Saturday 13 May 2023

द केरला स्टोरी : चंद्रचूड़ का सवाल विचारणीय



इन दिनों देश भर में  द केरला स्टोरी नामक फिल्म की बड़ी चर्चा है। इसमें ये दर्शाया गया है कि किस तरह हिंदू लड़कियों को भावनात्मक तरीके से बहलाकर इस्लामी  आतंकवाद के जाल में फंसाया जाता है ।  फिल्म पर रोक लगाने की अर्जी भी लगी किंतु केरल उच्च न्यायालय ने उसे नामंजूर कर दिया। लेकिन पहले  तमिलनाडु और फिर प. बंगाल की सरकार को  उक्त फिल्म की  वजह से राज्य की कानून व्यवस्था के लिए खतरा महसूस हुआ और उन्होंने इस  पर रोक लगा दी। इसके विरोध में फिल्म निर्माताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाई गई जिसने गत दिवस प. बंगाल सरकार से  पूछा कि जब पूरे देश में फिल्म देखी जा रही है तब उस पर प्रतिबंध लगाने का क्या औचित्य है ? तमिलनाडु सरकार को भी नोटिस भेजा गया है।  मुख्य न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड ने टिप्पणी की कि फिल्म अच्छी है या बुरी इसका निर्णय जनता को करने दीजिए। इसके पहले अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आजमी ने भी फिल्म का विरोध करने पर आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा था कि सेंसर बोर्ड की स्वीकृति ही किसी फिल्म के प्रदर्शन का आधार माना जाना चाहिए। बहरहाल द केरला स्टोरी पूरे देश में  पसंद की जा रही है और व्यवसायिक तौर पर भी उसने अच्छा कारोबार किया है। हालांकि ये भी सच है कि भाजपा द्वारा उसका समर्थन किए जाने और उसके शासित राज्यों में पार्टी  नेताओं द्वारा कार्यकर्ताओं के साथ सामूहिक रूप से फिल्म देखे जाने के कारण भी उसे अतिरिक्त आय हुई है। लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो निष्पक्ष समीक्षक भी मानते हैं कि फिल्म का कथानक सच्चाई के करीब होने से प्रभावशाली है। लव जिहाद एक सामाजिक समस्या के तौर पर सामने आया है। इसका अपराधिक और आतंकवादी पहलू भी विभिन्न प्रकरणों में उजागर हो चुका है। वैसे तो देश के अनेक हिस्सों से इस आशय की खबरें आया करती हैं किंतु केरल में मुस्लिम आबादी की बहुलता और फिर उसके युवकों का बड़ी संख्या में खाड़ी देशों में कार्यरत होना भी लव जिहाद में सहायक हुआ है। संदर्भित फिल्म में जो दिखाई गया वह बेहद गंभीर विषय है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद का प्रतीक माने जाने वाले संगठन के साथ लव जिहाद के तार जुड़े बताए गए हैं। फिल्म निर्माण के क्षेत्र में अब सामाजिक जीवन से जुड़ी समस्याओं और घटनाओं को पटकथा का विषय बनाया जाने लगा है। ओटीटी नामक नए माध्यम में तो खुलेपन के नाम पर जो दिखाया जा रहा है वह भारतीय संदर्भों में घोर आपत्तिजनक होने के बाद भी  सेंसर बोर्ड का नियंत्रण नहीं होने से  सांस्कृतिक प्रदूषण के तौर पर  घर - घर में घुसता जा रहा है । लेकिन  उसका विरोध करने के बजाय जब कश्मीर फाइल्स और द केरला स्टोरी जैसी फिल्मों पर प्रतिबंध लगाए जाने की कोशिश होती है तब ये सोचना पड़ता है कि राजनीतिक नफे - नुकसान के मद्देनजर हमारे राजनेता उन सच्चाइयों पर पर्दा डालने से बाज नहीं आते जिनसे देश का हित - अहित जुड़ा हुआ है। विवेक अग्निहोत्री की कश्मीर फाइल्स नामक फिल्म में 1990 में कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन को आधार बनाकर वास्तविकता का जो चित्रण किया गया , उस  बारे में देश कम ही जानता था । इसी तरह लव जिहाद ,  हिंदू लड़की को प्रेम जाल में  फंसाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाने तक सीमित माना जाता था परंतु  द केरला स्टोरी ने जो दिखाया उसने दर्शकों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपनी बच्चियों को इस खतरे से बचाने के प्रति सतर्क रहें । फिल्म के प्रस्तुतीकरण में कुछ नाटकीयता हो सकती है किंतु उसे सिरे से नकारते हुए उसका  प्रदर्शन रोकना संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है। इसलिए श्री चंद्रचूड़ की ये टिप्पणी विचारणीय है कि फिल्म अच्छी है या बुरी इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए। उस लिहाज से हाल ही  में प्रदर्शित कुछ फिल्मों के विरोध का जो सिलसिला चला उससे गलत परिपाटी तैयार हो रही है। शाहरुख खान की पठान फिल्म के कुछ दृश्यों को लेकर उसका जबर्दस्त विरोध हुआ तो उसके समर्थक भी सामने आ  गए । फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़  सफलता हासिल कर ली। जिसके कारण विरोध बेअसर साबित हुआ। हालांकि ये भी सही है कि फिल्म निर्माण करने वाले और उसकी पटकथा लिखने वालों को समाज की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए । भारत जैसे देश में जहां धार्मिक विविधता के अलावा सामाजिक और क्षेत्रीय भावनाएं काफी प्रबल हैं , वहां फिल्म बनाना बेहद कठिन काम है। विशेष रूप से आज के दौर में जब संचार क्रांति के कारण फिल्म प्रदर्शित होने के पूर्व ही उसके बारे में पूरी जानकारी सार्वजनिक हो जाती है जिससे उसे लेकर विरोध और समर्थन भी शुरू हो जाता है।  लेकिन द केरला स्टोरी सदृश फिल्में तो समाज को जागरूक और जिम्मेदार बनाने में सहायक होती हैं । ऐसे में ममता बैनर्जी और स्टालिन जैसे नेताओं को उस पर रोक लगाने से पहले अपने फैसले के औचित्य पर ध्यान देना चाहिए था। मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ का ये पूछना तर्कसंगत है कि जब पूरे देश में उक्त फिल्म शांति के साथ चल रही है तब उस पर रोक लगाने का आधार क्या है ? इसलिए ये उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फैसला इस बारे में आयेगा वह भविष्य के लिए दिशा निर्देशक बन सकता है। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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