Thursday 24 February 2022

पुतिन और जिनपिंग का मिलन वैश्विक शक्ति संतुलन के नये युग की शुरूवात



यूक्रेन संकट जिस स्थिति में पहुंच गया है उसमें रूस का पीछे हटना सम्भव नहीं लगता। उसके दो हिस्सों को स्वतंत्र देश की मान्यता देने के बाद उसने अपनी सेना यूक्रेन में प्रविष्ट करा दी जिससे युद्ध की स्थिति बन गई है। उधर अमेरिका ने भी निकटवर्ती देशों में युद्धक विमान और मिसाइलें आदि तैनात कर दी हैं। अमेरिका सहित उसके साथी देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिए हैं। हालाँकि इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी बड़ा धक्का लग सकता है क्योंकि वहाँ की तमाम बड़ी कम्पनियों के रूस के साथ जो व्यवसायिक करार हैं उन पर प्रतिबंधों के कारण संकट आ खड़ा हुआ है। सर्वाधिक चर्चा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की है जिन्होंने विश्व जनमत की अनदेखी करने की जुर्रत की। जिस तरह से उन्होंने अमेरिकी धौंस को ठेंगा दिखाते हुए यूक्रेन पर हमला कर उसके दो इलाकों को आजाद मुल्क बताकर मान्यता दे डाली उसके बाद संरासंघ पर सबकी निगाहें टिकी हुई थीं किन्तु संकट को टालने में नाकामयाबी से इस विश्व संगठन की उपयोगिता पर सवालिया चिन्ह लग रहे हैं। दरअसल पुतिन ने जिस तरह की दादागिरी दिखाई उसके पीछे सुरक्षा परिषद में प्राप्त वीटो का अधिकार है। अभी तक चीन ने भले ही तटस्थ भाव ही प्रदर्शित किया किन्तु ऐसा करना भी पुतिन का समर्थन ही है। वहीं ये संकट भारत के लिए भी कूटनीतिक असमंजस की स्थिति लेकर आया है और इसीलिये वह बातचीत के जरिये समाधान निकालने की नीति पर चल रहा है। हालाँकि अमेरिका ये धमकी दे रहा है कि वह रूस के साथ रक्षा समझौतों से पीछे हटे किन्तु भारत ने अब तक किसी की ओर झुकाव प्रदर्शित न करने का जो रुख अपना रखा है वह फिलहाल तो ठीक है लेकिन उसको अपनी भूमिका का निर्धारण बहुत ही सोच-समझकर करना होगा क्योंकि जिस तरह दो सांड़ों की लड़ाई में खेत की बाड़ को नुकसान पहुंचता है वही स्थिति महाशक्तियों के टकराने से बाकी देशों की होती है। भारत ने आजादी के बाद से ही अपने को गुट निरपेक्ष बनाकर रखा लेकिन अमेरिका की पाकिस्तान समर्थक नीति के कारण हमारा झुकाव रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) की तरफ  बना जिसने सुरक्षा परिषद में अपने वीटो से सदैव भारतीय हितों की रक्षा की। लेकिन 20 वीं सदी खत्म होते तक दुनिया की तस्वीर ही बदल गई और व्यापार तथा बाजार ने कूटनीतिक रिश्तों को नई शक्ल दे दी। चीन का माओ युगीन लौह आवरण जिस तरह टूटा और साम्यवाद के सबसे बड़े जीवित केंद्र में दुनिया भर की पूंजी आकर केन्द्रित हुई उसने शक्ति संतुलन के मापदंड बदल डाले। इसीलिए यूक्रेन के मौजूदा संकट में चीन की प्रत्यक्ष भूमिका भले न हो लेकिन पुतिन ने जिस तरह के दुस्साहस का प्रदर्शन किया वह चीनी हुक्मरान शी जिनपिंग के साथ उनकी जुगलबंदी के कारण ही संभव हो सका। बीते दिनों जब पुतिन ने ताईवान मुद्दे पर चीन को समर्थन की बात कही तभी दुनिया को हवा का रुख समझ लेना चाहिए था। सबसे बड़ी बात ये है कि आज के दौर में जहाँ पुतिन और जिनपिंग अपने-अपने देश में सर्वशक्तिमान नेता के रूप में स्थापित हो चुके है वहीं अमेरिका में महज दो साल के भीतर बाईडेन की लोकप्रियता में निरंतर कमी आती जा रही है और जिस डोनाल्ड ट्रम्प को मसखरा मानकर जनता ने हरा दिया वह तेजी से उभरने लगे हैं। गत दिवस उन्होंने जिस तरह से पुतिन की तारीफ  कर डाली उससे ये संकेत निकलकर आया है कि अमेरिका के भीतर ही विदेश नीति को लेकर एक राय नहीं है। अब तक के सूरते हाल से जो बात स्पष्ट हुई वह ये कि पुतिन पीछे नहीं हटेंगे। उनके सत्ता में आने के बाद रूस ने पुराने सोवियत गणराज्यों में जिसे जितना दबाना चाहा उसमें वे कामयाब रहे हैं। यूक्रेन  के क्रीमिया बंदरगाह पर रूस द्वारा बलपूर्वक कब्ज़ा किये जाने के बाद पूरी दुनिया जिस तरह असहाय बनी रही उसने पुतिन के हौसले बुलंद किये। उन्हें ये भी समझ में आ गया कि सोवियत संघ को पुनर्जीवित करना तो असंभव है लेकिन वैश्विक शक्ति संतुलन का पूरी तरह अमेरिका के हाथों में बना रहना भी एक ध्रुवीय दुनिया बनाने जैसा होगा। पुतिन इस बात को समझ चुके हैं कि अमेरिकी प्रभाव के कारण यूरोप के बड़े देश उनको समर्थन नहीं देंगे और इसीलिये उन्होंने बड़ी ही चालाकी और चतुराई से भारत को रक्षा प्रणाली देकर चीन पर दबाव बनाया। कोरोना काल के बाद चीन को लेकर विश्व भर में जिस अविश्वास का भाव पैदा हुआ उससे जिनपिंग भी परेशान थे। ताईवान मुद्दे पर अमेरिका के जबर्दस्त दबाव के कारण वे चाहकर भी कुछ करने में असमर्थ साबित हो रहे थे। दुनिया के बाजारों में चीनी सामान की मांग कम होने से भी उन्हें एहसास होने लगा था कि उनके देश को एक बार फिर अलग-थलग करने की सोच बन गई है। पाकिस्तान के रास्ते मध्य एशियाई देशों से होते हुए यूरोप तक पहुंचने के लिए वन बेल्ट वन रोड का महत्वाकांक्षी प्रकल्प जिस तरह झमेले में फंस गया उससे वे काफी परेशान थे। और इसीलिये चीन ने बिना देर लगाए रूस के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि पुतिन और जिनपिंग की तासीर एक जैसी है। दोनों ने अपने देश पर इस तरह शिकंजा कस लिया है जिससे वे आजीवन राष्ट्रपति बने रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो ये दोनों तानशाह बन चुके हैं और इसीलिये उन्हें एक साथ खड़े होने में कोई हिचक नहीं है। वैसे भी इनके देश की अमेरिका और उसके समर्थकों से पुरानी दुश्मनी रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों द्वारा आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर रूस को घेरने का जो फैसला लिया गया उससे बचाव के लिए चीन उसके साथ खड़ा रहेगा जो खुद एक आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बन बैठा है। आज की स्थिति में जहां अमेरिका खुद ही अंतर्द्वंदों में फंसा है वहीं यूरोप भी अब तक कोरोना की मार से उबर नहीं सका। इस वजह से पुतिन और जिनपिंग की जोड़ी नए विश्व नेतृत्व का चेहरा बन सकती है। अब तक ये दोनों अकेले रहने पर अलग-थलग कर दिए जाने के खतरे से जूझ रहे थे। लेकिन इस संकट के बहाने इन दोनों का करीब आना अमेरिका और यूरोपीय देशों के अलावा भारत के लिए भी चिंता का कारण बन सकता है क्योंकि चीन का समर्थन रूपी उपकार पुतिन को पाकिस्तान के प्रति नर्म रवैया अपनाने के लिए बाध्य कर सकता है। जिससे सुरक्षा परिषद में भारतीय हितों को रूसी वीटो रूपी संरक्षण खतरे में पड़ने का अंदेशा है। इस प्रकार भारत के लिए ये स्थिति बहुत ही नाजुक है क्योंकि न तो वह किसी एक खेमे में जाने का कदम उठा सकता है और न ही लम्बे समय तक निर्लिप्त बने रहना आसान होगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की ताजा मास्को यात्रा का निहितार्थ समझना भी भारत के लिए जरूरी है क्योंकि उनका देश दिवालिया होने के कगार पर है और ऐसे में वे बिना चीनी योजना के कोई बड़ी कूटनीतिक मुहिम छेड़ने की हैसियत में नहीं हैं। यूक्रेन संकट ऐसे समय गम्भीर हुआ जब दुनिया के ताकतवर कहे जाने वाले देशों में कद्दावर नेताओं का एक तरह से अभाव नजर आ रहा है। इसीलिए पुतिन ने विश्व जनमत को लात मारने की जुर्रत की। चीन के साथ उनकी जुगलबंदी से भारत के हितों पर आंच न आये ये चिंता करना जरूरी है। रूस हमारा पुराना मित्र जरूर है लेकिन हमारे पैदायशी शत्रु के साथ उसकी निकटता किसी नए संकट का आधार बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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