर लगाए रूस के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि पुतिन और जिनपिंग की तासीर एक जैसी है। दोनों ने अपने देश पर इस तरह शिकंजा कस लिया है जिससे वे आजीवन राष्ट्रपति बने रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो ये दोनों तानशाह बन चुके हैं और इसीलिये उन्हें एक साथ खड़े होने में कोई हिचक नहीं है। वैसे भी इनके देश की अमेरिका और उसके समर्थकों से पुरानी दुश्मनी रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों द्वारा आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर रूस को घेरने का जो फैसला लिया गया उससे बचाव के लिए चीन उसके साथ खड़ा रहेगा जो खुद एक आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बन बैठा है। आज की स्थिति में जहां अमेरिका खुद ही अंतर्द्वंदों में फंसा है वहीं यूरोप भी अब तक कोरोना की मार से उबर नहीं सका। इस वजह से पुतिन और जिनपिंग की जोड़ी नए विश्व नेतृत्व का चेहरा बन सकती है। अब तक ये दोनों अकेले रहने पर अलग-थलग कर दिए जाने के खतरे से जूझ रहे थे। लेकिन इस संकट के बहाने इन दोनों का करीब आना अमेरिका और यूरोपीय देशों के अलावा भारत के लिए भी चिंता का कारण बन सकता है क्योंकि चीन का समर्थन रूपी उपकार पुतिन को पाकिस्तान के प्रति नर्म रवैया अपनाने के लिए बाध्य कर सकता है। जिससे सुरक्षा परिषद में भारतीय हितों को रूसी वीटो रूपी संरक्षण खतरे में पड़ने का अंदेशा है। इस प्रकार भारत के लिए ये स्थिति बहुत ही नाजुक है क्योंकि न तो वह किसी एक खेमे में जाने का कदम उठा सकता है और न ही लम्बे समय तक निर्लिप्त बने रहना आसान होगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की ताजा मास्को यात्रा का निहितार्थ समझना भी भारत के लिए जरूरी है क्योंकि उनका देश दिवालिया होने के कगार पर है और ऐसे में वे बिना चीनी योजना के कोई बड़ी कूटनीतिक मुहिम छेड़ने की हैसियत में नहीं हैं। यूक्रेन संकट ऐसे समय गम्भीर हुआ जब दुनिया के ताकतवर कहे जाने वाले देशों में कद्दावर नेताओं का एक तरह से अभाव नजर आ रहा है। इसीलिए पुतिन ने विश्व जनमत को लात मारने की जुर्रत की। चीन के साथ उनकी जुगलबंदी से भारत के हितों पर आंच न आये ये चिंता करना जरूरी है। रूस हमारा पुराना मित्र जरूर है लेकिन हमारे पैदायशी शत्रु के साथ उसकी निकटता किसी नए संकट का आधार बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 23 February 2022

पूजनीय गाय आवारा पशु कैसे बन गई : राजनीतिक दलों के लिए चिंतन का विषय



उ.प्र के चुनाव में  अनेक ऐसे मुद्दे चर्चा में हैं जो कमोबेश हर जगह  सुनाई देते हैं लेकिन आवारा पशुओं से किसानों को हो रही परेशानी जिस तरह सामने आई है उसकी वजह से भाजपा के माथे पर पसीने की बूँदें छलछलाने लगी हैं | चुनावी जंग के बीच इस आशय की खबरें आ रही हैं कि किसान समुदाय आवारा पशुओं से बहुत परेशान हैं जो  नजर चूकते ही उसकी मेहनत पर पानी फेर देते हैं | अनेक किसानों ने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि उन्हें रात – रात भर जागकर खेतों में रखवाली करनी पड़ती है क्योंकि जब से गोवंश के वध पर प्रतिबंध लगाया गया है तब से गायों और साड़ों की भीड़ बढ़ गई है | अनेक किसानों ने तो खेतों की कंटीले तारों से घेराबंदी भी की जबकि कुछ पक्की दीवार बना रहे हैं जिस पर मोटी रकम खर्च होने से वह सबके बस में नहीं है  | चूंकि अब खेती में बैलों का उपयोग काफ़ी  कम हो गया है इसलिए गोपालन के प्रति आम तौर पर किसान उदासीन हो चला है | जहाँ तक बात दुग्ध उत्पादन की है तो पशुपालन पर होने वाले खर्च की तुलना में उसे दूध खरीदना ज्यादा आसान और सस्ता प्रतीत होता है | फसलों की कटाई हार्वेस्टर से होने के कारण भूसा भी अब पहले जितनी मात्रा में नहीं मिलता | इसीलिए जब गाय  दूध नहीं देती तब उसे पालने वाले भी उसे छुट्टा छोड़ देते हैं | इसका प्रमाण हाइवे पर शाम के समय बैठे उनके झुंडों  से मिलता है जो वाहन चालकों की परेशानी  के साथ ही दुर्घटनाओं का कारण भी बनते हैं | शहरों में भी ये समस्या दिनों – दिन बढ़ती जा रही है | कुछ साल पहले तक उ.प्र के किसान नील गायों से त्रस्त थे जिनके जत्थे उनकी फसल चर जाया करते थे | लेकिन जब से गोवंश के वध पर रोक लगाई गई तब से  आवारा गाय और सांड़ों द्वारा  फसल चर  जाने की घटनाएँ जिस तेजी  से बढ़ीं उनके कारण  ये चुनावी मुद्दा बन गया है | हिन्दू समुदाय में गाय चूँकि पवित्र और  पूजित है इसलिए उसे  मारने से परहेज किया जाता था | जब वह  बूढ़ी हो जाया करती थी तब उसे कसाई को बेचने का चलन था लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की ही थी जो गाय को जीवित रहते तक बेचते नहीं थे | मरने के बाद उसके चमड़े का उपयोग बहरहाल जूते आदि बनाने में किया जाता रहा  |  गोवंश का राजनीति से भी गहरा  सम्बन्ध रहा है | भारत की 80 फीसदी आबादी चूंकि ग्रामीण थी इसलिए आजादी के बाद कांग्रेस ने अपना चिन्ह बैल जोड़ी को चुना | महात्मा गांधी भी गोरक्षा की हामी रहे | 1969 में पार्टी का विभाजन होने पर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले धड़े ने भी गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह चुना ,  जिससे वह खुद को गाँव और किसानों से जुड़ा साबित कर सके | आज भी देश की संसद और और विधानसभाओं में बड़ी संख्या उन जनप्रतिनिधियों की  है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है और जो बात – बात में गाँव और किसानों  की चिंता जताते हैं | लेकिन समय के साथ ज्यों – ज्यों ग्रामीण क्षेत्रों से मानव संसाधन का पलायन हुआ त्यों – त्यों मानवीय श्रमिक का स्थान मशीन लेने लगी  और वहीं से कृषि कार्य में गोवंश की भूमिका कम होती गयी | जब तक गाय और बैल खेती से जुड़े रहे  तब तक किसान को  उनकी जरूरत रही किन्तु ट्रैक्टर , थ्रेशर , कल्टीवेटर और हार्वेस्टर जैसे उपकरणों के आगमन ने गाय और बैल को हाशिये पर धकेल दिया | रही सही कसर पूरी कर दी सड़क और बिजली ने | गाय और भैंस जैसे दुधारू पशुओं के गोबर से बनने वाले कंडे जहाँ ग्रामीण भारत में ईंधन का बड़ा स्रोत थे वहीं गोबर से बनी  खाद खेत की उर्वरक क्षमता बढ़ाने के काम आती थी | और फिर दूध तथा उससे बनने वाली  अन्य चीजें किसान के पोषण और अतिरिक्त आय का स्रोत हुआ  करती थीं | लेकिन तकनीक के विकास के साथ उन्नत खेती ने कृषि  का पूरा चरित्र बदल दिया जिसके कारण उसके साथ पशुपालन का जो अटूट नाता था वह छिन्न – भिन्न हो गया | मुंशी प्रेमचंद की हीरा – मोती और गोदान जैसी कालजयी कृतियां अब कल्पनालोक का एहसास कराती हैं | कहने का आशय ये हैं कि गाँव और खेती को नया रूप देते समय हमारे नीति – निर्माता  ये भूल गये कि पशुपालन ग्रामीण भारत की  अर्थव्यवस्था का ठोस  आधार रहा है | रासायनिक खाद और विषैले कीटनाशकों ने गाय और गोबर दोनों की उपयोगिता को इस हद तक घटाया कि वे बोझ लगने लगे | शहरों में भी गाय पालने का जो रिवाज था वह आधुनिकता के विकास और संयुक्त परिवारों के विघटन के कारण गुजरे ज़माने की चीज बनकर रह गया | जो जगह गाय की होती थी उसमें कार गैरेज बनने लगे | बहुमन्जिला आवासीय संस्कृति ने तो जनजीवन को पूरी तरह बदल डाला | लेकिन  अचानक लगने लगा कि ऐसा कुछ पीछे छूट गया है जिसके अभाव में विकास के साथ विनाश दबे पाँव चला आया | और तब फिर से गाय , गोबर , जैविक खेती याद आने के बाद शुरु हुआ गाय के संरक्षण और संवर्धन का सिलसिला | बेशक इसमें राजनीति भी घुसी जिसके परिणामस्वरूप गोवंश के वध पर रोक लगाने जैसे फैसले किये गये | लेकिन  गोपालन हेतु जो व्यवस्था की जानी चाहिए थी वह नहीं होने से अव्यवस्था फैलने लगी | गोशालाओं के लिए अनुदान की जो सरकारी प्रणाली  है वह ऊँट के मुंह में जीरे से भी कम है | और फिर इसमें होने वाला भ्रष्टाचार भी किसी से छिपा नहीं है | भोपाल में कुछ दिनों पहले ही ऐसी ही एक गोशाला में सैकड़ों गायों के मरने और उसके बाद उनकी दुर्गति की जो खबर आई उसने पूरा सच उगल दिया | उ.प्र में  किसान चुनाव के दौरान अपनी समस्या को लेकर सत्तारूढ़ योगी सरकार से अपनी जो नाराजगी जता रहे हैं उसे नजरंदाज करना गलत होगा | हालाँकि अब वहां के  सभी राजनीतिक दल  गोबर खरीदने के साथ ही गोपालन के लिए बेहतर सुविधाएँ  देने का वायदा करते घूम रहे हैं जिससे आवारा पशुओं की समस्या कम हो सके | जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए भी परम्परागत गोबर की खाद के उपयोग को बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा है | कंडों का व्यवसायिक उत्पादन  भी किया जा रहा है तथा अनेक ऑनलाइन कम्पनियाँ बाकायदा कंडे बेचने लगी हैं | सबसे बड़ी बात गाय से जुड़े अर्थशास्त्र की है | उसके दूध के औषधीय गुणों को प्रामाणिक मान लिया गया है | महानगरों में उसके दूध और उससे बने घी को ऊंचे दाम पर खरीदने वालों की अच्छी खासी  संख्या है | लेकिन इस आर्थिक पहलू को नजरंदाज कर केवल गोवध पर रोक लगाने से नई समस्या ने जन्म ले लिया | उ.प्र के चुनाव के कारण इसका  राष्ट्रव्यापी चर्चा का विषय बनना  शुभ संकेत है | वैसे भी भारत में गाय केवल एक दुधारू पशु न होकर  सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन से भी अंतरंगता से जुड़ी हुई है | माँसाहारी हिन्दू भी गोमांस का सेवन नहीं करते |  हालाँकि ये भी किसी विडंबना से कम नहीं है कि गाय के प्रति श्रद्धा रखने वाले देश से गोमांस का निर्यात बहुत बड़े पैमाने पर होता रहा है | इसके अलावा बेकार हो चुके गोवंश को अवैध रूप से बांग्लादेश भेजे जाने का कारोबार भी धड़ल्ले से चलता है | इस स्थिति के मद्देनजर अब जबकि आवारा पशु विशेष तौर पर गोवंश राजनीतिक मुद्दा बनने लगा है तब सभी  राजनीतिक दलों को चाहिये कि वे गोपालन के महत्व को आर्थिक तौर पर लोगों के मन में उतारते हुए इस बात को स्थापित करने का प्रयास करें  कि गाय जब तक जीवित है , अनुपयोगी नहीं हो सकती | लेकिन  उसके पालन और पोषण की समुचित व्यवस्था नहीं की गई तब वह उसी तरह बोझ और समस्या बनी रहगी जैसी उ.प्र से आ रही खबरें और नए बने राजमार्गों पर बैठे उनके झुण्ड बताते हैं | इसके लिए एक व्यवहारिक और ईमानदार कार्ययोजना  बनाई जानी चाहिए | गाय ऐसा पशु है जिसका दूध , गोबर , मूत्र और मरने के बाद चमड़ा तक उपयोग में आता है | राजनीति करने वालों के लिए ये चिन्तन का विषय होना  चाहिए कि पवित्र और पूजनीय मानी जाने वाली गोमाता किन कारणों से आवारा बनकर असहनीय लगने लगी | गाय के प्रति श्रद्धा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि पूरी तरह शहरी सभ्यता में डूब चुके करोड़ों परिवारों में आज भी पहली रोटी गाय की बनाई जाती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 22 February 2022

चाहें न चाहें किन्तु मानना तो संविधान को ही पड़ेगा क्योंकि धार्मिक आजादी उसी की देन है



कर्नाटक के शिमोगा में एक हिन्दू युवक की हत्या के बाद पैदा हुए तनाव ने सांप्रदायिक रूप ले लिया | चूंकि हत्या के आरोप में जिसे पकड़ा गया वह भी मुस्लिम है इसलिए तनाव और बढ़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता | इस घटना की पृष्ठभूमि माना  जा रहा हिजाब संबंधी  विवाद राज्य के उच्च न्यायालय में विचाराधीन है | एक  शिक्षण संस्थान की कक्षा में कुछ मुस्लिम छात्राओं द्वारा अचानक हिजाब पहिनकर आने के बाद प्रबन्धन ने उसका विरोध किया तो मामला और बढ़ गया | क्रिया की प्रतिक्रिया का असर धीरे – धीरे   देश के अन्य  हिस्सों में भी नजर आने लगा और बहस मुस्लिम परम्पराओं के पालन की  अनिवार्यता पर आकर टिक गयी | हिजाब के उपयोग के  प्रति मुस्लिम समुदाय की जो युवतियां उदासीन हो चली थीं वे भी अचानक पर्दानशीं दिखने  लगीं | जाहिर है इसके पीछे धर्मिक कट्टरपन ही है अन्यथा इस समाज की नई पीढ़ी  धर्म का पालन करते हुए भी दकियानूसीपन से बाहर  निकलने को बेताब नजर आने लगी है | लेकिन कर्नाटक में जो हुआ उसकी शुरुआत किसी धार्मिक आदेश या परंपरावश न होकर किसी ऐसे संगठन के इशारे पर हुआ जो  धार्मिक कट्टरता के फैलाव का काम कर रहा है | यही वजह थी कि कक्षा में अचानक हिजाब के  उपयोग की जिद पकड़ ली गई | पूर्व में वही छात्राएं संस्थान के नियमों के अनुसार परिसर में आने तक ही हिजाब का उपयोग करती थीं किन्तु कक्षा में उसके उपयोग का हठ उन्हें क्यों और कहाँ से सूझा इसका संतोषजनक उत्तर मिलना बहुत जरूरी है क्योंकि इसी में वह राज छिपा हुआ है जिससे बात इस हद तक बढ़ी | जहाँ तक इसके चुनाव से जुड़ने की बात है तो ध्यान देने योग्य बात ये है कि जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वे सब कर्नाटक से काफी दूर हैं | सबसे करीबी राज्य गोवा में भी मुस्लिम मत उतने प्रभावशाली नहीं हैं | लेकिन जिस तरह से हिजाब को लेकर मुस्लिम समुदाय खुलकर सामने आया और काफी हद तक उसने आक्रामक रुख प्रदर्शित किया , वह चौंकाने वाला रहा | देश भर के मुस्लिम संगठन और धर्मगुरु शरीयत के मुताबिक चलने की बात कहते हुए हिजाब के औचित्य को अधिकार की शक्ल में साबित  करने में जुट गए | इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि मुस्लिम समाज में नई पीढ़ी की लडकियां तक अपने विचार खुलकर व्यक्त करने में डरती हैं , इसलिए उनकी इच्छा सही रूप में बाहर नहीं आ पाती | 21 वीं सदी में भी इस  समुदाय के ज्यादातर लोग मुल्ला – मौलवियों की हिदायतों को बिना जांचे – परखे मान लेने की मानसिकता वाले हैं | हालांकि नेता या नौकरशाह बने अनेक  मुस्लिमों  में आधुनिक जीवन शैली का पालन करने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी है लेकिन बहुतायत उन्हीं की है जो शरीयत से इतर सोचने का साहस नहीं कर पा रहे | सबसे बड़ी बात ये है कि मुल्ला  – मौलवी   धार्मिक नियमों और रीति – रिवाजों का जो हवाला देते हैं  उनके बारे में भिन्न विचार व्यक्त करने वालों को खलनायक मानकर किनारे कर दिया जाता है | हिजाब को लेकर चल रहा विवाद दरअसल एक शिक्षण संस्थान के  अनुशासन को तोड़ने की  जिद पर आधारित है जिसे धार्मिक अधिकार का नाम दे दिया गया | जहाँ तक बात धर्म के पालन की स्वतंत्रता की है तो वह संस्थागत अनुशासन और देश के कानून से ऊपर नहीं हो सकती | इसीलिये सऊदी अरबी जैसे कट्टर इस्लामी देश में सड़क चौड़ी करने के लिए यदि मस्जिद हटा दी जाती है तो कोई विरोध नहीं होता | वैसे मुस्लिम समुदाय में भी मुल्ला – मौलवियों का वैसा ही प्रभाव है जैसा हिंदुओं  में साधू – सन्यासियों और ईसाइयों में पादरियों का | जैन मुनि भी अपने  धर्म को मानने वालों को प्रेरित और प्रभावित करते हैं जबकि सिखों में गुरुद्वारों से कही गयी बात का वजन होता है | इन धर्मों में भी कट्टर सोच वाले धर्माचार्य और अनुयायी न हों ऐसा सोचना सच्चाई से मुंह चुराना होगा परन्तु  ये कहना सौ फीसदी सही है कि भारत के  मुस्लिम समुदाय में सुधारवादी सोच का विकास तुलनात्मक तौर पर  धीमा होने से ये समाज शैक्षणिक और सामाजिक तौर पर मुख्यधारा में आने से वंचित है |  ये देखकर आश्चर्य होता है कि आज तक मुसलमानों को ये बात  समझ नहीं आ रही कि उनको पिछड़ा रखना बड़े षडयंत्र का हिस्सा है , जिसे रचने वाले उनके कतिपय धर्मगुरु और राजनेता हैं | इन दोनों की संगामित्ती ने इस समुदाय को वोट बैंक रूपी छोटी सी  हैसियत देकर आत्ममुग्ध  कर रखा है | बजाय हिजाब जैसी बहस में उलझने के यदि मुस्लिम समुदाय अपनी बदहाली के असली कारणों को समझकर उन्हें दूर करने के बारे में प्रयासरत हो तो वह अपने धर्म का बेहतर तरीके से पालन कर सकेगा | आज इस समुदाय की जो शैक्षणिक और सामाजिक बदहाली है उसकी वजह वही मुद्दे हैं जिनमें उलझकर उसके नौजवान भी अपने भविष्य को असुरक्षित और अनिश्चित बना रहे हैं | कर्नाटक में एक छोटे से विवाद को स्थानीय स्तर पर सुलझाने की समझदारी दिखाई जाती तब गत दिवस हुई हत्या जैसी वारदात से बचा जा सकता था | अब उसकी प्रतिक्रया में वैसी ही जघन्यता दिखाई गई तब बात और बढ़ेगी | राजनीति की अपनी कार्यशैली है जो वोट से शुरु होकर उसी पर खत्म भी हो जाती है | हिजाब विवाद के पीछे और आगे भी यही नजर आ रहा है | इसलिए बेहतर तो यही होगा कि उच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार किया जावे | उससे असंतुष्ट पक्ष चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय भी जा सकता है | लेकिन सड़क पर ही ऐसे मामलों को घसीटा जाता रहा  तो फिर खून – खराबे  जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ होती रहेंगी | चुनाव का मौजूदा दौर तो कुछ  दिनों के बाद खत्म हो जायेगा लेकिन ऐसी घटनाओं के घाव नहीं  भरते | मुसलमान भी इस देश के हिस्से हैं और  उनको भी जो धार्मिक आजादी प्राप्त है वह  संविधान ने ही दी है | इसलिए उन्हें अपने बीच के उन लोगों को रोकना चाहिए जो ये कहते हैं कि वे शरीयत को मानेंगे संविधान को नहीं | ऐसे लोगों को ये समझाने की जिम्मेदारी मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों के साथ सुधार के पक्षधर धर्मगुरुओं की है कि संविधान की अवहेलना करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा क्योंकि जिस धर्म निरपेक्षता का राग दिन रात अलापा जाता है वह किसी धार्मिक ग्रन्थ की नहीं अपितु  इसी संविधान की ही देन है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 21 February 2022

यूक्रेन बन रहा दूसरा अफगानिस्तान : भारत को सावधान रहना होगा



रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी वर्चस्व की लड़ाई में जिस तरह से अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के बड़े देश कूद रहे हैं उससे  दुनिया के सामने नया संकट पैदा हो गया है | यूक्रेन पश्चिमी यूरोप का हिस्सा है और सोवियत संघ से अलग हुए देशों में सबसे बड़ा है | रूस द्वारा यूरोपीय देशों को प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम की आपूर्ति यूक्रेन के रास्ते ही होती रही है |  सोवियत संघ टूटने  के बाद से ही उसकी नजरें यूक्रेन पर लगी हुई हैं | इसीलिये उसने वहां ऐसी अलगाववादी ताकतों को दाना – पानी देकर सक्रिय किया जो रूस के साथ विलय चाहते हैं | द्वितीय विश्व युद्ध में वह यदि सुरक्षित रह सका तो उसका कारण यूक्रेन ही रहा जिसके विशाल भूभाग में हिटलर की  सेना ऐसी फंसी कि मास्को फतह करने का उसका सपना चूर – चूर हो गया | उस महायुद्ध में मित्र देशों की विजय की शुरुआत भी रूस पर नाजी सेनाओं के कब्जे की विफलता से ही हुई | सोवियत संघ के लिए यूक्रेन एक तरह से पश्चिमी यूरोप का प्रवेश द्वार जैसा है जिसे वह हर कीमत पर अपने प्रभाव  में रखना चाहता है | हालाँकि 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद भी कुछ समय तक वह  स्वतंत्र देश रहा किन्तु 1920 में  सोवियत संघ का हिस्सा बन गया | 1991 में उसके बिखरने के बाद  रूस आर्थिक दृष्टि से काफी कमजोर होकर अमेरिकी मदद पर आश्रित हो चला था | कुछ समय तक तो ऐसा लगा कि वह पूरी तरह से उसके प्रभाव में आ चुका है लेकिन ब्लादिमीर पुतिन के उदय के बाद से रूसी राष्ट्रवाद फिर जागा और उसी के परिणामस्वरूप उसने यूक्रेन पर निगाहें गड़ाना शुरू किया | 2014 में कीमिया  बंदरगाह पर कब्जा उसी योजना का हिस्सा था | लेकिन ये देखते हुए यूक्रेन के शासकों ने भी  अमेरिका से सम्पर्क बढ़ाने  शुरू कर दिये  जिससे रूस के कान खड़े हो गये | पश्चिम एशिया के  सीरिया संकट में रूस का सीधा हस्तक्षेप भी इसी कारण से  था | कुल मिलाकर यूक्रेन के बहाने साठ के दशक का शीतयुद्ध फिर आकार लेता दिख रहा है | अपनी सुरक्षा के लिए खतरा देखते हुए यूक्रेन द्वारा  अमेरिका के प्रभुत्व वाले नाटो गुट में शामिल होने का इरादा व्यक्त किये जाने से पुतिन की चिंता बढ़ गई है | यूक्रेन के रास्ते अपने पेट्रोलियम उत्पाद पश्चिमी देशों विशेष रूप से जर्मनी और फ्रांस को बेचने में बाधा आने से रूस बेचैन है वहीं अमेरिका का सोचना है कि अफगानिस्तान से खाली हाथ और काफी हद तक बेइज्जत होकर निकलने के बाद रूस पर निगाह रखने के लिए उसे कोई निकटवर्ती ठिकाना चाहिए | यूक्रेन उस दृष्टि से उसे सबसे उपयुक्त लगा जो खुद भी दोबारा मास्को के प्रभाव में नहीं लौटना चाहता | रूस ने यूक्रेन में तालिबानी शैली के उग्रवादी तैयार कर गृहयुद्ध के हालात पैदा करने के बाद अपनी सेनाओं से उसे पूरी तरह घेरकर हमले का माहौल बना दिया परन्तु  अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद वह स्थिति फ़िलहाल तो रुकी हुई है | लेकिन यूक्रेन की सेना और  रूस समर्थक अलगाववादियों के बीच लड़ाई जारी है | इस विवाद में अमेरिका समर्थक अनेक पश्चिमी देश उसके विरोध में खड़े हो गये हैं जिनकी कच्चे तेल और गैस सम्बन्धी जरूरतें रूस से पूरी होती हैं | इस तरह  देखा जाए तो इस झगड़े के पीछे भी तेल का खेल ही है | जिस तरह अमेरिका पश्चिम एशिया के तेल उत्पादक देशों पर शिकंजा कसते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपने मुताबिक चलाने के मंसूबे पालते हुए युद्ध के हालात बनाये रखता है वैसी ही परिस्थिति अब वह यूक्रेन के बहाने पैदा करने की फ़िराक में है | हालांकि इस संकट के लिए रूसी राष्ट्रपति पुतिन  भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो अपनी सत्ता मजबूत करने के बाद अब उसी तरह का विस्तारवाद करना चाह रहे हैं जो कभी सोवियत संघ की नीति थी जिसके अंतर्गत उसने पूर्वी यूरोप में वारसा संधि के द्वारा नाटो की टक्कर में एक ऐसा गुट बना रखा था जिसके जरिये वह अपने आर्थिक हितों को भी साधता रहा | यूक्रेन को बलपूर्वक हथियाने की पुतिन की रणनीति का मकसद दरअसल सोवियत संघ के बिखरने के बाद रूस के वर्चस्व में आई कमी की भरपाई करना है | यदि अमेरिका अभी भी अफगानिस्तान में उलझा होता तब शायद वह इस आग के पास जाने की जुर्रत न करता लेकिन अफगानिस्तान और ईरान दोनों में उसे निराशा और बदनामी मिलने से वह  रूस से बदला लेने का मौका तलाश रहा है | इसके पीछे एक कारण हाल ही में पुतिन द्वारा  चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ हुई वार्ता में ताईवान को  चीन का हिस्सा मान लेना भी है | दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध अमेरिका , जापान और आस्ट्रेलिया के साथ भारत की साझा मोर्चबंदी में भी रूस द्वारा चीन की तरफदारी ही की जा रही है | इस प्रकार जो चीन शीतयुद्ध के दौर में भी रूसी शिविर से दूर रहा अब वह भी बदलती वैश्विक परिस्थितियों में उससे जुड़ता दिख रहा है | अमेरिका ने इसीलिए रूस को उसी के निकट जाकर घेरने की बिसात बिछाई जिसमें यूक्रेन मैदान  बन गया | कुल मिलाकर बड़ी ताकतें दुनिया में शांति नहीं रहने देना चाहती | पश्चिम एशिया , अफगानिस्तान अथवा दक्षिण एशिया में तनाव बनाए रखने में सदैव इन्हीं  की भूमिका रहती है | जिस तरह से अमेरिका यूक्रेन सहित पूर्वी यूरोप के कुछ देशों को हथियार आदि दे रहा है और रूस यूक्रेन के विद्रोहियों की पीठ पर हाथ रखे है उससे पूरी कहानी समझी जा सकती है | लेकिन इस नए शीतयुद्ध से केवल यूरोप ही नहीं बल्कि भारत जैसे देश भी सीधे प्रभावित हो रहे हैं | यूक्रेन संकट की आहट मात्र से कच्चे तेल की कीमतें आसमान छूने लगीं | रूस से उसके निर्यात में कमी होने से पश्चिमी यूरोप की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ने की  आशंका से जर्मनी और फ़्रांस जैसे देश अमेरिका के विरुद्ध खड़े नजर आने लगे,  जो बड़ा बदलाव है | भारत  अपनी जरूरत का 80 फीसदी से ज्यादा कच्चा तेल आयात करता है  , इसलिए उसे इस संकट ने  झटके देना शुरू कर दिया | अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारने के फेर में भारत ने ईरान से सस्ता तेल खरीदने की व्यवस्था को स्थगित  कर रखा था | रूस भी सैन्य सामग्री की  आपूर्ति में हमारा बड़ा सहयोगी बना हुआ है जिसकी वजह से पश्चिमी ताकतें और अमेरिका के दबाव से हम काफी हद तक मुक्त हो सके | लेकिन यूक्रेन में  युद्ध हुआ तो   कोरोना संकट से निकलकर पुरानी रंगत में लौट रही भारत की अर्थव्यवस्था पर फिर ग्रहण लग जावेगा | इसके अलावा विदेश नीति के मोर्चे पर भी हमको अपनी भूमिका  का निर्धारण  बहुत  ही सावधानी  से करना होगा | यूक्रेन से नजदीकी का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि वहां हजारों भारतीय छात्र शिक्षारत हैं जिनको वापिस लौटने की सलाह दे दी गई है | रूस , चीन , अमेरिका और  जर्मनी के साथ ही यूक्रेन सहित मध्य एशिया के अनेक देश इस समय भारत के साथ व्यापार एवं अन्य  माध्यमों से जुड़े हैं |  युद्ध की स्थिति में इन सबके साथ समन्वय बनाए रखना बेहद कठिन होगा | वैश्विक शक्ति सन्तुलन  में भारत की भूमिका वर्तमान में बहुत ही महत्वपूर्ण हो चली है | कोरोना काल के बाद पूरे विश्व को भारत में वैसी ही संभावनाएं नजर आने लगी हैं जैसी बीती सदी के अंत तक चीन को लेकर महसूस की जा रही थीं | हालाँकि अभी भी ये सम्भावना है कि रूस और अमेरिका सीधे न टकराएँ लेकिन यदि ऐसा होता है तब भारत को अपने आर्थिक और रणनीतिक हित सुरक्षित रखने के लिए अभी से कार्ययोजना तैयार कर लेनी चाहिए क्योंकि मौजूदा हालात में हम रूस और अमेरिका दोनों के साथ काफी करीबी से जुड़े हुए हैं और उनमें से किसी से भी दूरी हमारे दूरगामी हितों के लिहाज से नुकसानदेह होगी | इस बारे में सबसे बड़ी बात ये है कि उदारीकरण के बाद बने  वैश्विक परिदृश्य में अब तटस्थ रहना बहुत कठिन है | और भारत भी अब उस हैसियत में है जब इस तरह के विवादों में अपनी भूमिका का प्रभावशाली तरीके से निर्वहन कर सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 19 February 2022

खालिस्तानी आतंक की आहट को अनसुना करना खतरे से खाली नहीं होगा




किसान आन्दोलन के दौरान खालिस्तान समर्थक पोस्टर और भिंडरावाले की तस्वीर वाली कमीज पहिने सिख नवयुवकों के दिखाई देने पर किसी षडयंत्र की आशंका व्यक्त की गई तब उसे आन्दोलन को बदनाम करने की साजिश बताया गया। यद्यपि बाद में अनेक ऐसी घटनाएँ धरनास्थल पर हुईं जिनसे आन्दोलन के संचालक भी अपराधबोध से ग्रसित तो हुए लेकिन तब तक आन्दोलन पर पंजाब का इतना प्रभाव हो चुका था कि गैर पंजाबी नेता जुबान खोलने की जुर्रत नहीं कर पाए। गत वर्ष गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के लाल किले पर जिस तरह की देश विरोधी गतिविधियाँ हुईं उन पर भले ही योगेन्द्र यादव ने खेद जताया हो लेकिन राकेश टिकैत ने उसके पीछे भी रास्वसंघ और भाजपा का हाथ होने की बात कहकर निंदा करने से परहेज किया। लाल किले पर एक धार्मिक ध्वज फहराए जाने के साथ ही निहंग द्वारा शस्त्र प्रदर्शन का किसान आन्दोलन से क्या सम्बन्ध था ये सवाल उस समय हर देशप्रेमी के मन में उठा। उल्लेखनीय है लाल किले में सेना की टुकड़ी भी रहती है। लेकिन सुरक्षा बलों ने सूझबूझ का परिचय दिया अन्यथा ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार की पुनरावृत्ति हो जाती जो उपद्रवी चाहते भी थे। जिन लोगों ने लाल किले की पवित्रता भंग की उन्हें सिख संगठनों ने सम्मानित भी किया। इन सबसे खालिस्तान समर्थकों का हौसला और बुलंद हुआ जिसका प्रमाण आन्दोलन स्थल पर निहंगों द्वारा की गयी हत्या के अलावा पंजाब में अनेक जगहों पर हुई हिंसक घटनाओं से मिला। ये भी उल्लेखनीय है कि उस आन्दोलन के समर्थन में कैनेडा और ब्रिटेन में खालिस्तान समर्थक सिख संगठनों ने भी भारत विरोधी नारों के साथ जुलूस निकाले। दिल्ली में धरना स्थल पर लंगर सहित अन्य व्यवस्थाओं में भी विदेशी धन की बात उठती रही। आन्दोलन तो जैसे-तैसे खत्म हो गया किन्तु उसकी आड़ में खालिस्तानी आन्दोलन के दबे पड़े बीज फिर अंकुरित हो उठे। पंजाब में कल मतदान होने वाला है। कुछ दिन पहले ही पंजाबी गायक दीप सिद्धू की सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद उसके अंतिम संस्कार के समय खालिस्तान के पक्ष में जमकर नारेबाजी की गई जिसका वीडियो प्रसारित हो रहा है। उल्लेखनीय है दीप सिद्धू लाल किले पर की गई देश विरोधी हरकत में आरोपी होने के बाद जमानत पर था। मतदान के दो-तीन दिन पहले प्रख्यात कवि डा. कुमार विश्वास ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर खालिस्तान समर्थक होने का आरोप लगाकर उन्हें सार्वजानिक बहस की जो चुनौती दी उससे भी ये लगता है कि पंजाब में खालिस्तानी गतिविधियाँ आकार लेती जा रही हैं। बीते दिनों राज्य के मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी ने कांग्रेस महामंत्री प्रियंका वाड्रा के सामने ही पंजाबियों से एक होकर उ.प्र और बिहार के भैया लोगों को बाहर निकालने का जो आह्वान किया उसने भी अलगाववादी ताकतों का मनोबल बढ़ाया है। दुर्भाग्य इस बात का है कि कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल ने श्री चन्नी के उक्त बयान पर एक शब्द तक नहीं कहा। हालाँकि अकाली दल के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल ने अवश्य मुख्यमंत्री के विरोध में टिप्पणी की है लेकिन किसान आन्दोलन के दौरान उन्होंने भी अपना पद्म पुरस्कार लौटाकर अलगाववादी भावनाओं को बल प्रदान किया था। पंजाब आकार में भले छोटा हो लकिन उसकी भौगोलिक स्थिति बेहद संवेदनशील है। पाकिस्तान से उसकी सीमा का सटा होना उस पार से आतंकवाद के आने में सहायक बन जाता है। अस्सी के दशक में खालिस्तानी आतंक का जो दौर चला उसका संचालन पाकिस्तान से होता रहा ये किसी से छिपा नहीं है। दरअसल 1971 में बांग्ला देश बन जाने के बाद पाकिस्तान के फौजी राष्ट्रपति जिया उल हक ने इस बात को महसूस किया कि भारत को सैन्य मोर्चे पर हारा पाना नामुमकिन है। अत: उन्होंने युद्ध का छद्म तरीका निकालकर आतंकवाद रूपी हथियार का इस्तेमाल करते हुए पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन खड़ा कर दिया। अपराधी किस्म के सिख युवकों को पाकिस्तान में विधिवत प्रशिक्षण देकर हिंसक घटनाओं के जरिये पंजाब को भारत से अलग कर बांगला देश का बदला लेने की रणनीति के अंतर्गत जो कुछ किया गया वह खुला इतिहास है। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के अलावा प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी और उसके भी दो वर्ष बाद सेवा निवृत्त थल सेनाध्यक्ष जनरल अरुण कुमार वैद्य की हत्या खालिस्तानी आतंक का ही नतीजा थीं। पंजाब केसरी के संपादक लाला जगत नारायण की हत्या भी केवल इसलिए की गई क्योंकि वे खालिस्तान की मांग के विरुद्ध कलम चलाते थे। बाद में राजीव गांधी के दौर में संत लोंगोवाल के साथ हुए समझौते से राजनीतिक प्रक्रिया के जरिये हालात सुधारने का प्रयास हुआ जो काफी हद तक सफल भी रहा। लेकिन इसके पीछे पंजाब के लोगों का भी कम योगदान नहीं था जिन्होंने धार्मिक भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को महत्व दिया। जब पाकिस्तान का वह दांव विफल होने लगा तब उसने अपनी कार्ययोजना का रुख कश्मीर की ओर मोड़ दिया। और इस तरह पंजाब में आतंकवाद की साँसे टूटते ही कश्मीर में उसकी शुरुवात हो गई। उसके बाद का घटनाक्रम सर्वविदित है। कश्मीर घाटी से हिन्दुओं पलायन करने के लिए मजबूर करना बहुत ही सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। पाकिस्तान ये जान चुका था कि पंजाब में सिखों के साथ रहने वाले हिंदुओं की वजह से उसके मंसूबे सफल नहीं हो सके। दोनों समुदायों के बीच ऐतिहासिक समरसता की वजह से रोटी-बेटी की रिश्ते बने हुए थे। गुरुद्वारों में हिन्दू और मंदिरों में सिखों की मौजूदगी इसका प्रमाण है। इसीलिये पाकिस्तान ने जब कश्मीर में अपनी बिसात बिछाई तब हिन्दुओं को घाटी से बाहर करवाने का दांव चला जिससे कश्मीर के मुसलमानों को अपने साथ खींच सके। वह अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब भी हो चला था लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार ने बड़ी ही चतुराई से धारा 370 खत्म करते हुए अलगाववाद की कमर तोड़ दी। उसी के बाद एक बार फिर पाकिस्तान ने पंजाब में अपना जाल बिछाने की योजना बनाई जिसे वहां के कुछ राजनेताओं की मूर्खता के साथ ही किसान आन्दोलन के कारण अनुकूल परिस्थितियाँ मिल गईं। चूंकि बीते एक-डेढ़ साल से पंजाब में चुनाव की सरगर्मी शुरू हो चुकी थी इसलिए सत्ता की चाहत में अनेक राजनेताओं ने जाने-अनजाने अलगाववादी ताकतों को सहायता देने की गलती कर डाली। कृषि कानूनों के नाम पर भाजपा और अकाली दल का गठबंधन टूटने से भी अलगवावाद के प्रवर्तकों को आसानी हुई। ऐसे में पंजाब के चुनाव परिणाम राजनीतिक मुकाबले तक सीमित न रहकर देश की अखंडता से जुड़ा मुद्दा बन गये हैं। डा. विश्वास द्वारा श्री केजरीवाल के खालिस्तान समर्थकों के साथ सम्बन्ध होने के आरोप और मुख्यमंत्री श्री चन्नी द्वारा पंजाबियों से उ.प्र और बिहार के भैयों को बाहर निकालने की अपील के अलावा दीप सिद्धू की अंत्येष्टि में खालिस्तान समर्थक नारों को टुकड़ों में देखने के बजाय समग्र रूप से देखा जाना चाहिए क्योंकि पंजाब में अब प्रकाश सिंह बादल और कैप्टन अमरिंदर सिंह वाली पीढ़ी राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होने के कगार पर है। कांग्रेस और अकाली दल में दूसरी पंक्ति के किसी भी नेता का प्रभाव पूरे राज्य में नहीं है। भाजपा इस चुनाव में पहली बार अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रही है। वहीं आम आदमी पार्टी इसी राजनीतिक शून्य का लाभ लेने की फिराक में है। लेकिन प्रारंभ में किसान आन्दोलन के इर्द-गिर्द घूमते चुनाव के आखिऱी दौर में खालिस्तानी आतंक की आहट जिस तरह सुनाई देने लगी है उसे नजरंदाज करना बहुत बड़ी भूल होगी। चुनाव तो हो जायेंगे किन्तु पंजाब के भविष्य पर मंडरा रहे खतरे का सही समय पर आकलन करते हुए उससे बचाव का माकूल इन्तजाम न किया गया तो फिर देश को कश्मीर घाटी जैसे हालातों का सामना करने तैयार हो जाना चाहिए। दु:ख की बात ये है कि हमारे देश की राजनीति पूरी तरह सत्ता केन्द्रित होकर रह गई है जिसकी वजह से राष्ट्रीय महत्व के सवालों को अनसुलझा छोड़कर येन-केन-प्रकारेण वोटों की फसल काटने में अधिकतर पार्टियाँ और उनके नेता लगे रहते हैं। कश्मीर घाटी में दम तोड़ते आतंकवाद के बाद पाकिस्तान ने जिस तत्परता से खालिस्तानी भावनाओं को नये सिरे से पनपाया, उसका प्रतिकार राजनीतिक सोच से ऊपर उठकर करना जरूरी है। इसके पहले कि हालात नियन्त्रण से बाहर हो जाएँ, इस षडयंत्र को सख्ती से कुचलना होगा क्योंकि पिछले खालिस्तानी आन्दोलन की जो कीमत देश को चुकाना पड़ी उसकी स्मृतियाँ अभी भी दिल दहला देती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 18 February 2022

मुफ्त बिजली ने विद्युत मंडलों में अंधेरा कर दिया : अमरिन्दर ने क्या गलत कहा था



चुनाव के समय अनेक ऐसी बातें उजागर होती हैं जिन पर अन्यथा पर्दा पड़ा रहता है | इसका ताजा उदाहरण कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पेश किया | पंजाब में एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन  अमरिंदर सिंह को हटाये जाने का कारण ये बताया कि वे मुफ्त बिजली नहीं देना चाहते थे | हालाँकि कुछ समय पूर्व  उन्होंने इसका कारण भाजपा से उनकी मिली भगत बताया था | गत दिवस श्री गांधी ने पंजाब में हुए सत्ता परिवर्तन का जो कारण बताया उसे अब तक क्यों छिपाकर रखा गया ये बड़ा सवाल है | उनके अनुसार कैप्टन ने ये कहते हुए मुफ्त बिजली देने से मना  किया था कि उनके बिजली कम्पनियों के साथ अनुबंध हैं | पंजाब में दो दिन बाद मतदान होने वाला है | इस बार मुकाबला बहुकोणीय  है | अमरिन्दर ने जहां अपनी नई  पार्टी बनाकर भाजपा से गठजोड़ कर लिया वहीं अकाली दल  बसपा के साथ मिलकर मैदान में है | आम आदमी पार्टी सत्ता की प्रमुख दावेदार बनकर कांग्रेस के सामने है तो किसान आन्दोलन से जुड़े कुछ संगठनों ने भी अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं | कांग्रेस ने पार्टी  की अंतर्कलह खत्म करने का जो प्रयास किया वह उल्टा गले पड़ गया क्योंकि जिस तरह श्री सिद्धू ने कैप्टन के लिए मुसीबतें पैदा कीं वैसी ही स्थितियां उन्होंने नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ बना रखी हैं | ऐसे में कांग्रेस को कुछ सूझ नहीं रहा | उसके अनेक वरिष्ठ प्रादेशिक नेता पार्टी आलाकमान से नाराज हैं | सांसद मनीष तिवारी तो खुलकर बयानबाजी भी कर रहे हैं | हाल ही में पूर्व केन्द्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने पार्टी छोड़ते हुए कैप्टन को हटाये जाने के तरीके पर भी  सवाल उठाये | ऐसा लगता है उनके आरोपों की सफाई देने हेतु श्री गांधी ने उसका  वह कारण उद्घाटित किया जिसे वे अब तक न जाने किस कारण से छिपाए रहे |  लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो वही बात पार्टी शासित अन्य राज्यों में कितनी   लागू है ये बड़ा सवाल है | गत दिवस उनके  बयान के बाद ही अनेक लोगों ने राजस्थान में महंगी बिजली पर कटाक्ष करते हुए श्री गांधी से सवाल किया कि वे अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद से कब हटायेंगे ? इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि  म.प्र में स्व. अर्जुन सिंह ने झुग्गी – झोपड़ियों में रहने वालों को मुफ्त एक बत्ती कनेक्शन देकर इसकी शुरुवात की थी | उन दिनों म.प्र का विद्युत मंडल देश में सबसे समृद्ध माना जाता था | उस निर्णय के साथ ही  स्व. सिंह तो गरीबों के मसीहा बन बैठे लेकिन धीरे – धीरे म.प्र का विद्युत मंडल गरीब होता गया  | अर्जुन सिंह जी ने गरीबों को मुफ्त जमीनों का पट्टा देने की योजना भी चलाई जिसके कारण खाली सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे और अतिक्रमण की बाढ़ आती गई जिसे  वोट बैंक के फेर में  वैध स्वरूप प्रदान करने की भेड़ चाल पूरे देश में चल पड़ी | देखा – सीखी उस समय  अमरिन्दर सिंह ने भी पंजाब में किसानों को मुफ्त बिजली का खेल शुरू किया जिससे उन्हें तो सत्ता मिल गई किन्तु धीरे – धीरे समृद्धि का प्रतीक पंजाब भी आर्थिक दृष्टि से विपन्न होता गया | मौजूदा दौर में मुफ्त बिजली नामक अस्त्र का  प्रयोग कर  आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में जिस तरह सत्ता हासिल की तो अन्य पार्टियों को भी उसका चस्का लग गया | पंजाब और गोवा में इसी फार्मूले को अपनाकर अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी को सत्ता की दौड़ में ला खड़ा किया | जिसकी नकल करते हुए उ.प्र में सपा ने 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वायदा कर दिया | दूसरी पार्टियाँ भी घुमा – फिराकर मुफ्त या सस्ती बिजली देने का लालच मतदाताओं को दे रही हैं | इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि मुफ्त बिजली बांटने वाली सरकारों को भी कालान्तर में जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया | म.प्र में तो कांग्रेस बीते लम्बे समय से विपक्ष में बैठी है | स्व. अर्जुन सिंह के मुफ्त बिजली के कदम ने हालात यहाँ तक बिगाड़ दिए थे कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी बने दिग्विजय सिंह की सत्ता में म.प्र का बिजली  संकट अपने चरम पर आ पहुंचा और वही उनकी सत्ता जाने का बड़ा कारण बना | ऐसे में पंजाब में मुफ्त बिजली देने से अमरिन्दर ने इंकार किया तब उनके निर्णय को बजाय राजनीति के आर्थिक कसौटी पर भी  परखा जाना चाहिए था | बिजली के मामले में उ.प्र कभी बेहद बदनाम था | शहरों और गाँवों में जनरेटरों की कानफोडू आवाज और धुंआ हलाकान करते थे | लेकिन वहां स्थिति में जबरदस्त सुधार हुआ है जिसे पक्ष – विपक्ष सभी स्वीकार करते हैं | लेकिन मुफ्त बिजली के वायदे यदि प्रदेश को अँधेरे युग में लौटा दें तो आश्चर्य नहीं  होगा क्योंकि बिजली मुफ्त भले ही बाँट दी जाए लेकिन उसका उत्पादन मुफ्त नहीं होता | आजकल निजी क्षेत्र से भी राज्य सरकारें बिजली खरीदती हैं जिसके लिए दरों संबंधी दीर्घकालीन अनुबन्ध किये जाते हैं | ऐसे में पैसा देकर खरीदी जाने वाली चीज मुफ्त या सस्ते दाम पर बाँटने  या बेचने से जो आर्थिक हानि होती है उसकी भरपाई राज्य रिज्रर्व बैंक से कर्ज लेकर करते हैं और उसका दंड अन्य उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ता है | राहुल गांधी विदेश में पढ़े और वहां काम भी किया  है | अभी  भी समय – समय पर विदेश यात्रा करते रहते हैं | इसलिये  ये मानना गलत न होगा कि उनको देश और दुनिया के बारे में समुचित जानकारी है | मौजूदा परिदृश्य में गरीबों को मुफ्त खैरात बांटकर उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाना भले ही चुनाव जीतने में सहायक हो जाता है किन्तु दरअसल वह गरीब विरोधी कदम ही होता है क्योंकि मुफ्त बिजली , पानी या अनाज देने के कारण सरकारी खजाने को होने वाले  नुकसान की भरपाई  करों के रूप में की जाती है | जिसका अंतिम परिणाम महंगाई के रूप में सामने आये बिना नहीं रहता |  जिन लोगों को मुफ्त बिजली मिलती है वे भी दैनिक उपयोग की कोई चीज खरीदते हैं तब महंगाई उन्हें भी कष्ट देती है | बेहतर होगा राहुल जैसे युवा पीढी के नेता राजनीति को ढर्रे से निकालकर अपने सुशिक्षित होने का परिचय दें | अमरिन्दर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाया  जाना कांग्रेस पार्टी का आन्तरिक मसला था | लेकिन जब श्री सिद्धू उनके विरुद्ध अभियान चला रहे थे तब मुफ्त बिजली का मुद्दा किसी भी रूप में सामने नहीं आया था | पूर्व मुख्यमंत्री अनुभवी राजनेता हैं जो मुफ्त बिजली के कारण अपने राज्य की आर्थिक बदहाली का अनुभव  कर चुके थे | इसीलिए शायद उनके द्वारा उसके लिए मना किया जाता रहा होगा | बेहतर तो ये होता  इसके लिए कैप्टन की तारीफ़ की जाती  | आने वाले समय में बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका और बढ़ने वाली है | राज्य सरकारें अनुबंधित दरों पर उनसे जो बिजली खरीदती हैं वह बेहद सस्ती होती है किन्तु उसके वितरण पर  होने वाला खर्च जोड़ने से उसके दाम बढ़ते हैं | बावजूद उसके यदि मुफ्तखोरी न हो तो वह आज के आधे दाम पर जनता , किसानों और उद्योगों को दी जा सकती है | लेकिन दिन -  रात वोटों के  मायाजाल में फंसे राजनेता आर्थिक विषयों में जिस तरह  राजनीति की घुसपैठ करवाते हैं वही अंततः महंगाई का कारण बनती है | यदि आने वाले समय में भी इसी तरह की मुफ्तखोरी को वे  बढ़ावा देते रहे तब पूरी व्यवस्था की वही हालत  होगी जिससे आज म.प्र विद्युत् मंडल सहित देश के  अन्य सरकारी बिजली संस्थान गुजर रहे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 17 February 2022

बजाय मुस्कुराते रहने के प्रियंका को फटकारना चाहिए था चन्नी को



पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने गत दिवस कांग्रेस महामंत्री प्रियंका वाड्रा की मौजूदगी में चुनावी सभा में ये कहकर बवाल मचा दिया कि प्रियंका पंजाब की बहू हैं , सारे पंजाबी एक हो जाओ | हम उ.प्र , बिहार और दिल्ली के भैया , जो पंजाब में राज करना चाहते हैं  , उन्हें घुसने नहीं देंगे | इस सभा में प्रियंका ने खुद को पंजाब की बहू बताकर उपस्थित जनसमूह से भावनात्मक लगाव स्थापित करने की जो कोशिश  की उससे उत्साहित श्री चन्नी ने  उक्त बातें कह डालीं जिन्हें सुनकर श्रीमती वाड्रा मुस्कुराती हुई दिखीं | उक्त सभा का वीडियो संचार माध्यमों से प्रसारित होते ही राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल मच गई | भाजपा , सपा , बसपा और  आम आदमी पार्टी सभी ने कांग्रेस पर हमला कर दिया | प्रियंका की चापलूसी करने के फेर में चरणजीत ये भूल गये कि मूलतः वे  भी उ.प्र की ही हैं | उनका ससुराल मुरादाबाद में है और गांधी परिवार  की समूची राजनीति भी उसी प्रदेश में होती आई है | लेकिन इस बेहद बचकानी  और आपत्तिजनक टिप्पणी   को सुनकर वे हंसती रहीं जो  और भी चौंकाने वाला रहा | एक राष्ट्रीय पार्टी की महासचिव होने के नाते उन्हें इस तरह की बात कहने वाले को तत्काल रोकना चाहिये था | पंजाब के चुनाव में इस बार कांग्रेस काफी मुश्किल में है | अमरिंदर सिंह के बाहर होने के बाद से अनेक नेता पार्टी छोड़ चुके हैं | जिन नवजोत सिंह सिद्धू के कारण पार्टी  दोफाड़ हुई वे भी रोज कोई न कोई मुसीबत पैदा करते रहते हैं | ऐसे में  श्री  चन्नी से अपेक्षा है कि वे चुनाव के दौरान परिपक्वता का परिचय देते हुए पार्टी हाईकमान ने उन पर जो भरोसा जताया उसे सही साबित करने का प्रयास करें | लेकिन अभी तक की उनकी गतिविधियाँ ये दर्शाती हैं कि नवजोत  से छुटकारा पाने के फेर में गांधी परिवार ने उन पर जो दांव लगाया वह आसमान से टपके , खजूर पर अटके वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है | पंजाब के मुख्यमंत्री राजनीति में नये – नवेले  नहीं हैं | ऐसे में उनको अच्छी तरह पता होगा कि इस राज्य के  खेतों और कारखानों में  जो हजारों श्रमिक काम करते हैं उनमें से अधिकतर उ.प्र और  बिहार के  ही होते हैं | जिन दिनों पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद अपने चरम पर था तब ये श्रमिक अपनी जान खतरे में डालकर भी पंजाब में डटे रहे जिनका  भैया कहकर श्री चन्नी ने उपहास किया | रही बात पंजाब पर राज करने की तो इन प्रदेशों का कोई भी नेता पंजाब में राज करने की मानसिकता नहीं रखता | आम आदमी पार्टी के नेता दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नाम जरूर कभी चला करता था किन्तु उन्होंने भी भगवंत मान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर उस अटकल को विराम दे दिया | कांग्रेस के अलावा पंजाब में मुख्यतः भाजपा , बसपा और आप ही मैदान में हैं | अमरिंदर की क्षेत्रीय पार्टी तो अभी आकार भी नहीं ले सकी और किसान संगठनों के जो प्रत्याशी मैदान में हैं वे सब स्थानीय हैं | ऐसे में बाहर से आकर पंजाब पर राज करने जैसी टिप्पणी का अर्थ और आशय समझ से परे है | ऐसा कहते समय श्री चन्नी भूल गए कि पंजाब इस देश का अभिन्न हिस्सा है और जिन पंजाबियों से  एक होकर भैया ( बाहरी ) लोगों को घुसने न देने का आह्वान उन्होंने किया वे केवल पंजाब में सीमित न होकर पूरे देश में फैले हुए हैं और अपने मस्त - मौला स्वभाव के कारण  उस जगह के सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक वातावरण में दूध में चीनी की तरह घुल - मिल गये हैं | दिल्ली तो पंजाब का ही हिस्सा लगता है  | लेकिन चाहे उ.प्र हो या बिहार सभी जगह पंजाबी भाषी हिन्दू ही नहीं बल्कि सिख समुदाय भी वहां  बेहद लोकप्रिय है | 1984 में हुई इंदिरा जी की हत्या के बाद के कुछ दिनों को छोड़ दें तो पंजाब में खालिस्तानी आतंक के दौर में भी देश के किसी भी हिस्से में सिखों  के विरुद्ध किसी भी प्रकार की भावना पैदा नहीं हुई | ऐसे में श्री चन्नी द्वारा पंजाबियो  को एक होकर बाहरी लोगों को रोकने जैसी बात कहना  दिमागी दिवालियेपन का सूचक तो है ही परन्तु इसका सबसे खतरनाक पहलू  ये है कि ऐसा कहकर उन्होंने देश भर में बसे पंजाबियों विशेष रूप से सिखों के लिए परेशानी पैदा कर दी है | उससे भी बड़ी हैरानी की बात ये है कि जिस गांधी परिवार ने पंजाब में  अलगाववादी आंदोलन  की कीमत इंदिरा जी की हत्या के तौर पर चुकाई उनकी  पौत्री के सामने उन्हीं की पार्टी का मुख्यमंत्री दूसरे राज्यों के लोगों को पंजाब में घुसने नहीं देने की बात कहते हुए उन पर तंज कसता रहा किन्त्तु वे उस पर खुश होती रहीं क्योंकि उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े जा रहे थे | कांग्रेस इस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है | अपने  नेताओं की कुर्बानियों को याद दिलाना वह कभी वह नहीं भूलती | लेकिन दुर्भाग्य का विषय है कि उसके नेता  उन गलतियों को भूल जाते हैं जिनके कारण कांग्रेस के साथ ही देश का भी बहुत बड़ा नुकसान हो चुका है | पंजाब में आतंकवाद क्यों पनपा ये किसी से छिपा नहीं है | उसी के बाद कश्मीर घाटी में उसकी विषबेल फैलने की शुरुआत हुई | याद रखने वाली बात है कि इतिहास से सबक नहीं लेने वाली कौम का भविष्य भी खतरे में रहता है  | इसलिए कांग्रेस को चाहिए वह श्री चन्नी के संदर्भित बयान की निंदा करते हुए उन्हें जुबान पर लगाम लगाने की  हिदायत दे क्योंकि पंजाब में किसकी सरकार बनेगी उससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये कि इस सीमावर्ती राज्य में शांति और सद्भाव बना रहे | किसान आन्दोलन में जब खालिस्तानी घुसपैठ की बात उठी तब  उसे दुष्प्रचार कहकर ख़ारिज कर दिया गया किन्तु उसके बाद से पंजाब में अनेक घटनाएँ ऐसी हुईं जो  आतंकवादी दौर की वापिसी का संकेत कही जा सकती हैं | चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने की हसरत हर राजनीतिक दल में स्वाभाविक रूप से होती है और कांग्रेस अथवा श्री  चन्नी कोई अपवाद नहीं हैं | लेकिन देश की एकता और अखंडता की कीमत पर सत्ता हासिल करना किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं हो सकता | कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भी श्री चन्नी की उक्त टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया देनी  चाहिये जो बीते दिनों संसद में देश के संघीय ढाँचे को खतरे में बचा चुके हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 16 February 2022

पेट्रोल - डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ने की आशंका दूर करे सरकार



पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पेट्रोल , डीजल और  रसोई गैस की कीमतें भाजपा के विरोध में बड़ा मुद्दा है | जिन हितग्राहियों को मोदी सरकार ने मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन दिए उनकी भी ये शिकायत है कि वे 900 रु. का सिलेंडर खरीदने में असमर्थ हैं |  महंगाई की ऊंची उड़ान के लिये भी  पेट्रोल और डीजल की कीमतों को ही जिम्मेदार माना जा  रहा है | मौजूदा केंद्र सरकार जब 2014 में पहली मर्तबा सत्ता में आई थी तब इन चीजों के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में घटने का सिलसिला चल रहा था | फिर भी  पिछले घाटे की भरपाई का हवाला देते हुए दाम कम नहीं किये गये |  कुछ साल बाद जब पेट्रोलियम कम्पनियों  का खजाना लबालब होने लगा तब भी आम उपभोक्ता को राहत देने से सरकार पीछे हटती रही | यद्यपि मौजूदा हालात में  पेट्रोल , डीजल और रसोई गैस की कीमतें अपने  सर्वकालीन उच्च स्तर पर आ चुकी हैं जिसका कारण वैश्विक स्तर पर आई उछाल को बताया जा रहा है | लेकिन सरकार ये स्वीकार करने से बचती है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर  केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाये गये कर भी  कीमतों को आसमान पर पहुंचाने का कारण बने हुए हैं  | गत वर्ष दीपावली पर  प्रधानमन्त्री ने अचानक करों में कमी का ऐलान कर लोगों को खुश होने का मौका दे दिया | उसके बाद राज्यों ने भी कीमतें घटाने में सहयोग दिया | एक झटके में 10 से 12 की कमी आने से लोगों ने बड़ी राहत महसूस की | उस समय ये उम्मीद भी जताई गई कि प्रधानमन्त्री का वह कदम शायद पेट्रोल – डीजल को भी जीएसटी के अंतर्गत लाने की शुरुआत है | लेकिन उसके बाद हुईं जीएसटी काउंसिल की अनेक बैठको में इस आशय का कोई निर्णय नहीं हुआ | हालाँकि  दीपावली पर कीमतों में कमी किये जाने के बाद मूल्य स्थिर बने हुए है परन्तु  अंतर्राष्ट्रीय बाजार में वृद्धि  के बावजूद भारत में मूल्यवृद्धि से जो परहेज किया जा रहा है उसके पीछे विशुद्ध चुनावी रणनीति ही है | अन्यथा बीते 103 दिनों से  दाम अपरिवर्तित रखने का और कोई कारण नजर नहीं आता  | इसी बीच गत दिवस अचानक एक समाचार ने लोगों का ध्यान खींचा कि  चुनावी दौर खत्म होते ही पेट्रोल – डीजल एक बार फिर महंगे किये जायेंगे और वृद्धि 10 से 15 रु. प्रति लिटर हो सकती है | यदि ये सच है तो वह  दीपावली पर दी गयी राहत को ब्याज सहित वसूलने जैसा होगा | यद्यपि इस बारे में केंद्र सरकार या किसी पेट्रोलियम कम्पनी  ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन चुनाव वाले राज्यों में भी ये प्रचार जमकर हो रहा है कि  मतदान खत्म होने के बाद न सिर्फ पेट्रोल – डीजल महंगे किये जा सकते हैं अपितु गरीबों को बांटा जाने वाला मुफ्त राशन भी बंद कर दिया जावेगा | क्या होगा , क्या नहीं ये फ़िलहाल तो कोई नहीं बता सकता | लेकिन दूसरी तरफ ये भी जरूरी है कि इस बारे में अफवाहों को फैलने से रोका जावे | उल्लेखनीय है पेट्रोल – डीजल और रसोई गैस की कीमतें स्थिर रखने से भी जनता की नाराजगी कम नहीं हुई है | पांच राज्यों में यदि भाजपा का प्रदर्शन उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहा तो उसके लिए  पेट्रोल – डीजल और  रसोई गैस के ऊंचे दाम बड़ा कारण कहलायेंगे | कोरोना काल में तो सरकार के पास संसाधनों की कमी के चलते  पेट्रोलियम पदर्थों को महंगा रखने का कारण भी था किन्तु बीते कुछ महीनों से अर्थव्यवस्था पुरानी रफ्तार पर आती जा रही है | जीएसटी सहित अन्य प्रत्यक्ष करों का संग्रह भी लक्ष्य को हासिल कर रहा है | अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष की समाप्ति पर विकास दर का आँकड़ा 8 फीसदी के ऊपर ही जाएगा | ऐसे में जबकि बुरे समय में जनता ने तकलीफ सहते हुए भी सरकार का साथ दिया तब उसे भी ये सोचना चाहिए कि वह उस उपकार का बदला कैसे चुकाए ? वैसे ये बात  अच्छी है कि केंद्र सरकार पेट्रोलियम के विकल्पों का उपयोग बढ़ाकर  कच्चे तेल के आयात को कम करने के काम में जुटी हुई है | इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहित करने के अलावा पेट्रोल में एथनाल के मिश्रण से उसके दाम कम करने पर भी काम चल रहा है | लेकिन इसके पूरी तरह से लागू होने में अभी समय लगेगा | तब तक उपभोक्ताओं को भारी – भरकम कीमतों से   राहत दिलाने के  लिए केंद्र सरकार को आगे आना चाहिए | जिस तरह प्रधानमन्त्री ने दीपावली के मौके पर  जनता को राहत का सन्देश दिया वैसी ही मेहरबानी होली के समय की जानी अपेक्षित है | बेहतर तो यही होगा कि पेट्रोल - डीजल और रसोई गैस को जीएसटी के अंतर्गत लाकर उनके कीमतों को लेकर बना हुआ रहस्य खत्म कर दिया जाये | अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों के अनुसार घरेलू बाजार में घट – बढ़ होती रहेगी किन्तु जीएसटी के कारण  सरकारी मुनाफाखोरी पर तो लगाम लग ही सकेगी | रही बात राज्यों को मिलने वाले राजस्व में कमी की तो इस बारे में अर्थशास्त्र का सीधा – सरल नियम ये है कि उपभोक्ता को होने वाली बचत किसी न किसी रूप में बाजार में आती ही है जिससे सरकार को कर मिल जाता है | महंगाई को विकास के साथ जोड़कर भी देखा जाता है परन्तु हमारे देश में अधिक कराधान महंगाई का सबसे बड़ा कारण है | मोदी सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में अनेक सुधार किये  है लेकिन अभी भी कर ढांचे में वह ऐसा कुछ  नहीं  कर सकी जिससे लगता वह जनता के कन्धों का बोझ कम करने के प्रति ईमानदार है | उसे अपने दिमाग से ये अवधारणा निकालनी होगी कि पेट्रोल –  डीजल और रसोई गैस विलासिता की वस्तुएं हैं | जिस तरह मोबाइल फोन अब आम आदमी की जरूरत बन गया है उसी तरह पेट्रोल – डीजल और रसोई गैस भी उसकी दैनिक आवश्यकताओं में शामिल है | ऐसे में केंद्र  सरकार को चाहिए वह कीमतों में अनाप – शनाप वृद्धि की आशंकाओं को दूर करने के साथ ही इस बात का आश्वासन दे कि वाकई वे अच्छे दिन आने  वाले हैं जिनका आश्वासन 2014 में दिया गया था।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 15 February 2022

80 फीसदी मतदान करने वाले गोवा के मतदाता अभिनंदन के पात्र हैं



 जिन पांच   राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं  उनमें सबसे अधिक चर्चा उ.प्र की  है | उसके बाद क्रमशः पंजाब , उत्तराखंड , गोवा और मणिपुर आते हैं | हालाँकि इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं  कहा जायेगा  क्योंकि उ.प्र भारतीय  राजनीति को सबसे जयादा प्रभावित करने वाला राज्यं है | सबसे बड़ी  आबादी के कारण वहां विधानसभा की 403 सीटें हैं जो बाकी चार राज्यों की सीटें  मिलाने के बाद भी ज्यादा हैं | पंजाब की चर्चा इस बार किसान आन्दोलन के अलावा कांग्रेस में हुई टूटन के कारण ज्यादा हुई जबकि बाकी तीन राज्यों में उत्तराखंड पर भी चूंकि उ.प्र की छाप अभी भी जारी है और उसके मैदानी इलाके किसान आन्दोलन से  प्रभावित रहे इसलिए वहां  की राजनीति भी खबरों  में रहती है | मणिपुर पूर्वोत्तर के कारण  मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति से दूर होने से समाचार माध्यमों को उतना आकर्षित नहीं करता | इन सबसे अलग गोवा वह राज्य है जो अपने नैसर्गिक सौंदर्य और मौज - मस्ती वाली पश्चिमी संस्कृति के कारण पर्यटकों के स्वर्ग के रूप में जाना जाता है | देशी ही नहीं अपितु विदेशी पर्यटक भी यहाँ बड़ी संख्या में आते हैं | जिनके कारण इस छोटे से तटवर्ती राज्य की अर्थव्यवस्था को बीते कुछ दशकों में काफी बल मिला | महज चालीस विधानसभा सीटों वाले इस राज्य का चुनाव इस बार इसलिए कुछ ज्यादा चर्चा में आ गया क्योंकि आम आदमी पार्टी के अलावा तृणमूल कांग्रेस पार्टी भी वहां मैदान में है | इस प्रकार कांग्रेस और भाजपा के अलावा दिल्ली और बंगाल से आई इन दो पार्टियों ने चुनावी मुकाबले को बहुकोणीय बना दिया | बावजूद इसके राजनीति में रूचि रखने वाले विश्लेषकों और आम जनता के बीच  उ.प्र ही सुर्ख़ियों में बना हुआ  है | इस राज्य के आम नागरिक भी सियासत के बारे में खुलकर बोलते – बतियाते हैं | शहर में रहने वाले ही नहीं अपितु ग्रामीण इलाकों में भी राजनीति यहाँ आम चर्चा का सबसे प्रमुख विषय होता है परन्तु विधानसभा चुनाव के दो चरणों के बाद मतदान के जो आँकड़े सामने आये उन्हें देखकर हैरानी हुई | इस बार उ.प्र में किसान आन्दोलन के कारण विधानसभा चुनाव की सरगर्मी चरम पर है | प्रधानमन्त्री खुद इस राज्य से सांसद हैं जिसके कारण  राष्ट्रीय राजनीति में उसकी परम्परागत वजनदारी बनी हुई है | लेकिन इतना सब होने के बावजूद दो चरणों में हुआ मतदान 2017 के चुनाव से भी या तो कम या फिर उसी के करीब है | मुस्लिम बहुल कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में यद्यपि थोड़ी बढ़ोतरी हुई किन्तु औसतन मत प्रतिशत में गिरावट या ठहराव देखा  गया जो इस बात का प्रमाण है कि राजनीतिक दृष्टि से जागरूक समझे जाने वाले इस राज्य के 35 से 40 फीसदी मतदाता निर्णय प्रकिया से दूर  रहे  | कमोबेश यही स्थिति उत्तराखंड में भी देखने मिली जहां पिछले चुनाव की तुलना में कम मतदान हुआ या फिर उसमें मामूली वृद्धि देखी गई | हालांकि  बीते पांच साल में सूचना तंत्र का जबरदस्त विस्तार हुआ है ,  बावजूद इसके यदि मतदान के  प्रति एक बड़ा वर्ग उदासीन है तो ये राजनीतिक दलों के लिए भी विचारणीय हैं  | लेकिन दूसरी तरफ गोवा में कल एक साथ सभी 40 सीटों के लिए हुए चुनाव में लगभग 80 फीसदी मतदाताओं ने लोकतंत्र के इस अनुष्ठान में अपनी सहभागिता दी | गोवा में साक्षरता केरल जैसी नहीं है | वहां भी बड़ी आबादी  सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े लोगों की है | राजनीतिक अस्थिरता और  भ्रष्टाचार आदि को लेकर भी गोवा में बाकी राज्यों जैसा ही माहौल है | दलबदल की परिपाटी भी चली आ रही है | इस चुनाव के पहले भी बड़ी संख्या में नेताओं ने पार्टी बदलने का काम किया | लेकिन मतदान का प्रतिशत  देखने के बाद ये कहना गलत न होगा कि वहां के मतदताओं ने जागरूकता के मामले में देश के सबसे बड़े और राजनीतिक तौर पर सर्वाधिक  महत्वपूर्ण और ताकतवर राज्य को पीछे छोड़ते हुए ये  साबित किया कि गोवा में केवल मौज - मस्ती नहीं होती , अपितु इस राज्य के लोग अपने भविष्य के प्रति चिंता और चिन्तन दोनों करते हैं | प्रजातंत्र में जनता को अनेकानेक अधिकार दिए जाते हैं किन्तु मताधिकार उन सबका मूल है | यही वह  अधिकार हैं जिसके जरिये आम जनता अप्रत्यक्ष रूप से ही सही किन्तु शासन तंत्र पर अपना नियन्त्रण रख सकती है और जिसके कारण संसद और विधानसभा में बैठने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों को  जनता के कल्याण की फ़िक्र रहती है | हमारे देश के पिछड़े राज्यों में उ.प्र अग्रणी है | इसीलिए यहाँ से सबसे ज्यादा पलायन होता रहा है | देश के हर हिस्से में यहाँ के श्रमिकों की।मौजूदगी इसका प्रमाण है | अब तक चार को छोड़कर शेष सभी प्रधानमन्त्री इसी राज्य से बने | लेकिन इसके बावजूद यदि उ.प्र आज भी विकास की दौड़ में अव्वल न आ सका तो उसका सबसे बड़ा कारण यही लगता है कि पूरे पांच साल तो भरपूर  राजनीतिक चर्चा यहाँ के लोग करते हैं किन्तु जब चुनाव आते हैं तब मतदान करने के प्रति वैसा उत्साह नहीं दिखाते जिसकी जरूरत होती है |  उ.प्र में अभी कई चरणों का मतदान बाकी है | यदि वहां के मतदाता गोवा से प्रेरणा लेकर अपने मताधिकार का उपयोग करने में अपेक्षित उत्साह दिखाएँ तो उससे लोकतंत्र के प्रति उनकी सम्वेदनशीलता उजागर होगी वरना ये माना जायेगा कि वे बहस तो खूब करते हैं लेकिन जब  राय देने का अवसर  आता है तब खिसक लेते हैं | कम मतदान से परिणाम का आकलन करने वाले अपनी – अपनी तरह से विश्लेषण में जुटे हैं | कुछ का कहना है कि कम मतदान यथास्थिति बने  रहने का  संकेत है वहीं  कुछ मानते हैं सत्ता समर्थक मतदाता नाराजगी वश घर बैठे रहे जबकि परिवर्तन के इच्छुकों ने जमकर मतदान किया |  कौन सही है ये तो अंतिम परिणाम से ही स्पष्ट होगा लेकिन आगामी चरणों में भी  मतदान के आंकड़े ऐसे ही रहे तब ये मानना पड़ेगा कि उ.प्र के राजनीतिक दल और उनके स्वनामधन्य नेता जनता के एक बड़े वर्ग को उत्साहित करने में नाकामयाब साबित हुए हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 14 February 2022

बुआ-भतीजे के विवाद से एक और पारिवारिक दल में बिखराव के संकेत




ऐसा लगता है क्षेत्रीय दल और टूटन समानार्थी शब्द बन गये हैं। आजादी के बाद कांग्रेस से निकले अनेक नेताओं ने अपनी पार्टियाँ बनाईं।   डा. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी, जैसे नेताओं ने समाजवादी आन्दोलन को मुख्यधारा की राजनीति बनाने की भरपूर कोशिश की।  डा. लोहिया ने ही आगे चलकर  देश को गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया जिसके परिणामस्वरूप 1967 और उसके बाद अनेक  राज्यों में संविद सरकारें बनीं जिनमें परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दल भी शामिल हुए। यद्यपि उनमें से अधिकतर कांग्रेस से टूटकर ही बने थे किन्तु दक्षिणपंथी जनसंघ और वामपंथी साम्यवादी भी उन सरकारों के हिस्से बने। हालाँकि वह प्रयोग लंबे समय तक न चल सका क्योंकि नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं के कारण वे सरकारें जैसे आईं, वैसे ही चली भी गईं तथा कांग्रेस से बगावत करने वाले अनेक नेता घर लौट गये। लेकिन उस प्रयोग से क्षेत्रीय दलों का दौर जरूर प्रारंभ हुआ जिसने देश में कांग्रेस के एकाधिकार को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के पीछे भी गैर कांग्रेसवाद के नारे की महती भूमिका रही। जिसका प्रमाण जनता पार्टी थी जिसमें तमाम वे दल शामिल हुए जो संविद सरकार में साथ-साथ काम करने के बाद अलग हो चले थे। लेकिन इस कारण जो क्षेत्रीय नेता उभरे उन्होंने राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय अपने राज्य की भाषा और जातीय समीकरणों को वोटों की राजनीति की तरफ मोड़कर नए-नए दल बनाते हुए क्षेत्रीय अस्मिता को राष्ट्रीय राजनीति के समानांतर खड़ा कर दिया। चौधरी चरण सिंह के अलावा बीजू पटनायक, अन्ना दोरई, कर्पूरी ठाकुर और बंगाल में वामपंथी दलों ने क्षेत्रीय पहिचान के बलबूते दिल्ली के वर्चस्व को चुनौती देना शुरू किया जो बड़े राजनीतिक बदलाव का कारण तो बना परंतु उसके कारण राष्ट्रीय राजनीति पर क्षेत्रीय मुद्दे हावी होने लगे। धीरे-धीरे वे क्षेत्रीय दल पहले कुछ नेताओं के गुट और फिर किसी एक परिवार के शिकंजे में आ गये। सबसे अधिक बिखराव हुआ लोहिया जी के अनुयायियों का जो अपने राजनीतिक गुरु के जाति तोड़ो नारे को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए जातियों के समूह एकत्र कर सत्ता की सीढ़ियों पर चढऩे का कारनामा दिखाने लगे। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले अनेक राजनीतिक नेताओं ने अपनी पार्टियां बनाईं तो नीतिगत मतभेदों के नाम पर लेकिन जल्द ही वे भी पारिवारिक संपत्ति में तब्दील हो गईं। पूरे देश पर नजर डालें तो तमिलनाडु में द्रमुक आन्दोलन की दोनों पार्टियाँ परिवार रूपी कुनबे में बदल गईं। आंध्र में तेलुगुदेशम का भी वही हुआ। वर्तमान में आंध्र और तेलंगाना में जो क्षेत्रीय पार्टियाँ शासन में हैं वे भी पारिवारिक दायरे में सीमित हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और रांकापा दोनों पर परिवार का कब्ज़ा है। इसी तरह दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर परिवार न सही लेकिन एक व्यक्ति का आधिपत्य है। पंजाब में अकाली दल, हरियाणा में इनेलो, बिहार में राजद, उ.प्र में सपा, बसपा और रालोद सभी परिवार के शिकंजे में हैं। कुछ छोटे जाति आधारित दल भी हैं जो पूरी तरह परिवार आधारित हैं। यही वजह है कि जब भी उनकी अंतर्कलह सामने आती है तो उसके पीछे का कारण पारिवारिक विरासत और उत्तराधिकार ही होता है। उ.प्र में सपा के भीतर का झगड़ा बीते पांच साल से लगातार चला आ रहा है। जिसमें पहले अखिलेश का चाचा शिवपाल से विवाद हुआ और हाल ही उनके सौतेले भाई की पत्नी भाजपा में आ गईं। अपना दल नामक छोटे से दल में भी माँ कृष्णा और बेटी अनुप्रिया के बीच मतभेद में पार्टी दो फाड़ हो चुकी है वहीं बिहार में लालू के दोनों बेटे एक दूसरे के विरुद्ध ताल ठोंकते घूम रहे हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार की बेटी सुप्रिया और भतीजे अजीत में रस्साकशी चला करती है। द्रमुक में स्टालिन और उनके बड़े भाई अलागिरी की राहें अलग हो चुकी हैं। अब ताजा विवाद सामने आया है तृणमूल कांग्रेस का जो वैसे तो ममता बैनर्जी और उनके राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर की बीच बताया जा रहा है परन्तु सच्चाई ये है कि सुश्री बैनर्जी की अपने सांसद भतीजे अभिषेक बैनर्जी से अनबन हो गई है। विवाद नगर निगम के चुनाव हेतु प्रत्याशी चयन से शुरू होकर एक व्यक्ति एक पद की मांग तक आ पहुंचा जिसे अभिषेक द्वारा पार्टी प्रमुख ममता के विरुद्ध मोर्चेबंदी के तौर पर देखा जा रहा है। अपने एकाधिकार को चुनौती की भनक लगते ही सुश्री बैनर्जी ने संगठन को भंग करते हुए एक तदर्थ समिति बना दी जिसमें अभिषेक बतौर महामंत्री न होकर साधारण सदस्य भर हैं। ममता के विरोध में पिछले विधानसभा चुनाव के पूर्व भी खूब आवाजें उठीं और थोक के भाव नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में आ गये। लेकिन उनकी बड़ी जीत के बाद विरोध ठंडा पड़ गया। और तो और मुकुल रॉय जैसे बड़े नाम के अलावा बागी हुए अनेक नेता दीदी शरणं गच्छामि हो गये जिनमें कुछ चुने हुए विधायक-सांसद भी हैं। सुनने में आ रहा है कि नए और पुराने नेताओं के बीच विभाजन रेखा खिंच चुकी है और अभिषेक ने अपनी बुआ के समानांतर गुट बना लिया है। दरअसल ममता के सामने भी वही समस्या है जो स्व. जयललिता और अब मायावती के सामने है। अविवाहित होने से इनकी अपनी सन्तान नहीं है। जयललिता के दौर में उनकी सहेली शशिकला ताकतवर हुई तो मायावती को भी अंतत: अपने भतीजे आनंद को पार्टी में आगे लाना पड़ा। सुश्री बैनर्जी ने अभिषेक के स्थान पर किसी और को मजबूत नहीं बनाया क्योंकि उन्हें किसी पर विश्वास नहीं था। लेकिन अब भतीजा ही उनके लिए खतरा बनने लगा। देर-सवेर यही समस्या उड़ीसा में नवीन पटनायक के सामने भी आयेगी जो कि अविवाहित हैं। ये सब देखकर लगता है अधिकतर क्षेत्रीय दल प्रायवेट लिमिटेड कम्पनी बनकर रह गए हैं। क्षेत्रीय, जातीय और भाषायी भावनाएं उभारकर इन दलों के नेता अपना वर्चस्व बनाये रखते हैं किन्तु राजनीतिक विरासत परिवार से बाहर न जाये इसकी चिंता भी उन्हें दिन रात सताया करती है। जिन मुलायम सिंह यादव के नाम पर सपा और अखिलेश शिखर तक जा पहुंचे वे आज पार्टी और परिवार दोनों में मूकदर्शक बनकर रह गए हैं। जितने भी क्षेत्रीय दलों के नामों का यहाँ उल्लेख किया गया वे सब कमोबेश इसी हालात में हैं या निकट भविष्य में उनकी पारिवारिक कलह भी सार्वजनिक हुए बिना नहीं रहेगी। चूंकि इनका मकसद निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति और सता के सहारे अकूत दौलत कमाना होता है, लिहाजा कालान्तर में इनके भीतर वही सब होता है जो किसी राज परिवार की सम्पत्ति के बंटवारे के समय देखने मिलता है। इसे भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना ही कहा जाएगा कि उसमें सेवा, सिद्धांत और समर्पण की बजाय स्वार्थ सिद्धि और धनलिप्सा जैसी प्रवृत्तियों का जबरिया कब्ज़ा हो गया है। तृणमूल कांग्रेस यदि आने वाले समय में विभाजन के रास्ते पर बढ़ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि संघर्ष के दिनों के अपने साथियों को नजरअंदाज कर जब भाई, बेटे-बेटी, भतीजे आदि को पार्टी की राजनीतिक पूंजी सौंपी जाती है तब उन साथियों के मन को चोट पहुचंती है। ममता बैनर्जी के साथ शुरु से रहे नेताओं को पीछे धकेलकर जब उन्होंने भतीजे अभिषेक को अपना उत्तराधिकारी बनाने की रूपरेखा तैयार की तभी से तृणमूल के भीतर टूटन का बीजारोपण हो चुका था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 12 February 2022

मुस्लिम लड़कियां पर्दा पसंद करती हैं तो करें बशर्ते कानून और सुरक्षा को खतरा न हो

 

इस समय देश भर में मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब का इतेमाल किये जाने पर विवाद मचा है | कर्नाटक के एक शैक्षणिक संस्थान से उठा ये मुद्दा  सियासत से होते हुए अदालत तक आ पहुंचा और अब इसे लेकर धार्मिक सवाल – जवाब भी चल पड़े हैं | मुस्लिम समाज कुछ अपवाद छोड़कर इस मामले में  पूरी तरह से एकजुट है | जो लड़कियां आधुनिक परिधानों की और आकर्षित हो चली थीं वे भी अचानक हिजाब पहिनकर निकलने लगीं और समाचार माध्यमों के समक्ष खुलकर  स्वीकार कर रही हैं कि महिलाओं का पर्दानशीन होना इस्लाम की परम्परा है जिसे रोकने की  कोशिश धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है | ये तर्क भी दिए जा रहे हैं कि जब हिन्दू महिलाओं को सिर ढंकने और माथे पर बिंदी लगाने की  छूट और सिखों को पगड़ी धारण  करने की आजादी है तब मुस्लिम लड़की शाला या महाविद्यालय में सिर या चेहरा ढंककर जाए तो उस पर ऐतराज करना गलत है । धर्मनिरपेक्ष देश होने से भारत में धार्मिक स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त अधिकार है | हालाँकि प्रत्येक धर्म में कुछ न कुछ ऐसा है जिसे समय के साथ बदलने की जरूरत महसूस की जाती है किन्तु धार्मिक बेड़ियाँ की जकड़न इतनी मजबूत होती हैं कि हर किसी में उनको तोड़ने की कुव्वत नहीं होती | समय – समय पर हर धर्म में सुधारवादी आन्दोलन भी  हुए  | वोहरा मुस्लिम समाज में असगर अली इंजीनियर ने काफी लड़ाई लड़ी जिसके कारण वे समाज से तिरस्कृत भी किये गये | तीन तलाक और गुजारा भत्ते को लेकर मुस्लिम महिलाओं ने ही लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी | ये बात हिन्दू समाज के साथ जैन और सिखों में भी देखने मिलती है | सामाजिक कुरीतियों के साथ ही कालातीत हो चुकी परम्पराओं को खत्म करने या उनमें समयानुकूल बदलाव करने के प्रक्रिया भी चलती रहती है | दुनिया के अनेक इस्लामी देशों में भी पुराने रीति रिवाजों में सुधारवादी परिवर्तन किये जा चुके हैं , जिनमें तीन तलाक और पर्दे से आजादी जैसी बातें भी शामिल हैं | इस्लाम के सबसे कट्टर माने जाने वाली शाखा   वहाबी समुदाय के प्रवर्तक सऊदी अरब तक में  महिलाओं को कार चलाने , अकेले विदेश यात्रा पर जाने और माता – पिता की अनुमति के बिना विवाह करने जैसी छूट हाल ही में दी गई है | यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी तीन तलाक की प्रथा खत्म की जा चुकी है और जो वीडियो वहां के दिखाई देते हैं उनसे ये नहीं लगता कि उस इस्लामिक देश में लड़कियों और महिलाओं के लिए पर्दा करने की अनिवार्यता है | लेकिन कुछ ऐसे इस्लामिक देश अभी भी हैं जिनमें महिलाओं को उन सभी पाबंदियों का पालन करना पड़ता है जो शरीया में उल्लिखित हैं | भारत में इस्लाम के मानने वालों में परम्परा और आधुनिकता का समावेश शुरु से रहा है | पचास और साठ के दशक में भी जब मुस्लिम लड़कियों के लिए अकेले घर से निकलना भी कठिन होता था तब फिल्मों में तमाम मुस्लिम  अभिनेत्री आईं और मशहूर हुईं | सुरैया , नर्गिस , मीनाकुमारी मधुबाला और वहीदा रहमान जैसे नाम आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर हैं | लेकिन शायद ही किसी मुल्ला – मौलवी ने उस पर ऐतराज जताया हो | प्रणय दृश्यों के अलावा बिकिनी जैसी पोशाक भी अनेक मुस्लिम अभिनेत्रियों ने फिल्मों में पहनीं और आजकल तो खुलकर चुम्बन दृश्य भी दे रही हैं | लेकिन किसी मुस्लिम महिला संगठन या मौलवी ने उनके खिलाफ आवाज नहीं उठाई | इसकी वजह यही लगती है कि मन ही मन धर्म के ठेकेदार भी ये समझ चुके हैं कि एक हद के बाद  वे लोगों को अपने शिकंजे में नहीं कस पाएंगे | हिजाब को लेकर चल रहे विवाद के भीतर जाएँ तो यदि मुस्लिम धर्मगुरु सभी मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं पर सार्वजानिक स्थलों पर हिजाब पहिनने की  अनिवार्यता थोपना चाहें तब उनको एहसास हो जायेगा कि उसे लेकर उनके मन में कितनी आस्था है | जहाँ तक बात मुस्लिम लड़कियों के पर्दा प्रेम की है तो हो सकता है वह किसी संगठन के प्रभाव में आकर उपजा हो | लेकिन  कर्नाटक की  घटना के बाद  बाद देश भर  में जो हिजाब की हवा बनी वह स्वप्रेरित हो तो इसे मुस्लिम लड़कियों की निजी इच्छा मान लेना ही उचित होगा | यदि उनके मन में समय के साथ चलते हुए आगे बढ़ने की इच्छा नहीं है तो  उनको उसके  लिए बाध्य करना निःसंदेह गलत है | लेकिन हिजाब के  इस्तेमाल से यदि कानून व्यवस्था अथवा अन्य समस्या उत्पन्न हो तब जरूर आपत्ति वाजिब होगी | रही बात राजनीति की तो मुस्लिम नेताओं का ये कहना गले नहीं उतरता कि ये विवाद पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के कारण पैदा किया गया | सही बात तो ये है कि कर्नाटक के जिस शिक्षण संस्थान से ये मसला शुरू हुआ उसमें कुछ  मुस्लिम छात्राएं अचानक संस्थान  के नियमों को तोड़ते हुए कक्षा में हिजाब पहिनकर आने लगीं जिन्हें रोके जाने पर उन्होंने जिद पकड़ ली |  लेकिन अचानक उनके मन में हिजाब के प्रति आग्रह  कैसे पैदा हो गया ये भी उनको स्पष्ट करना चाहिए था | वैसे  इस्लाम में हिजाब पहिनना अनिवार्य होता तब उपराष्ट्रपति रहे हामिद अन्सारी की पत्नी और नजमा हेपतुल्ला जैसी वरिष्ठ नेत्री खुले सिर नहीं रह पातीं और न ही सानिया मिर्जा टेनिस कोर्ट पर अपना जोहर दिखातीं | अच्छा हो इस मामले को मुस्लिम महिलाओं पर ही छोड़ दिया जाए | हाँ , इतना अवश्य है कि उनका ये अधिकार कानून और सुरक्षा के मद्देनजर असीमित नहीं हो सकता | भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन कानून की सर्वोच्चता का पालन सभी के लिए अनिवार्य हैं | धर्म से जुडी अनेक हस्तियों को जेल भेजे जाने से इसकी पुष्टि होती रही है | मुस्लिम समाज के भीतर जो सुधारवादी महिला  संगठन हैं उनकी खामोशी इस विवाद में जरूर चौंकाने वाली है और  जो मुस्लिम धर्मगुरु हिजाब विवाद के पीछे सियासत देख रहे हैं उन्हें सबसे पहले कर्नाटक की उन छात्राओं की निंदा करनी चाहिए जिन्होंने जान बूझकर ये आग लगाई | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 11 February 2022

किसान आन्दोलन की तपिश के बावजूद मतदान का प्रतिशत गिरना चौंकाने वाला है



 उ.प्र विधानसभा चुनाव के पहले चरण में गत दिवस जिन 58 सीटों पर मतदान हुआ वे उस पश्चिमी इलाके की हैं जिनमें किसान आन्दोलन की तपिश सबसे ज्यादा थी | 2017 में इन सीटों पर  औसतन 64 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया था | ये देखते हुए अनुमान था कि इस बार मतदान का आंकड़ा और ऊपर जायेगा  | 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद उत्पन्न हालातों में यहाँ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी जमकर हुआ जिसका असर 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के अलावा 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने मिला | हालाँकि राम मंदिर आन्दोलन  के बाद से ही उ.प्र का  पश्चिमी क्षेत्र भाजपा का प्रभावक्षेत्र रहा है | लेकिन बीते वर्ष हुए किसान आन्दोलन ने यहाँ की हवा को भाजपा के विरोध में मोड़ दिया | मुस्लिम तो खैर उसके परम्परागत विरोधी रहे हैं किन्तु जाट समुदाय बीते पांच - सात सालों से जिस मुस्तैदी से उसके साथ आया उसने इस अंचल में चौधरी चरण सिंह के परिवार की चौधराहट को चौपट कर दिया | यदि किसान आन्दोलन न हुआ होता तब शायद इस बार भी कमोबेश वही स्थिति रहती लेकिन उसने हालात काफी हद तक बदल दिए | राकेश टिकैत की अगुआई में हुआ आन्दोलन कहने को तो गैर राजनीतिक था लेकिन धीरे – धीरे उसने भाजपा विरोधी रूप ले लिया जिसका लाभ उठाते हुए रालोद नेता और चौधरी साहेब के पौत्र जयंत चौधरी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन करते हुए भाजपा के लिए कठिन परिस्थितियां बना दीं | जयंत और अखिलेश यादव की जुगलबंदी के परिणामस्वरूप चौधरी साहेब के ज़माने का जाट और मुस्लिम गठजोड़ एक बार फिर जमीन पर आता दिखने लगा | भाजपा के लिए ये बदलाव वाकई परेशानी पैदा करने वाला था | यद्यपि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2017 की तरह से ही जाट समुदाय की मिजाजपुर्सी करने का भरपूर  प्रयास किया लेकिन वह कितना सफल हुआ ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता | कुल मिलाकर ये लगने लगा कि पश्चिमी उ.प्र भाजपा के हाथ से निकलने जा रहा है | किसान समुदाय की नाराजगी जिस तरह मुखर होकर बाहर आ रही थी उससे  लगा कि इस बार मतदान में लहर दिखाई देगी क्योंकि  अमूमन ऐसे हालातों में भारी मतदान होता है | बीते दो लोकसभा चुनावों में इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ भी | लेकिन गत दिवस हुए मतदान के आंकड़ों ने राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया क्योंकि मत प्रतिशत 2017 की अपेक्षा लगभग 3 फीसदी कम हो गया | मोटे तौर पर इसका संकेत माना जाता है कि ये यथास्थिति बनाये रखने वाला मतदान है | लेकिन कुछ लोग ये भी मानते हैं कि सत्ता समर्थक मतदाताओं की उदासीनता कम मतदान की शक्ल में सामने आई | सच क्या है ये तो आगामी 10 मार्च को आने वाले परिणाम से पता चलेगा किन्तु किसान आन्दोलन की वजह से पश्चिमी उ.प्र में जिस प्रकार की गर्मागर्मी बन गई थी उसके बाद हर कोई ये उम्मीद लगाये बैठा था कि इस बार भारी मतदान होगा | चूँकि विपक्ष के पास इस बार प्रदेश सरकार के विरुद्ध जनभावनाओं को उभारने का भरपूर मसाला था इसलिए उसका उत्साहित होना स्वाभाविक था | वहीं दूसरी और सत्ता पक्ष भी अपनी उपजाऊ राजनीतिक जमीन पर किसी और का कब्जा नहीं होने देना चाहता , इसलिए उसने भी पूरा जोर लगाया अपना जनाधार बचाने के लिए | ऐसे में मतदान पिछले चुनाव से ज्यादा होना अपेक्षित था किन्तु वह घट गया | सबसे चौंकाने वाली बात रही गाज़ियाबाद और नोएडा जैसे दिल्ली से सटे क्षेत्रों में बेहद कम मतदान | यहाँ किसान आन्दोलन का असर तो नहीं था किन्तु उच्च मध्यम वर्ग के मतदाताओं से ये अपेक्षा रहती है कि वे हालातों पर नजर रखते हुए ज्यादा से ज्यादा मतदान करेंगे | इसी तरह किसान आन्दोलन से सीधे जुड़े निर्वाचन क्षेत्रों में भी मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि न होना इस बात का संकेत है कि राजनीतिक दल प्रचार के दौरान जो उत्साहजनक माहौल बनाते हैं वह मतदान के दिन ठंडा पड़ जाता है | यदि ऐसा न होता तब कल के मतदान का प्रतिशत कम से कम 70 तो होना ही था | हमारे देश में विपक्ष द्वारा सरकार पर ये तंज कसा जाता है कि उसे  मात्र 30 – 32 फीसदी लोगों का समर्थन प्राप्त है | लेकिन जब मतदान ही 60 – 62 फीसदी होगा तो  30 – 32  फीसदी मत हासिल करने वाला दल ही सरकार बनाने की हैसियत हासिल कर लेगा | उस दृष्टि से पश्चिमी उ.प्र की 58 सीटों के लिए गत दिवस हुआ मतदान निराश करने वाला है | पिछले विधानसभा चुनाव में भी सत्ता परिवर्तन बड़ा मुद्दा था तब पूर्वापेक्षा मतदान का प्रतिशत भी बढ़ा | लेकिन इस बार तो इस इलाके में प्रदेश सरकार का विरोध जिस तरह से होता दिखा उसके कारण ये उम्मीद थी कि कम से कम 70 फीसदी मतदान तो होगा ही | लेकिन 2017 की अपेक्षा उसमें दो से तीन प्रतिशत की कमी आना शोचनीय है | एग्जिट पोल के नतीजे चूँकि अभी गोपनीय ही रहेंगे इसलिए अनुमानों का खेल चलता रहेगा लेकिन कम मतदान से जो सबसे बड़ी बात निकलकर आई वह ये कि सत्ता के विरोधी और समर्थक दोनों ही मतदाताओं में अपेक्षित उत्साह भरने में विफल रहे | यदि  मतदान योगी सरकार के विरोध में गया तब ये भाजपा की असफलता है जो अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक लाने  में नाकामयाब रही | और यदि चुनाव परिणाम सत्तारूढ़ दल के पक्ष में रहे तब ये साबित हो जायेगा कि विपक्ष अपनी बात को जनता के गले नहीं उतार सका | लेकिन किसी की जीत और किसी की हार उतना बड़ा मुद्दा नहीं  जितना ये कि आजादी का  अमृत महोत्सव भी लोकतंत्र के प्रति अपेक्षित  उत्साह पैदा नहीं कर पाया  | 100 फीसदी न सही किन्तु कम से कम 75 – 80 प्रतिशत मतदान होने पर ये एहसास होता है कि जनता में अपने अधिकार का उपयोग करने के प्रति रूचि  है | ये वाकई एक गम्भीर मुद्दा है राजनीतिक दलों के लिए चिन्तन का | उनके धुआंधार प्रचार के बावजूद भी यदि मतदाताओं का 40 और कहीं – कहीं तो 50 फीसदी हिस्सा मतदान करने ही नहीं गया तो इसका सीधा – सीधा अर्थ उनकी निराशा ही है | अन्यथा किसी भी जीवंत समाज में लोग अपनी राय व्यक्त करने के प्रति सदैव तत्पर रहते हैं | चुनाव आयोग ने इस बार ओमिक्रोन के कारण उ.प्र में बड़ी रैलियों और सभाओं पर रोक लगा दी थी जिसके कारण आभासी माध्यम से प्रचार किया गया | इसी तरह अब उसे मतदान का प्रतिशत बढाने के नये – नए और आसान तरीके खोजना चाहिये क्योंकि  ये देखने में आता है कि पढ़े – लिखे और अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग में मतदान को लेकर स्वभावगत उदासीनता बनी हुई है | लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया से दूर रहने वाले अधिकारों के बारे में चिल्लाने का नैतिक अधिकार भी खो बैठते हैं  | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 10 February 2022

या तो देश को धर्मनिरपेक्ष कहना बंद करो या सबके लिए एक जैसा कानून बनाओ



कर्नाटक के एक शिक्षण संस्थान में कुछ मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनकर आने पर मचा विवाद उस राज्य की सीमाओं से बाहर आकर देशव्यापी राजनीतिक विषय बन गया है। इस मामले में अदालती आदेश आना है इसलिए इसके कानूनी पक्ष पर तो कुछ कहना उचित न होगा किन्तु जिस तरह की टिप्पणियाँ पक्ष और विपक्ष से आ रही हैं उन्हें देखते हुए ये कहना गलत न होगा कि विवाद के पीछे कोई न कोई सोची-समझी योजना रही। उक्त मामले में आज वहाँ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित दो अन्य की पीठ विचार कर रही है जिसमें एक मुस्लिम महिला भी हैं। मामला केवल इतना था कि एक शिक्षण संस्थान की कक्षा  में कुछ मुस्लिम छात्राएं अचानक हिजाब पहिनकर आने लगीं। जबकि संस्थान में प्रवेश के आवेदन में ये स्पष्ट था कि परिसर के भीतर भले ही हिजाब का इस्तेमाल किया जावे किन्तु कक्षा के भीतर उसकी अनुमति नहीं थी। अचानक कुछ छात्राओं द्वारा उक्त अनुमति का उल्लंघन किये जाने पर आपत्ति व्यक्त की गई। प्रबन्धन ने भी विरोध किया और उसके बाद दूसरे समुदाय की जवाबी प्रतिक्रिया भगवा के रूप में देखने मिली और फिर बात उससे भी बढ़ते हुए दलितों का प्रतीक बने नीले रंग तक आ पहुँची। इसके बाद जैसा कि होता है अन्य स्थानों पर भी हिजाब, दुपट्टा और साफे की शक्ल में शक्ति प्रदर्शन होने लगा तथा मामला खुलकर हिन्दू-मुस्लिम बन गया। आम  तौर पर सरकारें ऐसी आग से अपने हाथ बचाना चाहती हैं इसीलिये बात उच्च न्यायालय तक पहुंच गयी। जिस नियम और  व्यवस्था का अब तक किसी मुस्लिम छात्रा ने विरोध नहीं किया वही उनको धर्म विरोधी लगने लगी  और फिर पूरे देश में हिजाब मानो मुस्लिम अस्मिता और पहिचान से जुड़ा मुद्दा बन गया। कहीं मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहिनकर खेल के मैदान में उतरने लगीं तो कहीं  मोटर साइकिल चलाती नजर आने लगीं। खुद को आधुनिक और प्रगतिशील मानने वाली और मुस्लिम महिलाओं को कठमुल्लेपन से आजाद करवाने के लिए संघर्षरत कुछ देवियाँ भी अचानक हिजाब को मौलिक अधिकार मानकर कर्नाटक की हिजाबधारी मुस्लिम छात्राओँ के समर्थन में कूद पड़ीं। बात मंगलसूत्र, दाढ़ी, टोपी और मंगलसूत्र तक आ पहुंची। उच्च न्यायालय के समक्ष विचारणीय मुद्दा केवल ड्रेस कोड अर्थात गणवेश का है। कोई संस्थान क्या किसी परिधान को धारण करने या न करने की अनिवार्यता थोप सकता है इस पर न्यायालयीन व्यवस्था का सभी को इंतजार है। लेकिन इसी बीच कांग्रेस महामंत्री प्रियंका वाड्रा ने ये कहकर विवाद में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हुए ट्वीट किया कि बिकिनी, घूँघट या हिजाब क्या पहिनना है ये महिलाओं का संविधान प्रदत्त अधिकार है। उनका ये बयान अप्रत्यक्ष रूप से कर्नाटक की उन छात्राओं के समर्थन में माना गया जिन्होंने शिक्षण संस्थान के नियमों को धता बताते हुए कक्षा में अचानक हिजाब पहिनकर जाना शुरू किया, जबकि पहले वे ऐसा नहीं करती थीं। बात आगे बढऩे पर ये साफ़ हुआ कि किसी मुस्लिम संगठन के उकसावे पर उन्होंने वैसा किया। किसी संस्थान द्वारा ड्रेस कोड लागू करना अनोखी बात नहीं है। अनेक महिलाएं पुलिस में भर्ती होती हैं तब उनको वर्दी धारण करनी होती है। यात्री हवाई जहाज में परिचारिका (होस्टेस) की वेशभूषा विमान कम्पनी तय करती है जिसका पालन मुस्लिम परिचारिकाएँ भी करती हैं। ये देखते हुए लगता है कि कर्नाटक के शिक्षण संस्थान में हिजाब का उपयोग विवाद पैदा करने के मकसद से ही किया गया था। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि मुस्लिम समाज में आज भी महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें हैं। जिनके कारण कश्मीर की एक लड़की अचानक फि़ल्मी दुनिया को अलविदा कहते हुए कश्मीर लौट जाती है क्योंकि वैसा न करने पर वहां उसका और उसके परिवार का रहना दूभर हो जाता। तीन तलाक संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मुस्लिम महिला की याचिका पर ही आया था जिसका आम तौर पर मुस्लिम महिलाओं ने स्वागत किया लेकिन कुछ समय बाद उनकी बोलती बंद कर दी  गई। श्रीमती वाड्रा एक अत्याधुनिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से आती हैं। उनकी माँ इटली की हैं और पिताजी तथा भाई विदेश में शिक्षित हुए। दादी ने एक पारसी से विवाह किया था। इस आधार पर उन्होंने हिजाब सम्बन्धी बयान पर जो कहा उसमें अनपेक्षित कुछ भी नहीं है। लेकिन क्या उनमें इतना साहस है कि वे मुस्लिम समाज में प्रचलित हलाला जैसी प्रथा के विरुद्ध भी  मुस्लिम महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे लड़की हैं इसलिए इसके विरुद्ध लड़ भी सकती हैं। जहाँ तक बात गणवेश या ड्रेस कोड की है तो वह केवल कर्नाटक के उस शिक्षण संस्थान में ही नहीं अपितु देश भर के हजारों संस्थानों में लागू है। अदालतों में अधिवक्ताओं की वेशभूषा में एकरूपता है। दरअसल आजादी के बाद देश में हिन्दू समाज की परम्पराओं को बदलने के लिए संसद में कानून लाया गया तब राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद उससे असहमत थे किन्तु प्रगतिशीलता के हामी प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने उनके ऐतराज को तो नजरंदाज कर दिया और अपनी आधुनिक सोच के बाद भी वे मुस्लिम समुदाय में व्याप्त रूढ़ियों और कुरीतियों को छूने का साहस न कर सके। जबकि उनको इस बात का अनुभव था कि उसके कारण उस समुदाय के मन में मुख्य धारा से अलग रहने की वही भावना बनी रहेगी जिसके चलते  देश के दो टुकड़े हुए। यदि आजाद होने के बाद ही सभी धर्मावलम्बियों के लिए एक समान नागरिक संहिता बना दी जाती तब शायद इस तरह के बखेड़े खड़े नहीं होते। उल्लेखनीय है धार्मिक स्थलों में जाने के भी कुछ नियम होते हैं जिसके अंतर्गत मस्जिदों और गुरुद्वारों में पुरुषों को भी सिर पर पगड़ी और टोपी न सही तो रूमाल रखना जरूरी है। वहां जाने वाले गैर मुस्लिम और सिख भी उसका पालन करते हैं। इसी तरह अनेक ज्योतिर्लिंगों में हिन्दू भारतीय परिधान पहिनने की अनिवार्यताहै। इसी तरह जैन मुनि दिगम्बर अवस्था में सार्वजनिक रूप से विचरण करते हैं लेकिन जैन होने के आधार पर अन्य कोई निर्वस्त्र रहने की जिद करे तो उसी धर्म के लोग उसे रोकेंगे। सही बात तो ये है कि धर्म अपने आप में अनुशासन है। ऐसे में विवाद चाहे कर्नाटक का हो या दूसरी किसी जगह का, उसके पीछे के भाव और ताकतों की पहिचान होना जरूरी है। हिजाब संबंधी विवाद इस्लाम के नियमों और परम्पराओं की रक्षा से सर्वथा परे शाहीन बाग़ जैसी किसी साजिश का पूर्वाभ्यास है। केवल वोटों की राजनीति की खातिर आँख मूंदकर उसका समर्थन कर देना अपरिपक्वता की निशानी है। श्रीमती वाड्रा के बयान से प्रेरित होकर कोई महिला सांसद यदि बिकिनी पहिनकर सदन में जा पहुंचे तब क्या वे उसके परिधान संबंधी अधिकार का भी समर्थन करेंगी? उन्हें और उन जैसे बाकी लोगों को ये बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि या तो देश को धर्मं निरपेक्ष कहना बंद करें या फिर सभी धर्मों के लिये एक जैसी सामाजिक व्यवस्था वाला क़ानून लागू किया जावे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 9 February 2022

घोषणापत्र : ये भी बताया जाए कि वायदे पूरे करने पैसे कहाँ से आयेंगे ?




उ.प्र में पहले चरण का प्रचार बंद होने के कुछ घंटों पहले ही  भाजपा और सपा के घोषणापत्र पेश किये गये | भाजपा ने वृद्ध महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा , होली – दीपावली पर दो मुफ्त गैस सिलेंडर , सिंचाई के लिए निःशुल्क बिजली , छात्रों के लिए स्कूटी जैसे वायदे उछाले तो सपा ने हर माह दो पहिया वालों को एक और ऑटो चालकों को तीन लिटर पेट्रोल – सीएनजी , लड़कियों को मुफ्त शिक्षा , लैपटॉप , 300 यूनिट मुफ्त बिजली और एक करोड़ नौकरियों का आश्वासन दे डाला | दोनों के घोषणापत्र में गन्ना किसानों के भुगतान दो सप्ताह में किये जाने की बात भी है  | और भी ऐसे आश्वासन हैं जो देखने में बेहद आकर्षक लगते हैं | जिन क्षेत्रों में कल मतदान होना है वहाँ के मतदाताओं को ये वायदे किस तरह मलूम होंगे ये सोचने वाली बात है क्योंकि संचार क्रांति के इस युग में भी समाज का एक हिस्सा है जिनके  मन में ये बात गहराई तक बैठ चुकी है कि सरकार किसी की भी बने उनकी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला |   सपा और भाजपा बीते दस साल में  बारी – बारी उ.प्र की सरकार चला चुके हैं | ऐसे में उनकी ये जवाबदेही भी बनती है कि पिछले घोषणापत्र के वायदों को पूरा किये जाने के प्रमाण पेश करते हुए अगला जनादेश  मांगे | मसलन उ.प्र में गन्ना  किसानों को चीनी मिलों द्वारा किये जाने वाले भुगतान में कभी - कभी एक साल तक लग जाता है |  अखिलेश यादव और योगी आदित्य नाथ दोनों ने पूरे पांच साल तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई किन्तु गन्ना किसानों की समस्या नहीं सुलझी तब किस मुंह से वे दोनों ये आश्वासन दे रहे हैं कि दोबारा सत्ता मिलते ही वे दो हफ्ते में भुगतान का इंतजाम करवा देंगे | इसी तरह से सपा ने एक करोड़ रोजगार देने का जो वायदा किया है वह भी आसमानी पुलाव पकाने जैसा है | अखिलेश से ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि 2012 से 17 के शासनकाल में उनकी सरकार ने उ.प्र में कितनी नौकरियां दीं और निजी क्षेत्र में कितने रोजगार उत्पन्न किये ? जहाँ तक बात मुफ्त सिलेंडर ,स्कूटी , लैपटॉप , पेट्रोल – सीएनजी और बिजली , खाद जैसे वायदों की है तो ये खुले आम घूस नहीं तो और क्या है ?  बेहतर हो घोषणापत्र चुनाव के ऐलान के साथ ही  पेश किये जाएं जिनसे इनका अध्ययन करने के साथ ही मतदाता उनको पूरा करने के बारे में अपनी शंकाएं और सवाल राजनीतिक दलों के सामने रख सके | लेकिन जानबूझकर वह ऐसे समय पेश किया जाता है जब  चुनाव दूसरे मुद्दों में उलझ चुका होता है | उदाहरण के लिये उ.प्र का पूरा चुनाव यादव, जाट, मुस्लिम , अगड़े - पिछड़े और दलितों के बीच सिमटकर रह गया है | महंगाई और बेरोजगारी बड़े मुद्दे हैं लेकिन किसी भी दल के पास इनको हल करने का जादुई चिराग नहीं है | उ.प्र के लाखों लोग दूसरे राज्यों में जाकर काम करते हैं | मुम्बई में तो उ.प्र के लाखों लोग दूसरी और तीसरी पीढी से रह रहे हैं | आज भी वहां से पलायन जारी है | कोरोना की पहली लहर में मुम्बई सहित अनेक महानगरों से जो लाखों श्रमिक बेहद मुश्किल हालातों में घर लौटे उनमें सर्वाधिक उ.प्र के ही थे | उनमें से बहुतों ने कहा कि दोबारा नहीं लौटेंगे किन्तु कुछ समय बाद वे फिर महानगरों की तरफ चल पड़े |   ये देखते हुए नई नौकरियों का वायदा करने वालों को ये बताना चाहिए कि ये नौकरियां किस खदान से निकाली जायेंगी ? लड़कियों और छात्रों को स्कूटी देने जैसे वायदे अपनी जगह ठीक हैं लेकिन त्यौहारों पर गैस सिलेंडर और हर माह मुफ्त पेट्रोल  जनता को बहलाने की चाल है | यदि भाजपा और सपा वाकई लोगों को रसोई गैस और पेट्रोल जैसी चीज मुफ्त देकर  मदद करना चाह रही हैं तो वे पेट्रोल , डीजल और गैस को अपने राज्य में सस्ता करने की घोषणा कर देतीं ताकि समाज के हर वर्ग को उसका लाभ मिले | लेकिन राजनीतिक दलों का लक्ष्य ऐसे वायदे करना मात्र है जिससे कि मतदाताओं को भ्रमित करते हुए समर्थन हासिल कर लिया जाए क्योंकि चुनाव  के बाद जनता के पास घोषणापत्र को लागू करवाने का कोई जरिया नहीं होता | ये देखते हुए बेहतर तो यही होता है कि घोषणापत्र ऐसा हो जिससे पूरे समाज को स्थायी लाभ हो और जिसका अमल सम्भव हो सके | यदि भाजपा और सपा उ.प्र में महंगाई कम करने का ठोस उपाय सुझाते हुए पेट्रोल , डीजल , रसोई गैस , बिजली के साथ ही रोजमर्रे की अन्य चीजों पर लगने वाले कर कम करने का वायदा करते तो वह सभी  को राहत देने वाला होता | महीने में एक लीटर पेट्रोल मुफ्त देने जैसा वायदा रोते हुए बच्चे को एक बिस्किट देकर बहलाने जैसा ही है |  इसी तरह पूरे साल महंगी रसोई गैस करने के बाद दो सिलेंडर मुफ्त देना भी चालाकी है | इस बारे में  ध्यान देने योग्य है कि मोदी सरकार ने रसोई गैस के जो कनेक्शन मुफ्त दिये उनकी भरपाई सिलेंडर के दाम बढ़ाकर कर ली गई | नतीजा ये हुआ कि अधिकतर लाभार्थी  नया सिलेंडर लेने में असमर्थ हो गये | इसी तरह की स्थिति मुफ्त बिजली की है | गरीबों और किसानों को सस्ती या मुफ्त बिजली देने का भार बाकी उपभोक्ताओं पर महंगी बिजली के तौर पर पड़ता है | इस तरह वोटों की मंडी के अर्थशास्त्र ने सरकारों पर कर्ज का ऐसा बोझ लाद दिया है जिसे चुकाने का भार  भावी पीढ़ियों पर होगा | ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल मतदान के काफी पहले घोषणापत्र पेश करें ताकि उसके बारे में उनसे सवाल पूछे जा सकें | सपा और भाजपा दोनों चूंकि उ.प्र की सत्ता में रह चुकी हैं इसलिए उनके पास जनता को ये बताने का भरपूर अवसर था कि उन्होंने ऐसा क्या किया जिसके आधार पर उनको दोबारा सत्ता सौंप दी जावे | इसी के  साथ ही वे दोनों ये भी बता सकते थे कि ऐसा कौन सा जनहितैषी कार्य उन्होंने किया जो दूसरी सरकार नहीं कर पाई | अखिलेश और योगी यदि नये  वायदे करने के बजाय अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को मुद्दा बनाते तब चुनाव वास्तविक मुद्दों पर केन्द्रित होता और मतदाताओं को उनके पिछले प्रदर्शन के आधार पर  पुनः अवसर देने न देने का विकल्प रहता | गन्ना किसानों को चीनी मिलों द्वारा समय पर भुगतान नहीं किये जाने की शिकायत पूरे प्रदेश में आम है | सपा और भाजपा दोनों ने अपने घोषणापत्र में 14 दिन के भीतर भुगतान करवाने का वायदा किया है | लेकिन  अखिलेश और योगी दोनों को इस बात का स्पष्टीकरण देना चाहिए था कि वे पांच साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद जब ये नहीं कर सके तब  दोबारा सत्ता में आकर  वे इस वायदे को पूरा करेंगे इसकी क्या गारंटी है ? वैसे भी घोषणापत्र कोई कानूनी दस्तावेज तो होता नहीं जिसका पालन नहीं किये जाने पर धोखाधड़ी का मामला दर्ज हो सके | सबसे बड़ा सवाल ये है कि जो राज्य अरबों – खरबों के कर्ज में डूबे हों वहां के राजनीतिक दल चुनाव में मुफ्त उपहार बाँटने का वायदा किस अधिकार से कर सकते हैं ? बेहतर हो उन पर ये बताने की भी कानूनी जिम्मेदारी डाली जाए कि वे घोषणापत्र के वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन कहां से जुटाएंगे और उनका जनता पर कितना बोझ पड़ेगा ?

- रवीन्द्र वाजपेयी