Monday 31 October 2022

मोरबी हादसा : लापरवाही की पुनरावृत्ति रोकने का तंत्र विकसित हो



गुजरात के मोरबी में मच्छू नदी पर बने 140 वर्ष पुराने केबल ब्रिज के टूट जाने से लगभग 150 लोगों की जान चली  गयी | नदी में अभी और शव होने की आशंका है | सैकड़ों लोग घायल हैं | बचाव कार्य जारी है | दुर्घटना का कारण पुल पर क्षमता से ज्यादा लोगों का होना बताया जा रहा है | इसको बीते 6 महीने तक मरम्मत के लिए बंद रखने के बाद चार दिन पहले ही  खोला गया था | दो करोड़ रु. खर्च कर सुधारे गये पुल पर अधिकतम 100 लोगों के जाने की स्वीकृति है लेकिन घटना के समय 500 की संख्या थी | जिस जगह दुर्घटना घटी वह पिकनिक स्थल है | रविवार  होने से भी ज्यादा भीड़ आई | 6 महीने बाद पुल के खोले जाने की वजह से भी लोगों में उत्साह था | पुल पर जाने हेतु 19 रु. टिकिट लगती है | पुल का संचालन करने वाले ठेकेदार ने क्षमता से अधिक टिकिट बेच डाले | कल ही वहां सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित होने के कार्यक्रम से सामान्य से अधिक जनता थी |  पुल प्रबंधन का ठेका जिस कम्पनी ने मोरबी नगर पालिका से मार्च 22 से आगामी 15 साल के लिए लिया है उसे पुल की सुरक्षा , साफ़ – सफाई , रखरखाव , स्टाफ रखने के साथ ही टिकिट लगाने का अधिकार है  | लेकिन 765 फीट लम्बे इस पुल को सुधार के बाद खोलने के पूर्व न तो तकनीकी अनापत्ति या फिटनेस प्रमाणपत्र लिया गया और न ही  उसकी भार क्षमता का प्रमाणीकरण  हुआ | इसीलिये  उक्त कम्पनी के विरुद्ध गैर इरादतन हत्या का प्रकरण दर्ज कर लिया गया | मृतकों और घायलों को  मुआवजा और सहायता राशि देने की घोषणा के साथ जाँच समिति भी गठित कर दी गई है जिसकी रिपोर्ट आने तक लोग इस दुर्घटना को भूल चुके होंगे | मृतकों के परिजन मुआवजे के साथ यदि आश्रित को सरकारी नौकरी मिल गयी तो ठन्डे होकर बैठ जायेंगे और जो घायल हैं वे मुफ्त इलाज के साथ मिलने वाली   सहायता राशि की लालच में अपना दर्द  उपेक्षित कर देंगे | स्थानीय प्रशासन जाँच के दौरान तरह – तरह के दबाव झेलेगा | जिस ठेकेदार की लापरवाही के कारण उक्त हादसा हुआ उसे भी निश्चित तौर पर शासन और प्रशासन में बैठे बड़े लोगों का संरक्षण प्राप्त रहा होगा जिससे  वह साफ बचकर निकल जायेगा | विचारणीय मुद्दा ये है कि ऐसे हादसे थोड़े – थोड़े अंतराल पर होते रहते  हैं | कभी किसी मंदिर में धक्का मुक्की के कारण लोग  मारे जाते हैं तो कभी अग्निशमन के इंतजाम न होने से बेशकीमती जानें चली जाती हैं | बिहार , असम और बंगाल में नावों में  ज्यादा सवारियां भर लेने के कारण  डूबने की घटनाएँ होती हैं | वहीं यात्री बसों में निर्धारित संख्या से अधिक लोगों को बिठाने के बाद  दुर्घटनाग्रस्त होने पर बाहर नहीं निकल पाने की वजह से बहुत सी मौतें होती हैं | इनमें से अधिकतर का कारण लापरवाही और अव्यवस्था ही होती है | यदि नियमों और अपेक्षित सावधानियों का पालन किया जावे तो इनसे काफ़ी हद तक बचा जा सकता है | उदाहरण के लिए गत दिवस मोरबी में जो पुल टूटा उसका प्रथम दृष्टया कारण क्षमता से पांच गुना ज्यादा लोगों का पुल पर होना बताया गया | पुल की चौड़ाई पांच फीट से भी कम होने से भीड़ ज्यादा होने पर और कुछ भी हो सकता था | प्रत्येक हादसे के बाद घिसापिटा सरकारी कर्मकांड होता है | राजनीति भी होने लगती है | कांग्रेस ने भाजपा पर आरोप लगा दिया कि विधानसभा चुनाव के  मद्देनजर   उसने पुल को बिना पर्याप्त मरम्मत के ही खुलवा दिया | राहत कार्यों में भी श्रेय लेने की होड़ मचेगी | भ्रष्टाचार भी ऐसे मामलों में जरूरी तत्व होता ही है | यही वजह है कि दुर्घटना के कारणों पर पर्दा डालकर असली कसूरवारों को बचा लिया जाता है | जिस पुल पर दुर्घटना हुई उसका प्रबंधन भले ही किसी निजी कम्पनी के जिम्मे हो लेकिन स्थानीय प्रशासन और पुलिस का भी दायित्व था  कि वह भीड़ का अनुमान लगाकर समुचित निगरानी रखते | सरदार पटेल की मूर्ति का कार्यक्रम होने से वहां आम दिनों की अपेक्षा ज्यादा लोगों के आने की सम्भावना थी ही | उस अनुपात में वहां पुलिस बल होना चाहिए था ताकि पुल पर निश्चित संख्या से ज्यादा लोगों की मौजूदगी रोकी जा सकती | और यदि पुलिस के रहने के बाद भी पुल पर 100 की जगह 500 लोग जा पहुंचे तब तो ये लापरवाही का खुला सबूत है | ज़ाहिर है ये गैर इरादतन हत्या का मामला है लेकिन ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोके जाने का तंत्र विकसित न होना भी आपराधिक उदासीनता है | जो हुआ वह बेहद दर्दनाक और दुखद ही कहा जावेगा | जिन परिवारों के लोगों की मौत हुई उनके दुःख को पैसे या अन्य भौतिक लाभों से कम करना असंभव है | अनेक घायल लोग स्थायी रूप से दिव्यांग बनकर रह जाएँ तो आश्चर्य न होगा |  बुद्धिमत्ता इसी में है कि ऐसे हादसों को रोके जाने के प्रति गंभीरता बरती जावे | भीड़ हमारे देश की आम समस्या है | लेकिन उसका प्रबंधन ही समस्या का हल है | दशकों पहले प्रयागराज के कुम्भ में भगदड़ के कारण सैकड़ों  लोग कुचलकर मारे गये थे | उस हादसे से सबक लेकर कुम्भ का आयोजन बेहद पेशेवर तरीके से किया जाने लगा | ऐसी ही जिम्मेदारी बाकी आयोजनों में भी प्रदर्शित की जानी चाहिए | मोरबी का हादसा रोका जा सकता था यदि पुल पर  क्षमता से ज्यादा बोझ न होता | फ़िलहाल तो सभी  का ध्यान बचाव कार्य पर  है | लेकिन बाद में इस बारे में समग्र सोच के साथ आगे बढ़ना होगा | हादसे विकसित देशों में भी होते हैं | लेकिन वे उसकी पुनरावृत्ति रोकने के बारे में समुचित प्रबंध करने के साथ ही दोषियों को दण्डित करने में रहम नहीं करते | हमारे देश में भी यदि ऐसा होने लगे तो उनसे बचा जा सकता है | लेकिन उसके लिए दृढ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 29 October 2022

फेसबुक और ट्विटर जैसा हम अपना सोशल मीडिया क्यों नहीं बनाते



सोशल मीडिया के बेहद प्रभावशाली माध्यम ट्विटर को खरीदते ही धनकुबेर एलन मस्क ने उसके सी.ई.ओ पराग अग्रवाल और विधिक नीति प्रमुख विजया गड्डे को नौकरी से निकाल दिया | हालाँकि उनको  बतौर मुआवजा कई अरब रूपये प्राप्त होंगे | ट्विटर का सौदा अनेक महीनों से विवादों के घेरे में था | सुनने में आता रहा कि पराग इस सौदे में मस्क के लिए बाधक बने हुए थे | कारपोरेट जगत में इस तरह के अधिग्रहण मामूली बात है | उस दृष्टि से ट्विटर का मालिकाना बदलने के साथ ही दो शीर्षस्थ अधिकारियों का हटाया जाना आश्चर्यचकित नहीं करता किन्तु वे भारतीय मूल के हैं लिहाजा सोशल मीडिया में रूचि रखने वाले एक वर्ग ने इसका संज्ञान लेते हुए तरह – तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की | वैसे भी बीते काफी समय से ट्विटर अनेक कारणों से चर्चाओं में बना हुआ है | मुख्य रूप से  विशिष्ट हस्तियों के फालोअरों की संख्या विवाद में रही है | देखने में आया है कि किसी चर्चित व्यक्ति के ट्विटर पर आते ही  रातों - रात उसके फालोअरों की संख्या लाखों में जा पहुँचती है | इसके अलावा फेसबुक और व्हाट्स एप की तरह ट्विटर पर भी बड़ी संख्या में फर्जी नामों की भरमार है जो विवादास्पद और आपत्त्तिजनक सामग्री प्रसारित करते हुए माहौल गंदा करने के साथ ही सौहार्द्र बिगाड़ने का काम करते हैं | ट्विटर के प्रभाव का प्रमाण ये है कि दुनिया के लगभग सभी चर्चित उद्योगपति , लेखक , पत्रकार इसके जरिये  अपने विचार प्रेषित करते हैं | फालोअरों की संख्या इनकी लोकप्रियता  का मापदंड मानी जाती  है और इसी को लेकर बड़े – बड़े खेल होते हैं | फिलहाल ट्विटर के शीर्ष पदों पर बैठे भारतीय मूल के पराग और विजया को हटाये जाने की खबर भारत में चर्चा का विषय बनी हुई है | ये भी  सुनने में आया है कि मस्क ने चीनी दबाव में आकर ये कदम उठाया है | लेकिन किसी भारतीय की ताजपोशी या उसे अपदस्थ किया जाना मुद्दा न होकर विचार इस बात का होना चाहिये कि 135 करोड़ की आबादी वाला देश जहां के इंजीनियर और तकनीशियन अमेरिका के साफ्टवेयर उद्योग की रीढ़ बन चुके हों , अपना स्वयं का सोशल मीडिया माध्यम क्यों नहीं बनाता ? हालाँकि इस कार्य में ढेर सारी तकनीकी , आर्थिक और कूटनीतिक बाधाएं भी आयेंगी किन्तु समय आ गया है जब हमें इस बारे में सोचते हुए कदम आगे बढ़ाने चाहिए | चूंकि अन्तरिक्ष विज्ञान में भारत ने काफी महारत हासिल कर ली है इसलिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया जाये तो वह दिन दूर नहीं जब गूगल जैसा हमारा अपना सर्च इंजिन हो सकता है | उपग्रह प्रक्षेपण की क्षमता होने के कारण हम अपना संचार माध्यम विकसित करने में समर्थ हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि सोशल मीडिया के जितने भी  माध्यम हैं उनमें भारतीयों की मौजूदगी जबरदस्त है | यही वजह है कि गूगल और फेसबुक जैसे संस्थानों ने भारतीय मूल के लोगों को अपने शीर्ष पदों पर बिठाया | ये उसी तरह है कि अनेक विदेशी चैनलों ने भारत में आने के बाद हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ में समाचार और मनोरंजन से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित करना शुरू कर दिए | चुनावों में फेसबुक भारत के राजनीतिक दलों से जमकर पैसा बटोरकर उनके पक्ष में माहौल बनाने के लिए आलोचना भी झेल चुकी है | ट्विटर के मुकाबले कू नामक एक माध्यम भारत में शुरू भी हो चुका है जिसकी पहुँच और पकड़ धीरे – धीरे बढ़ती जा रही है | फेसबुक जैसा माध्यम भी यदि भारत में तैयार हो सके तो वह भी क्रांतिकारी साबित होगा | भारतीय मूल के लोग पूरी दुनिया में फैले हुए हैं | उन्हीं के कारण हमारे देश की फ़िल्में वहां प्रदर्शित होती हैं | फिल्मी  सितारों , गायकों और संगीतकारों के कार्यक्रम भी अप्रवासी भारतीय आयोजित करते हैं | वहीं साधु – महात्मा भी प्रवचन देने जाने लगे हैं | इन सबकी वजह से भारतीय सामाजिक जीवन की झलक दुनिया के हर कोने में कमोबेश मिल जाती है | ये देखते हुए भारत अपने सोशल मीडिया माध्यम प्रारंभ करे तो इसमें कोई शक नहीं है कि करोड़ों लोग उससे जुड़ जायेंगे जिससे आर्थिक दृष्टि से भी वह लाभ का सौदा रहेगा | इस बारे में विचारणीय मुद्दा ये है कि अमेरिका ही संचार माध्यमों का चौधरी क्यों बनता है ? पाठकों को याद होगा कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका से संचालित दो काल्पनिक चरित्रों को  विश्वव्यापी लोकप्रियता और विस्तार मिला | ये थे फैंटम जिसे मृत्युंजय और भूतनाथ जैसे नाम भी मिले | और दूसरा था जादूगर मेंड्रेक | धारावाहिक शैली में अख़बारों और पत्रिकाओं में इनकी कहानियां अनेक दशकों तक प्रकाशित्त होती रहीं | इसके माध्यम से अमेरिका ने अपने आपको वैश्विक शक्ति के रूप में पूरी दुनिया में स्थापित किया | इन आभासी  चरित्रों की सबसे रोचक बात  ये थी कि इनके मुख्य पात्र फैंटम और मेंड्रेक के सहयोगी अफ्रीकी  थे | इसके जरिये अमेरिका ने ये संदेश दिया कि वह गोरी – काली चमड़ी के आधार पर नस्लीय भेदभाव में विश्वास नहीं रखता | दुनिया के बाजार में पैठ बनाने में वह माध्यम मनोवैज्ञानिक रूप से काफी सफल रहा | ये भी देखने वाली बात है कि अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम के तौर पर लोकप्रिय माध्यम सिनेमा के सबसे बड़े केंद्र के रूप में अमेरिका में  लॉस एंजेल्स स्थित हॉलीवुड है | यहाँ दिए जाने वाले ऑस्कर अवार्ड को इस विधा में सबसे बड़ा सम्मान माना जाता है | जब इन्टरनेट का आविष्कार हुआ तब बाकी देश समझ पाते  उसके पहले  ही अमेरिका ने उसे संचालित करने वाले समूचे तन्त्र को अपने नियन्त्रण में ले लिया | इसके जरिये सोशल मीडिया का विकास हुआ जिसका सहारा लेकर दुनिया भर से अरबों लोगों की निजी जानकारी अमेरिका के पास जा पहुँची जिसका उपयोग बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कारोबार के प्रसार हेतु करती हैं | ये सब देखते हुए इस बात की जरूरत महसूस होने लगी है कि भारत भी अपने सर्च इंजिन और सोशल मीडिया माध्यमों का विकास करने की दिशा में पहल करे |  सरकार के साथ देश के दिग्गज उद्योगपतियों को भी इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए | विश्व की बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की दिशा में बढ़ रहे देश के पास अपना सोशल मीडिया माध्यम होना ही चाहिए क्योंकि इसका केवल सामाजिक और आर्थिक ही नहीं अपितु कूटनीतिक प्रभाव भी होता है |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 28 October 2022

अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री की मांग एक खतरनाक विचार



दीपावली के शोर में ये मुद्दा दबकर रह गया लेकिन भारत में भी अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री की मांग उठाना बेहद गैर जिम्मेदाराना सोच है | दुर्भाग्य ये है कि यह बात कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम और शशि थरूर जैसे उन नेताओं ने उछाली जो विश्व के सुप्रसिद्ध संस्थानों में उच्च शिक्षा प्राप्त हैं | दोनों के पास राजनीति के अलावा लम्बा पेशेवर अनुभव है और उनकी छवि बुद्धिजीवी की है | दरअसल ब्रिटेन में ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने की खबर आते ही समूचे भारत में स्वाभाविक रूप से खुशी का अनुभव किया गया | इसके प्रमुख कारणों में पहला उनकी पत्नी का भारतीय होना और दूसरा ब्रिटेन में जन्म लेने के बावजूद हिन्दू बने रहना | यद्यपि एक तबके ने ब्रिटिश लोकतंत्र की तारीफ के पुल बांधते हुए विदेशी मूल के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाये जाने को उसके उदारवाद का प्रतीक बताया | कुछ लोगों ने  सुनक के बहाने इस बात पर तंज भी  कसा कि ब्रिटेन ने एक विदेशी मूल के व्यक्ति को देश की सत्ता सौंपने में संकोच नहीं किया जबकि भारत में इसकी सम्भावना नजर आते ही आसमान सिर पर उठा लिया गया था | ज़ाहिर है निशाना 2004 में  सोनिया गांधी को  प्रधानमंत्री बनाये जाने के विरोध पर था | अमेरिका में कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने का जिक्र भी हुआ | लेकिन भारत में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री बनाये जाने जैसा सुझाव ऐसे अवसर पर न सिर्फ अनावश्यक और अप्रत्याशित अपितु आपत्तिजनक भी कहा जाएगा | और इसीलिये बिना देर लगाये कांग्रेस की ओर से महामंत्री ( संचार  ) जयराम रमेश ने श्री चिदम्बरम और श्री  थरूर के बयान पर बिना नाम लिए टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत को किसी से सीखने के जरूरत नहीं है | हमारे देश में डा.जाकिर हुसैन , फखरुद्दीन अली अहमद और डा.अब्दुल कलाम के रूप में तीन मुस्लिम राष्ट्रपति और बरकतुल्ला खान तथा अब्दुल रहमान अंतुले मुख्यमंत्री रह चुके हैं | जब उनसे  संदर्भित बयान का समर्थन करने वाले विपक्ष के अन्य नेताओं के बारे में पूछा गया तब श्री रमेश ने टालते हुए कहा कि वे सिर्फ राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पर बात करेंगे | चूंकि  श्री रमेश इन दिनों श्री गांधी के साथ यात्रा में  समाचार माध्यमों  से सम्पर्क का काम देख रहे हैं इसलिए ये मान लिया गया कि उनके द्वारा श्री चिदम्बरम और श्री थरूर के बयान से असहमति व्यक्त किया जाना एक तरह से कांग्रेस की अधिकृत प्रतिक्रिया थी | पार्टी के नये अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इस बारे में मौन साधे रखा | ये भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में श्री चिदम्बरम के सांसद पुत्र कार्ति , श्री थरूर के चुनाव संयोजक थे | सही बात ये है कि भाजपा ने दोनों नेताओं के बयान पर जब ये कहते हुए हमलावर रुख अपनाया कि क्या कांग्रेस दस साल तक प्रधानमंत्री रहे डा.,मनमोहन सिंह को अल्पसंख्यक नहीं मानती तब पार्टी को लगा कि  देर की तो मामला उसके गले पड़ जाएगा और इसीलिये श्री रमेश के मार्फत फटाफट अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री वाले बयान से किनारा कर लिया गया | लेकिन तीर तो तरकश से निकल ही चुका था | कांग्रेस के दो वरिष्ट नेताओं के बयान का  जम्मू – कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा के अलावा सपा के विवादस्पद सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने भी खुलकर समर्थन कर डाला | ऐसे में कांग्रेस को लगा कि अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री का मुद्दा गुजरात और हिमाचल के चुनाव में उसके गले की फांस बन सकता है  | इसीलिए उसने उससे पल्ला झाड लिया लेकिन भाजपा ने मौके को लपकते हुए इसको मुस्लिम तुष्टीकरण से जोड़ दिया |  श्री चिदम्बरम और श्री थरूर के बयान के बाद श्री रमेश ने निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी को फजीहत से बचाने की कोशिश की लेकिन उनसे उनके बयान की जरूरत और मकसद के बारे में न पूछकर भाजपा को ये कहते रहने का अवसर दे दिया है कि कांग्रेस देश में मुस्लिम प्रधानमंत्री चाहती है | डा.मनमोहन सिंह को अल्पसंख्यक न मानने जैसा सवाल उठाकर भाजपा ने उक्त दोनों नेताओं को कठघरे में खड़ा करते हुए अप्रत्यक्ष तौर पर कांग्रेस को भी घेरने का दांव चला है | इसीलिये श्री रमेश को सामने करते हुए पार्टी ने नुकसान से बचने की कोशिश की | इस बारे में श्री चिदम्बरम और श्री थरूर जैसे नेताओं की समझ पर भी हंसी आती है | उनको इस बात का एहसास अच्छी तरह से है कि अल्पंख्यक  प्रधानमंत्री की मांग से अभिप्राय मुस्लिम ही होता है और भाजपा ऐसे किसी भी मुद्दे पर आक्रामक होने से नहीं चूकती | सवाल ये है कि उन दोनों ने अपनी पार्टी से ये मांग क्यों नहीं की कि वह आगामी लोकसभा चुनाव में किसी अल्पसंख्यक नेता को नरेंद्र मोदी की टक्कर में प्रधानमंत्री पद के  उम्मीदवार के रूप में पेश करे | दरअसल  ब्रिटेन में एक अल्पसंख्यक  के प्रधानमंत्री बनने पर भारत में भी वैसा ही किये जाने की मांग श्री मोदी पर छोड़ा गया तीर था लेकिन वह कांग्रेस की तरफ घूम गया | अब यदि कांग्रेस  ये मानती है कि श्री चिदम्बरम और श्री थरूर का बयान शरारतपूर्ण है तब उसे उन पर कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि उसकी वजह से देश के राजनीतिक माहौल में बेवजह ज़हर घोलने की कोशिश शुरू हो गयी है | प्रश्न ये भी है कि क्या कांग्रेस ने डा.जाकिर हुसैन और फखरुद्दीन अली अहमद को उनके मुसलमान होने के कारण राष्ट्रपति बनाया था ? और क्या डा. कलाम इसलिए समाज के हर तबके में लोकप्रिय हुए क्योंकि वे मुसलमान थे ?  ये भी विचारणीय है कि कहने को भले ही सिख , जैन और बौद्ध धार्मिक अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हों लेकिन वास्तविकता ये है कि भारत में केवल मुस्लिम और ईसाइयों को ही अल्पसंख्यक माना जाता है | और उस पर भी राजनीतिक तौर पर मुस्लिम समुदाय ज्यादा मुखर और आक्रामक है | इनके अलावा पारसी समुदाय  भी है जिसका भारत के आर्थिक विकास में बड़ा योगदान है लेकिन उसकी तरफ से कभी किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की अभिव्यक्ति नहीं हुई | ये देखते हुए कांग्रेस को चाहिए कि यदि वह श्री चिदम्बरम और श्री थरूर के बयान से असहमत है तो उसे इनके विरुद्ध कड़े कदम उठाने चाहिए अन्यथा ममता बैनर्जी ,  अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के अलावा  ओवैसी जैसे नेता समाज के माहौल में ज़हर घोलने में जुट जायेंगे |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 27 October 2022

सड़कें चमकदार ही नहीं टिकाऊ भी होनी चाहिए



राजतन्त्र के ज़माने में कुछ राजा भेस बदलकर प्रजा के हाल - चाल जानने के साथ ही ये पता लगाने की कोशिश भी किया करते थे कि वह उनके बारे में क्या राय रखती है ? कुछ शासकों के बारे में ये भी पढ़ने मिलता है कि वे रात में साधारण नागरिक बनकर घूमते हुए ये देखते थे कि उनके राज में कानून व्यवस्था चाक – चौबंद हैं या नहीं ? आशय ये कि बजाय महल में आराम की ज़िन्दगी गुजारने के वे जनता की तकलीफों का प्रत्यक्ष अवलोकन करते हुए इस बात की जाँच करते थे कि उनके मंत्री तथा अन्य दरबारी उन्हें जो जानकारी देते हैं वह सही है अथवा नहीं | शासक की लोकप्रियता केवल उसकी सम्पन्नता और सैन्यबल पर नहीं अपितु प्रजा के प्रति उसकी संवेदनशीलता और प्रशासनिक दक्षता पर निर्भर होती है | इसीलिये लोक कल्याणकारी राज्य के जो मापदंड सदियों पहले तय किये गए थे वे आज भी  प्रासंगिक हैं | ताजा सन्दर्भ म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा गत दिवस राजधानी भोपाल की अधिकतर सड़कों की खस्ता हालत पर व्यक्त की गयी नाराजगी है | इस साल हुई रिकॉर्ड तोड़ बरसात ने भोपाल की सड़कों के चीथड़े उड़ाकर रख दिए है | गड्ढे और धूल से राहगीर परेशान हैं | मुख्यमंत्री ने सम्बन्धित अमले को 15 दिनों का समय  देते हुए कहा है कि वे दोबारा जब निरीक्षण करें तब तक सड़कें चकाचक हो जानी चाहिए | खबर है प्रदेश के मुखिया की नाराजगी से सरकारी मशीनरी सक्रिय हो उठी है | आज भोपाल में लोक निर्माण विभाग और नगर निगम के अधिकारियों  की बड़ी बैठक में सड़कों को दुरस्त करने की कार्ययोजना बनाई जावेगी | इस बारे में ध्यान देने वाली बात ये है कि राजधानी चाहे देश की हो या प्रदेशों की , उनकी सड़कों तथा अन्य कार्यों की गुणवत्ता अन्य शहरों की अपेक्षा बेहतर होती है | राजधानी परियोजना के अंतर्गत अतिरिक्त धन भी आवंटित होता है | और फिर सरकार का मुख्यालय होने से सारे बड़े नेताओं और नौकरशाहों का   निवास राजधानी में होने से उसका रंग - रूप निखारने के प्रयास भी निरंतर चलते रहते हैं | उस दृष्टि से भोपाल दूसरे प्रदेशों की राजधानियों की तुलना में बेहद साफ़ - सुथरा और सुविधा - संपन्न है | लेकिन हाल में विदा हुए मानसून ने बीते अनेक दशकों का रिकॉर्ड तोड़कर रख दिया | जिससे सबसे ज्यादा नुकसान सड़कों को पहुंचा | मुख्यमंत्री ने  निरीक्षण के बाद जिस सख्त लहजे में प्रशासन को फटकारा उसका असर होना स्वाभाविक है | ये मान लेना गलत नहीं होगा कि भोपाल में बैठे नौकरशाह आज से ही मुख्यमंत्री के निर्देशों का पालन करने में दिन - रात एक कर देंगे और जो समय सीमा श्री चौहान ने तय की है उसके पहले ही राजधानी की सड़कों को गड्ढा मुक्त करते हुए चमका दिया जाएगा | किसी शासक का अपने प्रशासनिक अमले पर इतना दबदबा होना उसकी मजबूत पकड़ का प्रमाण है | वैसे भी श्री चौहान लम्बे समय से मुख्यमंत्री हैं इसलिए नौकरशाही को हांकने और हड़काने की महारत उनमें होना स्वाभाविक है | बीते एक साल से उनकी शैली काफी बदली हुई है जिसे कुछ लोग उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रेरित बताते हैं | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि श्री चौहान जनता से सीधे जुड़ाव रखने की कला में बहुत अच्छी तरह पारंगत हैं | और इसीलिए उनसे ये अपेक्षा करना वाजिब है कि जो नाराजगी उन्होंने राजधानी की सड़कों को लेकर व्यक्त की वैसी ही वे पूरे प्रदेश के बारे में दिखाते हुए प्रशासन को हिदायत दें कि निर्धारित सीमा में हर जिले में युद्धस्तर पर सड़कों का सुधार कार्य किया जावे | इसके लिए अतिरिक्त धन का  आवंटन करने के अलावा ये भी ध्यान रखना होगा कि मुख्यमंत्री को खुश करने के फेर में केवल ऊपरी  रंग - रोगन न हो , अपितु टिकाऊ सड़कें बनाई  जावें | इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि हर साल बरसात में पूरे प्रदेश की  सड़कें खराब हो जाती हैं | उनके सुधार हेतु नए बजट में धनराशि स्वीकृत होती है | काम शुरू होते - होते अप्रैल – मई का महीना आ जाता है और जून में नया मानसून आ धमकता है | इस प्रकार देखें तो आम जनता को आधे से ज्यादा साल खस्ता हाल सड़कों पर चलना होता है | जिन शहरों में स्मार्ट सिटी के नाम पर विकास कार्य हो रहे हैं उनकी दशा तो बहुत ही ख़राब है | म.प्र एक ज़माने में सड़कों के मामले में बेहद बदनाम था | दिग्विजय सिंह की सरकार के जाने के लिये खराब सड़कें भी बड़ा कारण थीं | हालाँकि भाजपा की सरकार के दौर में सड़कों की स्थिति में जबरदस्त सुधार हुआ लेकिन यहाँ के मौसम और जमीन को देखते हुए  जिस तरह की सड़कें बननी चाहिए उस ओर ध्यान न दिये जाने का दुष्परिणाम ये है कि करोड़ों रूपये की लागत से बनने वाली सड़क पहली बरसात में ही गड्ढों में बदल जाती है | इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नई – नई तकनीक विकसित होने के बावजूद म.प्र में टिकाऊ सड़कों का निर्माण न होना अनेकानेक सवाल खड़े करता है | इसलिए श्री चौहान को चाहिए कि जिस तरह उनके  राज में म.प्र कृषि में अग्रणी बन गया उसी तरह उन्हें  सड़कों के निर्माण में गुणवत्ता पर ध्यान  देना चाहिए | ये बात वाकई गौर तलब है कि जब राजधानी भोपाल की सड़कें बरसात नहीं झेल नहीं पाईं तब तहसील और कस्बों में क्या हालत होगी ? बेहतर हो श्री चौहान प्रशासन को सख्त हिदायत दें कि 15 दिन में सड़कों की दशा सुधारने के काम में गुणवत्ता का ध्यान न दिया तो दोषी अमले पर गाज गिरे बिना नहीं रहेगी | बीते काफ़ी समय से मुख्यमंत्री की कार्यशैली में काफी बदलाव आया है | इसके कारण उन्हें सिंघम  अवतार भी कहा जा रहा है | लेकिन इस तरह के विशेषणों से आत्ममुग्ध हुए बिना उनको चाहिये कि वे म.प्र की सड़कों को इस तरह का बनवाएं जिससे उन पर खर्च होने वाला जनता का धन सार्थक हो | बरसात में सड़क खराब न हो इसके लिए जो तकनीकी सलाह लेनी हो वह ली जानी चाहिए | आईआईटी जैसे संस्थान इस बारे में उपयोगी सलाह दे  सकते हैं | चुनाव वर्ष में श्री चौहान यदि प्रदेश को गुणवता युक्त  दे सड़कें दे सकें  तो यह उनके लिए बेहतर होगा क्योंकि अगले साल बरसात के तुरंत बाद उनको विधानसभा चुनाव लड़ना होगा और तब खस्ता हाल सड़कें झटका साबित हो सकती हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 24 October 2022

सुख – समृद्धि की कामना का अधिकार सभी को है



 दुनिया जब अर्थव्यवस्था के बारे में जानती भी नहीं थी तब से भारत में दीपावली का त्यौहार मनाया जा रहा है | कालान्तर में इसके साथ लगातार पौराणिक प्रसंग जुड़ते चले गए | न सिर्फ सनातन धर्म के अनुयायियों अपितु जैन , बौद्ध , सिख सभी इस पर्व पर हर्षोल्लास से भर उठते हैं | इस्लाम को मानने वाले कुछ व्यवसायी भी दीपावली अपने ढंग से मनाते हैं | ये कहना भी गलत न होगा कि दीपावली भारत का सबसे बड़ा लोक महोत्सव है | इसका प्रमाण ये है कि पूरे विश्व में फैले भारतवंशी इसका आयोजन पूरे उत्साह और उमंग से करते हैं | अब  तो अमेरिका , कैनेडा और ब्रिटेन तक में सरकारी तौर पर भी दीपावली पर जलसा होने लगा है | इसका कारण वहां भारतीयों की बढ़ती संख्या ही नहीं बल्कि शैक्षणिक , आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में भारतीय मूल के लोगों की प्रभावशाली उपस्थिति है | वैसे अन्य भारतीय तीज – त्यौहारों की तरह दीपावली भी कृषि आधारित पर्व ही है | वर्षा ऋतु की विदाई के बाद नई फसल आते ही आर्थिक और धार्मिक गतिविधियाँ शुरू होने के साथ शुरू हो जाता है शीतकाल  जिसमें रबी फसल की तैयारी होती है | इस प्रकार दीपावली न सिर्फ एक धार्मिक बल्कि व्यापारिक महत्त्व का अवसर भी है |  इसे दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक मेला भी कह सकते हैं |  भारत की अर्थव्यवस्था आज  भी कृषि आधारित है और  दीपावली भी उसी से जुडी हुई है | अच्छी फसल से समाज के हर वर्ग को  उत्साह के साथ ही भविष्य के आर्थिक नियोजन में  मदद मिलती है | जब फसल अच्छी आती है तब शादियाँ भी खूब होती हैं जिनकी वजह से बाजार में रौनक आती है | इसीलिए दीपावली पर होने वाले व्यापार को अर्थव्यवस्था का मापदंड मानते हुए वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत इसे वणिक ( व्यवसायी )  समुदाय का त्यौहार कहा जाता है | दीपावली पर धन -  धान्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की पूजा का महात्म्य भी इसी वजह से है | बावजूद इसके इस त्यौहार से जुड़ी परंपराओं में सामाजिक ढांचे का भी ध्यान रखा गया था | इसीलिए तमाम चमक – दमक के बावजूद मिट्टी का दिया और दीपावली एक दूसरे के पूरक हैं | आधुनिकता के साथ सजावट के अनेकानेक साधन विकसित होने पर भी धनकुबेरों से लेकर तो झोपड़ी में रहने वाला निर्धन भी दीपक के माध्यम से ही दीपावली मनाता है जिसके पीछे भी एक प्रतीकात्मक सोच रही है | दीपावली पर  चूंकि अमावश्या की रात होती है इसलिए दीपमालिका के माध्यम से ये प्रदर्शित किया जाता है  कि निराशा के माहौल में भी आशावान होना हमारा स्वभाव है | इस दृष्टि से यह अँधेरे में प्रकाश उत्पन्न करने रूपी पौरुष का प्रतीक पर्व है | लक्ष्मी की पूजा और आराधना  को केवल धन – संपत्ति की प्राप्ति से जोड़ना अधकचरापन है | सही मायनों में दीपावली श्रम और नैतिकता से अर्जित सम्पन्नता की प्रेरणा देती है | अमावस की अंधियारी रात को दीपों के माध्यम से आलोकित करने की परम्परा इस बात का द्योतक है कि हमारे आचरण में पारदर्शिता हो और हम ऐसा कुछ न करें जिसे छिपाने की जरूरत पड़े | इसके साथ ही ये पर्व हमारी सामाजिक व्यवस्था में निहित सामजंस्य के भाव और समतामूलक सोच का सर्वोत्तम उदाहरण है | इसीलिये भले ही यह लक्ष्मी जी को समर्पित है किन्तु सुख और समृद्धि की कामना करने का अधिकार सभी को है , ये इस त्यौहार का संदेश है | पूंजीवादी और साम्यवादी विचारधारा के विपरीत भारतीय सामाजिक व्यवस्था ऊंच – नीच और वर्ग  संघर्ष जैसे दर्शन से अलग हटकर वर्ग समन्वय को पोषित करने  वाली है | इस अवसर पर रोजगारमूलक सामाजिक ढांचे का सर्वोत्तम स्वरूप उभरकर सामने आता है | धन के साथ धान्य शब्द का संगम सांकेतिक भाषा में बहुत कुछ कह जाता है | आधुनिकता के प्रसार के कारण माटी के दिए से लेकर साज - सज्जा के सामान से बढ़ते – बढ़ते बात इलेक्ट्रानिक सामान , कार , हीरे जवाहरात तक जा पहुंची हो लेकिन सहस्त्रों साल पहले जब मुद्रा बाजार ने जन्म नहीं लिया था और वस्तु विनिमय ही लेन - देन का माध्य्म था तब भी हमारे समाज में धातु में निवेश करने का चलन होने से  हर आय वर्ग का व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार पीतल , ताम्बे , कांसे , चांदी या स्वर्ण की खरीद कर सुरक्षित निवेश करता था | बाजारवादी व्यवस्था ने यद्यपि काफी कुछ बदलकर रख दिया किन्तु धातु में निवेश की प्रवृत्ति के कारण ही हमारा देश कभी सोने की चिड़िया कहलाता था | 21 वीं सदी ने यद्यपि काफी कुछ बदल डाला लेकिन आज भी बचत और संयम का जो संस्कार  हमें विरासत में मिला उसने अनगिनत झंझावातों के बावजूद भारत को संगठित और सुरक्षित रखा | सदियों  की गुलामी भी हमारे सांस्कृतिक व्यवहार को नहीं बदल सकी तो उसका बड़ा कारण हमारी पर्व परम्परा है जो हमें जड़ों से जोड़े रखती है | दीपावली इस परम्परा का शिखर है | मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में हमारे देश की भूमिका की ओर पूरा विश्व निहार रहा है | आर्थिक मजबूती के साथ सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़ती आत्मनिर्भरता के कारण ही भारत दुनिया की बड़ी ताकतों की कतार में शामिल हो सका है | नई पीढ़ी ने ज्ञान – विज्ञान की हर विधा में अपनी प्रतिभा प्रमाणित की है | स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद की भविष्यवाणी के अनुरूप भारत विश्व का नेतृत्व करने के आत्मविश्वास से भरा हुआ है | हालाँकि राह में बाधाएं भी हैं किन्तु आज का भारत समस्याओं के समाधान के सामर्थ्य से भरपूर है | दीपावली इस आत्मविश्वास को और सुदृढ़ बनाने का पुनीत अवसर है | आइये , अपनी उन्नति के साथ ही हम अपने देश की समृद्धि हेतु भी प्रार्थना करें क्योंकि उसी के साथ हमारा भविष्य भी जुड़ा हुआ है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 22 October 2022

वीआईपी संस्कृति का विरोध : बात निकली है तो फिर ....



दिल्ली स्थित देश के सबसे बड़े सरकारी चिकित्सा केंद्र एम्स (अ.भा आयुर्विज्ञान  संस्थान ) के चिकित्सकों ने सांसदों को अति विशिष्ट व्यक्ति मानकर उनके इलाज के लिए विशेष व्यवस्था किये जाने संबंधी परिपत्र का जिस जोरदारी से विरोध करते हुए प्रबंधन को उसे वापस लेने मजबूर किया वह शुभ संकेत है | उल्लेखनीय है एम्स के निदेशक द्वारा हाल ही में ये निर्देशित किया गया था कि किसी सांसद के वहां  आने पर एक विशेष अधिकारी  उनके इलाज और देखभाल में समन्वय स्थापित करेगा जो अस्पताल का चिकित्सक ही रहेगा | सांसद  को चिकित्सक के पास ले जाने का कार्य अस्पताल प्रबन्धक करेगा और उसके लिए लैंडलाइन और मोबाइल फोन अदि की व्यवस्था हर समय रहेगी |  यही नहीं इस व्यवस्था के अंतर्गत सांसद  द्वारा भेजे गये मरीज का इलाज भी प्राथमिकता के आधार पर किया जाना था  | हालाँकि इस तरह की  व्यवस्था एम्स में अघोषित तौर पर पहले से ही लागू है | सही मायनों में इस अस्पताल की स्थापना देश की आजादी के बाद राजधानी में रहने वाले अति विशिष्ट लोगों की चिकित्सा हेतु ही की गई थी | उस समय निजी क्षेत्र के बड़े अस्पताल भी नहीं थे | कालान्तर में उक्त संस्थान अस्पताल के साथ ही चिकित्सा की शिक्षा और शोध का बड़ा केंद्र बन गया | यहाँ से शिक्षित होकर निकले चिकित्सक न सिर्फ देश अपितु विदेशों तक में अपनी सफलता के झंडे फाहरा रहे हैं } धीरे – धीरे न सिर्फ दिल्ली अपितु पूरे उत्तर भारत में एम्स सबसे बड़े चिकित्सा केंद्र के तौर पर प्रसिद्ध हो गया | सरकारी होने से यहाँ का इलाज सस्ता तो है ही लेकिन उससे भी बढ़कर वह विदेशों के किसी भी नामी  अस्पताल से कम नहीं होने के कारण पड़ोसी देशों से भी मरीज यहाँ आने लगे | इस प्रकार एम्स में भीड़ बढती गई जिसकी वजह से अच्छा इलाज होने के बावजूद जल्द इलाज करवाने की समस्या होने लगी | और यहीं से आम और खास का फर्क शुरू हुआ जो बढ़ते – बढ़ते उस स्तर तक आ गया जिसके विरोध में वहां के चिकित्सकों ने आवाज बुलंद की | इसमें दो राय नहीं है कि एम्स में चिकित्सा और चिकित्सक दोनों उच्च कोटि के हैं | लेकिन बढ़ती आबादी के मद्देनजर अकेले दिल्ली में ही ऐसे कुछ और संस्थान खुल जाएँ तो भी कम पड़ेंगे | आश्चर्य की बात है कि इस दिशा में काफी देर से विचार शुरू हुआ और वाजपेयी सरकार के समय प्रदेश की राजधानियों में एम्स खोलने की योजना बनी जिसके परिणामस्वरूप  हर प्रदेश में एम्स के स्तर का चिकित्सा संस्थान प्रारम्भ हो सका | लेकिन दूसरी तरफ ये भी  सही है कि दिल्ली का एम्स आज भी चिकित्सा क्षेत्र का सिरमौर बना हुआ है | रही बात वीआईपी संस्कृति की तो ये समस्या केवल दिल्ली ही नहीं अपितु पूरे देश में है | सांसद तो खैर बड़ी बात हैं किन्तु शासन और प्रशासन में बैठा हर ओहदेदार चाहता है कि वह जब ऐसे संस्थान में  जाए तो बाअदब - बामुलाहिजा होशियार की पुकार लगे और समूची व्यवस्था उनकी सेवा में जुट जाए | एम्स से आई ताजा खबर ने इस बारे में सोचने की जरूरत एक बार फिर पैदा कर  दी है | बतौर जनप्रतिनिधि सांसद को कुछ तो सुविधा मिलनी ही चाहिए | इसी तरह उसके जरिये आये मरीज की मदद यदि हो सके तो वह भी स्वीकार्य है | लेकिन इसके कारण आम मरीज के इलाज में कमी न हो ये देखने वाली बात है | इस बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि आम जनता की परेशानी या नाराजगी इस बात पर नहीं है कि किसी को विशेष  सुविधा मिले | उसे कोफ़्त तब होती है जब उसकी उपेक्षा कर किसी को महज इसलिए महत्व दिया जाता है कि वह मंत्री , सांसद , विधायक या कोई बड़ा नेता या सरकारी साहब है | और फिर किसी चिकित्सक को वीआईपी की सेवा में बतौर शिष्टाचार अधिकारी तैनात करना भी  अनुचित प्रतीत  होता है | एम्स , दिल्ली में न सिर्फ सांसदों अपितु राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री सहित अन्य अति विशिष्ट जनों का इलाज होता रहा है  | शायद यही कारण है कि आम जनता को भी इस  संस्थान की गुणवत्ता में विश्वास है | यह विश्वास बना रहे इसके लिये जरूरी है उसके इलाज को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जावे | इस बारे में ये भी गौर तलब है कि कोरोना संकट के बाद रेलवे द्वारा वरिष्ट नागरिकों आदि को मिलने वाली रियायतें बंद किये जाने के कारण आम जनता में ये मुद्दा अक्सर जनचर्चा में आता रहा है कि सांसदों की पेंशन और मुफ्त यात्राएँ बंद क्यों नहीं की जातीं ? इस तरह के और भी  सवाल उठते  रहते हैं जिनकी वजह से जनप्रतिनिधियों के प्रति ईर्ष्या और गुस्सा पैदा होता है | एम्स प्रबंधन ने अपने संदर्भित परिपत्र को वापिस लेकर बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया | भले ही सांसदों को मिल रही विशेष सुविधाएँ और वीआईपी व्यवहार पूर्ववत रहेगा लेकिन इस घटना के बाद सांसदों के मन में भी ये भावना जन्म ले सकती है कि उनको मिलने वाली प्राथमिकता अब जनता ही नहीं अपितु उन चिकित्सकों की नाराजगी का कारण भी बनने लगी है जिन्हें उनका इलाज करने का दायित्व सौंपा जाता है | बहरहाल एम्स से शुरू हुई ये मुहिम देश भर में फैलना चाहिए क्योंकि वीआईपी संस्कृति ने समाज में वर्गभेद पैदा कर  दिया है | यद्यपि अनेक नेता और अधिकारी बेहद सरल स्वभाव के होने के कारण अपने रुतबे के बेहूदे प्रदर्शन से दूर रहते हैं लेकिन उनके साथ चिपके लोग अपने आप को किसी सामंत से कम नहीं समझते | एम्स के चिकित्सकों का विरोध और प्रबंधन का कदम पीछे खींच लेना निश्चित रूप से एक बड़ा संकेत है वीआईपी संस्कृति के विरुद्ध उठ रही भावनाओं के सतह पर आने का | जिन लोगों को लोकतंत्रिक व्यवस्था में भी शासक वर्ग जैसी सुविधा और अधिकार मिले हुए हैं उनको एम्स की घटना से सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी |

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 21 October 2022

ब्रिटेन का संकट भारतीय मूल के लोगों की मुसीबत बन सकता है



ब्रिटेन की प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने महज 45 दिन के भीतर ये कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि वे जिन कामों के लिये चुनी गईं थीं उनको पूरा नहीं कर सकीं इसलिए पद से हटना ही बेहतर है | उल्लेखनीय है ब्रिटेन इन दिनों महंगाई और जबरदस्त ऊर्जा संकट से जूझ रहा है | अब लेबर पार्टी के एक लाख से ज्यादा सदस्य नये प्रधानमंत्री का चयन करेंगे | दरअसल यूक्रेन संकट के बाद यूरोपीय देशों की  अर्थव्यवस्था बुरी तरह से डगमगा गई है | रूस से मिलने वाले कच्चे तेल और गैस की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न होने से समूचा  महाद्वीप गंभीर ऊर्जा संकट का सामना करने मजबूर् हो गया है | अवसर का लाभ उठाते हुए तेल उत्पादक अरब देशों ने दाम बढ़ा दिए | उधर अमेरिका ने ब्याज दरों  में बदलाव करते हुए मुद्रा बाजार को हिलाकर रख दिया | जिससे डालर के दाम बढ़ते जा  रहे हैं | लेकिन  जर्मनी , फ़्रांस और इटली की तुलना में ब्रिटेन में आर्थिक हालात कुछ ज्यादा ही खराब हो गए | कुछ माह पहले बोरिस जॉनसन  की सरकार में वित्त मंत्री रहे ऋषि सुनाक ने विरोध क़ा झंडा उठाकर मंत्री पद त्यागा तब उनके साथ बड़ी संख्या में मंत्रीगण  नीतिगत विफलता को मुद्दा  बनाकर सरकार से बाहर आ गए | आख़िरकार जॉनसन को गद्दी छोड़नी पड़ी जिसके बाद पार्टी सदस्यों ने लिज ट्रस को प्रधानमंत्री चुना | हालाँकि भारतीय मूल के ऋषि सुनाक दौड़ में काफी समय तक आगे रहे लेकिन अंत में नस्लीय भेदभाव की भावना ने जोर पकड़ा और लिज सत्तासीन हो गईं | यद्यपि उनकी सरकार में भी  गृह मंत्री सहित अनेक मंत्रालयों में भारतीय मूल के लोग शामिल हुए | उनसे अपेक्षा थी कि वे कर ढांचे में बदलाव करते हुए जनता को राहत दिलवाएंगीं परन्तु वे उम्मीदों के अनुसार काम नहीं कर पा रही थीं | ये भी  लगा कि प्रधानमंत्री बनने से चूके सुनाक अपनी ह़ार से निराश नहीं हुए और लगातार लिज ट्रस की नीतिगत अक्षमता पर चोट करते रहे | दरअसल  ब्रिटेन के हालात जिस हद तक बिगड़ चुके हैं उनको मात्र 45 दिन में सुधारना असम्भव है | इस लिहाज से कह सकते हैं कि लिज ट्रस को समुचित समय नहीं मिला | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि सत्ता में आते ही उनकी  पार्टी के भीतर ही उनका विरोध शुरू हो चुका था जिसकी अगुआई ऋषि सुनाक के साथ ही  कुछ और पूर्व मंत्री कर रहे थे | ब्रिटेन अपने लोकतंत्र के लिए जाना जाता है | उसकी संसद को दुनिया भर की संसदों की माँ कहा जाता है | अतीत में उसके उपनिवेश रहे भारत जैसे ज्यादातर देशों ने आजाद होने के बाद जो संसदीय प्रणाली अपनाई वह ब्रिटेन से ही प्रेरित है | एक समय था जब ये कहावत प्रचलित थी कि महारानी विक्टोरिया के शासन में कभी सूरज अस्त नहीं होता क्योंकि  आस्ट्रेलिया से लेकर कैरिबियन द्वीप समूह तक ब्रिटिश राज था | उन देशों का शोषण करते हुए ब्रिटेन ने अपने को मालामाल कर लिया | उद्योगों के लिए आने वाला  कच्चा माल इन्हीं देशों से आता था और वही उसके लिये बाजार बन जाते थे | लेकिन दूसरे  महायुद्ध के बाद जैसे – जैसे उपनिवेशवाद का अंत होता गया वैसे – वैसे ब्रिटेन भी भीतर से कमजोर होने लगा | उसकी मौजूदा हालत अचानक नहीं बनी | बीते सात दशक के दौरान वह हर दिन कमजोर हुआ है | यूरोप के अन्य देश आर्थिक तौर पर जिस तेजी से आगे बढ़े उसने भी उसके आभामंडल को फीका किया | बीते दो दशक में चीन और भारत  की अर्थव्यवस्था ने वैश्विक मंच पर जिस तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई उसकी वजह से भी  ब्रिटेन का अर्थतंत्र काफी हद तक टूटा | सही बात तो ये है कि आज की दुनिया में ब्रिटेन कुछ देने की स्थिति में नहीं रह गया है | कभी शिक्षा और व्यापार के क्षेत्र में उसका दबदबा था | आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विवि दुनिया भर के आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे | दुनिया भर में ब्रिटिश कंपनियों का बोलबाला था | लेकिन 1945 के बाद से  विश्व अमेरिका प्रभावित होता चला गया | पौण्ड की जगह अमेरिकी डालर का डंका बजने लगा | ज्ञान – विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में वह  विश्व का नेता बन बैठा | तकनीक के विकास ने उसे मालामाल कर दिया | आज अमेरिका में बसने की वैसी ही लालसा दुनिया भर के लोगों में है जैसे कभी ब्रिटेन के प्रति थी | उपनिवेशवाद के कालखंड में ब्रिटेन शासित देशों से वहां आकर बसे लोग धीरे – धीरे वहां की सामाजिक , आर्थिक  और राजनीतिक व्यवस्था पर  हावी होते चले गए जिसका सबसे बड़ा उदाहरण  ऋषि सुनाक हैं जो पिछली सरकार में वित्त मंत्री रहने के बाद प्रधानमंत्री बनते – बनते रह गये | सबसे बड़ी बात  ये हुई कि ब्रिट्रेन में सत्ता को बदलने की कुंजी अब अंग्रेजों के हाथ से निकलकर उन लोगों के पास आ चुकी है जो उसके नागरिक तो हैं लेकिन उनका मूल देश कोई और ही है | ब्रिटेन में जॉनसन सरकार का गिरना और महारानी एलिजाबेथ का निधन एक युग की समाप्ति माना जा रहा था | लिज ट्रस के इस्तीफे से वह बात सही साबित हो रही है | आर्थिक संकट से जूझते इस देश में आयी राजनीतिक अस्थिरता निश्चित रूप से वैश्विक परिस्थित्तियों का परिणाम भी  है  लेकिन  बीते कुछ वर्षों में ब्रिटेन की चमक कम होती दिखने लगी है | कोरोना संकट के दौरान वहां की स्वास्थ्य सेवाएँ जिस तरह गड़बड़ाई वह उसकी कमजोरी का प्रमाण था | कोरोना काल के बाद भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था ने जहां तेजी से रफ्तार पकड़ी वहीं ब्रिटेन में स्थिति और बिगड़ गयी | ऐसी स्थिति में मजबूत राजनीतिक नेतृत्व  की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है | भारत उस दृष्टि से भाग्यशाली है जबकि ब्रिटेन आर्थिक बदहाली के साथ – साथ राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है | भारत के लिए ये चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि वहां बहुत बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग बसे हुए हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा और परिश्रम से महत्वपूर्ण स्थिति बना ली है | लेकिन ब्रिटेन की आर्थिक बदहाली और उस पर राजनीतिक अस्थिरता इसी तरह बढ़ती गई तब वहां 19 वीं और 20 वीं सदी  की नस्लीय सोच दोबारा उभर सकती है और ऐसा हुआ तब उसके सबसे बड़े शिकार निश्चित रूप से भारतीय ही होंगे | इस देश में इस्लामिक उग्रवाद के पांव जिस तरह से जमते जा रहे हैं वह भी बड़े खतरे का कारण बन सकता है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 20 October 2022

राहुल तो बड़ी बात हैं खड़गे जी अपने बारे में भी फैसला नहीं कर सकते



मल्लिकार्जुन खड़गे  का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना तो उनके नामांकन के दिन ही  तय हो चुका था | उनकी खासियत ये है कि उनके नाम के साथ गांधी उपनाम नहीं जुड़ा | इस चुनाव की जरूरत भी इसीलिये पड़ी क्योंकि कांग्रेस परिवारवाद के आरोप से अपना पिंड छुड़ाना चाहती थी | राहुल गांधी के इंकार के पीछे भी यही कारण बताया गया | चारों तरफ खड़गे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ  उनके दलित होने का भी प्रचार हो रहा है |  उनके चयन को इस प्रकार प्रचारित किया जा रहा है मानो कांग्रेस पार्टी अब गांधी परिवार के प्रभाव और दबाव से आजाद हो गई है | इस बारे में राहुल गांधी की यह प्रतिक्रिया भी आई कि अब मेरे बारे में भी श्री खड़गे ही फैसला करेंगे | सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा ने भी उनके निवास जाकर बधाई देते हुए ये दिखाने का प्रयास किया कि नए अध्यक्ष ही आगे से सर्वोच्च रहेंगे | लेकिन इस सबके बीच ये बात भी उठ रही है कि पार्टी  अध्यक्ष के लिए वे गांधी परिवार की पहली पसंद नहीं थे | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम पहले ही तय हो चुका था जिन्हें उसका बेहद भरोसेमंद माना जाता था | वे इस हेतु तैयार भी थे लेकिन एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत आड़े आ गया और उस पर भी उनका उत्तराधिकारी  चुनने के लिए पार्टी आलाकमान ने जो जल्दबाजी की उससे वे भड़क गए |  तदुपरांत  जो नाटक – नौटंकी हुई उसके बाद श्री गहलोत ने गांधी परिवार का भरोसा खो दिया | हालाँकि दबाव की राजनीति के परिणामस्वरूप वे अपना मुख्यमंत्री पद तो फ़िलहाल बचा ले गए परन्तु  राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का अवसर हाथ से निकल गया | यद्यपि ये सच है कि दोनों पदों पर रहने की छूट मिली होती तो वे चुनाव लड़ने हेतु सहर्ष तैयार हो जाते | बहरहाल उनके बागी सुर अलापने के बाद ही गांधी परिवार को श्री खड़गे में वह शख्स नजर आया जो उसके प्रति पूरी तरह श्रद्धावनत हो | इसके साथ ही परिवार को  जी  - 23 नामक असंतुष्टों का भी भय सता रहा था | अन्यथा शशि थरूर उस कसौटी पर ज्यादा खरे थे जो राहुल ने पार्टी की कमान संभालते समय तय की थी | जिस नये मतदाता को पार्टी से जोड़ने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है उसे श्री खड़गे की बजाय शशि ज्यादा बेहतर तरीके से आकर्षित कर सकते थे | लेकिन सच्चाई ये है कि गैर गांधी अध्यक्ष बनाने के बाद भी परिवार अपना वर्चस्व नहीं छोड़ना चाहता था  और श्री थरूर उसमें बाधक बन सकते थे | चुनाव के दौरान ही जमीनी  स्तर के कांग्रेस कार्यकर्ता को भी ये बात बिना संदेह के पता थी कि खड़गे जी ही गांधी परिवार द्वारा प्रायोजित उम्मीदवार थे | लिहाजा उन्हें भारी – भरकम बहुमत मिला | वहीं अनेक राज्यों में श्री थरूर से मिलने तक कांग्रेस जन नहीं आये | कल के बाद अब राजनीति के जानकार श्री खड़गे के सामने खड़ी चुनौतियों का ब्यौरा पेश करने लगे हैं | आगामी दो माह में हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं | इसके बाद अन्य राज्यों में भी चुनाव की तैयारियां होने लगी हैं | 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति भी बन रही है | राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के पीछे भी वही है | ऐसे में श्री खड़गे को आगे करने के बाद गांधी परिवार किस भूमिका में रहेगा इस पर उनकी सफलता निर्भर करेगी | सबसे बड़ी बात ये है कि उनकी आयु 80 वर्ष की है | उस दृष्टि से वे युवा मतदाताओं को कांग्रेस की ओर मोड़ सकेंगे ये कठिन है | भले ही राजनीति में वे लम्बी पारी खेलते आ रहे हों लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को जिस तरह का चेहरा चाहिए था उसका उनमें अभाव है | राहुल का ये कहना संगठन के लिहाज से तो उचित प्रतीत होता है कि अब उनके बारे में श्री खड़गे ही फैसला करेंगे परन्तु जगजाहिर है कि वे अपने बारे में भी फैसला लेने स्वतंत्र नहीं हैं और यही उनकी सबसे बड़ी काबलियत है | सही मायनों में कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष चहिये था जो सीधे जनता के दिलों में उतर सके | ये कहना गलत नहीं है कि गांधी परिवार का तिलिस्म अब ढलान पर है | सोनिया जी और प्रियंका की सभाएं कोई असर नहीं छोड़ पातीं | रही बात राहुल की तो वे भारत जोड़ो यात्रा से अपने आपको जन - नेता बनाने के लिए काफी मशक्कत कर रहे हैं | लेकिन यात्रा को गुजरात और हिमाचल से दूर रखकर उन्होंने अपना पराजयबोध व्यक्त कर दिया है | ऐसा लगता है वे पूरी तरह से आगामी लोकसभा  चुनाव पर ही ध्यान लगाये हैं जबकि उसके पहले आधा दर्जन राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे जिनका असर लोकसभा के महासमर पर पड़े बिना नहीं रहेगा | कांग्रेस के लिए शोचनीय बात ये है कि जब आलाकमान द्वारा पर्यवेक्षक बनाकर जयपुर भेजे गए श्री खड़गे राजस्थान का राजनीतिक संकट सुलझाये  बिना खाली हाथ लौट आये तब उनसे किस प्रकार के चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है | बतौर विधायक , सांसद और मंत्री उनका अनुभव बेशक काफी है लेकिन जनता को आकर्षित करने के लिए जिस राजनीतिक कौशल की जरूरत पार्टी  को है उसका उनमें नितान्त अभाव है | और इसीलिये उनके स्वतन्त्र होकर काम करने की सम्भावना न के बराबर है | वे स्वयं भी अनेक मर्तबा कह चुके हैं कि बगैर गांधी परिवार के कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती जो गलत भी नहीं है | लेकिन जब तक वे परिवार के आभामंडल से खुद बाहर नहीं आते तब तक उनसे प्रभावशाली प्रदर्शन की उम्मीद रखना बेकार है | कांग्रेस में 22 साल बाद अध्यक्ष का चुनाव लोकतान्त्रिक तरीके से होना निश्चित रूप से अच्छी बात है किन्तु जिस बदलाव के लिए ये उठापटक हुई वह न श्री गहलोत और दिग्विजय सिंह के बनने पर होता और न ही खड़गे जी के अध्यक्ष बनने पर होगा | 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 19 October 2022

हवाई यात्रा में बढ़ती असुरक्षा और असुविधा अच्छा संकेत नहीं



केदारनाथ में गत दिवस हुई हेलीकाप्टर दुर्घटना में पायलट सहित सात लोगों की मृत्यु हो गयी | कोहरे की वजह से हेलीकाप्टर के चट्टान से टकरा जाने को हादसे का कारण माना जा रहा है | खराब मौसम के कारण हुआ यह सातवाँ हादसा है | पर्वतीय  तीर्थस्थलों में हेलीकाप्टर सेवा काफी लोकप्रिय हो रही है | वैष्णों देवी और अमरनाथ में भी हजारों यात्री इसका उपयोग करते हैं | शारीरिक कष्ट के साथ ही इससे समय भी बचता  है | यात्री  चूंकि कुछ ही घंटों में लौट जाते हैं इसलिए वहां भीड़ भी कम होती है | साथ ही  यात्रा मार्ग में होने वाली गंदगी भी घटती है | जबसे उड्डयन क्षेत्र में नई विमानन कम्पनियाँ आई हैं तबसे निजी हेलीकाप्टरों की भी बाढ़  आ गयी हैं | चुनावों में राजनीतिक नेता धड़ल्ले से इनका उपयोग करते हैं | एयर एम्बुलेंस का व्यवसाय भी तेजी से पनप रहा है | जिस तरह अच्छी सड़कें देश के विकास का मापदंड हैं उसी तरह से उड्डयन सेवाओं में लगातर वृद्धि  भी समृद्धि का सूचक है | एक जमाना था जब घरेलू हवाई सेवा के लिए इन्डियन एयर लाइन्स ही एकमात्र विक्ल्प हुआ करता था | लेकिन पेशेवर रवैये के अभाव और सरकारी मुफ्तखोरी के चलते उसका भट्टा बैठता चला गया | उदारीकरण के बाद उड्डयन क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए भी खोल दिया गया | देखते - देखते अनेक निजी एयर लाइन्स इस व्यवसाय में कूद गई | हवाई अड्डों की रौनक बढ़ने लगी तो उनके विस्तार का काम  भी निजी क्षेत्र को दिया जाने लगा | इसमें दो राय  नहीं है कि बीते दो दशक में भारत में हवाई यात्रा करने वाले बहुत तेजी से बढ़े हैं और विमानों की सीटों पर मध्यमवर्गीय  यात्री भी नजर आने लगे हैं | ये स्थिति निश्चित रूप से उत्साहित करती है किन्तु दूसरी तरफ ये भी  सही है कि जिस उम्मीद से निजी क्षेत्र को उड्डयन व्यवसाय में हाथ आजमाने का अवसर दिया गया था वह पूरी नहीं हो पा रही | केदारनाथ में गत दिवस जो दुखद घटना हुई उसके बारे में ये तो बता दिया गया कि मौसम खराब था और कोहरे के कारण वह उड़न खटोला चट्टान से टकरा गया |  लेकिन जो जानकारी छन – छनकर आ रही है उसके अनुसार पर्वतीय तीर्थस्थलों में हेलीकाप्टर सेवा प्रदान करने वाली कम्पनियाँ नियमों के पालन में लापरवाह होने के साथ ही रखरखाव के बारे में बेहद लापरवाह हैं | उनके साथ ही हवाई यातायात को नियंत्रित करने वाले विभाग का गैर  जिम्मेदाराना रवैया भी ऐसे हादसों के लिए उत्तरदायी है जो कोहरे के बावजूद उड़ान की अनुमति दे देता है 
| पहाड़ी क्षेत्रों में वैसे भी  हेलीकाप्टरों को उड़ने के लिए ज्यादा जगह उपलब्ध नहीं होती | अनेक मर्तबा उन्हें नियन्त्रण कक्ष से मिलने वाले संकेत भी ठीक से नहीं मिल पाते | ये भी ज्ञात हुआ है कि गत दिवस जब उक्त दुर्घटना हुई उस समय कोहरे के बाद भी कुछ और हेलीकाप्टर उसी हवाई मार्ग पर उड़ रहे थे जिसकी वजह से पायलट के सामने मार्ग बदलने का विकल्प ही नहीं बचा | जाँच के बाद और भी बातें सामने आयेंगीं लेकिन हवाई यातायात में केवल दुर्घटना ही समीक्षा का विषय नहीं  अपितु विमानन कंपनियों की बढ़ती लापरवाही और ग्राहक सेवा की अनदेखी भी बड़ा मुद्दा बन गया है | मसलन घरेलू उड़ानों में समय से अपने गंतव्य तक पहुंचने की गारंटी करीब – करीब खत्म हो गई है | सुरक्षा जाँच आदि औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए यात्रियों को घन्टों पहले हवाई अड्डे पहुंचना होता है | महानगरों में दूरी और यातायात की समस्या का सामना भी उसे करना होता है | लेकिन घंटों पहले आने के बाद जब उसे ज्ञात होता है कि उड़ान विलम्ब से जायेगी तब उसे इस बात पर गुस्सा आता है कि  पहले से इसकी  सूचना क्यों नहीं दी गई ? और फिर उसके बाद जो होता है वह खून के आंसू रुलाने जैसा है | घंटे – दर घंटे बीतने के बाद भी उड़ान का पता नहीं चलता | सूचना क्रांति के इस दौर में भी जब हवाई यात्री को विमानन कम्पनी का स्टाफ ये नहीं बता पाता कि उड़ान कितने बजे जायेगी तब वह तिलमिलाकर रह जाता है | कम्पनी जानती है कि जाना यात्री की मजबूरी है क्योंकि  यदि वह टिकिट करवाता है तब उसे अगली टिकिट और ज्यादा दाम पर मिलेगी  | उड़ान विलम्बित होने पर कई कम्पनियाँ यात्रियों के लिए चाय - पानी की व्यवस्था तक करने से बचती हैं | सही बात ये है कि कम संख्या में विमान होने के बाद भी ज्यादा से ज्यादा शहरों तक सेवा शुरू किये जाने के कारण विमानों का रखरखाव भी अपेक्षित तरीके से नहीं हो पाता जिससे आये दिन उड़ानें रद्द होने की खबर आती हैं  | मध्यम श्रेणी के शहरों से विदेश जाने वाले वालों के लिए उस समय संकट उत्पन्न हो जाता है जब महानगर जाने वाली उनकी उड़ान ऐन समय पर रद्द हो जाती है | ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जबसे उड्डयन मंत्रालय संभाला है तबसे हवाई यातायात में वृद्धि के दावे हो रहे हैं | नई उड़ानों की बाढ़ सी आ गयी है | नए हवाई अड्डों के निर्माण और पुरानों के विस्तार का काम भी तेजी से चल रहा है | अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे वाकई वैश्विक स्तर का नजारा उत्पन्न करते हैं | लेकिन ये कहना लेशमात्र भी गलत नहीं  होगा कि केदारनाथ में घटित हादसे के अलावा विमानन कम्पनियों का लचर प्रदर्शन आगे पाट पीछे सपाट की स्थिति पेश कर रहा है | सरकार ने भले अपनी विमानन कम्पनी बेच दी हो लेकिन हवाई यात्रा  करने वाले यात्रियों की सुविधा और सुरक्षा के प्रति उसकी जिम्मेदारी खत्म नहीं हुई है | निजीकरण किसी भी सेवा में सुधार के लिए किया जाता है , लेकिन मौजूदा दौर में विमानन कम्पनियां इस अवधारणा को पलीता लगाने का काम कर रही हैं | अच्छे हवाई अड्डे के अलावा विमानों और हेलीकाप्टरों की बड़ी संख्या ही इस क्षेत्र में प्रगति का पैमाना नहीं है |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 18 October 2022

उपचुनाव : काश , ये परम्परा सभी राज्यों में लागू हो



लोकतंत्र संविधान अर्थात कानून से संचालित व्यवस्था है | लेकिन उससे भी ज्यादा उसमें स्वस्थ परम्पराओं का महत्व होता है इसीलिये विरोधी को शत्रु नहीं समझा जाता | और सहमत न होते हुए भी एक दूसरे के विचारों को सम्मान दिया जाता है | ब्रिटेन में परम्परा है कि हॉउस ऑफ कामन्स ( निम्न सदन ) का अध्यक्ष यदि दोबारा चुनाव लड़ना चाहे तो विपक्ष उसके विरुद्ध प्रत्याशी खड़ा नहीं करता जिससे वह निर्विरोध चुन जाता है | हमारे देश में जब मनोहर जोशी लोकसभा अध्यक्ष थे तब अगले चुनाव में उनके विरुद्ध उम्मीदवर न उतारने का आग्रह  सत्ता पक्ष ने किया लेकिन विपक्षी दल राजी नहीं हुए अन्यथा एक अच्छी परम्परा कायम हो सकती थी | इसी सिलसिले में एक खबर ने ध्यान खींचा | मुंबई की अंधेरी  विधानसभा सीट के शिवसेना विधायक रमेश लटके के निधन के बाद हो रहे उपचुनाव में उद्धव ठाकरे गुट ने उनकी पत्नी को मैदान में उतारा | उनके विरुद्ध भाजपा ने मुरजी पटेल को प्रत्याशी बनाया जिन्होंने जबरदस्त शक्ति प्रदर्शन के बाद अपना नामांकन दाखिल कर दिया | राज्य में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद हो रहे इस उपचुनाव के जरिये भाजपा और शिवसेना ( उद्धव ठाकरे गुट )  के बीच जोरदार मुकाबला होने की उम्मीद की जा रही थी | भाजपा को चूंकि शिवसेना के शिंदे गुट का साथ मिला हुआ है इसलिए वह अपनी जीत को तय मानकर चल रही थी | लेकिन अचानक उसके प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले ने उपचुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी जिसके बाद श्री पटेल को अपना नामांकन वापिस लेना पड़ा | इस चौंकाने वाले फैसले का  कारण  महाराष्ट्र के राजनीतिक दलों  के बीच चली आ रही वह सहमति है जिसके अनुसार किसी सांसद या विधायक की मृत्यु के उपरांत होने वाले उपचुनाव में उसके परिजन के चुनाव लड़ने पर बाकी दल अपना उम्मीदवार नहीं उतारते | अंधेरी उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी के नामांकन के बाद राकांपा नेता शरद पवार और मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने भाजपा को उस परम्परा की याद दिलवाते हुए अपना  उम्मीदवार न खड़ा करने की अपील की | जिसके बाद उसने अपना प्रत्याशी मैदान से हटा लिया | लेकिन महाराष्ट्र की ये परम्परा अब तक बड़ी खबर क्यों नहीं बन सकी ये सवाल है | यदि इसे देशव्यापी स्वीकृति मिल जाए तब राजनीति में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के साथ सौजन्यता और संवेदनशीलता को बढ़ावा मिलेगा  | हालाँकि इसको संशोधित करते हुए परिवार के सदस्य की बजाय पार्टी का प्रावधान रहे तब वह सैद्धांतिक तौर पर बेहतर रहेगा क्योंकि दिवंगत जन प्रतिनिधि परिवार नहीं अपितु पार्टी के नाम पर जीता था | इस बारे में उल्लेखनीय है कि किसी सांसद या विधायक की मृत्यु होने से उपचुनाव की स्थिति बनने पर राजनीतिक दल सहानुभूति का लाभ लेने हेतु दिवंगत के परिवार जन को उम्मीदवार बना देते हैं | और परिजन भी इसे  अपना अधिकार समझकर टिकिट नहीं मिलने पर निर्दलीय या किसी अन्य दल में जाकर चुनाव लड़ लेते हैं | महाराष्ट्र की  संदर्भित परम्परा इस लिहाज से वाकई अच्छी है क्योंकि इससे व्यर्थ की राजनीतिक कटुता नहीं होने पाती | अच्छा होगा जिस पार्टी ने वह सीट जीती उसको ही उपचुनाव में अवसर दिया जावे चाहे उसका उम्मीदवार मृतक का परिजन हो या कोई और | यदि सारे राजनीतिक दल मिलकर ये प्रथा पूरे देश में लागू करें तो उपचुनाव पर होने वाला खर्च बचने के साथ ही राजनीतिक वैमनस्य ज्यादा न सही  कुछ तो कम होगा ही | देखने वाली बात ये है कि जब किसी जनप्रतिनिधि की मौत होती है तब घोर विरोधी तक उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं |  हाल ही में सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव नहीं रहे तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात की आम सभा में सात मिनिट तक उनकी तारीफ़ की | उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह उनकी अंतिम यात्रा में शरीक हुए | लेकिन इसी के साथ ही ये खबरें भी आने लगीं कि उनके निधन से रिक्त मैनपुरी लोकसभा सीट के उपचुनाव हेतु भाजपा ने अपनी रणनीति बनाना शुरू कर दिया है | राजनीति में संवेदनहीनता किस हद तक हावी हो गई है उसका उदाहरण स्व. यादव के अनुज शिवपाल द्वारा पत्रकारों से की गई राजनीतिक बातचीत थी जबकि उस समय तक परिवार का वातावरण पूरी तरह से शोकग्रस्त था | मैनपुरी सीट पर उपचुनाव में निश्चित रूप से सपा यादव परिवार के किसी सदस्य को उतार सकती है | हो सकता है अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल को अवसर दिया जाए | ज्यादातर सम्भावना इस बात की है कि कांग्रेस इस उपचुनाव से दूर रहेगी | बसपा हालाँकि आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव में सपा की  हार का कारण बनी किन्तु वह भी शायद ही मैनपुरी की जंग में उतरे | ऐसे में केवल भाजपा ही बच रहती है | बेहतर हो वह ये ऐलान करे कि यदि स्व. यादव के परिवार से कोई प्रत्याशी नहीं हुआ तब वह इस उपचुनाव से दूर रहेगी | ऐसे में अखिलेश पर भी ये दबाव बनेगा कि वे परिवार से बाहर किसी कार्यकर्ता को अवसर दें | उल्लेखनीय है आजमगढ़ उपचुनाव में ऐन वक्त पर पार्टी के उम्मीदवार की जगह अपने  चचेरे भाई को उतारने का उनका फैसला ही सपा की हार का कारण बन गया था | लेकिन अखिलेश से ऐसी मांग करने के पहले  भाजपा को भी ये फैसला करना होगा कि वह भी इस तरह के उपचुनावों में परिवार के बजाय पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता को महत्व देगी | हालाँकि इस शैली का आदर्शवाद अब भारतीय राजनीति में सपने देखने जैसा हो गया है | लेकिन लोकतंत्र की ख़ूबसूरती इसी में है कि वह तनाव रहित माहौल को जीवंत रखे | मुम्बई की अँधेरी सीट के उपचुनाव में उद्धव ठाकरे से जबरदस्त कटुता के बाद भी शरद पवार और राज ठाकरे  के अनुरोध के बाद भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार वापिस लेने का निर्णय निश्चित तौर पर अच्छा संकेत है | काश , ये परिपाटी अन्य राज्यों में कायम हो सके तो लोकतंत्र के प्रति लोगों में बढ़ती जा रही वितृष्णा को रोका जा सकता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

 

Monday 17 October 2022

तो भारत भी इजरायल की तरह विश्व शक्ति बन जाएगा



इसे सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि कांग्रेस में रहकर भी पं. नेहरु के सामने हिन्दी  को राजभाषा का दर्जा दिलवाने के लिए संसद और बाहर आवाज उठाने वाले म.प्र के स्वाधीनता  संग्राम सेनानी स्व. सेठ गोविन्द दास की 127 वीं जयन्ती पर प्रदेश में हिन्दी भाषा में चिकित्सा ( मेडिकल ) शिक्षा के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम के  तीन विषयों की पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद का विमोचन हुआ | केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आतिथ्य में आयोजित भव्य समारोह में विमोचित इन पुस्तकों को लगभग चिकित्सकों के जिस दल ने तैयार किया वह विशेष तौर पर प्रशंसा  और अभिनंदन का पात्र है क्योंकि बीते 75 वर्ष में तकनीकी विषयों की शिक्षा यदि हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओँ में शुरू नहीं हो सकी तो उसका सबसे प्रमुख कारण पुस्तकों का अनुवाद न हो पाना ही रहा | ऐसा ही पहले न्यायपालिका में भी था किन्तु  सर्वोच्च न्यायालय के अलावा अब देश के ज्यादातर न्यायालयों में क्षेत्रीय भाषा में काम होने लगा है | लेकिन इंजीनियरिंग और मेडीकल की  शिक्षा पर पूरी तरह से अंग्रेजी का प्रभुत्व बना रहा | नई शिक्षा नीति इस बारे में काफी प्रेरणादायी है क्योंकि उसमें मातृभाषा में शिक्षा को  बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है | श्री शाह के हालिया बयानों का हालाँकि तमिलनाडु में विरोध हुआ लेकिन वहां के नेता भी इस बात से इंकार नहीं कर सकेंगे कि तकनीकी विषयों की शिक्षा तमिल भाषा में दिए जाने से बड़ी सख्या में ऐसे छात्र भी इंजीनियर – डाक्टर बन सकेंगे जो योग्य होने के बावजूद अंग्रेजी में कमजोर होने से इसकी पढ़ाई नहीं कर पाते | म.प्र की  शिवराज सरकार इस बात के लिए बधाई की हकदार है जिसने अंग्रेजी  माध्य्म रूपी बाधा दूर कर छिपी हुई प्रतिभाओं को उभारने की पहल की |  ये बात बिल्कुल सही है कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के बाद भी देश अंग्रेजी की गुलामी से आजाद नहीं हो सका | 14 अगस्त की मध्य रात्रि में संसद के केन्द्रीय कक्ष में पं. नेहरु ने अंग्रेजी में भाषण देकर उसको एक तरह से स्वीकृति दे दी | आजाद भारत में महात्मा गांधी के बाद नेहरु जी ही सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मानित नेता थे | यदि वे गांधी जी की तरह हिन्दी को प्राथमिकता दे देते तो देश को अंग्रेजी माध्यम में उच्च और तकनीकी  विषयों की शिक्षा की मजबूरी न झेलनी पड़ती | खैर , जब जागे तब सवेरा की तर्ज पर म.प्र सरकार ने जो कदम उठाया उसकी देखा – सीखी अगर उ.प्र , बिहार , दिल्ली , हरियाणा , झारखण्ड , हिमाचल , छत्तीसगढ़ , गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ें तो आगामी कुछ सालों के भीतर बड़ा सुधार होने की सम्भावना प्रबल हो जायेगी | देश की बड़ी आबादी इन्हीं प्रदेशों में रहती हैं | सबसे प्रमुख बात ये है कि इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने की बजाय नई पीढ़ी की प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का अवसर देने की कोशिश के तौर पर देखा जाना  चाहिए | म.प्र के मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले चिकित्सकों से अनुरोध किया था कि वे अपने पर्चे पर हिन्दी का उपयोग करें | गत दिवस इस दिशा में अनेक चिकित्सकों ने जो पहल की उसका स्वागत होना चाहिए | यद्यपि सभी दवाओं का नाम हिन्दी में लिखने में कुछ समय लगेगा लेकिन यह इतना कठिन भी नहीं है जिसे न किया सके | बेहतर होगा  कि इसे  अंग्रेजी या उस माध्यम में दी जाने वाले शिक्षा का विरोध न समझा जावे | अंग्रेजी बेशक एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है | अमेरिका , ब्रिटेन , कैनेडा और ऑस्ट्रेलिया आदि में  उच्च शिक्षा हेतु जाने वाले विद्यार्थियों को इसकी अनिवार्यता महसूस होती है | जबकि जापान , फ़्रांस , जर्मनी में इससे काम नहीं चलता | दरअसल  अंग्रेजी माध्यम को लेकर एक हीन भावना अनावाश्यक रूप से हमारी मानसिकता पर लाद दी गई है | परिणामस्वरूप हिन्दी भाषी राज्यों में भी ऐसे – ऐसे विद्यालय खुल गए जिनसे पढ़कर निकले विद्यार्थी न अच्छी हिन्दी जानते हैं और न ही अंग्रेजी | इस अधकचरेपन का सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि छात्रों का बड़ा वर्ग  प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में पिछड़ गया | हालाँकि संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में हिन्दी माध्यम को अनुमति दे दी गयी है जिसका अनुकूल असर हुआ है | इस समय प्रशासनिक सेवाओं के जो कोचिंग संस्थान देश के अनेक शहरों में चल रहे हैं उनमें से कुछ हिन्दी माध्यम में ही प्रशिक्षण देते  हैं और उनके  छात्र सफलता भी प्राप्त कर रहे हैं जिससे हिन्दी माध्यम में शिक्षित युवाओं का मनोबल भी बढ़ा है | देखने वाली बात ये है कि मेडीकल और इंजीनियरिंग की कक्षा  में भले ही शिक्षक कुछ हद तक हिन्दी का उपयोग करते हों लेकिन उनकी पुस्तकें चूंकि अंग्रेजी में ही हैं इसलिए छात्रों को परेशानी होती है | इस बारे में ये भी विचारणीय है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त जो विद्यार्थी इन विषयों  की पढाई करने आते है उनके लिए अंग्रेजी माध्यम और पुस्तकें बड़ी समस्या बन जाती हैं | जैसे - तैसे वे डिग्री हासिल कर लें तो भी जीवन में आगे बढ़ने के लिए उनमें पर्याप्त आत्मविश्वास का अभाव  बना रहता है | इसलिए म.प्र सरकार द्वारा की गयी शुरुआत एक बीज के अंकुरित होने जैसा है जिसे बड़ा होने में समय लगेगा | इस बारे में ये बात ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी बड़ी यात्रा का शुभारम्भ छोटे से कदम से ही होता है | इसी तरह  विशालकाय वट वृक्ष की यात्रा भी नन्हें पौधे से ही आगे बढ़ती है | मेडिकल शिक्षा के प्रथम वर्ष की तीन पुस्तकों का हिदी अनुवाद ऐसा ही कदम है  | अनुवाद में सक्षम अनुभवी लोगों से भी अपेक्षा है कि इस दिशा में आगे आकर सहयोग दें | यदि आने वाले एक दशक के भीतर हम इस लक्ष्य तक पहुँच सके तो मानकर चलिए भारत भी इजरायल की तरह एक विश्व शक्ति बन जाएगा , जिसने सैकड़ों सालों की खानाबदोशी के बाद अपनी भाषा में ही ज्ञान – और विज्ञान की शिक्षा का प्रबंध कर लिया |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 15 October 2022

तकनीकी कारण से छूटे साईंबाबा : अभियोजन पक्ष की अक्षमता उजागर



बाम्बे उच्च न्यायालय की  नागपुर पीठ ने गत दिवस एक महत्वपूर्ण फैसले में दिल्ली विवि के पूर्व प्रोफेसर जी. एन. साईंबाबा और उनके साथ पांच अन्य लोगों को निचली अदालत द्वारा दी गई आजन्म कारावास की सजा को रद्द कर दिया |  9 मई 2014 को उन सबको प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( माओवादी ) से सम्बन्ध रखने के आरोप में पकड़ा गया था | महाराष्ट्र का गढ़चिरौली क्षेत्र नक्सल प्रभावित रहा है | वर्ष 2013 में पुलिस को प्रतिबंधित भाकपा ( माओवादी ) से जुड़े लोगों की सूची प्राप्त हुई जिसके बाद उक्त सभी को गैर कानूनी गतिविधि  रोकथाम ( यूएपीए ) के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया | मार्च 2017 में गढ़चिरौली की सत्र अदालत ने प्रोफेसर साईंबाबा और अन्य पांच को आजीवन कारावास का दंड दिया | उसके विरुद्ध अपील पर गत दिवस नागपुर पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि सरकार को आतंकवाद के विरुद्ध दृढसंकल्प के साथ युद्ध करना चाहिए किन्तु कानून में निर्धारित प्रक्रिया का पालन भी जरूरी है | उच्च न्यायालय ने उक्त आरोपियों की सजा रद्द करने का जो कारण अपने फैसले में बताया वह अभियोजन पक्ष की  अक्षमता और लापरवाही का एक और नमूना है  | दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने निचली अदालत के फैसले को ये कहते  हुए रद्द कर  दिया कि उक्त आरोपियों पर मुकदमा चलाने  के लिए यूएपीए कानून की धारा 45 (1) के तहत जरूरी अनुमति नहीं  ली गई थी | इस प्रावधान के अनुसार यह अनिवार्यता है कि अभियोजन की मंजूरी अधिनयम के तहत नियुक्त स्वतंत्र प्रधिकारी की रिपोर्ट के बाद ही दी जा सकेगी जो जाँच के दौरान पाए गए सबूतों की  स्वतंत्र समीक्षा करने में भी सक्षम है |  खंडपीठ ने ये माना कि उक्त प्रक्रिया का समुचित पालन नहीं किए जाने से अभियोजन की समूची कार्रवाई चूंकि नियम विरुद्ध थी , अतः निचली  अदालत द्वारा प्रोफेसर साईबाबा और अन्य पांचो आरोपियों को दी गयी सजा रद्द करने योग्य है और किसी अन्य प्रकरण में वे आरोपी न हों तो उन्हें तत्काल रिहा किया जावे | एनआईए और महाराष्ट्र सरकार द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में याचिका पेश कर दी गई जिस पर आज सुनवाई होनी है |  गत दिवस ज्योंहीं नागपुर पीठ का फैसला आया त्योंही वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग मुखर होने लगे | उनका कहना था कि प्रोफेसर साईबाबा को जबरन फंसाया गया | उनकी पत्नी ने न्यायपालिका का आभार  भी जताया | निश्चित तौर पर किसी निरपराध व्यक्ति को चाहे वह किसी बड़े ओहदे पर हो या सामान्य हैसियत रखता हो , गलत तरीके से आजीवन कारावास जैसा कठोर दंड मिलना किसी भी सभ्य  समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता | वामपंथी विचारधारा से प्रेरित हर व्यक्ति देश विरोधी हो ये भी जरूरी नहीं है | लेकिन  नक्सली गतिविधियों से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तरीके से सम्बद्ध लोगों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए | ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि माओवादी या नक्सलवादी केवल जंगलों में नहीं रहते बल्कि उनकी मदद करने वाला वर्ग शहरों में रहकर काम करता है | इन्हीं  के बारे में शहरी नक्सली विशेषण उपयोग में आता है | प्रोफ़ेसर साईबाबा और उनके साथ पकड़े गए लोग माओवादियों से किस हद तक जुड़े थे ये सर्वोच्च न्यायालय ही तय करेगा लेकिन उच्च न्यायालय ने जिस आधार पर निचली अदालत द्वारा उन आरोपियों को दी गयी सजा रद्द की है उसके बाद अभियोजन पक्ष जरूर कटघरे में खड़ा हो गया है | बीते अनेक सालोँ में सैकड़ों ऐसे लोगों को संदिग्ध मानकर पकड़ा गया जो किसी सम्मानित पद पर कार्यरत थे | जाँच  एजेंसियों ने उनके विरूद्ध प्रकरण दर्ज किये लेकिन दंड पाने वालों की कम  संख्या अभियोजन पक्ष की लचर कार्यप्रणाली और अक्षमता को  उजागर करने के लिये पर्याप्त है | इसी वजह से गंभीर अपराधों के आरोप में पकड़े गए लोग तकनीकी आधार पर छूट जाते हैं | प्रोफेसर साईबाबा के मामले में भी उच्च न्यायालय ने उन पर मुकदमा चलाये जाने के पहले पूरी की जाने वाली कार्रवाई का पालन न करने के लिए अभियोजन पक्ष को फटकारते हुए सभी को छोड़ने के आदेश दे दिए | सर्वोच्च न्यायालय ने यदि  उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी तो हो सकता है अभियोजन पक्ष अपनी गलती सुधारकर नए सिरे से मुकदमा चलाये और सभी आरोपी दोबारा पकड लिए जाएं | लेकिन स्थगन न मिला तब जरूर जाँच एजेंसियों को आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा | वैसे चाहे सीबीआई और  ईडी हो या आतंकवाद विरोधी अन्य जाँच एजेंसियां , उन सबकी सुस्त कार्यप्रणाली और सफलता का बेहद कम प्रतिशत गंभीरता के साथ विचारणीय एवं समीक्षा योग्य है | राजनीतिक दबाव के कारण भी जाँच प्रक्रिया प्रभावित होती है | इसका उदाहरण अतीत में सीबीआई द्वारा अनेक नेताओं पर चल रहे भ्रष्टाचार के मुकदमे ठन्डे बस्ते में डालने से मिला जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद फिर से खोला गया | मौजूदा केंद्र सरकार पर भी ये आरोप आये दिन लगा करता है कि वह अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए जाँच एजेंसियों का बेजा उपयोग कर रही है | प्रोफेसर साईनाथ के मामले में उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के फैसले में जो कारण उल्लिखित हैं वे जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली में आमूल सुधार की ओर ध्यान  दिलाते हैं | उक्त सभी आरोपियों पर लगे आरोप बेहद गंभीर किस्म के होने के बावजूद वे जिस आसानी से बरी कर दिए गए उसकी वजह से देश के विरुद्ध षडयंत्र में रत ताकतों का मनोबल ऊंचा होता है | कभी – कभी  लगता है जाँच एजेंसियों पर काम का बोझ उनकी क्षमता से ज्यादा होने से अभियोजन प्रक्रिया में गंभीर चूक होती है जो किसी भी स्तर पर क्षम्य नहीं हो सकती | प्रोफ़ेसर साईबाबा की सजा जारी रहेगी या वे मुक्त हो जायेंगे ये कहना मुश्किल है लेकिन जाँच एजेंसियों के साथ अभियोजन के काम में लगे सरकारी अमले द्वारा की गई गलती के लिए उनको दण्डित किया जाना जरूरी है | अन्यथा  इस तरह की गलतियाँ आगे भी होती रहेंगी जिनसे जाँच और कानूनी प्रक्रिया हंसी का पात्र बनकर रह जाती  है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 14 October 2022

हिजाब का मुद्दा धर्म नहीं संस्थान के अनुशासन से जुड़ा हुआ है



बड़ी ही रोचक स्थिति है | कट्टर इस्लामिक शासन वाले ईरान में  महिलाएं  हिजाब के विरोध में आन्दोलन कर रही हैं | पुलिस की बर्बरता और सरकार की निर्ममता भी उन्हें रोक नहीं पा रही | जानकार तो यहाँ तक कह रहे हैं कि उनके अभियान की परिणिति ईरान में सत्ता परिवर्तन के तौर पर भी हो सकती है | यदि ऐसा हो सका तो उसकी हवा से अन्य इस्लामिक देश भी प्रभावित हो सकते हैं | लेकिन  भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में हिजाब के पक्ष में इस्लामिक संगठन राजनीतिक और कानूनी दोनों मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे हैं | कर्नाटक के एक निजी  शिक्षण  संस्थान में अचानक जब कुछ मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनकर आने लगीं तब प्रबंधन ने उसे गणवेश का उल्लंघन मानते  हुए प्रतिबंधित कर दिया | उस पर राजनीतिक और साम्प्रदायिक बवाल मचा | सरकार ने हिजाब पर रोक लगाई तो विवाद उच्च न्यायालय में गया जिसने हिजाब को इस्लाम में अनिवार्य बताये जाने के दावे को गलत ठहराते हुए प्रतिबन्ध को जायज बता दिया | उसके बाद प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में आया | लेकिन गत दिवस उसकी खंडपीठ के दोनों न्यायाधीशों ने परस्पर विपरीत फैसले सुनाकर मामले को और उलझा दिया | अब प्रधान न्यायाधीश द्वारा गठित की जाने वाली बड़ी पीठ   में चूंकि तीन या पांच न्यायाधीश होंगे इसलिए बहुमत के आधार पर अंतिम फैसले तक पहुंचा जा सकता है | बहरहाल तब तक कर्नाटक में हिजाब पर रोक जारी रहेगी और ये विवाद राजनीतिक लोगों  के लिए वोटों की फसल काटने का औजार बना रहेगा | कर्नाटक में अगले साल विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं | हालाँकि हिजाब के मुद्दे से पूरे देश का  मुस्लिम समुदाय जुड़ गया है जिसे ये लगता है कि धीरे – धीरे उसकी परम्पराओं और रीति – रिवाजों को खत्म किया जा रहा है | हालाँकि उसी के बीच से ये आवाजें भी सुनाई दीं हैं कि हिजाब सहित अनेक रस्मो – रिवाज का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है | लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम ऐसे मुद्दों पर मुल्ला -मौलवियों की  बातों का आँख  मूंदकर अनुसरण करते हैं | अन्य धर्मों में भी धार्मिक कट्टरता का पालन करने वाले कम नहीं हैं लेकिन मुस्लिम  धार्मिक मसलों पर किसी भी प्रकार के सुधार या संशोधन को सहज रूप से स्वीकार नहीं करते | हिजाब का मामला भी ऐसा ही है | ये बात भी सही है कि कर्नाटक के एक  संस्थान की छात्राओं द्वारा अचानक हिजाब का इस्तेमाल किये जाने के पीछे पीएफआई नामक इस्लामिक संगठन  की भूमिका थी जिसे केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में प्रतिबंधित कर दिया गया | अन्यथा देश के हजारों संस्थान ऐसे हैं जहां पढ़ रही मुस्लिम लड़कियां हिजाब का उपयोग नहीं करतीं | नौकरपेशा  मुस्लिम महिलाएं भी अपवादस्वरूप ही हिजाब में नजर आती होंगी | ऐसे में उसके उपयोग को इस्लामिक अनिवार्यता कहना भ्रामक  है | सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के एकमत न होने के बाद अब इस मामले पर बौद्धिक बहस भी चलेगी | न्यायाधीश सुधांशु धूलिया ने उच्च न्यायालय के फैसले को गलत  बताते हुए  चिंता जताई कि उसके कारण अनेक मुस्लिम छात्रों ने पढाई छोड़ दी | वहीं दूसरे  न्यायाधीश हेमंत गुप्ता के अनुसार एक समुदाय को धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल की अनुमति देना धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध होगा | बहरहाल इस मामले में मुस्लिम महिलाओं का अभिमत चूंकि खुलकर सामने नहीं आ पा रहा इसलिए ये कह पाना कठिन है कि वे हिजाब को इस्लामिक परम्परा मानने की पक्षधर हैं या नहीं ? सबसे बड़ी बात ये है कि भारत के  प्रगतिशील मुस्लिम तबके ने भी अब तक ईरान की महिलाओं के समर्थन में एक बयान तक जारी नहीं किया | और यही भारत के मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है | राजनीतिक और धार्मिक दोनों मोर्चों पर उनकी रहनुमाई करने वाले खुद तो आधुनिक परिवेश में रहते हैं | उनके बच्चे भी देश - विदेश के अच्छे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा हासिल करने के बाद अपना भविष्य सुरक्षित करने में सफल हो जाते हैं | लेकिन मध्यम और निम्नवर्गीय तबका  मुल्ला – मौलवी के फेर में फंसा हुआ  है | दुर्भाग्य से मुस्लिम राजनेता  भी अपने समाज को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से आगे बढ़ाने के बजाय उन्हें मजहब की बेड़ियों में जकड़कर रखने में लगे हुए हैं | हिजाब को लेकर मुस्लिम लड़कियां क्या सोचती हैं ये जानने का प्रयास किसी भी महिला संगठन ने नहीं किया | ऐसे में धार्मिक नेताओं या अदालत का कोई भी फैसला उनके साथ न्याय होगा ये कहना कठिन है | जो लोग हिजाब की वकालत कर रहे हैं वे उसका इस्तेमाल नहीं करने वाली मुस्लिम लड़कियों के बारे में क्या सोचते हैं ये भी स्पष्ट किया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी मुस्लिम धर्मगुरु ने इस पर  कुछ भी नहीं कहा | लेकिन संदर्भित मामला धार्मिक के साथ ही किसी संस्थान के अनुशासन का भी है | मसलन किसी विद्यालय में यदि किसी परिधान  या अन्य वस्तु के उपयोग पर रोक है तब वहां के विद्यार्थी को उसका पालन जरूरी होना चाहिए , वरना अनुशासन की धज्जियां उड़ जायेंगीं | ये उसी तरह है कि गुरुद्वारे अथवा दरगाह पर जाने वाले को सिर पर टोपी और पगड़ी न हो तो रुमाल ही रखना पड़ता है | जिसे ऐसा करने पर ऐतराज हो वह वहां न जाए | लेकिन उस परिसर का जो अनुशासन है उसका पालन उसे करना ही पड़ता है | इसी तरह अनेक मंदिरों में परिधान संबंधी निर्देशों का पालन अनिवार्य है | इस प्रकार कर्नाटक से शुरू हुए विवाद की जड़ में शिक्षण संस्थान का अनुशासन ही था जिसे तूल देकर स्थानीय मुस्लिमों ने व्यर्थ का विवाद पैदा कर दिया | उन्हें ये देखना और सोचना चाहिए था कि जिन छात्राओं ने हिजाब पहनने की जिद पकड़ी वे अब तक उससे परहेज क्यों करती रहीं ? उल्लेखनीय है इस बवाल के रचनाकर पीएफ़आई पर प्रतिबंध लगाये जाने का ज्यादातर मुस्लिम धर्मगुरुओं और संस्थाओं ने स्वागत किया था | अब चूंकि प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के समक्ष विचारार्थ भेजा जाना है इसलिए जल्द फैसले की उम्मीद करना बेकार है |  लेकिन इस समय का उपयोग यदि मुस्लिम समाज के भीतर महिलाओं के मनोभाव जानने के लिए किया जावे तो बड़े सामाजिक सुधार की नींव रखी जा सकती है | ईरान में जो कुछ हो रहा है उसके बारे में मुस्लिम बुद्धिजीवियों , धर्मगुरुओं और राजनेताओं की चुप्पी उनके अपराधबोध का ही प्रमाण है | उनके मन में ये डर भी बैठ गया है कि भारत में भी मुस्लिम महिलायें ईरानी बहनों से प्रेरित होने लगीं तो उनका रुतबा खत्म होते देर नहीं लगेगी |

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 13 October 2022

बकरीद में बचे तो .... खड़गे को किससे खतरा



 2014 के लोकसभा चुनाव में 15 लाख रूपये वाली बात का स्पष्टीकरण देते हुए भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने कह दिया वह तो एक जुमला था | फिर क्या था विपक्ष उनके पीछे पड़ गया और मोदी सरकार को जुमला सरकार कहकर मजाक उड़ाया जाने लगा | राजनेताओं के मुंह से निकली अनेक बातें लम्बे समय तक उनका पीछा नहीं छोड़तीं | सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद तो पलक झपकते कोई भी बात दूर - दूर तक फ़ैल जाती है | नेताओं के साथ ये मुसीबत भी है कि वे जहाँ जाते हैं पत्रकार उनसे सवाल पूछने लगते हैं | ऐसा ही गत दिवस भोपाल में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ हुआ | चुनाव प्रचार हेतु कांग्रेस कार्यालय में प्रवास के दौरान पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि क्या अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी या वे प्रधानमंत्री पद हेतु कांग्रेस का चेहरा होंगे तो श्री खड़गे  ने उत्तर दिया कि बकरीद में बचेंगे तभी तो मोहर्रम में नाचेंगे | हालांकि ये कहावत बहुत प्रचलित नहीं है किन्तु इसके माध्यम से उस बकरे की पीड़ा व्यक्त की गई है जिसे बकरीद पर काटा जाने वाला हो | लेकिन उन्होंने इसका उपयोग जिस सन्दर्भ में किया उसका आश्य स्पष्ट न होने से उक्त टिप्पणी उनके लिए मुसीबत का सबब बन गई | सबसे पहले तो इस बात पर उनकी आलोचना शुरू हुई कि मुस्लिम समुदाय जिस मोहर्रम में मातम मनाता है उसमें श्री खड़गे नाचने की बात कह रहे हैं वहीं  कुछ आलोचकों का कहना है कि उन्होंने मुस्लिम धर्मावलम्बियों की भावनाओं का अपमान किया है | बवाल मचने के बाद हो सकता है वे किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो खेद है , कहकर पिंड छुड़ा लें और साथ में खुद के गैर हिन्दी भाषी होने का रक्षा कवच धारण करें किन्तु उनकी टिप्पणी के राजनीतिक निहितार्थ निकाला जाना स्वाभाविक है | इस बारे में उल्लेखनीय है कि भले ही राहुल गांधी सफाई ने ये सफाई दी हो कि कांग्रेस का अगला अध्यक्ष लोकतान्त्रिक तरीके से चुना जायेगा और वह रिमोट कंट्रोल से नहीं चलेगा किन्तु कांग्रेसजन ही नहीं वरन राजनीति में जरा सी भी रूचि रखने वाला जानता है कि श्री खड़गे  गांधी परिवार के प्रायोजित प्रत्याशी हैं | और इसीलिये वे जहां भी जा रहे हैं उनको जबरदस्त समर्थन और स्वागत हासिल हो रहा है | जबकि उनके प्रतिद्वंदी शशि थरूर द्वारा बौद्धिकता पर ज्यादा जोर दिए जाने से  उनके तर्क और तथ्य अनसुने किये जा रहे हैं | यहाँ तक कि जी – 23 में उनके साथ शामिल असंतुष्ट कहे जा रहे नेता भी उनके साथ खुलकर आने में संकोच कर रहे हैं | स्मरणीय है कि अशोक गहलोत द्वारा गांधी परिवार की इच्छानुसार कांग्रेस अध्यक्ष बनने से बचने की बजाय रायता फैला दिए जाने के बाद दिग्विजय सिंह  भारत जोड़ो यात्रा छोड़कर अध्यक्ष का नामांकन भरने दिल्ली आये और उनके बुलावे पर म.प्र से उनके समर्थक दिल्ली में जमा भी हो गए थे | लेकिन रातों - रात बाजी पलट गयी | राजस्थान के राजनीतिक घटनाक्रम ने कांग्रेस आलाकमान को  जिस तरह चौंकाया उसके बाद अचानक से श्री सिंह को खिसकाकर श्री खड़गे  की ताजपोशी का इंतजाम किया गया | जिस नाटकीय ढंग से वह सब हुआ  उससे ये चर्चा भी चली कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी के प्रत्याशी को बदल दिया | ऐसा ही राजस्थान के बारे में भी सुनने मिला कि राहुल और प्रियंका वाड्रा की इच्छा के बावजूद श्रीमती गांधी ने सचिन पायलट को गद्दी पर बिठाने की बजाय श्री  गहलोत को खुल्ल्मखुल्ला बगावत के बावजूद अभय दान दे दिया | वास्तविकता जो भी हो लेकिन एक तरफ श्री गांधी का ये कहना कि अगला अध्यक्ष रिमोट से नहीं चलेगा किन्तु दूसरी तरफ श्री खड़गे  द्वारा बकरीद में बचे तो जैसी बात कहकर ये संकेत दे दिया कि उनके भविष्य पर भी आशंकाओं के बादल मंडरा रहे हैं | अर्थात अध्यक्ष चुने जाने के बावजूद उनकी गद्दी सुरक्षित रहेगी ये पक्का नहीं है | यद्यपि वे गांधी परिवार के प्रति वे अपनी असंदिघ्ध निष्ठा का प्रदर्शन करते नहीं थक रहे | उनके विरुद्ध लड़ रहे श्री थरूर जानते हैं कि उनका विरोध केवल सांकेतिक रह गया है | श्री खड़गे के साथ पर्याप्त बहुमत होने की बात स्वीकार करने के बाद भी वे अपनी प्रचार सामग्री हर मतदाता तक पहुँचाने में लगे हैं और पत्रकार वार्ता में उन सभी मुद्दों को विस्तार से रख रहे हैं जिन्हें जी  23 गुट के नेताओं द्वारा बीते दो सालों से उठाया जाता रहा है | सही बात ये है कि उसी के कारण कांग्रेस में अध्यक्ष का चुनाव करवाया जा रहा है जिसकी विशेषता ये है कि दोनों प्रत्याशियों में गांधी परिवार का सदस्य नहीं है | बावजूद इसके श्री खड़गे स्वतंत्र होकर निर्णय ले सकेंगे इसमें हर किसी को संदेह है और वह गलत भी नहीं है | उनके द्वारा भोपाल में जिस कहावत को उद्धृत किया गया वह भले ही गलती से उनके मुंह से निकली हो लेकिन उसके जरिये उनके मन में समाया डर भी सामने आ गया | वरना पत्रकारों के सवालों का जवाब वे ये कहते हुए भी दे सकते थे कि प्रधानमंत्री के चेहरे का निर्णय समय आने पर किया जावेगा | सही मायनों में कांग्रेस वर्तमान में जिस द्वन्द से गुजर रही है वह उसकी दिशाहीनता बढ़ा रहा है | अव्वल तो पार्टी अध्यक्ष का चुनाव भारत जोड़ो यात्रा के दौरान करवाने से ध्यान भटकने वाली बात हो रही है | दूसरी तरफ राजस्थान में जिस तरह से श्री गहलोत ने गांधी परिवार के प्रति निष्ठा दिखाने के बावजूद राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के लिए मुख्यमंत्री पद छोड़ने से इंकार किया उसके कारण भी पार्टी में गांधी परिवार की वजनदारी कम हुई है |  ऐसे में श्री खड़गे  द्वारा बकरीद में  बचे तो मोहर्रम में नाचेंगे जैसी टिप्पणी कर प्रथम परिवार के लिए भी परेशानी पैदा कर दी है क्योंकि इस बात का जवाब वे नहीं दे पा रहे कि आखिर  बकरीद पर बचे जैसी बात से उनका आशय क्या था और उन्हें किससे खतरा है ?

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 12 October 2022

सं.रा.संघ की हालत भारत के चुनाव आयोग जैसी हो गयी



रूस और यूक्रेन की जंग खतरनाक स्थिति में पहुँच रही है | 2014 में जब रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया बंदरगाह पर बलात कब्ज़ा किया तब विश्व जनमत ने उसकी उपेक्षा की | इससे उसकी हिम्मत और बढ़ गयी | यूक्रेन के कुछ रूसी भाषी सीमावर्ती प्रान्तों में विद्रोही गतिविधियों को राष्ट्रपति पुतिन सैन्य मदद देकर अस्थिता फैलाते  रहे | उनके विस्तारवादी रवैये से आशंकित यूक्रेन ने अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो में शामिल होने की पहल की जिससे रूस को लगा कि अमेरिका उसकी देहलीज पर आकर बैठ जाएगा | और इसी कारण उसने इस साल फरवरी में यूक्रेन पर ऐलानिया हमला कर दिया | बीते लगभग आठ माह में यूक्रेन में हजारों  नागरिक मारे जा चुके हैं जिनमें बच्चे और वृद्ध भी हैं | देश का बड़ा हिस्सा  मलबे में बदल चुका है | बिजली , सड़क , पेयजल , शिक्षा संस्थान  , अस्पताल  , परिवहन व्यवस्था  सभी रूस के हमलों में तबाही  के शिकार हो चुके हैं | लाखों  यूक्रेनी नागरिक पड़ोसी देशों में शरण लेने मजबूर हो गये | भारत के हजारों छात्र भी पढाई बीच में छोड़ घर लौट आये जिससे वहाँ के  हालात का अंदाज लगाया जा सकता है | यद्यपि शुरुआत में लगा था कि रूस की विशाल सैन्यशक्ति के सामने यूक्रेन दो – चार दिन में ही घुटने टेक देगा लेकिन उसके राष्ट्रपति जेलेंस्की ने जिस साहस का परिचय दिया वह अकल्पनीय है | युद्ध शुरू होते ही जब अमेरिका सहित उसके  समर्थक देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाकर आर्थिक नाकेबंदी की तब ये लगा था कि वह सीधे तौर पर यूक्रेन की तरफ से लड़ाई में कूद सकता है | लेकिन उसने यूक्रेन को आर्थिक और सामरिक सहायता देने का विकल्प चुना | इसी वजह से वह अभी तक रूस के सामने न सिर्फ डटा हुआ है अपितु उसके कब्जे में गये अनेक इलाके  दोबारा छीन लिए | दूसरी तरफ  रूस ने अपने कब्जे वाले चार सीमावर्ती प्रान्तों में अपनी सेना की मौजूदगी में फर्जी  जनमत संग्रह करवाकर उन्हें अपना हिस्सा बनाने का दांव चल दिया | जबकि ऐसा काम सं.रा.संघ के निरीक्षण में होना चाहिए था | दो दिन पहले यूक्रेन की राजधानी कीव पर दर्जनों मिसाइलें दागकर  पुतिन ने ये दर्शा दिया कि उनको न  विश्व जनमत की परवाह है और न  उनमें मानवता है |  जहां तक बात रूस की है तो आर्थिक प्रतिबंधों ने उसकी कमर भी तोड़ी है और इसीलिए घर में ही पुतिन को विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है | लेकिन कच्चा तेल , गैस और गेंहू के विशाल भंडारों के कारण वे यूरोप के उन देशों को झुकाने में कामयाब हो रहे हैं जो इन चीजों के लिए रूस पर निर्भर रहे हैं  | सर्दियों की आहट के साथ ही समूचा यूरोप ऊर्जा संकट से जूझने मजबूर हो चला है जिससे बचने रूस से गैस का आयात अनिवार्य है | वैसे भी इस युद्ध के पीछे पुतिन की योजना यूरोप के साथ अपने व्यापार के लिए यूक्रेन की धरती और बंदरगाहों का उपयोग करने की मजबूरी खत्म करना है | क्रीमिया बंदरगाह पर बलपूर्वक कब्ज़ा उसकी बानगी थी | यदि उसी समय सं.रा.संघ और अमेरिका सहित दुनिया के अन्य ताकतवर देश उसके विरुद्ध खड़े होते तब शायद पुतिन   यूकेन पर आक्रमण की हिम्मत  न दिखाते | ये देखते हुए कहना गलत न होगा कि विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से बना सं.रा.संघ अपनी उपयोगिता खो बैठा है | बीते महीनों में रूस के विरुद्द्ध सुरक्षा परिषद में जो भी प्रस्ताव आये वे वीटो कर दिए गए | भारत और चीन ने तो शुरुआत में ही रणनीतिक और आर्थिक मजबूरी के साथ ही वैश्विक शक्ति संतुलन की दृष्टि से तटस्थ रहने का निर्णय कर लिया था | कुछ समय बाद यूरोपीय देश भी रूस के साथ व्यापार जारी रखने मजबूर हो गए | वैसे भी  कोरोना के बाद आर्थिक गतिविधियाँ पटरी पर लौटने लगी थी | लेकिन इस युद्ध ने जबरदस्त नुकसान कर दिया | मौके का लाभ लेकर प. एशिया के तेल उत्पादक देश कच्चे तेल के दाम बढाते जा रहे हैं | भारत इसकी वजह से जबरदस्त नुकसान में है जहां अपनी जरूरत का 85 फीसदी कच्चा तेल आयात होता है | यूक्रेन से सूरजमुखी का आना बंद होने से खाद्य तेल के दाम आसमान छूने लगे हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि जिस तरह पुतिन  परमाणु हमले की धमकी दे रहे हैं वह खतरनाक संकेत है | ऐसा वे दुनिया को महज डराने के लिए कर रहे हैं या वाकई वे उस हद तक जा सकते हैं , इसका अंदाज लगाना कठिन है क्योंकि उनके मन की थाह पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है | लेकिन इस संकट का हल नहीं कर पाने में सं.रा.संघ की विफलता या यू नकारापन बेहद चिंताजनक है | रूस की देखा देखी चीन भी ताइवान को हथियाने के लिए हमलावर रुख दिखा रहा है | दरअसल  पुतिन और  जिनपिंग जैसे  राजनेता विश्व शान्ति के लिए हमेशा से खतरा बनते आये हैं | इनसे दुनिया को बचाने के लिए ही  सं.रा.संघ की स्थापना की गई थी | लेकिन सुरक्षा परिषद में  अमेरिका , रूस , ब्रिटेन , फ़्रांस के अलावा चीन  को वीटो का जो अधिकार दे दिया गया उसकी वजह से इन देशों को विश्व जनमत की उपेक्षा करने की छूट मिल गयी | यूक्रेन संकट में रूस जिस तरह से पूरी दुनिया को ठेंगे पर रखने का दुस्साहस कर रहा है उसके बाद सं.रा.संघ की भूमिका और भविष्य पर भी विचार करना जरूरी हो गया है | उसकी मौजूदा स्थिति तो भारत के चुनाव आयोग जैसी हो गई है जिसे सम्मान तो सब देते हैं लेकिन उसकी मानता कोई नहीं क्योंकि उसकी दशा बिना दांत और नाखूनों वाले शेर जैसी है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 11 October 2022

श्री महाकाल लोक : आध्यात्मिकता और आधुनिकता का संगम



कुछ लोगों को यह धन का अपव्यय लगता होगा | लेकिन वाराणसी में विश्वनाथ कारीडोर के बाद म.प्र के उज्जैन में स्थित महाकाल मदिर के समूचे परिसर को सुविकसित कर जिस श्री महाकाल लोक का आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकार्पण कर रहे हैं उसके दीर्घकालिक लाभों से कोई भी समझदार व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता | स्मरणीय है गुजरात में सरदार सरोवर बाँध के पास जब सरदार वल्लभभाई पटेल की विशाल प्रतिमा बनवाने का फैसला हुआ था तब उसे भी धन की बर्बादी बताकर उँगलियाँ उठाई गईं थीं | दुनिया की सबसे ऊंची इस मूर्ति के निर्माण की योजना मुख्यमंत्री  रहते हुए श्री  मोदी ने बनाई थी और उसका लोकार्पण प्रधानमंत्री बनकर किया | बीते कुछ सालों में ही उस स्थल पर रिकॉर्ड पर्यटक आ चुके हैं जिसके  कारण उस समूचे इलाके में आर्थिक विकास की गति त्तेज हो गयी | इसी तरह वाराणसी में विश्वनाथ कारीडोर परियोजना का अनेक स्थानीय लोगों ने भी विरोध किया | उनका कहना रहा कि उसकी वजह से काशी का मूल स्वरूप नष्ट हो जाएगा | लेकिन श्री मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में गंगा घाटों के विकास से जो शुरुआत की उसका चरमोत्कर्ष विश्वनाथ परिसर के लोकार्पण के तौर पर जब सामने आया तो उसने विदेशों में रह रहे हिन्दुओं का ध्यान तो खींचा ही , गैर हिन्दुओं के मन में भी उत्सुकता जाग्रत की | हालाँकि वाराणसी सनातनी श्रद्धालुओं के साथ देशी – विदेशी पर्यटकों को हमेशा से आकर्षित करता रहा है | उसके  उपनगरीय क्षेत्र सारनाथ में दुनिया भर से बौद्ध धर्मावलम्बी आते हैं | उस दृष्टि से विश्वनाथ मंदिर और उसके निकटवर्ती क्षेत्र का कायाकल्प निश्चित तौर पर दूरंदेशी भरा फैसला था | उस प्रकल्प के पूर्ण हो जाने के बाद वाराणसी में आने वाले श्रृद्धालुओं की संख्या में जबरदस्त वृद्धि होना इसकी सार्थकता का प्रमाण है | इस वजह से वहां पर्यटन उद्योग के साथ ही व्यापार - व्यवसाय में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है | इस अनुभव के बाद उज्जैन स्थित ऐतिहासिक महाकाल मंदिर परिसर के साथ ही उससे जुड़े अन्य धार्मिक स्थलों का सुनियोजित विकास कर जिस श्री महाकाल लोक का निर्माण किया गया है वह निश्चित तौर पर वहां भी वाराणसी जैसा उत्साहजनक वातावरण उत्पन्न करने में सहायक होगा | स्मरणीय है उज्जैन सनातन धर्म का प्राचीनतम केंद्र रहा है | यहाँ 12 साल बाद  सिंहस्थ नामक कुम्भ मेला भरता है | भगवान श्रीकृष्ण ने इसी नगरी में सांदीपनि गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण की थी | वाराणसी , मथुरा और अयोध्या की तरह उज्जैन को भी विश्व की प्राचीनतम नगरियों में माना जाता है | भगवान शंकर यहाँ महाकाल के तौर पर प्रतिष्ठित हैं | इस ज्योतिर्लिंग के दर्शनार्थ प्रतिदिन हजारों लोग आते हैं | यहाँ की भस्म आरती का अनुभव तो बेहद विलक्षण होता है | उस दृष्टि से महाकाल मंदिर परिसर में स्थानाभाव के कारण लगातार बढ़ती जा रही श्रृद्धालुओं की संख्या के मद्देनजर व्यवस्था नहीं हो पा रही थी | इसके अलावा उपेक्षित पड़े अन्य धार्मिक स्थलों तक श्रृद्धालु नहीं जा पाते थे और जो जाते भी वे वहां की दुरावस्था देखकर दुखी होते थे |  श्री महाकाल लोक के लोकार्पण के बाद अब उज्जैन विश्व भर में वाराणसी की तरह ही आकर्षण का नया केंद्र बनेगा , ये उम्मीद गलत नहीं है | इस बारे में ये  भी शोचनीय है कि जिन धार्मिक केन्द्रों में रोजाना हजारों श्रृद्धालु आते हों  और विशेष अवसरों पर ये संख्या लाखों में चली जाती है उनमें समय के साथ सुविधाओं के विकास और सौन्दर्यीकरण पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया ? देश के जिन  प्रमुख धार्मिक स्थलों में यात्रियों अथवा पर्यटकों के लिए समुचित व्यवस्थाएं समय के साथ विकसित की गईं उनके प्रति आकर्षण भी बढ़ा है | इसके  साथ ही किसी भी धार्मिक या ऐतिहासिक स्थल पर आने वाले को  उसके इतिहास के बारे में पर्याप्त जानकारी भी  मिलनी चाहिए | विशेष रूप से विदेशी पर्यटकों के अलावा भी अनेक ऐसे लोग होते हैं जो धार्मिक आस्था के साथ ही उस स्थल के बारे में जो विस्तृत और प्रामाणिक जानकारी चाहते हैं वह  वहां लगे किसी सूचना फलक के सिवाय और कहीं नहीं मिलती | श्री महाकाल लोक के बारे में जो अधिकृत जानकारी आई है उसके अनुसार  समूचे परिसर में इस तीर्थ से जुड़ी ऐतिहासिक और पौराणिक जानकारी मूर्तियों , चित्रों  और साहित्य के रूप में आगंतुकों को सुलभ होगी | जो लोग धार्मिक आस्था न रखते हों वे भी उज्जैन की प्राचीनता के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं | दुनिया भर में भारत की धार्मिक और आध्यात्मिक परम्पराओं पर शोध कार्य हो रहे हैं | ज्योतिर्लिंगों के अलावा देश में जितनी भी शक्ति पीठ हैं वे सब पूरी दुनिया को आकर्षित करती रही हैं | उस दृष्टि से उन्हें महज धार्मिक केंद्र तक सीमित न रखते हुए यदि पूरी तरह विकसित करते हुए उनके  इतिहास की विधिवत जानकारी का दस्तावेज आने वालों को मिल सके  तो  भारत में नये किस्म का पर्यटन विकसित किया जा सकता है | सबसे बड़ी बात ये है कि सनातन धर्म के जो  सबसे प्रमुख आस्था केंद्र हैं उनमें सामान्य स्तर की सुविधाएँ होने से वहां आने वाले श्रृद्धालु भी कटु अनुभव लेकर लौटते हैं | दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं उन्होंने अपने धार्मिक स्थलों को बेहद खूबसूरत बनाकर दूसरे धर्मों में विश्वास रखने वालों को वहां आने प्रेरित किया है | उस लिहाज से वाराणसी और उज्जैन में क्रमशः विश्वनाथ कारीडोर  और श्री महाकाल परिसर का सौन्दर्यीकरण करते हुए बिखरे पड़े पौराणिक महत्त्व के स्थलों को एक ही इकाई के रूप में परिवर्तित करना सराहनीय है | बेशक ऐसे प्रकल्पों पर अरबों का खर्च  होता है लेकिन इसकी वजह से सम्बंधित स्थान पर आने वालों की संख्या बढ़ने से न सिर्फ होटल और टैक्सी व्यवसायी  अपितु स्थानीय दुकानदार भी अच्छी खासी कमाई करते हैं | इन्टरनेट के कारण आजकल पर्यटन स्थलों की जानकारी आसानी से दुनिया में कहीं  भी बैठे व्यक्ति को मिल जाती है |  ट्रेवलिंग एजेंसी का कारोबार भी इसीलिये बढ़ता  जा रहा है | लेकिन  पर्याप्त ध्यान नहीं दिए जाने से दक्षिण एशिया के छोटे - छोटे देशों से भी  कम पर्यटक हमारे  देश में आते हैं | सरदार पटेल की मूर्ति , विश्वनाथ कारीडोर और उसके बाद श्री महाकाल लोक जैसे स्थल नए भारत की तस्वीर पूरी दुनिया के सामने पेश करने में सहायक होंगे , इसमें शक नहीं है | म.प्र को इस वर्ष सबसे स्वच्छ प्रदेश होने के साथ पर्यटन हेतु भी राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिला है | श्री महाकाल लोक के लोकार्पण के बाद प्रदेश में आने वाले सैलानियों की संख्या में और वृद्धि होना अवश्याम्भावी है | केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें इस उपलब्धि के लिए अभिनन्दन की हकदार हैं |

-रवीन्द्र वाजपेयी  

Monday 10 October 2022

उ.प्र में कांग्रेस को अस्तित्वहीन कर गये मुलायम सिंह यादव



समाजवादी पार्टी के संस्थापक उ.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव का आज लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया | नेता जी नाम से लोकप्रिय 82 वर्षीय स्व. यादव ने राजनीति में एक लम्बी पारी खेली | तीन बार मुख्यमंत्री और 7 बार सांसद बने मुलायम सिंह राजनीति के उन मैदानी खिलाड़ियों में थे जिन्होंने अपना वैचारिक सफर गैर कांग्रेसवाद के प्रवर्तक स्व. डा. राममनोहर लोहिया की रहनुमाई में शुरू किया था लेकिन उनके जीवन का उत्तरार्ध गैर भाजपा राजनीति की सोच के चलते बीता | वे  उन - बचे खुचे नेताओं में थे जिन्होंने लोहिया जी की लाल टोपी को जीवित रखा | यहीं नहीं तो संसद में धोती युग के भी वे गिने – चुने प्रतिनिधियों में थे | वे उ.प्र जैसे महत्वपूर्ण  राज्य के उन चंद नेताओं में थे जिन्होंने  शून्य से शिखर तक की यात्रा अपने बलबूते हासिल की | हालाँकि उनकी  समाजवादी पहिचान केवल लाल  टोपी तक सीमित रह गई थी | 1977 के  बाद केंद्र में बनी जनता पार्टी की सरकार जब अपने आंतरिक विग्रहों के कारण गिरी तो उसके सबसे बड़े कारणों में समाजवादी ही थे | दोहरी सदस्यता जैसा विवाद उठाकर स्व. मधु लिमये ने जो  भूल की उसने  कांग्रेस को तो पुनर्जीवित किया ही ,  स्व. इंदिरा गांधी  पर लगे आपातकाल रूपी दाग को भी धो डाला | उसके बाद 1989 में गैर कांग्रेसी एकता का प्रयोग विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के तौर पर हुआ जिसे भाजपा और वामपंथी दोनों बाहर से समर्थन दे रहे थे | लेकिन वह भी बीच रास्ते  दम तोड़ बैठा | उसके बाद उ.प्र की राजनीति में मुलायम सिंह एक नए अवतार में उभरे और वह था उनके मुस्लिम परस्त होने का जिसके कारण उन्हें मुल्ला मुलायम तक कहा जाने लगा | अयोध्या जा रहे  कारसेवकों पर गोलियां चलाने का पाप जीवन भर उनके साथ चिपका रहा | हालाँकि बाबरी ढांचे के गिरने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांशीराम के साथ गठबंधन कर उन्होंने हिन्दू ध्रुवीकरण को नाकाम कर दिया लेकिन बसपा के साथ  उनकी दोस्ती ज्यादा नहीं चली और कांशीराम की उत्तराधिकारी  मायावती के साथ गेस्ट हाउस कांड के बाद तो दोनों जानी दुश्मन जैसे होकर रह गये | हालाँकि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा – बसपा फिर एक साथ आये परन्तु  तब तक मुलायम सिंह की स्थिति दयनीय हो चुकी थी |  2012 में भाई शिवपाल और अनुयायी आज़म खान की उपेक्षा कर उन्होंने अखिलेश को राजगद्दी पर बिठाने का जो निर्णय लिया उससे परिवार और पार्टी दोनों बिखराव का शिकार होकर रह गये | पिछले लोकसभा चुनाव में शारीरिक तौर पर अशक्त हो चुके नेताजी के लिए तब शर्मनाक स्थिति उत्पन्न हो गई जब मैनपुरी सीट पर  प्रचार हेतु मायावती उनके साथ मंच पर आकर बैठीं और भाषण दिया | लेकिन जिस तरह स्व. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन की कृपा से बिहार में उभरे लालू प्रसाद ने समाजवाद के नाम पर परिवारवाद को ताकतवर बनाया वही मुलायम सिंह ने उ.प्र में किया और उससे भी बड़ी बात ये कि डा. लोहिया की माला जपने वाले इन दोनों नेताओं ने समूची राजनीति जातिवाद को बढ़ावा देकर की | उसके लिए वे मुस्लिम तुष्टीकरण करने में भी  नहीं शरमाये जिसकी वजह से एम – वाई ( मुसलिम -  यादव ) नामक नया समीकरण पैदा हो गया | संयोग से उ.प्र सर्वाधिक लोकसभा सदस्यों के कारण राष्ट्रीय राजनीति में विशेष वजनदारी रखता है इसीलिये  चौध्र्री चरण सिंह , विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा चंद्रशेखर की तरह मुलायम सिंह ने भी प्रधानमंत्री बनने के लिए काफी हाथ पाँव चलाये लेकिन उसमें वे विफल रहे  | उनकी सबसे बड़ी  विशेषता ये थी कि राजनीतिक लाभ के लिए किसी भी हद तक चले जाते थे | अखिलेश ने उन्हें न सिर्फ भाइयों  अपितु करीबी दोस्तों से भी दूर कर दिया था | शिवापाल के अलावा अमर सिंह . बेनीप्रसाद वर्मा और आज़म खान तक नेताजी से छिटकते गये | एक ज़माना था जब उनके पुश्तैनी  कस्बे सैफई का जलवा लखनऊ से ज्यादा था | ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गांधी परिवार का गढ़ बने रहे रायबरेली और अमेठी में सैफई की तुलना में 10 फीसदी काम भी नहीं हुआ | सैफई महोत्सव में अमिताभ बच्चन और सलमान खान जैसे फ़िल्मी सितारे अमरसिंह के जरिये ही आया करते थे | अनिल अम्बानी जैसा घोर पूंजीपति सपा से राज्यसभा सदस्य बना  | जया बच्चन को राज्यसभा में भेजते रहना अमर  और मुलायम की जोड़ी का करिश्मा  था | सहारा समूह के संस्थापक सुब्रतो राय के साथ भी समाजवादी मुलायम की दांत काटी रोटी थी | कुश्ती के शौक़ीन मुलायम सिंह ने राजनीति के अखाड़े में हर उस दांव को आजमाया जो सत्ता तक पहुंचा सके | लेकिन इसी के चलते वे अपना मूल स्वरूप खो बैठे और समाजवादी पार्टी एक पारिवारिक कम्पनी में बदल गई | नतीजा भी वैसा ही हुआ और उनके जीवन के अंतिम दौर में शिवपाल ने अलग दल बना लिया | दूसरी पत्नी के पहले पति से पैदा हुए बेटे की पत्नी भाजपा में आ गई | यहाँ तक कि नेता जी के मजबूत गढ़  आजमगढ़ और रामपुर में भी उनकी पार्टी हार गयी | बावजूद इस सबके मुलायम सिंह  उ.प्र और  राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय मजबूती के साथ जमे रहे तो उसकी वजह उनका बेहद व्यवहारिक होना था जिसके कारण वे अवसर का लाभ उठा लेते थे | अटल जी के प्रधानमंत्री रहते प्रोफेसर अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाए जाने की पहल  करने वाले मुलायम सिंह दोबारा जब उनका नाम उछला तो  पलटी मार गए क्योंकि सोनिया गांधी किसी भी सूरत में उनको नहीं चाहती थी | कुल मिलाकर मुलायम सिंह विविधता और अनिश्चितताओं से भरे ऐसे व्यक्तित्व थे जो केवल और केवल राजनीति करते थे | इससे इतर सोचना उनके स्वभाव मे नहीं था | 2012 तक अपनी पार्टी के वे निर्विवाद नेता रहे लेकिन अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाये जाने के  बाद धीरे – धीरे वे हाशिये पर धकेले जाने लगे थे | बीते तकरीबन दो साल से उनकी चर्चा केवल उनके स्वास्थ्य समाचारों के कारण होती रही |  उनके न रहने से उ.प्र की राजनीति में निश्चित रूप से खालीपन आएगा | सबसे बड़ी बात अखिलेश और शिवपाल के बीच तलवारें खिंचना तय  है | भले ही 1977 के बाद से वे कांग्रेस के प्रति पहले जैसे कठोर नहीं रहे लेकिन उनको इस बात का श्रेय तो दिया ही जा सकता है कि उन्होंने  मुस्लिम वोट बैंक को अपने पाले में खींचकर कांग्रेस को उ.प्र में पूरी तरह अस्तित्वहीन कर दिया , अन्यथा इस राज्य में भाजपा इतनी मजबूत न हो पाती |

विनम्र श्रद्धांजलि |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 8 October 2022

आर्थिक मंदी : चिंता की बजाय चिंतन से निकलेगा रास्ता



अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित विश्व के अनेक वित्तीय संस्थानों द्वारा इस बात की पुष्टि कर दी गयी है कि वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी का आगमन हो चुका  है और ये दौर 2008 की  मंदी से ज्यादा व्यापक और भयावह होगा | जो आंकड़े मुद्रा कोष ने अनुमानित किये हैं उनके अनुसार दुनिया भर में मांग घटने से उत्पादन में जो कमी आगामी सालों में आने वाली है वह तकरीबन 4 लाख करोड़ अमेरिकी डालर की होगी जो जर्मनी की कुल अर्थव्यवस्था के बराबर है | अमेरिका में तो विकास दर नकारात्मक होने के संकेत आने लगे हैं | कोरोना संकट के बाद से अब तक चीन की अर्थव्यवस्था संभल नहीं सकी है | ब्रिटेन में भी आर्थिक ढांचा गड़बड़ा रहा है | ऐसे में भारत इस स्थिति से अछूता रहेगा ये मान लेना अपने आपको धोखा देना होगा | लेकिन हमारे देश में राजनेताओं , अर्थशास्त्रियों और कुंठा का शिकार हो चुके कतिपय पत्रकारों द्वारा जिस  तरह का  निराशाजनक वातावरण बनाया जा रहा है वह देशहित में नहीं है | हालाँकि बीते कुछ समय से हमारे निर्यात में आई कमी से डालर के दाम लगातार बढ़ते जा रहे हैं | 82 रु. से ज्यादा उसका विनिमय मूल्य निश्चित रूप से परेशानी  पैदा करने वाला है | उसकी वजह से विदेशी मुद्रा का जो भंडार लबालब था उसमें भी उल्लेखनीय गिरावट आई है | अमेरिका में बैंकों द्वारा जमा पर ब्याज दरें बढ़ा दिए जाने से भी विदेशी निवेश भारतीय पूंजी बाजार से निकल रहा है | हालाँकि दुनिया भर के  शेयर बाजार जिस तरह से लड़खड़ा रहे हैं उनकी तुलना में हमारी स्थिति बेहतर है | सबसे अच्छी बात ये  देखने में आ रही है कि बैंकिंग क्षेत्र बहुत ही अच्छा प्रदर्शन कर रहा है | कोरोना संकट के बाद उत्पन्न हालातों में अर्थव्यवस्था सुस्त हो चली थी किन्तु जैसे ही हालात सामान्य हुए उसने तेजी से वापसी की | इसका सबसे बड़ा सबूत जीएसटी के संग्रह में प्रति माह हो रही वृद्धि है | औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक भी सुधार के संकेत दे रहा है | उपभोक्ता बाजार में मांग भी लगातार ऊपर जा रही है | ऑटोमोबाइल और हाऊसिंग सेक्टर तो कोरोना पूर्व की स्थिति से बेहतर हालत में आ गये हैं | इलेक्ट्रानिक वाहनों के उत्पादन और बिक्री में जिस तरह से तेजी हो रही है वह अर्थव्यस्था में आ रहे क्रांतिकारी बदलाव की ओर इशारा करती है | हालाँकि रूपये का मूल्य गिरते जाने से कच्चे तेल के आयात का खर्च बढ़ता जा रहा है लेकिन इलेक्ट्रानिक वाहनों का उत्पादन यदि इसी तरह बढ़ा तो आने वाले वर्षों में कच्चे तेल का आयात घटाने की जिस  कार्ययोजना पर परिवहन मंत्री नितिन गडकरी कार्य कर रहे हैं वह फलीभूत हो सकती है | बहरहाल इस बारे में जो बात  सबसे ज्यादा विचारणीय है वह है अर्थव्यवस्था को लेकर नकारात्मक  वातावरण  बनाने से बचना | जिस तरह  किसी चीज के अभाव का प्रचार होते ही व्यापारी और ग्राहक दोनों जमाखोरी करने लगते हैं वैसी ही स्थिति आर्थिक संकट का ढिंढोरा पीटने पर बनती है | भारत के बारे में दुनिया के लगभग सभी वित्तीय संस्थान  रहे हैं कि वैश्विक मंदी से वह आसानी से निपटने में सक्षम है और इसके पीछे सबसे बड़ा  कारण आम भारतीय की  संयमित जीवनशैली है | भले ही जमा पर ब्याज दरें पूर्वापेक्षा बहुत कम हो चुकी हैं लेकिन उसके बाद भी आम भारतीय बचत के संस्कारों को नहीं भूला और यही हमारी  सबसे बड़ी शक्ति है | लेकिन एक वर्ग ऐसा है जो अर्थव्यवस्था को लेकर भय का वातावरण बनाने में जुटा है | हालाँकि ये मान लेना निहायत मूर्खता होगी कि दुनिया भर में आर्थिक हालात बिगड़ने का हमारी अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन 135 करोड़ का विशाल उपभोक्ता परिवार और तेजी से विकसित घरेलू औद्योगिक ढांचे के साथ स्वदेशी का भाव भारतीय अर्थतंत्र को खतरे की स्थिति से बचाए रखने में काफी हद तक सहायक हो सकता है बशर्ते बजाय हड़बड़ाहट में फैसले करने के सार्थक चिंतन के साथ आने वाले संकट का समना करने की योजना बनाई जाए | इसके लिए सबसे पहले सरकार को अपने फ़िज़ूल अर्थात गैर उत्पादक खर्चों में कटौती करनी चाहिए | घाटे में चल रहे सार्वजनिक क्षेत्रों के उद्यमों के विनिवेश को विपक्ष द्वारा देश बेचने का नाम दिया जा रहा है लेकिन इन सफ़ेद हाथियों को खुराक देते  रहने का दुष्परिणाम झेलने के बाद ऐसा करना बहुत ही सही था | उनसे प्राप्त धन विकास कार्यों विशेष रूप से इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए उपयोग किया जावे तो आर्थिक मंदी पर प्रभावी तरीके से काबू  किया जा सकेगा | उसके साथ ही सरकार को छोटे निवेशकों को बचत के लिए  आकर्षित करने के उपाय तलाशने होंगे | हालाँकि बाजार में मांग बनाये रखने के लिए मुद्रा की तरलता बनाये रखना जरूरी है लेकिन ये भी सही है कि महंगाई के कारण उत्पन्न हालातों के मद्देनजर मुद्रास्फीति पर नियन्त्रण करने के रास्ते भी निकालने होंगे | ये तो तय है कि मंदी आ रही है और कहीं रूस - यूक्रेन युद्ध ने खतरनाक मोड़ लिया तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में होने वाली उथल पुथल का अंदाज  लगाना और कठिन हो जाएगा | लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों युद्धरत देशों पर  दबाव बनाकर लड़ाई रुकवाने का प्रयास कर रहे हैं उससे ये उम्मीद भी बढ़ रही है कि भारत एक विश्व शक्ति के रूप में जिस तरह स्थापित हो रहा है उसके दूरगामी लाभ हमारी अर्थव्यवस्था को जरूर हासिल होंगे | लेकिन देखने  वाली बात ये भी है कि सब कुछ हमारी सोच के मुताबिक हो जाए ये  जरूरी नहीं | इसलिए बेहतर है चिंता छोड़ चिंतन का सहारा लेते हुए आर्थिक मंदी से निपटने हेतु आपातकालीन योजना बनाकर उसका ईमानदारी से पालन किया जावे जिससे आग लगने के बाद कुआ खोदने वाली विडंबना से देश बच सके | इसके साथ ही ये भी उचित होगा कि सरकार समय – समय पर आर्थिक स्थिति की सच्चाई से देश को अवगत करवाती रहे जिससे खुशफहमी और निराशा दोनों से बचा जा सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 7 October 2022

बढ़ती मुस्लिम आबादी यूरोपीय देशों के लिए भी सिरदर्द बनने लगी



दशहरा के दिन अपने स्थापना दिवस पर रास्वसंघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने जनसँख्या असंतुलन दूर करने के लिए आबादी नियन्त्रण के लिए प्रभावशाली कदम उठाने की बात कही थी | अपने उद्बोधन में उन्होंने विश्व के अनेक देशों का उदाहरण देते हुए उनके विघटन की वजहों में जनसँख्या असंतुलन को ही बताया था | संघ चूंकि हिंदूवादी संगठन है लिहाजा डा. भागवत के वक्तव्य को मुस्लिम विरोधी मानकर देखा जाना स्वाभाविक है | लेकिन बीते कुछ दिनों से ब्रिटेन से जो खबरें आ रही हैं उनको सुनने के बाद जनसँख्या असंतुलन के खतरों को समय रहते दूर न किया गया तो भारत में भी वैसी ही  स्थिति उत्पन्न होना सुनिश्चित है | जो आंकड़े आये हैं उनके अनुसार ब्रिटेन में अवैध रूप से घुसे अप्रवासियों में 90 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम देशों से आये थे | ये भी बताया गया है कि इंग्लिश चैनल पार कर समुद्री रास्ते से ब्रिटेन में घुसने के बाद इन मुस्लिम घुसपैठियों को उनके समुदाय के लोग अपने ठिकानों में छिपाए रखते हैं | ब्रिटेन में हुए हालिया दंगों के बाद सरकार को इस बात की चिंता सताने लगी है कि यदि मुस्लिम आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो ब्रिटेन में जनसंख्या का असंतुलन सामाजिक सौहार्द्र को नुकसान पहुंचाएगा | भारतीय मूल की गृह मंत्री सुएना ब्रेवनमेन ने इस बारे में चिंता जताते हुए कहा है कि बीते कुछ वर्षों में ब्रिटेन में सांप्रदायिक दंगों में चिंताजनक वृद्धि हुई है जिनमें मुस्लिम आबादी की भूमिका ही ज्यादा रही है | ब्रिटेन , यूरोप के उन देशों में है जहाँ पाकिस्तान सहित ऐसे  देशों से आये मुस्लिम  बड़ी संख्या में आकर बसे हुए हैं जहाँ कभी उसका राज था | लेकिन बीते कुछ सालों में सीरिया संकट के बाद से वहां शरणार्थी  बनकर आये मुस्लिम आंतरिक सुरक्षा के साथ ही कानून व्यवस्था के लिए जिस तरह खतरा बनते जा रहे हैं उससे सुरक्षा एजेंसियां चिंता में पड़ गई हैं |  गौर् करने वाली बात ये है कि सांप्रदायिक दंगों में मुस्लिमों ने प्रमुख रूप से हिन्दू समुदाय और उनके धार्मिक स्थलों पर ही हमले किये | ईसाई समुदाय और चर्च से बचकर चलना उनकी रणनीति का हिस्सा है ताकि वे अंग्रेजों के गुस्से से बचे रहें | ब्रिटेन से लौटे अनेक भारतीयों ने इस बारे में जो बताया उससे लगता है कि आने वाले कुछ सालों के बाद ब्रिटेन में मुस्लिम समुदाय आंतरिक सुरक्षा और कानून – व्यवस्था के लिए समस्या बने बिना नहीं रहेगा | ब्रिटेन के अलावा फ्रांस  , जर्मनी , डेनमार्क आदि में भी मुस्लिम शरणार्थियों ने समूहबद्ध होकर हिंसक वारदातों को अंजाम दिया | इस्लाम के विरुद्ध टिप्पणियाँ करने वालों की नृशंस हत्या और बम विस्फोट जैसी घटनाओं के बाद ये देश अब शरणार्थियों को अपने यहाँ बसाने पर पछता रहे हैं लेकिन उन्हें निकालना  बस के बाहर हो चुका है | ब्रिटेन में मुस्लिम आबादी पहले से ही काफी है | अनेक परिवार तो पीढ़ियों से बसे हुए हैं | इस वजह से वहां के राजनीतिक ढांचे में भी उनकी मौजूदगी प्रभावशाली होती गई | राजधानी लन्दन के महापौर जैसा पद पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम  के पास रह चुका है | 1947 के बाद ब्रिटेन की नीति पाकिस्तान परस्त होने से वहां से आये मुस्लिमों को ख़ास महत्व मिलने से मुस्लिम अप्रवासी बढ़ते गये | लेकिन बीते कुछ दशकों में अरब और अफ्रीकी देशों से भी बड़ी संख्या में मुस्लिम अप्रवासियों ने ब्रिटेन में डेरा जमा लिया | शुरुआत में तो ये सामान्य अप्रवासियों जैसे रहे लेकिन जबसे इस्लामिक आतंकवाद का फैलाव हुआ तबसे ब्रिटेन में मुस्लिम आबादी में अपने आवसीय इलाके विकसित करने की मानसिकता उत्पन्न हुई जिसका परिणाम  इनकी गोलबंदी के रूप में देखने मिला | ब्रिटेन के सभी बड़े शहरों में मुस्लिम बस्तियां जिस तरह बढ़ती जा रही हैं उसके कारण अवैध रूप से आने वाले अप्रवासियों को भूमिगत रहने की सुविधा मिल जाती है | पिछले कुछ महीनों में हुए सांप्रदायिक उत्पात के दौरान मुस्लिम  हमलावरों ने मुंह पर कपड़ा बांधकर अपनी पहिचान जिस तरह छिपाई उससे ये संदेह पुख्ता होता है कि वे अवैध रूप से वहां रह रहे हैं | यूरोपीय यूनियन के तमाम देश सीरिया संकट के समय वहां से आये शरणार्थियों के प्रति मानवीय संवेदनाओं के कारण बेहद उदार रहे | वहां की जनता ने भी इस बारे में अपनी  सरकारों पर दबाव डाला | ये भावना अमेरिका और कैनेडा तक फ़ैली | लेकिन इस बारे में चौंकाने वाली बात ये रही कि पश्चिम एशिया में युद्ध के कारण अपना देश छोड़ने मजबूर हुए शरणार्थी यूरोप के ईसाई बहुल देशों में ही क्यों गए ? इस्लाम के सबसे पवित्र केंद्र मक्का में आने वाले हज यात्रियों से करोड़ों डॉलर हर साल कमाने वाले सऊदी अरब के अलावा कच्चे तेल से मालामाल हुए संयुक्त अरब अमीरात में शामिल देशों में भी शायद ही कोई शरणार्थी आया हो | सीरिया के साथ खड़े रूस ने भी किसी को पनाह नहीं दी | ऐसे में ये शोध का विषय है कि सीरिया संकट के बाद शरणार्थियों का रेला थोक के भाव अपने पड़ोसी संपन्न अरबी देशों की बजाय यूरोप ही क्यों गया ? सवाल और भी हैं | लेकिन ब्रिटेन से आ रही ताजा खबरों के बाद मुस्लिम अप्रवासियों और अवैध घुसपैठियों के कारण वहां जनसँख्या के असंतुलन को लेकर जो चिंता गृहमंत्री ने जताई उसके बाद बड़ी बात नहीं अन्य यूरोपीय देश भी इस बारे में सचेत होकर कोई एकदम उठायें | हालाँकि जिस तरह से मुस्लिम आबादी ने इन देशों में अपनी जड़ें जमा ली हैं उन्हें देखते हुए उनको आसानी से न तो बेदखल किया जा सकेगा और न ही उनके द्वारा की जाने वाली आतंकवादी शैली की वारदातों को रोकना सम्भव रहा  | ये देखते हुए भारत को भी सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि पूरे यूरोप में जितने मुस्लिम शरणार्थी या अप्रवासी अवैध रूप से जाकर बस गये उससे कई गुना भारत में दशकों पहले आ चुके थे और वह क्रम आज भी जारी है | दुर्भाग्य से हमारे देश की राजनीति में वोट बैंक चूंकि राष्ट्रहित पर भारी पड़ जाता है लिहाजा शरणार्थी बनकर आये मुस्लिम अब मालिकाना हक मांगने लगे हैं | ऐसे में जरूरी हो गया कि पानी सिर के ऊपर आ जाने के पहले इस समस्या के ठोस हल के बारे में सोचा जाए | ब्रिटेन की कुल आबादी से कहीं ज्यादा तो भारत में बांग्लादेश से आये शरणार्थियों और उनकी औलादों की संख्या हो चुकी होगी | उसके बाद भी म्यांमार से आये रोहिंग्या मुस्लिमों को शरण देने की वकालत की जाती है | वैश्विक परिदृश्य पर निगाह डालने से लगता है कि मुस्लिम अप्रवासियों और शरणार्थियों के कारण  आबादी के असंतुलन से उत्पन्न समस्या अब वैश्विक होती जा रही है |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 6 October 2022

जनसँख्या असंतुलन : डा. भागवत की चिंता संघ की दूरदर्शी सोच का प्रमाण



वैसे तो रास्वसंघ के प्रमुख डा. मोहन भागवत राष्ट्रीय महत्व के सम - सामयिक विषयों पर अपना मत व्यक्त करते रहते हैं परन्तु  विजयादशमी के दिन संघ के स्थापना दिवस पर नागपुर में आयोजित होने वाले समारोह में संघ प्रमुख का भाषण एक तरह से संगठन का नीति वक्तव्य होता है | गत दिवस इस अवसर पर उन्होंने जो उद्बोधन दिया उसमें न सिर्फ संघ के स्वयंसेवकों और समर्थकों अपितु पूरे देश के लिए एक सन्देश है | सबसे बड़ी बात ये है कि संघ की भूमिका अब केवल शाखा लगाने तक सीमित न रहकर राष्ट्र जीवन से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र तक फ़ैल गयी है | उसी का परिणाम है कि राष्ट्रवाद की भावना देश के सभी हिस्सों में नजर आने लगी है | पूर्वोत्तर के वे इलाके जो कभी मुख्यधारा से कटने की वजह से ईसाई मिशनरियों द्वारा रचित षडयंत्र के वशीभूत अलगाववाद की मानसिकता में रंग चुके थे , आज राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हैं | वहां की राजनीति पर राष्ट्रवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर आने के पीछे रास्वसंघ का योगदान सर्वोपरि है | संघ प्रमुख ने कल आबादी संबंधी मसला उठाते हुए जिस तरह उसके नियन्त्रण में धर्म विशेष द्वारा उत्पन्न की जाने वाली बाधाओं को राष्ट्रहित के विरुद्ध बताया उसमें एक तबका साम्प्रदायिकता सूंघ सकता है | लेकिन सही बात है कि जनसँख्या असंतुलन देश के अनेक हिस्सों में बड़ी समस्या बनकर उभरा है | आतंकवाद के तौर पर आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बने पीएफआई जैसे संगठन भी इसी असंतुलन का दुष्परिणाम हैं | हमारे देश के वामपंथी जिस चीन को अपना आदर्श मानते हैं उसने इस संकट को समय रहते भांप लिया और उइगर मुसलमानों पर शिकंजा कसकर अपने देश में इस्लामी आतंकवाद को पनपने से पहले ही कुचल दिया | उसके विपरीत हमारे देश में वोट बैंक की वजह से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के फेर में ज्यादातर राजनीतिक दलों ने जनसँख्या असंतुलन के खतरे को  नजरअंदाज किया जिसका खामियाजा हम भोग भी रहे हैं | हाल ही में संघ प्रमुख ने मस्जिद जाकर  कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं से भेंट की तब संघ विरोधी दलों ने  तंज कसा कि वह राहुल गांधी की यात्रा की प्रतिक्रिया है | कुछ ने यहाँ तक कह डाला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ  मतभेद हो जाने से संघ ने अपनी नीति बदली है | लेकिन ऐसे लोग इस संगठन की नीतियों  और कार्यप्रणाली के बारे में जाने बिना ही बेसिर पैर की बातें करते हैं | सही बात ये है कि संघ की सोच और उसके कार्य राष्ट्रहित पर केन्द्रित होते हैं | चूंकि राजनीति भी राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित करती है इसलिए संघ राजनीतिक मसलों पर भी अपनी राय रखने में संकोच नहीं करता | जिस तरह महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को राजनीति तक सीमित न रखते हुए अछूत  उद्धार ,हिन्दी , स्वदेशी , स्वच्छता , ग्राम विकास जैसे प्रकल्पों के जरिये समाज को संगठित कर सकारात्मक दिशा देने का काम किया , ठीक वैसे ही संघ भी समाज से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र में अपनी संगठन शक्ति के माध्यम से भारतीयता की भावना को सुदृढ़ बनाने प्रयासरत है | लम्बे समय तक उसके प्रति कौतुहल का भाव बना रहा लेकिन अपनी कर्मठता और प्रतिबद्धता की वजह से उसके प्रति जन सामान्य में आकर्षण जागा | उसी कारण संघ विरोधी अनेक राजनीतिक नेता ये कहते सुने जा सकते हैं कि वे भी हिन्दू हैं | वहीं धर्मनिरपेक्षता का  ढोल पीटने वाले दलों का चुनाव प्रचार अब हिन्दू मंदिरों से शुरू होने लगा है | कारसेवकों पर गोलियां बरसाने वाले भी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनवाने का वायदा चुनावी घोषणापत्र में करने लगे | कोई चुनावी मंच से काली जी की वंदना में जुटा है तो कोई हनुमान चालीसा का पाठ करता नजर आता है | कहने का आशय ये है कि हिंदुत्व भारतीय राजनीति में जिस तरह प्रभावी तत्व के रूप में नजर आने लगा है उसके पीछे संघ की नीतियों के प्रति बढ़ता आकर्षण ही है | संघ प्रमुख ने  विजयादशमी उत्सव पर गत दिवस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर संघ का दृष्टिकोण जिस तरह से प्रस्तुत किया उससे उसके आलोचकों को भी ये समझ में आ जाना चाहिए  कि इस संगठन की सोच कितनी व्यापक और जमीन से जुड़ी है | आज देश के सामने जो समस्याएँ हैं उनका हल ढूढ़ने के लिए विदेशों की ओर निहारने की बजाय अपनी अन्तर्निहित प्रतिभा का विकास करना संघ की नीति है और इसीलिये शिक्षा हो या अर्थव्यवस्था , वह उनमें  भारतीय दृष्टिकोण के समावेश का समर्थक है | डा. भागवत ने संघ में महिलाओं की भूमिका को लेकर किये जाने वाले मिथ्या प्रचार का भी सप्रमाण उत्तर दिया | मातृभाषा में शिक्षा के साथ परिवार में मिलने वाले संस्कारों का उल्लेख करते हुए उन्होंने सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे की मजबूती को सबसे बड़ी जरूरत बताकर ये साबित कर दिया कि संघ समाज से जुड़े सभी मुद्दों पर पैनी नजर रखता है | इस बारे में  उल्लेखनीय है कि जनसँख्या नीति केंद्र सरकार की कार्ययोजना का हिस्सा है | संघ प्रमुख के उद्बोधन के बाद इस दिशा में सरकार के कदम तेजी से बढ़ सकते हैं क्योंकि समाज के भीतर  इस बारे में अनुकूल वातावरण बनाने में संघ की भूमिका बेहद प्रभावशाली रही है | आगामी डेढ़ वर्ष देश में राजनीतिक गहमागहमी बनी रहेगी | गुजरात , हिमाचल , जम्मू  कश्मीर , म.प्र , छत्तीसगढ़ , राजस्थान और उसके बाद लोकसभा चुनाव के साथ ही कुछ राज्यों के चुनाव होंगे | इस कारण राजनीतिक ध्रुवीकरण की कोशिशें तेजी से चल रही हैं | तमाम विपक्षी दल मिलकर भाजपा के विरुद्ध जो मोर्चा बनाना चाह रहे हैं उसके पीछे दरअसल संघ का ही भय है | राहुल गांधी भी अपनी यात्रा में संघ के विरुद्ध ही ज्यादा बोलते हैं | ऐसे में संघ प्रमुख ने गत दिवस जो सन्देश दिया वह उन सभी के लिए स्पष्ट संकेत है जो उसे लेकर दिन - रात प्रलाप किया करते हैं | पुरानी कहावत है जिसकी शक्ति बढ़ती है उसी के शत्रु बढ़ते हैं | रास्वसंघ इसका सबसे अच्छा उदाहरण है |

- रवीन्द्र वाजपेयी