Wednesday 31 May 2023

सुलह के बाद भी पायलट और गहलोत द्वारा लगाए आरोप यथावत हैं


राजस्थान में कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के बीच चल रहे सियासी घमासान को अमेरिका जाने से पहले राहुल गांधी खत्म करवा गए | बैठक के बाद अशोक गहलोत और सचिन पायलट मुस्कराते हुए बाहर आये और आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत के लिए जुटने की बात कही | कुछ समय पहले तक एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले ये नेता बीते पांच साल से लड़ते आ रहे हैं | इसका प्रमुख कारण ये है कि 2018 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने श्री पायलट के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए लड़ा था | चुनाव के पहले से ही उन्होंने काफी मेहनत की । ये कहना भी गलत न होगा कि भाजपा सरकार की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के मुकाबले में जनता ने युवा सचिन को पसंद किया | ऐसे में उनको उम्मीद रही कि उन्हें मुख्यमंत्री पद हासिल होगा किन्तु बाजी मार ले गये जादूगर से राजनेता बने अशोक गहलोत । सचिन को भविष्य का हवाला देते हुए उपमुख्यमंत्री बना दिया गया | यहाँ भी श्री गहलोत ने जादूगरी दिखाई और सचिन को अपेक्षित शक्ति और महत्व नहीं दिए | इससे नाराज होकर वे 2020 में अपने समर्थक विधायकों को लेकर हरियाणा जा बैठे | जिसके बारे में कहा गया कि वह खेल भाजपा द्वारा रचा गया था | चूंकि पायलट गुट संख्या बल नहीं जुटा सका , लिहाजा वह बगावत विफल होकर रह गयी | मुख्यमंत्री की कुर्सी तो हाथ आई नहीं उलटे श्री पायलट से उपमुख्यमंत्री के साथ ही प्रदेश अध्यक्ष की गद्दी भी छिन गयी | हालाँकि इस घटनाचक्र का सबसे रोचक पहलू ये रहा कि बागी तेवर अपनाने के बाद भी न तो श्री पायलट और न ही उनके साथ गए विधायकों पर कड़ी कार्रवाई पार्टी कर सकी | ऐसा लगा था कि कांग्रेस हाई कमान फूंक – फूंककर कदम बढ़ा रहा है ताकि सचिन भी सिंधिया जैसा करतब न दिखा सकें | हालाँकि भाजपा में बैठी वसुंधरा राजे श्री पायलट के पार्टी में आने में बाधा बन गईं क्योंकि वे उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर जाँच की मांग करते आये थे | इसीलिये श्री पायलट ने अनेक बार कहा भी कि श्री गहलोत ही वसुंधरा को बचा रहे हैं | कुछ दिन पहले ही मख्यमंत्री ने धौलपुर में सार्वजनिक मंच से कहा भी कि उनकी सरकार को गिरने से बचाने में वसुंधरा राजे की भूमिका थी | यद्यपि इसका खंडन भी हुआ किन्तु श्री पायलट ने जब एक दिवसीय धरना जयपुर में देते हुए भाजपा की पूर्व मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार की जांच कराये जाने की मांग की तब ये बात साफ़ हो गयी कि उनका निशाना श्री गहलोत के साथ ही वसुन्धरा भी हैं | उसके बाद सचिन ने अजमेर से जयपुर तक पदयात्रा करने के बाद गहलोत सरकार को 30 मई तक का समय दिया भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों की जाँच करवाए जाने का | इस दौरान दोनों के बीच बयानों के जहर बुझे तीर भी बिना रुके चलते रहे | राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जब तक राजस्थान में रही तब तक जरूर दोनों नेताओं में युदधविराम रहा लेकिन इसके बाद से जितनी तीखी शब्दावली का प्रयोग एक दूसरे के विरुद्ध दोनों तरफ से होता रहा , वैसा तो विपक्षी पार्टी के विरुद्ध भी सामान्यतः नहीं होता | बहरहाल इस झगड़े में कांग्रेस आलाकमान की लाचारी जिस तरह उजागर हुई वह सर्वविदित है | उसकी सबसे बुरी स्थिति तो तब बनी जब कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने से बचने के लिए श्री गहलोत ने जयपुर में नया मुख्यमंत्री तय करने आये पर्यवेक्षकों को बुरी तरह अपमानित करते हुए अपने समर्थक विधायकों से इस्तीफा दिलवाकर सरकार गिराने का दबाव बना दिया | उनके सामने आलाकमान को भी झुकना पड़ा और मल्लिकार्जुन खरगे अध्यक्ष बने | बहरहाल उस वाकये ने ये साबित कर दिया कि श्री गहलोत , सचिन को रोकने के लिए किसी भी हद तक जायेंगे | उन्होंने न जाने जाने गांधी परिवार की कौन सी नस दबा रखी है जिसकी वजह से वह चाहकर भी अपनी पसंद के नेता को राजस्थान की गद्दी न दिलवा सका | आखिर में जब उसे लगा कि 30 मई के बाद वे आम आदमी पार्टी में चले जायेंगे या फिर किसी नए विकल्प के जरिये विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जड़ें खोदेंगे तब दोनों नेताओं को बिठाकर उनके बीच सुलह करवाने का उपक्रम रचा गया | लेकिन उस समझौते के फौरन बाद से ही राजनीतिक विश्लेषक ये शंका व्यक्त करने लगे कि ये सुलह दिखावटी है और भीतर ही भीतर आग सुलगती रहेगी | उस बैठक के बाद श्री पायलट ने 30 मई के बाद किये जाने वाले धमाके से इंकार कर दिया वहीं श्री गहलोत ने भी बागी विधायकों पर भाजपा से लिए 10 करोड़ लौटाने जैसे कटाक्ष बंद कर दिए | लेकिन अजमेर से जयपुर की पदयात्रा के दौरान श्री पायलट ने जो मुद्दे उठाये थे उनके बारे में मुख्यमंत्री ने उन्हें क्या आश्वासन दिया ये उन्हें स्पष्ट करना चाहिये क्योंकि वे कांग्रेस के नहीं अपितु राजस्थान की जनता से जुड़े मुद्दे थे | इसी तरह जो विधायक श्री पायलट के साथ हरियाणा जाकर बैठ गए थे उन पर भाजपा से करोड़ों रूपये लेने का जो आरोप श्री गहलोत सार्वजनिक रूप से लगाते रहे क्या वह उनकी नजर में असत्य था ? चूंकि दोनों खेमों ने एक दूसरे के बारे में जो भी आक्षेप लगाये वे जनता के संज्ञान में हैं इसलिए आने वाले विधानसभा चुनाव में श्री गहलोत और श्री पायलट से पूछा जायेगा कि उनका क्या हुआ ? उल्लेखनीय है श्री पायलट की सभा में गहलोत मंत्रीमंडल के एक सदस्य ने इस सरकार को राजस्थान की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार कहा था | वे मंत्री अभी तक सरकार में बने हुए हैं। इसी तरह श्री पायलट और श्री गहलोत द्वारा बीते कुछ महीनों में एक दूसरे के बारे में जो कुछ भी कहा गया वह राजस्थान की जनता महज एक बैठक के बाद मुस्कराकर बाहर आने से भूल जायेगी और भ्रष्टाचार के द्विपक्षीय आरोप अपनी मौत मर जायेंगे ये सोचना भूल होगी। जनता की याददाश्त कमजोर होती है लेकिन इतनी भी नहीं जितना राजनीतिक पार्टियां और उसके नेता समझते हैं। याद रखा जाना चाहिए कि 40 प्रतिशत कमीशन के सिर्फ एक ही मुद्दे ने कर्नाटक में भाजपा की पराजय की बुनियाद रख दी थी। राजस्थान में तो भ्रष्टाचार के आरोपों की पूरी झालर है और वह भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं द्वारा ही एक दूसरे पर लगाए हुए।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 30 May 2023

भारत का सम्मान और देशवासियों का आत्मविश्वास बढ़ना सबसे बड़ी उपलब्धि



नरेंद्र मोदी सरकार ने आज अपने दूसरे कार्यकाल के चार साल पूरे कर लिए | 2014 में सत्ता में आये श्री मोदी पहले ऐसे गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री हैं जो लगातार दूसरा कार्यकाल बिना किसी बाधा के पूरा करने की  ओर बढ़ रहे हैं |अगले वर्ष चूंकि लोकसभा चुनाव होने वाला है इसलिए भाजपा इस अवसर का लाभ उठाकर केंद्र सरकार के बीते 9 वर्ष के कार्यों से जनता को अवगत करवाने का अभियान भी शुरू कर रही है | इसे एक तरह से उसके चुनाव अभियान की अनौपचारिक शुरुआत भी कहा जा सकता है | हालाँकि उसके पहले ही तेलंगाना , म.प्र , राजस्थान और  छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे लेकिन देश की जो राजनीतिक परिस्थितियां हैं उन्हें देखते हुए भाजपा के रणनीतिकार बिना समय गँवाए चुनाव प्रचार में बढ़त लेने का दांव चल रहे हैं | वैसे भी भाजपा अब हर चुनाव प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व और कृतित्व के आधार पर लड़ने की आदी हो गई है | चूंकि कांग्रेस सहित बाकी विपक्षी दलों के बीच भाजपा के विरोध में गठबंधन बनाने की कवायद जोरों पर है इसलिए भी प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के 9 वर्ष पूर्ण होने पर पार्टी  संगठन को जनता के बीच जाकर उनकी सरकार की उपलब्धियों से अवगत कराते हुए 2024 के महासमर हेतु मोर्चेबंदी करने हेतु सक्रिय कर दिया है | नए संसद भवन के उद्घाटन के साथ ही सही मायने में प्रधानमंत्री ने अपना अभियान शुरू कर दिया | विपक्ष के अनेक दलों द्वारा  संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किये जाने से श्री मोदी को खाली मैदान मिल गया | जहाँ तक बात उनकी सरकार की उपलब्धियों की है तो इसे लेकर राय भिन्न हो सकती हैं जो लोकतंत्र में स्वाभाविक ही है | वैसे भी भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में जहाँ दर्जनों राजनीतिक पार्टियाँ हैं , वहां किसी एक नेता के बारे में एक जैसी राय बन जाना अस्वाभाविक तो है ही , असंभव भी है | और फिर क्षेत्रीय दलों के अलावा जातिवादी राजनीति के उभार ने समूचे परिदृश्य को बदलकर रख दिया है | ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर देश को भावनात्मक रूप से बांधे रखना आसान नहीं होता। लेकिन श्री मोदी की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने पूरे देश में एक सुदृढ़ नेता के रूप में अपनी छवि स्थापित की है। जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें नहीं हैं उनमें भी जब प्रधानमंत्री के लिए सर्वे किया जाता है तब श्री मोदी ही बाकी सबसे आगे नजर आते हैं । इसका कारण ये है कि बतौर प्रधानमंत्री बेहद सक्रिय रहते हुए वे कुछ न कुछ नया करते रहते हैं । बीते 9 वर्ष में  उन्होंने जितना कार्य किया वह अपने आप में रिकॉर्ड है।  राम मंदिर , धारा 370  और तीन तलाक जैसे मुद्दों की बात न करते हुए आर्थिक , सामरिक और    अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर उनकी सरकार ने जो हासिल किया है  वह हर मापदंड पर खरा उतरता है। उनके पूर्ववर्ती जो दो प्रधानमंत्री रहे वे अपने - अपने क्षेत्र में महारथी थे। स्व.अटल बिहारी वाजपेयी अपने समकालीन राष्ट्रीय नेताओं में  सबसे लोकप्रिय और सम्मानित थे।संसदीय राजनीति में उनके लंबा अनुभव और निष्कलंक सार्वजनिक जीवन की वजह से उनके किसी भी कार्य पर उंगली उठाने का साहस विरोधी भी नहीं कर पाते थे। उनके कार्यकाल में भी परमाणु विस्फोट और कारगिल विजय के साथ वैश्विक मंचों पर भारत की  प्रतिष्ठा नई ऊंचाई पर पहुंची किंतु एक तो उनको राजनीतिक अस्थिरता से लगातार जूझना पड़ा क्योंकि उनकी पार्टी के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं था । इसीलिए 1996 , 98 और 99 में उन्हें जल्दी - जल्दी चुनाव का सामना करना पड़ा । और फिर उनकी आयु और स्वास्थ्य भी उनके लिए समस्या बना। उनके बाद आए डा.मनमोहन सिंह की पेशेवर योग्यता को कोई चुनौती नहीं दे सकता था। एक अर्थशास्त्री के तौर पर उनका लोहा पूरी दुनिया मानती थी किंतु वे भी स्वतंत्र रहकर कार्य नहीं कर पाए। दरअसल वे राजनीति के लिए बने ही नहीं थे। इसलिए उनका दस वर्षीय कार्यकाल घपलों , घोटालों और विवादों में घिरा रहा। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि उन्हें वह श्रेय नहीं मिल सका जिसके वे हकदार रहे । लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि उन पर निष्क्रियता का आरोप भले लगता रहा किंतु उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। ऐसे में जब श्री मोदी सत्ता में आए तो उनके पक्ष में दो बातें रहीं। अव्वल तो ये कि वे उम्र और स्वास्थ्य के मद्देनजर पूरी तरह सक्षम थे और दूसरा उनके पास पूरा बहुमत होने से वे निर्णय लेने को स्वतंत्र रहे। अटल जी के दौर में ममता , जयललिता और मायावती जैसे अवरोध आते रहे वहीं मनमोहन सिंह जी गांधी परिवार के दबाव से मुक्त नहीं हो पाए। श्री मोदी इन समस्याओं से मुक्त रहे। इसलिए उन्होंने जोखिम उठाने में संकोच नहीं किया। और यही वह कारण है जिसकी वजह से वे देश ही नहीं वरन दुनिया में एक ताकतवर नेता के तौर पर स्थापित हो सके। बीते 9 वर्ष में रामराज आ गया है ये कहना अतिशयोक्ति होगी लेकिन ये स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उन्होंने देश को आर्थिक और सामरिक दृष्टि से एक शक्ति के रूप में खड़ा कर दिया। वैश्विक मसलों पर उनकी नीतिगत कुशलता ने  भारत को महाशक्तियों के समकक्ष हैसियत दिलवाई । बीते 9 वर्ष के  कालखंड पर दृष्टिपात करें तो ये कहा जा सकता है कि उन्होंने देश और देशवासियों का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ाया है। पूरी दुनिया में भारत और भारतीयों का जो सम्मान बढ़ा उसका श्रेय उन्हें देना ही होगा। राजनीति के अपने दांव पेच होते हैं किंतु देशहित के बारे में सोचने पर ये लगता है कि नरेंद्र मोदी का नेतृत्व आज भारत की आवश्यकता है और यही उनकी सबसे बड़ी सफलता है।  विश्व के तमाम नेता उनको जो सम्मान देते हैं वह निश्चित तौर पर भारत की बढ़ती शक्ति का प्रमाण है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 29 May 2023

जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में लोकसभा सीटें भी बढ़ना चाहिए



नये संसद भवन का बहुप्रतीक्षित लोकार्पण गत दिवस संपन्न हो गया | इसी के साथ इस बात की सुगबुगाहट भी शुरू हो गयी कि देश की जनसँख्या में हुई वृद्धि के  अनुपात में लोकसभा की सीटें बढ़ाई जाएँगी | इस बारे में ये जानकारी भी मिल रही है कि स्व. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में भी लोकसभा की सीटें बढ़ाये जाने की बात चली थी किन्तु उस समय दक्षिण के राज्य विरोध में खड़े हो गए क्योंकि उनको ये डर था कि जनसंख्या के मामले में चूंकि उत्तरी राज्य भारी पड़ते हैं लिहाजा लोकसभा का संतुलन बिगड़ जायेगा | श्रीमती गांधी ने इसीलिए उस प्रस्ताव को टाल दिया | उसके बाद से देश की जनसँख्या  काफी बढ़ चुकी है | अनेक छोटे राज्य भी बनाये गए और लोकसभा सीटों का  परिसीमन भी किया गया किन्तु उनकी संख्या बढ़ाने का जोखिम उठाने कोई सरकार तैयार नहीं हुई | इसके पीछे सबसे बड़ा कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था । मौजूदा संसद में स्थानाभाव का बहाना भी बनाया जाता रहा | उस दृष्टि से  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने दूरंदेशी का परिचय देते हुए न सिर्फ नये संसद भवन की रूपरेखा तैयार की वरन  उसके साथ ही राष्ट्रीय राजधानी में स्थित केंद्र सरकार के समूचे प्रशासनिक ढांचे को एक ही जगह केंद्रित करने हेतु महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना तैयार करवाई , जिसमें सचिवालय के साथ ही प्रधानमंत्री निवास भी होगा। इसके पूरे हो जाने पर दिल्ली में यहां - वहां बिखरा केंद्र सरकार का तंत्र एक विशाल परिसर में सिमट जायेगा जिससे प्रशासनिक व्यवस्था के साथ ही निर्णय प्रक्रिया में तेजी आएगी। सुरक्षा संबंधी कारणों से भी ऐसा करना आवश्यक होता जा रहा था। इस बारे में उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार के अनेक दफ्तर दिल्ली में किराए के परिसर में होने से सरकार पर काफी बोझ पड़ता है। सेंट्रल विस्टा परियोजना दरअसल आने वाले 100 साल के लिए राष्ट्रीय राजधानी में प्रशासनिक जरूरतों के मद्देनजर बनाई गई है जिसके पहले चरण में संसद भवन का निर्माण रिकार्ड समय में पूरा किया गया। इसे लेकर राजनीतिक विवाद भी हो रहा है । लेकिन नए संसद भवन के शुभारंभ के बाद जो प्रतिक्रियाएं आईं उनसे इस भवन की उपयोगिता और आवश्यकता सिद्ध हो रही  है। इसकी भव्यता तो अपनी जगह है ही किंतु इसमें जिन आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता है वे समय के साथ चलने की प्रधानमंत्री की सोच का प्रमाण है । लेकिन इस सबसे अलग हटकर लोकसभा में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक होने लायक सीटों की व्यवस्था से ये संकेत मिलने लगे हैं कि मोदी सरकार संसद के निर्वाचित सदन में सीटें बढ़ाने की कार्ययोजना बना रही है।  ये काम 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व होगा या बाद में , इस बारे में कुछ भी अधिकृत तौर पर नहीं कहा गया किंतु यदि ऐसा न करना होता तब कोरोना काल में भी नए संसद भवन का निर्माण युद्धस्तर पर न किया जाता। वैसे भी बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा के सदस्यों की संख्या में वृद्धि विकास के असंतुलन को दूर करने के लिए जरूरी लगने लगी है। देश के अनेक लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिनके सांसद के लिए पूरे इलाके का दौरा और क्षेत्र विकास के लिए मिलने वाली निधि का न्यायोचित आवंटन करना बेहद कठिन होता है। कुछ क्षेत्रों में जनसंख्या का फैलाव ज्यादा होने से भी समस्या आती है। यही सोचकर अनेक बड़े राज्यों का विभाजन करते हुए झारखंड, छत्तीसगढ़ , तेलंगाना और उत्तराखंड जैसे  छोटे राज्य बनाए गए। अतीत में पूर्वोत्तर में भी छोटे राज्यों का गठन विकास के असंतुलन को दूर करते हुए प्रशासनिक क्षमता बढ़ाने के लिए किया गया। विकास की दौड़ में छोटे राज्य जिस तेजी से आगे निकले  उसके कारण उस निर्णय की सार्थकता सिद्ध हो गई।  इसी आधार पर अब लोकसभा सीटों को  छोटा करते हुए उनकी संख्या बढ़ाए जाने पर विचार होना चाहिए। हालांकि इस बारे में दक्षिणी राज्यों की ओर से ऐतराज की खबरें भी सुनाई दे रही हैं । उन्हें डर है जनसंख्या के बल पर उ.प्र और बिहार में लोकसभा सीटें जिस मात्रा में  बढ़ेंगी उसकी वजह से राष्ट्रीय राजनीति का संतुलन पूरी तरह उत्तर भारत के हाथ चला जायेगा। हालांकि ये शंका इसलिए बेमानी है क्योंकि आज भी उक्त दोनों राज्यों में  लोकसभा की लगभग एक चौथाई सीटें हैं । राजनीतिक हल्कों में ये टिप्पणी अमूमन सुनाई देती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होकर जाता है । और ये बात सही भी है । पी.वी नरसिंहराव , एच. डी.देवगौड़ा , आई.के गुजराल और  डा.मनमोहन सिंह को छोड़कर शेष प्रधानमंत्री उ.प्र से ही बने। यहां तक कि स्व.अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को भी प्रधानमंत्री की कुर्सी उनके गृहराज्य की बजाय उ.प्र से लोकसभा सदस्य चुने जाने के बाद ही नसीब हुई । ज्यादा लोकसभा सदस्य होने से ही तो  प.बंगाल ,  महाराष्ट्र और तमिलनाडु लोकसभा में अपनी वजनदारी रखते हैं । इसलिए राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय भावना को परे रखकर सोचना होगा। यदि सदस्य संख्या बढ़ती है तो जितना जितना लाभ उ.प्र  और बिहार को होगा उसी अनुपात में दक्षिण या अन्य राज्यों में भी सांसद बढ़ेंगे। इससे भाजपा का लाभ होगा ये मान लेना भी सही नहीं है क्योंकि छोटे राज्य बनाने का श्रेय लेने के बाद भी उसको उन राज्यों की सत्ता गंवानी पड़ी। दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले देश और इतने विशाल भूभाग को देखते हुए लोकसभा की सदस्य संख्या में आनुपातिक वृद्धि समयोचित होगी । जनहित की दृष्टि से देखें तो छोटा क्षेत्र और कम मतदाता होने से सांसद भी सतत संपर्क और  बेहतर सेवाएं दे सकेंगे। ये कार्य कब होगा ये फिलहाल कह पाना मुश्किल है क्योंकि लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया 10 - 11 माह बाद शुरू हो जायेगी। लेकिन प्रधानमंत्री की कार्यशैली जिस तरह की रही है उसे देखते हुए चौंकाने वाले तत्संबंधी निर्णय की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। लोकसभा का बड़ा सदन बनाने के पीछे श्री मोदी की सोच निश्चित ही किसी कार्ययोजना का हिस्सा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 



 

Saturday 27 May 2023

केंद्र से नीतिगत मतभेद ठीक लेकिन नीति आयोग से खुन्नस बेमानी



आज दिल्ली में नीति आयोग के गवर्निंग बोर्ड की आठवीं बैठक आयोजित की गयी जिसकी थीम विकसित भारत 2047 टीम इण्डिया की भूमिका है | प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हो रही इस बैठक में हुए विचार – विमर्श की जानकारी तो बाद में आयेगी किन्तु आजादी के 100 वर्ष पूर्ण होने पर  देश को विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनाने की महत्वाकाँक्षी कार्य योजना तैयार करने के लिए नीति आयोग जो दृष्टिपत्र तैयार कर रहा है उसमें राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका भी आवश्यक है ।  संघीय ढांचे की कल्पना को तभी साकार किया जा सकता है जब देश के प्रत्येक हिस्से तक विकास की रोशनी बराबरी से पहुंचे | उस दृष्टि से आज हुई  बैठक में  कुछ मुख्यमंत्रियों का गैर हाज़िर रहना चिंता का विषय है | ममता बैनर्जी , नीतीश कुमार , के चंद्रशेखर राव , अरविन्द केजरीवाल ,भगवंत सिंह मान , अशोक गहलोत , पी विजयन  और स्टालिन ने इस बैठक से दूरी बनाने के पीछे हालांकि अलग - अलग कारण बताए हैं किंतु कुल मिलाकर जो बात समझ में आती है वह है प्रधानमंत्री से इन नेताओं की निजी खुन्नस। आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो श्री मोदी को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी की वजह खुलकर बता दी किंतु बाकी के या तो मौन हैं या इधर उधर की बातें कर रहे हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों में श्री गहलोत अनुपस्थित हैं किंतु भूपेश बघेल और सुखविंदर सिंह सुक्खू शामिल हुए। सिद्धारमैया को लेकर अनिश्चितता रही। बहरहाल ये तय है कि  उक्त सभी की अनुपस्थिति के पीछे राजनीतिक कारण हैं। नीतीश ने तो इसे नए संसद भवन के उद्घाटन के साथ जोड़ दिया है। राजनीतिक तौर पर प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार के साथ राज्यों के मतभेद  स्वाभाविक हैं । भारत जैसे बहुदलीय देश में शुरू से ही इसकी छूट रही है। ये वो देश है जहां  विश्व में लोकतंत्रिक पद्धति से चुनी हुई पहली साम्यवादी राज्य सरकार केरल में 1957 में बनी थी। 1967 और फिर 1977 के बाद से  केंद्र में बैठी पार्टी से मतभिन्नता रखने वाली राज्य  सरकारें आती - जाती रहीं। प.बंगाल में तो तकरीबन चार दशक तक वाममोर्चा सत्ता पर काबिज रहा। इसी तरह तमिलनाडु में 1967 से द्रविड़ मूल की दो पार्टियों का वर्चस्व बना हुआ है। जम्मू कश्मीर में भी उन क्षेत्रीय दलों का दबदबा है जो कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन करते आए हैं । कहने का आशय ये है कि राजनीतिक एकाधिकारवाद की कल्पना को भारत ने अपनी राजनीतिक संस्कृति  में जगह नहीं दी जिसकी वजह से संघीय ढांचा खड़ा रहा। लेकिन बीते कुछ समय से ऐसा लगने लगा है जैसे केंद्र और राज्य में  अलग विचारधारा की पार्टी का शासन दुश्मनी का रूप लेता जा रहा है। प्रधानमंत्री के तेलंगाना  आने पर मुख्यमंत्री का स्वागत हेतु न पहुंचना और कोलकाता में श्री मोदी की बैठक में ममता का देर से आने के बाद जरूरी काम का बहाना बनाकर उठ जाना , इस बात के  प्रमाण हैं कि राजनीतिक रस्साकशी में सौजन्यता और शिष्टाचार को भी तिलांजलि दी जाने लगी है। नए संसद भवन के शुभारंभ को सियासी शक्ल देकर उससे दूर रहने की घोषणा के बाद नीति आयोग की इस महत्वपूर्ण बैठक से गैर हाजिर रहना संबंधित मुख्यमंत्रियों के लिहाज से बहुत ही गैर जिम्मेदाराना आचरण है। इस बैठक में देश के विकास के बारे में गंभीर चिंतन होना है। आने वाले ढाई दशक के भीतर भारत किस तरह से दुनिया का सिरमौर बनकर आर्थिक महाशक्ति बने और उसके बारे में सभी मुख्यमंत्री अपनी राय व्यक्त करते हुए एक समन्वित कार्ययोजना बनाएं ये देशहित में है। जिस तरह जीएसटी कौंसिल  में सभी राज्य मिलकर फैसले लेते हैं वैसा ही नीति आयोग में होना चाहिए। नीति आयोग  देश में ढांचागत विकास के साथ ही आर्थिक और औद्योगिक विकास की संभावनाएं तलाशकर उन्हें जमीन पर उतारने का  भागीरथी प्रयास कर रहा है। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ इसके साथ जोड़े गए हैं जो बिना किसी प्रचार के देश के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। उनका किसी राजनीतिक विचारधारा से कोई लगाव या दुराव नहीं  है। उन्होंने जो विचार सूची आज की बैठक हेतु तैयार की वह पूरे देश के भले के लिए है  न कि भाजपा या प्रधानमंत्री के । ऐसे में जिन मुख्यमंत्रियों ने किसी भी कारणवश इस बैठक का बहिष्कार किया वे अपने राज्य के विकास के प्रति उदासीन ही कहे जायेंगे। राजनीतिक मतभेद प्रजातंत्र को चैतन्य बनाए जाने के लिए मूलभूत आवश्यकता हैं लेकिन जब बात देश और उसके विकास की हो तब कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का नारा गूंजना चाहिए। उस दृष्टि से आज जो हुआ  ,  वह शुभ संकेत नहीं है। प्रधानमंत्री से नीतिगत मतभेदों को लेकर लड़ने के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव भरपूर अवसर सभी दलों को प्रदान करेगा । लेकिन नीति आयोग को राजनीति का अखाड़ा बनाकर गैर हाजिर रहे  मुख्यमंत्रियों ने जिस रवैए का परिचय दिया वह उनकी अपरिपक्वता को दर्शाता है। बैठक में हुए किसी निर्णय से असहमति जताने का अवसर और अधिकार भी उन्होंने अपनी अनुपस्थिति से खो दिया।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 26 May 2023

केजरीवाल कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित हो सकते हैं


 
आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के  मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल इस  समय विभिन्न राज्यों का दौरा कर रहे हैं | इसका उद्देश्य अपनी पार्टी का प्रचार करना नहीं अपितु केंद्र सरकार द्वारा जारी उस अध्यादेश के विरुद्ध विपक्षी दलों का समर्थन जुटाना है जिसके द्वारा उसने दिल्ली में अधिकारियों  के ट्रांसफर - पोस्टिंग के  अधिकार निर्वाचित सरकार से छीनकर फिर से उपराज्यपाल को सौंप दिये | उल्लेखनीय है सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार की याचिका पर ये फैसला दिया था कि नौकरशाहों के तबादले और पदस्थापना का अधिकार चुनी हुई सरकार को ही होना चाहिए , अन्यथा वह सुचारू तरीके से काम नहीं कर सकेगी | उस निर्णय से उत्साहित केजरीवाल सरकार ने विजयी मुद्रा में ताबड़तोड़ तबादले करना शुरू कर दिए | लेकिन इसी बीच केंद्र सरकार ने अध्यादेश निकालकर उस फैसले को उलट दिया | इसी के साथ उसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील भी पेश कर दी | दूसरी तरफ दिल्ली सरकार ने अध्यादेश को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका के जरिये चुनौती दे डाली | देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने भी दुविधा की स्थिति है क्योंकि उसके अपने फैसले के विरुद्ध अपील पेश करने वाली केंद्र सरकार ने अध्यादेश निकालकर उस फैसले को फिलहाल तो असरहीन कर ही दिया | संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार छः माह के भीतर अध्यादेश को संसद के दोनों सदनों की मंजूरी मिलनी जरूरी है | और इसीलिए श्री  केजरीवाल विपक्षी दलों के नेताओं से उनके ठिकाने पर जा – जाकर मिलते हुए इस बात की गुहार लगा रहे हैं कि जब उक्त अध्यादेश संसद के मानसून सत्र में विधेयक के तौर पर पेश हो तब उच्च सदन अर्थात राज्यसभा में सभी भाजपा विरोधी पार्टियाँ उसका विरोध करें जिससे वह पारित न हो सके | यहाँ उल्लेखनीय है कि लोकसभा में मोदी सरकार के पास भारी - भरकम बहुमत होने से वहां तो उसके पारित होने में कोई अड़चन नहीं होगी किन्तु राज्यसभा में सरकार अभी भी अल्पमत में होने से अन्य दलों की सहायता लेने बाध्य है | हालांकि  बीजू  पटनायक और जगन मोहन रेड्डी की पार्टियों के अलावा अनेक छोटे दलों के समर्थन से सरकार अपना काम निकलती रही है लेकिन उद्धव ठाकरे और अकाली दल से दूरी होने के बाद से राज्यसभा में उसके सामने दिक्कतें हैं | श्री केजरीवाल इसी का लाभ लेते हुए मोदी सरकार को झुकाने का प्रयास कर रहे हैं  | पिछले कुछ महीनों में विपक्षी एकता की जो मुहिम चल रही है उसके कारण आम आदमी पार्टी भी विपक्षी जमात में अब अपनी जगह बनाने लगी है | संसद के बजट सत्र में केंद्र सरकार की घेराबंदी का जो प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व में चला उसमें भी आम आदमी पार्टी ने खुलकर साथ दिया | और जिस कांग्रेस से उसकी जानी दुश्मनी मानी जाती है उसने भी श्री केजरीवाल को पास बिठाने में परहेज नहीं किया | यद्यपि अपने उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी के बाद हेकड़ी तो श्री केजरीवाल की भी कम हुई और वे उन विपक्षी नेताओं  के साथ उठते – बैठते दिखने लगे जिन्हें वे सबसे भ्रष्ट की सूची में दर्शा चुके थे | कांग्रेस को भी चूंकि राहुल गांधी के मामले में समर्थन की जरूरत थी लिहाजा उसने भी आम आदमी पार्टी के साथ  नजदीकी बढ़ाने में संकोच नहीं किया |  ऐसे में जब सर्वोच्च न्यायालय का संदर्भित फैसला आया तब कांग्रेस ने  केजरीवाल सरकार के जश्न में अपनी खुशी दिखाई | लेकिन इसके विपरीत दिल्ली के कुछ कांग्रेस नेता आम आदमी पार्टी को किसी भी तरह से स्वीकार करने राजी नहीं हैं | इनमें प्रमुख नाम अजय माकन और संदीप दीक्षित का है |  उल्लेखनीय है कि श्री माकन ने तो वरिष्ट  अधिवक्ता और  कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी से ये आग्रह भी किया था कि वे श्री सिसौदिया की पैरवी न करें क्योंकि जिस शराब घोटाले में उनकी गिरफ्तारी हुई थी उसे कांग्रेस ने ही उठाया था | इसी तरह से श्री दीक्षित ने अध्यादेश मामले में केजरीवाल सरकार की तरफदारी करने से कांग्रेस नेतृत्व को रोकने संबंधी बयान दिया है | पार्टी हाईकमान भी इस बारे में असमंजस में है क्योंकि दिल्ली के अलावा पंजाब के कांग्रेस नेताओं ने भी पार्टी के बड़े नेताओं से अपील की है कि आम आदमी पार्टी  से पूरी तरह दूर रहा जावे क्योंकि वह कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित होगी | राजस्थान, मप्र और छत्तीसगढ़ के आगामी विधानसभा चुनाव में श्री केजरीवाल अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर चुके हैं। सुना है सचिन पायलट भी बगावत करने के बाद आम आदमी पार्टी का झंडा उठाएंगे।  ऐसे में पार्टी के भीतर श्री केजरीवाल के घड़ियाली आंसुओं से सावधान रहने की भावना तेजी से बढ़ती जा रही है। रही बात राज्यसभा में समर्थन की तो कांग्रेस भी ये जान रही है कि मोदी सरकार उच्च सदन में बहुमत का जुगाड़ कर ही लेगी। नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी के अलावा बसपा और अकाली दल ने भी नए संसद भवन के शुभारंभ पर शामिल होने की बात कहकर विपक्षी एकता को धक्का दे दिया। ऐसे में कांग्रेस के भीतर भी इस बात को लेकर मंथन चल पड़ा है कि आम आदमी पार्टी को किस हद तक साथ रखा जावे और श्री केजरीवाल की चिकनी - चुपड़ी बातों पर कितना  भरोसा करें ? कांग्रेस को ये बात समझनी चाहिए कि आम आदमी पार्टी खुद को कांग्रेस का विकल्प बताती आई है । ऐसे में उसको सहारा देने में कहीं वह बेसहारा न हो जाए। कांग्रेस के कुछ बुजुर्ग नेता याद दिला रहे हैं कि बाबरी ढांचा टूटने के बाद स्व.राजीव गांधी द्वारा मुलायम सिंह और लालू यादव की सरकार को टेका लगाए जाने के फैसले के बाद कांग्रेस उप्र और बिहार में आज तक उठ नहीं सकी। वैसे भी दिल्ली और पंजाब की सरकारें आम आदमी पार्टी के हाथों गंवाने का दर्द कांग्रेस शायद ही भूल पाएगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 25 May 2023

ऐतिहासिक अवसर पर बहिष्कार ठीक नहीं



नए संसद भवन का शुभारंभ आगामी 28 मई को होने जा रहा है। लोकसभाध्यक्ष के आग्रह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस भवन का उद्घाटन करने वाले हैं । कांग्रेस के साथ ही 19 विपक्षी दल इस समारोह का बहिष्कार करने की घोषणा कर चुके हैं। उनकी आपत्ति इस बात पर है कि संसद और संविधान के संरक्षक के तौर पर राष्ट्रपति को नया संसद भवन राष्ट्र को समर्पित करना था। प्रधानमंत्री से तत्संबंधी मांग भी की गई है ।  ये भी कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू चूंकि आदिवासी समुदाय से आती हैं इसलिए उनसे उद्घाटन करवाना था।  कुछ लोगों को इस बात पर भी ऐतराज है कि 28 मई की तारीख इसलिए रखी गई क्योंकि वह स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर का जन्मदिवस है। और  सरकार  ने इस तिथि को जान बूझकर चुना क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी कुछ समय पहले तक सावरकर जी की तीखी आलोचना करते हुए उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाया करते थे। वो तो जब एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने  उन पर दबाव बनाया तब उनकी जुबान पर ताला लगा। लेकिन बहिष्कार की घोषणा कर रहे  विपक्षी दलों को मुख्य शिकायत इस बात की ही है कि प्रधानमंत्री नये संसद भवन  का उद्घाटन कर रहे हैं । उद्धव ठाकरे गुट की शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत की राय में तो नए संसद भवन की जरूरत ही नहीं थी और मौजूदा भवन आगामी 100 साल तक काम आ सकता है । वैसे भी इस नए भवन सहित समूचे सेंट्रल विस्ता परियोजना को लेकर राहुल गांधी सहित अधिकतर दल आलोचना करते हुए इसे जनता के धन की बरबादी बताते रहे हैं। बहरहाल रिकॉर्ड समय में  बनकर तैयार हुए इस संसद भवन में ही मानसून सत्र का आयोजन होगा। अत्याधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण इस  भवन को भविष्य में  दोनों सदनों की सदस्य संख्या बढ़ने का ध्यान  रखकर बनाया गया है। इसके भूमिपूजन से लेकर उद्घाटन की  तारीख तय होने तक कांग्रेस और उसके सहयोगी  विपक्षी दलों ने इस समूची परियोजना का  विरोध करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा । चूंकि इस पूरे प्रकल्प के पीछे प्रधानमंत्री की दूरगामी सोच है इसलिए तमाम गुणात्मक बातों को नजरंदाज करते हुए इसकी आलोचना की जाती रही है। राष्ट्रीय राजधानी में  केंद्र सरकार का जो प्रशासनिक प्रबंध है वह काफी पुराना होने से स्थानाभाव के कारण अव्यवस्थित है। मौजूदा संसद भवन में जगह कम होने पर ही एनेक्सी बनाई गई थी लेकिन वह भी जरूरतें पूरी नहीं कर पा रही। विभिन्न पार्टियों के लिए आवंटित स्थान भी छोटा पड़ रहा है। उस दृष्टि से नए भवन का निर्माण समयोचित है। रही बात उद्घाटन कौन कर रहा है तो विपक्ष को अपनी राय रखने का पूरा अधिकार है । लेकिन जब लोकसभाध्यक्ष  ओम बिरला ने  प्रधानमंत्री को आमंत्रित कर लिया तब विरोध को जारी रखते हुए भी समारोह में शामिल होना लोकतांत्रिक संस्था के सम्मान में जरूरी है। 19 दलों के बहिष्कार के बावजूद भी अनेक ऐसे विपक्षी दल उद्घाटन में शामिल होने जा रहे हैं जिनका भाजपा से गठबंधन नहीं है। और फिर उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने से विपक्ष उस ऐतिहासिक अवसर से वंचित भी हो जायेगा जब आजाद भारत की संसद वैश्विक स्तर के भवन में आने जा रही है।जो आंकड़े आए हैं उनके अनुसार 40 फीसदी से कम सदस्य बहिष्कार करेंगे । ऐसे में सदन तो खचाखच भरा रहेगा और प्रधानमंत्री की बात भी पूरी दुनिया में प्रसारित होगी ही जिसमें आत्मनिर्भर भारत की झलक इस भवन के माध्यम से दिखाई जायेगी।  विपक्ष ने विरोध में जो कहना था वह कह दिया । आगे भी उसके पास ऐसा करने का अधिकार होगा।  लेकिन विरोध और बहिष्कार में अंतर करना चाहिए। मसलन सरकार की बहुत सी बातें उसे अच्छी नहीं लगती लेकिन वह सदन में उसका पुरजोर विरोध करता है। नई संसद में भी उसके पास ऐसा करने का अवसर रहेगा किंतु संसद भवन का उद्घाटन एक ऐतिहासिक अवसर है जिसका राजनीतिकरण करना अच्छा नहीं है।बेहतर हो अभी भी वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे। विरोध के लिए  संसदीय प्रजातंत्र में बहुत से अवसर विपक्ष को मिलते हैं किंतु कुछ प्रसंग ऐसे होते हैं जब राजनीति के साथ ही राष्ट्रीय महत्व जुड़ जाता है । और तब सभी उसमें शामिल होकर उसकी गरिमा बढ़ाते हैं । नए संसद भवन का उद्घाटन भी ऐसा ही आयोजन है जिसे राष्ट्रीय महत्व का मानकर यथोचित सम्मान दिया जाना चाहिए । जिससे संसद के सत्र में इस भवन में आने पर किसी को अपराधबोध न हो।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 24 May 2023

काश ,नए प्रशासक जनता के चेहरों पर मुस्कान ला सकें



संघ लोकसेवा आयोग के परीक्षा परिणाम गत दिवस घोषित हो गए | इसमें प्रथम चार स्थानों पर लड़कियां रहीं | 54 अभ्यर्थी हिंदी माध्यम से इस प्रतियोगिता में कामयाब रहे | ये भी देखने वाली बात है कि कला संकाय के अंतर्गत आने वाले विषयों को लेकर भी बड़ी संख्या में प्रतिभागी सफल हुए जिनमें हिंदी साहित्य भी है | अन्यथा इस परीक्षा पर तकनीकी विषय के विद्यार्थियों का वर्चस्व होता जा रहा है | एक बात और भी प्रशंसनीय है कि अब इस परीक्षा में उत्तीर्ण  होने वाले लड़के – लड़कियाँ  महानगरों और संपन्न परिवारों से ही नहीं अपितु छोटे – छोटे शहरों और बेहद साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं | ये चयनित उम्मीदवार  देश की प्रशासनिक व्यवस्था संचालित करते हैं जिन्हें नौकरशाह कहा जाता है | ब्रिटिश सत्ता के ज़माने में सिविल सर्विसेस का जो ढांचा खड़ा किया गया था वही  इस परीक्षा के माध्यम से जारी है | विदेश सेवा , प्रशासन , पुलिस , रेलवे , राजस्व , संचार , वन और सूचना जैसे विभागों के अधिकारी इसी परीक्षा के जरिये चुने जाते हैं | परीक्षा में हासिल अंकों के आधार पर प्रावीण्य सूची तैयार होती है और उसी के अनुसार  अभ्यर्थी की पसंद का विभाग और राज्य उसे दिया जाता है | हालाँकि सभी सेवाएं अपने आप में महत्वपूर्ण हैं  किन्तु विदेश सेवा के आकर्षण के बावजूद सबसे ज्यादा उम्मीदवार प्रशासन में जाना चाहते हैं जिसे आम बोलचाल की भाषा में कलेक्टर ( आई.ए.एस )कहा जाता है क्योंकि इस सेवा में आने वाले अधिकारी ही अंततः देश के सबसे बड़े नौकरशाह अर्थात केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव तक जा सकते हैं | दूसरा आकर्षण पुलिस सेवा ( आईपीएस ) का होता है | हालाँकि अनेक सफल उम्मीदवार रेलवे और राजस्व जैसे विभागों को भी अपनी पसंद बनाते हैं | लेकिन मुख्य आकर्षण आज भी आईएएस और आईपीएस का ही है | इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि इन्हीं दो विभागों के अधिकारियों का आम जनता के साथ ही राजनेताओं से सीधा सम्बन्ध होता है | इसी वजह से ये सबसे ज्यादा चर्चा में रहते हैं | उदाहरण के लिए अनेक केन्द्रीय विभागों के शीर्ष अधिकारी शहर में  आते और चले जाते हैं किन्तु उनको सीमित लोग ही जानते हैं किन्तु जिले का कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक अपनी नियुक्ति होने से स्थानान्तरण तक खबरों में बना रहता है इसी कारण से आजकल आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से निकले मेधावी छात्र तक कलेक्टर और एस.पी बनना चाहते हैं | गत  दिवस जो नतीजे आये उनमें भी बड़ी संख्या इंजीनियरों की है। चूंकि प्रशासन और पुलिस विभाग  में तकनीकी जानकारी आवश्यक होती जा रही है इसलिए इस विधा में शिक्षित विद्यार्थियों का चयन किया जाता है | लेकिन इसकी वजह से कला संकाय से जुड़े विषयों के अभ्यर्थी पिछड़ जाते  हैं | ऐसा ही कुछ अंग्रेजी माध्यम में नहीं पढ़े विद्यार्थियों के साथ भी होता है | लेकिन इस वर्ष जिस तरह से आधा सैकड़ा प्रतियोगी हिन्दी माध्यम से सफल हुए वह शुभ संकेत है | और लगभग 34 फीसदी बेटियों का चयन आधी आबादी की देश के प्रशासनिक व्यवस्था में सक्रिय भूमिका का उदाहरण  है। आजकल कोचिंग सुविधा के कारण इस परीक्षा में सफल होने के लिए पेशेवर प्रशिक्षकों का मार्गदर्शन भी मिलने लगा है जिसकी मदद से अनेक ऐसे अभ्यर्थी भी सफल होने लगे हैं जो इस परीक्षा को हौवा मानकर इससे दूर रहा करते थे।लेकिन इस सबसे अलग हटकर देखें तो संघ लोकसेवा आयोग की इस  परीक्षा में सफलता अर्जित करने वाले देश के मेधावी युवा - युवतियां जब प्रशासनिक व्यवस्था का अंग बनने के बाद उसकी बुराइयों में लिप्त हो जाते हैं तब चिंता होती है। हालांकि आज भी ऐसे अनेक युवा अधिकारी हैं जो अपनी ईमानदारी , कार्यकुशलता और संवेदनशीलता के कारण आम जनता के चहेते बन जाते हैं । किसी राजनेता के दबाव के चलते इनका स्थानांतरण किए जाने पर जनता द्वारा सरकार के विरुद्ध  खड़े हो जाने  के उदाहरण भी देखने मिले हैं । लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। वरना आजकल तो महिला प्रशासनिक अधिकारी तक जिस बड़ी संख्या  में   भ्रष्टाचार करते हुए पकड़ी जा रही हैं वह देखते हुए प्रशासनिक सेवाओं का विकृत पहलू भी उजागर हो रहा है। सवाल ये भी है कि कठोर परिश्रम से अर्जित मान - सम्मान  वाले इस पेशे में आने के बाद प्रशासनिक अधिकारी भ्रष्ट होता है तो उसका कारण उसकी लालची प्रवृत्ति है या फिर सरकारी तन्त्र में व्याप्त कार्य संस्कृति जिसके चलते वह अपनी  शिक्षा और योग्यता से उत्पन्न गौरव को भूलकर किसी भी तरह से पैसा कमाने में जुट जाता है। हालांकि ये कहना गलत न होगा कि इसके लिए सत्ता में बैठे नेतागण और हमारे देश की चुनाव प्रणाली भी कम जिम्मेदार नहीं है जो भ्रष्टाचार की जननी है किंतु यदि कोई अधिकारी भ्रष्टाचार और सत्ताधीशों की खुशामद करना छोड़ दे तो उसके सामने  सिवाय स्थानांतरण के और कोई दिक्कत नहीं आती। प्रशासनिक सेवा में अनेक अधिकारी हैं जिन्होंने अपने सेवाकाल में अल्पकाल  छोड़कर फील्ड पोस्टिंग के बजाय सचिवालय में काम करना पसंद किया। आशय साफ है कि मलाईदार विभाग नामक जो विशेषण मंत्री से शुरू होता है वह उच्च अधिकारी से लेकर निचले स्तर तक बदस्तूर कायम है। कलेक्टर एक जिले का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी है। यही बात पुलिस अधीक्षक के साथ है किंतु उनकी राजनीतिक पहुंच इस बात से साबित होती है कि वे किस जिले में पदस्थ किए गए। इसी तरह सचिव भी किस विभाग का है ये महत्वपूर्ण है। इसके चलते समूची प्रशासनिक व्यवस्था का राजनीतिकरण हो गया है । और ज्यादातर अधिकारी किसी नेता या राजनीतिक दल के करीबी माने जाते हैं । इस तरह की बातें सुनाई देने के बाद इस प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल प्रतियोगियों के प्रति जो शुरुआती सम्मान उत्पन्न होता है वह  बाद में घटने लगता है। बेहतर हो संघ लोकसेवा आयोग  इस परीक्षा रूपी बाधा को पार करने वाले युवा इस छवि को बदलने की प्रतिबद्धता भी दिखाएं। उनमें से अधिकतर की प्रतिक्रिया यही है कि वे सिविल सर्वेंट बनकर देश की सेवा कर सकेंगे किंतु यदि वे सरकारी दफ़्तर में आने वाले जरूरतमंदों के चेहरों पर मुस्कान ला सकें और बिना सौजन्य भेंट के लोगों का सही काम हो जाए तभी उनकी  योग्यता सही मायनों में प्रमाणित हो सकेगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 



Tuesday 23 May 2023

म.प्र की राजनीति में शालीनता और सौजन्यता का कम होना चिंताजनक



म.प्र में इस वर्ष के अंत तक  विधानसभा चुनाव होने वाले हैं | अभी तक जो स्थिति है उसके अनुसार भाजपा और कांग्रेस में ही मुख्य मुकाबला होने वाला है | यद्यपि बसपा और सपा का भी कुछ सीटों पर असर है  लेकिन प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय ही बनी हुई है | पिछले वर्ष हुए निकाय चुनाव में सिंगरौली नगर निगम में आम आदमी पार्टी का महापौर जीत जाने के बाद इस बात की सम्भावना भी है कि अरविन्द केजरीवाल इस बार इस प्रदेश में तीसरी ताकत बनने के लिए हाथ पाँव मारेंगे | हाल ही में वे पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के साथ भोपाल में रैली भी कर चुके थे | हालाँकि दिल्ली में केंद्र सरकार के साथ चल रही रस्साकशी और कर्नाटक में अधिकतर उम्मीदवारों की जमानत जप्ती की वजह से आम आदमी पार्टी का हौसला गिरा है और फिर जो रणनीति समझ में आ रही है उसके मुताबिक तो यह पार्टी राजस्थान में ज्यादा ध्यान केन्द्रित कर रही है जिसका कारण संभवतः उसका  दिल्ली से करीब होना ही है , जहां कांग्रेस की अंदरूनी कलह के बीच उसे अपनी जगह बनाने की गुंजाईश नजर आ रही है | उस दृष्टि से म.प्र में अभी तीसरी शक्ति की संभावना नजर नहीं आ रहीं | और इसीलिये चुनाव पूर्व चलने वाली ज़ुबानी जंग भी भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सिमटी हुई है | लेकिन चिंता का विषय ये है कि आरोप – प्रत्यारोप का जो आदान – प्रदान हो रहा है उसमें वैचारिक और नीतिगत मुद्दों से ज्यादा निजी मामले हैं | सत्ताधारी दल अपनी  उपलब्धियां प्रचारित करे और विपक्ष उसकी नाकामियां सामने लाये ये तो लोकतंत्र का चिरपरिचित स्वभाव है किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर अब ये बात देखने मिल रही है कि राजनेता  नीतिगत आलोचना की बजाय एक दूसरे पर निजी हमले करने पर उतारू हैं | इसकी शुरुआत किसने की ये कह पाना आसान नहीं है किन्तु म.प्र की ये विशिष्टता रही है कि यहाँ सत्ता और विपक्ष के बीच वैचारिक मतभेदों के बावजूद व्यक्तिगत कटुता नहीं रही | श्यामाचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा के मुख्यमंत्री रहते हुए नेता प्रतिपक्ष कैलाश जोशी के साथ मधुर सम्बन्ध थे | सदन और उसके बाहर एक दूसरे के प्रति अपमानजनक टिप्पणी शायद ही कभी सुनाई दी हो | इसी तरह अर्जुन सिंह और सुन्दरलाल पटवा के बीच व्यक्तिगत रिश्ते में राजनीतिक मतभेद कभी बाधा नहीं बने | सौजन्यता का यह सिलसिला दिग्विजय सिंह और विक्रम वर्मा के समय भी जारी रहा | लेकिन उसके बाद से राजनीति का वह सुनहरा दौर धीरे – धीरे विदा होने लगा | जो दिग्विजय सिंह कभी कुशाभाऊ ठाकरे के सार्वजानिक तौर पर चरण छूने में संकोच नहीं करते थे वे हिन्दू विरोधी बयानों के कारण अपनी छवि खराब कर बैठे | हालांकि हाल ही में उन्होंने स्व. पटवा के भतीजे विधायक  सुरेन्द्र के निवास पर जाकर सबको चौंकाया था किन्तु श्री वर्मा के साथ उनके रिश्तों वाली बात अब नहीं दिखाई देती | लेकिन ऐसा केवल कांग्रेस के साथ ही नहीं है | भाजपा में भी अब कुशाभाऊ ठाकरे का दौर अतीत की बात हो चली है जिनके समक्ष उनके कट्टर विरोधी भी श्रीद्धावनत हो जाया करते थे | हालाँकि वर्तमान  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी सौजन्यता की प्रतिमूर्ति हैं और उनकी भाषा भी बहुत ही संयमित है किन्तु बाकी नेताओं द्वारा मर्यादा का ध्यान नहीं रखा जाता | कांग्रेस में भी कमलनाथ का वर्चस्व होने के बाद राजनीतिक संवाद  का स्तर गिरा है | कभी - कभी ऐसा लगता है जैसे बड़े नेता अपने मातहतों को ऊल -  जलूल बोलने की छूट दे देते हैं | वर्ना गाली का जवाब गाली ही हो ये जरूरी नहीं होता | पहले भी राजनीति में व्यक्तिगत आरोप  लगा करते थे लेकिन  शालीनता का ध्यान रखा जाता था | मानहानि के मुकदमे शायद ही कभी सुनाई देते हों | गलत शब्दों के प्रयोग पर बिना  झिझके माफी मांग लेने और माफीनामा स्वीकार करने का बड़प्पन साधारण बात  थी | लेकिन बीते कुछ समय से शांति का टापू कहे जाने वाले प्रदेश में राजनीतिक विमर्श का जो स्तर देखने मिल रहा है वह चिंता के साथ ही गहन चिंतन का विषय है | प्रदेश के विकास के बारे में सभी पार्टियां अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करती  रही हैं किन्तु इसके लिए समन्वित प्रयास शायद ही दिखाई दिए हों | इसका प्रमाण  निकाय चुनाव में महापौर और सदन का बहुमत अलग पार्टी के पास होने से उत्पन्न हालात से बखूबी समझा जा सकता है | जिस तरह परिवार में ये कहा जाता है कि बच्चे अपने बड़े - बुजुर्गों के व्यवहार से सीखते हैं , उसी तरह राजनीतिक दल में छोटे स्तर का कार्यकर्ता अपने वरिष्टों के आचरण और अभिव्यक्ति की शैली से प्रेरणा लेता है | ये देखते हुए अब ये जिम्मेदारी भाजपा और काँग्रेस दोनों के वरिष्ट नेताओं की है कि वे अपने दल के भीतर आचरण और संयमित वाणी का उदाहरण पेश करें | चुनाव तो आते – जाते रहेंगे और सरकारें भी बनती – बिगड़ती रहेंगी किन्तु राजनीति यदि प्रतिस्पर्धा की बजाय शत्रुता का रूप ले लेगी तब लोकतंत्र का वही स्वरूप देखने मिलेगा जो पाकिस्तान में कायम है | म.प्र देश के सबसे शांत राज्यों में से है | इसका प्राकृतिक सौन्दर्य भी अपने आप में अनूठा है | देश के सभी अंचलों के लोग यहाँ आकर स्थायी रूप से बसे होने के कारण यहाँ क्षेत्रीयता और भाषा जैसे विवाद नहीं रहे | खुद कमलनाथ प्रदेश के बाहर से आकर छिंदवाड़ा के सांसद बने और 2018 में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे | अन्य राज्यों से आकर और भी  राजनेता यहाँ से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं | 1971  में दमोह लोकसभा सीट से कांग्रेस ने उस समय के  राष्ट्रपति वी.वी गिरि के पुत्र शंकर गिरि को उतारा और वे जीत भी गए जबकि उनको यहाँ की भाषा तक नहीं आती थी | स्व. सुषमा स्वराज भी विदिशा से सांसद चुनी गईं | कहने का आशय ये है कि विधानसभा चुनाव के मद्देनजर होने वाले आरोप - प्रत्यारोप को निजी आक्रमण से जितना बचाया जा सके उतना बेहतर होगा ,  क्योंकि अंततः उसका असर समाज पर भी पड़ता है | और आज की राजनीति  में कब कौन पाला  बदलकर  यहाँ से वहां हो जाये कहना कठिन है | 2018 के चुनाव में कांग्रेस के पोस्टर बॉय रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया महज 15 माह बाद ही भाजपा के साथ आ गये | इस तरह का पाला बदल इस चुनाव के पहले आये दिन देखने  मिल  रहा है | इसलिए अपने विरोधी को अपमानित करने और उसके बारे में अशोभनीय बातें कहने के पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि क्या पता कल वह आपके साथ आकर बैठ जाए |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 22 May 2023

विपक्षी एकता की कोशिश में भी भेदभाव




कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर कांग्रेस द्वारा विपक्ष के अनेक नेताओं को दावत देकर बुलाया गया। इसका उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा के विरोध में विपक्षी मोर्चा बनाने की मुहिम में अपना हाथ ऊपर रखना था । दरअसल इसकी कोशिश पार्टी ने संसद के बजट सत्र के दौरान अडानी विवाद में जेपीसी की मांग और उसके बाद राहुल गांधी की सदस्यता जाने के समय ही प्रारंभ कर दी थी। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बुलावे पर एक दो को छोड़कर शेष विपक्षी दलों के नेतागण संसद में सरकार को घेरने जमा भी होते रहे , लेकिन कोई ठोस निर्णय नहीं हो सका। और जैसे ही जेपीसी मामले में शरद पवार ने अडानी की तरफदारी की तो कांग्रेस की वह मुहिम फुस्स होकर रह गई। राहुल को भी कानून की अदालत में ही अपना मामला ले जाना पड़ा। उसके बाद कर्नाटक के चुनाव आ गए जिसमें कांग्रेस को जोरदार सफलता मिली तो उसका मनोवैज्ञानिक लाभ लेते हुए उसने विपक्ष को अपने मंच पर जमा करते हुए ये संदेश देने का प्रयास किया कि भाजपा के विरुद्ध संयुक्त मोर्चे की अगुआई करने में वही सक्षम है। उसके बुलावे पर तमाम दिग्गज विपक्षी नेता आए भी। जिनमें शरद पवार , नीतीश कुमार , हेमंत सोरेन , स्टालिन, तेजस्वी यादव , डी राजा ,सीताराम येचुरी , फारुख अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती आदि थे। नीतीश वैसे भी इन दिनों विपक्षी एकता के सूत्रधार बने हुए हैं । लेकिन कांग्रेस ने एकता प्रयासों के बीच भी अपनी हेकड़ी नहीं छोड़ी। जिसके चलते नवीन पटनायक , अरविंद केजरीवाल , जगनमोहन रेड्डी , पी. विजयन, के.चंद्रशेखर राव ,मायावती जैसे नेताओं को बुलावा नहीं भेजा। ममता बैनर्जी को हालांकि बुलाया गया किंतु वे बंगाल में कांग्रेस और वामपंथियों के गठबंधन से खफा होने से नहीं आईं। हास्यास्पद बात ये भी रही कि राजा और येचुरी को तो बुलाया गया किंतु केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री को न बुलाना अटपटा सा लगा। इसी तरह पड़ोसी तेलंगाना और आंध्र के मुख्यमंत्री भी आमंत्रित नहीं किए गए। कुल मिलाकर कहें तो विपक्षी एकता के इस प्रयास में भी कांग्रेस बड़ा दिल नहीं दिखा सकी। राजनीतिक दृष्टि से देखने पर उसने उन नेताओं को बुलाने से परहेज किया जिनके राज्यों में उसे उनका विरोध करना पड़ता हैं । आंध्र , तेलंगाना , दिल्ली और पंजाब इसके उदहारण हैं। लेकिन ममता बैनर्जी को बुलाए जाने के बाद भी उनका न आना इस बात का इशारा कर गया कि कांग्रेस से भी कुछ क्षेत्रीय दलों को चिढ़ है क्योंकि उसका ऊपर उठना उनके भविष्य के लिए खतरनाक होगा। शपथ ग्रहण के बाद सीपीएम के पूर्व महासचिव और पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात ने कांग्रेस द्वारा विपक्ष के बीच भेदभाव किए जाने पर गुस्सा व्यक्त किया । ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि क्या विपक्ष की कथित एकता भी गुटबाजी का शिकार होकर रह गई ? उल्लेखनीय है सपा प्रमुख अखिलेश यादव और ममता बैनर्जी मिलकर कांग्रेस से अलग विपक्ष का तीसरा मोर्चा बनाने की पेशकश भी कर चुके हैं । उक्त आयोजन में निजी कारणों से अखिलेश भी नहीं गए और बाद में उनके और ममता की ओर से कांग्रेस को ये संदेश भी भेज दिया गया कि वह यदि 200 लोकसभा सीटों पर लड़ने राजी हो तो उसके साथ तालमेल बनाया जा सकता है। हालांकि कांग्रेस ने इसका उत्तर नहीं दिया किंतु ऐसा ही संकेत शुरुआती दौर में नीतीश भी कर चुके थे। इस सबसे लगता है कि कांग्रेस विपक्षी एकता तो चाहती है किंतु उसके भीतर श्रेष्ठता और वरिष्टता का जो भाव है , वह इसमें बाधक बन रहा है। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के बाद कर्नाटक का चुनाव जीतने से पार्टी का आत्मविश्वास निश्चित तौर पर बढ़ा है किंतु राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि ये परिणाम 2024 के महासंग्राम की भविष्यवाणी नहीं हैं। इसका कारण ये बताया जा रहा है कि भारतीय मतदाता राज्य और केंद्र में अलग - अलग तरीके से मतदान करने लगा है। बीते दस साल में ये बात सामने आई है कि लोकसभा और विधानसभा में अलग - अलग सरकारें चुनने जैसा फैसला मतदाताओं ने किया। ये देखते हुए अनेक विपक्षी दल कांग्रेस की स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार आने के प्रति आशंकित हैं । दूसरी तरफ कांग्रेस भी इस बात से भयभीत है कि सभी विपक्षियों को एकजुट करने के फेर में कहीं उसकी स्थिति कमजोर न हो जाए क्योंकि हर पार्टी अपने लिए हैसियत से ज्यादा मांगती है। उत्तर भारत के दो बड़े राज्यों के साथ ही बंगाल में कांग्रेस की हालत बेहद दयनीय है। ऐसे में वह विपक्ष का नेतृत्व किस प्रकार कर सकेगी ये समझ से परे है। कर्नाटक के शपथ ग्रहण को विपक्षी एकता का प्रकटीकरण कहने वाले ये भूल जाते हैं कि नवीन पटनायक ,ममता बैनर्जी , जगनमोहन रेड्डी , के. चंद्रशेखर राव , अरविंद केजरीवाल , पी. विजयन और मायावती के बिना बनाया जाने वाला विपक्षी मोर्चा महज औपचारिकता बनकर रह जायेगा। 

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 20 May 2023

100 से बड़ा नोट होना ही नहीं चाहिये


मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : संपादकीय
-रवीन्द्र वाजपेयी 

100 से बड़ा नोट होना ही नहीं चाहिये  

कल शाम जैसे ही रिजर्व बैंक ने 2 हजार के नोट चलन से बाहर करने की सूचना सार्वजनिक की तो पहले - पहल  ये माना गया कि यह 2016 में की गयी नोटबंदी जैसा ही कदम है , जिसकी वजह से पूरे देश को अकल्पनीय परेशानियां झेलना पड़ी थीं | आज भी उस वक्त की याद आते ही लोग सन्न रह जाते हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीवी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए 500 और 1 हजार के नोट बंद करने  की  घोषणा कर डाली | उसके बाद के हालात पर काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है | उस कदम का उद्देश्य क्या था ये अधिकृत तौर पर आज तक स्पष्ट नहीं हो सका | कोई उसे काले धन पर चोट बता रहा था तो कोई आतंकवादियों की आर्थिक सहायता को रोक देने का उपाय | लेकिन आम तौर पर यही समझा गया कि वह दांव काले धन को बाहर लाने चला गया था | लेकिन अमल में हुई कुछ गलतियों की वजह से उस दुस्साहसिक कदम का अपेक्षित लाभ नहीं मिल सका | काले धन वालों ने येन केन प्रकारेण अपने नोट ठिकाने लगा दिए , जिसमें बैंक कर्मचारी , पेट्रोल पम्प आदि के साथ सरकारी विभाग भी शामिल रहे | ये कहना गलत न होगा कि समाचार माध्यमों के जरिये आ रही खबरों से सरकार घबरा सी गयी और उसने नोट बदलने के लिए जिस तरह की रियायत और मोहलत दी उसने उस निर्णय के असली उद्देश्य पर पानी फेर दिया | उसके बाद अर्थव्यवस्था में आये ठहराव के कारण उसको चौतरफा आलोचना झेलनी पड़ी | यद्यपि उसके बाद भी भाजपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव जीत लिया किन्तु नोटबंदी रूपी वह हादसा आज भी सिहरन पैदा कर देता है | और फिर सरकार ने 2 हजार का नया नोट जारी कर नए सवाल भी पैदा कर दिए | मसलन काले धन को बाहर  लाने के लिए बड़े नोट बंद करने के बाद उससे भी बड़ा नोट जारी करने का औचित्य क्या था ? लेकिन गत दिवस की गई नोटबंदी के साथ रिजर्व बैंक ने ये  साफ़ किया कि उस समय मुद्रा की कमी को दूर करने के लिये 2 हजार का नोट शुरू किया गया था किन्तु अब वह मकसद पूरा हो चुका है इसलिए उसे  वापस लेने की प्रक्रिया के तहत ये कदम उठाया  गया है | बीते तीन - चार सालों से वैसे भी इस नोट की छपाई बंद थी और जितने नोट बैंक में गए भी उनको दोबारा चलन में लाने की बजाय वापस रिजर्व बैंक भेज दिया गया | लेकिन ईडी और आयकर के छापों में जप्त किया गया काला धन ज्यादातर 2 हजार के नोटों की शक्ल में ही मिला | इससे इस अवधारणा की पुष्टि हुई कि बड़े नोट काले धन के संचय में मददगार बनते हैं | इसीलिये कल जब रिजर्व बैंक ने उक्त घोषणा की तब कुछ देर तक तो घबराहट रही लेकिन जैसे ही स्पष्ट हुआ कि 2 हजार का नोट तत्काल प्रभाव से बंद नहीं होगा और उसे बैंक से बदलने के लिए 30 सितंबर तक का समय मिलेगा तो लोगों ने राहत की सांस ली | इस दौरान उसके जरिये मौद्रिक लेन देन भी सामान्य तरीके से जारी रहेगा | जिनके खाते बैंक में नहीं हैं वे एक बार में 20 हजार के नोट बदल सकेंगे जबकि खातेदार कितनी भी मात्रा में 2 हजार  के नोट खाते में जमा कर पायेगा |  कुछ लोग इस निर्णय को र्रिजर्व बैंक द्वारा भूल सुधार करना बता रहे हैं तो कुछ के अनुसार ये एक और भूल है | विपक्ष इसे जनता को परेशानी में डालने वाला बताकर इसकी आलोचना कर रहा है | प्रधानमंत्री की निर्णय क्षमता पर सवाल दागे जा रहे हैं । दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने तो पढ़े – लिखे  प्रधानमंत्री की जरूरत बताते हुए श्री मोदी पर तंज कस डाला | लेकिन  सबसे अलग हटकर देखें तो इस निर्णय को नोटबंदी के अगले चरण के तौर पर देखा जा सकता है | इसमें दो राय नहीं है कि 2016 के फैसले के बाद काले धन से कारोबार करना कुछ हद तक तो कठिन हुआ है | इसी तरह जीएसटी के  आने से भी व्यापार में पारदर्शिता बढ़ी है | हालाँकि पूरी तरह से काले धन का प्रचलन बंद हो गया , ये सोच लेना तो सच्चाई से आँखें मूंदना होगा लेकिन उस पर नियंत्रण तो हुआ  है | जब रिजर्व बैंक को ये लगा कि 2 हजार का नोट सामान्य चलन से बाहर होकर काले धन वालों की तिजोरियों में कैद हो चुका है तब उसने ये फैसला करने की हिम्मत जुटाई | सरकार भी इस बात से आश्वस्त थी कि इस निर्णय से आम जनता को हलाकान नहीं होना पड़ेगा क्योंकि उसके पास 2 हजार के नोट या तो हैं नहीं और यदि हैं तो न के बराबर होंगे | बहरहाल इस बार चूंकि पर्याप्त समय देने के साथ काफी सरल तरीका रहेगा नोट बदलने का और तब तक 2 हजार का नोट चलन में रहने से उसके अवैध होने का खतरा भी नहीं है ,  इसलिए बैंकों में पिछली बार जैसी भीड़ शायद ही हो | लेकिन इसके बाद की परिस्थिति पर भी विचार करना चाहिए | अर्थात बीते कुछ सालों में जबसे नगदी में लेन देन में निरंतर कमी आ रही है और नई पीढ़ी तेजी से डिजिटल आर्थिक व्यवहार को अपनाती जा रही है तब बड़े नोटों के प्रचलन को भी धीरे – धीरे कम करते हुए बंद करना चाहिए | अमेरिका में सबसे बड़ा नोट 100 डालर का होता है | कहते हैं नोटबंदी की भूमिका में ऐसा ही कुछ करने की सोच थी किन्तु फिर जो फैसला हुआ वह सही होते हुए भी परेशानी का सबब बन गया | अच्छा हुआ सरकार और रिजर्व बैंक दोनों ने पिछले अनुभव या गलतियों से सबल लेते हुए जनता की असुविधा का ध्यान रखा | ये भी कहा जा सकता है कि इस बार पर्याप्त मात्रा में नए नोट तैयार किये जा चुके होंगे जिससे  नोट बदलने वाले को तत्काल भुगतान किया जा सके | इस बारे में बेहतर होगा कि अगले कदम के तौर पर 500 का नोट भी बंद किया जाए |  ये बात तो हर कोई जानता है कि बड़े नोट घूसखोरी और  भ्रष्टाचार के जरिये काले धन में परिवर्तित होकर चलन से बाहर हो जाते हैं | कम मूल्य की मुद्रा को छिपाने में भी काले धन वाले को परेशानी होगी | इसलिए आधे - अधूरे मन से काम करने के बजाय सरकार को  ठोस निर्णय लेना चाहिए। भ्रष्टाचार हमारे देश की  सबसे बड़ी समस्या है और उसका पोषण काले धन से ही होता है। इसलिए उसकी जड़ें काटने के लिए सबसे सुलभ तरीका बड़े नोटों को बंद करना ही है। रिजर्व बैंक द्वारा गत दिवस उठाया गया कदम समयोचित होने के साथ ही आने वाले चुनावों में काले धन के उपयोग पर लगाम लगाने में सहायक होगा ये उम्मीद की जानी चाहिए। 


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 19 May 2023

मंत्री भले हट गया लेकिन मुद्दा अभी जीवित है



कल सुबह जब कानून मंत्री किरण रिजिजू का विभाग बदले जाने की खबर आई तब हर किसी को अचरज हुआ क्योंकि वे मोदी सरकार के अत्यंत कार्यकुशल सदस्यों में से माने  जाते हैं | रविशंकर प्रसाद को हटाये जाने के बाद जब श्री रिजिजू को उनके स्थान पर बिठाया गया  तब ये कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ट अधिवक्ता होने के नाते चूंकि नीतिगत मामलों में वे न्यायपालिका के साथ मतभेदों पर खुलकर सरकार का पक्ष नहीं रख पाते लिहाजा ऐसा कानून मंत्री नियुक्त किया गया  जिसका अदालत से पाला न पड़ता हो | उल्लेखनीय है अतीत में अनेक नामी अधिवक्ता कानून मंत्री रह चुके हैं लेकिन ये कहना गलत न होगा कि इन दिनों जिस तरह की तल्खी सरकार और न्यायपालिका के बीच देखने मिल रही है वह अपने आप में अभूतपूर्व कही जा सकती है | वैसे तो अनेक फैसले इसकी वजह माने  जा सकते हैं किंतु मुख्य कारण है उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु प्रचलित कालेजियम व्यवस्था। जिसे मोदी सरकार के आने के  बाद लोकसभा में सर्वसम्मति और राज्यसभा में केवल स्व.राम जेठमलानी के विरोध के बाद रद्द करते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का कानून पारित कर दिया गया । लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे असंविधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया। हालांकि केंद्र सरकार ने दोबारा उस विषय को संसद में लाने का प्रयास नहीं किया किंतु इसे लेकर न्यायपालिका के साथ उसके रिश्तों में खटास आ गई।जिसका प्रमाण सार्वजनिक मंचों पर भी मिलने लगा। जबसे श्री रिजिजू कानून मंत्री बने तबसे वे कालेजियम को असंवैधानिक बताने के साथ ही अनेक ऐसे बयान देते रहे जिनसे न्यायपालिका में नाराजगी बढ़ रही थी। इसका चरम तब आया जब उपराष्ट्रपति बनने के बाद जगदीप धनखड़ ने भी श्री रिजिजू की ही तरह से  ही कालेजियम की संवैधानिकता पर सवाल उठा दिए। इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने सॉलिसिटर जनरल के जरिए ये संदेश भी दिया कि संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति द्वारा इस तरह की बात कहना संतुलन बिगाड़ने वाला होगा। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि श्री धनखड़ स्वयं सर्वोच्च न्यायालय में वकालत कर चुके हैं। हालांकि उसके बाद भी उन्होंने कालेजियम की आलोचना में कोई संकोच नहीं किया किंतु कानून मंत्री के रूप में श्री रिजिजू की आलोचना न्यायपालिका को  नागवार गुजर रही थी। हाल ही में उन्होंने न्यायाधीशों और वकीलों के बारे में जो तीखी टिप्पणियां की गईं उनका विरोध होने के बाद  सरकार को लगा कि बात बढ़ सकती है।इसलिए गत दिवस पहले श्री रिजिजू और बाद में कानून राज्य  मंत्री एस.पी. सिंह बघेल को हटाकर दूसरे मंत्रालय में भेज दिया गया। कानून विभाग का स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल को दिया गया जो संसदीय कार्य और संस्कृति राज्यमंत्री भी हैं और राजस्थान में पूर्व आईएएस अधिकारी भी रह चुके हैं । उनके बारे में ये प्रचारित किए जाने के पीछे भी राजनीतिक कारण है कि वे बहुत सादगी पसंद और सरल व्यक्ति हैं । इसका उद्देश्य संभवतः न्यायपालिका को संदेश देना है कि उन्हें नए मंत्री से वह सब नहीं सुनना पड़ेगा जिससे वह अपने आपको असहज महसूस करती है। इस बारे में ये भी कहा जा रहा है कि हाल ही में देश के  मुख्य न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी सिलसिले में मिले तब श्री चंद्रचूड़ ने श्री रिजिजू के आलोचनात्मक बयानों पर शिकायत दर्ज की। उसी दौरान श्री मोदी ने कानून मंत्री को बदलने का फैसला किया। ये बात भी चर्चा में  है कि मुख्य न्यायाधीश के लंबे कार्यकाल को देखते हुए भी प्रधानमंत्री न्यायपालिका से टकराव टालना चाह रहे हैं । हाल ही में कुछ फैसले ऐसे आए  जिनसे सरकार के सामने परेशानी खड़ी हो गई। प्रधानमंत्री निश्चित तौर पर कुशल राजनेता हैं और व्यक्तिगत व्यवहार में अपने विरोधी के प्रति भी उनकी सौजन्यता प्रसिद्ध है । कानून मंत्री बदलकर उन्होंने श्री चंद्रचूड़ को ये एहसास करवा दिया  कि सरकार मुख्य न्यायाधीश की भावनाओं के प्रति कितनी संवेदनशील और सतर्क है किंतु इसके साथ ही ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि श्री रिजिजू को हटाए जाने के बाद कालेजियम मुद्दे पर क्या केंद्र सरकार का दृष्टिकोण भी बदल गया ? और ये भी कि क्या उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ भी इस विषय पर तीखी टिप्पणियां से बचेंगे ? हालांकि राजनीतिक नेताओं द्वारा फायदे और नुकसान को ध्यान में रखते हुए अपनी नीति और निर्णय परिवर्तित कर देना सामान्य बात है। हाल ही में देखने आया कि वीर सावरकर के बारे में कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा की जाने वाली टिप्पणियां उस समय से बंद हो गईं जब एनसीपी नेता शरद पवार ने कांग्रेस को आगाह किया कि उनसे महाराष्ट्र में नुकसान हो सकता है। उसके बाद से श्री गांधी ने  सावरकर का नाम लेना ही छोड़ दिया। तो क्या न्यायपालिका की नाराजगी से बचने भाजपा भी कालेजियम का विरोध करना बंद कर देगी? बेहतर होगा वह इस बारे में  अपना विचार सार्वजनिक करे क्योंकि श्री रिजिजू बिना पार्टी की  सहमति के कालेजियम के विरुद्ध बोलने का दुस्साहस नहीं कर  सकते थे । अन्यथा बजाय दूसरे विभाग में भेजे जाने के वे  सरकार से बाहर किए जाते। कालेजियम का विषय काफी ज्वलंत है जो न्यायपालिका में पारदर्शिता और परिवारवाद को रोकने से जुड़ा है। बेहतर होगा भाजपा गैर सरकारी स्तर पर इस बारे में राष्ट्रीय विमर्श जारी रखे। न्यायपालिका का सम्मान बेहद जरूरी है।किंतु उसे अपनी मर्जी का मालिक बनाकर स्वच्छंद बना देना भी लोकतंत्र के लिए घातक होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 18 May 2023

पायलट से प्रेरणा ले रहे कांग्रेस के असंतुष्ट



कांग्रेस आलाकमान द्वारा कर्नाटक का विवाद आखिरकार सुलझा लिया गया | लेकिन इस पूरे मामले में एक बात सामने आ गई कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे अपने गृह राज्य में ही प्रभावहीन साबित हुए | चार दिन की मशक्कत के बाद मुख्यमंत्री पद की गुत्थी सुलझ तो गयी लेकिन इस दौरान ये बात खुलकर सामने आई कि कांग्रेस में अब गांधी परिवार भी पहले जैसा ताकतवर नहीं रहा | कर्नाटक के प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार ने मुख्यमंत्री बनने के लिए जिस तरह का दबाव बनाया उसे देखकर ये लगा कि पार्टी आलाकमान द्वारा नाराज नेताओं को मनाये जाते समय दिए जाने वाले आश्वासनों पर भरोसा कम होता जा रहा है | जैसी जानकारी आई है उसके अनुसार श्री खरगे के अलावा राहुल गांधी तक की बात शिवकुमार ने नहीं मानी । पार्टी आलाकमान द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नाम पर मोहर  लगा देने के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष उनके मातहत उपमुख्यमंत्री बनने के लिए राजी नहीं थे | आलाकमान ने उनको प्रदेश अध्यक्ष बने रहने के प्रस्ताव के साथ दो मंत्रालय का प्रस्ताव भी दिया परन्तु वे ऐंठे रहे | आखिकार मोर्चा सोनिया गांधी को सम्भालना पड़ा जिन्होंने शिमला  से वीडियो वार्ता के जरिये शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री बने रहने के लिए राजी कर लिया | आधे मंत्री भी उनकी मर्जी के रहेंगे और ढाई साल बाद मुख्यमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी की  जायेगी |  उल्लेखनीय है कि चुनाव परिणाम के बाद राहुल ने कहा था कि मुख्यमंत्री का चयन चुने हुए विधायक करेंगे | उसके बाद पर्यवेक्षकों को कहा गया कि विधायकों की राय लें | खुद श्री खरगे रायशुमारी में लगे रहे और ये मानकर कि बहुमत  सिद्धारमैया के साथ है ,उनके नाम का निर्णय कर दिया गया। लेकिन इसके विरोध में  शिवकुमार ने जिस तरह के तेवर दिखाए उसके बाद राजनीति के जानकार ये सोचने बाध्य हुए कि भले ही गांधी परिवार ने जी - 23 नामक असंतुष्टों को पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में जोरदार शिकस्त देते हुए शशि थरूर के मुकाबले श्री खरगे को भारी विजय दिलवा दी किंतु उसके बाद भी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री पद के दावेदार क्रमशः सचिन पायलट और टी. एस. सिंहदेव का गुस्सा कम नहीं हो रहा। हालांकि छत्तीसगढ़ में खुलकर बगावत तो नहीं देखने मिली किंतु ढाई - ढाई साल तक मुख्यमंत्री बनाए जाने का जो फार्मूला आलाकमान ने 2018 में सरकार बनने पर भूपेश बघेल और श्री सिंहदेव के बीच तय किया था , उस पर अमल न होने से दोनों के बीच की खुन्नस समय - समय पर सामने आती रहती है। चुनाव करीब होने की वजह से फिलहाल तो मुख्यमंत्री बदले जाने की संभावना क्षीण है किंतु श्री सिंहदेव भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह पर चल पड़े तो इस छोटे से राज्य में कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं । जहां तक राजस्थान का मुद्दा है तो वहां अब तक के हालात ये स्पष्ट कर रहे हैं कि श्री पायलट पार्टी में रहते हुए भी आलाकमान की सर्वोच्चता को ठेंगा दिखाने की जुर्रत लगातार करते जा रहे हैं। लेकिन गांधी परिवार उनके विरुद्ध कोई भी कदम उठाने से डर रहा है । ये संभवतः पहला मौका है जब किसी प्रदेश में कांग्रेस अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री रहा नेता अपनी पार्टी की ही सरकार को भ्रष्ट बताते हुए  सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहा है किंतु उसे पार्टी से निकालना तो दूर रहा , एक नोटिस देने की हिम्मत  तक आलाकमान नहीं कर पा रहा। ऐसा लगता है शिवकुमार जिस तरह से राहुल और श्री खरगे के सामने अपनी जिद पर अड़े रहे उसकी प्रेरणा उनको श्री पायलट के दुस्साहस से मिली। भले ही श्रीमती गांधी ने उन्हें मना लिया लेकिन देखने वाली बात ये है कि उनकी बात भी पहली बार में उन्होंने ठुकरा दी थी। कुल मिलाकर जो स्थितियां कर्नाटक में देखने मिलीं उनसे ये साफ हो गया कि कांग्रेस में गांधी परिवार नामक असली आलाकमान  का रुतबा भी अब ढलान पर है। कर्नाटक की जीत को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का सुपरिणाम बताने वाले राजनीतिक विश्लेषक भी ये देखकर हैरान हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में फंसे  शिवकुमार ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को पूरे चार दिन तक शीर्षासन करवाए रखा। उनको मनाने के लिए सत्ता संचालन में बराबरी की हैसियत देने का वायदा मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के लिए  स्थायी सिरदर्द साबित होगा। कांग्रेस आलाकमान चाहता तो शिवकुमार पर चल रहे मामलों का हवाला देते हुए उनकी अकड़ कम कर सकता था किंतु उल्टे उन्होंने आलाकमान की निर्णय क्षमता को ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया। इसे कर्नाटक में कांग्रेस के  नाटक का मध्यांतर कहना गलत नहीं होगा। शिवकुमार के लिए सत्ता में बने रहना जरूरी भी है और मजबूरी भी क्योंकि राज्य के जिन डीजीपी को वे अयोग्य ,  अक्षम और भाजपा का कार्यकर्ता बताते रहे उनको केंद्र सरकार ने सीबीआई का मुखिया बनाकर उनके सिर पर तलवार लटका दी है। आगे क्या होगा ये आज कहना तो जल्दबाजी होगी  लेकिन कर्नाटक की कांग्रेस राजनीति में बीते चार दिन जो देखने मिला उससे अन्य राज्यों के असंतुष्ट कांग्रेसियों के हौसले बुलंद हुए हैं। विशेष रूप से जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां आलाकमान के लिए नई - नई चुनौतियां सामने आ सकती हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कोई बड़ा धमाका हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 



Wednesday 17 May 2023

मुसलमानों ने कांग्रेस से मांगी अपने समर्थन की कीमत




कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के लिए  उसके पक्ष में मुस्लिम  मतदाताओं की गोलबंदी होने की  बात पहले ही  सामने आ चुकी है।  लेकिन अब जो  सुनने मिल रहा है उससे ये साफ है कि आगामी चुनावों में मुसलमान  भाजपा को हराने के लिए जो भी विकल्प नजर आएगा उसके साथ खड़े हो जायेंगे | प.बंगाल के पिछले चुनाव में इसका प्रमाण देखा जा चुका है | कर्नाटक के ताजा चुनाव परिणाम के बाद  मुस्लिम समुदाय द्वारा  कांग्रेस को जिताने की कीमत के तौर पर उपमुख्यमंत्री पद के साथ पांच महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री पद मांगे जा रहे हैं  | मुस्लिम वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष शफ़ी सादी ने  कहा है कि कांग्रेस को पहले ही  बता दिया गया  था कि उपमुख्यमंत्री मुस्लिम होना चाहिए |  चूंकि एक समुदाय के तौर पर हमने कांग्रेस की बहुत मदद की है इसलिए समय आ गया है जब बदले में हमको भी कुछ मिले | सादी ने गृह , राजस्व ,  शिक्षा और  स्वास्थ्य  जैसे मंत्रालय  मांगे हैं | उनके अनुसार इन सभी को लागू करने हेतु सुन्नी उलेमा बोर्ड में आपातकालीन बैठक भी की जा चुकी है | उनने ये भी कहा कि हमारी सहायता के लिए धन्यवाद देना कांग्रेस की जिम्मेदारी है | इस मांग के सामने आते ही कर्नाटक ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में भी मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा चुनाव जिताने के एवज में सौदेबाजी का चलन सामने आने के साथ ही कांग्रेस पर ये स्पष्ट करने का  दबाव आ गया है कि क्या उसने मुस्लिम मतों के बदले उपमुख्यमंत्री पद का वायदा किया था ? ये बात भी स्पष्ट हो गयी कि मुस्लिमों के समर्थन का आधार अब केवल भाजपा की पराजय को सुनिश्चित करना होगा | बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने पांच सीटें जीतकर तेजस्वी यादव का खेल बिगाड़ दिया था | इसी तरह उ.प्र में भी ओवैसी ने मुस्लिम मतों में विभाजन करवाया जिससे सपा को नुकसान हुआ | उसके बाद से ही ओवैसी को  भाजपा की बी टीम प्रचारित किया जाने लगा  | कर्नाटक के चुनाव ने ओवैसी की उस योजना को भी धक्का पहुँचाया है जिसके अंतर्गत वे मुसलमानों को अपने झंडे तले इकट्ठा करते हुए उनको एक राजनीतिक ताकत के तौर पर स्थापित करना चाह रहे थे | तेलंगाना में भी विधानसभा चुनाव निकट हैं जो ओवैसी का घरेलू मैदान है |  वहां सत्तारूढ़ बीआरएस और उसके मुखिया के. सी. राव सबसे मजबूत माने जा रहे हैं । वहीं कांग्रेस के  लगातार कमजोर होने से भाजपा ने विकल्प के तौर पर अपने पैर जमाये हैं | ऐसे में तेलंगाना का मुसलमान भाजपा को रोकने के लिए श्री राव को समर्थन देगा या कांग्रेस को ,  ये बड़ा सवाल है | ऐसे में ओवैसी  यदि  तेलंगाना में मुस्लिम समुदाय के सरदार नहीं बन पाए तब उनका क्या होगा ये चिंता भी उनको करनी होगी | बहरहाल कर्नाटक के मुस्लिम समुदाय द्वारा महज 9 विधायकों के साथ ही उपमुख्यमंत्री और पांच प्रमुख विभागों के मंत्री मांगने की जो हिम्मत की गई ,  उसे कांग्रेस किस सीमा तक स्वीकार करेगी ये देखने वाली बात होगी  क्योंकि यदि वह वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष की मांगों को मान लेती है तब ये कहना न गलत  नहीं होगा कि साम्प्रदायिकता को दिन रात गालियाँ देने वाली पार्टी ने  सत्ता हासिल करने के लिए मुल्ला – मौलवियों के साथ गुपचुप समझौता किया था | अभी तक शफी साद द्वारा की गयी मांग के बारे में कांग्रेस के किसी नेता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं  दी है । लेकिन मुस्लिम पक्ष ने जिस तरह कहा है कि चुनाव के पहले ही मुस्लिम उपमुख्यमंत्री की बात हो चुकी थी उससे लगता है कि अब वे भाजपा को हरवाने से ही संतुष्ट नहीं होने वाले | अपितु उनको समर्थन के बदले उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी भी चाहिए | स्मरणीय है सपा के संस्थापक स्व. मुलायम सिंह यादव के दाहिने हाथ कहे जाने वाले आज़म खान को लगता रहा कि मुलायम सिंह उनको उत्तराधिकारी बनायेंगे किन्तु  जब उन्होंने अपने पुत्र अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया  तभी से आज़म खान उखड़े – उखड़े रहने लगे | लेकिन कर्नाटक के नतीजे के बाद जिस तरह से मुस्लिम उलेमाओं ने कांग्रेस पर दबाव बनाना शुरू किया उससे  राजनीति की नई सूरत सामने आई है । जिस तरह से शफी साद ने कांग्रेस से धन्यवाद देने के बात कही उससे साफ है कि चुनाव जीतने कांग्रेस ने मुस्लिमों को सत्ता में हिस्सेदारी का वायदा किया था। मुस्लिम नेता का ये कहना मायने रखता है कि 136 में से 72 यानि आधे से ज्यादा सीटें कांग्रेस मुस्लिम समर्थन से जीती। गौरतलब है कर्नाटक में भाजपा का मत प्रतिशत यथावत रहा किंतु जनता दल (एस) के 5 फीसदी मत कांग्रेस के खाते में  चले जाने से उसे स्पष्ट बहुमत मिल गया। दरअसल उसके नेता कुमारस्वामी का रिकॉर्ड देखते हुए मुसलमानों को लगा कि त्रिशंकु की स्थिति में वे भाजपा के साथ जा सकते हैं। इसीलिए उन्होंने जनता दल (एस) से किनारा करते हुए कांग्रेस की झोली भर दी। बहरहाल , कर्नाटक की राजनीति में मुस्लिम समीकरण का ये उभार कांग्रेस ही नहीं बाकी गैर भाजपा पार्टियों के लिए भी सिरदर्द बन सकता है क्योंकि अब मुसलमान वोट देने के बाद  सत्ता में हिस्सेदारी भी मांगने लगे हैं । शफी साद ने कहा भी है  कि मुसलमानों के लिए 30 सीटें कांग्रेस से मांगी थी किंतु 15 मिलीं और उनमें से 9 जीतकर आए। कर्नाटक के कुछ  उलेमा तो मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग भी करने लगे हैं , जो  दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। स्मरणीय है आजादी के कुछ दशक पहले अंग्रेजों की शह पर मो.अली जिन्ना ने भी मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग बुलंद कर पाकिस्तान के निर्माण की बुनियाद रखी थी। ये देखते हुए  सवाल ये है कि आने वाले समय में अपने  समर्थन के बदले  मुस्लिम समुदाय केंद्र में उपप्रधानमंत्री के अलावा रक्षा , गृह और विदेश विभाग में मुस्लिम मंत्री की मांग करेगा तब कांग्रेस या बाकी धर्मनिरपेक्ष दल क्या उसे मंजूर करेंगे ?

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 16 May 2023

राजस्थान में मंत्री ही कह रहा सरकार को भ्रष्ट तब कांग्रेस नेतृत्व मौन क्यों



कर्नाटक में भाजपा की करारी हार के  संकेत गत वर्ष अप्रैल माह में  एक ठेकेदार की  मौत के बाद ही मिलने लगे थे जब पूर्व मंत्री और पार्टी के वरिष्ट नेता के.एस, ईश्वरप्पा पर 40  प्रतिशत कमीशन मांगने का आरोप लगा | बाद में मामला और आगे बढ़ा जब ठेकेदारों के संघ ने राज्य सरकार के विभागों में भुगतान न होने और भ्रष्टाचार के कारण  बाहरी ठेकेदारों को काम देने का आरोप लगाते हुए प्रदर्शन भी किये | उसी के कारण भाजपा की बोम्मई सरकार 40 परसेंट के नाम से बदनाम होने लगी | कांग्रेस के स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय नेताओं तक ने भाजपा को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी | यद्यपि भाजपा के प्रचारतंत्र ने भी कांग्रेस  के राज में हुए भ्रष्टाचार की सूची सार्वजनिक करते हुए जवाबी दाँव चला लेकिन जनता के मन में कहीं न कहीं 40 परसेंट वाली बात घर कर गयी जिसकी वजह से सुशिक्षित मतदाताओं ने उसकी पराजय का मन बना लिया | पार्टी समर्थक वह तबका जो उसके विरोध में मतदान नहीं करना चाहता था वह घर से नहीं निकला और यही कारण रहा कि शहरी क्षेत्रों में भी भाजपा को निराशा हाथ लगी | हालांकि ये अकेला मुद्दा नहीं था जिसने कांग्रेस को भारी जीत दिलवाई किन्तु ये बात माननी होगी कि भाजपा की  पराजय की नींव इसी आरोप पर रखी गयी | लेकिन कर्नाटक के चुनाव से अलग हटकर निगाह घुमाएँ तो कांग्रेस शासित राजस्थान में इन दिनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रहे राजनीतिक मुकाबले से कांग्रेस के लिए जो शोचनीय स्थिति उत्पन्न हो गयी है वह उसके लिए आगामी विधानसभा चुनाव में गड्ढा खोदने का काम कर सकती है | श्री पायलट आये दिन मुख्यमंत्री पर ये आरोप लगा रहे हैं  कि वे पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरुद्ध भ्रष्टाचार के जो आरोप उनके द्वारा लगाये गए थे , उनकी जांच करवाने से कतरा रहे हैं | इसके जवाब में श्री गहलोत ने पायलट समर्थक विधायकों पर सरकार गिराने के लिए भाजपा से करोड़ों रुपए लेने का आरोप लगाते हुए ये तंज कसा कि वे पैसे लौटाने में असमर्थ हों तो उनको कांग्रेस के फंड से दिलवा दिए जायेंगे और उसी के साथ उन्होंने वसुंधरा राजे की ये कहते हुए तारीफ भी कर डाली कि उनके कारण ही पायलट खेमे की  बगावत विफल हो गई। उल्लेखनीय है हाल ही में श्री पायलट ,  वसुंधरा राजे की जांच हेतु दिन भर धरना भी दे चुके थे। उसके बाद उन्होंने भ्रष्टाचार के तीन मामलों की जांच हेतु अजमेर से जयपुर तक पांच दिवसीय पद यात्रा भी की जिसके समापन पर गत दिवस जयपुर में जबरदस्त भीड़ उमड़ी तथा 14 विधायकों  सहित एक राज्य मंत्री राजेंद्र गुढ़ा भी उपस्थित रहे जिन्होंने आरोप लगाया कि गहलोत सरकार ने भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और बिना पैसे लिए कोई काम नहीं होता । दूसरी तरफ श्री पायलट ने चेतावनी दी कि 15 दिन में यदि उनके द्वारा उठाए तीनों मामलों में जांच शुरू नहीं की जाती तब वे प्रदेशव्यापी आंदोलन करेंगे। इस मामले में श्री गहलोत और श्री पायलट के बीच की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता तो समझ में आती है किंतु जब राज्य  का एक मंत्री ही सार्वजनिक सभा में ये कहे कि सरकार ने भ्रष्टाचार के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं तब फिर विपक्ष के लिए कहने के लिए कुछ बचता ही कहां है ? और मुख्यमंत्री अपने विधायकों पर विपक्षी पार्टी से उसकी सरकार गिराने के एवज में करोड़ों की  धनराशि लेने के बात ऐलानिया कहता फिरे तब उन विधायकों की बेईमानी और गद्दारी को प्रमाणित करने की जरूरत ही नहीं बच रहती।  ऐसे में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इस बात का स्पष्टीकरण देना चाहिए कि कर्नाटक के ठेकेदारों द्वारा भाजपा की राज्य सरकार पर कमीशनखोरी का आरोप लगाए जाने के बाद पार्टी ने उसी से अपना चुनाव प्रचार शुरू किया किंतु राजस्थान में उसकी अपनी सरकार पर उसी का एक मंत्री रिकॉर्ड तोड़ भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के बावजूद सत्ता में कैसे बना है ?  और जिन विधायकों पर खुद मुख्यमंत्री करोड़ों रु.भाजपा से लेने का आरोप लगा रहे हैं उनके विरुद्ध अब तक क्या कार्रवाई हुई ? कर्नाटक में भाजपा सरकार को तो जनता ने सजा दे दी किंतु जब राजस्थान में उसके अपने ही मंत्री द्वारा सरकार और मुख्यमंत्री द्वारा  विधायकों पर भ्रष्टाचार के आरोप बेधड़क लगाए जा रहे हैं तब कांग्रेस नेतृत्व इस बारे में आंखें मूंदकर क्यों बैठा हुआ है ? आज तक न तो राहुल गांधी और न ही किसी अन्य नेता ने  राजस्थान में कांग्रेस के भीतर से ही सरकार और पार्टी दोनों  पर लगाए जा रहे आरोपों के बारे में एक शब्द नहीं कहा ।  भाजपा से मिलकर सरकार गिराने के लिए करोड़ों डकारने के आरोपी विधायक भी पार्टी में बने हुए हैं और सरकार को  भ्रष्टतम कहने वाले मंत्री महोदय भी सरकार का हिस्सा हैं । ये स्थिति हास्यास्पद भी है और चिंताजनक भी। विपक्ष द्वारा लगाए जाने वाले  आरोपों को सत्ता पक्ष द्वारा नकारे जाने पर  किसी को आश्चर्य नहीं होता लेकिन राजस्थान में तो कांग्रेसी कुनबे में ही आरोप - प्रत्यारोप का सिलसिला जिस तरह बेशर्मी  के साथ चल पड़ा है उसे देखते हुए आगामी चुनाव में जब श्री पायलट और श्री गहलोत द्वारा चलाए जा रहे आरोपों के तीर यदि विपक्ष के हाथ में बतौर हथियार काम करेंगे तब राहुल गांधी किस मुंह से बचाव करेंगे ये बड़ा सवाल है क्योंकि भ्रष्टाचार हमारे देश की ऐसी बुराई है जिसमें सभी पार्टियां लिप्त हैं। मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है किंतु पूरी तरह पाक - साफ होने का दावा कोई नहीं कर सकता । देखने वाली बात ये होगी कि कर्नाटक में भाजपा सरकार को 40 परसेंट कमीशन के नाम पर घेरने वाली कांग्रेस , राजस्थान में अपनी सरकार के बारे में क्या करती है ? 

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 13 May 2023

द केरला स्टोरी : चंद्रचूड़ का सवाल विचारणीय



इन दिनों देश भर में  द केरला स्टोरी नामक फिल्म की बड़ी चर्चा है। इसमें ये दर्शाया गया है कि किस तरह हिंदू लड़कियों को भावनात्मक तरीके से बहलाकर इस्लामी  आतंकवाद के जाल में फंसाया जाता है ।  फिल्म पर रोक लगाने की अर्जी भी लगी किंतु केरल उच्च न्यायालय ने उसे नामंजूर कर दिया। लेकिन पहले  तमिलनाडु और फिर प. बंगाल की सरकार को  उक्त फिल्म की  वजह से राज्य की कानून व्यवस्था के लिए खतरा महसूस हुआ और उन्होंने इस  पर रोक लगा दी। इसके विरोध में फिल्म निर्माताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाई गई जिसने गत दिवस प. बंगाल सरकार से  पूछा कि जब पूरे देश में फिल्म देखी जा रही है तब उस पर प्रतिबंध लगाने का क्या औचित्य है ? तमिलनाडु सरकार को भी नोटिस भेजा गया है।  मुख्य न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड ने टिप्पणी की कि फिल्म अच्छी है या बुरी इसका निर्णय जनता को करने दीजिए। इसके पहले अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आजमी ने भी फिल्म का विरोध करने पर आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा था कि सेंसर बोर्ड की स्वीकृति ही किसी फिल्म के प्रदर्शन का आधार माना जाना चाहिए। बहरहाल द केरला स्टोरी पूरे देश में  पसंद की जा रही है और व्यवसायिक तौर पर भी उसने अच्छा कारोबार किया है। हालांकि ये भी सच है कि भाजपा द्वारा उसका समर्थन किए जाने और उसके शासित राज्यों में पार्टी  नेताओं द्वारा कार्यकर्ताओं के साथ सामूहिक रूप से फिल्म देखे जाने के कारण भी उसे अतिरिक्त आय हुई है। लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो निष्पक्ष समीक्षक भी मानते हैं कि फिल्म का कथानक सच्चाई के करीब होने से प्रभावशाली है। लव जिहाद एक सामाजिक समस्या के तौर पर सामने आया है। इसका अपराधिक और आतंकवादी पहलू भी विभिन्न प्रकरणों में उजागर हो चुका है। वैसे तो देश के अनेक हिस्सों से इस आशय की खबरें आया करती हैं किंतु केरल में मुस्लिम आबादी की बहुलता और फिर उसके युवकों का बड़ी संख्या में खाड़ी देशों में कार्यरत होना भी लव जिहाद में सहायक हुआ है। संदर्भित फिल्म में जो दिखाई गया वह बेहद गंभीर विषय है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद का प्रतीक माने जाने वाले संगठन के साथ लव जिहाद के तार जुड़े बताए गए हैं। फिल्म निर्माण के क्षेत्र में अब सामाजिक जीवन से जुड़ी समस्याओं और घटनाओं को पटकथा का विषय बनाया जाने लगा है। ओटीटी नामक नए माध्यम में तो खुलेपन के नाम पर जो दिखाया जा रहा है वह भारतीय संदर्भों में घोर आपत्तिजनक होने के बाद भी  सेंसर बोर्ड का नियंत्रण नहीं होने से  सांस्कृतिक प्रदूषण के तौर पर  घर - घर में घुसता जा रहा है । लेकिन  उसका विरोध करने के बजाय जब कश्मीर फाइल्स और द केरला स्टोरी जैसी फिल्मों पर प्रतिबंध लगाए जाने की कोशिश होती है तब ये सोचना पड़ता है कि राजनीतिक नफे - नुकसान के मद्देनजर हमारे राजनेता उन सच्चाइयों पर पर्दा डालने से बाज नहीं आते जिनसे देश का हित - अहित जुड़ा हुआ है। विवेक अग्निहोत्री की कश्मीर फाइल्स नामक फिल्म में 1990 में कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन को आधार बनाकर वास्तविकता का जो चित्रण किया गया , उस  बारे में देश कम ही जानता था । इसी तरह लव जिहाद ,  हिंदू लड़की को प्रेम जाल में  फंसाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाने तक सीमित माना जाता था परंतु  द केरला स्टोरी ने जो दिखाया उसने दर्शकों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपनी बच्चियों को इस खतरे से बचाने के प्रति सतर्क रहें । फिल्म के प्रस्तुतीकरण में कुछ नाटकीयता हो सकती है किंतु उसे सिरे से नकारते हुए उसका  प्रदर्शन रोकना संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है। इसलिए श्री चंद्रचूड़ की ये टिप्पणी विचारणीय है कि फिल्म अच्छी है या बुरी इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए। उस लिहाज से हाल ही  में प्रदर्शित कुछ फिल्मों के विरोध का जो सिलसिला चला उससे गलत परिपाटी तैयार हो रही है। शाहरुख खान की पठान फिल्म के कुछ दृश्यों को लेकर उसका जबर्दस्त विरोध हुआ तो उसके समर्थक भी सामने आ  गए । फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़  सफलता हासिल कर ली। जिसके कारण विरोध बेअसर साबित हुआ। हालांकि ये भी सही है कि फिल्म निर्माण करने वाले और उसकी पटकथा लिखने वालों को समाज की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए । भारत जैसे देश में जहां धार्मिक विविधता के अलावा सामाजिक और क्षेत्रीय भावनाएं काफी प्रबल हैं , वहां फिल्म बनाना बेहद कठिन काम है। विशेष रूप से आज के दौर में जब संचार क्रांति के कारण फिल्म प्रदर्शित होने के पूर्व ही उसके बारे में पूरी जानकारी सार्वजनिक हो जाती है जिससे उसे लेकर विरोध और समर्थन भी शुरू हो जाता है।  लेकिन द केरला स्टोरी सदृश फिल्में तो समाज को जागरूक और जिम्मेदार बनाने में सहायक होती हैं । ऐसे में ममता बैनर्जी और स्टालिन जैसे नेताओं को उस पर रोक लगाने से पहले अपने फैसले के औचित्य पर ध्यान देना चाहिए था। मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ का ये पूछना तर्कसंगत है कि जब पूरे देश में उक्त फिल्म शांति के साथ चल रही है तब उस पर रोक लगाने का आधार क्या है ? इसलिए ये उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फैसला इस बारे में आयेगा वह भविष्य के लिए दिशा निर्देशक बन सकता है। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 12 May 2023

फैसला हुआ भी और नहीं भी



सर्वोच्च न्यायालय ने गत वर्ष  महाराष्ट्र में हुए सत्ता परिवर्तन पर जो  फैसला दिया वह कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें राज्यपाल और विधानसभा के स्पीकर की शक्तियों और आचरण पर साफ़ – साफ टिप्पणियाँ करते हुए कहा गया है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सदन  में बहुमत साबित करने का निर्देश देकर राज्यपाल ने गलत किया क्योंकि शिवसेना के बागी विधायकों ने ऐसा कोई अनुरोध उनसे नहीं किया था | इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने स्पीकर द्वारा बागी गुट की ओर से नया सचेतक नियुक्त किये जाने को भी नियम विरुद्ध बताते हुए कहा कि ये परिवर्तन करने का अधिकार भी शिवसेना के अविभाजित गुट के पास ही था | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 16 शिवसेना  विधायकों की योग्यता संबंधी उद्धव गुट की अर्जी का फैसला करने का निर्देश स्पीकर को देते हुए कहा कि उनके अधिकारों पर फैसला करने का निर्णय पांच सदस्यीय संविधान पीठ के लिए संभव नहीं है इसलिए उसे सात सदस्यों वाली बड़ी पीठ को अग्रेषित किया जा रहा है , जो निश्चित समय सीमा के भीतर अपना  फैसला सुनाएगी | मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली उक्त पीठ ने पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे द्वारा उनकी सरकार की बहाली की अर्जी को ये कहते हुए रद्द कर दिया कि चूंकि उन्होंने खुद होकर अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया था इसलिए उनको बहाल किया जाना असंभव है | इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जो कुछ भी कहा वह कानून की व्याख्या के साथ बौद्धिक महत्व तक सीमित होकर रह गया | गौरतलब है इस फैसले का महाराष्ट्र की राजनीति पर गहरा असर होने की संभावना राष्ट्रीय स्तर तक व्यक्त की जा रही थी | शरद पवार की पार्टी एनसीपी में हुई उठापटक को भी इसी से जुड़ा माना जा रहा था | श्री पवार के भतीजे अजीत को एकनाथ शिंदे का विकल्प बनाने की बात भी राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा का विषय बनी रही | शरद पवार द्वारा पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिए जाने के बाद तो उनका और भाजपा का गठबंधन होने की अटकलें भी हवा में तैरने लगीं | लेकिन गत दिवस आये फैसले के बाद उन सब पर फ़िलहाल विराम लग गया है | एकनाथ शिंदे सरकार के भविष्य पर मंडरा रहा खतरा भी सात सदस्यों वाली बड़ी पीठ के फैसले तक तो टल ही गया है | उसके पहले स्पीकर 16 विधायकों की योग्यता पर क्या फैसला लेते हैं ये देखने वाली बात होगी क्योंकि वे इसे कब तक लंबित रखें इसे लेकर कोई समय सीमा तय नहीं की गई है | बहरहाल इस फैसले में एक बात अजीब है कि गत वर्ष राज्यपाल द्वारा जब उद्धव ठाकरे को सदन में बहुमत साबित करने कहा गया था तब राजभवन के उस फैसले पर रोक लगाने की अर्जी सर्वोच्च न्यायालय ने ही ठुकरा दी थी । जबकि गत दिवस आये निर्णय में राज्यपाल के निर्णय को गलत ठहराया गया है | लेकिन सबसे बड़ी बात 16 बागी विधायकों की अयोग्यता से सम्बंधित थी जिस पर संविधान पीठ ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ तो कीं किन्तु अध्यक्ष के अधिकारों सबंधी निर्णय करने में खुद को अक्षम मानते हुए सात सदस्यों की पीठ को अंतिम फैसला करने हेतु भेजे जाने से ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि जब पांच सदस्यों वाली पीठ ने अध्यक्ष के निर्णयों को गलत ठहरा दिया तो फिर उसे 16 सदस्यों वाले मामले में भी अपना मत देना चाहिए था | यदि उसे लग रहा था कि पांच सदस्यों वाली पीठ की सीमायें हैं तब पहले ही बड़ी पीठ के समक्ष सुनवाई होती जिससे इस समूचे मामले में अभी भी जो अनिश्चितता बनी हुए है वह खत्म हो सकती थी | इस मामले में राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो कटाक्ष किये उनका महत्व इसलिए नहीं रह गया क्योंकि संविधान पीठ ने जो कुछ भी कहा उसका तात्कालिक नतीजा तो कुछ निकला ही नहीं | आगामी वर्ष वैसे भी महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं | ऐसे में यदि सात सदस्य  वाली पीठ ने भी लम्बा समय लिया तब इस मामले का किताबी महत्व ही रह जाएगा | ऐसा ही 1992 में बाबरी ढांचा टूटने के बाद  भाजपा की राज्य सरकारों को भंग करने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लेकर हुआ था जिसमें म.प्र .की पटवा सरकार की बर्खास्तगी को अवैध ठहराया गया था । लेकिन तब तक अगला चुनाव भी हो चुका था | बेहतर हो न्यायपालिका ऐसे प्रकरणों में समय की नजाकत को भी समझा करे अन्यथा उसके फैसले होकर भी न हुए जैसे रह जायेंगे | महाराष्ट्र संबंधी ताजा फैसले के साथ भी ऐसा ही है |


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 11 May 2023

राष्ट्रीय राजधानी में दो सरकारों के होते झगड़े रुकने वाले नहीं




सर्वोच्च न्यायालय ने  दिल्ली की चुनी हुई सरकार को प्रशासनिक अमले के स्थानांतरण एवं पदस्थापना संबंधी अधिकार देते हुए स्पष्ट किया कि उपराज्यपाल भूमि , कानून व्यवस्था और पुलिस संबंधी निर्णय छोड़कर  अधिकारियों के तबादले आदि के मामले में निर्वाचित सरकार का निर्णय मानने बाध्य होंगे। प्रधान न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अतीत में उच्च न्यायालय द्वारा इस बारे में उपराज्यपाल के पक्ष में दिए फैसले से असहमति जताते हुए कहा कि चूंकि दिल्ली की सरकार को कानून बनाने का अधिकार है तब अधिकारियों के तबादले और पोस्टिंग जैसे निर्णयों में उपराज्यपाल की मर्जी के अधीन रहने से संघीय ढांचे की परिकल्पना को धक्का पहुंचेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने दो टूक कहा कि भले ही दिल्ली पूर्ण राज्य न हो लेकिन उसमें केंद्र का नियंत्रण इतना ज्यादा नहीं होना चाहिए जिससे राज्य का काम प्रभावित हो। साथ ही पीठ ने ये टिप्पणी भी की यदि प्रशासनिक अमले का स्थानांतरण और पदस्थापना का अधिकार चुनी हुई सरकार के पास नहीं रहेगा तो नौकरशाही उसके नियंत्रण में भी नहीं रहेगी। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में दिल्ली सरकार की ओर से पेश इस तर्क को स्वीकार किया कि  उपराज्यपाल के अधीन रहने से वह काम करने में अड़चन महसूस करती है। इस फैसले को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की भी जीत माना जायेगा। साथ ही इसके कारण केंद्र सरकार की जबर्दस्त किरकिरी भी हुई जिसके ऊपर ये आरोप लगा करता है  कि राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण वह केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने देती और छोटी - छोटी सी बातों पर उपराज्यपाल के जरिए अड़ंगेबाजी करती है। ये बात पूरी तरह सही है कि जबसे दिल्ली में केजरीवाल सरकार बनी तभी से उसका केंद्र के साथ टकराव होता रहा है। इसमें कौन कितना सही या गलत है इसका निर्णय करना आसान नहीं होगा क्योंकि दोनों पक्षों ने किसी न किसी रूप में मर्यादा का उल्लंघन किया। संघीय ढांचा नामक व्यवस्था में नियंत्रण और संतुलन के साथ ही सामंजस्य और सौजन्यता की  भी आवश्यकता होती है। दुर्भाग्य से हमारे देश में राजनीतिक मतभेद चूंकि मनभेद का रूप ले चुके हैं इसलिए विरोधी विचारधारा वाली केंद्र और राज्य सरकार के बीच तनाव और टकराव चलता रहता है। लेकिन केंद्र शासित क्षेत्र को तो एक तरह से केंद्र सरकार के उपनिवेश जैसा मान लिया जाता है। इसीलिए उपराज्यपाल भी चुनी हुई सरकार पर हावी रहते हैं। जिन भी केंद्र शासित प्रदेशों में केंद्र की विरोधी पार्टी का शासन  है वहां इस तरह के झगड़े होते रहते हैं।  पुडुचेरी और दिल्ली के अलावा जम्मू - कश्मीर में भी विधानसभा बनाई गई और प्रदेश की सरकार बाकायदा चुनाव के जरिए बनती है। यद्यपि 370 खत्म होने के पहले जम्मू - कश्मीर भी पूर्ण राज्य था और केंद्र शासित बनाए जाने बाद वहां विधानसभा चुनाव नहीं हुए। लेकिन दिल्ली की स्थिति इसलिए भिन्न है क्योंकि वह राष्ट्रीय राजधानी भी है। उस दृष्टि से उसमें दो अलग सरकारें प्रभावशील हों , ये अटपटा और अव्यवहारिक है । केजरीवाल सरकार पुलिस पर भी अपना नियंत्रण चाहती है।लेकिन आज के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी जमीन , कानून व्यवस्था और पुलिस पर केंद्र के नियंत्रण को मान्य करते हुए चुनी हुई सरकार को प्रशासनिक अधिकारियों के स्थानांतरण और पद स्थापना का काम सौंपने  संबंधी जो निर्णय दिया उससे समस्या का आंशिक समाधान ही होगा और भविष्य में केजरीवाल सरकार इस बात के लिए लड़ेगी कि उसे वे सभी अधिकार मिलना चाहिए जो एक निर्वाचित राज्य सरकार को संविधान में  दिए गए हैं । ये देखते हुए केंद्र शासित राज्य की व्यवस्था को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। चंडीगढ़ , दादरा नगर हवेली , लक्षद्वीप , दमन और दिव , लद्दाख आदि केंद्र शासित क्षेत्रों में प्रशासक काम देखते हैं । वहीं दिल्ली ,पुडुचेरी और अंडमान निकोबार और जम्मू - कश्मीर  में उपराज्यपाल हैं । लेकिन फिलहाल चुनी हुई विधानसभा केवल दिल्ली और पुडुचेरी में ही है। उसमें भी विवाद की स्थिति दिल्ली में सबसे ज्यादा है क्योंकि यहां केंद्र सरकार का मुख्यालय होने से शक्तियों और अधिकारों का विकेंद्रीकरण या बंटवारा बेहद कठिन है । निश्चित रूप से केजरीवाल सरकार के पास दिल्ली की जनता का जबर्दस्त जनादेश है किंतु दूसरी तरफ ये भी सही है कि राष्ट्रीय राजधानी में दो सरकारों का एक साथ होना समस्या पैदा करता रहेगा। केंद्र शासित होने के बाद भी जिस तरह अन्य क्षेत्र बिना विधानसभा के अपना शासन चलाते हैं वैसा ही दिल्ली के लिए भी श्रेयस्कर होता। विधान सभा बनने से पूर्व  दिल्ली में महानगर परिषद (मेट्रो पॉलिटन काउंसिल ) होती थी जिसकी संरचना मौजूदा विधान सभा जैसी ही थी। निर्वाचित सदन , उसका सभापति और  मुख्य कार्यकारी काउंसलर होता था जिसकी हैसियत कमोबेश मुख्यमंत्री जैसी ही थी। लेकिन उसका केंद्र से टकराव नहीं होता था।लेकिन अधिक अधिकार के चाहत में विधानसभा की मांग के साथ राज्य का दर्जा देने का जोर बढ़ा और राजनीतिक दबाव के कारण राष्ट्रीय राजधानी को केंद्र शासित राज्य मानकर वहां निर्वाचित विधानसभा और उप राज्यपाल ( लेफ्टीनेंट गवर्नर ) का पद सृजित किया गया। शुरू - शुरू में तो ठीक चला किंतु आम आदमी पार्टी के सत्तासीन होने के बाद केंद्र सरकार के साथ दिल्ली सरकार की टकराहट बढ़ती गई जिसकी वजह  से ही सर्वोच्च न्यायालय को आज का फ़ैसला करना पड़ा। इस मामले को राजनीतिक दृष्टि की बजाय सामान्य नजरिये से देखें तो ये महसूस होता है कि राष्ट्रीय राजधानी में दो चुनी हुई सरकारों का होना हमेशा टकराव पैदा करता रहेगा। केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार और कर्तव्य संविधान में उल्लिखित हैं । लेकिन केंद्र शासित क्षेत्र में चुनी हुई विधानसभा बनने के बाद उसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना ही उचित होता है जैसा गोवा के मामले में हो भी चुका है। आज के फैसले के बाद हो सकता है केंद्र सरकार के नीति  नियंत्रक दिल्ली की विधानसभा को खत्म कर वहां किसी कम अधिकार संपन्न प्रशासनिक ढांचे को खड़ा करें क्योंकि जिस तरह का टकराव बीते कुछ सालों में देखने मिल रहा है उससे एक बात साफ है कि हमारे देश में अधिकारों के बारे में तो जरूरत से ज्यादा जागरूकता है किंतु दायित्वबोध की चिंता किसी को नहीं।

 - रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 10 May 2023

इमरान ने जो बोया वही काट रहे




पाकिस्तान में गत दिवस पूर्व प्रधानमन्त्री इमरान खान की गिरफ्तारी के बाद हालात अराजक हो गए हैं | हालांकि इस देश के लिए ऐसी स्थिति कोई नई नहीं है । लेकिन पहली बार ऐसा देखने मिल रहा है जब सेना के विरुद्ध जनता सड़कों पर उतर आई | फ़ौजी अफसरों के घरों पर हमलों के अलावा लाहौर के गवर्नर हाउस और रावलपिंडी में सैन्य मुख्यालय में आग लगाने जैसी घटनाएँ तक हो रही हैं | पूरे देश में निषेधाज्ञा के बाद इन्टरनेट बंद कर दिया गया है | इमरान की पार्टी पीटीआई पूरे देश में आन्दोलन कर रही है |  समर्थक इस बात की आशंका जता रहे हैं कि हिरासत में उनकी ज़हर देकर हत्या की जा सकती है | ये डर भी है कि अवसर का लाभ उठाकर सेना तख्ता पलटकर सत्ता पर काबिज हो जायेगी । ये भी संभव है कि जनता के गुस्से से बचने के लिए फ़ौजी जनरल इस बार सीधे सत्ता पर न बैठते हुए कठपुतली सरकार चलाते रहें | यद्यपि परवेज मुशर्रफ के बाद पाकिस्तान में लोकतंत्र लौटा और तमाम अटकलबाजियों के  बावजूद फौज सत्ता पर कब्जा करने से बचती रही | इसका कारण न्यायपालिका का साहसिक रवैया भी रहा।बीच में  राजनीतिक अस्थिरता का भी दौर चला | इमरान ने सत्ता संभालने के बाद पाकिस्तानी हुकूमत और सियासत दोनों की छवि बदलने की काफी कोशिश की और अपने पूर्ववर्ती शासकों को अय्याश बताते हुए खुद को मितव्ययी और जनहितैषी साबित करने का स्वांग भी रचा | आतंकवादियों के पर कतरने और भारत के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश भी की | करतारपुर साहेब कारीडोर का शुभारम्भ भी उन्हीं की सत्ता के चलते हुआ | लेकिन शुरुआती नरमी और सद्भावना के बाद वे भी घूम फिरकर उसी ढर्रे पर लौट आये और भारत के विरुद्ध ज़हर उगलने लगे | आतंकवाद को नियंत्रण कर दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधारने के बजाय वे  कश्मीर को लेकर घिसी – पिटी नीति पर चल पड़े | जानकारों का कहना है कि इमरान के ऊपर भी फौज का उतना ही दबाव बना रहा जितना पहले की सरकारों पर था और उसी के चलते वे भारत विरोधी रवैया ढोने बाध्य हो गए। जिस तरह अपनी गिरफ्तारी के विरुद्ध जनता को सड़कों पर उतरने का आह्वान इमरान ने गत दिवस किया यदि ऐसा ही साहस वे प्रधानमंत्री रहते दिखाते तब जनता के साथ ही पाकिस्तान के उन बुद्धिजीवियों , पत्रकारों , कलाकारों और साहित्यकारों का भरपूर समर्थन उनको मिला होता जो मुल्क की बदहाली से चिंतित तो हैं लेकिन सत्ता में बैठे हुक्मरानों का संरक्षण न मिलने की  वजह से उनकी आवाज दबी रह जाती है। पाकिस्तान का निर्माण ही  इस्लामिक कट्टरता के  आधार पर हुआ था लेकिन शुरुआती दौर में भी एक तबका था , जो इस्लाम में पूरा भरोसा रखने के बाद भी प्रगतिशील माना जाता था। उसने अपनी बात रखने की  हिम्मत भी दिखाई लेकिन इस मुल्क का दुर्भाग्य रहा कि सत्ता पर कब्जा करने की औरंगजेबी संस्कृति जल्द ही वहां लागू हो गई । जिसके परिणामस्वरूप  हत्या और फौजी बगावत जैसी घटनाएं पाकिस्तान की तकदीर बन गईं। ऐसा भी नहीं था कि मजहबी कट्टरता के चलते सभी लोग मदरसों में पढ़े हों। पाकिस्तान की सत्ता में आए अनेक राजनेता विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने के बाद सियासत में उतरे लेकिन उनका रवैया  ले देकर भारत विरोधी ही रहा और अपने निहित स्वार्थों के लिए उन्होंने सेना को मनमर्जी करने की छूट दी। इसका नतीजा ही है कि पाकिस्तान की घरेलू और विदेश नीति का संचालन राजसत्ता के समानांतर सेना के जनरल भी करने लगे । और इसी दौरान उनमें सत्ता पर काबिज होने का लालच जागा जिसका उदाहरण जनरल अयूब , याह्या खां , जिया उल हक और परवेज मुशर्रफ के तौर पर देखने मिला। इमरान चुनाव जीतकर जब सत्ता में आए तब पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी की उम्मीदें जागी थीं। ऑक्सफोर्ड में पढ़े इमरान पाकिस्तान में आधुनिकता के प्रतीक थे। युवाओं में उनके प्रति दीवानगी थी। क्रिकेट विश्व कप जिताने के बाद वे महानायक की छवि हासिल कर चुके थे। उनका दृष्टिकोण इस्लामिक होने के बाद भी वैश्विक माना जाता था। भारत में क्रिकेट के बहाने अनेक प्रभावशाली लोगों से उनके अच्छे रिश्ते थे । लेकिन कुछ समय सीधे चलने के बाद वे भी कुत्ते की पूंछ बन गए। आखिरकार वही हुआ जो पाकिस्तान की नियति है। उनको सत्ता से हटाकर शरीफ और जरदारी परिवार ने सत्ता पर कब्जा कर लिया । जिस ठसक के साथ इमरान आए  वह उनके जाने के समय नहीं दिखी।  भले ही सेना ने सामान्य तरीके से सत्ता परिवर्तन हो जाने दिया किंतु इमरान भी अब वही आरोप झेल रहे हैं जो वे अपने पूर्ववर्ती  शासकों पर  लगाया करते थे। दुर्भाग्य से पाकिस्तान की वर्तमान सत्ता भी भारत विरोध को ही अपना धर्म मान बैठी। प्रधानमंत्री शाहबाज और विदेशमंत्री बिलावल जरदारी जितनी मेहनत कश्मीर में आतंकवाद को पालने - पोसने में कर रहे हैं उतनी अपने मुल्क की बदहाली दूर करने में करते होते तो आज उसको भीख का कटोरा लेकर दुनिया भर में न घूमना पड़ता । पाकिस्तान में भले ही छोटा हो किंतु एक तबका ऐसा है जो भारत से प्रभावित है।वहां के टीवी चैनलों में होने वाली बहस के अलावा अनेक यू ट्यूबर भारत संबंधी जो कार्यक्रम दिखाते हैं उनसे लगता है कि शिक्षित वर्ग विशेष रूप से युवाओं में ये भावना बलवती होती जा रही है कि भारत से लड़ते रहने और कश्मीर की जिद पालने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसलिए बेहतर हो व्यापारिक रिश्ते कायम कर दोनों ओर खुशहाली लाई जाए। लेकिन इमरान इन संकेतों को समझे बिना पुराने ढर्रे पर चलते हुए अपनी दुर्गति करवा बैठे। लोकतंत्र की रक्षा के लिए जनता का  सड़कों पर उतरकर फौजी संस्थानों पर हमला करना निश्चित रूप से बड़े बदलाव का संकेत है किंतु इसकी कितनी कीमत पाकिस्तान को चुकानी पड़ेगी ये फिलहाल कोई नहीं जानता।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 9 May 2023

मिग -21 को साभार विदाई देने का वक्त आ गया है



भारतीय वायुसेना का एक प्रशिक्षण मिग - 21 विमान गत दिवस राजस्थान में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। यद्यपि पायलट तो समय पर विमान से कूद गया किंतु आवासीय क्षेत्र पर उसके गिर जाने से तीन महिलाएं मारी गईं। दुर्घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। पायलट के सुरक्षित बच जाने से दुर्घटना के बारे में पुख्ता जानकारी मिल सकेगी किंतु ये  सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि आखिर बाबा आदम के जमाने के मिग विमान वायुसेना आखिर क्यों ढोए जा रही है ? निश्चित तौर पर एक जमाना था जब मिग - 21 हमारी वायुसेना का सबसे अग्रणी लड़ाकू विमान था जिसने अनेक युद्धों में शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत को विजय दिलाई। इसके बाद मिग - 27 श्रृंखला भी आई। साथ ही मिग विमानों के निर्माता रूस ने नए तकनीकी सुधार करते हुए पुराने विमानों का उन्नयन भी किया। बावजूद उसके , समय के साथ जब सुखोई ,मिराज और रफेल जैसे आधुनिकतम लड़ाकू विमान आए तब मिग - 21 तुलनात्मक तौर पर काफी पिछड़ता गया। आज के दौर में सेना की बहादुरी और बेहतर प्रशिक्षण  के साथ नवीनतम तकनीक के अस्त्र - शस्त्रों का महत्व बहुत ज्यादा है । राइफल , तोप, टैंक , मिसाइल , पनडुब्बियां , लड़ाकू विमान , रडार आदि में तकनीकी उन्नयन अब नियमित प्रक्रिया बन गई है। सेना को इसके बारे में प्रशिक्षण भी दिया जाता है। ऐसे में दशकों पुराने हो चुके मिग श्रृंखला के लड़ाकू विमानों को संग्रहालय में रखने की जगह वायुसेना की दैनंदिन गतिविधियों में उपयोग करना अव्यवहारिक लगता है। बताते हैं अभी भी चूंकि भारतीय वायुसेना के बेड़े  में लड़ाकू विमानों की संख्या जरूरत के लिहाज से अपर्याप्त है । यद्यपि मोदी सरकार ने विगत 9 वर्षों में रिकॉर्ड सैन्य खरीदी की है किंतु लड़ाकू विमानों की आपूर्ति में लंबा समय लगता है । इसलिए  पुराने लड़ाकू विमानों को उपयोग में लाया जा रहा है। मिग - 21 से  प्रशिक्षण विमान का काम वायुसेना ले रही है। लेकिन हर साल इस श्रेणी के दो - चार विमान दुर्घटनाग्रस्त होने से अनुभवी और प्रशिक्षु पायलट मारे जाते हैं। इसी कारण लंबे समय से मिग - 21 विमानों को वायुसेना से अलग हटाकर संग्रहालय में सजाए जाने की सलाह विशेषज्ञ देते आए हैं किंतु अज्ञात कारणों से वायुसेना उनका मोह नहीं छोड़ पा रही। गत दिवस राजस्थान के हनुमानगढ़  के बहलोल नगर ग्राम में उसके गिर जाने से 3 महिलाओं की मौत वाकई दुखद है क्योंकि आम तौर पर प्रशिक्षण विमान भी रिहायशी बस्ती से दूर ही उड़ते हैं। ये भी अच्छा था कि उक्त गांव की आबादी महज 600 है। यदि विमान किसी बड़ी आबादी वाले क्षेत्र में गिरता तो मानवीय क्षति और ज्यादा हो सकती थी। और जब वायुसेना का पायलट ऐसी दुर्घटना में मारा जाता है तब विमान के साथ होने वाला वह नुकसान बहुत भारी होता है। ये देखते हुए इस तरह के विमानों को अब विश्राम दे देना चाहिए क्योंकि गाहे - बगाहे इनके दुर्घटनाग्रस्त होते रहने से जनता का मनोबल तो गिरता ही है , विदेशों में भी हमारी सैन्य क्षमता पर सवाल उठते हैं। हमारे दो पड़ोसी शत्रुओं के पास अत्याधुनिक लड़ाकू विमान होने से हमें न चाहते हुए ही अपनी सेना के तीनों अंगों को सुसज्जित करना पड़ रहा है। और फिर आज के जमाने की जंग जमीन से ज्यादा हवा में और वह भी तकनीक के भरोसे लड़ी जाती है। ये देखते हुए मिग - 21 लड़ाकू विमानों को साभार विदाई दी जाए। उन्होंने अपनी क्षमता से ज्यादा अपनी सेवाएं दी हैं ।उनका गौरवशाली इतिहास भी संजोया जाना चाहिए लेकिन उनको वायुसेना के बेड़े से हटाना समय की अनिवार्यता बनती जा रही है। हर दुर्घटना के बाद इसकी चर्चा होती है लेकिन ठोस निर्णय नहीं हो पाता। बेहतर हो ताजा हादसे के बाद वायुसेना और सरकार दोनों इस बारे में कोई ठोस निर्णय लेंगी।


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 8 May 2023

राजस्थान उच्च न्यायालय गहलोत से सबूत मांगे : आरोप गंभीर हैं



राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत देश के सबसे अनुभवी राजनेताओं में से हैं | अतीत में वे केन्द्रीय मंत्री भी रहे  | कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन में भी महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करने के कारण ही उनको पार्टी अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने जा रही थी लेकिन एन वक्त पर वे फ़ैल गए और उनके समर्थक विधायकों ने थोक में विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफे सौंपकर पार्टी  हाईकमान पर दबाव बना दिया जिससे उसे अपना निर्णय बदलकर मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष बनाना पड़ा | श्री गहलोत का वह पैंतरा खुले तौर पर अनुशासनहीनता थी  किन्तु गांधी परिवार तक उनके कान पकड़ने की हिम्मत न कर सका | उसके आगे का घटनाचक्र किसी से छिपा नहीं है | दरअसल राजस्थान कांग्रेस में चल रहे शीतयुद्ध में श्री गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट दो खेमे हैं | दोनों ने पार्टी का अनुशासन तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी  किन्तु शीर्ष नेतृत्व किसी  के विरुद्ध कार्रवाई करने का साहस न बटोर सका | और यही कारण है कि  दोनों तरफ से बयानों के तीर बिना रुके चला करते हैं | श्री पायलट हमेशा इस बात को उठाते हैं कि विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा दे चुके विधायकों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई ? दूसरी ओर मुख्यमंत्री श्री पायलट के साथ बगावत पर उतारू हुए विधायकों द्वारा भाजपा नेताओं से करोड़ों रूपये लेने का आरोप लगते हुए जवाबी  दांव चलते हैं | लेकिन गत दिवस धौलपुर दौरे पर एक सार्वजनिक कार्यक्रम में श्री गहलोत ने ये कहकर राजनीतिक माहौल में हलचल मचा दी कि जिन विधायकों ने अमित  शाह  , धर्मेन्द्र प्रधान और गजेन्द्र शेखावत से 10 – 15 करोड़ रूपये लिए थे और अब तक नहीं लौटाए उनको चाहिए वे लौटाकर दबावमुक्त हो जाएँ  | यदि उसमें से कुछ खर्च कर लिया हो तो बताएं मैं कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन से कहकर दिलवा दूंगा | इसके साथ ही उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा नेत्री वसुंधरा राजे की ये कहते हुए तारीफ की कि उन्होंने सरकार गिराने के पायलट खेमे के प्रयास को विफल कर दिया | हालाँकि श्रीमती राजे ने मुख्यमंत्री के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताई है | श्री पायलट के साथ जो विधायक गहलोत सरकार गिराने हरियाणा के मानेसर में जा बैठे थे उनके द्वारा भाजपा के उक्त नेताओं से 10 – 15 करोड़ रूपये लिए जाने का आरोप श्री गहलोत पहले भी लगा चुके थे | लेकिन गत दिवस उन्होंने जिस तरह वह राशि वापस करने के लिए पार्टी से पैसे  दिलवाने की बात कही उसे केवल राजनीतिक कटाक्ष मानकर उपेक्षित करना राजनीतिक विमर्श में रही – सही गंभीरता को नष्ट करने जैसा होगा | एक राज्य का मुख्यमंत्री यदि अपनी ही पार्टी के विधायकों पर दूसरी पार्टी के नेताओं से सरकार गिराने के लिए 10 – 15 करोड़ रूपये लेने जैसी बात बार – बार दोहराए तो फिर उससे ही ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या कारण रहा  जो उन्होंने उन विधायकों के विरुद्ध पार्टी से अनुशासन की कारवाई करने के लिए  नहीं कहा और  उनकी अपनी सरकार ने  इतनी बड़ी रकम लेने वाले विधायकों के  विरुद्ध आर्थिक अपराध का प्रकरण दर्ज नहीं किया | श्री गहलोत एक संवैधानिक पद पर हैं | ऐसे में उनसे अपेक्षित है कि वे राजनीतिक दांवपेंच दिखाते समय ऐसी कोई बात न बोलें जिसका प्रमाण उनके पास नहीं है | और यदि है , तब इतनी बड़ी राशि सरकार गिराने के लिए लेने वाले उनके अपने दल के ही विधायक छुट्टा कैसे घूम रहे हैं ? मुख्यमंत्री का ये कहना कि वे पैसा लौटा दें और यदि खर्च हो गया तब  वे कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन से दिलवा देंगे , बेहद बचकाना और गैर जिम्मेदाराना है | अव्वल तो विपक्षी दल से  अपनी ही सरकार गिराने के लिए मोटी रकम लेने वाले विधायकों को अब तक पार्टी क्यों ढो रही है , इसका जवाब श्री गहलोत को देना चाहिये | गत दिवस जिस अंदाज में श्री  गहलोत ने बागी कांग्रेस विधायकों पर तंज कसा वह अप्रत्यक्ष रूप से तो श्री पायलट पर किया गया हमला ही है | भले ही  भाजपा नेत्री वसुंधरा राजे के बारे में की गई उनकी टिप्पणी उन दोनों का व्यक्तिगत मामला है लेकिन कांग्रेस विधायकों द्वारा सरकार गिराने के लिए 10 – 15 करोड़ जैसी बड़ी रकम लेकर न लौटाने और खर्च हो जाने की स्थिति में पार्टी फंड से दिलवाने जैसी बातें करने के बाद खुद श्री गहलोत पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए | बेहतर हो राजस्थान उच्च न्यायालय उनके कल दिए गए बयान का स्वतः संज्ञान लेते हुए मुख्यमंत्री से उनकी बात का सबूत मांगें क्योंकि इस तरह के आरोपों को हल्के में लिये जाने के कारण ही राजनीति और राजनेताओं की साख मिट्टी में मिलती जा रही है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 6 May 2023

चाचा ने तो चाल चल दी , अब भतीजे का इंतजार



एनसीपी (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) के अध्यक्ष शरद पवार ने चार दिन तक अनिश्चितता बनाये रखने के बाद अध्यक्ष पद से अपना त्यागपत्र वापस ले लिया | हालाँकि उनके द्वारा पार्टी संगठन में दायित्वों का विकेंद्रीकरण किये जाने के साथ ही नए नेताओं का सृजन करने की बात भी कही गयी है | लेकिन उनके इस्तीफा देने और वापस लेने के बीच के चार दिन जिस तरह का माहौल पार्टी  के भीतर बनाकर रखा गया उससे एक बात साफ़ है कि श्री पवार मजबूत की बजाय मजबूर नेता बनकर रह गए हैं | उनके द्वारा जिन कारणों से इस्तीफा दिया गया था उनमें एक था उनका स्वास्थ्य और दूसरा उत्तराधिकारी का चयन | जब इस्तीफा वापस लेने की बात चली  तब उनकी धर्मपत्नी और भतीजे अजीत पवार दोनों ने बड़े ही विश्वास के साथ ये दावा किया  था कि इस बार वे अपने निर्णय पर अडिग रहेंगे | लेकिन वे दावे गलत साबित हुए और मान -  मनौवल के बाद आखिरकार श्री पवार ने पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के अनुरोध के नाम पर अध्यक्ष बने रहने की मनुहार मान ली | हालाँकि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों ने भी एनसीपी प्रमुख से अध्यक्ष पद न छोड़ने की अपील की थी क्योंकि भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का मोर्चा बनाने के लिए उन जैसे वरिष्ट नेता की जरूरत होगी | इस बात को लेकर भी विपक्षी नेताओं में खलबली थी कि श्री पवार यदि पार्टी प्रमुख पद से हटे तो एनसीपी में बिखराव रोकना मुश्किल हो जायेगा | विशेष रूप से अजीत पवार के भाजपा के साथ जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन जाने की अटकलों से शिवसेना और कांग्रेस ही नहीं ,  बाकी विपक्षी दल भी घबराहट में थे | जब श्री पवार ने इस्तीफ़ा दिया तब ये आकलन लगाया गया कि वे अजीत के भाजपा के साथ जुड़ने का दोष अपने ऊपर नहीं लेना चाहते। लेकिन उनको ये लग गया कि  उनके हटने के बाद भले ही वे अपनी बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी की कमान सौंप दें किंतु  भतीजा उस फैसले को स्वीकार नहीं करेगा और उसके द्वारा खुद मुख्तियारी का ऐलान किए जाने से पार्टी छिन्न - भिन्न हो जायेगी। पार्टी में प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे अनेक नेता हैं जो श्री पवार के साथ ही अजीत के साथ भी अंतरंगता रखते हैं। श्री पवार के हट जाने पर ये तबका सुप्रिया के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता।और फिर वे ये भी जानते हैं कि यदि वे खुद होकर अजीत को उपेक्षित करेंगे तब फिर उसके पार्टी छोड़ने का रास्ता साफ हो जाएगा। ऐसे में वे उसको भी साधे रखना चाहते थे। बहरहाल उनके इस्तीफा देने के बाद तक तो ये माना जा रहा था कि श्री पवार  नए नेतृत्व को पार्टी की  बागडोर सौंपकर आराम करना चाहेंगे। ये भी चर्चा थी कि भतीजे को महाराष्ट्र और बेटी को राष्ट्रीय राजनीति का जिम्मा सौंपकर वे मार्गदर्शक की भूमिका में  आ जाएंगे । लेकिन महज चार दिन में ही उनको ये एहसास हो गया कि बात उतनी सरल नहीं है जितनी वे समझ रहे थे। और ये भी कि उनके पद छोड़ने के बाद जो नेता उनके अगल - बगल नजर आते थे वे सब अजीत के पाले में खड़े हो जाएंगे क्योंकि सुप्रिया से उनका संवाद उतना सहज नहीं है। एक बात और ये भी श्री पवार समझ गए कि भाजपा के साथ जाने पर जो कुछ मिलेगा वह अजीत के खाते में होगा। और एक बार भतीजा  स्वतंत्र हुआ तो फिर पार्टी पर चाचा का नियंत्रण कमजोर होते देर नहीं लगेगी। आखिरी समय में समाजवादी पार्टी के संस्थापक  मुलायम सिंह यादव की जो उपेक्षा हुई उससे भी श्री पवार वाकिफ थे। हालांकि अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग में उन्होंने जिस तरह से उद्धव ठाकरे की प्रशासनिक और संगठनात्मक क्षमता पर सवाल उठाने के साथ ही भाजपा सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री और एकनाथ शिंदे सरकार में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की प्रशंसा की उससे ये संकेत मिला कि अजीत के भाजपा प्रवेश की पटकथा उन्होंने तैयार कर दी है । लेकिन राजनीतिक वानप्रस्थ की ओर चार कदम बढ़ाने के बाद वे पुनः लौट आए । हालांकि न तो उनका पहला फैसला चौंकाने वाला था और न ही बाद वाला। सही मायनों में अब ये लगने लगा है कि श्री पवार जो करना चाह रहे वह हो नहीं पा रहा और इसीलिए वे इस बात को लेकर भयभीत हो चले हैं कि पार्टी की कमान छोड़ने के बाद उनकी कोई नहीं सुनेगा और अजीत सर्वशक्तिमान हो जायेंगे। बीते कुछ दिन में ही उनको ये समझ में आ गया कि वे चाहकर भी बेटी सुप्रिया को उत्तराधिकारी नहीं बना पाएंगे और एनसीपी का बहुमत भतीजे के साथ खड़ा हो जायेगा जिनकी संगठन के भीतर तक पहुंच है। 2019 में जब अजीत ने देवेंद्र फडणवीस के साथ मिलकर सरकार बनाई तब जिस मजबूती के साथ श्री पवार ने उस बगावत को विफल करते हुए उनकी घर वापसी करवाई और फिर कांग्रेस - शिवसेना के बीच बेमेल गठबंधन करवाकर अपने राजनीतिक कौशल का परिचय दिया उसके बाद वे राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता के तौर पर स्थापित हो चले थे। उनकी वजन दारी का सबसे ताजा प्रमाण हैं वीर सावरकर मुद्दे पर  राहुल गांधी को चुप रहने मजबूर कर देना और अदानी मुद्दे पर कांग्रेस की जेपीसी की मांग को निरर्थक बताने के बाद गौतम अदानी से लंबी मुलाकात करना । लोग तो ये कहने लगे थे कि उसी के बाद श्री पवार भाजपा के करीब जाते दिखे । लेकिन गत दिवस उन्होंने जिस तरह अपने कदम पीछे खींचे उससे लगा कि उनका आत्मविश्वास कहीं न कहीं डगमगाया है। देखना ये है कि चाचा के इस पैंतरे का भतीजा क्या जवाब देता है?

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 5 May 2023

वरना , आज मणिपुर जल रहा है कल कोई और जलेगा


पूर्वोत्तर भारत का मणिपुर राज्य अपनी सांस्कृतिक धरोहर के साथ ही प्राकृतिक सौदंर्य के लिए भी प्रसिद्ध है | नगालैंड और मिजोरम की अपेक्षा इसे राष्ट्रीय मुख्यधारा के ज्यादा करीब माना जाता है | बीते अनेक वर्षों से यहाँ शांति के साथ ही राजनीतिक स्थिरता बनी हुई थी | लेकिन अचानक यह राज्य धधक उठा | और कारण बना यहाँ के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को उच्च न्यायलय द्वारा अनु. जनजाति का दर्जा दिए जाने का फैसला | इस बारे में जो अधिकृत जानकारी उपलब्ध है उसके मुताबिक मैतेई समुदाय अंग्रेजी राज में भी जनजातीय वर्ग में शामिल था | आजादी के बाद वह व्यवस्था बदल गयी | उच्च न्यायालय के आदेश से राज्य में रहने वाले नगा – कुकी समुदाय के लोग गुस्से में हैं | इसका एक कारण ये भी है कि इनको राज्य में घुसपैठिया मानकर बाहर करने का आदेश मुख्यमंत्री बीते साल ही दे चुके थे | नगा – कुकी समुदाय में ईसाई धर्म को मानने वाले ज्यादा हैं जबकि मैतेई वर्ग हिन्दू धर्म को मानता है | मणिपुर में कृष्ण भक्ति भी काफी की जाती है | जनसँख्या और सामाजिक प्रभाव के तौर पर मैतेई समुदाय काफी मजबूत है और राजनीतिक तौर पर प्रभुत्व संपन्न भी | इसलिए मौजूदा संकट के पीछे ईसाई मिशनरियों की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि उत्तर पूर्वी राज्यों में अलगाववाद को बढ़ावा देने में उनकी भूमिका पहले भी उजागर होती रही है | और यही वजह रही कि इस समूचे क्षेत्र को मुख्यधारा से उस तरह नहीं जोड़ा जा सका जैसी अपेक्षा और आवश्यकता थी | ये कहना गलत न होगा कि 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तबसे केंद्र सरकार की कार्य सूची में पूर्वोत्तर की ओर काफी ध्यान दिया जाने लगा | अधो संरचना का जितना विकास बीते 9 वर्षों में वहां किया गया, वह चमत्कृत करता है | और उसी का परिणाम है कि त्रिपुरा जैसे वामपंथियों के गढ़ में लगातार दूसरी बार भाजपा अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई | यही स्थिति मणिपुर की भी है | इन सबकी वजह से पूर्वोत्तर के राज्यों में फैला अलगाववाद भी कम हुआ है और सशस्त्र संघर्ष करने वाले अनेक संगठनों ने समझौते के जरिये शांति के रास्ते पर चलने का फैसला किया | लेकिन देश विरोधी ताकतें पूरी तरह खत्म नहीं हुईं हैं | मणिपुर की ताजी घटना उसका प्रमाण है | यदि ये राजनीतिक निर्णय होता तब बात कुछ और होती किन्तु जब उच्च न्यायालय ने मैतेई समुदाय को ऐतिहसिक साक्ष्य के आधार पर जनजातीय समूह मानते हुए अनु. जनजाति का दर्जा देने का फैसला सुनाया तब नगा और कुकी वर्ग उसके विरुद्ध अपील करने स्वतंत्र था परन्तु बजाय इसके मणिपुर जैसे शांत राज्य को अशांति और हिंसा की आग में झोक दिया गया | पूर्वोत्तर के राज्य सीमावर्ती होने से वैसे भी राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बेहद सम्वेदनशील हैं | विदेशी घुसपैठ होने से यहाँ का जनसँख्या संतुलन लगातार गड़बड़ा रहा है | चूंकि भौगोलिक तौर पर भी यहाँ जंगली और पहाड़ी क्षेत्र की प्रचुरता है इसलिए घुसपैठ रोकना काफी कठिन होता है | उस वजह से एक राज्य की कबीलाई जातियां दूसरे में घुसपैठ करते हुए जंगलों में कब्जा करने में जुटी रहती हैं जिसकी वजह से जातीय संघर्ष होते रहते हैं | वर्तमान विवाद के पीछे भी नगा और कुकी समुदाय द्वारा मणिपुर के वन क्षेत्र में अवैध रूप से की गई घुसपैठ वजह हो सकती है किन्तु मैतेई समुदाय को जनजातीय दर्जा दिए जाने के उच्च न्यायालय के फैसले को बहाना बनाकर हिंसा फैला देने के पीछे धर्मांतरण कर पूर्वोत्तर में अस्थिरता फ़ैलाने और चुनावी राजनीति में मात खा चुके लोग भी हो सकते हैं | केंद्र और राज्य सरकार शांति स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं | लेकिन विवाद ऐसे समय उत्पन्न हुआ जब देश में जातीय जनगणना राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल की जा रही है | बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो इसकी जिद ही पकड़ ली किन्तु उच्च न्यायालय ने उस पर रोक लगा दी | अब चूंकि मणिपुर में उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध हिंसा भड़क उठी तो देश के अन्य राज्यों में भी आरक्षण संबंधी जितने भी मामले अदालतों के समक्ष विचाराधीन हैं उन पर होने वाले फैसलों से नाराज वर्ग कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने में लग जाएगा और वोटों के सौदागर बजाय बुझाने के आग में घी डालने से बाज नहीं आयेंगे | आरक्षण निश्चित रूप से समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक और आर्थिक उत्थान का जरिया है | लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों की ज्यादातर जनसँख्या जनजातीय वर्ग की होने से वहां आरक्षण के मौजूदा ढर्रे से अलग हटकर कुछ करने की जरूरत थी | जिसकी तरफ वर्तमान केंद्र सरकार ने ध्यान दिया और उसके सुखद परिणाम भी आने लगे | लेकिन देश को अस्थिर करने वाले तत्वों को ये रास नहीं आ रहा इसलिए मौक़ा पाते ही वे गड़बड़ करने की कोशिश करते हैं| मणिपुर के अलावा भी निकटवर्ती अन्य राज्यों में इस तरह के संघर्ष समय – समय पर होते रहते हैं जिनके लिए सीमा पार से भी मदद मिलती है | बीते कुछ सालों में पूर्वोत्तर में राष्ट्रवादी राजनीति के पैर मजबूती से जमने के कारण धर्मांतरण के जरिये राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया पर नियन्त्रण हुआ है और विदेशी धन से समूचे पूर्वोत्तर को भारत से अलग करने का षडयंत्र कमजोर हो रहा है | इसीलिए बौखलाहट में यहाँ की शान्ति भंग करने के लिए इस तरह के प्रपंच रचे जा रहे हैं | केंद्र सरकार को चाहिए इस घटना के असली कारणों का पर्दाफाश करते हुए उसके लिए जिम्मेदार ताकतों के मंसूबे विफल करे क्योंकि पूर्वोत्तर के किसी भी राज्य में होने वाली हिंसा से राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी