Monday 18 June 2018

नीति आयोग : आँकड़ों की हायब्रिड फसल से पेट नहीं भरता


नीति आयोग की सालाना बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिवस विकास दर को दहाई के अंकों अर्थात 10  फीसदी और उससे भी ऊपर पहुंचाने की चुनौती पेश की । 26 राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी में उन्होंने पिछड़े क्षेत्रों के उन्नयन पर बल देते हुए कहा कि 115 ऐसे जिलों की पहिचान कर ली गई है जिनमें विकास का सवेरा लाने की जरूरत है । इन जिलों को उन्होंने आकांक्षी जि़लों का नाम दिया है । नीति आयोग पुराने योजना आयोग को भंग कर बनाया गया था । इसमें सभी राज्यों को प्रतिनिधित्व दिया गया है । संसाधनों के बंटवारे का तरीका भी बदला है जिसके कारण पिछली यूपीए सरकार के अंतिम वर्ष में मिली राशि से दोगुना अर्थात 11 लाख करोड़ रु. राज्यों को इस वर्ष केंद्र से मिलेंगे । शिक्षा और स्वास्थ्य सहित अन्य केंद्रीय योजनाओं को सभी ग्रामों में एक साथ संचालित करने की बात भी कही गई । श्री मोदी का मुख्य फोकस कुल मिलाकर 2022 तक न्यू इंडिया की परिकल्पना को मूर्त रूप देने पर रहा । ऐसी बैठकों से आम तौर पर कोई निचोड़ निकालना सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि उनकी विषयवस्तु सरकारी शैली में तैयार की जाती है । प्रधानमंत्री चूंकि खुद योजनाओं के क्रियान्वयन में रुचि लेते हैं इसलिए जरूर कुछ जीवंतता नीति आयोग की गतिविधियों में प्रतीत होने  लगी है वरना योजना आयोग तो सफेद हाथी के रूप में कुख्यात हो चुका था। खास तौर पर मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने तो उसे मजाक का पात्र बनाकर रख दिया था। नीति आयोग को संघीय ढांचे के अनुरूप ढालने के जो भी परिणाम हुए उनका मूल्यांकन करने का ये सही समय नहीं है क्योंकि राजनीतिक मतभिन्नता के कारण नीतिगत एकता का देश में अभाव है । मसलन कल भी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू ने विशेष राज्य का दर्जा मांगा जिसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का तत्काल समर्थन भी मिल गया । उल्लेखनीय है इसी मुद्दे पर श्री नायडू की पार्टी तेलुगु देशम एनडीए से अलग हुई थी तथा संसद के बजट सत्र में अनवरत हंगामे की वजह से कोई कामकाज नहीं हो सका । बिहार चुनाव के समय भी विशेष राज्य का दर्जा एक मुद्दा बना था लेकिन बाद में एनडीए में शरीक हो जाने से नीतीश कुमार कुछ नरम पड़ गए । गत दिवस आंध्र की मांग को समर्थन देकर उन्होंने मोदी सरकार को एक तरह से संकेत दे दिया कि वे बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग भूले नहीं हैं और यदि चंद्राबाबू को पटाने के लिए आंध्र को विशेष राज्य की श्रेणी में रखा जाता है तब बिहार भी अपना हक मांगने में पीछे नहीं रहेगा । इस विषय के अलावा नीति आयोग की बैठक में श्री मोदी ने जो विषय रखे वे केंद्र की उन नीतियों पर केंद्रित रहे जिनका सीधा संबंध आम आदमी से है । शिक्षा , स्वास्थ्य, पीने का पानी , आवागमन के  साधन , बिजली और रोजगार जैसे विषय आज भी करोड़ों लोगों के लिए आसमान के तारे समान हैं । प्रधानमंत्री ने जिस न्यू इंडिया का दृष्टिपत्र देश के समक्ष रखा वह चुनावी मुद्दा न होकर देश के उज्ज्वल भविष्य का आधार बन सकता है, बशर्ते उस पर ईमानदारी से काम हो सके । विकास संबंधी किसी भी विषय पर राजनीति से ऊपर उठकर चिंतन और काम होना चाहिए । विषमता के चलते ही विशेष राज्य के दर्जे की मांग उठा करती है । नीति आयोग को अस्तित्व में आये चार वर्ष ही हुए हैं जिनमें  शुरुवाती काफी समय तो गठन संबंधी औपचारिकताओं में चला गया । ये बात भी सही है कि पूरे पांच वर्ष तक चुनावी मौसम बना रहने से नीति आयोग को काम करने की अपेक्षित छूट नहीं मिल पाई। बहरहाल बीते वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही में विकास दर के 7.5 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर जाने की वजह से उत्साहित प्रधानमंत्री अगर उसके दहाई में पहुंचने का लक्ष्य तय कर रहे हैं तो इससे लगता है सरकार का आत्मविश्वास बढ़ा है । नोटबन्दी के बाद मुद्रा संकुचन की जो स्थिति बनी वह दूर हो चुकी है तथा बाज़ार में मुद्रा की भरपूर उपलब्धता है । जीएसटी से उत्पन्न पेचीदगियां भी  धीरे - धीरे दूर होने लगी हैं । सरकार का राजस्व संग्रह प्रत्यक्ष करों के रूप में बढ़ा है । यदि मानसून अनुमान के मुताबिक संतोषजनक रहा तो कृषि क्षेत्र में आई गिरावट दूर हो सकेगी । निर्माण  और ऑटोमोबाइल क्षेत्र में भी गति आई है । महंगाई भी काफी हद तक नियंत्रण में है । विदेशी निवेश आने से पूंजी बाजार भी राहत महसूस कर रहा है । उस आधार पर विकास दर के 10 फीसदी या उससे ऊपर निकलने के आसार हो सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री ही नहीं अपितु राज्य सरकारों को ये सोचना होगा कि विकास दर रूपी मृगमरीचिका के पीछे भागने के लिए आंकड़ों की हायब्रिड फसल तैयार करने से आम जनता को सीधे लाभ हो रहा है कि नहीं ? श्री मोदी का दूरगामी लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना गलत नहीं है लेकिन  विकास के साइड इफेक्ट के तौर पर विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के घटने की जो स्थिति उभरकर आ रही है वह डरा देने वाली है । निजी क्षेत्र की कम्पनियों के बढ़ते मुनाफे को छोड़ भी दें किन्तु सरकारी क्षेत्र के बैंक और तेल कंपनियों की मुनाफाखोरी लूटमार का एहसास करवा रही है । विकास दर बढऩे  का अर्थ संतुलित विकास के रूप में सामने आना जरूरी है। प्रधानमंत्री द्वारा अंतिम छोर पर खड़े देशवासी की बेहतरी आह्वान सही है लेकिन नीति आयोग में बैठे मुख्यमंत्रियों की मुख्य चिंता येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने की है और उसके लिए वे पूरे आर्थिक नियोजन को रद्दी की टोकरी में फेंकने में संकोच नहीं करते । मोदी सरकार भी कोई स्वर्ग से तो अवतरित हुई नहीं है । उसकी निगाह भी ले देकर तो चुनाव पर ही है । ऐसे में मुफ्तखोरी की जिन योजनाओं और कार्यक्रमों पर अरबों रुपये बहाए जाते हैं वे विकास प्रक्रिया में गति अवरोधक बनते जा रहे हैं । यही वजह है कि देश में प्रति व्यक्ति उत्पादकता का आंकड़ा नहीं बढ़ रहा और लागत खर्च ज्यादा होने से भारतीय उद्योग प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पाते । अमेरिका और चीन के बीच छिड़े ट्रेड वार से भी भारतीय हित प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। ऐसे में नीति आयोग में जो कुछ हुआ उसे सतही चिन्तन तक सीमित न रखते हुए व्यवहार के तौर पर उतारने की प्रतिबद्धता होनी चाहिए क्योंकि विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिस पर सत्ता परिवर्तन और राजनीतिक मतभेदों का कोई असर नहीं पडऩा चाहिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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