Saturday 30 June 2018

दुष्कर्म रोकने संस्कारों को पुनर्जीवित करना जरूरी

मंदसौर में एक अबोध बालिका के साथ हुए दुष्कर्म में शामिल नरपिशाच किस धर्म या जाति के थे ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना ये कि इस तरह के अपराध अब एक प्रवृत्ति के रूप में सामने आ रहे हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब देश के किसी न किसी हिस्से से दुष्कर्म की खबर न आती हो। मप्र तो वैसे भी इस मामले में काफी कुख्यात हो चुका है। 12 साल से कम की बालिका के साथ बलात्कार पर मृत्युदंड का प्रावधान होने पर भी दुष्कर्म की वारदातें नहीं रुकना कानून व्यवस्था के लिहाज से तो चिंताजनक है ही लेकिन उससे भी ज्यादा दुखद ये है कि इस तरह की राक्षसी मानसिकता जोर पकड़ती जा रही है। होने को बलात्कार पहले भी होते रहे हैं लेकिन बीते कुछ वर्षों से मासूम बालिकाओं के साथ दुष्कर्मों की घटनाओं में निरंतर वृद्धि एक बड़ी सामाजिक समस्या के तौर पर सामने आई है। जब भी ऐसी वारदात होती है समाचार माध्यम, सरकार और राजनीतिक दलों के अलावा पीडि़ता  के  जाति संगठन हरकत में आते हैं। पुलिस और प्रशासन भी मुस्तैद हो जाते हैं। आरोपियों को पकडऩे और कड़ा दंड देने की कवायद भी की जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश ये पूरी तरह से तात्कालिक होता है। घटना के कुछ दिन बाद ही सब कुछ भुला दिया जाता है। निर्भया कांड के उपरांत देश भर में गुस्से की लहर दौड़ पड़ी थी। सड़क से संसद तक दुष्कर्मियों के विरुद्ध कड़े से कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत भी बताई गई। संसद सहित अनेक राज्यों की विधानसभाओं ने अबोध बालिकाओं के साथ दुष्कर्म करने वालों को फाँसी पर लटकाने संबंधी कानून भी बना दिया लेकिन उसके बाद भी इस तरह के अपराध कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। दुष्कर्म में सजा हेतु नाबालिग लड़कों की उम्र संबंधी सीमा घटाने पर भी स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं आना ये साबित करता है कि चारित्रिक गिरावट संक्रामक रोग की तरह से होती जा रही है। इस तरह के अपराधों में वृद्धि से ये सवाल उठता है कि नारी, विशेष रूप से बेटियों को देवी स्वरूप मानने वाले समाज की मानसिकता में आ रहे इस परिवर्तन का कारण और उसे दूर करने का उपाय क्या है ? जैसा पूर्व में कहा गया कि केवल पुलिस और कानून के भरोसे बैठकर इस तरह के अपराध नहीं रोके सकते। इसके लिए समाज को अपनी उस भूमिका में लौटना होगा जो हमारे देश की पहिचान और परंपरा रही है। पतन की स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि निकट रक्त संबंधों से जुड़ी मर्यादा को तोडऩे का दुस्साहस तक होने लगा है। इसके लिए आधुनिकता उत्तरदायी है या सामाजिक ढांचे का कमजोर होना ये विश्लेषण का विषय हो सकता है किंतु इस तथ्य से तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि अबोध बालिकाओं के साथ होने वाला दुष्कर्म तेजी से फैला है। ये सिलसिला कहाँ जाकर रुकेगा कोई नहीं बता सकता लेकिन समाज इस बारे में मौन साधकर बैठ जाये ये भी उचित नहीं होगा। जरूरी है परिवार के भीतर दिए जाने वाले संस्कारों को पुनर्जीवित किया जावे क्योंकि बाल्य और किशोरावस्था के दौरान बच्चों को घर के भीतर मिलने वाली शिक्षा ही उनके जीवन की  दिशा को काफी हद तक तय कर देती है। ये बात सच है कि संयुक्त परिवार टूटने की वजह से बच्चों की परवरिश पहले जैसी नहीं रही किन्तु कोई भी माता-पिता ये नहीं चाहता कि उनका बेटा बड़ा होकर या उससे पहले ही बलात्कारी बनकर सामने आए। ये सब देखते हुए अच्छा यही होगा कि किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखने वाले बच्चों खासकर बेटों को लड़कियों के साथ व्यवहार करने की सीमा समझाई जाती रहे। आज का दौर खुलेपन का है लेकिन लड़के-लड़की अथवा महिला-पुरुष के बीच के संबंधों में मर्यादा और परस्पर सम्मान का जो भाव सभ्य समाज की आवश्यकता है, उसे बरकरार रखना ही होगा  वरना स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता में बदलने के  बाद अराजकता की स्थिति में पहुँच जाएगी जो कोई भी नहीं चाहेगा। भारतीय समाज पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव तेजी से बढऩे की वजह से समाज द्वारा निर्धारित अनेक मर्यादाएं टूटी या कमजोर हुई हैं लेकिन ये भी सही है कि विदेशी दासता के बावजूद भारत की आत्मा मरने से बची रही और उसी आधार पर ये विश्वास किया जा सकता है कि यदि समाज की महत्वपूर्ण इकाई के रूप में परिवार और उसे चलाने वाले अभिभावक अपने दायित्व के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध हों तो स्थिति को बहुत हद तक सुधारा जा सकता है। गरीब और अविकसित होने जैसा धब्बा तो फिर भी धोया जा सकता है लेकिन भारत के माथे पर दुष्कर्मी होने जैसा  कलंक लगना डूब मरने वाली बात होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 June 2018

बिना निर्यात बढ़ाए उद्धार संभव नहीं


यदि रिजर्व बैंक टेका न लगाता तब शायद अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया कल और लुढ़क जाता। निश्चित रूप से ये एक चिंताजनक विषय है। इसके पहले अगस्त 2013 में मनमोहन सरकार के कार्यकाल में डॉलर रु. 68.80 का बिका था जो उस  समय तक का सबसे ऊंचा भाव था लेकिन तदुपरांत अर्थव्यव्यस्था में सुधार होने से भाव गिरे किन्तु निर्यात के मुकाबले आयात अधिक होने से रुपया कभी भी विश्व की ताकतवर मुद्राओं के मुकाबले सम्मानजनक स्थिति में नहीं रह सका। इसकी मुख्य वजह सोने और कच्चे तेल का आयात है जिस पर विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। बीते दो दशक में चीनी सामान के बेतहाशा आयात ने घरेलू उद्योगों की कमर तोड़कर रख दी। छोटी-छोटी चीजें तक चीन से आने की वजह से व्यापार असंतुलन नियंत्रण से बाहर चला गया है। यद्यपि भारत में ऑटोमोबाइल और सॉफ्टवेयर उद्योग काफी पनपा लेकिन वह भी आयात -निर्यात के बीच के अंतर को पाटने में सफल नहीं हो सका। बीच में ईरान और रूस से कच्चे तेल के आयात के जो अनुबंध थे वे भी बदली हुई अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में काम नहीं आ रहे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सनकीपन के कारण पूरी दुनिया के बाजारों में उथलपुथल है। कहने को तो ट्रम्प का असली निशाना चीन है लेकिन दुनिया इतने करीब आ चुकी है कि कोई भी दूसरे से अछूता नहीं रह सकता। भारत में डॉलर की तुलना में रुपये की गिरावट पर राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप भी जमकर चल पड़े जो स्वाभाविक भी है। लेकिन अर्थशास्त्र को समझने वाले जान रहे हैं कि मुद्रा की कीमत में गिरावट केवल भारत में न होकर सर्वत्र हो रही है जिसका सीधा कारण वैश्विक परिस्थितियां हैं जो कब सुधरेंगी पता नहीं। लेकिन भारत इस बारे में निश्चिंत होकर बैठा नहीं रह सकता क्योंकि विदेशी मुद्रा के भंडार को बचाकर रखना ही किसी भी देश की आर्थिक सेहत के लिए जरूरी है। एक समय था जब हमारे देश में विदेशी मुद्रा का जबरदस्त संकट होता था। विदेश जाने वालों को बमुश्किल 8-10 डॉलर मिला करते थे किन्तु बीते 10-15 सालों में स्थिति काफी बेहतर हुई है। जिसके परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा का भंडार लबालब रहता है। इसमें विदेशी निवेशकों के साथ ही अप्रवासी भारतवंशियों का भरपूर योगदान है जो अधिक ब्याज के लालच में अपना धन भारत में जमा करते हैं । शेयर बाजार में भी विदेशी निवेशकों की खासी रुचि नजर आती है। लेकिन केवल डॉलर अथवा कोई अन्य विदेशी मुद्रा जमा रखने मात्र से अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं मानी जा सकती जब तक कि हमारा निर्यात प्रभावशाली ढंग से न बढ़े और यही वह क्षेत्र है जहां भारत पिछड़ जाता है।  निवेश अथवा जमा पूंजी के तौर पर आने वाली विदेशी मुद्रा स्थायी नहीं होती जबकि निर्यात से अर्जित होने वाले डॉलर और पाउंड वगैरह हमारी अपनी दौलत होने से अर्थव्यव्यस्था की रीढ़ को मजबूती प्रदान करते हैं। इसलिए समय आ गया है जब भारत को आयातक की जगह निर्यातक देश बनने की तरफ  कदम बढ़ाना चाहिए। यद्यपि हमारी और चीन की नीतियों, शासन व्यवस्था आदि में काफी अंतर है किंतु ये बात काबिले गौर है कि चीन विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तभी शामिल हो सका जब उसका निर्यात आसमान की बुलंदियों तक जा पहुंचा। भारत को यदि वैसी ही तरक्की करनी है तब उसे घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए कारगर नीतियां और उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार तथा ईमानदार प्रशासनिक ढांचा खड़ा करना होगा। वर्तमान स्थिति तो बेहद दयनीय है। छोटे उद्योगों को सरकारी अमला जिस तरह  खून के आंसू पिलाता है वह देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहित कम और निरुत्साहित ज्यादा किया जाता है। प्रधानमंत्री ने बीते कुछ बरस में स्टार्ट अप और मुद्रा योजना के अंतर्गत अरबों-खरबों के ऋण नव उद्यमियों को दिलवाए लेकिन उससे सकल घरेलू उत्पादन में कोई खास वृद्धि नहीं दिखाई दी। बैंकों का एनपीए जिस मात्रा में बढ़ा उसने भी अर्थतंत्र की कमर तोड़ दी जिसका असर साफ-साफ  दिखने लगा है। इस प्रकार डॉलर के सामने रुपये का लडख़ड़ाना चिंता की बात तो है लेकिन चौंकाने वाली नहीं क्योंकि तमाम दावों के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था आज भी उतनी ताकतवर नहीं है कि दुनिया की हलचलों से अप्रभावित रहे। विशेषज्ञों की मानें तब तो अभी रुपये में आगे भी गिरावट होगी क्योंकि ट्रम्प द्वारा शुरू ट्रेड वार को लेकर व्याप्त अनिश्चितता बरकरार है। कच्चे तेल के दाम चढऩे से भारत सदृश देश को भारी परेशानी होगी जो अपनी जरूरत का 85 फीसदी आयात करता है और इस स्थिति का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। डॉलर की कीमतों में रिकार्ड उछाल से भारत किस तरह निबटता है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि आगामी महीनों में लगातार चुनाव होने से केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकेगी। उसके लिए ये चिंता का विषय है कि जनता के बड़े वर्ग में अब Lऐसे मुद्दों पर भी चर्चा होती है और वे मतदान के दिन निर्णय को प्रभावित भी करते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 June 2018

उच्च शिक्षा आयोग : केवल नाम बदलना काफी नहीं


शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है? बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जो जुबान पर चढ़ जाने से उनमें बदलाव अस्वाभाविक और असहज प्रतीत होता है। लेकिन नाम तो सिर्फ  पहिचान देता है जबकि सम्मान काम से मिलता है। भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग द्वारा यूजीसी (विवि अनुदान आयोग) का नाम परिवर्तित कर उच्च शिक्षा आयोग करने की घोषणा के संबंध में भी यही बात विचारणीय है। वर्तमान अनुदान आयोग के कार्य और अधिकार क्षेत्र को लेकर काफी समय से विवाद चलता आया है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की घुसपैठ ने शिक्षा को पूरी तरह व्यवसाय बनाकर रख दिया। पहले तो बात केवल महाविद्यालयों तक सीमित थी किन्तु तथाकथित उदारीकरण ने शिक्षा को भी मुनाफाखोरी का जरिया बनाकर रख दिया जिसके परिणामस्वरूप देश भर में निजी क्षेत्र के तकनीकी शिक्षा संस्थानों और अब निजी विश्वविद्यालयों की कतार लग गई। इंजीनियरिंग कालेज तो कुकुरमुत्ते जैसे जहां देखो वहाँ खुल गए। निजी मेडिकल कालेजों की भी बाढ़ सी आ गई और फिर शुरू हुआ नोट छापने का धंधा। यूजीसी को उसके नाम के अनुरूप केवल अनुदान बाँटने वाली संस्था समझा जाता था किन्तु वही देश में उच्च शिक्षा संबंधी समस्त व्यवस्था का नियमन और संचालन करता रहा लेकिन काफी समय से ये महसूस किया जाने लगा था कि उसका कार्य क्षेत्र पुन: परिभाषित और निर्धारित किया जावे। ऐसा लगता है सरकार ने जिस नए संस्थान की घोषणा की उसका अधिकार क्षेत्र अनुदान बाँटने से ऊपर उठकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढाने के लिए समुचित व्यवस्था करना होगा। उच्च शिक्षा देश के भविष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। ये किसी से छिपा नहीं है। सबसे बड़ी चिंता उसकी गुणवत्ता में आ रही गिरावट की है। हालांकि निजी क्षेत्र के भी अनेक ऐसे संस्थान हैं जिन्हें उच्च स्तरीय कहा जा सकता है लेकिन उनमें व्यवसायिक सोच हावी है, ये कहना गलत नहीं होगा। बड़े औद्योगिक घरानों के साथ राजनेताओं ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र को कमाई का जरिया बनाकर औरों को भी ललचा दिया जिसके कारण देश में एक शिक्षा माफिया उत्पन्न हो गया। यूजीसी की जगह जिस उच्च शिक्षा आयोग का प्रस्ताव सामने आया है उसका कार्य केवल मान्यता, अनुदान और वेतनमान न होकर उच्च शिक्षा से जुड़े हर पहलू पर ध्यान देकर फर्जीबाड़े को रोकना बताया जा रहा है। आदेशों की अवहेलना करने वालों को जेल की सजा जैसे प्रावधान कितने कारगर होंगे ये अभी से कहना कठिन है लेकिन इतना तय है कि नई संस्था को नियमों के पालन में लापरवाही पर दंडात्मक कार्रवाई का अधिकार होने पर धंधेबाज किस्म के लोगों की कारस्तानी पर लगाम लग सकेगी बशर्ते वह भी भयादोहन के जरिये कमाई का जरिया न बन जाये। एक जमाना था जब समाज के प्रतिष्ठित और सेवाभावी व्यक्ति और संस्थाएं शिक्षण संस्थाओं के जरिये जनसेवा करती थीं जिसके पीछे धनोपार्जन का कोई मकसद नहीं होता था लेकिन समय के साथ ज्यों ज्यों समाज का माहौल बदला त्यों-त्यों पैसा कमाने की हवस भी चरम पर जा पहुंची और शिक्षा पूरी तरह से कारोबार में तब्दील हो गई। नया आयोग इन विसंगतियों को दूर करने में कितना सहायक हो सकेगा ये अंदाज लगाना तो मुश्किल है क्योंकि हमारे देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक का व्यवसायीकरण होने के साथ ही राजनीतिकरण भी काफी हद तक हो चुका है जिसकी वजह से सरकार द्वारा की जाने वाली सख्ती को उसी में बैठे लोग पलीता लगाने से बाज नहीं आते। और फिर अभी तो नए प्रावधान को संसद की स्वीकृति मिलनी शेष है। यदि विपक्ष ने अड़ंगा लगाया तो राज्यसभा में उसे अटकते देर नहीं लगेगी। वैसे चाहता हर कोई है कि शिक्षा विशेष रूप से उच्च शिक्षा का स्तर किसी भी कीमत पर बनाकर रखा जावे। यूजीसी उसमें कितना सक्षम रहा इस पर मगजमारी करने की बजाय बेहतर होगा भविष्य सुधार लिया जावे। लेकिन सरकार और उसके सलाहकार यदि ये मानकर चल रहे हों कि नाम और दायरा बदलने मात्र से शिक्षा जगत में रामराज का आगमन हो जायेगा तो वे मुंगेरीलाल की तरह सपने देख रहे हैं। उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि इस क्षेत्र में भी माफिया का उदय हो चुका था जिसकी जड़ें काफी गहराई तक फैल गई हैं और चाहे यूजीसी हो या राज्यों के शिक्षा विभाग, सभी इस माफिया के शिकंजे में फंसे हैं। इसलिए कोई भी नई व्यवस्था बनाने के साथ ही ये देखना भी जरूरी होगा कि वह शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में गंदगी फैलाने वालों से लडऩे में कितनी सफल और सक्षम होगी? ऐसा सोचना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि शिक्षा जगत में बीते 70 साल में जितने प्रयोग हुए उतने शायद ही किसी अन्य विभाग में हुए होंगे। बावजूद उसके यदि उच्च शिक्षा भी भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी के मकडज़ाल में उलझकर रह गई तब ये मानना पड़ेगा कि नीति लागू करने वालों की नीयत में खोट होती है या फिर उनके निर्णयों में सही सोच और व्यवहारिकता का अभाव होता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 June 2018

बैंकों की साख लौटाना जरूरी

विकास दर को लेकर लगाए जा रहे आशावादी अनुमानों के बीच ये खबर चिन्ताजनक है  कि इस वर्ष बैंकिंग सेक्टर की हालत और खराब होगी तथा एनपीए बढ़ जावेगा। बैंकों के उच्च प्रबन्धन में बैठे अधिकारियों के व्यक्तिगत रूप से लिप्त हो जाने के प्रमाण सामने आने से अब ये स्पष्ट हो गया है कि जिनको देश की जमापूंजी की सुरक्षा का दायित्व दिया गया था वे ही बेईमान साबित हुए। चंदा कोचर बैंकिंग सेक्टर का बड़ा सम्मानित नाम था लेकिन अपने पति को लाभ पहुंचाने के फेर में उन्होंने भी गलत सलत काम किये। कुछ बैंकों के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष एवम अन्य वरिष्ठ अधिकारी अपने कार्यकाल के दौरान किये घपलों के कारण गिरफ्त में आ गए। कुल मिलाकर विजय माल्या और नीरव मोदी के लघु संस्करणों की भरमार होने से बैंकिंग क्षेत्र की कमर टूटने की स्थिति आ गई है। इसके लिए कोई एक या कुछ लोग नहीं वरन पूरी बैंकिंग व्यवस्था ही जिम्मेदार है क्योंकि अरबों के घोटाले तब तक सम्भव नहीं जब तक शीर्ष पदों पर बैठे सफेदपोश उनमें लिप्त नहीं हों। ऑडिट प्रणाली की भूमिका और ईमानदारी भी संशय के घेरे  में आ चुकी है। कहने का आशय  केवल इतना ही है कि जिस सेक्टर पर समूची अर्थव्यव्यस्था का भार हो यदि वही लडख़ड़ाती नजर आने लगे तब विकास दर में वृद्धि के सपने साकार नहीं सकते। बैंकिंग घोटाले यूँ तो अमेरिका और जापान तक में हुए हैं लेकिन भारत जैसे विकासशील देश के पास ऐसे झटके झेलने की गुंजाइश नहीं है। सबसे बड़ी बात आम जमाकर्ता का बैंकों में घटता भरोसा है। विजय माल्या और नीरव मोदी कांड ने इस क्षेत्र की साख पर जो धब्बा लगाया वह आसानी से धुल पाना सम्भव नहीं है। लेकिन इस सेक्टर की विश्वसनीयता को पुनस्र्थापित करना बहुत जरूरी है वरना अर्थव्यव्यस्था को पटरी से उतरते देर नहीं लगेगी ।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है .......

मप्र विधानसभा का मानसून सत्र दो दिन में खत्म हो गया जबकि उसे 5 रोज चलना था। सत्र में सबसे जरूरी काम था सरकार द्वारा अनुपूरक बजट पारित करवाना। इसके अलावा भी कुछ विधेयक रखे गए और समुचित चर्चा के बगैर स्वीकृत कर दिए गए। अंतिम दिवस कांग्रेस अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहती थी और सत्ता पक्ष आपातकाल पर चर्चा। खींचातानी के चलते अध्यक्ष ने सत्र के लिए निर्धारित विधायी कार्य सम्पन्न हो जाने की घोषणा करते हुए सदन अनिश्चितकालीन स्थगित कर दिया। कहा जा रहा है ये इतिहास का सबसे छोटा सत्र था। वैसे यदि पूरे 5 दिन वह चल जाता तब भी सदन में किसी सार्थक चर्चा या बहस की उम्मीद करना बेमानी है। पिछली विधानसभा में भी इसी तरह की नाटकीयता का नज़ारा देखने आया था। विपक्ष और सत्ता पक्ष इसके लिए एक दूसरे को दोषारोपित करते हैं लेकिन यथार्थ ये है कि सदन को मजाक बनाने में दोनों का बराबरी का योगदान है। मप्र की जनता को याद भी नहीं होगा कि विधानसभा में पिछली बार किसी विषय पर दोनों पक्षों के बीच कोई स्तरीय चर्चा कब हुई थी। सदन में अच्छे भाषण अव्वल तो होते नहीं हैं और यदि हों तो उन्हें सुनने की बजाय हंगामे के रूप में व्यवधान डाला जाता है। इस वजह से सदन में जनहित और प्रदेश की बेहतरी को लेकर विचारों के आदान-प्रदान की बजाय आरोप-प्रत्यारोप और शोरगुल ही होता रहता है। मौजूदा विधानसभा अपने आखिरी दौर में है। सभी सदस्य अगला चुनाव लडऩे के लिए तैयारी करने में जुट गये हैं। ऐसे में अपेक्षा थी कि वे इस सत्र का बेहतर उपयोग करते। लेकिन उनका ध्यान कहीं और होने से 5 दिन का अधिवेशन मात्र 2 दिन में समाप्त कर दिया गया। विधायी कार्य भी जिस फटाफट तरीके से निपटाए गए वह भी कोई आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती। थोक के भाव विधेयक पारित करना साबित करता है कि विधायकों की सदन के संचालन में कोई रुचि नहीं बची। सत्ता और विपक्ष दोनों इस मामले में अपनी-अपनी जिम्मेदारी से भागते हैं जबकि संसदीय प्रणाली में सदन का विधिवत संचालन करना दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी है। समय-समय पर विधायकों का प्रतिनिधिमंडल अध्यक्ष के नेतृत्व में अन्य देशों की संसदीय प्रणाली का अध्ययन एवं प्रत्यक्ष अवलोकन करने भेज जाता है। उसमें सभी दलों के सदस्यों को अवसर मिलता है लेकिन लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी वे केवल सैर-सपाटा कर लौट आते हैं। सदन में उनके व्यवहार और प्रदर्शन में रत्ती भर सुधार नहीं दिखाई देता। यही कारण है कि विधानसभा में अब पहले सरीखी बहस और चर्चा देखने को नहीं मिलती। अतीत में मप्र विधानसभा में सत्ता और विपक्ष में एक से एक धाकड़ विधायक रहे हैं। दोनों तरफ  से तीखी बहस देखने मिलती थी। अविश्वास प्रस्ताव सहित अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर दर्शक दीर्घा खचाखच भरी हुई रहती थी लेकिन अब तो सत्र कब शुरु और कब समाप्त हो जाता है ये पता ही नहीं चलता। मप्र विधानसभा के मानसून सत्र की समाप्ति जिस तरह से हुई वह निराशाजनक ही कहा जायेगा। इससे जनप्रतिनिधियों की संसदीय प्रक्रिया के प्रति लापरवाही एक बार फिर सामने आ गई है। ये हाल मप्र का ही हो ऐसा नहीं है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सदन में नाममात्र की उपस्थिति हाल ही में चर्चा में आई थी। संसद की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। जनता के धन से आयोजित इन अधिवेशनों के साथ होने वाला ये खिलबाड़ लोकतंत्र के प्रति आस्था में ह्रास की स्थिति का आधार बन रहा है। यदि सदन की बैठकों का जनप्रतिनिधियों की नजर में कोई महत्व अथवा सम्मान नहीं है तो बजाय विधानसभा में बैठने के वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये सदन चला लिया जाए। कम से कम सरकारी खजाने के करोड़ों रुपये तो बच जाएंगे। स्व. दुष्यंत कुमार के एक लोकप्रिय शेर की पंक्ति है-सिर्फ  हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। ...लेकिन जनता के चुने हुए प्रतिनिधि इसके उलट सिर्फ  हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है वाली सोच पर चल रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 26 June 2018

नई पीढ़ी को आपातकाल के इतिहास से परिचित करना जरूरी


25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात इस देश पर बहुत भारी पड़ी। उसके पहले 12 जून को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1971में श्रीमती गांधी का रायबरेली सीट से लोकसभा के लिए निर्वाचन अवैध घोषित कर राजनीतिक हलचल मचा दी थी। 1974 से चल रहे छात्र आंदोलन के साथ विपक्षी दलों के जुड़ाव ने देश भर में इंदिरा जी के विरुद्ध वातावरण बना रखा था। लायसेंस कांड जैसे भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर संसद चल नहीं पा रही थी। जयप्रकाश नारायण द्वारा सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान पर छात्र और युवक भी आंदोलित थे। 6 मार्च 1975 को दिल्ली में आयोजित सर्वदलीय रैली में जनसैलाब उमड़ पड़ा था। लालकिले से बोट क्लब तक के रास्ते पर पैर रखने की जगह नहीं बची थी। ऐसे में जब 12 जून को न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती गांधी के लोकसभा निर्वाचन को शून्य करने जैसा दुस्साहसिक फैसला सुनाया तो बजाय उसका सम्मान करने के श्रीमती गांधी ने हठधर्मिता दिखाई। श्री सिन्हा को सीआईए का एजेन्ट बताकऱ उनके पुतले जलाए गए। यहां तक कहा गया कि करोड़ों लोगों द्वारा चुने प्रधानमंत्री को एक अदना सा जज पद से  कैसे हटा सकता है ? और फिर 25 जून की मध्यरात्रि राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को जगाकर उनसे आपातकाल लगाए जाने सम्बन्धी अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवा लिए गए। उल्लेखनीय बात ये थी कि उस अध्यादेश को मंत्रिपरिषद से अनुमोदित करवाए बिना ही महामहिम के समक्ष हस्ताक्षर हेतु प्रस्तुत कर दिया गया। कहा जाता है कि श्री अहमद ने जब प्रक्रिया पर ऐतराज किया तब उन्हें धमकाया गया, यद्यपि इसकी पुष्टि नहीं हो सकी। 26 जून की सुबह तक देश में लोकतंत्र एक व्यक्ति की तानाशाही के अधीन हो चुका था। विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं से लेकर ग्रामीण स्तर तक के कांग्रेस विरोधी कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गये। शुरू शुरू में किसी को कुछ भी समझ नहीं आया लेकिन दोपहर तक माजरा साफ  हो चुका था। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई। विपक्षी विचारधारा के पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। समाचार पत्रों के प्रकाशन के पहले प्रशासनिक अधिकारी उसकी जांच करते थे। सरकार विरोधी कोई लेख या समाचार प्रकाशित करना अपराध माना जाता था। जनता के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए और फिर विपक्ष विहीन संसद में इंदिरा जी ने अपने और अपनी सरकार के पक्ष में मनमर्जी फैसले करवाते हुए देश में लोकतंत्र की हत्या करने जैसा पाप कर डाला। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो चाटुकारिता की पराकाष्ठा करते हुए कह दिया कि इंदिरा ही भारत और भारत ही इन्दिरा हैं। देश इस अप्रत्याशित और अकल्पनीय स्थिति से हतप्रभ और भयभीत था। लाखों लोगों के जेल चले जाने से हर खासो-आम के मन में खौफ  बैठ गया। सख्ती के कुछ प्रत्यक्ष लाभ भी हुए कि सरकारी अमला चुस्त-दुरुस्त हो गया। दफ्तर और रेलगाडिय़ां समय की पाबंद दिखीं। कानून और पुलिस के प्रति डर के कारण अपराधों में भी कमी आई। दरअसल आपातकाल के औचित्य को साबित करने के लिए अपराधी तत्वों को भी पकड़ लिया गया था। लोकतंत्र पर हुए जबरदस्त प्रहार से सहमे देश को एकमात्र उम्मीद थी सर्वोदयी नेता विनोबा भावे से जो उन दिनों मौन धारण किये थे। लेकिन जब उन्होंने मौन तोड़ा तो बजाय आपातकाल का विरोध करने के उसे अनुशासन पर्व कहकर इंदिरा जी के हाथ और हौसले दोनों मजबूत कर दिए। उसी के बाद राष्ट्रसंत कहे जाने वाले विनोबा जी को बहुत से लोग सरकारी सन्त कहने लग गए। 1976 में लोकसभा चुनाव होना थे लेकिन उसे एक वर्ष टाल दिया गया। जब इंदिरा जी को लगा कि देश में विरोध करने वालों की हिम्मत जवाब दे गई है और जनता भी भयवश उनके विरुद्ध नहीं खड़ी होगी तब उन्होंने जनवरी 1977 में अचानक लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी। जेल में बंद राजनीतिक मीसाबंदी छोड़ दिए गए। काँग्रेस को उम्मीद थी कि बिखरा हुआ विपक्ष चुनाव में चारों खाने चित्त हो जाएगा और इस तरह तानाशाही पर लोकशाही की छाप लगाने में वह सफल हो जाएगी लेकिन जनता पार्टी के रूप में विपक्षी दल एक होकर मैदान में उतरे और आपातकाल के विरुद्ध ऐतिहासिक जनादेश आया। पहली मर्तबा कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई। इन्दिरा जी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी बन चुके बेटे संजय  क्रमश: रायबरेली और अमेठी से हार गये। मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसने लोकतंत्र की बहाली के साथ ही आपातकाल की वापसी के रास्ते स्थायी तौर पर बन्द कर दिए। नेताओं की महत्वाकांक्षा और स्वनिर्मित अंतर्विरोधों के चलते वह सरकार 27 महीनों बाद गिर गई।  गैर कांग्रेसवाद के झंडाबरदार कांग्रेस की गोद  में बैठ गए। 1980 में इंदिरा जी फिर प्रधानमंत्री बन गर्इं किन्तु कुछ माह बाद ही संजय गांधी चल बसे और राजीव के रूप में एक और गांधी मैदान में आया। उसके बाद से देश में राजनीतिक माहौल समय-समय पर बदलता रहा। 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद कांग्रेस महाशक्ति के रूप में उभरी किन्तु मात्र 5 साल बाद राजीव गांधी को लोगों ने सत्ता से हटा दिया। उसके बाद  का इतिहास तो नई पीढ़ी को पता है। लेकिन आज जब ये बात प्रचारित की जाती है कि लोकतंत्र खतरे में है और समाचार माध्यम सहित न्यायपालिका की आज़ादी पर प्रहार हो रहा है तब ये देखकर आश्चर्य होता है कि ये वही लोग हैं  जो आपातकाल को स्वर्णयुग मानते हैं। सूचना क्रांति के इस दौर में जब सोशल मीडिया के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित हो चुकी हो तब इस तरह की बात अविश्वसनीय लगती है लेकिन कुछ पढ़े-लिखे लोग भी जब आपातकाल का महिमामंडन करते हैं तब इस बात का डर सताने लगता है कि तानाशाही मानसिकता के बीज अभी भी कहीं न कहीं दबे हुए हैं जो जरा सा खाद पानी मिलते ही अंकुरित हो सकते हैं। इसीलिए जरूरी है नौजवान पीढ़ी को उन काले दिनों की जानकारी देते हुए लोकतंत्र पर आने वाले किसी भी संकट से लडऩे के लिए तैयार रखा जाए। 43 साल पहले की घटना को याद रखने और याद दिलाने के औचित्य पर बहुत लोग सवाल उठाते हैं किन्तु जिस तरह आज़ादी का जश्न मनाते समय उन कारणों को याद करना आवश्यक है जिनकी वजह से देश गुलाम हुआ था उसी तरह आपातकाल के सही इतिहास की जानकारी नई पीढ़ी को दी जानी चाहिए जिससे कि उसे ये समझ आ जाए कि लोकतंत्र का महत्व क्या है और उसे खतरे में डालने वाली मानसिकता वाले कौन लोग हैं?

-रवीन्द्र वाजपेयी