Wednesday 27 June 2018

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है .......

मप्र विधानसभा का मानसून सत्र दो दिन में खत्म हो गया जबकि उसे 5 रोज चलना था। सत्र में सबसे जरूरी काम था सरकार द्वारा अनुपूरक बजट पारित करवाना। इसके अलावा भी कुछ विधेयक रखे गए और समुचित चर्चा के बगैर स्वीकृत कर दिए गए। अंतिम दिवस कांग्रेस अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहती थी और सत्ता पक्ष आपातकाल पर चर्चा। खींचातानी के चलते अध्यक्ष ने सत्र के लिए निर्धारित विधायी कार्य सम्पन्न हो जाने की घोषणा करते हुए सदन अनिश्चितकालीन स्थगित कर दिया। कहा जा रहा है ये इतिहास का सबसे छोटा सत्र था। वैसे यदि पूरे 5 दिन वह चल जाता तब भी सदन में किसी सार्थक चर्चा या बहस की उम्मीद करना बेमानी है। पिछली विधानसभा में भी इसी तरह की नाटकीयता का नज़ारा देखने आया था। विपक्ष और सत्ता पक्ष इसके लिए एक दूसरे को दोषारोपित करते हैं लेकिन यथार्थ ये है कि सदन को मजाक बनाने में दोनों का बराबरी का योगदान है। मप्र की जनता को याद भी नहीं होगा कि विधानसभा में पिछली बार किसी विषय पर दोनों पक्षों के बीच कोई स्तरीय चर्चा कब हुई थी। सदन में अच्छे भाषण अव्वल तो होते नहीं हैं और यदि हों तो उन्हें सुनने की बजाय हंगामे के रूप में व्यवधान डाला जाता है। इस वजह से सदन में जनहित और प्रदेश की बेहतरी को लेकर विचारों के आदान-प्रदान की बजाय आरोप-प्रत्यारोप और शोरगुल ही होता रहता है। मौजूदा विधानसभा अपने आखिरी दौर में है। सभी सदस्य अगला चुनाव लडऩे के लिए तैयारी करने में जुट गये हैं। ऐसे में अपेक्षा थी कि वे इस सत्र का बेहतर उपयोग करते। लेकिन उनका ध्यान कहीं और होने से 5 दिन का अधिवेशन मात्र 2 दिन में समाप्त कर दिया गया। विधायी कार्य भी जिस फटाफट तरीके से निपटाए गए वह भी कोई आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती। थोक के भाव विधेयक पारित करना साबित करता है कि विधायकों की सदन के संचालन में कोई रुचि नहीं बची। सत्ता और विपक्ष दोनों इस मामले में अपनी-अपनी जिम्मेदारी से भागते हैं जबकि संसदीय प्रणाली में सदन का विधिवत संचालन करना दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी है। समय-समय पर विधायकों का प्रतिनिधिमंडल अध्यक्ष के नेतृत्व में अन्य देशों की संसदीय प्रणाली का अध्ययन एवं प्रत्यक्ष अवलोकन करने भेज जाता है। उसमें सभी दलों के सदस्यों को अवसर मिलता है लेकिन लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी वे केवल सैर-सपाटा कर लौट आते हैं। सदन में उनके व्यवहार और प्रदर्शन में रत्ती भर सुधार नहीं दिखाई देता। यही कारण है कि विधानसभा में अब पहले सरीखी बहस और चर्चा देखने को नहीं मिलती। अतीत में मप्र विधानसभा में सत्ता और विपक्ष में एक से एक धाकड़ विधायक रहे हैं। दोनों तरफ  से तीखी बहस देखने मिलती थी। अविश्वास प्रस्ताव सहित अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर दर्शक दीर्घा खचाखच भरी हुई रहती थी लेकिन अब तो सत्र कब शुरु और कब समाप्त हो जाता है ये पता ही नहीं चलता। मप्र विधानसभा के मानसून सत्र की समाप्ति जिस तरह से हुई वह निराशाजनक ही कहा जायेगा। इससे जनप्रतिनिधियों की संसदीय प्रक्रिया के प्रति लापरवाही एक बार फिर सामने आ गई है। ये हाल मप्र का ही हो ऐसा नहीं है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सदन में नाममात्र की उपस्थिति हाल ही में चर्चा में आई थी। संसद की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। जनता के धन से आयोजित इन अधिवेशनों के साथ होने वाला ये खिलबाड़ लोकतंत्र के प्रति आस्था में ह्रास की स्थिति का आधार बन रहा है। यदि सदन की बैठकों का जनप्रतिनिधियों की नजर में कोई महत्व अथवा सम्मान नहीं है तो बजाय विधानसभा में बैठने के वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये सदन चला लिया जाए। कम से कम सरकारी खजाने के करोड़ों रुपये तो बच जाएंगे। स्व. दुष्यंत कुमार के एक लोकप्रिय शेर की पंक्ति है-सिर्फ  हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। ...लेकिन जनता के चुने हुए प्रतिनिधि इसके उलट सिर्फ  हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है वाली सोच पर चल रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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