Wednesday 30 August 2023

गहलोत का आरोप गंभीर : न्यायपालिका को उनसे सबूत मांगना चाहिए


राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री उदय. यू . ललित के सामने कहा था कि अदालतें  बड़े वकीलों के चेहरे देखकर फैसले देती हैं। उसी तरह की बात वहां मौजूद केंद्र के पूर्व कानून मंत्री किरण रिजजु ने भी कही। लेकिन श्री ललित ने उसका कोई प्रतिवाद नहीं किया ।  जल्द ही वे  सेवानिवृत्त भी हो गए और वह बात लगभग भुला दी गई। उसके बाद श्री रिजजू को उस मंत्रालय से हटा भी दिया गया। इस पर वे तो खामोश हो गए लेकिन गत दिवस श्री गहलोत एक बार फिर न्यायपालिका पर ये कहते हुए हमलावर हो उठे कि उसमें भयंकर भ्रष्टाचार है और कुछ वकील जो लिखकर लाते हैं वैसा ही फैसला आ जाता है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि भ्रष्टाचार निचली से ऊपरी अदालत तक व्याप्त है। और देश वासियों को इस बारे में सोचना चाहिए। ये बात पूरी तरह सही है कि न्यायपालिका के बारे में कानून के जानकारों के अलावा आम लोगों में भी श्रद्धा और विश्वास पहले से काफी घटा है। हमारे देश की फिल्मों में भी न्यायाधीशों की अपराधी तत्वों के साथ मिलीभगत के दृश्य दिखाए जाते रहे हैं। बड़े वकीलों  से अदालतों के प्रभावित होने की अवधारणा भी जनमानस में स्थापित हो चुकी है। लेकिन श्री गहलोत  सामान्य व्यक्ति न होकर राजस्थान जैसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं।  यदि उन जैसा व्यक्ति न्यायपालिका में भयंकर भ्रष्टाचार की बात सार्वजनिक रूप से कहे तो उसे उपेक्षित किया जाना न संभव है और न ही उचित। न्यायपालिका और सरकारों के बीच अधिकारों के अतिक्रमण का विवाद लंबे समय से  चला आ रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के कुछ अहम निर्णयों को जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उलट दिया गया तब  बात प्रतिबद्ध न्यायपालिका तक जा पहुंची थी । वामपंथी मानसिकता के कुछ न्यायाधीशों ने भी खुलकर उसका समर्थन किया। धीरे - धीरे ये शिकायत आम होने लगी कि न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकलकर विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण कर रही है। कालेजियम व्यवस्था पर संसद के सर्वसम्मत निर्णय को जिस तरह सर्वोच्च  न्यायालय ने रद्द किया उसके बाद से ये चर्चा आम हो गई। श्री रिजजू ने इसी संदर्भ में श्री ललित के सामने ही कहा था कि न्यायाधीश यदि न्याय देने से हटकर एग्जीक्यूटिव का काम करेंगे तो फिर समूची व्यवस्था पर फिर से विचार करना पड़ेगा। लेकिन देश के वरिष्ट राजनेता और  मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने न्यायपालिका में भयंकर भ्रष्टाचार होने की जो टिप्पणी की वह बेहद गंभीर और इस बात का संकेत भी कि दूसरों को कठघरे में खड़ा करने वाली न्यायपालिका भी अब घेरे में आ रही है। कार्यपालिका के कार्यों में उसके अवांछित हस्तक्षेप  का आरोप तो फिर भी राजनीतिक मानकर दरकिनार किया जाता रहा लेकिन जब एक मुख्यमंत्री नीचे से ऊपर तक न्यायपालिका को भयंकर भ्रष्ट बता रहा हो तब भी यदि न्यायपालिका खामोश रहती है तब ये माना जाएगा कि वह अपराधबोध से ग्रसित हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाय.चंद्रचूड़ अपने पूर्ववर्तियों से अलग हटकर काफी सख्त और मुखर हैं और किसी दबाव में नहीं आते। उनका कार्यकाल भी काफी लंबा है। उस दृष्टि से ये अपेक्षित है कि वे श्री गहलोत की बात  का संज्ञान लेते हुए उन्हें तलब कर पूछेंगे कि सार्वजनिक तौर पर  न्यायपालिका में सबसे भयंकर भ्रष्टाचार  के आरोप का  आधार क्या है ? इसके अलावा मुख्यमंत्री से ये भी पूछना जरूरी है कि वे कौन से फैसले हैं जिनके बारे में उनका कहना है कि उनकी इबारत वकीलों द्वारा लिखित थी ? सवाल और भी हैं जिनका उत्तर देना न्यायपालिका की नैतिक जिम्मेदारी है क्योंकि वर्तमान वातावरण में जब राजनेता , पत्रकार  , गैर सरकारी समाजसेवी संगठन  और नौकरशाह सभी विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहे हैं तब न्यायपालिका अंधेरी कोठरी में एकमात्र रोशनदान की तरह है। ऐसे में अगर उस पर भी लांछन लगने लगें तब पूरे कुएं में भांग घुली होने जैसी स्थिति बन जायेगी। यद्यपि किसी नेता के कहने मात्र से न्यायपालिका को भ्रष्ट मान लेना भी जल्दबाजी होगी  किंतु मुख्यमंत्री जैसा संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति जब ऐसा कहे तब उससे सवाल तो पूछा ही  जाना चाहिए। बेहतर हो श्री चंद्रचूड़ स्वयं आगे आकर इस बारे में पहल करें  क्योंकि संवैधानिक पद पर विराजमान व्यक्ति यदि न्यायपालिका में सबसे भयंकर भ्रष्टाचार  की शिकायत करे तो उसे नजरंदाज करना आरोप को स्वीकार करने जैसा होगा। 


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 29 August 2023

धारा 370 के समर्थकों को मुख्य न्यायाधीश की बात का जवाब देना चाहिए




सर्वोच्च न्यायालय में धारा 370 हटाए जाने के विरुद्ध पेश की गई याचिकाओं पर चल रही बहस अंतिम चरण में आ गई है। याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई दलीलों के जवाब में सरकार की ओर से उक्त धारा को हटाए जाने के अधिकार और औचित्य साबित करने का प्रयास किया गया। इस दौरान मुख्य बात जो उभरकर सामने आई वह 370 के  अमरत्व की थी । याचिकाकर्ताओं की तरफ से पेश हुए देश के दिग्गज अधिवक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि भारत में विलय के बावजूद जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए उसका पृथक संविधान  बनाया गया था। चूंकि उस हेतु गठित राज्य की संविधान सभा अस्तित्व में नहीं है इसलिए उक्त धारा को समाप्त करना तो दूर रहा छुआ तक नहीं जा सकता। चूंकि 1950 के बाद भारत के संविधान को बनाने वाली संविधान सभा भी भंग हो गई इसलिए जम्मू कश्मीर को 370 और 35 ए के तहत दी गई विशेष स्थिति को बदलना तभी संभव हो सकता है जब उस सभा को पुनर्गठित किया  जावे। संवैधानिक पेचीदगियों से जुड़े और भी सवाल याचिकर्ताओं के अधिवक्ताओं द्वारा पेश किए जा चुके  हैं । इस दौरान मुख्य न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ सहित उनकी अध्यक्षता वाली संविधान पीठ में शामिल न्यायाधीशों ने अधिवक्ताओं से  जो प्रश्न पूछे वे निश्चित रूप से उनके फैसले में परिलक्षित होंगे।  हालांकि पीठ याचिकाओं पर क्या निर्णय करेगी इस बारे में कह पाना तो कठिन है किंतु गत दिवस श्री चंद्रचूड़ ने 35 ए को लेकर जो टिप्पणी की वह बेहद महत्वपूर्ण है। उक्त धारा के अंतर्गत जम्मू कश्मीर के लोगों को दिए गए विशेष अधिकारों को सुरक्षित रखने के पक्ष में दी गई दलील पर मुख्य न्यायाधीश की वह टिप्पणी  इस प्रकरण से जुड़ी तमाम बातों का एक पंक्ति में दिया गया उत्तर है , जिसमें उन्होंने कहा कि 35 ए ने उक्त राज्य के नागरिकों को तो विशेष अधिकार संपन्न बना दिया किंतु देश के बाकी नागरिकों को इस राज्य में बसने , भूमि खरीदने  और  नौकरी करने जैसे अधिकारों से वंचित कर दिया। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि जिन सफाई कर्मियों को पीढ़ियों पहले पंजाब सहित अन्य राज्यों से वहां लाया गया वे सरकारी नौकरी में रहते हुए भी जम्मू कश्मीर की नागरिकता से वंचित रहे और उस आधार पर मतदाता नहीं बन सके। ऐसी ही स्थिति उन शरणार्थियों की भी बनी रही जो रियासत के भारत में विलय के बाद पाकिस्तान से आकर वहां बसे। श्री चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी अदालत से बाहर की गई होती तब तो शायद उसे उनका निजी विचार मानकर उपेक्षित किया भी जा सकता था लेकिन  सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 35 ए को लेकर जो  कुछ कहा उसका संज्ञान लिया जाना स्वाभाविक है । और मुख्य रूप से धारा 370 के हटाए जाने की मांग के पीछे भी यही मुख्य कारण बना । जम्मू कश्मीर का अलग संविधान बनने के बाद संसद द्वारा पारित कानून वहां तब तक लागू नहीं होते थे जब तक उन्हें राज्य विधानसभा पारित न करे। यहां तक कि देश के संविधान के अंतर्गत नियुक्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राज्य के संविधान के अंतर्गत शपथ दिलाई जाती थी। अगस्त 2019 में मोदी सरकार द्वारा जब राज्य की विशेष स्थिति खत्म करते हुए उसे विभाजित कर लद्दाख अलग कर दिया और जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित राज्य बना दिया तबसे वहां की परिस्थितियों में जो बदलाव हुए वे इस निर्णय के औचित्य को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। कहने को विशेष स्थिति उत्तर पूर्वी राज्यों में से भी कुछ को दी गई है किंतु जम्मू कश्मीर की स्थिति उनसे पूरी तरह अलग है जहां जनमत संग्रह के नाम पर उसे भारत से काटने का षडयंत्र शुरुआत से चला आ रहा  था। जिस भारतीय सेना की मौजूदगी का कश्मीर घाटी की अलगाववादी ताकतें विरोध करती रहीं वह अगर सजग न होती तो घाटी पर पाकिस्तान का कब्जा हो जाता। मुख्य न्यायाधीश ने 35 ए के कारण देश के अन्य नागरिकों को जम्मू कश्मीर में अधिकार विहीन  किए जाने का जो  मुद्दा छेड़ा , दरअसल 370 हटाकर राज्य की विशेष स्थिति को खत्म करने का वही सबसे उचित आधार है। जम्मू कश्मीर जिन हालातों में भारतीय संघ में  शामिल हुआ वे निश्चित रूप से बेहद जटिल एवं असामान्य थीं। जब रियासत का भारत में विलय हुआ तब विशेष स्थिति के अंतर्गत ही राज्यपाल को सदर ए रियासत और मुख्यमंत्री को वजीर ए आज़म (प्रधानमंत्री) कहा जाता था। लेकिन बाद में उसे बदलकर बाकी राज्यों की तरह ही राज्यपाल और मुख्यमंत्री जैसे संबोधन लागू  कर दिए गए। इसके बाद भी 370 की आड़ में आजादी के सात दशकों बाद तक कश्मीर घाटी में पाक परस्ती को जिंदा रखा गया। श्री चंद्रचूड़ ने जो प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय में उठाया वह करोड़ों भारतीयों की भावनाओं को शब्द देने वाला है। मुख्य न्यायाधीश का ये कहना मायने रखता है कि जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति के चलते देश में रहने वाले अन्य लोग वहां जमीन खरीदने , बसने और नौकरी पाने जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित थे। जबकि कश्मीर के लोग भारत में कहीं भी रहने और नौकरी पाने स्वतंत्र हैं। न्यायालयीन बहस से अलग हटकर देखें तो श्री चंद्रचूड़ द्वारा उठाया मुद्दा बेहद गंभीर एवं तीखा है। जो लोग 370 को हटाए जाने का विरोध कर रहे हैं उन्हें मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई टिप्पणी पर अपना दृष्टिकोण रखना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 28 August 2023

आधी आबादी को साधने का दांव शिवराज का तुरुप का पत्ता




म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मैदानी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी बन चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि प्रदेश की राजनीति में इस समय उनसे मेहनती राजनेता और कोई नहीं है । और ये भी कि उनका चेहरा शहरों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में भी जाना - पहिचाना है। लंबे समय  से सत्ता में रहने के कारण प्रदेश के प्रत्येक हिस्से में उनका आना - जाना बना रहा । इसलिए  उनकी  छवि उन नेताओं से अलग है जो चुनाव के समय ही चेहरा दिखाते हैं। ये कहना भी गलत नहीं है कि श्री चौहान हर समय खुद को मुकाबले के लिए तैयार रखते हैं। प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव हेतु कांग्रेस ने ये  माहौल बनाया था कि वह 2018 के परिणाम को  दोहराते हुए भाजपा को सत्ता से दूर कर देगी। कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाकर उसने बढ़त लेने की कोशिश की थी । चूंकि भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर काफी सुगबुगाहट थी इसलिए कांग्रेस को उस पैंतरे से  मनोवैज्ञानिक लाभ होता दिखाई देने लगा किंतु ज्योंही वह अनिश्चितता खत्म हुई त्योंही शिवराज सिंह ने पूरी ताकत से मुकाबले में उतरने का हौसला दिखाते हुए कांग्रेस पर ताबड़तोड़ हमले करने का दांव चला। कांग्रेस ने महिलाओं को 1500 रु. हर महीने देने के साथ ही 500 रु.में गैस सिलेंडर देने का वायदा कर भाजपा पर दबाव बनाने की जो कोशिश की वह श्री चौहान के एक ही वार में फुस्स हो गई जब उन्होंने लाड़ली बहना नामक योजना के अंतर्गत जून महीने से करोड़ों महिलाओं को प्रति माह 1000  रु. देने के साथ ही ये वायदा भी कर दिया कि धीरे - धीरे इसे 3000 रु.तक बढ़ा दिया जावेगा। और गत दिवस भोपाल में प्रदेश भर से एकत्र हुए लाखों महिलाओं के बीच 250 रु. उनके खाते में जमा करवाते हुए कहा कि अब अक्टूबर से उनको 1250 रु. दिए जावेंगे । इस तरह कांग्रेस का वायदा तो हवा में रह गया किंतु शिवराज सिंह ने करोड़ों बहनों के खाते में पैसे जमा करवाना शुरू कर दिया। कांग्रेस इस पैंतरे के सामने असहाय होकर रह गई। गत दिवस उन्होंने सावन के महीने में 450 रु. का गैस सिलेंडर देने की घोषणा कर एक और जबरदस्त चाल चलते हुए कांग्रेस को पिछले पांव पर जाने मजबूर कर दिया। साथ ही सितंबर में बढ़े हुए बिजली बिल माफी के अलावा महिलाओं को नौकरी में 35 फीसदी  आरक्षण  और 100 रु. में बिजली के अलावा महिलाओं के सामूहिक विरोध पर शराब दुकान बंद करने जैसी घोषणा कर आधी आबादी को अपने पाले में खींचने का जो दांव चला उसका कांग्रेस के पास फिलहाल कोई जवाब नहीं है। सबसे बड़ी बात ये है कि कांग्रेस वायदा करती रह गई लेकिन  शिवराज सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर वायदे को कार्यरूप में बदलकर अपनी  विश्वसनीयता स्थापित कर ली। अपनी शुरुआती पारियों में श्री चौहान ने लाड़ली लक्ष्मी योजना के जरिए पूरे देश में ख्याति अर्जित की थी। हाल ही में उन्होंने छात्राओं को स्कूटी प्रदान कर युवा मतदाताओं को आकर्षित किया। लाड़ली बहना की पात्र महिलाओं की बेटियों को निःशुल्क शिक्षा की सुविधा का ऐलान भी शिवराज सिंह का बेहद प्रभावशाली कदम है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने औपचारिक तौर पर चुनावी मुकाबला शुरू होने के पहले ही दबाव से बाहर आकर कांग्रेस को रक्षात्मक होने बाध्य कर दिया है। 2018 में भाजपा थोड़े से  अंतर से चूक गई थी जिसके लिए पार्टी के अति आत्मविश्वास को जिम्मेदार ठहराया गया । ऐसा लगता है इस बार मुख्यमंत्री किसी भी प्रकार की खुश फहमी से दूर रहते हुए कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इसीलिए वे कांग्रेस के वायदों के जवाब में नई - नई योजनाओं को अमल में लाकर मतदाताओं पर असर छोड़ने में जुटे हैं। और कुछ  समय पहले तक जो  राजनीतिक विश्लेषक ये मानकर चल रहे थे कि इस बार मुकाबला बेहद कड़ा होगा और कांग्रेस मजबूती के  साथ चुनौती पेश करेगी ,  वे भी मानने लगे हैं कि शिवराज सिंह की सक्रियता और आक्रामक शैली ने  कांग्रेस को फिलहाल तो ठहराव की स्थिति में ला दिया है। भाजपा ने 39 प्रत्याशी घोषित करने का निर्णय लेकर भी कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना दिया है। इसमें दो राय नहीं है कि कांग्रेस कुछ महीनों पहले तक जिस आक्रामक अंदाज में नजर आ रही थी उसमें लगातार कमी आ रही है। ये भी महसूस होने लगा है कि कमलनाथ अकेले ही मैदान में जूझ रहे हैं। दूसरी पंक्ति के नेता भी प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे। एकमात्र दिग्विजय सिंह ही कांग्रेस के दूसरे चेहरे हैं लेकिन वे जितना  फायदा करते हैं उससे  ज्यादा अपने बयानों से पार्टी को नुकसान पहुंचाते हैं। चुनावों की तारीखों का ऐलान अक्टूबर के पहले सप्ताह में संभावित है। उसके साथ ही आचार संहिता लग जायेगी और तब नए कार्यक्रमों और योजनाओं का ऐलान नहीं हो सकेगा और इसीलिए मुख्यमंत्री बिना समय गंवाए लोक लुभावन घोषणाएं  करते जा रहे हैं। कांग्रेस को उम्मीद थी कि वह सत्ता विरोधी रुझान का लाभ लेकर भाजपा पर हावी हो सकेगी किंतु मुख्यमंत्री ने उल्टे  दबाव कांग्रेस पर बना दिया। हालांकि चुनाव में लगभग दो माह हैं और आज के दौर में राजनीति भी टी - ट्वेंटी क्रिकेट जैसी हो गई है किंतु शिवराज सिंह धीरे - धीरे अपना स्कोर जिस तरह बढ़ा रहे हैं उसका पीछा कांग्रेस किस तरह करती है ये देखने वाली बात होगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 26 August 2023

अवैध कालोनियों को वैध करना जनहित में किंतु भविष्य में सख्ती जरूरी



म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गत दिवस प्रदेश की 2700 से अधिक अवैध कालोनियों को वैध घोषित कर उनमें रहने वाले लाखों लोगों को राहत की सांस लेने का अवसर प्रदान कर दिया। इनमें अनेक कालोनियां तो दशकों पहले बनाई गई थीं।अपने घर का सपना  साकार करने के लिए निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों ने इन कालोनियों में अपनी मेहनत की कमाई निवेश कर दी। स्थानीय निकायों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण मकानों  के नक्शे भी स्वीकृत हो गए । उसके बाद वोटों की चाहत में जनप्रतिनिधियों ने वहां बिजली के खंबे लगवा दिए । पानी की पाइप लाइन भी पहुंचा दी गई। लेकिन अवैध कालोनी होने से सड़क , नाली बनाने जैसे कार्य रुके  रहे । जिन कालोनाइजरों ने ऐसी कालोनियाँ बनाईं वे तो पैसा कमाकर चलते बने किंतु उनमें रहने वाले अपने आशियाने के उजड़ जाने के मानसिक तनाव में जी रहे थे  ।  लंबे समय से ये मांग उठती आ रही थी कि इन कालोनियों को वैधता प्रदान की जाए। सरकार भी इनको लेकर अपराध बोध से ग्रसित थी क्योंकि उसका अपना अमला ही इसके लिए जिम्मेदार है। यदि स्थानीय निकाय के अधिकारी - कर्मचारी कर्तव्यनिष्ठ हों तो अवैध कालोनी अस्तित्व में आ ही नहीं सकती । इसलिए ये कहना पूरी तरह सही है कि इनका निर्माण सरकारी मशीनरी द्वारा जानबूझकर की गई अनदेखी के चलते हुआ जिसका कारण किसी से छिपा नहीं है। अन्यथा नौकरशाही के ईमानदार रहते किसी की क्या मजाल है कि कालोनी तो बड़ी बात है , एक मकान भी नियम विरुद्ध बना सके। हालांकि इनमें भूखंड खरीदने वाले की भी ये जिम्मेदारी होती है कि वह कालोनी की वैधता जांच ले किंतु वास्तविकता ये है कि साधारण लोग इतनी गहराई में नहीं जाते और कालोनाइजर तथा बिल्डर  की लुभावनी बातों में फंसकर अपना पैसा फंसा देते हैं। अनेक अवैध कालोनियां ऐसी हैं जिनमें रहने वाले नारकीय स्थिति में जिंदगी बसर कर रहे हैं। विकास होना तो दूर रहा  अवैध होने के कारण आशियाना उजड़ने का डर उनको हमेशा सताया करता था। मौजूदा परिस्थितियों में जब सरकारी भूमि पर बसी झुग्गी झोपड़ी हटाने में भी कानूनी से ज्यादा मानवीयता आड़े आती है तब लाखों घरों को उजाड़ने की कल्पना करना भी असंभव प्रतीत होता है। ये देखते हुए मुख्यमंत्री श्री चौहान की सरकार द्वारा अवैध कालोनियों को  वैधता प्रदान करने का फैसला व्यवहारिक तौर पर समझदारी भरा है।  इसका सबसे बड़ा लाभ ये होगा कि एक तो शासन को इनसे करों की  आय होने लगेगी और दूसरा ये कि उनमें रह रहे लाखों लोगों को समुचित विकास का लाभ मिलेगा। मुख्यमंत्री ने ये स्पष्ट कर दिया कि आगे से अवैध कालोनी बनाने नहीं दी जावेगी । लेकिन ऐसा करने के लिए सरकारी मशीनरी में कसावट लाते हुए उसके मन में ये बात बिठानी जरूरी है कि अवैध कालोनी या उस जैसा कोई भी निर्माण होने पर उसके लिए  संबंधित कालोनाइजर और बिल्डर  तो कसूरवार माना ही जाएगा किंतु अवैध निर्माण को न रोकने वाले अधिकारी और उसके अधीनस्थों पर भी कड़ी कार्रवाई होगी। सही बात तो ये है कि अवैध निर्माण और अतिक्रमण हमारे देश में एक प्रवृत्ति के तौर पर विकसित हो गए हैं। अवैध कालोनियां और झोपड़ पट्टियां लाइलाज बीमारी बन गई हैं । शिवराज सरकार ने अवैध कालोनियों को वैध बनाकर जिस मानवीय पहलू को ध्यान में रखा उसकी जरूरत से कोई इंकार नहीं करेगा । लेकिन देखने वाली बात ये भी है कि अवैध कालोनी , बहुमंजिला काम्प्लेक्स और झुग्गियों की बसाहट में नौकरशाही के साथ राजनेताओं की भी महती भूमिका रहती है। ऐसे में राजनीतिक दलों का भी ये दायित्व है कि अवैध निर्माण करवाने वाले कालोनाइजर , बिल्डर और माफिया को संरक्षण देने से परहेज करें। अक्सर देखा गया है कि किसी अवैध निर्माण को तोड़ने के विरोध में नेतागिरी होने लगती है। इसलिए मुख्यमंत्री श्री चौहान का ये कहना पूरी तरह जायज है कि भविष्य में बनने वाली अवैध कालोनी के विरुद्ध पूरी तरह सख्ती बरती जाएगी। इसमें दो मत नहीं है कि समाज के गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए  अपना  घर बनाना आज भी सपना है। श्री चौहान ने माफिया से खाली कराई गई हजारों एकड़ भूमि गरीबों को पट्टे पर देने की जो घोषणा की वह भी सही निर्णय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बेघरबारों को घर देने की जो योजना शुरू की गई उसके सुखद परिणाम आ रहे हैं। मुंबई में  एशिया की सबसे बड़े झोपड़पट्टी धारावी को सुविकसित कर वहां रह रहे लोगों को पक्के मकानों में स्थानांतरित करने की जो योजना है उसको बाकी शहरों में भी लागू किया जाए तो अरबों -  खरबों की सरकारी जमीन का व्यवसायिक उपयोग किया जा सकता है । साथ ही उस पर काबिज गरीब  भी पक्के घरों में जाकर बेहतर जिंदगी जी सकेंगे। शिवराज सरकार ने अवैध कालोनियों से अवैध का ठप्पा हटाकर सामयिक निर्णय लिया है। लेकिन  भविष्य में अवैध कालोनी बनाने जैसी हिमाकत कोई न कर सके उसके लिए शासन और प्रशासन के साथ ही नेताओं को भी सतर्क रहना होगा । अवैध निर्माण कानूनी अपराध होने के साथ ही सामाजिक बुराई भी है जिसे मिटाए बिना शहर , कस्बे और यहां तक कि गांव तक का व्यवस्थित विकास संभव नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 24 August 2023

कुछ लोगों को देश का गौरवगान भी अच्छा नहीं लगता


चंद्रयान 3 की सफलता पर पूरा देश गौरवान्वित हुआ। इसरो के वैज्ञानिकों ने बीते अनेक वर्षों तक अथक परिश्रम करते हुए भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी विश्व शक्तियों के समक्ष ला खड़ा किया।चंद्रमा के जिस क्षेत्र में चंद्रयान उतरा उससे अब तक अंतरिक्ष वैज्ञानिक अपरिचित थे । इसलिए यह दुस्साहसिक प्रयास था । लेकिन 23 अगस्त की शाम भारत में उल्लास का अभूतपूर्व सूर्योदय लेकर आई जब चंद्रयान ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर धरातल को छू लिया । उसके साथ भेजा गया प्रज्ञान नामक वाहन भी चंद्रमा की धरती पर चहलकदमी करने लगा जिसका काम वहां की भौगोलिक और वातावरण संबंधी जानकारी इसरो को भेजना है। हालांकि ये अभियान  महज दो सप्ताह का है,  लेकिन इसकी सफलता ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हमें वैश्विक दर्जा दिला दिया जो कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस सफलता से उत्साहित इसरो ने तत्काल सूर्य की कक्षा में भेजे जाने वाले आदित्य नामक अभियान की भी घोषणा कर दी। चंद्रयान के चंद्रमा पर उतरने का वीडियो अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा  प्रसारित किया जाना जताता  है कि ये अभियान कितना महत्वपूर्ण था। पूरी दुनिया में इसे भारतीय वैज्ञानिकों के शानदार कारनामे के तौर पर देखा गया किंतु हमारे देश में कुछ लोग हैं  जिन्हें  देश का गौरवगान अच्छा नहीं लग रहा। किसी को प्रधानमंत्री द्वारा दक्षिण अफ्रीका से  वैज्ञानिकों को बधाई देने के साथ ही पूरी दुनिया को अंतरिक्ष में भारत की ऊंची छलांग का ब्यौरा देने पर ऐतराज है तो कुछ इस बात को प्रचारित करने में जुट गए कि इसरो की स्थापना किसने और कब की ।  एक तबका ऐसा भी है जिसे लग रहा है कि अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर लुटाया जा रहा धन पानी में पैसे फेंकने जैसा है। ये लोग अपनी बात के समर्थन में  दावा कर रहे हैं कि जिन देशों ने अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर अनाप - शनाप धन खर्च किया , उन्हें उससे कुछ हासिल नहीं हो सका क्योंकि पृथ्वी से लाखों - करोड़ों किलोमीटर दूर स्थित किसी ग्रह पर काबिज होने के बाद भी वहां रहना संभव नहीं है। एक यू ट्यूबर पत्रकार गत रात्रि इस बात का हिसाब देते रहे कि चंद्रयान पर हुए खर्च से ज्यादा तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा पर व्यय होता है। यद्यपि एक वर्ग ऐसा है जिसने इस बात की जरूरत जताई कि इसरो सरीखे संगठनों को दिया जाने वाला बजट और बढ़ना चाहिए। लंबे समय से वहां वेतन नहीं मिलने की बात भी उछली। देश में शोध और विकास ( रिसर्च एंड डेवलपमेंट ) पर कम ध्यान दिए जाने की बात भी जोरदार तरीके से उठी। टीवी चैनलों में चंद्रयान के सफल आरोहण पर आयोजित चर्चा में बजाय वैज्ञानिकों के राजनीतिक नेताओं को बिठाए जाने पर भी बहुतों ने एतराज किया। और ये बात सही भी है क्योंकि नेताओं का पूरा जोर वैज्ञानिकों द्वारा अर्जित सफलता का श्रेय लूटने पर केंद्रित रहा। कुछ लोगों ने इस उपलब्धि का ये कहकर मजाक भी उड़ाया कि अमेरिका तो 50 साल पहले ही अपने अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर उतार चुका था और हम महज एक यान के वहां पहुंचाकर फूले नहीं समा रहे। कुल मिलाकर देखने पर पता चलता है कि राष्ट्रीय गौरव के विषयों पर भी हम एक सुर में बोलना भूलते जा रहे हैं। गनीमत ये रही कि सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक किए जाने के प्रमाण मांगने वाले चंद्रयान के सफल आरोहण का प्रमाण मांगने की हिम्मत नहीं कर सके किंतु अभियान की सफलता का श्रेय लूटने  के अलावा उसकी उपयोगिता और सार्थकता पर जिस तरह से सवाल उठाए गए वह शुभ संकेत नहीं है क्योंकि इससे दुनिया में हमारी छवि खराब होती है। जिस तरह खेलों में किसी खिलाड़ी अथवा टीम के  जीतने पर पूरा देश उसको बधाई देकर प्रोत्साहित करता है ठीक वैसे ही  वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर उनकी हौसला अफजाई सामूहिक तौर पर होना चाहिए थी। वैसे भी यदि अंतरिक्ष कार्यक्रम की उपादेयता और उपलब्धियों के बारे में उसी क्षेत्र के जानकार अपनी राय व्यक्त करें तो वह बेहतर होता है। लेकिन विज्ञान के बारे में जानकारी न  रखने वाले भी जब ऐसे मामलों में अपना ज्ञान बघारकर उपदेश देने लगते हैं तो दुख होता है। कुछ लोगों को तो इसरो प्रमुख सहित कुछ वैज्ञानिकों के  तिरुपति देवस्थानम जाकर प्रार्थना किए जाने पर भी आपत्ति हुई। लेकिन उक्त अभियान के प्रमुख सोमनाथन द्वारा  वेदों को  विज्ञान के स्रोत के तौर स्वीकार कर ऐसे लोगों को करारा जवाब दे दिया गया। चंद्रयान 3 की सफलता के लिए श्रेय के अधिकारी यदि हैं तो केवल वे वैज्ञानिक जो अनेक वर्षों से इस अभियान को अपने जीवन का मिशन मानकर जुटे रहे। इस सफलता ने भारत का मान पूरी दुनिया में बढ़ाया है। इस पर खर्च हुई राशि ऐसे ही अभियानों पर अन्य देशों द्वारा किए गए खर्च से कम होने से अपने उपग्रह छोड़ने के इच्छुक तमाम देश अब इसरो की सेवा लेने आतुर हैं। इससे इस संगठन की आय भी बढ़ेगी और भविष्य में वह आत्मनिर्भर  हो सकेगा। सर्वविदित है कि अमेरिका की असली ताकत विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में की जाने वाली रिसर्च ही है। ऐसे में  इसरो द्वारा अंतरिक्ष में किए जाने वाले शोध और अध्ययन भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने में सहायक होंगे ये बात उन सभी को समझनी चाहिए जो चंद्रयान 3 की सफलता पर खुश होने के बजाय वैज्ञानिकों की उपलब्धि को कमतर साबित करने का प्रयास कर रहे हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

चंद्रयान : विफलता के बाद मिली सफलता ज्यादा आनंद देती है


स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हमारा सबसे बड़ा नुकसान उस उम्मीद का खो जाना है जिसके जरिए हम खोई हुई हर चीज दोबारा हासिल कर सकते हैं। इसरो ( भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ) ने संभवतः स्वामी जी की उक्त बात से ही प्रेरणा ली । इसीलिए कुछ वर्ष  पूर्व चंद्रमा पर अपना यान उतारने में असफल रहने के बावजूद उम्मीद नहीं छोड़ी और अंततः  वह  कर दिखाया जो अमेरिका , रूस और चीन तक नहीं कर सके। इन देशों की तुलना में इसरो के पास उपलब्ध संसाधन बेहद सीमित हैं। हमारे देश में अंतरिक्ष कार्यक्रमों हेतु दिया जाने वाला बजट भी अपेक्षाकृत  काफी कम है। इसके बावजूद भी  इसरो के  वैज्ञानिकों ने चंद्रयान को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतारकर पूरी दुनिया में अपनी धाक जमा दी। उल्लेखनीय है  चंद्रयान 3 के प्रक्षेपण के बाद रूस द्वारा भी लूना 25 नामक यान  छोड़ा  जो चंद्रमा की धरती को छूने के पहले ही नष्ट हो गया। उसके कारण इसरो में भी आशंका का माहौल बना किंतु चंद्रयान के सारे उपकरण जिस तरह ठीक से काम कर रहे थे उससे वैज्ञानिकों का आत्मविश्वास भी आसमान छू रहा था। पिछले अभियान की असफलता से  निराश हुए बिना इसरो ने गलतियों को सुधारने पर पूरा ध्यान दिया और इसीलिए इस बार शुरु से ही वैज्ञानिक पूरी तरह आश्वस्त नजर आ रहे थे जो कल शाम को निर्धारित समय पर चंद्रयान के चंद्रमा की धरती छूते ही सही साबित हुआ। दक्षिणी ध्रुव के बारे में ये कहा जाता है कि वहां सूर्य की रोशनी कम आती है। फिलहाल वहां उजाला है जो अगले 14 दिन जारी रहेगा और इसी दौरान चंद्रयान के साथ गया प्रज्ञान नामक छोटा सा वाहन सतह पर घूम - घूमकर चित्र खींचकर भेजेगा ,  जिसने आज अपना काम शुरू भी कर दिया है। इस मिशन का असली उद्देश्य चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता लगाना है जिसके आधार पर वहां जीवन की संभावना का पता चल सकेगा।  इस अभियान को अंतरिक्ष कार्यक्रम का बड़ा कदम कहा जा सकता है क्योंकि यह चंद्रमा के उस हिस्से से जुड़ गया जहां पहुंचने में अभी तक किसी देश को सफलता नहीं मिली थी। इसीलिए पूरी दुनिया की निगाहें चंद्रयान की  सफलता पर लगी हुई थीं। अंतरिक्ष अभियान एक जमाने में अमेरिका और रूस के बीच  शीतयुद्ध का कारण भी बने। रूस के यूरी गागरिन सबसे पहले मानव थे जो अंतरिक्ष में गए। बाद में अमेरिका ने नील आर्मस्ट्रांग को चंद्रमा पर उतारकर अपनी श्रेष्ठता साबित की। हालांकि सोवियत संघ के बिखरने के बाद रूस कुछ ठंडा पड़ा जिससे प्रतिस्पर्धा थोड़ी कम हुई किंतु इसी बीच चीन भी बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरा । लेकिन अनेक विकसित देशों को अंतरिक्ष कार्यक्रम सफेद हाथी प्रतीत हुआ और उन्होंने दूसरे देशों की प्रक्षेपण  सेवाएं लेकर अपने उपग्रह भेजना शुरू कर दिया। प्रारंभ में भारत भी ऐसा ही कर रहा था। रूस के उपग्रह में उसने राकेश शर्मा नामक  अपना पहला अंतरिक्ष यात्री भेजा था । लेकिन इसके  अलावा मौसम की जानकारी और संचार सुविधाओं के लिए ही उपग्रह छोड़े जाते रहे। 2014  में मंगल यान के जरिए भारत उसकी कक्षा में पहुंचने वाला पहला एशियाई देश बना । वह सफलता इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि वह पहले प्रयास में हासिल हुई। उसके बाद से ही इसरो के प्रति दुनिया का नजरिया बदला और अमेरिका तथा रूस सहित बाकी महाशक्तियों के मन में जो श्रेष्ठता का अभिमान था वह जाता रहा। बीते वर्षों में भारत द्वारा अनेक देशों के उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया जो इसरो का व्यवसायिक पक्ष है। दरअसल विकसित देशों की तुलना में इसरो के जरिए प्रक्षेपण  सस्ता होने से छोटे - छोटे देश उसकी सेवाएं लेने लगे। इसी सबसे चंद्रमा पर आरोहण का हौसला जन्मा जो गत दिवस मूर्तरूप ले सका। इसके बाद इसरो अंतरिक्ष में अपने यात्री भेजने के संकेत दे रहा है। सूर्य सहित अन्य ग्रहों तक पहुंचने के कार्यक्रम भी घोषित हो रहे हैं। दरअसल अंतरिक्ष कार्यक्रम केवल अन्य ग्रहों तक पहुंचकर वहां के चित्र लेने तक सीमित नहीं रहा,  अपितु पृथ्वी के  भविष्य से जुड़े प्रश्नों का उत्तर खोजने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। मौसम और संचार के अलावा जासूसी भी इसके माध्यम से होती है। भविष्य में यदि भारत गूगल जैसा  अपना सर्च इंजिन विकसित करना चाहे तब उसे अपने उपग्रहों के माध्यम से ऐसा करना सुरक्षित रहेगा । सबसे बड़ी बात ये है कि इसरो की इस सफलता के बाद हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम आत्म निर्भरता के स्तर तक जा पहुंचा है। इसका सबसे बड़ा लाभ ये होगा कि देश के वे युवा वैज्ञानिक जो बेहतर भविष्य की खातिर अमेरिका के अंतरिक्ष संगठन नासा से जुड़ना चाहते हैं , उनके मन में भी अपने देश में रहकर काम करने का भाव उत्पन्न होगा। चंद्रयान 3 की सफलता ने हर भारतीय को आत्मगौरव की अनुभूति का अवसर दिया है। इससे विदेशों में रहने वाले उन भारतीयों  में भी मातृभूमि के प्रति सम्मान और लगाव विकसित होने की उम्मीदें बढ़ गई हैं जो भारत को हेय दृष्टि से देखते आए हैं। दुनिया जिस तरह से डिजिटल होती जा रही है उसे देखते हुए  उपग्रह सेवा के लिए पूर्ण आत्मनिर्भरता आवश्यक है। आज की दुनिया में डेटा सबसे बड़ी पूंजी बनता जा रहा । इसका भंडार और गोपनीयता दोनों महत्वपूर्ण हैं। उस दृष्टि से इसरो ने जो कामयाबी हासिल की है उसे बड़ी यात्रा के लिए बढ़ाए गए कदम के तौर पर देखा जा सकता  है। भले ही आज भी वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीक की दृष्टि से भारत , अमेरिका और रूस जैसे देशों से पीछे हो किंतु चंद्रयान 3 की शानदार कामयाबी के बाद यह अंतर कम हुआ है। भले ही हमारे अंतरिक्ष यात्री उनके स्तर तक  न पहुंचे हों किंतु चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अपना यान उतारने वाला प्रथम देश होने का गौरव अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में भारत के नाम दर्ज होना बहुत बड़ी बात है। इसरो के समूचे दल को इस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनाने के लिए हर भारतवासी की ओर से हार्दिक बधाई के साथ भावी सफलताओं के लिए अनंत शुभकामनाएं। 


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 23 August 2023

चीन के लड़खड़ाने का लाभ हमें मिल सकता है बशर्ते .....



बीते कुछ दिनों से चीन की अर्थव्यवस्था के   हिचकोले लेने की खबरें आ रही है। मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ने के साथ ही निर्यात में भी कमी आने की खबर है। विदेशी पूंजी वियतनाम , सिंगापुर , थाईलैंड और भारत जैसे देशों में स्थानांतरित हो रही है। कोरोना संकट के दौरान विश्व भर में चीन की जो नकारात्मक छवि बनी यह उसका ही प्रभाव है। भारत के बाजार भी चीनी सामान के दबाव से उबर रहे हैं । दवा उद्योग में हुए  शोध और अनुसंधान का सुपरिणाम कच्चे माल का आयात घटने के रूप में सामने आया है। लगभग बंद हो चुका घरेलू खिलौना उद्योग भी दोबारा उठ खड़ा हुआ है। उत्पादन के क्षेत्र में भी  भारतीय औद्योगिक इकाइयां बेहतर प्रदर्शन करने लगी हैं। जिसके कारण रोजगार के अवसर बढ़ने के साथ ही आयात में कमी आई है। जीएसटी संग्रह में निरंतर वृद्धि भी  आर्थिक स्थिति मजबूत होने का संकेत है। वहीं ऑटोमोबाइल और  जमीन - जायजाद के व्यवसाय में  उछाल से भी अर्थव्यस्था  में सुधार हुआ है । ऐसे में   वैश्विक स्तर की संस्थाओं द्वारा भारत की विकास दर के बारे में आशाजनक तस्वीर पेश की जा रही हो तब संदेह की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।   इस बारे में दो बातें  उल्लेखनीय हैं। पहली तो कोरोना महामारी के दौरान भारत में आर्थिक , सामाजिक और चिकित्सा क्षेत्र में किया गया बेहतर प्रबंधन और दूसरा यूक्रेन संकट से उत्पन्न वैश्विक परिस्थिति में विदेश  और आर्थिक नीतियों में  बेहतरीन सामंजस्य। ये बात पूरी दुनिया स्वीकार कर चुकी  है कि कोविड काल में भारत जैसे विशाल देश में  जरूरी चीजों की आपूर्ति निर्बाध जारी रहने से अराजकता नहीं हुई । लॉक डाउन के दौरान मालवाहक वाहनों को लूटने की एक भी वारदात न होना इसका प्रमाण है । टीकाकरण अभियान  तो पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया।  लेकिन कोरोना के जाते ही दुनिया एक नए संकट में फंस गई जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया। पहले - लगा था कि यह लड़ाई जल्दी खत्म हो जायेगी क्योंकि रूस जैसी महाशक्ति के सामने यूक्रेन ज्यादा नहीं टिक पाएगा । लेकिन देखते - देखते दो देशों की लड़ाई ने शीतयुद्ध को पुनर्जीवित कर दिया। अमेरिका और उसके समर्थक देशों ने  रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने के अलावा यूक्रेन को अस्त्र - शस्त्र के साथ ही  आर्थिक सहायता देना शुरू कर दिया। इसकी वजह से लड़ाई  डेढ़ साल से चली आ रही है। परिणामस्वरूप दुनिया भर में कच्चे तेल , गैस और खाद्यान्न का संकट पैदा हो गया। कोविड रूपी विपदा का असर पूरी तरह खत्म हो पाता उसके पहले ही आ टपकी इस मुसीबत ने  तमाम देशों की अर्थव्यवस्था के लिए दूबरे में दो आषाढ़ वाली स्थिति पैदा कर दी। समूचा यूरोप गैस संकट में फंस गया। रूस और यूक्रेन बड़े खाद्यान्न उत्पादक  रहे हैं। ऐसे में इस युद्ध से दुनिया के बड़े हिस्से में अन्न की कमी हो गई। यूक्रेन तो सूरजमुखी का भी सबसे बड़ा निर्यातक है जिसका उपयोग खाद्य तेल बनाने में किया जाता है। रूसी हमलों ने वहां  जिस पैमाने पर तबाही मचाई उससे भारत भी  अप्रभावित कैसे रह सकता था ? खाद्यान्न तो  नहीं  किंतु कच्चे तेल का काफी आयात चूंकि रूस से होता रहा इसलिए युद्ध शुरू होते ही चिंता  बढ़ने लगी । लेकिन भारत ने अमेरिका के दबाव को नजरंदाज करते हुए तटस्थता की नीति अपनाते हुए  रूस के साथ सस्ती दरों पर कच्चे तेल की खरीदी का जो अनुबंध किया उसने अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने से बचा लिया । अन्यथा हालात बेकाबू हो सकते थे। इसी का असर है कि गाड़ी सुचारू रूप से चलती रही । इस दौरान भारत को खाद्यान्न के अलावा अन्य जरूरी वस्तुओं का निर्यात करने का अवसर मिलने से घरेलू उद्योगों को संजीवनी मिल गई क्योंकि डालर के दाम भारतीय रुपए के तुलना में काफी ऊंचे हैं। कोरोना काल के दौरान भारत में ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में लगने वाले सेमी कंडक्टरों की कमी से बड़ी परेशानी हुई। उससे सबक लेकर सरकार ने इनका उत्पादन भारत में ही करने की दिशा में जो पहल की उससे भी अर्थव्यवस्था का विश्वास बढ़ा है। रक्षा उपकरणों की खरीद के साथ उनका निर्यात भारत के बढ़ते कदमों का प्रमाण है। स्थितियां जिस तरह अनुकूल हो रही हैं उनसे एक सुनहरे भविष्य की कल्पना साकार होने की संभावना बढ़ रही है किंतु अभी भी ब्याज दर , टैक्स ढांचा , जीएसटी की विभिन्न दरें और सबसे बड़ा नेताओं और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार   आर्थिक क्षेत्र में गति अवरोधक बने हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यदि उक्त बुराइयां दूर कर सकें  तो अर्थव्यवस्था में अकल्पनीय उछाल आ सकती है। साथ ही केंद्र स्तर पर इस तरह की पहल होना चाहिए  जिससे कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने पर लगाम लगे। जिस युवा शक्ति को श्री मोदी भारत का भविष्य निर्माता मानते हैं उसकी क्षमता का समुचित उपयोग उत्पादकता बढ़ाने में किया जाना समय की मांग है। जहां तक बात चीन की हालत बिगड़ने की है तो उसका  कारण वह खुद है क्योंकि उसने अपनी अर्थव्यस्था को तो दुनिया के लिए खोल दिया किंतु राजनीतिक व्यवस्था अभी भी साम्यवादी बेड़ियों में जकड़ी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चीन से  मोहभंग का कारण पारदर्शिता का अभाव ही है। यदि भारत पूरी तरह से पेशेवर होकर अपने मानव संसाधन को  काम पर लगा दे तो अमृत काल अपने नाम को सार्थक साबित कर देगा।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 22 August 2023

5 फीसदी मत मिले तो भी कमलनाथ का खेल खराब कर देंगे केजरीवाल




आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बीते रविवार म.प्र के विंध्य अंचल में चुनाव प्रचार किया। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान उनके साथ थे। इसके पूर्व वे दोनों भोपाल और ग्वालियर में भी रैली कर चुके हैं। पार्टी इसके पहले भी म.प्र में चुनाव लड़ चुकी है किंतु उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नगरीय चुनाव में जरूर सिंगरौली में महापौर के साथ ही कुछ जगह उसके पार्षद  जीत गए। गुजरात विधानसभा में इस पार्टी ने  जिस तरह   प्रचार किया उस लिहाज से तो उसे कामयाबी नहीं मिली किंतु उसने कांग्रेस की लुटिया जरूर डुबो दी। कर्नाटक के हालिया  चुनाव में भी उसकी जमानत जप्ती का सिलसिला जारी रहा । इसके पूर्व पंजाब में भारी बहुमत के बावजूद हिमाचल में उसके हाथ पूरी तरह से खाली  रहे। उस समय तक आम आदमी पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों को अपना दुश्मन मानकर चलती थी । लेकिन दिल्ली की स्थानीय परिस्थितियों ने केजरीवाल एंड कम्पनी की अकड़ निकालकर रख दी और वह कांग्रेस के साथ गठजोड़ के लिए हाथ - पांव मारने लगी। यही नहीं तो जो गैर भाजपाई नेता उसके  द्वारा जारी भ्रष्टाचारियों की सूची में सबसे ऊपर थे उन्हीं के साथ गलबहियां करने  लालायित हो उठी । दिल्ली में नौकरशाहों के तबादले और पद स्थापना को लेकर केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश के बाद जब श्री केजरीवाल को लगा कि वे अकेले नहीं लड़ पाएंगे तब वे विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बन गए। लेकिन उक्त अध्यादेश को राज्यसभा में पारित होने से रोकने की उनकी सारी कोशिशें विफल हो गईं। वहीं  दिल्ली तथा पंजाब के कांग्रेस नेताओं तक ने आम आदमी पार्टी के साथ रिश्ता रखने का खुलकर विरोध कर दिया । कांग्रेस के कुछ नेताओं ने तो दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान तक कर दिया ।  इस घटनाक्रम के बाद श्री केजरीवाल और श्री मान का म.प्र के दौरे पर आकर चुनाव प्रचार करना इस बात का संकेत है कि अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद आम आदमी पार्टी का विपक्षी एकता के प्रति नजरिया बदलने लगा है। विंध्य के दौरे में श्री केजरीवाल ने  मुफ्त बिजली , बेरोजगारी भत्ता के साथ विद्यालय और अस्पताल जैसे वायदे ही किए किंतु उनकी विधानसभा चुनाव में मौजूदगी निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए नुकसानदेह होगी , जिसका अनुभव गुजरात में हो चुका है। हालांकि हिमाचल और कर्नाटक में आम आदमी पार्टी के मैदान में होने के बावजूद कांग्रेस को सफलता मिली किंतु उसका कारण ये रहा कि उसने  पंजाब पर ज्यादा ध्यान दिया वहीं कर्नाटक में जनता दल (से) की उपस्थिति ने उसके लिए जगह नहीं बनने दी । लेकिन  इस वर्ष के अंत तक जिन तीन राज्यों मसलन म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में  विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां की राजनीति अभी तक कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सीमित रही है । सपा , बसपा या ऐसी ही कुछ ताकतें मैदान में आईं किंतु उनको ज्यादा समर्थन नहीं मिला । उस दृष्टि से आम आदमी पार्टी चूंकि दिल्ली  के साथ ही पंजाब में  भी सत्ता में आ गई है इसलिए वह तीसरी ताकत के तौर पर उक्त तीनों राज्यों में हाथ आजमाकर 2024 के महा मुकाबले के लिए अभ्यास करना चाह रही है। श्री केजरीवाल जानते हैं कि इन तीनों में सरकार बनाना तो दूर रहा उनकी पार्टी मान्यता प्राप्त विपक्ष तक नहीं बन सकेगी । लेकिन इससे उत्तर भारत में बतौर राष्ट्रीय पार्टी उसका संज्ञान लिया जाने लगेगा और जो मतदाता भाजपा विरोधी और कांग्रेस से निराश हैं वे उसे विकल्प के रूप में स्वीकार कर लेंगे। इस लिहाज से श्री केजरीवाल का म. प्र दौरा  मायने रखता है क्योंकि उक्त तीनों में से यही ऐसा राज्य है जहां भाजपा सत्तासीन है।  आम आदमी पार्टी यहां जितने मत बटोरेगी उसका बड़ा हिस्सा कांग्रेस के खाते से ही निकलेगा। इसीलिए ये चौंकाने वाली बात है कि इंडिया नामक गठबंधन में शामिल रहने के बाद भी श्री केजरीवाल ने कांग्रेस का लिहाज किए बिना म.प्र में मोर्चा खोल दिया। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी उनकी पार्टी सक्रिय है। दूसरी तरफ जिस कांग्रेस ने संसद में दिल्ली अध्यादेश का खुलकर विरोध करते हुए आम आदमी पार्टी को  समर्थन दिया वह भी इस रवैए को लेकर हतप्रभ है। वैसे जहां तक बात श्री केजरीवाल की है तो वे मौजूदा राजनीति के सबसे चालाक नेता हैं जो केवल अपने फायदे से  मतलब रखते हैं । इसलिए कांग्रेस उनको राष्ट्रीय स्तर पर अपने साथ रखकर यदि सोचती हो कि उनका उपयोग कर लेगी तो इससे बड़ी गलतफहमी दूसरी नहीं हो सकती। श्री केजरीवाल को ये बात अच्छी तरह पता है कि राहुल गांधी को ताकतवर बनाने से उनकी संभावनाएं प्रभावित हो सकती हैं इसलिए वे कांग्रेस के साथ रहकर भी उसे कमजोर करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में म.प्र विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी यदि 5 फीसदी मत भी ले गई तो कांग्रेस के लिए बड़े नुकसान का कारण बनेगी । 2018 में सत्ता से बाहर होने के बाद भी भाजपा को कांग्रेस से 1 प्रतिशत ज्यादा मत मिले थे। ऐसे में केजरीवाल एंड कं. ने वाकई  गुजरात जैसा आक्रामक चुनाव लड़ा तब वे कमलनाथ की महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेर देंगे जो बीते लगभग चार साल से अपनी खोई हुई सत्ता हासिल करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 21 August 2023

दिग्विजय अभी भी कांग्रेस का बंटाधार कराने पर आमादा




म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कुछ न कुछ ऐसा कह देते हैं जो कांग्रेस के लिए मुसीबत बन जाता है। प्रदेश में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज उठने के बाद  वरिष्ट राजनेताओं से अपेक्षा की ही जाती है कि ऐसा कुछ न कहें जिससे समाज का वातावरण खराब हो। लेकिन दस साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद भी श्री सिंह  इस तरफ ध्यान नहीं देते और गाहे बगाहे विवादास्पद बयान देकर अपनी छवि खराब करने के साथ ही कांग्रेस के लिए भी मुसीबतें पैदा करने से बाज नहीं आते। विगत दिवस उन्होंने ये कहते हुए सनसनी फैलाने का प्रयास किया कि भाजपा प्रदेश में हरियाणा के नूंह जैसी घटना को अंजाम देने की कोशिश कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री होने के साथ ही श्री सिंह  संगठन के जिम्मेदार पदों पर रहे हैं। वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य भी हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते आरोप - प्रत्यारोप अपनी जगह हैं लेकिन जब श्री सिंह ने इतना गंभीर आरोप लगा दिया है  तब उनको चाहिए था पुलिस महानिदेशक से मिलकर ठोस प्रमाण भी देते। लेकिन  उनमें दायित्वबोध का सदैव अभाव रहा है और इसीलिए  चुनाव जैसे संवेदनशील समय में उन्होंने दंगे कराए जाने जैसी बात उछाल दी। नूंह में हुए दंगे का असर  कुछ -  कुछ  पड़ोसी राज्य उ.प्र और राजस्थान में भी हुआ किंतु जनता की समझदारी से जल्द ही हालात सामान्य हो गए । ये बात भी सामने आ गई कि उनमें रोहिंग्या मुसलमानों का हाथ था । वर्तमान में  म.प्र का सांप्रदायिक माहौल पूरी तरह शांत है। सिमी प्रभावित इलाकों में लगातार देश विरोधी तत्वों की धरपकड़ के अलावा माहौल बिगाड़ने वालों पर की गई सख्ती भी कारगर रही है। हाल ही में मोहर्रम और सावन के अवसर पर  पड़ने वाले त्यौहार एक साथ सम्पन्न हुए । यद्यपि कुछ स्थानों पर नूंह जैसी हरकत की गई किंतु उस पर तत्काल काबू कर स्थिति बिगड़ने से बचा ली गई। ये देखते हुए श्री सिंह न जाने किस आधार पर आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा म.प्र में भी नूंह जैसा उत्पात करवाने की कोशिश में है। दो दिन पूर्व भोपाल में कांग्रेस द्वारा आयोजित अधिवक्ताओं के सम्मेलन में उन्होंने भाजपा पर घिसे - पिटे आरोप लगाते हुए कहा कि  आगामी विधानसभा चुनाव में पराजय के भय से वह दंगा करवा सकती है। साथ ही  मुसलमानों के प्रति भाजपा के रवैए की भी आलोचना कर डाली ।  पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते  उनका फर्ज  था कि दंगे कराने की  भनक लगते ही कानून व्यवस्था बनाए रखने वाली एजेंसी को उसकी जानकारी देते। ऐसा करने पर निश्चित तौर पर उनकी परिपक्वता और एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका प्रमाणित होती। लेकिन उन्होंने  हवा में  तीर चलाने की अपनी आदत के अनुरूप ही आरोप लगा डाले। फिलहाल  प्रदेश में सांप्रदायिक सद्भाव कायम है। समय - समय पर इसे बिगाड़ने की जो हिमाकत हुई  उसे निष्फल कर दिया गया। उल्लेखनीय है  प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ भाजपा से मुकाबले हेतु  बेहद चतुराई से नर्म हिंदुत्व का सहारा लेते हुए मंदिरों  - मठों में मत्था टेकने के साथ ही बाबाओं की अभ्यर्थना में लगे  हैं। छिंदवाड़ा में बागेश्वर धाम के महंत धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की आरती उतारे जाने पर विपक्षी गठबंधन में शामिल कुछ दलों ने उस पर सवाल भी उठाए क्योंकि श्री शास्त्री खुले आम  हिन्दू राष्ट्र की वकालत करते हैं। लेकिन  श्री नाथ से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने  देश सभी का होने की बात तो कही किंतु ये भी स्वीकारा कि 82 फीसदी हिंदुओं के रहते ये देश हिन्दू  ही तो है। हाल ही में श्री नाथ ने  उज्जैन स्थित महाकालेश्वर में पूजा अर्चना करने के अवसर पर सरकार बनने के बाद  पहली कैबिनेट बैठक उज्जैन में करने की घोषणा तक कर डाली। लेकिन एक तरफ जहां हिन्दू मतदाताओं को लुभाने वे कांग्रेस की घोषित नीतियों तक की अवहेलना कर रहे हैं वहीं उसके दूसरे बड़े नेता दिग्विजय  हिंदुओं को  भाजपा के पक्ष में  ध्रुवीकृत होने उकसा रहे हैं।  कभी -  कभी तो लगता है चर्चा में बने रहने के लिए वे इस तरह के बयान देते हैं । लेकिन इतने अनुभवी नेता को  समझना चहिए कि  ऐसी  टिप्पणियों से कांग्रेस को देश भर में शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। आतंकवादियों के प्रति सम्मानजनक संबोधन के अलावा भारतीय सेना से सर्जिकल स्ट्राइक कर प्रमाण मांगने जैसी उनकी बातों से तो पार्टी तक ने पल्ला झाड़ लिया था। ये देखते हुए  कांग्रेस को चाहिए दिग्विजय सिंह को चुप रहना सिखाए वरना वे कांग्रेस का बंटाधार करवाने से बाज नहीं आयेंगे।


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 19 August 2023

चुनाव के समय ऐसे आरोप अर्थहीन : कमलनाथ अवसर का लाभ लेने में चूक गए



म.प्र में कांग्रेस द्वारा शिवराज सरकार के कथित घोटालों की जो सूची बड़े ही तामझाम के साथ जारी की उस पर भाजपा की जवाबी प्रतिक्रिया काफी जोरदार है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ ही प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णुदत शर्मा ने भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ पर तीखे हमले करते हुए उन्हें करप्शन नाथ कहकर संबोधित किया । उल्लेखनीय है अपनी पिछली म.प्र यात्रा के दौरान इंदौर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी श्री नाथ के लिए उक्त संबोधन का उपयोग किया था। वैसे भी  आरोपों की प्रामाणिकता संदिग्ध है। और इसीलिए भाजपा ने बिना देर किए कमलनाथ पर सीधा निशाना साधते हुए 1984 के सिख विरोधी दंगों में उनकी भूमिका का उल्लेख कर दिया जो  उनके  साथ ही समूची कांग्रेस की दुखती रग  है । जहां तक बात घोटालों को उजागर करने की है तो ये विपक्ष का कर्तव्य है लेकिन कमलनाथ और उनकी टीम ने जो समय इसके लिए चुना उससे लग रहा है कि कांग्रेस केवल चुनावी लाभ लेने के लिए घोटालों का ढोल पीट रही है। यदि उसके पास वाकई ठोस प्रमाण हैं तब उसे लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अनुसंधान जैसी एजेंसियों के पास शिकायत दर्ज करवाना चाहिए थी। इसके साथ ही वह न्यायपालिका का सहारा भी ले सकती थी। 2003 में दिग्विजय सिंह की सत्ता को जनता ने  हटाया था जिन्हें मिस्टर बंटाधार के नाम से जाना जाता था। उनके दस वर्षीय शासनकाल में म.प्र में सड़कों की हालत बद से बदतर हो गई थी। पूरा प्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा था। 2003 के बाद 2018 में एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में आई थी किंतु अपनी आंतरिक कलह से उसके विधायक ही उसका साथ छोड़ गए जिससे मात्र 15 महीने में ही कमलनाथ की कुर्सी छिन गई । उस अल्पावधि में जिस व्यापक पैमाने पर तबादले किया गए उनमें भी जबरदस्त भ्रष्टाचार के आरोप लगे । और इसीलिए प्रदेश की जनता ने कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। कमलनाथ मामूली अंतर से विधानसभा उपचुनाव जीत सके वहीं लोकसभा  सीट पर  उनका बेटा नकुल नाथ भी फीकी जीत दर्ज कर पाया और वह भी इसलिए कि नरेंद्र मोदी की सभा छिंदवाड़ा में नहीं हो सकी थी। हवा का रुख समझकर ही कांग्रेस का एक धड़ा ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ उससे अलग हो गया और वह सरकार धराशायी हो गई। उसके बाद से ही श्री नाथ दोबारा सत्ता में आने के लिए बेचैन हैं।  लंबे समय तक वे नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष दोनों बने रहे। जब पार्टी के भीतर ही उनका विरोध होने लगा तो अध्यक्ष का पद रखते हुए दिग्विजय सिंह के खासमखास डा.गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनवा दिया। बावजूद इसके प्रदेश कांग्रेस में उनके नेतृत्व को लेकर असंतोष सतह पर उतराता रहता है। प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने बिना पार्टी की सहमति लिए ही स्वयं को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश  कर दिया जिससे पार्टी के भीतर नाराजगी है। हाल ही में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग भी उठाई गई जिसके पीछे श्री नाथ विरोधी गुट बताया जाता है। इस सबसे बचने के लिए ही उन्होंने प्रदेश सरकार के विरुद्ध आरोपों का पिटारा खोलने का दांव चला । लेकिन विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू होने के बाद इस तरह के पैंतरे विश्वसनीय नहीं माने जाते। सही बात तो ये है कि महज 15 महीने छोड़कर म.प्र  में कांग्रेस बीते लगभग दो दशक से विपक्ष में है । लेकिन जैसा संसद में दिखाई देता है ठीक उसी तरह प्रदेश में भी वह विरोधी दल की भूमिका का निर्वहन ठीक तरह से नहीं कर सकी। विधानसभा के सत्रों में वह सरकार को घेर सकती थी किंतु हंगामा और बहिर्गमन उसकी आदत में शुमार हो जाने के कारण वह सदन का समुचित उपयोग नहीं कर पाई । इसका प्रमाण ये है कि बीते दो दशकों में  विधानसभा का शायद ही कोई सत्र पूरी अवधि तक चल पाया हो। कुछ तो हफ्ते भर भी नहीं चले। ऐसे में श्री नाथ द्वारा गत दिवस जो आरोप प्रदेश सरकार पर लगाए गए वे एक दो दिन तक अखबारी पन्नों में नजर आने के बाद भुला दिए जायेंगे ।  हालांकि ये मान लेना तो अतिशयोक्ति होगा कि  भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त हो चुका है। लेकिन उसको रोकने के लिए  संबंधित एजेंसियां जिस तरह से सक्रिय हैं वैसा कांग्रेस राज में कभी नहीं देखा गया। लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अनुसंधान द्वारा जिस बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचारियों को पकड़ा गया वह इस बात का प्रमाण है कि भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने का प्रयास सरकारी स्तर पर चल रहा है। कमलनाथ और उनकी पार्टी  विधानसभा चुनाव के ठीक पहले घोटालों की जो सूची लेकर आई उन पर मतदाताओं का ध्यान इसलिए नहीं जायेगा क्योंकि उसका उद्देश्य भ्रष्टाचार का विरोध न होकर चुनावी लाभ लेने की कोशिश ही है। वहीं भाजपा ने भी तत्काल ढेर सारे तीर छोड़कर आक्रमण ही सबसे अच्छी सुरक्षा की नीति अपना ली। दरअसल कमलनाथ को 15 महीने तक बतौर मुख्यमंत्री पार्टी की छवि सुधारने का जो अवसर मिला उसे उन्होंने गंवा दिया। इसी कारण न वे अपनी विश्वसनीयता बना सके और न ही कांग्रेस की।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 18 August 2023

गुलाम नबी को अब समझ में आया कि मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू थे




हालांकि वे पहले भी कह चुके हैं कि 600 वर्ष पूर्व इस देश में सभी हिन्दू थे। लेकिन जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री के अलावा केंद्र सरकार में लंबे  समय तक मंत्री रहे गुलाम नबी आजाद द्वारा वर्तमान हालातों में अपनी उक्त बात दोहराया जाना बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने ये भी कहा कि कश्मीर में जितने मुसलमान हैं वे सैकड़ों वर्ष पहले पंडित ही थे। हाल ही में डोडा में दिए उनके भाषण का जो वीडियो सामने आया उसमें उन्हें ये कहते सुना जा रहा है कि हिन्दू धर्म इस्लाम से बहुत पुराना है। भारत में रहने वाले मुसलमान  इसी देश में जन्मे हैं। 1500 साल पहले इस्लाम के आने तक कोई मुसलमान था ही नहीं। इसी आशय का बयान नेशनल कांफ्रेंस के नेता डा.फारुख अब्दुल्ला भी  देते रहे हैं जिनके मुख्यमंत्री काल में  कश्मीर घाटी के हिंदू कश्मीरी पंडितों के साथ वही सब हुआ जो देश के बंटवारे के समय पाकिस्तान से जान बचाकर आए सिंधी और पंजाबी हिंदुओं के साथ घटा था। आज फारुख कहते हैं कि बिना पंडितों के कश्मीर अधूरा है । यद्यपि  उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री बने किंतु दोनों ने  पंडितों की वापसी के लिए सिवाय घड़ियाली आंसू बहाने कुछ नहीं किया।  श्री आजाद भी राज्य और केंद्र की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे किंतु तब उनके श्रीमुख से ऐसे  वचन शायद ही किसी ने सुने हों। जाहिर है ये सब निकट भविष्य में होने वाले   विधानसभा  चुनाव को देखते हुए कहा जा रहा है।  गुलाम नबी जम्मू क्षेत्र के रहने वाले हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद वहीं से विधायक बने । महाराष्ट्र से कांग्रेस ने उन्हें एक -  दो बार जितवाया और बाकी समय  राज्यसभा में रहे। दो साल पहले जब वह रास्ता बंद हुआ तो पार्टी छोड़ अपनी क्षेत्रीय पार्टी बनाकर बैठ गए। कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हैं तो कभी विरोध। हाल ही में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के पहले विपक्ष के बहिर्गमन की तो उन्होंने आलोचना की किंतु अगले ही दिन धारा 370 हटाए जाने को भी गलत ठहरा दिया। दरअसल श्री आजाद और उनकी तरह ही  डा.अब्दुल्ला भी अपने पूर्वजों के हिन्दू होने की बात कहकर जम्मू अंचल में भावनात्मक दृष्टि से असर जमाना चाहते हैं क्योंकि नये  परिसीमन के बाद  घाटी का  वर्चस्व पहले जैसा नहीं रह सकेगा। लेकिन वे  धारा 370 को हटाए जाने का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि उसके रहते जम्मू - कश्मीर की मुस्लिम पहिचान बनी हुई थी और हिन्दू समुदाय की स्थिति दांतों के बीच जीभ के समान थी। 370 हटने के बाद घाटी में जुमे की नमाज के बाद पाकिस्तान का झंडा लहराते हुए जुलूस बंद हो गया।   बीते 4 सालों में घाटी में पर्यटकों की रिकॉर्ड आवाजाही के अलावा भी अन्य बातें हैं जो 370  के खात्मे को सही साबित करती  हैं। ऐसे में यदि श्री आजाद जब कश्मीर  के सभी मुसलमानों को मूलतः हिन्दू बताते हैं तब उन्हें धारा 370 हटाए जाने का विरोध बंद करने के साथ ही इस्लाम के नाम पर जो कट्टरता है उसके विरुद्ध उसी तरह मुखर होना चाहिए जिस तरह केरल के राज्यपाल आरिफ मो.खान हैं। यदि वे दिल  से ये बात स्वीकार कर रहे हैं कि हिन्दू धर्म इस्लाम से बहुत पुराना है और देश में रह रहे सभी मुसलमान सैकड़ों वर्ष पहले उनके हिन्दू पूर्वजों द्वारा इस्लाम स्वीकार किए जाने के कारण मुस्लिम बने , तब उन्हें यही बातें कश्मीर से बाहर निकलकर मुस्लिम संगठनों पर काबिज मौलवियों को समझाने के साथ ही समान नागरिक संहिता ,   नागरिकता संशोधन कानून , राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे मसलों पर भी रचनात्मक विचारों के  साथ आगे आना चाहिए । वर्तमान में वाराणसी में ज्ञानवापी का जो विवाद चर्चाओं में है उसके संदर्भ में भी यदि वे  मुस्लिम पक्ष को ये समझाएं कि उन्हें हिंदुओं की आस्था के प्राचीन केंद्रों पर मुगल काल में किए गए अवैध कब्जे  से हट जाना चाहिए , तब उनके संदर्भित बयान में ईमानदारी समझी जा सकती है । वे चाहें तो डा.अब्दुल्ला के साथ पूरे देश में घूम -घूमकर मुस्लिम समुदाय को ये समझा सकते हैं कि  वे  इंडोनेशिया से प्रेरणा लें जो पूरी तरह इस्लामिक देश होने के बाद भी अपने पूर्वजों की हिन्दू संस्कृति और उसकी परंपराओं को सहेजे हुए है।  दरअसल श्री आजाद का उनके अपने राज्य में कोई जनाधार नहीं है। वहीं अब्दुल्ला खानदान का प्रभाव भी ढलान पर है। ऐसे में इनका ये कहना कि हमारी जड़ें हिन्दू धर्म के साथ जुड़ी हुई हैं , महज दिखावा है। वरना ये धारा 370 को हटाए जाने का स्वागत करते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित जमीयत उलेमा ए हिंद जैसे संगठनों को भी  समझाते कि समान नागरिक संहिता और नागरिकता संशोधन विधेयक मुसलमानों के मुख्यधारा में शामिल होने का शानदार जरिया हो सकते हैं ।  हालांकि वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जिस तरह धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाले दलों का मुस्लिम प्रेम भी स्वार्थों पर आधारित है ठीक उसी तरह गुलाम नबी द्वारा भारतीय मुसलमानों के पुरखों के हिन्दू होने जैसी बात  कहा जाना भी शुद्ध अवसरवाद है। सवाल ये है कि जिंदगी का बड़ा हिस्सा गांधी परिवार के दरबारी बनकर गुजारने के बाद  उनके ज्ञान चक्षु क्यों खुल गए ? यहां तक कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने कभी ये कहने का साहस नहीं दिखाया कि कश्मीर के सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे। उल्लेखनीय है कि जब यही बात रास्वसंघ के सरसंघचालक डा.मोहन भागवत और डा. सुब्रमण्यम स्वामी कहते थे तो धर्म निरपेक्षता के ठेकेदार आसमान सिर पर उठा लिया करते थे।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 17 August 2023

पहाड़ों को भी शांति और आराम की जरूरत है




पहाड़ों को हौसलों का प्रतीक कहा जाता है। उनकी चोटी तक पहुंचने की इच्छा पर्वतारोहियों के अलावा रोमांच प्रेमी पर्यटकों में भी देखी जाती है। अनेक धार्मिक स्थल पहाड़ों में स्थित होने से श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। ग्रीष्म काल में मैदानी इलाके के तापमान से बचने पहाड़ों पर बसे हिल स्टेशनों में भी सैलानियों की भीड़ नजर आती है। प्रकृति प्रेमियों , साहित्यकारों , कलाकारों और छायाकारों में  भी पहाड़ों के प्रति दीवानगी होती है। कोलाहल से दूर किसी पर्वतीय स्थल पर कुछ दिन व्यतीत करना  मानसिक शांति के साथ - साथ स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक माना जाता है। एक समय था जब पहाड़ों में ऋषि - मुनि तपस्या करने जाते थे। जड़ी - बूटियों के खजाने भी पर्वतीय क्षेत्रों में होते थे। और फिर हिमालय से सदा नीरा बड़ी - बड़ी नदियां निकलती हैं। कश्मीर घाटी में बसे श्रीनगर में मुगल बादशाहों द्वारा विकसित उद्यान पर्यटकों से भरे रहते हैं। लद्दाख और अरुणाचल  के भव्य बौद्ध मठ भी पर्वतों के धार्मिक महत्व को साबित करते हैं। ब्रिटिश राज में देश भर में हिल स्टेशन के रूप में पर्वतीय क्षेत्रों का विकास हुआ । वहां तक जाने के लिए  सड़कें और रेल मार्ग भी बने। शिमला को तो अंग्रेजों ने देश के ग्रीष्मकालीन राजधानी बना रखा था। हालांकि आजादी के बाद भी पर्यटन केंद्रों के रूप में तीर्थस्थलों के अलावा अन्य पर्वतीय स्थानों को विकसित किया गया। गौरतलब है बीते कुछ दशकों में मध्यमवर्गीय पर्यटक बढ़ने से पर्वतीय क्षेत्रों में बेतहाशा भीड़ होने लगी है। विकास के तौर पर  सड़कों और पुलों आदि का निर्माण भी बड़ी मात्रा हुआ जिनके  लिए वृक्षों की कटाई और पहाड़ों की छटाई भी व्यापक तौर पर की गई । उत्तराखंड में टिहरी बांध जैसी परियोजना भी बनी । पनबिजली संयंत्रों के लिए नदियों के पानी को घुमाने सुरंगें बनाई गईं। इन सबका दुष्परिणाम धीरे - धीरे आने लगा । भूस्खलन , भूकंप , ग्लेशियरों का सिकुड़ना  आदि लक्षणों के जरिए प्रकृति ने चेतावनी देने का क्रम जारी रखा किंतु विवेकहीन विकास के साथ ही आमोद - प्रमोद के उद्देश्य से किए जाने वाले पर्यटन ने उन संकेतों के प्रति उपेक्षाभाव प्रदर्शित किया । यही कारण है कि  उत्तराखंड , हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के जिन क्षेत्रों में मानवीय आवाजाही ज्यादा होती  हैं वहां पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा गया । पर्वतों  को क्षति पहुंचाए जाने से उनकी आधारभूत संरचना को जो नुकसान हुआ उसकी वजह से  प्राकृतिक आपदाएं जल्दी - जल्दी आने लगी हैं। ताजा उदाहरण हिमाचल का है जहां कुछ दिनों के भीतर ही सैकड़ों लोग  जान गंवा बैठे। उत्तराखंड में भी पहाड़ों के धसकने की घटनाएं लगातार सुनाई दे रही हैं। यद्यपि इस साल अति वृष्टि को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा रहा है।लेकिन  ये बात भी स्वीकार करनी होगी कि पहाड़ों को भीतर से कमजोर कर दिए जाने के कारण ही अब वे अति वृष्टि अथवा भूकंप के मामूली झटके झेलने में असमर्थ होते जा रहे हैं। ये देखते हुए हिमाचल की मौजूदा स्थिति को तात्कालिक संकट मान लेना बड़ी भूल होगी। यही स्थिति उत्तराखंड की है। वहां भी चार धाम यात्रा में जिस तरह रुकावट आती रही वह इस बात को इंगित करती है कि पहाड़ पर मानवीय गतिविधियों का बोझ कम किया जाना चाहिए। वाहनों की आवाजाही सुलभ करने के लिए बनाई गई  बारहमासी सड़कें भी भूस्खलन के कारण बार - बार अवरुद्ध हो जाती हैं। इन्हें बनाने में भले ही कितनी  भी तकनीकी कुशलता दिखाई गई किंतु ये भूल जाना निरी मूर्खता है कि प्रकृति को बांधकर रखा जा सकता है। बीते वर्ष अमरनाथ में जल सैलाब आया था। केदारनाथ में हो चुकी त्रासदी के दंश तो आज तलक ताजा हैं। दुख इस बात का है कि हर दुर्घटना के बाद प्रकृति और पर्यावरण  सुरक्षा की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन जो सुधार होना चाहिए उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता । सही बात तो ये है कि पहाड़ों को भी शांति के साथ आराम चाहिए। हम अपने आनंद के लिए उनके निकट जाते हैं किंतु अपने गैर जिम्मेदाराना आचरण के चलते उन्हें दुखी कर आते हैं। इसी कारण  उनकी सहनशक्ति जवाब देने लगी है। कभी - कभी तो लगता है कोरोना काल के दौरान देश भर में लगाए गए लॉक डाउन की तरह साल में कुछ समय तक वहां भी आवाजाही पर नियंत्रण लगाया जावे। उत्तराखंड में स्थित तीर्थस्थलों के साथ हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के पर्यटन स्थलों में भी  तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की संख्या सीमित करना जरूरी हो गया है। उल्लेखनीय है लद्दाख में बीते कुछ दशकों के भीतर जिस तरह से  पर्यटकों की भीड़ उमड़ रही है और लेह से आगे जाकर नुब्रा घाटी जैसे इलाकों तक सैलानी जाने लगे हैं उसकी वजह से वहां के जिम्मेदार लोग चिंतित हैं। उत्तराखंड की स्थिति तो ये है कि पहाड़ों के बदलते मौसम और बिगड़ते मिजाज  के चलते बड़ी संख्या में गांव खाली होते जा रहे हैं। स्थिति और न बिगड़े इस हेतु गंभीर चिंतन आवश्यक है। बेहतर हो बिना समय गंवाए  पहाड़ों के क्रोध को शांत करने का उपाय तलाश लिया जाए वरना जिन मुसीबतों से हिमाचल प्रदेश इन दिनों जूझ रहा है वैसी ही समूचे हिमालय क्षेत्र में नजर आएगी जिससे होने वाली तबाही की कल्पना ही भयभीत कर देती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 15 August 2023

अटल जी जैसा निर्विवाद और निष्कलंक नेता दुर्लभ



आज पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की  पुण्य तिथि है | आजाद भारत में एक से एक बढ़कर राजनेता हुए लेकिन पं. जवाहरलाल नेहरू और  इंदिरा गांधी के अलावा अटल जी ही एक मात्र  थे जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल हुई |  नेहरू जी और इंदिरा जी तो सत्ता की राजनीति से ही जुड़े रहे वहीं अटल जी ने विपक्ष में ही अपनी अधिकतर राजनीतिक यात्रा पूरी की | भले ही वे 71 वर्ष की आयु में पहली बार प्रधानमंत्री बने किन्तु उसके पहले  भी जनता के बीच उनका सम्मान प्रधानमन्त्री से कम नहीं था | इसकी वजह उनकी सैद्धांतिक दृढ़ता और साफ़ सुथरी राजनीति थी | 1996 में जब वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे तब दूरदर्शन ने उनका साक्षात्कार लिया | उसमें उनसे पूछा गया कि आपकी विशेषता क्या है ? और अटल जी ने बड़ी ही सादगी से जवाब दिया -  मैं कमर से नीचे वार नहीं करता | उनके उस उत्तर की सच्चाई पर उनके विरोधी तक संदेह नहीं  करते थे | 

विपक्ष में रहते हुए राष्ट्रीय महत्व के किसी भी विषय पर उन्होंने दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर अपने विचार  व्यक्त करने में संकोच नहीं किया | इसकी वजह से उनको राजनीतिक नुकसान भी हुआ लेकिन उन्होंने उसकी परवाह नहीं की | पं. नेहरू के निधन पर संसद में उन्होंने जो श्रद्धांजलि दी वह आज भी उद्धृत की जाती  है | नेहरू जी ने उनकी तेजस्विता को भांपते हुए ही भविष्यवाणी कर दी थी कि आने वाले समय में ये नौजवान देश  का प्रधानमंत्री बनेगा | 

हिन्दी के ओजस्वी वक्ता के तौर पर वे लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष तक जा पहुंचे | उनकी जनसभाओं में उनके  विरोधी भी बतौर श्रोता देखे जाते थे | लाखों की भीड़ को लम्बे समय तक अपनी  वक्तृत्व कला से मंत्रमुग्ध करने की उनकी क्षमता भूतो न भविष्यति का पर्याय बन गई |

बिना सत्ता हासिल किये भी लोकप्रियता और सम्मान अर्जित करने का उनसे बेहतर उदाहरण नहीं  हो सकता | 1977 में जनता सरकार में वे विदेश मंत्री बने और मात्र 27 माह के कार्यकाल में ही उन्होंने वैश्विक पटल पर भारत की छवि में जबरदस्त सुधार करते हुए अपनी क्षमता और कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया | संरासंघ की  महासभा में हिन्दी में भाषण देने की परम्परा की शुरुवात उन्होंने ही की थी | उसकी वजह से ही हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी |

मूलतः वे एक कवि थे | अपने जीवन का प्रारंभ उन्होंने बतौर पत्रकार किया था | यद्यपि  व्यस्तताओं की वजह से वे उस विधा को पूर्णकालिक नहीं बना सके और अनेक अवसरों पर उन्होंने ये स्वीकार भी  किया कि राजनीति के मरुस्थल  में काव्यधारा सूख गयी किन्तु समय मिलते ही वे काव्य सृजन करते रहे | देश के अनेक मूर्धन्य कवि और साहित्यकार उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते रहे | आज के दौर के सबसे लोकप्रिय कवि डॉ.  कुमार विश्वास तो खुलकर कहते हैं कि अटल जी उनके काव्यगुरू हैं | सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका संपर्क और सम्मान उनकी  विराटता का प्रमाण था | संसद में उनकी  सरकार गिराने वाली पार्टियां और नेता भी बाद में निजी तौर पर अफ़सोस व्यक्त किया करते थे | अटल जी के व्यक्तित्व की ऊंचाई का ही परिणाम था कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव सार्वजनिक रूप से उन्हें अपना गुरु कहकर आदर देते थे | दो विपरीत ध्रुवों पर रहने के बाद भी इंदिरा जी अक्सर अटल जी से गम्भीर मसलों पर सलाह लिया करती थीं  |

आपातकाल के दौरान लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जब विपक्षी नेताओं को रिहा कर  दिया गया और दिल्ली के रामलीला मैदान में उनकी बड़ी सभा हुई तो लाखों जनता उमड़ पड़ी | लोकनायक जयप्रकाश नारायण और मोरारजी के अलावा अनेक दिग्गज नेता  मंच पर थे लेकिन अटल जी का भाषण सबसे अंत में रखा गया क्योंकि आयोजक जानते थे कि उन्हें सुनने के लिए श्रोता रुके रहेंगे | इंदिरा सरकार ने दूरदर्शन पर बॉबी फिल्म का प्रसारण करवा दिया लेकिन जनता अटल जी को सुनने के लिए रुकी रही | वे खड़े हुए और भाषण की शुरुवात करते हुए ज्योंही कहा - 
बाद मुद्दत  के मिले हैं दीवाने , 
तो पूरा मैदान करतल ध्वनि से गूँज उठा | अगली पंक्तियों में वे बोले - 
कहने सुनने को हैं बहुत अफ़साने |  
खुली हवा में चलो कुछ देर सांस ले लें ,
कब तक रहेगी आजादी कौन जानें | 

और उसके बाद पूरे  रामलीला मैदान में विजयोल्लास छा गया |  आपातकाल का भय काफूर हो चूका था | अटल जी के  उस भाषण ने देश में लोकतंत्र को पुनर्जीवन दे दिया |

भारतीय संस्कृति और जीवनमूल्यों में उनकी गहरी आस्था थी | हिन्दू तन मन , हिन्दू जीवन नामक उनकी कविता उनके व्यक्तित्व का  बेजोड़ चित्रण प्रतीत होती है | बतौर प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार चलाकर उन्होंने जिस राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया वह भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है | भारतीय विदेश नीति को उन्होंने नए आयाम दिए | परमाणु परीक्षण के साहसिक फैसले के बाद लगे वैश्विक आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करने की उनकी दृढ इच्छाशक्ति के कारण देश का आत्मविश्वास बढ़ा और अंततः दुनिया को भारत के प्रति नरम होना पड़ा |

विदेशों में बसे अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों को अपनी मातृभूमि से भावनात्मक लगाव रखने के लिए उन्होंने जिस तरह प्रेरित किया वह भारत की प्रगति में बहुत सहायक हुआ | स्वर्णिम चतुर्भुज रूपी  राजमार्गों के विकास , विशेष  रूप से ग्रामीण सड़कों के निर्माण की  उनकी योजना देश की प्रगति  में क्रांतिकारी साबित हुई |

जीवन के अंतिम दशक में वे बीमारी के  कारण राजनीति और सार्वजनिक जीवन से दूर चले गए लेकिन उनके प्रति सम्मान में लेशमात्र कमी नहीं आई | मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से भी  विभूषित किया लेकिन देश की जनता ने तो उन्हें बहुत पहले से ही सिर आँखों पर बिठा रखा था | अटल जी  भारतीय राजनीति में  एक युग के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं | एक दलीय सत्ता के मिथक को तोड़कर उन्होंने लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत किया | यही वजह है कि उनके घोर विरोधी तक उनका जिक्र आते ही आदर  व्यक्त करना नहीं भूलते |

उन्हें गये पांच वर्ष बीत गये | भारतीय राजनीति आज जिस मोड़ पर आ पहुंची है उसमें उनका अभाव खलता है | संसदीय राजनीति में उनका योगदान इतिहास में अमर रहेगा | देश में नेताओं की भरमार है  लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन जैसा निर्विवाद और निष्कलंक व्यक्तित्व  दूरदराज तक नजर नहीं आता | सत्ता से दूर रहकर भी जनता का विश्वास जीतने की उन जैसी क्षमता भी किसी में नहीं दिख रही |

पावन स्मृति में सादर नमन |

चित्र:-1996 में जबलपुर के पत्रकारों के साथ अटल जी का यादगार चित्र।

 - आलेख : रवीन्द्र वाजपेयी


देश हमें देता है सब कुछ , हम भी तो कुछ देना सीखें



आज देश स्वाधीनता की वर्षगांठ मना रहा है। राजधानी दिल्ली से लेकर सुदूर क्षेत्रों तक में उत्सव का माहौल है। सब्जी के ठेले और रिक्शे तक पर लगे तिरंगे को देखकर देशवासियों के मन में इस राष्ट्रीय पर्व के प्रति लगाव परिलक्षित होता है। इसमें दो मत नहीं है कि बीते 76 वर्ष के कालखंड में अनेकानेक समस्याओं से जूझते हुए भी देश आगे बढ़ा है। हालांकि ये भी उतना ही सच है कि इस दौरान जितना हमें हासिल कर लेना चाहिए था उतना नहीं हो सका , जिसका प्रमुख कारण हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सत्ता केंद्रित होकर रह जाना है । यद्यपि राजनीति के क्षेत्र में कार्य करने वाला छोटा कार्यकर्ता  हो या नेता , सभी की इच्छा सत्ता सुख प्राप्त करने की होती है । जो राजनीतिक दल वैचारिक आधार पर राजनीति करते हैं वे भी किसी न किसी तरह सत्ता प्राप्ति में लगे रहते हैं । लेकिन इस सोच का दुष्परिणाम ये हुआ कि राजनीतिक दलों की पूरी कार्यप्रणाली देश हित की बजाय किसी न किसी तरह से सरकार बना लेने पर आकर केंद्रित हो गई। आजादी के बाद जब कांग्रेस को देश की बागडोर मिली तब उसके लिए चुनौतीविहीन  स्थिति थी। पंडित  नेहरू का कद आसमान छूता था। उनकी गलतियों को जनता नजरंदाज कर देती थी। आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने की जो पुण्यायी कांग्रेस के पास थी उसकी बदौलत वह पहला , दूसरा और तीसरा आम चुनाव आसानी से जीत गई। उस दौरान देश का विकास भी हुआ । लेकिन नेहरू जी स्वप्नदृष्टा तो बहुत अच्छे थे किंतु सपनों को साकार करने की उनकी प्रतिबद्धता उस लिहाज से कमतर होने से वे अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर सके। देश को पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए विकास की राह पर ले जाने में उनका योगदान निश्चित तौर पर यादगार है किंतु पहले पाकिस्तान द्वारा कश्मीर का बड़ा हिस्सा हड़प लेने और फिर चीन द्वारा 1962 में हजारों वर्ग किमी भूमि पर कब्जा कर लेने के कारण वे एक कमजोर प्रधानमंत्री साबित होने लगे। ये कहना गलत न होगा कि 1964 में उनकी मृत्यु न हुई होती तो 1967 में वे कांग्रेस को चुनाव न जिता पाते। यद्यपि उन्होंने भारत को विश्व बिरादरी में पहिचान तो दिलाई किंतु उनका जरूरत से ज्यादा आदर्शवाद देश के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। और फिर  लोकतांत्रिक छवि के बावजूद वे अपनी पारिवारिक श्रेष्ठता का मोह न छोड़ सके और बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने के बाद उनकी जिद पर केरल की नंबूदरीपाद सरकार को बेवजह भंग करवा दिया , जो कि दुनिया की पहली चुनी हुई साम्यवादी सरकार थी। बावजूद इसके कि नेहरू जी सोवियत संघ और चीन की  साम्यवादी शासन व्यवस्था से बेहद प्रेरित और प्रभावित थे। इंदिरा जी को कांग्रेस में स्थापित करने का जो कार्य उन्होंने किया उसने देश में परिवारवाद की नींव रख दी जो कालांतर में बढ़ते - बढ़ते भारतीय राजनीति की पहिचान बन गया । और यही कारण है कि राजनेताओं का पूरा चिंतन सामंतवादी होकर रह गया । देश और जनता की बेहतरी के बजाय अपने परिवार के उत्थान की चिंता ने राजनीति को ऐसे  रास्ते पर धकेल दिया जो केवल और केवल स्वार्थ सिद्धि की ओर ले जाता है। आज स्वाधीनता दिवस पर देश की मौजूदा स्थिति पर नजर डालने पर ये महसूस होता है कि राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह से सामंतवाद अपने पैर जमाता दिख रहा है उसके कारण अब बात देश और जनता की बजाय उन चंद नेताओं के मान - अपमान पर आकर सिमट जाती है जो खुद को इस देश का मालिक समझ बैठे हैं। इनको न कानून का ख्याल है और न ही लोकतांत्रिक मर्यादाओं का । आजादी के बाद देश में मौजूद 500 से अधिक रियासतों का भले विलय हो गया किंतु राजनीतिक दलों के जरिए जिस नव सामंतवाद ने समूचे परिदृश्य पर आधिपत्य कर लिया वह ज्यादा खतरनाक है। कुछ महीनों के बाद देश में लोकसभा चुनाव होंगे। विभिन्न राजनीतिक दल उसके लिए रणनीति तैयार कर रहे हैं। मोर्चेबंदी के तहत गठबंधनों को शक्ल दी जा रही है । लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि चुनाव जीतने के लिए देश की छवि धूमिल करने का प्रयास संसद से सड़क तक किया जा रहा है। 21 वीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों में भारत ने वैश्विक स्तर पर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराई है । इसके लिए किसी एक नेता या राजनीतिक दल को श्रेय भले न दें किंतु देश ने जो हासिल किया है उस पर गौरव करना तो अपेक्षित है ही। देश में रहकर अच्छी शिक्षा हासिल करने के बाद ये कहकर विदेश चले जाना कि यहां रखा ही क्या है , एक तरह की एहसान फरामोशी ही है। इसी तरह जब  दुनिया की बड़ी कंपनियां भारत में कारोबार करने आकर्षित हो रही हों तब कुछ धनकुबेरों के देश छोड़कर अन्यत्र बस जाने पर भविष्य का  निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करना भी बेहद गैर जिम्मेदाराना कृत्य है। आजादी की वर्षगांठ पर सोशल मीडिया के करिए केवल शुभकामनाएं और बधाई देने - लेने के कर्मकांड से ऊपर उठकर हमें देश के बारे में सकारात्मक सोच का प्रसार करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना चाहिए ।  जब हम भारत को मां मानते हैं तब  उसी रूप में उसे सम्मान भी देना चाहिए। आज का अवसर केवल उत्सव तक सीमित नहीं है। देश जिस मोड़ पर है उसमें हर नागरिक को अपने दायित्व के प्रति गंभीर होना पड़ेगा। यदि विकास की दौड़ में हम किसी भी क्षेत्र में पीछे हैं तो इसके लिए कुछ जिम्मेदारी हमारी भी है।  अधिकारों के प्रति जागरूकता अच्छी बात है किंतु कर्तव्य बोध उससे अधिक महत्वपूर्ण है। आज चुनाव जीतने के लिए जिस प्रकार खैरात बांटी जाती है उसके लिए बतौर मतदाता हमारी लालची प्रवृत्ति ही जिम्मेदार है। यदि सब कुछ ठीक  - ठाक चला तब कुछ दिनों के बाद ही हमारा यान चंद्रमा पर उतर जावेगा। ये भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी दक्षता का प्रमाण होगा । इसके अलावा भी देश में ऐसा बहुत कुछ है जिससे हमारा हौसला बुलंद होता है। आज के दिन ये संकल्प लें कि हम देश के प्रति नकारात्मक सोच को पूर्णतः तिलांजलि दे देंगे। और अपनी संतानों को भी ऐसी ही सोच रखने के लिए प्रेरित करेंगे। देश की उपलब्धियों पर हम सबका हक है तो उसकी कमियों को दूर करने की  जिम्मेदारी भी हमें उठाना होगी , इस भाव के साथ कि :-
देश हमें देता है सब कुछ , हम भी तो कुछ देना सीखें।

स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक बधाई।

- रवीन्द्र वाजपेयी 



Monday 14 August 2023

दलबदल ने नेताओं की सैद्धांतिक पहिचान खत्म कर दी




दल बदलने की परंपरा कब शुरू हुई ये  कहना मुश्किल है । आजादी के पूर्व कांग्रेस ही प्रमुख थी किंतु स्वाधीनता के बाद अनेक  नेता  उससे अलग हो गए । कुछ ने नई पार्टी बनाई तो जयप्रकाश नारायण जैसे  राजनीति छोड़कर सर्वोदयी बन गए। समाजवादियों की बड़ी संख्या कांग्रेस छोड़ने के बाद प्रजा सोशलिस्ट  पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के बैनर तले जमा हुई। साम्यवादी पार्टी ,  मुस्लिम लीग और हिंदू  महासभा तो पहले से ही अस्तित्व में थीं। पहले आम चुनाव के पूर्व भारतीय जनसंघ का जन्म हुआ। धीरे - धीरे समाजवादी नेताओं में भी मतभेद उभरे । कुछ  कांग्रेस में लौट गए और कुछ  पार्टियां तोड़ने - बनाने के खेल में रम गए। 1962 में चीन के आक्रमण के बाद साम्यवादी दल  सीपीआई और सीपीएम के तौर पर बंट गए। 1967 में डा.राममनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे से प्रेरित संविद सरकारों के रूप में  हुआ  प्रयोग  हालांकि जल्द ही विफल हो गया परंतु  उसने दल बदल नामक बीमारी को जन्म दिया । आया राम - गया राम का दौर भी चला जब एक ही दिन में कई बार पार्टी बदली गई। भजनलाल नामक मुख्यमंत्री तो  पूरे मंत्रीमंडल सहित दल बदल  कर गए। इस प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार समाजवादी आंदोलन हुआ जिसके नेताओं में पार्टियां तोड़ने की प्रतिस्पर्धा  आज तक जारी है। अनेक नेताओं ने अपनी पारिवारिक पार्टियां भी बना लीं। दक्षिण में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से टूटकर अद्रमुक बन गई। एम.जी रामचंद्रन की देखासीखी दक्षिण के अनेक अभिनेताओं ने दल बनाए। एन. टी.रामाराव तो मुख्यमंत्री भी बने किंतु उनके दामाद चंद्राबाबू नायडू ने बगावत कर डाली। महाराष्ट्र में शिवसेना बनी तो तो उड़ीसा में बीजू जनता दल। कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार ने जनता दल  सेकुलर का गठन किया। प.बंगाल में ममता बैनर्जी ने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाई वहीं लालू यादव , मुलायम सिंह यादव और रामविलास पासवान ने भी अपनी घरेलू पार्टियां बना लीं। 1977 में बनी जनता  पार्टी सरकार के पतन  के बाद जनसंघ से जुड़े रहे नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की।  इस सबके बीच कांग्रेस लगातार टूटती गई और नई पार्टियां बनती गईं। लेकिन  गाजर घास की तरह से उगी इन पार्टियों के कारण  राजनीति में वैचारिक प्रतिबद्धता और पहिचान लुप्त होती चली गई।  पहले किसी नेता का नाम लेते ही उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि सामने आ जाती थी किंतु अब ऐसा नहीं है। आगामी साल लोकसभा चुनाव होंगे। इसीलिए एक पार्टी छोड़कर दूसरे में जाने का दौर जारी है । गठबंधन की जो प्रक्रियाएं चल रही हैं उनमें भी सैद्धांतिकता नजर नहीं आती। परिवार की निजी संपत्ति बने दलों की प्राथमिकता  सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े रहना है  जिसके  लिए वे कुछ भी करने में शर्माते नहीं हैं। जनता पार्टी की सरकार रास्वसंघ के साथ जनसंघ के लोगों के संबंध पर एतराज करने के नाम पर गिरी थी। बाद में जब भाजपा बनी तब दोहरी सदस्यता पर बवाल करने वाले जॉर्ज  फर्नांडीज , शरद यादव , रामविलास पासवान उसके साथ सत्ता में भागीदार बन बैठे। नीतीश कुमार ने तो लंबे समय तक भाजपा के साथ बिहार पर राज किया। जिन स्व.पासवान ने गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को दोषी मानकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार  छोड़ी वे 2014 में श्री मोदी के साथ आ गए । नीतीश खुद बीते दस साल में दो बार भाजपा के साथ मिलने और अलग होने का दांव चल चुके हैं । भ्रष्टाचार के मूर्तमान प्रतीक कहे जाने वाले अजीत पवार   दिन - दहाड़े भाजपा के साथ सत्ता  सुख लूटने  आ गए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक दलबदल भारतीय राजनीति की पहिचान बन चुका है। किसी को किसी से परहेज नहीं रहा। जातिगत छुआछूत तो आज तक नहीं मिट सकी लेकिन राजनीतिक छुआछूत अवश्य अपनी मौत मर चुकी है। आज जो भ्रष्ट है वह साथ आते ही ईमानदारी का प्रतीक हो जाता है और कट्टर सांप्रदायिक नेता को पलक झपकते धर्म निरपेक्षता का प्रमाण पत्र मिल जाता है। अपनी पार्टी के निष्ठावान चने चबाते रह जाते हैं और दलबदलू आकर कुर्सी पा जाते हैं। देश में अनेक ऐसे मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री हैं जो कुछ समय पहले ही पार्टी में आए और देखते - देखते सबके सिर पर सवार हो गए। आजादी के 76 साल पूरे होने के अवसर पर भारतीय राजनीति का मौजूदा परिदृश्य निराश करने वाला है। गठबंधन यदि देश हित में हो तो उसका स्वागत होना चाहिए। चुनाव के बाद  योग्य सांसदों - विधायकों को मंत्री बनाए जाने की भी  हर कोई तारीफ करेगा किंतु महज सत्ता के लिए दूसरे दल से आए नेता को उपकृत करने से एक तो पार्टी के कार्यकर्ता आत्मग्लानि का अनुभव करते हैं वहीं जनता को भी ये लगता है कि राजनीति पूरी तरह बाजार बनती जा रही है। दुख की बात ये है कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां दल बदल को प्रोत्साहित करने के खेल में शामिल हैं। सांसदों और विधायकों के दल बदल को रोकने का तो एक कानून भी है किंतु बाकी को खुली छूट  है। हालांकि वह कानून भी तकनीकी पेच में फंसकर मजाक बन जाता है। ऐसे में ये जरूरी लगता है कि दल बदल करने वाले नेता यदि अपने निर्णय का समुचित कारण नहीं बता पाएं तो जनता को उनका तिरस्कार करना चाहिए । राजनीतिक दल भी ताजा - ताजा पार्टी में आए नेता को टिकिट देने से मना करें तो इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण लग सकता है। लेकिन आज की स्थिति में किसी से उम्मीद करना व्यर्थ है क्योंकि  पूरे कुएं में भांग घुली हुई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 




Friday 11 August 2023

अंग्रेजों द्वारा बनाई दंड व्यवस्था और न्याय प्रणाली में सुधार जरूरी


गृह मंत्री अमित शाह ने गत दिवस लोकसभा में अंगेजी राज में बनाए गए अनेक कानून खत्म करने के साथ ही कुछ का स्वरूप बदलने संबंधी जो विधेयक किए वे निश्चित रूप से समय की मांग हैं। देश में कानून को लागू करने के अलावा न्यायालयीन प्रक्रिया की वर्तमान स्थिति बेहद निराशाजनक है। मसलन किसी को गिरफ्तार करने के बाद अपराधिक प्रकरण का निराकरण कितने समय के भीतर किया जाएगा इसकी कोई सीमा नहीं है। गृह मंत्री द्वारा प्रस्तुत विधेयक के मुताबिक ट्रायल कोर्ट को तीन साल के भीतर हर फैसला करना होगा। राजद्रोह अब देशद्रोह होगा । भारतीय दंड संहिता में 511 से कम होकर 356 धाराएं बचेंगी और सैकड़ों बदली जायेंगी । कुछ को समाप्त करने के साथ ही कुछ नई शामिल होंगी। छोटे अपराधों के लिए जेल भेजने के बजाय दंड स्वरूप सामुदायिक सेवा का प्रावधान रचनात्मक सोच है। इसी तरह मॉब लिंचिंग , लव जिहाद जैसे मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान भी अपेक्षित कदम है। देश में कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करवाने के अलावा अन्य कुछ प्रस्ताव उक्त विधेयकों में हैं जिनके पारित होने के बाद अदालतों में लंबित प्रकरणों का बोझ कम तो होगा ही आरोपित व्यक्ति को भी अनिश्चितता से राहत मिलेगी। बकौल गृहमंत्री ये विधेयक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से गुलामी की निशानियों को खत्म करने सम्बन्धी घोषणा के परिप्रेक्ष्य में पेश किए गए। चूंकि संसद का सत्र समाप्त होने के चार दिन बाद ही स्वाधीनता दिवस है इसलिए सरकार को जल्दबाजी में ये काम करना पड़ा। हालांकि यदि गृह मंत्री सत्र की शुरुआत में इसे पेश कर देते तब वह लोकसभा से पारित होने के बाद राज्यसभा द्वारा भी स्वीकृत कर दिया गया होता। अब इसके लिए शीतकालीन सत्र तक इंतजार करना होगा। बहरहाल देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए । आजदी के बाद अंग्रेजों द्वारा लागू किए ज्यादातर दीवानी और फौजदारी कानूनों को यथावत स्वीकार कर लिया गया। यद्यपि समय - समय पर उनमें कुछ सुधार और संशोधन भी किए जाते रहे किंतु उनका मूल ढांचा ब्रिटिश राज की यादें दिलाता रहा। न्यायालयीन कार्यप्रणाली पर भी औपनिवेशिक काल की छाप साफ नजर आती है। पेशी दर पेशी की संस्कृति ने न्यायपालिका की जो नकारात्मक छवि बनाई उसके कारण लोकतंत्र की सार्थकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगते हैं। राजद्रोह शब्द अपने आप में राजतंत्र का एहसास करवाने वाला है। किसी अपराधिक मामले पर अंतिम फैसला होते - होते कुछ लोगों की जिंदगी का लंबा समय गुजर जाता है। ये धारणा भी काफी मजबूती के साथ उभरी है कि निर्दोष व्यक्ति व्यवस्था में खामियों के चलते जेल में सड़ता रहता है वहीं अपराधी प्रवृत्ति के लोग छुट्टा घूमते हैं। न्याय को सस्ता और सुलभ बनाने के तमाम दावे भी हवा - हवाई होकर रह गए हैं। एक जैसे मामले में किसी को तो तत्काल जमानत दे दी जाती है वहीं दूसरा महज इसलिए उससे वंचित रह जाता है क्योंकि उसके पास महंगे वकील की फीस चुकाने की हैसियत नहीं है। कुछ समय पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के सामने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और तत्कालीन कानून मंत्री किरण रिजुजू ने कहा कि न्यायाधीश वकील का चेहरा देखकर फैसला करते हैं । लेकिन मी लॉर्ड सफाई में कुछ नहीं बोल सके। ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि दंड प्रक्रिया के साथ ही अदालती व्यवस्था में भी आमूल परिवर्तन हो। अनुपयोगी पड़े कालातीत हो चुके कानूनों को अंतिम विदाई देकर उनके दुरुपयोग को रोका जा सकेगा । इसके अलावा अभियोजन पक्ष भी कानूनों की भीड़ में भटकने से बचेगा। न्यायालयों द्वारा समय सीमा में प्रकरण का निपटारा करने की व्यवस्था इन विधेयकों में सबसे अच्छी बात है। अन्यथा सजा का फैसला होने तक आरोपी बरसों - बरस जेल में रहने मजबूर रहता है। कुल मिलाकर जो विधेयक गत दिवस लोकसभा में पेश हुए इनके बारे में राजनीतिक दलों को संसद के अगले सत्र के पूर्व ही अपनी राय बना लेनी चाहिए जिससे इनको पारित करने में अनावश्यक विलंब न हो। इस बारे में ये बात सोचने वाली है कि न्याय को सस्ता करना है तो प्रकरण के निपटारे में देर को खत्म करना होगा क्योंकि वह जितना लंबा खींचता है वकील और अन्य खर्चे बढ़ते ही जाते हैं। अदालतों को नामी - गिरामी वकीलों की बजाय पक्षकार की सहूलियत पर भी ध्यान देना चाहिए। वैसे अभी इस क्षेत्र में और भी सुधारों की जरूरत है किंतु याद रखने वाली बात है कि किसी भी बड़े सफर की शुरुआत छोटे से कदम से ही होती है। गृह मंत्री श्री शाह द्वारा गत दिवस लोकसभा में पेश किए गए विधेयक भी व्यवस्था परिवर्तन की राह पर बढ़ाये कदम हैं जो आशान्वित करते हैं। ऐसे मामलों में राजनीति न हो तो ये देश हित में होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

अपने ही प्रस्ताव के प्रति गंभीर नहीं रहा विपक्ष



लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित नहीं होगा ये तो उसे पेश करने वाले भी जानते थे। लेकिन इसका उद्देश्य सरकार को उसकी कमियां बनाते हुए विपक्ष का दृष्टिकोण देश के सामने रखना होता है। संसदीय परंपरा के अनुसार बहस के बाद सरकार का मुखिया उसका जवाब देता है और उसके बाद बहस की शुरुआत करने वाले विपक्ष के नेता द्वारा सरकार के जवाब से संतुष्ट न होते हुए एक बार फिर अपनी बात रखने के बाद मत विभाजन की मांग की जाती है। इसके जरिए विपक्ष ये स्पष्ट करने का प्रयास भी करता है कि सदन में कौन सा दल किसके साथ है। लेकिन गत दिवस प्रधानमंत्री जब सरकार की तरफ से अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस का उत्तर दे रहे थे तब उनका भाषण पूरा होने के पूर्व ही विपक्ष उठकर चला गया जिसके बाद प्रस्ताव ध्वनि मत से ही धराशायी हो गया। दो दिन पहले राज्यसभा में जब दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति संबंधी अध्यादेश  पर मतदान हुआ तब विपक्ष ने पूरी तरह लामबंदी की थी। हालांकि कुछ विपक्षी दलों के सरकार के साथ आ जाने से उसकी उम्मीद पूरी नहीं हो सकी किंतु भविष्य की व्यूह रचना का आभास तो हो ही गया। उस लिहाज से गत दिवस लोकसभा में विपक्ष की रणनीति  बुरी तरह विफल साबित हो गई। ऐसा लगता है राज्यसभा में सरकार ने अल्पमत के बावजूद जिस तरह  से  दिल्ली संबंधी अध्यादेश पारित करवा लिया उससे कांग्रेस में हताशा आ गई । ये भी चर्चा रही कि विपक्ष के नए - नवेले गठबंधन के कुछ घटक दल अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान में तटस्थ रहने वाले थे। ऐसा होने पर इंडिया नामक प्रयोग की सफलता को लेकर आशंका बढ़ने लगती। शायद यही सोचकर कांग्रेस ने बजाय मतदान करवाने के  सदन से उठकर चले जाने की नीति अपनाई किंतु ऐसा करके उसने अपने ही प्रस्ताव की गंभीरता को नष्ट कर दिया। वैसे भी प्रस्ताव की वजनदारी उस समय ही कम हो गई थी जब प्रारंभ में ही ये कह दिया गया कि उसका उद्देश्य प्रधानमंत्री को सदन में बोलने के लिए बाध्य करना था ।  ऐसे में बेहतर होता  विपक्ष उन्हें पूरे समय तक सुनता और फिर मतदान की मांग कर ये स्पष्ट करता कि वह किस हद तक एकजुट है। इस अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से भले ही विपक्ष ने अपनी जिद पूरी कर ली किंतु पूरे सत्र में वह सरकार को जिस तरह घेर सकता था , उसमें चूक गया। प्रधानमंत्री ने अपने उत्तर में  इस सत्र के दौरान पारित हुए विधेयकों का उल्लेख करते हुए विपक्ष पर आरोप लगाया कि उसने जनहित से जुड़े मुद्दों पर बहस से दूर रहकर अपने गैर जिम्मेदार होने का प्रमाण दिया। उनकी बात सही भी है क्योंकि उनके पारित होते समय यदि विपक्षी सांसद अपनी बात रखते तो वह संसद के रिकार्ड में सुरक्षित हो जाती। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि विपक्ष संसद के सत्रों का सही तरीके से उपयोग नहीं कर पा रहा। भले ही उसके पास बहुमत न हो लेकिन हर विषय पर  उसे बोलने का समय तो मिलता ही है। यदि इसी  का उपयोग किया जाए तो वह सरकार को घेरने में सफल हो सकता है। लेकिन कांग्रेस की जिद के चलते बाकी विपक्षी दल भी सदन में अपनी बात सही तरीके से दर्ज नहीं करा सके। इस बारे में एक बात ध्यान रखने वाली है कि हर सांसद  सदन में अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं और आवश्यकताओं के बारे में बोलने के लिए लालायित रहता है किंतु पार्टी द्वारा बहिर्गमन किए जाने के कारण उसका वह अवसर छिन जाता है। अविश्वास प्रस्ताव पेश करने के लिए कांग्रेस ने असम के सांसद गौरव गोगोई को अवसर देकर सही कदम उठाया था क्योंकि वे पूर्वोत्तर का प्रतिनिधित्व करते हैं ।  प्रधानमंत्री के भाषण के बाद श्री गोगोई उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों का समुचित जवाब दे सकते थे । लेकिन उनको पूरा सुने बिना ही विपक्ष उठकर चला गया। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव का सही लाभ विपक्ष नहीं ले सका। यदि वह सत्र के दौरान सदन को चलने देता तो उसे अपनी बात रखने का पर्याप्त अवसर मिलता ,  जो वह गंवा बैठा।  इस लोकसभा के दो सत्र ही बाकी हैं। विपक्ष को चाहिए इनका पूरा - पूरा उपयोग करते हुए सरकार को घेरने की पुख्ता रणनीति बनाए। लोकसभा में उसका बहुमत भले न हो किंतु राज्यसभा में तो वह सत्ता पक्ष को झुका सकता है किंतु सही रणनीति के अभाव में यदि वह ऐसा नहीं कर पा रहा तो इसके लिए वही कसूरवार है। पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से पूर्व ही सदन छोड़ देने के लिए विपक्ष की जो आलोचना की वह पूरी तरह सही है क्योंकि प्रस्ताव उसके द्वारा लाया गया था तब उसे आखिर तक सदन में रुकना था।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 10 August 2023

सिब्बल द्वारा कश्मीर में जनमत संग्रह जैसी दलील देशहित के विरुद्ध




कपिल सिब्बल देश के जाने माने वकील हैं। केंद्र सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं । कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व के विरुद्ध बने जी -23 नामक गुट में शामिल रहने के बाद पार्टी छोड़कर सपा के समर्थन से राज्य सभा में आ गए।  अयोध्या विवाद में वे मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता थे । कांग्रेस छोड़ने के बाद भी वे परोक्ष तौर पर ही सही किंतु उसकी मदद के लिए खड़े नजर आते हैं। हालांकि इन दिनों वे जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में   हो रही बहस के कारण चर्चा में हैं। हालांकि उनके द्वारा दी जा रही दलीलें उनके  पक्षकार की बात मानी जाएंगी  किंतु बतौर वरिष्ट राजनेता उनसे ये अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि ऐसी कोई बात न कहें जिससे देश के  हितों पर बुरा असर पड़ता हो।  श्री सिब्बल इस बात पर जोर दे रहे हैं कि धारा 370 को हटाना तो दूर रहा उसमें किसी भी प्रकार का संशोधन केवल संविधान सभा कर सकती है जो वर्तमान में अस्तित्वहीन है। हालांकि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली  संविधान पीठ में  शामिल कुछ न्यायाधीशों ने उक्त तर्क से असहमति व्यक्त कर दी किंतु गत दिवस श्री सिब्बल ने धारा 370 हटाए जाने के बारे में जब ब्रिटेन में यूरोपीय यूनियन से अलग होने के मुद्दे पर करवाए गए जनमत संग्रह (ब्रेक्जिट) जैसा तरीका अपनाए जाने की बात कही तब मुख्य न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड़ ने स्पष्ट शब्दों में इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि भारत में जनता की राय निर्धारित माध्यमों से जानने की प्रणाली स्थापित है। लेकिन इस दलील के जरिए श्री सिब्बल ने भारत की घोषित विदेश नीति के विरुद्ध बात कहने की वह गलती की जो आज तक किसी भी केंद्र सरकार या राजनीतिक दल द्वारा नहीं की गई। उल्लेखनीय है आजादी के बाद जब जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हो गया तब पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी पर आक्रमण कर उसके एक हिस्से पर अवैध कब्जा कर लिया। बाद में विवाद संरासंघ पहुंचा जहां तत्कालीन नेहरू सरकार  इस बात पर सहमत हो गई कि जम्मू कश्मीर किसके साथ रहेगा इसका फैसला वहां की जनता की राय पूछकर किया जावेगा। शर्त ये रखी गई  कि पहले पाकिस्तान उसके कब्जे वाले हिस्से को खाली करे।  चूंकि उसने कब्जे वाला क्षेत्र खाली नहीं किया लिहाजा जनमत संग्रह की स्थिति  उत्पन्न नहीं हुई । बाद में संरासंघ ने  इस मामले को भारत - पाकिस्तान का द्विपक्षीय मसला मानकर अपनी भूमिका समाप्त कर ली। लेकिन कश्मीर के  तमाम अलगाववादी संगठन  आज भी उसकी रट लगाते हैं। हुर्रियत नेता सैयद अली शाह जिलानी तो जब तक जिंदा रहे तब तक केंद्र सरकार के साथ बातचीत की किसी भी पेशकश में ये कहते हुए पेच फसाते रहे कि बिना पाकिस्तान को शरीक किए बातचीत का कोई मतलब नहीं । पाकिस्तान के साथ  घाटी के लगभग सभी नेता इस बात की जिद पकड़े रहे कि जम्मू कश्मीर के भविष्य का फैसला संरासंघ के निर्देशन में  जनमत संग्रह से करवाया जावे। एक जमाना था जब अमेरिका और ब्रिटेन भी पाकिस्तान की हां में हां मिलाया करते थे किंतु धीरे - धीरे वैश्विक परिस्थितियां बदलती गईं । शीतयुद्ध की जगह बाजारवाद ने ले ली जिससे कूटनीतिक परिदृश्य भी बदला  । आज की दुनिया में भारत की बढ़ती आर्थिक और सामरिक शक्ति के साथ विशाल उपभोक्ता बाजार के कारण चीन को छोड़कर बाकी प्रमुख देशों का नजरिया हमारे प्रति नर्म हुआ है। यहां तक कि इक्का - दुक्का के अलावा अधिकांश मुस्लिम देश तक भारत से दोस्ती करने के प्रति आकर्षित हैं। ऐसे में  श्री सिब्बल ने धारा 370 हटाए जाने के लिए राज्य की जनता से उसकी राय पूछे जाने  की जो दलील सर्वोच्च न्यायालय में  दी वह अलगाववादी ताकतों के साथ ही हमारे शत्रु राष्ट्रों  के हाथ में हथियार देने जैसा है। श्री सिब्बल अपने पक्षकार के हक में पेशेवर योग्यता , अनुभव और क्षमता का परिचय दें इसमें किसी को एतराज नहीं होगा किंतु बतौर सांसद उन्होंने देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने की जो शपथ ली उसका पालन करना भी उनका कर्तव्य है। और इसके लिए जरूरी है वे ऐसी कोई बात किसी भी मंच पर न कहें जिससे देश का अहित हो। जम्मू कश्मीर देश का अविभाज्य अंग है इसे लेकर किसी के मन में कोई भी संशय हो तो उसे निकाल देना चाहिए। 2014 के बाद से घाटी में जिस तरह  अलगाववाद पर प्रहार किया गया उसका सुपरिणाम लगातार बढ़ रहे पर्यटन के रूप में देखा जा सकता है। हुर्रियत जैसे संगठन  उपद्रव करवाने की क्षमता खो बैठे हैं। पत्थरबाजी बंद है और आतंकवादी  मारे जा रहे हैं। इसका एक कारण 370 का हटना भी है । ऐसे में ये तर्क अलगाववादी ताकतों को ताकत देने जैसा है कि जम्मू कश्मीर अन्य राज्यों जैसा नहीं है जिसका विभाजन संसद कर सके और ऐसा करने के पहले वहां के लोगों की राय पूछी जानी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ ने श्री सिब्बल की उक्त दलील को तत्काल अस्वीकार कर उन सभी को संदेश दे दिया जो कश्मीर में अलगाववाद की वापसी की उम्मीद लगाए बैठे हैं। धारा 370 को हटाए जाने के लिए संविधान सभा को पुनर्जीवित करने जैसा विचार भी मूर्खतापूर्ण  है।  संसद के पास देश के बारे में निर्णय करने का  अधिकार और शक्ति  उसी संविधान के अन्तर्गत है जो संविधान सभा द्वारा लागू किया गया था। धारा 370 के अमरत्व को लेकर संविधान पीठ के न्यायधीशों की टिप्पणियां भले ही  सांकेतिक हों किंतु वे काफी कुछ कह रही हैं जिसे श्री सिब्बल को समझना चाहिए। अपने पेशे के प्रति ईमानदारी अच्छी बात है किंतु जब बात देश की हो तब बाकी बातें महत्वहीन हो जाती हैं । 370 का हटना देश की अखंडता के लिए कितना जरूरी था ये बात अब बताने की जरूरत नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 9 August 2023

रोहिंग्या के आधार कार्ड बनाने वालों पर भी कड़ी कार्रवाई की जाए




हरियाणा के नूंह में हिंदुओं की धार्मिक यात्रा पर दूसरे समुदाय के लोगों द्वारा किए गए पथराव के कारण  अड़ोस - पड़ोस के अनेक जिलों तक दंगों की आग फैल गई । इनमें कुछ जिले राजस्थान के भी हैं , वहीं एनसीआर का हिस्सा बन चुका गुरुग्राम अभी तक अशांत हैं । नूंह जिस मेवात अंचल का हिस्सा है  वहां लगभग 90 फीसदी आबादी मेव मुसलमानों की है। दंगों के बाद उपद्रवियों की पहिचान कर उनके विरुद्ध  कार्रवाई शुरू की गई। जिसके अंतर्गत अनेक इमारतें गिराने के साथ अवैध रूप से बनाई गई झुग्गियां हटाई गईं । इसी दौरान ये पता  लगा कि मुस्लिम बहुलता का लाभ लेकर म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमानों के तकरीबन 2000 परिवार वहां बस गए जिनमें से काफी लोगों के पास आधार कार्ड भी हैं ।  अब प्रश्न ये है कि विदेश से आकर अवैध रूप से यहां बस जाने वाले रोहिंग्या मुसलमानों को आधार कार्ड जैसा दस्तावेज किस तरह हासिल हुआ ? और इसका सीधा - सीधा उत्तर है भ्रष्ट व्यवस्था की मदद से । 1971 में  तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान में गृहयुद्ध के कारण सीमा पार से बड़ी संख्या में शरणार्थी  भारत में घुस आए। तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने मानवीय आधार पर उनके रहने की व्यवस्था शिविरों में की। बाद में बांग्ला देश नामक मुल्क का उदय हुआ। तब तक करोड़ों बांग्ला देशी बतौर शरणार्थी आ चुके थे । जब सीमावर्ती राज्यों में समस्या हुई तब देश के भीतरी हिस्सों में  शिविर बनाकर उनकी व्यवस्था की गई। उम्मीद थी कि स्थितियां सामान्य होते ही वे  वापस चले जायेंगे किंतु  लौटना तो दूर  उल्टे उनका आना आज तक  जारी है । इसकी वजह से न सिर्फ असम , प.बंगाल ,  बिहार और उड़ीसा अपितु पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों में जनसंख्या असंतुलन उत्पन्न हो गया।  देश के ज्यादातर हिस्सों में बांग्ला देशी मुसलमान स्थायी तौर पर बस चुके हैं। यहां जन्म लेने के कारण उनके बच्चे तो भारत के वैधानिक नागरिक हो ही गए किंतु जो बतौर शरणार्थी आए थे उनके भी नागरिकता संबंधी दस्तावेज बन जाने से   यह समस्या लाइलाज बन गई। इसके लिए  प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के साथ राजनीतिक नेताओं  की भूमिका भी जिम्मेदार कही जायेगी । जो  पार्टियां मुस्लिम तुष्टीकरण में जुटी रहती हैं उनके लिए  बांग्ला देशी शरणार्थी  वोट बैंक बन गए। परिणामस्वरूप अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में वे ही जीत - हार तय करने की स्थिति में हैं।  जब भारत सरकार ने नागरिक रजिस्टर बनाने की मुहिम शुरू की और नागरिकता संशोधन कानून लागू करना चाहा तब देश के ज्यादातर राजनीतिक दल उसके विरोध में खड़े हो गए। दिल्ली दंगा और शाहीन बाग जैसा प्रयोग उसी से जुड़ा हुआ था। समय बीतने के साथ बांग्ला देश से आए शरणार्थियों को वापस भेजने की बात तो दूर,  म्यांमार (बर्मा) से रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ शुरू हो गई जो  धीरे - धीरे देश के अन्य हिस्सों से होते हुए  जम्मू - कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य तक जा पहुंचे। अपराधिक गतिविधियों के कारण  जब इनका विरोध शुरू हुआ तब जो तबका बांग्ला देशी मुस्लिमों को गोद में बिठाए रखने की वकालत करता रहा वही रोहिंग्या की तरफदारी में खड़ा हो गया । गौरतलब है  रोहिंग्या  को  म्यांमार सरकार ने बांग्ला देशी मानकर अपने देश से निकाल फेंका ,  वहीं बांग्ला देश भी उनको स्वीकार करने राजी नहीं। अपराधिक मानसिकता  के कारण वे बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं । यहां तक जानकारी  मिलने लगी है कि उनके संबंध आतंकवादी संगठनों से हैं। नूंह के दंगों से  ये बात साबित भी हो गई कि उनकी मौजूदगी देश की आंतरिक शांति और सुरक्षा के लिए स्थायी खतरा है। ऐसे में पता लगाने  वाली बात ये है कि प्रशासन में बैठे वे कौन लोग हैं जो चंद रुपयों की लालच में देश हित का सौदा कर लेते हैं? इसलिए ये जरूरी है कि राजनीतिक आरोप - प्रत्यारोपों से ऊपर उठकर  ऐसे मामलों में सख्ती बरती जाए। नूंह दंगों की जो जांच हो रही है उसमें इस बात को भी जोड़ा जाए कि मेव मुसलमानों के साथ बस गए विदेश से आए रोहिंग्या मुसलमान आधार कार्ड जैसा दस्तावेज बनवाने में किस तरह कामयाब हो गए। देश की राजधानी से बेहद निकट किसी इलाके में यदि घुसपैठियों को आबाद होने में इतनी छूट है तब बाकी क्षेत्रों के बारे में क्या कहा जाए ,  ये विचारणीय प्रश्न है। बिहार से भी ऐसी खबरें आने लगी हैं । देश में अवैध रूप से आए विदेशी नागरिकों को सरकारी दस्तावेज प्रदान कर नागरिक होने का प्रमाणपत्र देने वाली सरकारी मशीनरी पर भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 8 August 2023

सादगी का उपदेश देने वाले भी तो वीआईपी संस्कृति से दूर रहें




मुरारी बापू देश की अत्यंत सम्माननीय आध्यात्मिक विभूति हैं। उनके द्वारा की जाने वाली कथाओं को सुनने जनसैलाब उमड़ता है। बड़े ही सरल और सहज व्यक्ति होने से उनके संपर्कों का दायरा विश्वव्यापी है। श्रावण माह में वे दो विशेष रेलगाड़ी लेकर भगवान शंकर के 12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करने निकले । उनके साथ सैकड़ों सेवक और भक्त भी रहे । इसी दौरान गत सप्ताह वे महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु उज्जैन आए थे। इस अवसर पर उन्होंने मंदिरों में वीआईपी संस्कृति खत्म करने की बात कहते हुए साधारण जनता को प्राथमिकता देने का सुझाव देकर जनभावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की। निश्चित रूप से भगवान के दरबार कहे जाने वाले मंदिरों में अतिविशिष्ट लोगों के आने से वहां घंटों पहले से पंक्ति में खड़े आम श्रद्धालु परेशान होते हैं और उनको गुस्सा भी आता है। उस दृष्टि से बापू के विचार स्वागत योग्य भी हैं और अनुकरणीय भी। लेकिन जिस वीआईपी संस्कृति का जिक्र उन्होंने छेड़ा वह केवल नेताओं , नौकरशाहों और धनकुबेरों तक ही सीमित नहीं रही। अपितु धर्म और आध्यात्म से जुड़ी हस्तियां भी इसके आकर्षण से ग्रसित हैं । एक समय था जब धार्मिक आयोजन कम से कम खर्च में संपन्न होते थे । प्रवचन करने करने वाले भी धर्म प्रचार की भावना से सहज आमंत्रण पर आ जाया करते थे। उनके आने - जाने , रहने , भोजन इत्यादि पर भी बहुत व्यय नहीं होता था। आयोजन स्थल पर भी साधारण व्यवस्था ही पर्याप्त होती थी। लेकिन आजकल वह सब कल्पनातीत होता जा रहा है। इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि मंदिर ही नहीं अपितु जहां कहीं भी धार्मिक अनुष्ठान होता है वहां वीआईपी संस्कृति का बोलबाला होता है। आजकल जहां देखो कोई न कोई बड़ा धार्मिक आयोजन होता दिखता है, जिसके प्रचार - प्रसार पर ही लाखों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। पंडाल और मंच की साज - सज्जा भी इतनी भव्य होती है कि साधारण व्यक्ति तो वैसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। जो आध्यात्मिक विभूतियां इन आयोजनों में प्रवचन देने आती हैं उनमें से ज्यादातर के साथ किसी फिल्मी सितारे सरीखा तामझाम जुड़ा है। उनकी आवास व्यवस्था पर ही बेतहाशा खर्च होता है। और अब तो एक नया चलन शुरू हो गया है। जिस प्रवचन कर्ता को बुलाया जाता है उसकी अपनी पंडाल , मंच सज्जा और टीवी पर प्रसारण की व्यवस्था है । जिसके लिए भारी - भरकम अग्रिम भुगतान करना होता है। कुल मिलाकर दूसरों को सादगी और त्याग का उपदेश देने वाले जिस तरह के महंगे आयोजन को प्रोत्साहन देने लगे हैं उस वजह से साधारण व्यक्ति तो किसी कोने में जगह पा जाने पर खुद को धन्य समझता है क्योंकि आगे के स्थान तो वीआईपी से ही भरे होते हैं । और उनमें भी ज्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें प्रवचन से ज्यादा रुचि अपनी हैसियत और रुतबे के प्रदर्शन में होती है। खुद बापू की कथा का आयोजन भी सुपर वीआईपी हो चला है। गत दिवस समाप्त हुई उनकी उक्त यात्रा जिस रेलगाड़ी से हुई वह विशेष तौर पर रेलवे ने तैयार करवाई जिसमें पांच सितारा होटल जैसी सुविधाएं उपलब्ध रहीं। हालांकि बापू का खुद का रहन - सहन बेहद सादा है। आम जनों से वे सरलता से मिलते हैं किंतु जिस वीआईपी संस्कृति से मंदिरों को मुक्त करने की बात उन्होंने कही उससे धर्म और आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़े माननीय महानुभावों को दूर रखना भी समय की मांग है। कई बार ये लगने लगता है धर्म के क्षेत्र में भी बाजारवाद घुस चुका है। नव धनाढ्यों और राजनेताओं की निकटता ने साधु , सन्यासियों को भी प्रभावित कर लिया है। ऐसे में मंदिरों के भीतर वीआईपी संस्कृति समाप्त करने मात्र से काम नहीं चलने वाला। दर्शन हेतु टिकिट जैसी व्यवस्था भी कई बार अखरती है । हालांकि उसकी वजह से व्यवस्था में सहयोग भी मिलता है। लेकिन आध्यात्म के क्षेत्र में पनप रही व्यवसायिक प्रवृत्ति निश्चित रूप से मन को कचोटती है। ये कहना भी गलत न होगा कि धर्म के नाम पर होने वाली अवांछित गतिविधियों के पीछे भी आर्थिक चकाचौंध ही है । अच्छा हो बापू जैसे व्यक्ति इस बारे में आगे आकर धार्मिक आयोजनों को ईवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा बनने से रोकने का अभियान चलाएं। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि चार्टर्ड विमान और महंगी कारों में चलने वाले महात्मा जब सादा जीवन , उच्च विचार का उपदेश देते हैं तो श्रोताओं पर उनका अपेक्षित असर नहीं होता। चूंकि ये बेहद सम्वेदनशील विषय है इसलिए अच्छा तो यही होगा कि वरिष्ट संत - महात्मा , विशेष रूप से शंकराचार्य इस बारे में आचार संहिता बनाएं ।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 7 August 2023

ज्ञानवापी के इमाम ने ये सच्चाई पहले क्यों नहीं जाहिर की




वाराणसी में काशी विश्वनाथ परिसर से सटी ज्ञानवापी इमारत मस्जिद है या मंदिर ,  इसका  खुलासा तो एएसआई द्वारा किए जा रहे सर्वे से ही हो सकेगा । लेकिन जो प्रारंभिक जानकारी आ रही है यदि वह प्रामाणिक है तब ज्ञानवापी के हिन्दू मंदिर होने की बात साबित हो जाएगी । कहा जा रहा कि  हिंदू मंदिरों में अंकित किए जाने वाले प्रतीक चिन्ह सर्वे के दौरान जगह - जगह नजर आए ।  अच्छी बात ये है कि प्रारंभिक आनाकानी के बाद मुस्लिम पक्ष भी सर्वे टीम के साथ परिसर में उपस्थित है। तहखानों आदि के ताले भी खोल दिए गए क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सर्वे पर रोक लगाने से इंकार किए जाने के बाद  और कोई विकल्प रह नहीं गया था।  अपुष्ट सूत्रों के अनुसार अब तक हुए सर्वे में मूर्तियों के टुकड़े , त्रिशूल , कमल ,  पान के पत्ते की आकृतियां और गुंबद में हिन्दू वास्तु शैली के प्रमाण दिखे हैं। अत्याधुनिक उपकरणों की मदद से जिस प्रकार की फोटोग्राफी हो रही है वह हकीकत  को सामने लाने में सक्षम है। और इसी को मुस्लिम पक्ष रोकना चाहता था । लेकिन उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय  के आदेश के बाद उसको  सहयोग करने मजबूर होना पड़ा।  एक बात और भी स्पष्ट है कि सर्वे के विरोध में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का समर्थन न मिलने से  मुस्लिम संगठनों का हौसला पस्त हुआ।  हालांकि ज्ञानवापी के विरोध का सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा था। ये बात भी सही है  कि अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद हिंदुओं में इस बात का आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ कि  समुचित जांच हो तो ज्ञानवापी के भीतर मंदिर के प्रमाण मिल सकते हैं। इस बारे में ज्ञानवापी के इमाम का ताजा बयान काबिले गौर है कि सर्वे के दौरान मिले  सनातनी प्रमाण  इस बात को इंगित करते हैं कि औरंगजेब ने हिंदुओं के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए वैसा किया था । उन्होंने ये सफाई भी दी कि औरंगजेब ने  मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई होगी ये बात नामुमकिन है। साथ ही  ये दावा भी किया कि उसने तो मंदिर बनवाने हेतु दान दिए जिसके प्रमाण वाराणसी में बने अनेक पुराने मंदिरों में उपलब्ध है। हालांकि इमाम ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया कि मुसलमान ज्ञानवापी हिंदुओं को सौंप दें। लेकिन उनके बयान में इस बात की स्वीकारोक्ति तो है ही कि उसके भीतर सनातनी प्रमाण हैं। लेकिन ये  सब इमाम की जानकारी में था तब ये बात उसी समय सार्वजनिक करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखाई गई जब हिंदुओं की तरफ से दावे किए जा रहे थे कि ज्ञानवापी में मंदिर के प्रमाण हैं। इमाम से पहले किसी मुस्लिम धर्मगुरु से ये सुनने नहीं मिला कि  ज्ञानवापी में साझा संस्कृति के तहत  हिन्दू मंदिरों जैसे प्रतीक चिन्ह भी  निर्माण के समय बनाए गए थे। उल्लेखनीय है  औरंगजेब कट्टर मुसलमान था जिसने हिंदुओं पर जजिया कर लगाने के अलावा अपने भाइयों  को मरवाकर पिता को कैद कर लिया ।  भले ही वामपंथी और ब्रिटिश इतिहासकार उसके बारे में अच्छी - अच्छी बातें लिखते रहे लेकिन  ये प्रचारित करना पूरी तरह असत्य और भ्रम उत्पन्न करने वाला है कि उसने ज्ञानवापी में सनातनी परंपरा को भी समाहित किया।  सांकेतिक प्रतीकों  के अलावा गुंबदों में हिन्दू मंदिरों जैसी निर्माण शैली के साथ ही यदि  मूर्तियों के अवशेष मिल रहे हैं तब बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता  है। वैसे भी जब इस्लाम  मूर्ति पूजा से परहेज करता है तब औरंगजेब जैसे  कट्टर मुस्लिम  ने  ज्ञानवापी में मूर्ति रखने की स्वीकृति दी होगी ये सोचना पागलपन ही है। इमाम की बातों से यह संकेत  भी मिल रहा है कि मुस्लिम पक्ष अब रक्षात्मक होने लगा है । उसे ये बात अच्छी समझ में आ रही है कि यदि सर्वे में  मंदिर होने की  पुष्टि हो गई तब  न्यायालय के साथ ही गैर भाजपाई राजनीतिक दलों का रुख भी उसी के पक्ष में हो सकता है।  ऐसे में मुस्लिम समाज के धर्मगुरुओं को समझदारी से काम लेना चाहिए। ज्ञानवापी के इमाम ने घुमा - फिराकर ही सही जिस हकीकत को स्वीकार किया है उसे सीधे - सपाट शब्दों में स्वीकार किया जाए तो इससे पूरे समुदाय का  भला होगा । हिंदुओं के लिए भी बेहतर रहेगा कि वे फिलहाल ज्यादा उतावलापन न दिखाएं क्योंकि एएसआई सर्वे की रिपोर्ट अंततः अदालत के समक्ष रखी  जायेगी और वही मंदिर या मस्जिद का फैसला करेगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Sunday 6 August 2023

बागेश्वर महाराज की आरती उतारकर कमलनाथ ने कांग्रेसियों को असमंजस में डाल दियापार्टी के अनेक नेता बाबा के विरोधी हैं


 प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने गत दिवस यहां बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की जिस तरह अगवानी करते हुए आरती उतारी उसकी राजनीतिक जगत में काफी चर्चा है। वैसे भी  श्री नाथ काफी समय समय से अपने को भाजपा से भी बड़ा हिंदुत्ववादी साबित करने में जुटे हुए हैं। इसी सिलसिले में वे बागेश्वर धाम की यात्रा भी कर आए थे। भोपाल स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में हनुमान जी का कट आउट लगाने के साथ ही पंडितों और पुजारियों को बुलाकर उनका सम्मान करने जैसे कदमों के अलावा इन दिनों वे साधु - संतों के बारे में बोलने में सावधानी बरत रहे हैं। ये बात सर्वविदित है  कि कमलनाथ आगामी विधानसभा चुनाव किसी भी कीमत पर जीतना चाहते हैं । इसके लिए वे हिन्दू मतदाताओं को रिझाने के लिए भी हर कोशिश करने  तैयार हैं। ये जानते हुए भी कि बागेश्वर धाम के प्रमुख धीरेंद्र कृष्ण हिन्दू राष्ट्र की खुलेआम वकालत करते हैं , उनकी आरती उतारकर कमलनाथ ने  कांग्रेस के उन नेताओं के सामने असमंजस की स्थिति उत्पन्न कर दी जो बागेश्वर महाराज के नाम से  प्रसिद्ध श्री शास्त्री द्वारा हिन्दू राष्ट्र का मुद्दा उठाए जाने पर उनकी आलोचना करते आए हैं। वैसे भी ज्यादातर साधु - सन्यासी अयोध्या आंदोलन के बाद से भाजपा के करीबी माने जाते हैं। इसीलिए   छत्तीसगढ़  की कांग्रेस सरकार के एक मंत्री ने बागेश्वर महाराज  को ललकारते हुए हुए कहा कि  बस्तर में हुए धर्मांतरण के अपने  आरोप को साबित कर दें तो वे राजनीति छोड़ देंगे अन्यथा महाराज पंडिताई छोड़ें । ऐसी ही टकराहट श्री शास्त्री की अन्य राज्यों में भी कांग्रेस नेताओं से होती आई है। हाल ही में विवाहित हिन्दू महिला के मांग भरने संबंधी उनके बयान पर भी कांग्रेस की अनेक महिला नेत्रियों ने उनका जमकर।विरोध किया था। लेकिन श्री नाथ ने गत दिवस बागेश्वर महाराज की जिस तरह मिजाजपुर्सी की उसकी वजह से श्री शास्त्री के आलोचक रहे कांग्रेस आश्चर्यचकित हैं । दरअसल अब तक वे भाजपा पर तो राजनीति में धर्म को घसीटने  का आरोप लगाते रहे किंतु अब कमलनाथ भी उसी के नक्शे कदम पर चल रहे हैं तब उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि वे आगे से श्री शास्त्री के बारे में आलोचनात्मक बातें कैसे बोलेंगे ? स्मरणीय है कुछ माह पूर्व जब उत्तराखंड के जोशीमठ में धरती में दरारें आईं तब छत्तीसगढ़ के  मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने श्री शास्त्री पर कटाक्ष किया था कि वे उसे भरने का चमत्कार दिखाएं। ये भी गौर गलब है कि बागेश्वर महाराज जहां भी जाते हैं , हिन्दू राष्ट्र का का संकल्प दोहराते हुए उपस्थित लोगों से उसके समर्थन के अपील करते हैं। जाहिर है छिंदवाड़ा में भी वे ऐसा ही करेंगे और तब श्री नाथ उस पर क्या कहेंगे ये सवाल उठने लगा है। एक बात और जो इस बारे में चर्चित है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के जरूरत से ज्यादा हिन्दू प्रेम ने पार्टी के परंपरागत मुस्लिम मतदाताओं को चौकन्ना कर दिया है। हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी तो पहले से ही मुस्लिम समुदाय कोअपने साथ लाने प्रयासरत हैं। दरअसल छिंदवाड़ा में बागेश्वर महाराज की आरती उतारना कमलनाथ की  मजबूरी थी क्योंकि 2019 की मोदी लहर में वे  विधानसभा और उनके बेटे नकुल नाथ लोकसभा का चुनाव बहुत कम अंतर से जीते थे। लोगों का मानना है कि नरेंद्र मोदी की सभा यदि छिंदवाड़ा में हो जाती तब बाप - बेटा दोनों  हार जाते। शायद उसी भय से श्री नाथ ने बागेश्वर महाराज की आरती उतारने का फैसला लिया। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 5 August 2023

सर्वोच्च न्यायालय ने राहत के साथ नसीहत भी दी है




सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मानहानि मामले में गत दिवस दिए फैसले को लेकर राजनीतिक हलचल होना स्वाभाविक है। गुजरात की अदालत ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को दो वर्ष की जो सजा सुनाई उसके कारण उनकी संसद सदस्यता समाप्त कर  सरकारी आवास  खाली करवा लिया गया , जो सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन गांधी परिवार के साथ ऐसा कुछ होना अनोखा माना जाता है ,  इसलिए सवाल उठाया गया कि सदस्यता और आवास संबंधी फैसले इतनी शीघ्रता से क्यों लिए गए ? उच्च न्यायालय में भी जब श्री गांधी को सजा के विरुद्ध स्थगन न मिला तब वे सर्वोच्च न्यायालय गए जिसने गत दिवस उसको स्थगित करते हुए ये सवाल उठाया कि  दो वर्ष की सजा ही क्यों दी गई ? यदि वह  एक वर्ष 11 माह होती तब जेल जाने पर भी वे सांसद बने रहकर  आगामी चुनाव  लड़ सकते थे। सर्वोच्च न्यायालय ने ये टिप्पणी भी की कि  2 वर्ष की सजा देने से एक तरफ तो श्री गांधी सांसद रहने से वंचित हुए वहीं उनके निर्वाचन क्षेत्र वायनाड के मतदाता भी जन प्रतिनिधि विहीन हो गए। ये तो हुईं बौद्धिक बातें किंतु श्री गांधी की सजा स्थगित किए जाने को उनकी जीत बताने वाले इस बात को नजरंदाज कर रहे हैं कि जिस भाषण पर उन्हें सजा हुई उसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने सही नहीं माना और नसीहत दी कि  सार्वजनिक रूप से भाषण देते समय अपनी जुबान पर नियंत्रण रखना चाहिए। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश ही दिया है जिसमें   श्री गांधी की अपील पर अंतिम निर्णय होने तक सजा स्थगित तो की गई किंतु रद्द नहीं हुई। इसका मतलब साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अभी उनको निर्दोष नहीं माना  अपितु अस्थायी  राहत दी है जिससे उनकी  सदस्यता बहाल होने के साथ ही  शासकीय आवास भी उन्हें वापस मिल जावेगा।  बहरहाल श्री गांधी और कांग्रेस ही नहीं बल्कि विपक्षी गठबंधन के लिए ये आदेश संजीवनी की तरह है क्योंकि संसद सत्र के दौरान इसके आने से  उनका हौसला बुलंद हुआ है। यदि अध्यक्ष ने तत्काल सदस्यता बहाल कर दी तब हो सकता है श्री गांधी अविश्वास प्रस्ताव पर होने वाली बहस में शरीक हो सकें। लेकिन इस निर्णय को अभूतपूर्व कहना अतिशयोक्ति होगी क्योंकि उनके पहले ऐसे ही मामले में एक लोकसभा सदस्य को 10 वर्ष की  सजा होने पर उसकी सदस्यता खत्म कर दी गई और चुनाव आयोग ने उपचुनाव की तैयारी भी कर ली किंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सजा स्थगित कर देने  के बाद उक्त सांसद की सदस्यता बहाल हो गई। लेकिन राहुल चूंकि कांग्रेस के बड़े नेता हैं और अघोषित तौर पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी , इसलिए  उनकी सजा पर मिले स्थगन को पार्टी बड़ी जीत के तौर पर प्रचारित कर रही  है  । लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी सजा की अवधि को भले ज्यादा माना हो किंतु जिस कारण से वह दी गई उसे पूरी तरह गलत नहीं बताया ।और उनको बोलते समय मर्यादा का ध्यान रखने की समझाइश भी दे डाली  । अन्यथा न्यायालय चाहता तो  उन्हें निर्दोष घोषित कर देता। इस प्रकार अभी भी ये प्रकरण पूरी तरह खुला हुआ है क्योंकि  केवल सजा पर स्थगन हुआ है जिसके कारण श्री गांधी सांसद बने रहेंगे और यदि जल्द फैसला न हुआ तब लोकसभा चुनाव भी लड़ सकेंगे । लेकिन यदि सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी मानकर उनकी सजा कम कर दी तब उनको जेल जाना पड़ सकता है। जहां रहकर वे चुनाव भले लड़ लें लेकिन मैदानी राजनीति नहीं कर सकेंगे। हालांकि राहुल और कांग्रेस के लिए सर्वोच्च न्यायालय का आदेश निःसंदेह राहत लेकर आया किंतु बात यहीं पर समाप्त नहीं होती क्योंकि  सर्वोच्च न्यायालय ने ये टिप्पणी तो कर ही दी कि संदर्भित भाषण में उनका लहजा अच्छा नहीं था। सवाल ये है कि क्या न्यायालय के  इस कथन को हमारे नेता गंभीरता से लेंगे कि सार्वजनिक जीवन में बोलने से पूर्व सावधानी की अपेक्षा की जाती है। इस दायरे में केवल श्री गांधी ही नहीं वरन सभी राजनीतिक दलों के वे  नेता आते हैं जिन्हें विवादित टिप्पणियां करने का शौक है और  दूसरों का अपमान कर वे खुश होते हैं। ऐसे नेताओं पर उनकी पार्टियां जब नियंत्रण नहीं लगातीं तब ये लगता है कि उन्हें ऐसा बोलने हेतु अधिकृत किया गया है। इस बारे में वामपंथियों की छवि कुछ बेहतर है जो  मुद्दों तक सीमित रहते हुए व्यक्तिगत कटाक्षों से परहेज करते हैं। भाजपा वैसे तो अपने अनुशासन के लिए प्रसिद्ध है किंतु उसके भी कुछ नेताओं के बयान शालीनता के विरुद्ध होते हैं। क्षेत्रीय दलों में तो विवादित बयानबाजी करने वाले ढेरों हैं। स्मरणीय है कुछ समय पहले तक श्री गांधी अपने भाषणों में स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बारे में अनर्गल बोला करते थे जिस पर महाराष्ट्र में कांग्रेस की सहयोगी शिवसेना (उद्धव गुट) को भी आपत्ति होती थी। बाद में शरद  पवार के दबाव में आकर उन्होंने सावरकर जी के बारे में बोलने से परहेज किया किंतु जो बोल गए उस पर खेद न जताकर अपनी हठधर्मिता भी दिखाई। अभी श्री गांधी पर मानहानि के और भी मुकदमे लंबित हैं । ऐसे ही प्रकरण अन्य राजनीतिक नेताओं पर भी हैं। आजकल तो संसद के भीतर भी शब्दों की मर्यादा तार - तार करने का चलन है। इसके कारण राजनीति और राजनेताओं की प्रतिष्ठा घट रही है किंतु ऐसा लगता है शालीनता की जगह उद्दंडता ने ले ली है। ये प्रवृत्ति किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। लोकतंत्र सभ्य समाज में ही फलता - फूलता है। उस दृष्टि से मौजूदा माहौल चिंता पैदा करने वाला है।

- रवीन्द्र वाजपेयी