Monday 21 February 2022

यूक्रेन बन रहा दूसरा अफगानिस्तान : भारत को सावधान रहना होगा



रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी वर्चस्व की लड़ाई में जिस तरह से अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के बड़े देश कूद रहे हैं उससे  दुनिया के सामने नया संकट पैदा हो गया है | यूक्रेन पश्चिमी यूरोप का हिस्सा है और सोवियत संघ से अलग हुए देशों में सबसे बड़ा है | रूस द्वारा यूरोपीय देशों को प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम की आपूर्ति यूक्रेन के रास्ते ही होती रही है |  सोवियत संघ टूटने  के बाद से ही उसकी नजरें यूक्रेन पर लगी हुई हैं | इसीलिये उसने वहां ऐसी अलगाववादी ताकतों को दाना – पानी देकर सक्रिय किया जो रूस के साथ विलय चाहते हैं | द्वितीय विश्व युद्ध में वह यदि सुरक्षित रह सका तो उसका कारण यूक्रेन ही रहा जिसके विशाल भूभाग में हिटलर की  सेना ऐसी फंसी कि मास्को फतह करने का उसका सपना चूर – चूर हो गया | उस महायुद्ध में मित्र देशों की विजय की शुरुआत भी रूस पर नाजी सेनाओं के कब्जे की विफलता से ही हुई | सोवियत संघ के लिए यूक्रेन एक तरह से पश्चिमी यूरोप का प्रवेश द्वार जैसा है जिसे वह हर कीमत पर अपने प्रभाव  में रखना चाहता है | हालाँकि 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद भी कुछ समय तक वह  स्वतंत्र देश रहा किन्तु 1920 में  सोवियत संघ का हिस्सा बन गया | 1991 में उसके बिखरने के बाद  रूस आर्थिक दृष्टि से काफी कमजोर होकर अमेरिकी मदद पर आश्रित हो चला था | कुछ समय तक तो ऐसा लगा कि वह पूरी तरह से उसके प्रभाव में आ चुका है लेकिन ब्लादिमीर पुतिन के उदय के बाद से रूसी राष्ट्रवाद फिर जागा और उसी के परिणामस्वरूप उसने यूक्रेन पर निगाहें गड़ाना शुरू किया | 2014 में कीमिया  बंदरगाह पर कब्जा उसी योजना का हिस्सा था | लेकिन ये देखते हुए यूक्रेन के शासकों ने भी  अमेरिका से सम्पर्क बढ़ाने  शुरू कर दिये  जिससे रूस के कान खड़े हो गये | पश्चिम एशिया के  सीरिया संकट में रूस का सीधा हस्तक्षेप भी इसी कारण से  था | कुल मिलाकर यूक्रेन के बहाने साठ के दशक का शीतयुद्ध फिर आकार लेता दिख रहा है | अपनी सुरक्षा के लिए खतरा देखते हुए यूक्रेन द्वारा  अमेरिका के प्रभुत्व वाले नाटो गुट में शामिल होने का इरादा व्यक्त किये जाने से पुतिन की चिंता बढ़ गई है | यूक्रेन के रास्ते अपने पेट्रोलियम उत्पाद पश्चिमी देशों विशेष रूप से जर्मनी और फ्रांस को बेचने में बाधा आने से रूस बेचैन है वहीं अमेरिका का सोचना है कि अफगानिस्तान से खाली हाथ और काफी हद तक बेइज्जत होकर निकलने के बाद रूस पर निगाह रखने के लिए उसे कोई निकटवर्ती ठिकाना चाहिए | यूक्रेन उस दृष्टि से उसे सबसे उपयुक्त लगा जो खुद भी दोबारा मास्को के प्रभाव में नहीं लौटना चाहता | रूस ने यूक्रेन में तालिबानी शैली के उग्रवादी तैयार कर गृहयुद्ध के हालात पैदा करने के बाद अपनी सेनाओं से उसे पूरी तरह घेरकर हमले का माहौल बना दिया परन्तु  अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद वह स्थिति फ़िलहाल तो रुकी हुई है | लेकिन यूक्रेन की सेना और  रूस समर्थक अलगाववादियों के बीच लड़ाई जारी है | इस विवाद में अमेरिका समर्थक अनेक पश्चिमी देश उसके विरोध में खड़े हो गये हैं जिनकी कच्चे तेल और गैस सम्बन्धी जरूरतें रूस से पूरी होती हैं | इस तरह  देखा जाए तो इस झगड़े के पीछे भी तेल का खेल ही है | जिस तरह अमेरिका पश्चिम एशिया के तेल उत्पादक देशों पर शिकंजा कसते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपने मुताबिक चलाने के मंसूबे पालते हुए युद्ध के हालात बनाये रखता है वैसी ही परिस्थिति अब वह यूक्रेन के बहाने पैदा करने की फ़िराक में है | हालांकि इस संकट के लिए रूसी राष्ट्रपति पुतिन  भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो अपनी सत्ता मजबूत करने के बाद अब उसी तरह का विस्तारवाद करना चाह रहे हैं जो कभी सोवियत संघ की नीति थी जिसके अंतर्गत उसने पूर्वी यूरोप में वारसा संधि के द्वारा नाटो की टक्कर में एक ऐसा गुट बना रखा था जिसके जरिये वह अपने आर्थिक हितों को भी साधता रहा | यूक्रेन को बलपूर्वक हथियाने की पुतिन की रणनीति का मकसद दरअसल सोवियत संघ के बिखरने के बाद रूस के वर्चस्व में आई कमी की भरपाई करना है | यदि अमेरिका अभी भी अफगानिस्तान में उलझा होता तब शायद वह इस आग के पास जाने की जुर्रत न करता लेकिन अफगानिस्तान और ईरान दोनों में उसे निराशा और बदनामी मिलने से वह  रूस से बदला लेने का मौका तलाश रहा है | इसके पीछे एक कारण हाल ही में पुतिन द्वारा  चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ हुई वार्ता में ताईवान को  चीन का हिस्सा मान लेना भी है | दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध अमेरिका , जापान और आस्ट्रेलिया के साथ भारत की साझा मोर्चबंदी में भी रूस द्वारा चीन की तरफदारी ही की जा रही है | इस प्रकार जो चीन शीतयुद्ध के दौर में भी रूसी शिविर से दूर रहा अब वह भी बदलती वैश्विक परिस्थितियों में उससे जुड़ता दिख रहा है | अमेरिका ने इसीलिए रूस को उसी के निकट जाकर घेरने की बिसात बिछाई जिसमें यूक्रेन मैदान  बन गया | कुल मिलाकर बड़ी ताकतें दुनिया में शांति नहीं रहने देना चाहती | पश्चिम एशिया , अफगानिस्तान अथवा दक्षिण एशिया में तनाव बनाए रखने में सदैव इन्हीं  की भूमिका रहती है | जिस तरह से अमेरिका यूक्रेन सहित पूर्वी यूरोप के कुछ देशों को हथियार आदि दे रहा है और रूस यूक्रेन के विद्रोहियों की पीठ पर हाथ रखे है उससे पूरी कहानी समझी जा सकती है | लेकिन इस नए शीतयुद्ध से केवल यूरोप ही नहीं बल्कि भारत जैसे देश भी सीधे प्रभावित हो रहे हैं | यूक्रेन संकट की आहट मात्र से कच्चे तेल की कीमतें आसमान छूने लगीं | रूस से उसके निर्यात में कमी होने से पश्चिमी यूरोप की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ने की  आशंका से जर्मनी और फ़्रांस जैसे देश अमेरिका के विरुद्ध खड़े नजर आने लगे,  जो बड़ा बदलाव है | भारत  अपनी जरूरत का 80 फीसदी से ज्यादा कच्चा तेल आयात करता है  , इसलिए उसे इस संकट ने  झटके देना शुरू कर दिया | अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारने के फेर में भारत ने ईरान से सस्ता तेल खरीदने की व्यवस्था को स्थगित  कर रखा था | रूस भी सैन्य सामग्री की  आपूर्ति में हमारा बड़ा सहयोगी बना हुआ है जिसकी वजह से पश्चिमी ताकतें और अमेरिका के दबाव से हम काफी हद तक मुक्त हो सके | लेकिन यूक्रेन में  युद्ध हुआ तो   कोरोना संकट से निकलकर पुरानी रंगत में लौट रही भारत की अर्थव्यवस्था पर फिर ग्रहण लग जावेगा | इसके अलावा विदेश नीति के मोर्चे पर भी हमको अपनी भूमिका  का निर्धारण  बहुत  ही सावधानी  से करना होगा | यूक्रेन से नजदीकी का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि वहां हजारों भारतीय छात्र शिक्षारत हैं जिनको वापिस लौटने की सलाह दे दी गई है | रूस , चीन , अमेरिका और  जर्मनी के साथ ही यूक्रेन सहित मध्य एशिया के अनेक देश इस समय भारत के साथ व्यापार एवं अन्य  माध्यमों से जुड़े हैं |  युद्ध की स्थिति में इन सबके साथ समन्वय बनाए रखना बेहद कठिन होगा | वैश्विक शक्ति सन्तुलन  में भारत की भूमिका वर्तमान में बहुत ही महत्वपूर्ण हो चली है | कोरोना काल के बाद पूरे विश्व को भारत में वैसी ही संभावनाएं नजर आने लगी हैं जैसी बीती सदी के अंत तक चीन को लेकर महसूस की जा रही थीं | हालाँकि अभी भी ये सम्भावना है कि रूस और अमेरिका सीधे न टकराएँ लेकिन यदि ऐसा होता है तब भारत को अपने आर्थिक और रणनीतिक हित सुरक्षित रखने के लिए अभी से कार्ययोजना तैयार कर लेनी चाहिए क्योंकि मौजूदा हालात में हम रूस और अमेरिका दोनों के साथ काफी करीबी से जुड़े हुए हैं और उनमें से किसी से भी दूरी हमारे दूरगामी हितों के लिहाज से नुकसानदेह होगी | इस बारे में सबसे बड़ी बात ये है कि उदारीकरण के बाद बने  वैश्विक परिदृश्य में अब तटस्थ रहना बहुत कठिन है | और भारत भी अब उस हैसियत में है जब इस तरह के विवादों में अपनी भूमिका का प्रभावशाली तरीके से निर्वहन कर सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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