Friday 11 February 2022

किसान आन्दोलन की तपिश के बावजूद मतदान का प्रतिशत गिरना चौंकाने वाला है



 उ.प्र विधानसभा चुनाव के पहले चरण में गत दिवस जिन 58 सीटों पर मतदान हुआ वे उस पश्चिमी इलाके की हैं जिनमें किसान आन्दोलन की तपिश सबसे ज्यादा थी | 2017 में इन सीटों पर  औसतन 64 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया था | ये देखते हुए अनुमान था कि इस बार मतदान का आंकड़ा और ऊपर जायेगा  | 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद उत्पन्न हालातों में यहाँ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी जमकर हुआ जिसका असर 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के अलावा 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने मिला | हालाँकि राम मंदिर आन्दोलन  के बाद से ही उ.प्र का  पश्चिमी क्षेत्र भाजपा का प्रभावक्षेत्र रहा है | लेकिन बीते वर्ष हुए किसान आन्दोलन ने यहाँ की हवा को भाजपा के विरोध में मोड़ दिया | मुस्लिम तो खैर उसके परम्परागत विरोधी रहे हैं किन्तु जाट समुदाय बीते पांच - सात सालों से जिस मुस्तैदी से उसके साथ आया उसने इस अंचल में चौधरी चरण सिंह के परिवार की चौधराहट को चौपट कर दिया | यदि किसान आन्दोलन न हुआ होता तब शायद इस बार भी कमोबेश वही स्थिति रहती लेकिन उसने हालात काफी हद तक बदल दिए | राकेश टिकैत की अगुआई में हुआ आन्दोलन कहने को तो गैर राजनीतिक था लेकिन धीरे – धीरे उसने भाजपा विरोधी रूप ले लिया जिसका लाभ उठाते हुए रालोद नेता और चौधरी साहेब के पौत्र जयंत चौधरी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन करते हुए भाजपा के लिए कठिन परिस्थितियां बना दीं | जयंत और अखिलेश यादव की जुगलबंदी के परिणामस्वरूप चौधरी साहेब के ज़माने का जाट और मुस्लिम गठजोड़ एक बार फिर जमीन पर आता दिखने लगा | भाजपा के लिए ये बदलाव वाकई परेशानी पैदा करने वाला था | यद्यपि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2017 की तरह से ही जाट समुदाय की मिजाजपुर्सी करने का भरपूर  प्रयास किया लेकिन वह कितना सफल हुआ ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता | कुल मिलाकर ये लगने लगा कि पश्चिमी उ.प्र भाजपा के हाथ से निकलने जा रहा है | किसान समुदाय की नाराजगी जिस तरह मुखर होकर बाहर आ रही थी उससे  लगा कि इस बार मतदान में लहर दिखाई देगी क्योंकि  अमूमन ऐसे हालातों में भारी मतदान होता है | बीते दो लोकसभा चुनावों में इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ भी | लेकिन गत दिवस हुए मतदान के आंकड़ों ने राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया क्योंकि मत प्रतिशत 2017 की अपेक्षा लगभग 3 फीसदी कम हो गया | मोटे तौर पर इसका संकेत माना जाता है कि ये यथास्थिति बनाये रखने वाला मतदान है | लेकिन कुछ लोग ये भी मानते हैं कि सत्ता समर्थक मतदाताओं की उदासीनता कम मतदान की शक्ल में सामने आई | सच क्या है ये तो आगामी 10 मार्च को आने वाले परिणाम से पता चलेगा किन्तु किसान आन्दोलन की वजह से पश्चिमी उ.प्र में जिस प्रकार की गर्मागर्मी बन गई थी उसके बाद हर कोई ये उम्मीद लगाये बैठा था कि इस बार भारी मतदान होगा | चूँकि विपक्ष के पास इस बार प्रदेश सरकार के विरुद्ध जनभावनाओं को उभारने का भरपूर मसाला था इसलिए उसका उत्साहित होना स्वाभाविक था | वहीं दूसरी और सत्ता पक्ष भी अपनी उपजाऊ राजनीतिक जमीन पर किसी और का कब्जा नहीं होने देना चाहता , इसलिए उसने भी पूरा जोर लगाया अपना जनाधार बचाने के लिए | ऐसे में मतदान पिछले चुनाव से ज्यादा होना अपेक्षित था किन्तु वह घट गया | सबसे चौंकाने वाली बात रही गाज़ियाबाद और नोएडा जैसे दिल्ली से सटे क्षेत्रों में बेहद कम मतदान | यहाँ किसान आन्दोलन का असर तो नहीं था किन्तु उच्च मध्यम वर्ग के मतदाताओं से ये अपेक्षा रहती है कि वे हालातों पर नजर रखते हुए ज्यादा से ज्यादा मतदान करेंगे | इसी तरह किसान आन्दोलन से सीधे जुड़े निर्वाचन क्षेत्रों में भी मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि न होना इस बात का संकेत है कि राजनीतिक दल प्रचार के दौरान जो उत्साहजनक माहौल बनाते हैं वह मतदान के दिन ठंडा पड़ जाता है | यदि ऐसा न होता तब कल के मतदान का प्रतिशत कम से कम 70 तो होना ही था | हमारे देश में विपक्ष द्वारा सरकार पर ये तंज कसा जाता है कि उसे  मात्र 30 – 32 फीसदी लोगों का समर्थन प्राप्त है | लेकिन जब मतदान ही 60 – 62 फीसदी होगा तो  30 – 32  फीसदी मत हासिल करने वाला दल ही सरकार बनाने की हैसियत हासिल कर लेगा | उस दृष्टि से पश्चिमी उ.प्र की 58 सीटों के लिए गत दिवस हुआ मतदान निराश करने वाला है | पिछले विधानसभा चुनाव में भी सत्ता परिवर्तन बड़ा मुद्दा था तब पूर्वापेक्षा मतदान का प्रतिशत भी बढ़ा | लेकिन इस बार तो इस इलाके में प्रदेश सरकार का विरोध जिस तरह से होता दिखा उसके कारण ये उम्मीद थी कि कम से कम 70 फीसदी मतदान तो होगा ही | लेकिन 2017 की अपेक्षा उसमें दो से तीन प्रतिशत की कमी आना शोचनीय है | एग्जिट पोल के नतीजे चूँकि अभी गोपनीय ही रहेंगे इसलिए अनुमानों का खेल चलता रहेगा लेकिन कम मतदान से जो सबसे बड़ी बात निकलकर आई वह ये कि सत्ता के विरोधी और समर्थक दोनों ही मतदाताओं में अपेक्षित उत्साह भरने में विफल रहे | यदि  मतदान योगी सरकार के विरोध में गया तब ये भाजपा की असफलता है जो अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक लाने  में नाकामयाब रही | और यदि चुनाव परिणाम सत्तारूढ़ दल के पक्ष में रहे तब ये साबित हो जायेगा कि विपक्ष अपनी बात को जनता के गले नहीं उतार सका | लेकिन किसी की जीत और किसी की हार उतना बड़ा मुद्दा नहीं  जितना ये कि आजादी का  अमृत महोत्सव भी लोकतंत्र के प्रति अपेक्षित  उत्साह पैदा नहीं कर पाया  | 100 फीसदी न सही किन्तु कम से कम 75 – 80 प्रतिशत मतदान होने पर ये एहसास होता है कि जनता में अपने अधिकार का उपयोग करने के प्रति रूचि  है | ये वाकई एक गम्भीर मुद्दा है राजनीतिक दलों के लिए चिन्तन का | उनके धुआंधार प्रचार के बावजूद भी यदि मतदाताओं का 40 और कहीं – कहीं तो 50 फीसदी हिस्सा मतदान करने ही नहीं गया तो इसका सीधा – सीधा अर्थ उनकी निराशा ही है | अन्यथा किसी भी जीवंत समाज में लोग अपनी राय व्यक्त करने के प्रति सदैव तत्पर रहते हैं | चुनाव आयोग ने इस बार ओमिक्रोन के कारण उ.प्र में बड़ी रैलियों और सभाओं पर रोक लगा दी थी जिसके कारण आभासी माध्यम से प्रचार किया गया | इसी तरह अब उसे मतदान का प्रतिशत बढाने के नये – नए और आसान तरीके खोजना चाहिये क्योंकि  ये देखने में आता है कि पढ़े – लिखे और अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग में मतदान को लेकर स्वभावगत उदासीनता बनी हुई है | लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया से दूर रहने वाले अधिकारों के बारे में चिल्लाने का नैतिक अधिकार भी खो बैठते हैं  | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


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