Tuesday 31 January 2023

राम और रामचरित मानस भारत की सांसों में है : इनका विरोध असहनीय



बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर द्वारा रामचरित मानस को नफरत फ़ैलाने वाला ग्रंथ बताकर जो विवाद पैदा किया गया वह शांत हो पाता उसके पहले उ. प्र के पूर्व मंत्री और सपा के वरिष्ट नेता स्वामीप्रसाद  मौर्य ने भी रामचरित मानस में जातिगत संबोधनों पर उंगली उठाते हुए चंद्रशेखर से मिलती जुलती बातें कहकर खुद को राजनीतिक के साथ ही कानूनी विवाद में भी फंसा लिया। उनके विरुद्ध अपराधिक मामले दर्ज किए जा चुके हैं। आश्चर्य की बात है कि स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने शिक्षा मंत्री के बयान पर नाराजगी जताई वहीं राजद नेता तेजस्वी ने भी समझाइश दी किंतु उनको पद से नहीं हटाया गया l बिहार के एक और मंत्री ने सवर्ण जातियों के विरुद्ध जहर उगला है। इसे लेकर जनता दल (यू) और राजद के बीच मतभेद भी उभरकर सामने आए हैं। इसी तरह उ.प्र में स्वामी प्रसाद के रामचरित मानस को लेकर दिए गए आपत्तिजनक बयान पर एतराज तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी व्यक्त किया और उनको पार्टी दफ्तर बुलाकर पूछताछ भी की। कुछ और सपा नेताओं ने भी स्वामी प्रसाद की निंदा की लेकिन अखिलेश ने दोहरा चरित्र दिखाते हुए बजाय दंडित करने के उनको राष्ट्रीय महामंत्री बनाकर उनकी गलती का इनाम दे दिया । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वैसे तो आज जो भी हैं उसी भाजपा की कृपा से हैं जिसे वे इन दिनों पानी पी पीकर कोसते हैं किंतु वैचारिक मतभेद के बाद भी उन्होंने कभी हिन्दू ग्रंथों या देवी देवताओं पर स्तरहीन टिप्पणी नहीं की । भले ही वे धार्मिक कर्मकांड से दूर रहते हों लेकिन विवादास्पद मुद्दे उठाने से भी बचते रहे। लेकिन अपने शिक्षा मंत्री के बेहद गैर जिम्मेदाराना बयान पर वे जिस तरह से लाचार नजर आए उससे लगता है वे  बूढ़े शेर की मानिंद हो गए हैं। दूसरी तरफ तेजस्वी ने भी अपनी पार्टी के शिक्षा मंत्री से असहमत होने की बात कहते हुए पल्ला झाड़ लिया। ऐसा ही दिखावटी विरोध अखिलेश ने स्वामीप्रसाद का किया और लगे हाथ उनको संगठन में राष्ट्रीय पद से नवाज दिया। देश के कुछ और हिस्सों से भी भगवान राम और तुलसीकृत रामचरित मानस के बारे में अनर्गल और घृणा फैलाने वाली बातें कतिपय राजनेता और अन्य वर्गों के लोग कर रहे हैं। इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ वोटों की लालच है । इस तरह की टिप्पणियां करने वाले सोचते हैं  कि राम , तुलसीदास और रामचरित मानस को लेकर भड़काऊ बातें कहकर वे एक वर्ग विशेष के नायक बन जायेंगे। सवर्ण जातियों के विरुद्ध घृणा फैलाकर वे पिछड़ी और दलित जातियों का समर्थन हासिल करने के सपने भी देखते हैं। अतीत में ये नुस्खा कारगर भी साबित हुआ है किंतु कालांतर में इससे नुकसान ही हुआ। वरना स्व.मुलायम  सिंह यादव और मायावती बहुत पहले प्रधानमंत्री बन गए होते। एक दौर था जब दीवारों पर तिलक तराजू और तलवार , इनको मारो जूते चार के नारे नजर आते थे। लेकिन जब इस भावना की प्रणेता बसपा को लगा कि वह कभी सत्ता हासिल नहीं कर सकेगी तो उसने हाथी नहीं गणेश है , ब्रह्मा विष्णु महेश है का नारा लगाया जिसकी वजह से मायावती को पूर्ण बहुमत मिला। ध्यान रहे मायावती के राजनीतिक उत्थान में ब्राह्मण सतीश चंद्र मिश्र का बड़ा योगदान था । लेकिन सरकार में आते ही ज्योंही मायावती ने जातिगत भेदभाव का परिचय दिया त्योंही वे अलोकप्रिय होने लगीं और अगले चुनाव में जनता ने उनको नकार दिया। यही कहानी अखिलेश के साथ दोहराई गई। उनके पिता स्व.मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम मतों की लालच में हिंदू कारसेवकों पर गोली तक चलवाने में झिझक नहीं दिखाई। लेकिन उनके जीवनकाल में ही सपा न सिर्फ उ.प्र की सत्ता से बाहर हुई अपितु छिन्न भिन्न भी हो गई। बसपा को भी मायावती की संकीर्ण सोच ले डूबी। आज वे अपने अस्तित्व के लिए हाथ पांव मार रही हैं तो अखिलेश यादव भी स्वामी प्रसाद जैसे नेताओं के सहारे अपना खोया हुआ आभामंडल दोबारा चमकाने के स्वप्न देख रहे हैं। ये वही व्यक्ति है जो पहले बसपा,  फिर भाजपा को धोखा देने के बाद सपा में आया और अपने बड़बोलेपन की वजह से खुद भी हारा और सपा की लुटिया भी डूब गई। उ.प्र और बिहार में जाति और अल्पसंख्यक गठजोड़ का प्रयोग भी लालू प्रसाद और मुलायम सिंह की सत्ता को स्थायी न बना सका। दोनों के परिवारों में यादवी संघर्ष मचा है। पिछड़ों के नाम पर  कुनबे की राजनीति होने से उसका स्वरूप विकृत होता चला गया। ऊंची जातियों के विरोध के साथ राम और उनके मंदिर का मजाक उड़ाया गया। और अब रामचरितमानस के नाम पर सामाजिक विद्वेष फैलाया जा रहा है। सनातन परंपरा के इस महान ग्रंथ पर  प्रतिबंध लगाने की मांग के अलावा उसे जलाने जैसी गतिविधियां हो रही हैं । नीतीश , तेजस्वी और अखिलेश यदि सोच रहे हैं कि चंद्रशेखर और स्वामी प्रसाद जैसे विकृत मानसिकता के साथियों की पीठ पर हाथ रखकर वे सत्ता के शिखर पर काबिज रहेंगे तो ये कहना गलत न होगा कि वे मूर्खों के संसार में विचरण कर रहे हैं । देश में जाति और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति जमीन चाट चुकी है। उ.प्र और बिहार में उसका बचा खुचा आधार भी दम तोड़ देगा यदि नीतीश , तेजस्वी और अखिलेश ने अपना रवैया नहीं बदला। इन नेताओं को कांग्रेस और बसपा के पतन से सीखना चाहिए जो वोट बैंक की हवस में साख और धाक गंवा बैठी। इसके साथ ही भाजपा के उत्थान पर भी इनको ध्यान देना चाहिए जिसे ऊंची जातियों की पार्टी का तमगा दिया जाता रहा किंतु वह  पिछड़ी और दलित जातियों में भी अपनी पैठ बनाकर राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर जा बैठी। और निकट भविष्य में भी उसके हटने की संभावना नहीं है । घृणा और अवसरवाद ने ही देश में  वामपंथ की जड़ें कमजोर कर दीं । समाजवादी आंदोलन भी जाति और तुष्टीकरण के फेर में फंसकर आखिरी सांसे गिन रहा है। राम और रामचरितमानस भारत की सांसों में समाहित हैं। इनका अपमान करने वालों को जनता इनके अंजाम तक पहुंचाए बिना नहीं रहेगी। इतिहास की गलतियों से जो सीख नहीं लेते उनका भविष्य चौपट होना तय है।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 30 January 2023

यात्रा के बाद क्या विपक्षी छत्रप राहुल का नेतृत्व स्वीकार करेंगे



कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का गत दिवस श्रीनगर में  समापन हो गया। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यह यात्रा विभिन्न राज्यों से गुजरी। इसमें केवल राजस्थान में ही कांग्रेस की पूर्ण सत्ता है। तमिलनाडु, केरल , कर्नाटक , तेलंगाना , महाराष्ट्र , मध्यप्रदेश, राजस्थान ,  उ प्र , दिल्ली, हरियाणा , पंजाब से होती हुई वह अपने गंतव्य श्रीनगर पहुंची। यात्रा में  उनके साथ  विभिन्न राज्यों से चुने गए कांग्रेस कार्यकर्ता  अंत तक शामिल रहे जो उल्लेखनीय है। यात्रा की समाप्ति सकुशल हुई ये राहत का विषय है क्योंकि  पंजाब और जम्मू कश्मीर सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील थे । गैर कांग्रेसी राज्यों में भी यात्रा की सुरक्षा का अच्छा ध्यान रखा गया । हालांकि इक्का दुक्का दुखद घटनाएं हुईं । कांग्रेस के एक सांसद पैदल चलते हृदयाघात से चल बसे तो पंजाब और कश्मीर में सुरक्षा प्रबंध थोड़े गड़बड़ाए भी। कांग्रेस ने इस यात्रा को  आंदोलन का नाम दिया था जिसका मकसद घृणा और धार्मिक उन्माद मिटाकर लोगों को विभाजनकारी राजनीति के विरुद्ध एकजुट करना बताया गया। इसके साथ ही श्री गांधी जिस क्षेत्र से गुजरते वहां की स्थानीय समस्या पर भी लोगों से बात करते हुए अपना दृष्टिकोण रखते। धीरे धीरे उनकी टी शर्ट और बढ़ती दाढ़ी भी चर्चा में आने लगी। उत्तर भारत की सर्दी में भी वे टी शर्ट पहने रहे।  खबर है अब गुजरात से असम तक भारत जोड़ो यात्रा का दूसरा चरण निकाला जावेगा। अपने इस प्रयास में श्री गांधी की पहली सफलता तो ये कही जायेगी कि उन्होंने कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर व्याप्त अनिश्चितता पूरी तरह खत्म करते हुए यह स्थापित कर दिया कि वे ही पार्टी के चेहरे हैं और   गांधी परिवार की विरासत के एकमात्र हकदार भी। जो लोग कुछ समय से उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा को उनसे ज्यादा सक्षम साबित कर रहे थे उनकी बोलती इस यात्रा ने बंद कर रखी है। दूसरी बात ये कि राहुल उस आरोप से बरी हो गए  कि वे चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए राजकुमार हैं इसलिए उनका जनता से न संपर्क है और न ही संवाद। पूरी यात्रा उन्होंने पैदल की और निर्धारित दूरी प्रतिदिन तय करते हुए अपनी प्रतिबद्धता और शारीरिक क्षमता प्रदर्शित  की। लेकिन भारत जोड़ो का नाम सार्थक करने में वे कितने सफल रहे इसका आकलन आने वाले कुछ दिनों तक राजनीतिक विश्लेषकों को व्यस्त रखेगा। ये अनुमान शुरू में लगाया जा रहा था कि श्री गांधी इस यात्रा के जरिए समूचे विपक्ष को अपने साथ लाकर 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु भाजपा के विरोध में मोर्चे को आकार दे सकेंगे किंतु कुछ फिल्मी हस्तियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा केवल शिवसेना के आदित्य ठाकरे और अंत में उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के कोई बड़ा विपक्षी चेहरा उनके साथ न चला और न ही अपना समर्थन भेजा। शरद पवार , ममता बैनर्जी , के. चंद्रशेखर राव, अरविंद केजरीवाल , सुखबीर सिंह बादल  , ओमप्रकाश चौटाला , नीतीश कुमार , अखिलेश यादव , मायावती , जैसे  नेताओं ने यात्रा को अनदेखा कर दिया। ऐसा लगता है बीच बीच में श्री गांधी का ये कहना उक्त नेताओं को नहीं पचा कि कांग्रेस को धुरी बनाकर ही अगले लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता होनी चाहिए। यात्रा के समाचार माध्यम प्रभारी जयराम रमेश ने अनेक अवसरों पर दोहराया भी कि कांग्रेस को सभी राज्यों में अपनी ताकत पर लड़ने की तैयारी करनी चाहिए। हालांकि पूरी यात्रा के दौरान राहुल ने भाजपा और रास्वसंघ की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही हिंदू धर्मस्थलों पर जाकर  भाजपा को चिढ़ाने के अलावा  पौराणिक  प्रसंगों का उल्लेख कर अपने को अध्ययनशील प्रमाणित करने का प्रयास भी किया। फिर भी क्या पांडवों ने नोट बंदी की थी और क्या उन्होंने जीएसटी लगाया जैसे मुद्दे छेड़कर वे हंसी का पात्र भी बने।  इसी तरह बात बात में ये कहना कि वे भाजपा और संघ से नफरत नहीं करते और फिर उन्हीं के विरुद्ध पूरी यात्रा को केंद्रित रखना विरोधाभासी लगा। यात्रा के जरिए श्री गांधी की पप्पू वाली छवि को बदलने का प्रयास भी सुनियोजित तरीके से किया गया किंतु पूरी सतर्कता के बावजूद वे अनेक अवसरों पर पुरानी गलतियां दोहराने से बाज नहीं आए । भले ही कांग्रेस इस यात्रा के पीछे की सोच को किसी भी रूप में पेश करे लेकिन इसका उद्देश्य श्री गांधी को प्रधानमंत्री के समकक्ष खड़ा करते हुए शेष विपक्ष को उनका नेतृत्व स्वीकार करने हेतु बाध्य करना ही था । लेकिन अब ये कहना गलत नहीं होगा कि विपक्ष के छोटे से हिस्से को छोड़ बाकी छत्रपों ने इस यात्रा को जरा भी तवज्जो नहीं दी। और तो और इसी बीच कांग्रेस के अनेक प्रादेशिक नेता पार्टी छोड़ गए। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट को यात्रा के दौरान युद्धविराम हेतु राजी किया गया किंतु ज्योंही श्री गांधी ने राजस्थान छोड़ा दोनों में टकराव होने लगा। दरअसल यात्रा की शुरुआत में ही अपशकुन हो गया जब श्री गहलोत द्वारा गांधी परिवार की मंशा ठुकराते हुए कांग्रेस अध्यक्ष बनने से   इंकार  के साथ ही राजस्थान की गद्दी श्री पायलट को सौंपने  से मना करते हुए केंद्रीय पर्यवेक्षकों को बेइज्जत कर लौटा दिया। उसके बावजूद जब मुख्यमंत्री समर्थित विधायकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई तो अजय माकन ने महामंत्री पद छोड़ दिया। और भी ऐसी घटनाएं इस दौरान हुईं जब पार्टी नेतृत्व विशेष रूप से गांधी परिवार असहाय नजर आया । संभवतः यही देखकर गैर भाजपाई  विपक्ष के नेताओं ने यात्रा से दूरी बनाकर चलने का रास्ता चुना। हालांकि  राहुल राष्ट्रीय नेता के रूप में अपनी जगह बनाने में काफी हद तक सफल रहे जो उन्हें दूसरे विपक्षी नेताओं से कुछ ऊपर रखने में सहायक होगी । दिग्विजय सिंह द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह व्यक्त किए जाने पर बिना देर किए उनकी बात का विरोध कर देना इसका प्रमाण था । लेकिन ये भी उतना ही सही है कि ममता, अखिलेश और केसीआर जैसे क्षेत्रीय छत्रप उनकी रहनुमाई शायद ही स्वीकार करेंगे क्योंकि कांग्रेस उनके राज्य में अपना हिस्सा मांगे बिना नहीं रहेगी जो उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। बावजूद इसके इतना कहा जा सकता है कि श्री गांधी ने कांग्रेस में सक्रियता बढ़ा दी है । जिस उत्साह से पार्टीजन उनकी यात्रा से जुड़े उसकी वजह से जी 23 नामक असंतुष्ट गुट पूरी तरह नेपथ्य में धकेल दिया गया। अध्यक्ष के चुनाव में मल्लिकार्जुन खड़गे की शशि थरूर पर बड़ी जीत ने भी गांधी परिवार के वर्चस्व को साबित कर दिया किंतु यात्रा के समापन के ठीक पहले केरल के कद्दावर नेता और गांधी परिवार के करीबी ए.के.एंटोनी के बेटे का कांग्रेस छोड़ना भावी खतरों की तरफ इशारा भी है। बहरहाल श्रीनगर में राष्ट्रध्वज फहराकर लौटे राहुल निश्चित रूप पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे होंगे । लेकिन इसका कितना लाभ कांग्रेस को मिलेगा ये इसी वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों से स्पष्ट हो जाएगा।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 28 January 2023

बिना तराशे हीरों की परख होने से पद्म अलंकरणों का सम्मान बढ़ा



गणतंत्र दिवस पर घोषित पद्म अलंकरण अक्सर आलोचना का शिकार होते रहे हैं। विशेष रूप से राज नेताओं और अभिनेताओं को दिए जाने वाले अलंकरणों के औचित्य पर ज्यादा उंगलियां उठती हैं। सिफारिशों के साथ ही तुष्टीकरण भी इन अलंकरणों की पृष्ठभूमि में रहता था। मोदी सरकार ने पद्म पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया को काफी सुधारा है । हालांकि उच्च स्तर पर सिफारिश और पक्षपात  पूरी तरह समाप्त हो गया ये कहना तो अतिशयोक्ति होगी । इस बार भी एक दो अलंकृत विभूतियां हैं जिनके चयन पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है । लेकिन अधिकतर निर्णय अपनी सार्थकता साबित करते हैं। विशेष रूप से पद्मश्री हेतु चयनित लोगों में ऐसे नाम ज्यादा हैं जो पद , पैसा और प्रतिष्ठा से दूर रहकर अपने  कर्मक्षेत्र में योगदान देते रहे। अन्यथा इन पुरस्कारों को लेकर ये अवधारणा स्थापित हो चुकी थी कि इसकी रेवड़ी कुछ चुने हुए तबकों के लिए ही आरक्षित है । लेकिन बीते कुछ वर्षों से इन अलंकरणों के लिए चयन प्रक्रिया का  लोकतंत्रीकरण करते हुए ऑनलाइन आवेदन के साथ ही अनुशंसा की  व्यवस्था की गई । उसका लाभ ये हुआ कि वंचित वर्ग की उन प्रतिभाओं को सम्मानित किया जाने लगा  जो चकाचौंध से दूर रहकर सेवा , समर्पण और साधना में रत रहे किंतु बदले में कभी यश , कीर्ति और धन की कामना नहीं की । आजादी के बाद जब पद्म अलंकरणों की व्यवस्था की गई तब निश्चित तौर पर इनके लिए सुयोग्य पात्रों का चयन होता रहा किंतु धीरे धीरे प्रक्रिया पर राजनीति हावी होने  से ऐसे अनेक लोग अलंकृत होने लगे जो सत्ता प्रतिष्ठान के करीब मंडराया करते थे। एक लॉबी विशेष ने साहित्य , कला और संस्कृति के क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमा रखा था। इन्हीं कारणों से पद्म पुरस्कारों की घोषणा होते ही  विवाद और आलोचनाओं की शुरुआत हो जाती। यहां तक कहा जाने लगा कि ये अलंकरण महत्वहीन हो चुके हैं लिहाजा इन्हें बंद कर देना चाहिए। देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न तक के लिए राजनीतिक दबाव आने लगे जिससे क्षेत्रीय और भाषायी तुष्टीकरण भी उसके आधार बनने लगे। इसी तरह पद्म विभूषण और पद्म भूषण का निर्णय भी उपकृत करने के साथ ही वोट बैंक के नजरिए से होने से पद्म अलंकरणों के प्रति जनमानस में जो अदरभाव था उसमें क्षरण होने लगा। लेकिन 2014 के बाद से इनकी चयन प्रक्रिया को बजाय कुछ लोगों के हाथों में कैद रखने के सीधे आम जनता से जोड़ने का परिणाम है कि समाज के उस वर्ग तक को अलंकृत होने का सौभाग्य मिलने लगा जिनके लिए राष्ट्रपति भवन में देश के प्रथम नागरिक से सम्मानित होने की कल्पना तो दूर की बात थी , वे अपने जिले के कलेक्टर से मिलने तक से वंचित थे। कला , शिक्षा , चिकित्सा और समाजसेवा के क्षेत्र में निष्काम कर्मयोगी की तरह मौन तपस्वी की भूमिका का निर्वहन कर रहे लोगों को पद्म अलंकरण प्रदान  करने से इन नागरिक सम्मानों की विश्वसनीयता निःसंदेह बढ़ी है। मोदी सरकार इसके लिए निश्चित रूप से बधाई की हकदार है। यद्यपि  दरबारी मानसिकता के जिन लोगों ने अनेक दशकों तक पद्म अलंकरणों की बंदरबांट की उन्हें इस नई व्यवस्था से निश्चित रूप से परेशानी होती होगी किंतु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जब देश के सर्वोच्च सत्ताधीशों के समक्ष चलता हुआ किसी सुदूर इलाके का निर्धन व्यक्ति साधारण वस्त्रों में राष्ट्रपति के पास तक पहुंचता है तब पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक लोकतंत्र की रोशनी पहुंचने की उम्मीद को बल मिलता है। गत वर्ष तो एक दलित वर्ग की एक महिला समाज सेविका पद्मश्री प्राप्त करने आई तो उसके पांव में चप्पल तक न थी और उसके सम्मान में प्रधानमंत्री तक उठकर खड़े हो गए। एक आदिवासी महिला ने अलंकरण प्राप्त करने के बाद जब राष्ट्रपति के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया तो पूरा सभागार उस महिला की निश्छलता से अभिभूत होकर रह गया। अलंकरण हासिल करने वालों में ऐसे अनेक व्यक्ति होते हैं जिन्हें फोटोग्राफर की तरफ देखने के लिए भी स्वयं राष्ट्रपति को कहना पड़ता है। ये सब देखकर ये एहसास होता है कि कम से कम पद्म अलंकरणों में तो अंत्योदय लागू हुआ है। इस वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भी जिन लोगों को पद्म अलंकरण प्रदान किए गए उनमें से पद्मश्री श्रेणी में ज्यादातर नाम ऐसे लोगों के हैं जिनके बारे में उनके शहर , गांव या बस्ती के लोग भी कभी सोच नहीं सकते थे क्योंकि वे किसी राजनेता के कृपा पात्र नहीं हैं। म.प्र में लोक कला के लिए  पदमश्री प्राप्त एक महिला के पास तो रहने का मकान तक नहीं है और वह टपरेनुमा घर में परिवार सहित जीवन यापन करती है। आदिवासी समुदाय की इस महिला की चित्र प्रदर्शनी देश विदेश में लगने के बाद भी वह उपेक्षित ही रही। पद्मश्री की घोषणा होते ही अब सब उसे जानने के लिए आ रहे हैं। यद्यपि साहित्य और कला के लिए दिए जाने वाले अन्य सम्मानों में  पद्म अलंकरणों जैसी निष्पक्षता अभी चर्चा में नहीं आई । उसी तरह से इन विधाओं में की जाने वाली नियुक्तियों में पारदर्शिता भी पूरी तरह महसूस नहीं होती किंतु पद्म अलंकरणों के वितरण में मोदी सरकार ने वाकई शानदार काम किया है और इसके लिए अलंकृति विभूतियों के साथ वह भी बधाई की हकदार है। इसका सकारात्मक  परिणाम ये है कि अब पद्म अलंकरणों को समाप्त करने की मांग नहीं सुनाई देती और समाज का वह वर्ग भी इन अलंकरणों की उम्मीद करने लगा है जिसकी पहुंच सत्ताधीशों तक नहीं है।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 26 January 2023

दायित्वबोध की अनुभूति के बिना अमृतकाल की कल्पना साकार नहीं हो सकेगी



आज भारत का गणतंत्र दिवस है। 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ था जिसके पश्चात हमारा देश पूर्ण सार्वभौमिक गणराज्य के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरा। स्वाधीनता दिवस एक तरफ जहां हमें ब्रिटिश सत्ता से हजारों साल की गुलामी से मुक्ति का एहसास कराता है वही गणतंत्र दिवस हमें अपना राज्य अपनी मर्जी से चलाने की स्वाधीनता प्रदान करता है। लेकिन इसी के साथ ही यह हम सबके लिए दायित्व बोध का भी स्मरण दिवस है । हमें यह याद रखना चाहिए कि किसी भी देश या समाज को यदि सही मायने में विकसित और प्रतिष्ठित होना है तब उसे अनुशासन का पालन करना ही होता है । और इसीलिए प्रजातांत्रिक व्यवस्था में संविधान नामक व्यवस्था होती है जिसमें नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के साथ ही उनके कर्तव्यों अर्थात देश के कानून और व्यवस्था के पालन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का विवरण समाहित है। ये हम भारतवासियों का सौभाग्य है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने लंबे विचार विमर्श के बाद जो संविधान हमें दिया वह न सिर्फ विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है अपितु मानव अधिकारों के संरक्षक के रुप में एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का आधारस्तम्भ भी है। आजादी के 75 वर्ष का उत्सव मनाने के बाद ये गणतंत्र दिवस हमारे गणराज्य की सफलताओं और विफलताओं का आकलन करने का भी अवसर है। यद्यपि बीते 75 वर्ष में हमारे संविधान में अनेक संशोधन किए जा चुके हैं किंतु यह सुखद अनुभव है कि हमारे देश के राजनेताओं ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कभी भी नहीं छोड़ा और यही कारण है कि बीते 72 वर्ष के बाद भी भारतीय संविधान की मूल आत्मा को  छेड़ने का दुस्साहस किसी ने नहीं किया । हालांकि एक अपवाद 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाए जाने का है जो संविधान की आत्मा पर गहरी चोट थी किंतु देश की जनता ने अपनी  जागरूकता व्यक्त करते हुए 2 साल से कम के समय में ही आपातकाल की धज्जियां उड़ा दीं । श्रीमती गांधी की सरकार तो गई ही लेकिन वे अपना स्वयं का चुनाव भी हार गईं। उसके बाद  संसद द्वारा इस बात की पुख्ता व्यवस्था की गई कि भविष्य में कोई भी सरकार या प्रधानमंत्री चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो , संविधान में वर्णित संसदीय व्यवस्था को नष्ट करने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन का दुस्साहस न कर सके। इसलिए बीते कुछ दशकों में जब राजनीतिक तौर पर देश में अनिश्चितता बनी रही तब भी संविधान के  मूलभूत ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकी । लेकिन बीते कुछ समय से न्यायपालिका और विधायिका के बीच समन्वय की कमी जिस रूप में सामने आ रही है वह जिम्मेदार नागरिकों के लिए चिंता का विषय है। इसी के साथ ही केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों को लेकर टकराव भी अप्रिय स्थिति पैदा कर रहा है । जिसकी वजह से संघीय ढांचा डगमगाने की आशंका होने लगती है। भाषा के नाम पर  देश से अलग होने जैसी धमकी के अलावा केंद्रीय जांच एजेंसियों को राज्यों में प्रवेश से रोकने जैसी घटनाएं अच्छा उदाहरण नहीं कहा जा सकता।  संविधान निर्माताओं ने यद्यपि विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका के आधिकारों और कर्तव्यों का  न्यायसंगत निर्धारण तो किया ही , साथ ही साथ केंद्र और राज्यों के लिए भी मर्यादाऐं तय कर दी थीं। लेकिन ऐसा लगने लगा है कि हमारा गणतंत्र केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ने का साधन बनकर रह गया है। और इस आपाधापी में हमारे जो कर्तव्य इस देश और संवैधानिक व्यवस्था के प्रति हैं उनके बारे में हम आंख मूंदे बैठे हैं। आज देश में जो कुछ नकारात्मक होता दिखता है उसके पीछे अधिकारों की  मारामारी ही है। जबकि 75 साल की आजादी के बाद हमें एक कर्तव्यनिष्ठ देश के रूप में अपनी पहिचान बनानी चाहिए थी। दुर्भाग्य से हमारे शासक वर्ग को जनता के सामने जो आदर्श पेश करना चाहिए थे उसमें वह चूक गया और उसकी देखा  सीखी समाज की मानसिकता पर अधिकारों को प्राप्त करने की जिद हावी हो गई। जिसके प्रभावस्वरूप दायित्वबोध का क्षरण होता चला गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी के अमृत महोत्सव से जिस अमृत काल के शुभारंभ की घोषणा की है वह युगदृष्टा महर्षि अरविंद और स्वामी विवेकानंद की उस भविष्यवाणी पर आधारित है जिसमें 21 वीं सदी को भारत के पुनरुत्थान का काल बताया गया था।चारों तरफ से आ रहे संकेत इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं । लेकिन  उस मुकाम पर पहुंचने के लिए हमें अपने उन दायित्वों के प्रति गंभीर होना पड़ेगा जिनकी अपेक्षा हमारे संविधान निर्माताओं ने हमसे की थी। इस बारे में स्मरण रखने वाली बात ये है कि संविधान की शुरुआत "हम भारत के लोग" जैसे वाक्य से होती है और इसलिए उसकी पवित्रता की रक्षा हमारा दायित्व है।
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 25 January 2023

बेहूदा बयान देने वाले से भी तो किनारा करें राहुल



कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगे जाने पर उनकी चौतरफा आलोचना हुई | यद्यपि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के एक और प्रभारी जयराम रमेश ने बिना देर किये उसे उनकी निजी राय बताते हुए कांग्रेस द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक का समर्थन करने की बात भी कही लेकिन जब ऐसा लगा कि श्री सिंह का गैर जिम्मेदाराना बयान पार्टी के साथ तक्षक नाग की  तरह लिपट गया है जिसे अलग नहीं करने पर भारत जोड़ो यात्रा का अंतिम चरण बदनामी  में बदल जायेगा तब राहुल गांधी खुद सामने आये और उन्होंने दिग्विजय के बयान को बेहूदा बताते हुए कहा कि हालांकि उन जैसे वरिष्ट नेता के बारे में ऐसा कहना उनको बुरा लग रहा है किन्तु वे उनकी निजी राय की कद्र नहीं करते | श्री गांधी ने साथ ही ये भी कहा कि सेना अपना काम बहुत अच्छे तरीके से कर रही है और उससे सबूत मांगने की जरूरत नहीं है | लेकिन जब उनसे पूछा गया कि सेना के बारे में बेहूदा बातें कहने वाले नेता के विरूद्ध पार्टी कार्रवाई क्यों नहीं करती तब श्री गांधी ने पार्टी के भीतर  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होने की बात कहते हुए कहा कि ऐसी स्थिति में बेहूदा बातें भी सामने आ ही जाती हैं | इस तरह एक तरफ तो उन्होंने श्री सिंह के बयान से होने वाले नुकसान से कांग्रेस को बचाने के लिए उनसे असहमति व्यक्त करते हुए बेहूदा जैसा शब्द उसके लिए इस्तेमाल किया लेकिन दूसरी तरफ उनके विरुद्ध कोई कदम उठाने का साहस भी वे नहीं दिखा सके | और फिर अपनी आदतानुसार भाजपा और रास्वसंघ के बारे में घिसे – पिटे आरोप लगाने लगे | राहुल की यही दुविधा कांग्रेस की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है | सोशल मीडिया पर इसीलिये उनकी तीखी आलोचना करते हुए लोगों ने लिखा कि ये सब पूरी तरह से प्रायोजित था जिसके अंतर्गत पहले तो दिग्विजय से सेना के बारे में आपत्तिजनक बयान दिलवाकर सनसनी पैदा की गई और उसके बाद उनकी आलोचना कर श्री गांधी ने अपनी छवि सुधारने का दांव चला | पूरे देश में थू – थू होने के बाद खुद श्री सिंह ने भी सेना के प्रति सम्मान दर्शाता हुआ ट्वीट जारी किया | लेकिन श्री गांधी द्वारा आलोचना के बावजूद उनके विरूद्ध किसी भी तरह की कार्रवाई से इंकार किये जाने से उस आरोप की पुष्टि होती है कि उनका बयान किसी रणनीति का हिस्सा ही था और यदि ये सही नहीं है तब ये कहना गलत न होगा कि श्री गांधी में कड़े निर्णय लेने की क्षमता नहीं है | माना कि औपचारिक तौर पर वे कांग्रेस संगठन में किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं हैं लेकिन असलियत तो यही है कि वे कुछ न होते हुए भी पार्टी के सर्वेसर्वा हैं | ऐसे में कम से कम उन्हें इतना तो करना ही था कि श्री सिंह को अपनी यात्रा से अलग करते हुए वापस जाने को कहते | श्री गांधी को ये सोचना चाहिए था जिस जम्मू कश्मीर में उनकी यात्रा का समापन होना है वह सेना के शौर्य  और कुर्बानियों के कारण ही भारत का हिस्सा है वरना कभी का पाकिस्तान उसे हथिया चुका होता | श्री गांधी की  इस यात्रा का नाम भारत जोड़ो है और ऐसे में उसके संयोजक द्वारा देश की अति सम्मानित सशस्त्र सेना के पराक्रम  का प्रमाण माँगना घोर आपत्तिजनक है | सेना द्वारा भी इस पर अपना विरोध दर्ज कराया गया है | ये देखते हुए कांग्रेस पार्टी भले ही श्री सिंह के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करती किन्तु श्री गांधी उन्हें अपनी यात्रा से दूर कर सेना के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते तब श्री सिंह  द्वारा संदर्भित विवादास्पद बयान को बेहूदा बताने वाली उनकी बात को प्रामाणिक माना जा सकता था | कभी – कभी तो ऐसा लगता है कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या राहुल गांधी ही  हैं जो पार्टी की पूरी निर्णय प्रक्रिया तो अपने हाथ में कैद करके रखते हैं लेकिन समय पर निर्णय नहीं करते | पंजाब इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जहां उनके  द्वारा फैसला टालते रहने के कारण पार्टी पूरी तरह घुटनों के बल आ गई | म.प्र में उनके निकटस्थ ज्योतिरादित्य सिंधिया भी उनके अनिर्णय के कारण पार्टी छोड़ गए | यही हाल गुजरात में हार्दिक पटेल के साथ हुआ जो राहुल की कार्यशैली से खिन्न होकर भाजपा में आ गए | वहीं भारत जोड़ो यात्रा के पंजाब राज्य से गुजरते ही मनप्रीत बादल कांग्रेस से त्यागपत्र दे बैठे | असम के मौजूदा मुख्यमंत्री हिमान्ता  बिस्व सरमा ने तो कांग्रेस छोड़ते समय श्री गांधी  की  बेरुखी को ही कारण बताया था | और भी ऐसे उदाहरण हैं जिनमें उनकी लापारवाही के कारण कांग्रेस को शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी | ऐसे  में सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगने वाले दिग्विजय सिंह की बात को बेहूदा बताने के बाद भी यदि  श्री गांधी उनको अपने साथ रखे हुए हैं तब फिर उनकी आलोचना भी महज दिखावा ही कही जायेगी |  

रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 24 January 2023

कांग्रेस की फजीहत करवाने पर आमादा हैं दिग्विजय



कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर पार्टी  की फजीहत करवाने का इंतजाम कर दिया | भारत जोड़ो यात्रा के दौरान गत दिवस जम्मू में उन्होंने पुलवामा हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाते हुए कहा कि सरकार दावा करती है कि उस मुहिम में इतने पाकिस्तानी सैनिक मार गिराए गये थे किन्तु उसका प्रमाण नहीं दिया गया | संसद में इस बारे में किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं दिए जाने पर भी उन्होंने प्रधानमंत्री को घेरने की कोशिश की | बाद में जब एक टीवी चैनल के संवाददाता ने उनसे उनके बयान के बारे में बात करनी चाही तब यात्रा के मीडिया प्रभारी जयराम रमेश ने उसका माइक अलग करते हुए अंग्रेजी में कहा कि बात को घुमाइए मत | बाद में श्री रमेश ने श्री सिंह की टिप्पणी को उनका निजी विचार बताते हुए स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रहित में सभी सैन्य कार्रवाइयों का उनकी पार्टी ने समर्थन किया है और करती रहेगी  | लेकिन श्री रमेश की कोशिश बेकार साबित हुई | श्री सिंह की टिप्पणी पर भाजपा तो स्वाभाविक तौर पर आक्रामक होकर मैदान में कूदी ही किन्तु पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वी. पी . मलिक के अलावा  सैनिकों की विधवाओं की ओर से भी कांग्रेस नेता के बयान का तीखा विरोध किया गया | यद्यपि वे  इस तरह के  गैर जिम्मेदाराना बयानों के लिए लम्बे समय से कुख्यात हैं | भगवा आतंकवाद और ओसामा जी जैसे उनके शब्दों ने अतीत में भी कांग्रेस की दुर्गति करवाई है | 2019 में जब वे भोपाल से लोकसभा चुनाव लड़े तो वे बयान ही उनकी शर्मनाक हार का कारण भी बने | उम्मीद की जाती थी कि वे उस पराजय से कुछ सबक लेंगे लेकिन ऐसा लगता है म.प्र के  पूर्व मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी का नुकसान  करते रहने  का बीड़ा उठा रखा है | भारत जोड़ो यात्रा के दौरान पहले भी उनके कुछ बयान राहुल और कांग्रेस दोनों के लिए मुंह छिपाने की स्थिति उत्पन्न कर चुके थे जिसे उनकी निजी राय बताकर पल्ला झाड़ा गया | लेकिन एक सफल  फ़ौजी अभियान पर संदेह व्यक्त कर श्री सिंह ने ये साबित कर दिया कि आयु के इस पड़ाव पर आकर भी बजाय परिपक्वता दिखाने के वे पार्टी को गर्त में डुबोने में लगे हुए हैं  |  बहरहाल उनके उक्त बयान ने भारत जोड़ो यात्रा के अंतिम चरण को भी विवादास्पद बना दिया है  | ये बात  समझ से परे है कि उनके बयानों से जबर्दस्त नुकसान उठाने के बावजूद कांग्रेस उन्हें किस कारण से ढो रही है ? जिस – जिस राज्य में उनको पार्टी ने प्रभारी बनाया उन सभी में कांग्रेस की लुटिया डूब गयी | उनके अपने गृह राज्य  म.प्र में भी पार्टी लंबे समय से सत्ता से बाहर है | 2018 में जैसे – तैसे सरकार बनी भी तो श्री सिंह ने सिंधिया परिवार से अपनी खुन्नस के चलते पहले तो ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया और बाद में उनके राज्यसभा में जाने में अड़ंगे लगाये जिससे नाराज होकर वे भाजपा में चले गये और कमलनाथ सरकार महज 15 महीने में चलती बनी | केन्द्रीय स्तर पर भी श्री सिंह भले ही कांग्रेस संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेकिन वे हिन्दू संगठनों के विरोध में जो ऊल जलूल बयानबाजी करते रहते हैं उससे कांग्रेस को नीचे देखने मजबूर होना पड़ता है | श्री गांधी की इस यात्रा में जयराम रमेश भी लगातार साथ रहे हैं | लेकिन वे विवादास्पद बयानबाजी से बचते हैं जबकि श्री सिंह मौका मिलते ही ऐसी  टिप्पणी कर बैठते हैं  जिसके बाद पार्टी को उनकी बात से किनारा करने मजबूर होना पड़ता है | ऐसे  में सवाल उठता है कि किसी छोटे नेता या कार्यकर्त्ता को इस तरह की बात कहने पर कारण बताओ नोटिस मिल जाता है तब श्री सिंह जैसे वरिष्ट नेता को पार्टी और विशेष रूप से गांधी परिवार ने आंय – बाँय बकने के  लिए छुट्टा क्यों छोड़ रखा है ? श्री  सिंह को भी इस बात का जवाब देना चाहिए कि जब पार्टी ने सर्जिकल स्ट्राइक को राष्ट्रहित में मानते हुए उसके समर्थन की बात कही  , तब क्या वे पार्टी के रुख के विरूद्ध खड़े होने का दुस्साहस भी करेंगे ? कांग्रेस आज की स्थिति में आजादी के बाद सबसे दयनीय स्थिति में नजर आ रही है | राहुल गांधी ने 3500 किमी की पदयात्रा निकालकर उसको वर्तमान दुरावस्था से उबारने का जो प्रयास किया उसे श्री सिंह जैसे नेता पलीता लगाने में जुटे हुए हैं | उनके विवादस्पद बयानों ने कांग्रेस को कितना नुकसान पहुँचाया इसका आकलन भी श्री गांधी को करना चाहिए वरना कांग्रेस की स्थिति में और गिरावट आना तय है क्योंकि जो काम पार्टी के दुश्मनों को करना चाहिए वह दिग्विजय सिंह जैसे लोग ही कर  रहे हैं |  

रवीन्द्र वाजपेयी 



Monday 23 January 2023

राजनेता और अफसर अंधविश्वास फ़ैलाने में सबसे आगे



आजकल म.प्र के बागेश्वर धाम से जुड़े धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री नामक   आध्यात्मिक व्यक्तित्व को लेकर विवाद चल रहा है | उनके द्वारा दिखाए जाने वाले चमत्कारों के पक्ष – विपक्ष में बयानों की बाढ़ आ गई है | हालांकि उनसे जुड़ी चर्चाओं का दौर काफी समय से चला आ रहा है और उन्हें प्राप्त दैवीय शक्तियों के दावे पर उंगलियाँ भी उठती रही हैं | दूसरी तरफ उनके प्रशंसकों और अनुयायियों की संख्या में भी चमत्कारिक रूप से वृद्धि हुई है | दरअसल हाल ही में नागपुर में उनके समागम के दौरान एक निजी संस्था द्वारा उन्हें अपने चमत्कार साबित करने की चुनौती दिए जाने के बाद से विवाद तेज हुआ |  संस्था का कहना है कि उससे घबराकर श्री शास्त्री निर्धारित कार्यक्रम से दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर चले गए जहां उनका प्रवचन तय था | वहां पहुंचने के बाद उन्होंने उक्त संस्था की  चुनौती स्वीकार करते हुए उसके पदाधिकारियों को रायपुर आने का न्यौता भी दिया और सार्वजनिक मंच से अपनी ठेठ बुन्देलखंडी बोली में ऐसी बातें कहीं जो विरोधियों  को अशालीन लगीं तो समर्थकों के अनुसार जिस अंचल के श्री शास्त्री रहने वाले हैं वहां आम बोलचाल में ये शब्दावली प्रचलित है |  टीवी चैनल वाले तो ऐसे अवसरों की तलाश में रहते ही हैं लिहाजा उन्होंने उसको हवा देकर अपनी दर्शक संख्या में वृद्धि का दांव चला | चूंकि श्री शास्त्री सनातनी परम्परा के हैं इसलिए हिन्दू समाज का बड़ा वर्ग उनके समर्थन में आ खड़ा हुआ किन्तु उसी के समानांतर वे लोग भी सामने आ गए जिन्हें हिन्दू और हिंदुत्व जैसे शब्दों से कुढ़न है | और फिर चल पड़ा आक्रमण और  प्रत्याक्रमण का दौर | समर्थन करने वाले आलोचकों पर ये कहते हुए चढ़ बैठे कि दूसरे धर्मों के धर्मगुरुओं द्वारा दिखाए जाने वाले चमत्कारों में उन्हें पाखंड क्यों नहीं दिखता ? ऐसे मामलों में राजनीति न हो ये कैसे संभव है इसलिए पक्ष – विपक्ष के नेता भी मैदान में आ गए | सबसे रोचक बात ये है कि सनातन धर्म के ध्वजावाहक जगद्गुरु कहे जाने वाले शंकराचार्यों में से एक ने श्री शास्त्री को उनकी चमत्कारिक शक्ति से जोशीमठ में आ रही दरारें भरने की चुनौती दे डाली वहीं एक अन्य शंकराचार्य उनके समर्थन में आ खड़े हुए | सनातनी परम्परा के एक अति सम्मानित संत ने भी श्री शास्त्री की चमत्कारिक शक्ति को प्रामाणिक मानते हुए उनका बचाव किया | बढ़ते – बढ़ते बात यहाँ तक आ गयी कि चूंकि श्री शास्त्री अन्य धर्मों में चले गए हिन्दुओं की वापसी करवा रहे हैं इसलिए उन पर षडयंत्रपूर्वक हमला किया जा रहा है |  उनके पहले भी अनेक बाबा और संत कहलाने वाले लोग चमत्कार दिखाने के नाम पर कुख्यात हो चुके थे इसलिए ऐसे मामलों में अंधविश्वास की बात सहज रूप से उभरकर सामने आती है | सवाल ये है कि विश्वास और अंधविश्वास के बीच की विभाजन रेखा कौन मिटायेगा ? महाराष्ट्र में अन्धविश्वास फ़ैलाने के विरुद्ध कानून भी है लेकिन उसी राज्य में विभिन्न धर्मों के ऐसे आस्था केंद्र हैं जिनके साथ चमत्कार जुड़े हैं और हजारों श्रद्धालु वहां अपनी तकलीफें दूर करने जाते हैं | वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो दैवीय शक्ति प्राप्त कर चमत्कार दिखाने वाले लोगों की मनःस्थिति  का लाभ उठाकर उनका भावनात्मक , आर्थिक और कहीं – कहीं शारीरिक शोषण  तक करते हैं | लेकिन  ये बात केवल हिन्दू समाज के साथ ही नहीं जुड़ी | इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले भी चमत्कारों से प्रभावित होते हैं | अनेक मौलवी झाड़ – फूंक करते हैं वहीं ईसाई समुदाय में चंगाई सभाएं बड़ी संख्या में होती हैं | अन्य धर्मावलम्बी अपने – अपने ढंग से अंधविश्वासों को मानते हैं | लेकिन ऐसे मामलों में हिन्दुओं में ज्यादा खुलापन नजर आता है | मसलन संदर्भित विवाद को ही लें तो दो शंकराचार्यों का परस्पर विपरीत मत ये साबित करता है कि सनातनी परंपरा में आत्ममंथन करने की जो प्रवृत्ति है वही इसकी शक्ति है | धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री की चमत्कारिक शक्ति यदि ढोंग हैं तो उनका पर्दाफाश भी होकर रहेगा लेकिन उन्हें जिस तरह से निशाने पर लिया जा रहा है उससे तो ये लगता है कि विघ्नसंतोषी तत्व बेगानी शादी में अब्दुल्ला बनकर कूद पड़े हैं | जो राजनेता श्री शास्त्री के विरोध में आ खड़े हुए हैं उनकी चिंता का कारण अन्धविश्वास का प्रसार नहीं अपितु वोटों के ध्रुवीकरण से उनके भविष्य को पैदा हो रहा खतरा है | और फिर उन्हें तो ऐसे विषयों पर बोलने का नैतिक अधिकार ही कहाँ रहा जाता है जब उनमें से ज्यादातार मंदिरों में अनुष्ठान करते हुए फोटो खिंचवाकर उनका प्रचार करने में आगे - आगे  रहते हैं | यही हाल समाचार माध्यमों विशेष रूप से टीवी चैनलों का है जो इस तरह के विवादों में बजाय रचनात्मक भूमिका का निर्वहन करने के आग में घी झोकने का काम करते हैं | अंधविश्वास के बारे में ये कहा जाता है कि अशिक्षित या अल्पशिक्षित तबका इसकी जकड़ में जल्दी आता है लेकिन जब शासन चलाने वाले नेता और  आईएएस – आईपीएस अधिकारी तक चमत्कारों के मकड़जाल में फंसे दिखाई देते हैं तब साधारण जनता कैसे पीछे रह सकती है ? पहले धनाड्य वर्ग द्वारा आध्यात्मिक हस्तियों के प्रवचन करवाकर सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने का चलन था लेकिन अब राजनीतिक नेता भी ऐसे  आयोजन करने लगे  हैं | विशेष रूप से जहां चुनाव होने वाले होते हैं वहां धार्मिक आयोजनों की बाढ़ आ जाती है |  शिक्षा और ज्ञान – विज्ञान के प्रसार के बावजूद अन्धविश्वास का बढ़ना समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का विषय है | चूंकि इस विषय के साथ आस्था और समस्याएँ दोनों जुडी होती हैं इसलिये जल्दबाजी में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं है | आखिर विज्ञान भी बरसों के शोध के उपरांत जिन मान्यताओं को स्थापित करता है वे ही कुछ समय बाद गलत साबित हो जाती हैं | समाज विज्ञान में भी ऐसा होता है | जब तक विश्वास है तब तक अन्धविश्वास भी रहेंगे क्योंकि कोई भी शोध अंतिम नहीं है |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 21 January 2023

अफसरशाही तो घोड़ा है घुड़सवार का जैसा दम वैसा ही चलेगा



 
म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान वैसे तो हर समय चुनावी मूड में रहते हैं लेकिन बीते कुछ समय से उनकी  सक्रियता और बढ़ गयी है | इसका कारण इस वर्ष के आखिर में होने वाले प्रदेश विधानसभा के चुनाव हैं | पांच साल पहले मिली पराजय की वजह से श्री चौहान इस बार किसी भी तरह की गुंजाईश छोड़ने तैयार नहीं  और धुआंधार  दौरों के माध्यम से जहां जनता से सीधे संवाद कर रहे हैं वहीं अपने मंत्रीमंडल में कसावट लाने के लिए भी प्रयासरत हैं | इसी क्रम में प्रशासनिक अधिकारियों के साथ बैठकें करते हुए वे उन्हें नसीहत दे रहे हैं | गत दिवस उन्होंने आईएएस मीट को संबोधित करते हुए कहा कि जानते नहीं हो मैं कौन हूँ , का भाव अहंकार को अभिव्यक्त करता है | और भी कुछ बातें  प्रशासनिक अधिकारियों से उन्होंने कीं | बीते कुछ समय से मंच से ही अफसरों को निलम्बित कर चर्चा में रहने वाले श्री सिंह ने कल की मीट में बजाय डांट फटकार के कुछ जिलों के जिलाधीशों द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की सराहना कर बाकी को उनसे प्रेरणा लेने कहा | मुख्यमंत्री ने ये भी स्वीकारा कि निचले स्तर से आने वाली रिपोर्ट  मौके पर जाकर देखने पर गलत साबित होती है | इसलिए अधिकारियों को कार्यालय और कार्यक्षेत्र  में समन्वय बिठाना चाहिए | प्रशासनिक अधिकारी और उस पर भी आईएएस की कार्यप्रणाली का निष्पक्ष  सर्वेक्षण किया जाए तो ये निष्कर्ष निकलकर सामने आयेगा कि आज भी अफसरशाही की मानसिकता ब्रिटिश  राज से प्रेरित और प्रभावित है | हालाँकि उक्त मीट में मुख्यमंत्री द्वारा  प्रशंसित अधिकारी निश्चित रूप से औरों से अलग हैं | उनके अतिरिक्त भी अनेक प्रशासनिक अधिकारी हैं जो अफसरी ठसक से अलग जनता के बीच घुल मिलकर लोकप्रिय हो जाते हैं | लेकिन ये भी कड़वा सच है कि जो प्रशासनिक अधिकारी जनता की अपेक्षाओं पर उतरकर लोकप्रियता हासिल करता है वह जनप्रतिनिधियों की निगाहों में खटकने लगता है और बिना किसी ठोस वजह से रातों - रात उसका तबादला कर दिया जाता है | वहीं कुछ अकर्मण्य और भ्रष्ट अधिकारी जनता की नाराजगी के बावजूद महज इसलिए जमे रहते हैं क्योंकि उनकी सत्ता के गलियारों में अच्छी खासी पकड़ है और वे राजनेताओं की जरूरतों को पूरा करने की कला में पारंगत होते हैं | बहरहाल मुख्यमंत्री ने जो समझाइश नौकरशाहों को दी वह इसलिए सामयिक और सार्थक है क्योंकि विधानसभा चुनाव के पूर्व उनकी सरकार के कार्यों का मूल्यांकन जनता करेगी और ऐसे में सचिवालय से निकली अच्छी योजना का लाभ जन साधारण तक पहुँच सका या नहीं ये  स्पष्ट होना जरूरी है | लगे हाथ मुख्यमंत्री को अपने मंत्रियों और भाजपा के विधायकों पर भी ये जिम्मेदारी डालनी चाहिए कि वे  लोगों के बीच जाकर जमीनी सच्चाई का सही आकलन करते हुए  ये बताएं कि विकास कार्यों और जन कल्याण की योजनाओं पर कितना अमल हुआ |  अगले कुछ महीने सत्ता में बैठे राजनेताओं के लिए काफी मेहनत भरे होंगे और उन्हें अपने को जनहितैषी साबित करने के लिए पसीना बहाना पड़ेगा किन्तु यदि नौकरशाहों ने अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया तो केवल उन्हें कठघरे  में खडा कर वे अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते | ये बात अनुभव आधारित है कि संसदीय लोकतंत्र में निर्वाचित जन प्रतिनिधि यदि उदासीन और अक्षम है तभी नौकरशाही निरंकुश होती है | इसके ठीक विपरीत  जनता के चुने प्रतिनिधि योजनाओं के क्रियान्वयन के प्रति जागरूक रहते हैं तो फिर कोई कारण नहीं कि कार्यालय और कार्यक्षेत्र में सामंजस्य का अभाव रहे और अफसशाही सरकार चला रहे नेताओं को गलत जानकारी देती रहे | इस बारे में उ.प्र के मुख्यमंत्री रहे स्व. कल्याण सिंह का ये कथन उल्लेखनीय है कि नौकरशाही वह घोड़ा है जिसकी चाल और गति  सवार की योग्यता और क्षमता पर निर्भर करती है | उस दृष्टि से देखा जाए तो श्री चौहान वर्तमान में देश के सबसे अनुभवी मुख्यमंत्री हैं जो थोड़ा सा समय छोड़कर लगातार सत्ता में बने हुए हैं | ऐसे में उनके द्वारा प्रदेश के आईएएस अधिकारियों के समक्ष ये स्वीकार करना कि निचले स्तर से आने वाली जानकारी मैदानी स्तर पर जाकर देखने पर  भिन्न नजर आती है , सोचने को बाध्य करती है |  विधानसभा चुनाव के साल में मुख्यमंत्री की सक्रियता और कड़क रवैया बेशक जनता को पसंद आ रहा है लेकिन इसके साथ ही उन कारणों को दूर करने की तरफ भी ध्यान दिया जाना चाहिए जिनके कारण अफसरशाही  अपने को मालिक समझकर जनता के प्रति उपेक्षापूर्ण  व्यवहार करने से बाज नहीं आती | आजादी के 75 साल बाद भी अंग्रेजी राज वाली प्रशासनिक संस्कृति का बना रहना विडंबना ही है |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 20 January 2023

इन हालातों में तो लड़कियां खिलाड़ी बनने से हिचकेंगी



 
भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों के  यौन शोषण का आरोप गंभीर मसला है | दिल्ली के जंतर मंतर पर ओलम्पिक में देश को पदक दिलवाने  वाले अनेक पहलवानों का इस मामले में धरने पर बैठना निश्चित रूप से शर्मनाक है | खिलाड़ी देश का गौरव होते हैं और आजकल लड़कियाँ भी बड़ी संख्या में खेलों की तरफ आकृष्ट हो रही हैं | ज़ाहिर है प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं में भाग लेते समय परिवारजन हमेशा उनके साथ नहीं हो सकते | इस सिलसिले में उन्हें विदेश तक जाना पड़ता है | यौन  शोषण का आरोप लगाने वाली महिला पहलवानों की संख्या बढ़ती जा रही है | पहले तो खेल मंत्रालय के अधिकारी ही इस विवाद को सुलझा रहे थे लेकिन जब बात नहीं बनी तब खेल  मंत्री अनुराग ठाकुर ने मोर्चा संभाला और आन्दोलन कर रहे पहलवानों से बातचीत की | हालाँकि धरने पर बैठे पहलवानों की जिद है कि कुश्ती संघ के अध्यक्ष श्री सिंह तत्काल पद छोड़ें और उनको गिरफ्तार भी किया जावे | यद्यपि उन्होंने आरोपों को निराधार बताया है किन्तु जैसे संकेत मिले हैं उनके अनुसार भाजपा अपनी छवि खराब होने से बचाने के लिए ब्रजभूषण शरण को अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए निर्देशित करेगी | लेकिन  पहलवानों का कहना है वे महज इस्तीफे से संतुष्ट नहीं  होंगे और श्री सिंह को जेल भिजवाकर ही दम लेंगे | ऐसे मामलों में राजनीति की घुसपैठ भी होती है जिसका प्रमाण गत दिवस सीपीएम नेत्री वृंदा कारत के धरनास्थल पर बने मंच पर आने से हुई किन्तु आन्दोलनकारियों ने ये कहते हुए उन्हें लौटा दिया कि ये राजनीतिक मंच नहीं है | उधर हरियाणा में जाट समुदाय इस मसले पर खाप पंचायत करने की घोषणा कर रहा है क्योंकि आन्दोलन से जुड़े अधिकतर पहलवान उसी राज्य के हैं और उसी समुदाय से आते हैं | आन्दोलन के नेता के तौर पर सामने आईं विनेश फोगाट और बजरंग पूनिया ने जानकारी दी कि अन्य राज्यों से भी महिला पहलवानों द्वारा यौन शोषण की शिकायतें मिल रही हैं | उनकी मांग ये है कि कुश्ती संघ भी  भंग किया जावे क्योंकि अध्यक्ष के इस्तीफे के बाद उनके समर्थक ही गद्दीनशीन हो जायेंगे | हरियाणा राज्य कुश्ती संघ में भी ब्रजभूषण शरण के लोग बैठे होने का आरोप लगाया गया है | हमारे देश में सामान्य तौर पर लड़कियां यौन शोषण जैसे मामलों में मुखर नहीं होतीं | खेल संघों के पदाधिकारी और प्रशिक्षकों पर भ्रष्टाचार और  पक्षपात के आरोप तो पहले भी लगते रहे हैं | यौन  शोषण की चर्चा  भी सुनाई दीं किन्तु बात आई गई होती रही  क्योंकि लड़कियां  अपनी बदनामी के डर से चुप रहना पसंद करती थीं | दूसरे तरीकों से परेशान पुरुष खिलाड़ी भी किये जाते हैं लेकिन वे अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए विरोध की बजाय समझौते का विकल्प चुनते हैं | सही बात ये है कि भारत में खेल संघों में राजनीतिक नेताओं की दखलंदाजी की वजह से खेल और खिलाड़ी दोनों का नुकसान होता है | जो नेता पूर्व में खिलाड़ी रहे हों उनका खेल प्रशासक बनना तो समझ में आता है लेकिन जिन्हें उसका क, ख , ग भी नहीं आता जब वे खेल संघों में बैठकर चौधराहट करते हैं तब समस्याएँ पैदा होती हैं | ओलम्पिक संघ के भ्रष्टाचार में तो सुरेश कलमाड़ी जेल तक जा  चुके हैं | वहीं आईपीएल घोटाले के आरोपी ललित मोदी देश छोड़कर ब्रिटेन जाकर बैठ गए | और भी उदाहरण हैं जहां खेल संघों में कुण्डली मारकर बैठे नेता गण घपले – घोटालों  के साथ ही भाई - भतीजावाद के आरोपों से घिरते रहे हैं | लेकिन कुश्ती संघ के अध्यक्ष पर महिला पहलवानों ने जो आरोप लगाया है वह काफी गंभीर है | हालाँकि जाँच के पूर्व किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा लेकिन देश की राजधानी में आन्दोलन कर रहे पहलवानों के रुख से लग रहा है कि वे पूरी तैयारी से आये हैं और ऐसे में श्री सिंह पर शिकंजा कसना तय है | वे खुद होकर इस्तीफ़ा देते हुए जाँच के जरिये खुद को निर्दोष साबित करने का रास्ता चुनेंगे या हठधर्मिता दिखाते हुए टकराव के हालात पैदा करते हैं ये संभवतः एक दो दिन में सामने आ जायेगा | खेल मंत्रालय ने कुश्ती संघ से स्पष्टीकरण माँगा है जिसके जवाब पर उसका आगामी कदम निर्भर होगा | लेकिन भाजपा को भी इस प्रकरण में अपने स्तर पर सच्चाई का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि ब्रजभूषण शरण की छवि वैसे भी बहुत अच्छी नहीं मानी जाती | इसलिए बेहतर तो यही होगा कि उनको जाँच होने तक कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद से अलग रखा जावे | यदि खेल मंत्रालय को लगता है कि अन्य पदाधिकारी भी उनका बचाव कर सकते हैं तब फिर कुश्ती संघ में ही प्रशासक बिठाया जावे |  इस विवाद का अंत क्या  होगा ये फिलहाल तो कहना कठिन है क्योंकि ऐसे प्रकरणों में कभी कभी स्थिति एकदम उलट हो जाती है | खुद ब्रजभूषण शरण की तरफ से ये कहा जा रहा है कि वे जाँच का सामना करेंगे  किन्तु इस्तीफ़ा नहीं देंगे | ऐसे में खेल मंत्रालय के निर्णय पर भी सबकी निगाहें लगी रहेंगी | लेकिन इस विवाद ने एक बार फिर खेल संघों पर राजनेताओं के कब्जे से पैदा हो रही समस्याओं के बारे में विमर्श की जरूरत उत्पन्न कर दी है | महिला खिलाडियों के यौन उत्पीडन जैसे आरोप के कारण इस क्षेत्र में आने वाली लड़कियों के मन में डर बैठ जाना स्वाभाविक है  और उनके अभिभावक भी अपनी बेटियों को खिलाड़ी बनने से रोकने लगेंगे | 

रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 19 January 2023

तीसरा मोर्चा भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के लिए खतरा



राष्ट्रीय राजनीति में तेलंगाना का खास महत्त्व नहीं है | लेकिन इसके मुख्यमंत्री केसीआर (के. चंद्रशेखर राव) को राष्ट्रीय नेता बनने का शौक चर्राया हुआ है | इसीलिए उन्होंने अपनी पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदलकर भारत राष्ट्र समिति कर दिया | एक समय था जब वे  भाजपा के साथ  थे क्योंकि तब उनकी सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस थी | लेकिन  भाजपा के उभार के साथ ही उनको  लगा कि देर सवेर वही उनके लिए चुनौती बनेगी इसलिए उन्होंने उससे दूरी ही नहीं बनाई बल्कि कुछ मामलों में वे  ममता बैनर्जी से भी ज्यादा भाजपा विरोधी हो गये | बीते  कुछ महीनों से श्री राव आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तीसरा मोर्चा बनाने के लिए हाथ पाँव  मार रहे हैं | गत दिवस नए नाम वाली उनकी पार्टी की पहली  रैली खम्मम  शहर में हुई जिसमें दिल्ली , पंजाब और केरल  के मुख्यमंत्री क्रमशः अरविन्द केजरीवाल , भगवंत सिंह मान , विजयन के अलावा सपा  के अखिलेश यादव और सीपीआई से डी. राजा मंचासीन रहे | चूंकि वे  कांग्रेस को अलग रखते हुए तीसरा मोर्चा बनाना चाह रहे हैं इसलिए उसका रैली में न  होना तो समझ में आता है किन्तु ममता  के अलावा , कर्नाटक से जनता दल ( सेकुलर ) , बिहार से जनता  दल ( यू )  और  राजद , हरियाणा से , लोकदल , झारखण्ड से झामुमो और पंजाब से अकाली दल जैसी पार्टियों के नेता भी उक्त रैली में नहीं पहुंचे | इसी तरह शरद पवार और उद्धव ठाकरे ने भी दूरी बनाये रखी |  नवीन पटनायक ,  जगन मोहन रेड्डी , चंद्रा बाबू नायडू और स्टालिन जैसे विपक्षी चेहरे  भी केसीआर के जमावड़े में नहीं दिखे | इसमें दो मत नहीं हैं कि वे जमीनी नेता हैं | केंद्र सरकार में मंत्री रहने की वजह से राष्ट्रीय स्तर पर उनके सम्पर्क भी हैं | दक्षिण भारत के बाकी विपक्षी नेताओं से अलग श्री राव धाराप्रवाह हिन्दी बोल लेते हैं | लेकिन राज्य की सीमा से निकलकर केंद्र की राजनीति करने का जो भूत उन पर सवार है उसके चलते वे अपने घर को कमजोर करने की  वही ग़लती कर रहे हैं जो कभी स्व. एन.टी.रामाराव और बाद में उनके विरुद्ध बगावत कर मुख्यमंत्री बने  चंद्राबाबू नायडू ने की थी | राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों के नेताओं का प्रवेश नया नहीं है | चौधरी चरण सिंह , देवीलाल ,  देवगौड़ा , मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे अनेक क्षेत्रीय नेताओं ने केंद्र में आकर अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहा किन्तु कुछ समय तक चमकने के बाद  अपने राज्य में ही उनका आभामंडल फीका पड़ने लगा | इस बारे में तामिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियाँ द्रमुक और अद्रमुक काफी समझदार साबित  हुई जो अपने राज्य से बाहर कदम बढ़ाने से सदैव बचती रहें जिसका परिणाम ये है कि पांच दशक  से भी ज्यादा वे बारी – बारी से राज्य की सत्ता पर काबिज हैं | जहां तक बात  तीसरे मोर्चे की है तो उसका गठन अतीत में भी अनेक मर्तबा हो चुका है  | पहले वह कांग्रेस के विरुद्ध बनता था जिसे भाजपा से सहयोग  लेने में कोई झिझक नहीं थी  और फिर उसका निशाना भाजपा बन गई जिसके लिए उसने कांग्रेस से हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया | केसीआर की ताजा पहल जिस तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की है वह प्रत्यक्षतः कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी  बनाकर चलने के संकेत दे रहा है | इसीलिये आम आदमी पार्टी के दोनों मुख्यमंत्री कल रैली में शरीक हुए | केरल के मुख्यमंत्री का आना भी उल्लेखनीय है | अखिलेश यादव भी उ.प्र में कांग्रेस और बसपा से हाथ  मिलाने के बाद अब एकला चलो की नीति पर हैं |  लेकिन अभी भी विपक्ष का बड़ा हिस्सा केसीआर के साथ आने से कतरा रहा है | दरअसल उसमें से कुछ कांग्रेस और कुछ भाजपा के साथ जुड़ने के जुगाड़ में हैं | उड़ीसा के मुख्यमंत्री श्री पटनायक भले ही राज्य में भाजपा से अलगाव बनाकर चलते हों लेकिन संसद में उनकी पार्टी हमेशा भाजपा का साथ देती रही है | शिवसेना में हुई टूट के बाद पार्टी नेतृत्व इस असमंजस में है कि वह कांग्रेस और रांकापा के साथ रहे या नहीं क्योंकि उनकी संगत से उसकी हिंदूवादी छवि खंडित हुई है | इसी तरह नीतीश और तेजस्वी कांग्रेस के ज्यादा निकट हैं | तमिलनाडु में भी द्रमुक और कांग्रेस साथ हैं | रही बात ममता की तो वे मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाली मानसिकता के कारण किसी से नहीं जुड़ सकतीं | तृणमूल के अनेक नेताओं के घोटालों में फंस जाने के बाद उनका मोदी विरोध वैसे भी ठंडा पड़ चुका है | सबसे बड़ी बात ये है कि बिना कांग्रेस के  किसी भी विपक्षी गठबंधन का आकार लेना अव्यवहारिक होगा | ऐसे में 2024 में भाजपा को  सत्ता से हटाने की जो कोशिश केसीआर कर रहे हैं उसका लाभ अंततः भाजपा को ही मिलेगा क्योंकि विरोधी मत जितने विभाजित होंगे उसकी सम्भावनाएं और मजबूत होती जायेंगी | विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा प्रधानमंत्री का चेहरा भी है | राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा उन्हें नरेंद्र मोदी का विकल्प साबित करने के लिए आयोजित की गयी है | वे स्वयं भी अनेक अवसरों पर स्पष्ट कर चुके हैं कि भाजपा के विरोध में बनने वाले विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व  कांग्रेस के हाथ ही होना चाहिए | जबकि ममता साफ कह चुकी हैं कि भाजपा से लड़ने में कांग्रेस पूरी तरह अक्षम है और वे ही श्री मोदी का विकल्प बन सकती हैं | ये देखते हुए कहना  गलत न होगा कि तीसरे मोर्चे की ये पहल शायद ही असर दिखा सके क्योंकि बीते तीन दशक में इस बारे में जितने भी प्रयोग हुए वे सब दिशाहीन होकर भटकाव के शिकार हो गए | चूंकि ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी खतरा महसूस होता है लिहाजा वे उसे भी कमजोर करने में लगी हुई हैं | उस दृष्टि से केसीआर  द्वारा भाजपा के विरोध में तीसरी ताकत खड़ी करने की कवायद अंततः कांग्रेस की जड़ों में मठा डालने का ही प्रयास बनकर रह जाएगी |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 18 January 2023

देखें प्रधानमंत्री की सलाह को भाजपाई कितना मानते हैं



 
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  भाजपा को राजनीतिक दल से ऊपर उठकर सामाजिक आन्दोलन बनाने की जो बात कही वह सभी दलों के लिए एक नेक सलाह है | भाजपा रास्वसंघ के प्रचारक रहे स्व.  दीनदयाल उपाध्याय को अपना वैचारिक मार्गदर्शक मानती है | जब स्व. डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की और संघ से सहायता मांगी तब दीनदयाल जी को  राजनीतिक क्षेत्र में भेजा गया | डा. मुखर्जी चूंकि जल्द चल बसे इसलिए वैचारिक अभिभावक की भूमिका में दीनदयाल जी ही   आ गये  | हालाँकि बाद में अटल बिहारी वाजपेयी , नानाजी देशमुख , सुंदर सिंह भंडारी और कुशाभाऊ ठाकरे जैसे प्रचारक भी संघ से जनसंघ में आये किन्तु पार्टी के सैद्धांतिक चेहरे के रूप में  स्व. उपाध्याय का नाम ही लिया जाता  है | जब भाजपा  के रूप में जनसंघ का पुनर्जन्म हुआ तब उसने भी दीनदयाल जी के उस चिन्तन को ही आत्मसात किया जिसमें समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के उत्थान को सत्ता का उद्देश्य बताया  गया है | महात्मा गांधी और डा. राममनोहर लोहिया के विचार भी इसी पर जोर देते रहे | वामपंथी चिंतन का भी मूल आधार आर्थिक और सामाजिक विषमता  मिटाना ही है | वैसे राजनीति को सामाजिक आन्दोलन बनाने का सबसे सफल प्रयोग गांधी जी ने स्वाधीनता संग्राम के रूप में किया जिसमें  आजादी के बाद  की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के बारे में उनकी  सोच  झलकती थी | लेकिन उनके अनुयायी सत्ता की मृग मरीचिका में उलझकर रह गये | भारत में समाजवादी चिंतन भी मूलतः कांग्रेस की कोख से ही निकला था इसलिए वह भी सत्ता की भूल भुलैया में  अपनी साख खो बैठा | उसके बाद अवसर मिला विशुद्ध भारतीय चिंतन पर आधारित राजनीति करने का दावा करने वाली भाजपा को जो बीते नौ साल से देश के साथ ही अनेक राज्यों की सत्ता पर काबिज है | हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर उसने शून्य से शिखर तक की यात्रा तो कर ली किन्तु स्व. उपाध्याय द्वारा जो उपदेश दिया गया उसे कार्यरूप में परिणित करने का उद्देश्य अभी भी पूरा नहीं हो सका | भले ही 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न और लाखों लोगों को आवास मिल गया किन्तु आर्थिक और शैक्षणिक विषमता के कारण बहुत बड़ा वर्ग आजादी के लाभों से वंचित है | प्रधानमंत्री चूंकि स्वयं संघ के प्रचारक  रहे हैं इसीलिये उनके द्वारा भाजपा को सामाजिक आंदोलन में बदलने की बात कहे जाने पर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि  रास्वसंघ ने भी बीते कुछ वर्षों में वन्चित और उपेक्षित वर्ग को मुख्यधारा में लाने का जो अभियान चला रखा है उसी के कारण जातिवादी ताकतों की राजनीति कमजोर पड़ी है | हाल ही में छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में ईसाई मिश्नारियों द्वारा किये जाने वाले धर्मांतरण के विरुद्ध  आदिवासी जिस तरह से संगठित होकर सामने आये वह उन्हीं प्रयासों का  सुपरिणाम है | उस दृष्टि से श्री मोदी का सन्देश  भाजपा के सुरक्षित भविष्य के लिए सुझाया गया नुस्खा है | दरअसल प्रधानमंत्री जान चुके हैं कि सत्ता की अंधी दौड़ में शामिल राजनीतिक दल यदि समाज से कट जाता है तो एक सीमा के बाद उसका पराभव  सुनिश्चित है | और ये भी कि तात्कालिक लाभ बांटकर सत्ता भले ही प्राप्त कर ली जाये लेकिन बिना सामाजिक जुड़ाव के वह भी ज्यादा नहीं टिकती | कांग्रेस के अलावा प. बंगाल में वामपंथियों और सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवादी राजनीति करने वाले समाजवादियों की जो स्थिति आज है उससे भाजपा ने सबक न लिया तब उसका भी वैसा ही हश्र होना तय है | और यही श्री मोदी की चिंता का विषय है | इस बारे में स्व. नानाजी देशमुख का उदाहरण सामने है जिन्होंने केंद्र सरकार का मंत्री पद त्यागकर राजनीति से सन्यास ले लिया और चित्रकूट में ग्रामोदय विवि के रूप में एक ऐसा आदर्श स्थापित किया जो गांधी जी के ग्राम स्वराज , लोहिया जी के समतामूलक समाज और दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद का श्रेष्ठतम समन्वय है | देखने वाली बात ये होगी कि प्रधानमंत्री ने भाजपा को सामाजिक आन्दोलन के तौर पर विकसित करने की जो बात कही वह जमीन पर कितनी उतरती है क्योंकि उनकी पार्टी भी ऊपरी तौर पर तो बाकी  दलों की तरह  सत्ताभिमुखी नजर आती है | नब्बे के दशक में जब उसका सितारा उदय होने लगा था तब लालकृष्ण आडवाणी ने दो बातें कही थीं | पहली तो ये कि भाजपा देश का  राजनीतिक एजेंडा तय  करती है और दूसरा वह पार्टी विथ डिफ़रेंस है | तात्कालिक परिस्थितियों में चूंकि जनता अन्य सभी को आजमा चुकी थी इसलिए उसने भाजपा पर भरोसा  जताना शुरू किया जिसका चरमोत्कर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के राज्याभिषेक के रूप में सामने आया | उन्होंने सत्ता संभालते ही समाज के वंचित और उपेक्षित तबके के उत्थान पर ध्यान केन्द्रित किया और सरकारी  तौर -- तरीकों में आमूल बदलाव करते हुए जनधन खातों के रूप में ऐसी व्यवस्था ईजाद की जिसने दलालों को अलग कर दिया | उसी का असर रहा कि पांच साल बाद श्री मोदी को पहले से भी बड़ा जनादेश प्राप्त हुआ | उनके दूसरे कार्यकाल का अंतिम दौर शुरू हो चुका है | ऐसे समय में आम तौर पर सत्ता में बैठे नेता चुनावी रणनीति पर विचार करते हैं | जाहिर है भाजपा में भी ऐसा चल रहा होगा लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री ने भाजपा को एक सामाजिक उपक्रम में बदलने का जो आह्वान किया वह 21 वीं सदी की राजनीतिक शैली बन सकती है | श्री मोदी को ये एहसास हो चला है कि राजनीति का जो मौजूदा स्वरूप है उसके प्रति आम जनता के मन में सम्मान घटता जा रहा है | ऐसे में यदि वह सत्ता की दौड़ से समय निकालकर  समाज के साथ जुड़ने का प्रयास करे तब विचारधारा के विस्तार के साथ ही सामाजिक विखंडन को रोकने में सहायक बन सकती है | लेकिन सवाल ये है कि उनकी इस सदिच्छा को कितने भाजपा नेता और महत्वाकांक्षाओं का बोझ लिए घूम रहे कार्यकर्ता सम्मान देते हैं ? दरअसल प्रधानमंत्री की दूरदर्शी सोच यही है कि पार्टी को अपना सामाजिक आधार इतना मजबूत कर लेना चाहिए जिससे वह किसी या कुछ नेताओं पर निर्भर न रहे | अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी ये एक संकेत है |


रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 17 January 2023

तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ बढ़ रहा यूक्रेन संकट



यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध को एक साल होने आ रहा है | 24 फरवरी 2022 को रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने विश्व जनमत को ठेंगा दिखाते हुए यूक्रेन पर बम बरसाना शुरू दिया | शुरुआत में लग रहा था कि यूक्रेन पिद्दी साबित होकर कुछ दिनों में ही घुटने  टेक देगा किन्तु अमेरिका सहित अनेक यूरोपीय देशों ने अपने दूरगामी हितों के मद्देनजर उसे आर्थिक और सामरिक सहायता देकर  मुकाबला करने का हौसला प्रदान किया | यही वजह है कि बुरी  तरह बर्बाद हो जाने के बावजूद वह आज भी रूस का सामना कर रहा है | हालाँकि पूरा देश धीरे – धीरे खंडहर बनता जा रहा है | बिजली , पानी , चिकित्सा और शिक्षा जैसी तमाम व्यवस्थाएं चौपट हो चुकी हैं | रूस के हवाई हमले रोजमर्रे की गतिविधि हो गए हैं | नागरिक ठिकानों पर मिसाइलें दागकर पुतिन अपनी  बदहवासी का परिचय दे रहे हैं | बीच – बीच में परमाणु हमले की धमकी भी सुनाई देती है | 11  महीने में  रूस अब तक जीत क्यों नहीं सका और यूक्रेन ने अब तक पराजय स्वीकार क्यों नहीं की ये हैरानी का विषय है | यदि रूस बिना जीते कदम पीछे खींच ले तो भी जितना नुकसान इस युद्ध में यूक्रेन का  हुआ है उससे उबरने में  उसे अनेक दशक लग जायेंगे | इस युद्ध का कारण रूस द्वारा यूरोपीय देशों को निर्यात की जाने वाली गैस और कच्चे तेल के आपूर्ति में यूक्रेनी भूमि और बंदरगाहों के उपयोग का अधिकार है | 2014 में इसी उद्देश्य से उसने उसके बेहद महत्वपूर्ण बंदरगाह क्रीमिया पर बलात कब्जा कर लिया था जो एक तरह का परीक्षण था | जब पुतिन ने देखा कि  उस कदम का दुनिया में ख़ास विरोध नहीं हुआ तब उन्होंने दूसरे चरण में दोनों देशों की सीमा पर स्थित अनेक यूक्रेनी  राज्यों में अलगाववादी आन्दोलन खड़े कर उन्हें अपने देश में शामिल करने की रणनीति बनाई | युद्ध शुरू करने के बाद कुछ हिस्सों में इकतरफा जनमत संग्रह करवाकर उनका विलीनीकरण भी कर लिया | इस युद्ध का अर्थव्यवस्था के साथ ही   वैश्विक शक्ति संतुलन पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा है | शुरुआत में युद्ध की प्रत्यक्ष वजह यूक्रेन द्वारा अमेरिकी वर्चस्व वाले नाटो नामक सैन्य संधि से जुड़ने का फैसला माना  गया था जिसके अंतर्गत अमेरिका की फौजें रूस की सीमाओं के निकट आकर बैठ जातीं जो पुतिन को गंवारा नहीं था | इसीलिये उन्होंने  उसके पहले ही हमला कर दिया गया | यूक्रेन इसके बारे में बेखबर नहीं था लेकिन उसे भरोसा रहा कि अमेरिका उसकी ढाल बनकर खड़ा  हो जायेगा किन्तु यहीं वह धोखा खा गया | चूंकि उसके नाटो से जुड़ने की प्रक्रिया अंतिम रूप नहीं ले सकी थी लिहाजा अमेरिका ने सीधे मैदान में आने की जगह दूर रहकर सहायता करने की नीति अपनाई | दरअसल अफगानिस्तान से लस्त – पस्त होकर निकले अमेरिका को ये डर सता रहा था कि कहीं यूक्रेन की आग में उसके हाथ न झुलस जाएँ | इसी कारण वह और उसके साथी यूक्रेन को रूस से टकराने के लिए मदद तो देते रहे जिससे रूस का मंतव्य अब तक पूरा नहीं  हो सका | लेकिन इस युद्ध के जारी रहने से दुनिया के सामने आर्थिक संकट के साथ ही अशांति की समस्या भी पैदा हो गयी है | लड़ाई जिस मोड़ पर आकर अटकी है उसे देखते हुए परिस्थितियाँ लघु विश्व युद्ध की तरफ बढ़ रही हैं जिसका  अंजाम परमाणु युद्ध के रूप में दुनिया को भोगना पड़ सकता है | और ऐसा हुआ तब पाकिस्तान जैसे गैर जिम्मेदार देश अपनी परमाणु शक्ति का अविवेकपूर्ण उपयोग कर सकते हैं | लेकिन इस सबके बीच संरासंघ की लाचारी जिस तरह से सामने आई है उसे देखते हुए उसकी उपयोगिता और प्रभाव पर विचार किया जाना जरूरी है | ऐसा लगता है वह कुछ विश्व शक्तियों का बंधुआ बनकर रह गया है | वरना अभी तक  बैठकर विवाद सुलझाने की पहल उसे करनी थी | अतीत में ऐसी ही परिस्थितियों के दौरान संरासंघ ने अपनी सेना  तैनात कर युद्ध रोकने का प्रयास किया था | लेकिन मौजूदा संकट में  उसकी तरफ से ऐसी किसी भी पहल की जानकारी नहीं मिली | इससे लगता है उसने दुनिया को चंद बड़ी ताकतों  के रहमो करम पर छोड़ दिया है | ये बात किसी से छिपी नहीं है कि पृथ्वी के किसी भी कोने में होने वाली लड़ाई के पीछे विश्वशक्तियों की भूमिका रहती है | यही खेल यूक्रेन में रूस खेल रहा है जिसे विश्व संगठन हाथ पर हाथ धरे बैठा  देख रहा है | ऐसे में इस संगठन की उपयोगिता पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है | दरअसल जब तक वह  महज पांच बड़े देशों की मर्जी से बंधा रहेगा तब तक उसकी लाचारी इसी तरह बनी रहेगी | ऐसे में जरूरत इस बात की है कि तीसरी दुनिया की उभरती ताकतों के रूप में भारत और ब्राजील को भी इसकी निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जावे | ये सवाल भी उठ रहा है कि संरासंघ के महासचिव ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन से अब तक युद्ध रोकने के बारे में बात क्यों नहीं की और की तो नतीजा क्या निकला ? माना कि यह दो देशों के बीच का  मसला है किन्तु आज  दुनिया के एक कोने में होने वाली घटना का असर सब दूर नजर आता है | यदि संरासंघ ने जल्द  कारगर उपाय नहीं किये तो कुछ ताकतवर देश मिलकर अपने स्वार्थ और अहंकार में पूरे विश्व को युद्ध की आग में झोकने से बाज नहीं आयेंगे | रूस और यूक्रेन की लड़ाई  उसी का पूर्वाभ्यास लगता है |


रवीन्द्र वाजपेयी 
 

Monday 16 January 2023

बजट में करों का बोझ कम हो : छोटे व्यापारी को भी मिले सामाजिक सुरक्षा



संसद का बजट सत्र आगामी 31 जनवरी से प्रारंभ होने जा रहा है और बजट तैयार करने की प्रक्रिया भी अंतिम दौर में है  | हालांकि उसका बड़ा हिस्सा तो तय हो चुका होगा लेकिन कर प्रस्ताव अंतिम  वक्त पर ही आकार लेते हैं क्योंकि वित्त मंत्रालय विभिन्न औद्योगिक – व्यापारिक संगठनों के प्रतिनिधि मंडलों से राय मशविरा करने के बाद ही निर्णय करता है | कर्मचारी जगत से भी इस बारे में सरकार को ढेर सारे सुझाव मिलते हैं | हालाँकि उसके तकनीकी पहलुओं से तो आम जनता को  सरोकार नहीं होता लेकिन कराधान संबंधी प्रस्ताव उसे सीधे प्रभावित करते हैं इसलिए उसकी रूचि ये जानने में ही होती है कि बजट से उसकी जेब भरेगी या और खाली होगी ?  हमारे देश में बजट  पर चुनावी राजनीति की छाया रहती है इसलिए ये उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष 10 राज्यों के चुनाव होने के साथ ही चूंकि 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्र सरकार का ये आखिरी पूर्ण बजट होगा इसलिए आम जनता के लिए राहत का पिटारा खोला जा सकता है | जहाँ तक बात आयकर की है तो ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आबादी का बहुत ही छोटा हिस्सा उससे प्रभावित होता है लेकिन उपभोक्ता बाजार को ये तबका चूंकि प्रभावित करता है लिहाजा इसका ध्यान रखा जाना जरूरी है | और फिर इस वर्ग में कर्मचारियों की संख्या ज्यादा होने से जनमत पर भी ये असर डालता है | इसलिये उम्मीद लगाई जा रही है कि मोदी सरकार आयकर छूट के जरिये इसे राहत देगी | देश में दूसरे बड़े दबाव समूह के तौर पर किसान हैं | दो साल पहले चले लम्बे आन्दोलन के बाद सरकार ने किसानों के हित में अनेक निर्णय किये जिनमें समर्थन मूल्यों में वृद्धि प्रमुख थी | रही बात उद्योग जगत की तो सरकार किसी की भी हो उसके हितों की चिंता करती है क्योंकि अर्थव्यवस्था के पहिये को वही गति प्रदान करता है | लेकिन इन सबसे अलग हटकर बहुत बड़ी संख्या जनता के उस हिस्से की है जो स्वरोजगार से जुड़ा है या फिर निजी क्षेत्र में साधारण सी नौकरी करता है | व्यापारी वर्ग में भी ज्यादातर लघु और मध्यमवर्गीय ही हैं परन्तु  ये वर्ग चूंकि संगठित नहीं है इसलिए सरकार के कानों तक अपनी आवाज नहीं पहुंचा पाता | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री द्वारा सबका साथ , सबका विकास और सबका विश्वास नामक जो नारा दिया गया उसकी झलक आगामी बजट में दिखाई देगी , ऐसी  उम्मीद सब कर रहे हैं  | एक बात और जो कचोटती है वह ये कि जिस सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सरकारें अरबों खरबों खर्च करती हैं उससे व्यवसायी  समुदाय वंचित है | जीवन भर तरह – तरह के करों से सरकार का खजाना भरने वाले व्यापारी के साथ किसी भी प्रकार की अनहोनी हो जाने पर उसके परिवार वालों पर मुसीबत  का पहाड़ टूट पड़ता है | कोरोना के दौरान बड़ी संख्या में युवा व्यवसायी मृत्यु का शिकार हुए जिससे उनके आश्रितों का भविष्य अंधकारमय हो गया | किसी व्यापारी की अचानक मृत्यु होने पर उसके परिजनों को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा न मिलना अनुचित है  | अपेक्षा है बजट में इस वर्ग के लिए ऐसी किसी योजना का समावेश होगा जिससे किसी अनहोनी के बाद  उसके परिजन किसी तरह मोहताज न हों | दुनिया की पाँचवीं  सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके भारत में वर्तमान कर ढांचा  विकास के लिए ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने के उद्देश्य पर टिका  है | पहले  टैक्स वसूलकर हाइवे बनाना और उसके बाद टोल टैक्स लगाकर उसकी कीमत वसूलना उसी सोच का प्रमाण  है | लोक कल्याणकारी राज्य में संपन्न वर्ग से कर लेकर वंचित वर्ग के उत्थान पर खर्च करने का चलन होता है | लेकिन हमारे देश की जो कर प्रणाली है उसमें गरीब व्यक्ति को भी  अप्रत्यक्ष तौर पर उन करों का भुगतान करना पड़ता है जो संपन्न वर्ग से अपेक्षित  हैं | कोरोना  काल में चूंकि अर्थव्यवस्था डगमगा गई थी जिसकी वजह से सरकार ने अनेक रियायतें बंद कर दीं | यद्यपि गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न और निःशुल्क इलाज की सुविधा तो जारी है किन्तु रेल यात्रा में विभिन्न वर्गों को मिलने वाली छूट बंद है | विशेष तौर पर वरिष्ट नागरिकों के लिए तो ये सुविधा न्यायोचित है | इसी तरह पेट्रोल और डीजल की कीमतों में पेट्रोलियम कम्पनियों की मुनाफाखोरी घटाने पर इस बजट में ध्यान दिया जाना जरूरी है क्योंकि भले ही महंगाई के आंकड़ों पर सरकार कुछ भी कहे लेकिन कोरोना के दौरान  जो दाम बढ़े वे कम नहीं हुए | हालाँकि महंगाई में वैश्विक परिस्थितियों का भी योगदान  है लेकिन पेट्रोल - डीजल पर लगाये जाने वाले करों का औचित्य साबित करने का कोई आधार नहीं है | ऐसे में बजट से सबसे बड़ी अपेक्षा यही है कि उन पर लगाया जा रहा कर कम किया जाए जिससे जनता पर पड़ रहा बोझ घटने के कारण परिवहन खर्च में  कमी होने से चीजों के दाम गिरें | कुल मिलाकर आशय ये है कि सरकार को करों पहाड़ छोटा करते हुए आय बढ़ाने के सिद्धांत को अमल में लाना चाहिए | वर्तमान में करों की दरें सरकार के लिए भले ही लाभ का सौदा हों लेकिन उन्हें जनता पर बोझ  कहना गलत नहीं होगा | भारत की सड़कें अमेरिका जैसी  बनाने के फेर में उस जैसा भारी कराधान तब तक औचित्यपूर्ण नहीं है जब तक हमारे देश की  प्रति व्यक्ति औसत आय अमेरिका जैसी न हो जाये | हालाँकि ये मान लेना तो ख्याली पुलाव पकाने जैसा होगा कि करों के ढांचे में बहुत बड़ा बदलाव आगामी बजट में देखने मिलेगा लेकिन मोदी सरकार के पास ये अवसर है कर प्रणाली में सकारात्मक सुधार करने का | सरकार में बैठे लोगों को ये बताने की जरूरत नहीं है कि करों की ज्यादा दरें  उनकी चोरी और सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार को पालने – पोसने में मददगार होती हैं | 

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 13 January 2023

भौगोलिक दूरी भी शरद भाई से जबलपुर की भावनात्मक निकटता में बाधक नहीं बन सकी



1975 की जनवरी देश की राजनीति में एक नया सन्देश लेकर आई ,जब विपक्ष के साझा  प्रत्याशी शरद यादव ने कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे स्व. सेठ गोविन्द दास के निधन से रिक्त हुई जबलपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में उनके पोते रवि मोहन को भारी अंतर से हरा दिया | उस समय देश में स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आन्दोलन आकार ले रहा था | स्व. यादव जबलपुर वि.वि के छात्र नेता थे और उस समय रायपुर की जेल में बंद थे | 1971 का लोकसभा और 1972 का विधानसभा चुनाव हारने के कारण जनसंघ उस उपचुनाव  के प्रति अनमना था | तभी  खबर आई कि श्री यादव  उसमें  हाथ आजमाना चाहते थे लेकिन  वे जिस समाजवादी पार्टी से ताल्लुकात रखते थे उसका प्रभाव इतना था नहीं कि वे जमानत भी बचा पाते | इसलिए उनने जेल से ही जनसंघ के स्थानीय नेताओं को सन्देश भेजा कि वे उनका समर्थन करें तो कांग्रेस को टक्कर दी जा सकती है | हालांकि उनकी जनसंघ वालों से ज्यादा नहीं पटती थी किन्तु बिन बुलाये आई मुसीबत नुमा उस उपचुनाव से छुटकारा पाने के लिए जनसंघ ने श्री यादव के  ऑफर को सहर्ष स्वीकार कर लिया और वे सर्वदलीय  प्रत्याशी बन गए |  कांग्रेस के गढ़ रहे जबलपुर में सेठ जी के पौत्र को हराना सपने देखना जैसा था | उल्लेखनीय है गोविन्द दास जी संविधान सभा के सदस्य रहने के बाद 1952 से लगातार लोकसभा सदस्य बनते रहे | लेकिन चुनाव प्रचार शुरू होते ही श्री यादव के पक्ष में महौल बनने लगा | इसका कारण बतौर छात्र नेता बनी संघर्षशील युवा की छवि थी जबकि रवि मोहन पूरी तरह सार्वजनिक जीवन से दूर थे | और फिर देश भर से विपक्षी नेताओं ने जबलपुर आकर प्रचार किया | अंतिम सभा मालवीय चौक पर स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की थी जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा | सभा स्थल से लगभग  एक किलो मीटर दूर तक लाउड स्पीकर लगाये गए थे | उस सभा ने चुनाव परिणाम का अग्रिम ऐलान कर दिया था | उस तरह श्री यादव अचानक देश में परिवर्तन के प्रतीक  बन गए | इंदिरा गांधी के एकाधिकारवादी रवैये के विरुद्ध जयप्रकाश जी के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन के साथ जुड़ने में विपक्षी दलों की हिचक उस उपचुनाव ने दूर कर दी | लोकसभा में श्री यादव का प्रवेश भारतीय राजनीति में एक नए युग का शुभारम्भ बन गया | कालान्तर में लालू यादव , राम विलास पासवान , मुलायम सिंह यादव , नीतीश कुमार जैसे जो नेता समाजवादी धारा से निकलकर राजनीति में चमके वे सब उस समय छात्र राजनीति के इर्द गिर्द ही सिमटे थे | जून माह में आपातकाल आ गया और विपक्ष कैद कर दिया गया | परिणामस्वरूप  एक दूसरे के साथ हाथ मिलाने से भी कतराने वाले  विपक्षी  जनता पार्टी के रूप में गले मिलने राजी हुए  और  1977  के  लोकसभा चुनाव ने केंद्र में कांग्रेस की सत्ता का पहली बार खात्मा किया | शरद यादव दूसरी बार जीतकर लोकसभा पहुंचे | लेकिन अपने अंतर्विरोधों के चलते वह सरकार 27 महीनों में दम तोड़ बैठी | रास्वसंघ को मुद्दा बनाकर दोहरी सदस्यता का जो विवाद स्व. मधु लिमये ने शुरू किया वह उस राजनीतिक प्रयोग की असमय मौत का कारण बन गया | इंदिरा जी की तानाशाही का विरोध करने वाले अनेक दल कांग्रेस के जाल में फंस गए | चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा तो पूरी हो गयी किन्तु कुछ ही दिनों में कांग्रेस ने अपनी बैसाखी खींच ली  | 1980 के  मध्यावधि चुनाव में इंदिरा जी सत्ता में लौट आईं | जबलपुर से शरद यादव लोकदल से  मैदान में उतरे  किन्तु जनसंघ के अलग हो जाने से उनकी जमानत जप्त  हो गयी | उसके तुरंत बाद वे इस शहर को छोड़कर नए ठिकाने की तलाश में निकल गए | चौधरी चरण सिंह , देवीलाल और चंद्रशेखर  की मदद से उन्होंने दिल्ली में अपने लिए जगह बनाई और राज्यसभा में आ गये | राजनीतिक जोड़ - तोड़ में उनका कोई मुकाबला नहीं था जिसके चलते  उ.प्र के बदायूँ और बाद में बिहार के मधेपुरा से वे लोकसभा में आते रहे और  जब हारे तो राज्यसभा में आने में सफल रहे | 1989 और उसके बाद बनी अनेक सरकारों में मंत्री रहने के बाद वे  अटल जी की सरकार के हिस्से भी रहे | समाजवादी राजनीति  के मूल चरित्र में मिलने ,  बिछड़ने और फिर मिलने का जो गुण है उसके अनुरूप वे भी कभी लालू तो कभी नीतिश के साथ आये - गए | जॉर्ज फर्नांडीज के साथ भी उनके संबंध नर्म – गर्म रहे | एनडीए के संयोजक का पद भी संभाला | लेकिन इस आवाजाही में वे अपनी राजनीतिक जमीन  नहीं बना सके | और आखिर में ये स्थिति आ गयी कि राष्ट्रीय राजनीति  में रिंग मास्टर की भूमिका निभाने वाले शरद भाई दिल्ली में एक सरकारी मकान के लिए तरस गए | लंबे समय से  अस्वस्थ होने के कारण वे राजनीति की मुख्य धारा से दूर थे | कल रात ज्योंहीं उनके न रहने की  खबर आई , बीते लगभग पांच दशक का राजनीतिक घटनाचक्र याद आने लगा | जबलपुर के मालवीय चौक से चलकर दिल्ली के राजनीतिक मंच पर उन्होंने जिस तरह अपने को प्रतिष्ठित किया वह आसान नहीं था | शरद भाई के तौर पर अपनी मित्र मंडली में लोकप्रिय श्री यादव ने जबलपुर छोड़ तो दिया लेकिन जब भी यहाँ आते संघर्ष के दिनों के साथियों से मिलना  नहीं भूलते | यहां से जो भी दिल्ली गया उससे वे बड़ी ही आत्मीयता से मिले और उसकी मदद की | उनका चला जाना राजनीति के एक अध्याय की समाप्ति है | आजादी के बाद देश में हुए दो परिवर्तनों में उनकी भूमिका रही | मंडल आयोग के जरिये ओबीसी आरक्षण से सोशल इन्जीनियरिंग नामक जो प्रयोग हुआ उसके शिल्पकारों में भी वे  रहे | हालाँकि उनका राजनीतिक जीवन अस्थिरता और वैचारिक भटकाव के बीच झूलता रहा | लेकिन नाटे कद की शारीरिक रचना के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपना कद बहुत ऊंचा किया और लगातार  बनाये रखा | इसमें दो राय नहीं हैं कि 1980 में हारने के बाद वे जबलपुर न छोड़ते तो म.प्र में तीसरी शक्ति की  कमी  शायद न रहती | जितनी उठापटक उन्हें दूसरों की जमीन पर पैर ज़माने के लिए करनी पड़ी  उतनी यहाँ  करते तब शायद उनके  राजनीतिक सफर का अंत  भी उतना ही जोरदार रहता जितना उसका आरम्भ था | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि शरद यादव और जबलपुर के बीच भावनात्मक निकटता में  भौगोलिक दूरी और भौतिक अनुपस्थिति कभी बाधक नहीं बनी | शायद उनके मन में भी जबलपुर छोड़ने की तड़प रही होगी | उनके निधन से इस अंचल में उनके अनगिनत चाहने वालों के साथ ही उन लोगों को भी दुःख है  जिनका उनसे कभी वास्ता नहीं पड़ा क्योंकि चाहे दिल्ली के लिए पहली सीधी ट्रेन क़ुतुब एक्सप्रेस हो या रेल जोन जैसी उपलब्धि , उसके साथ उनका नाम स्थायी रूप से जुड़ा हुआ है और सदैव रहेगा | लम्बे समय तक वे राष्ट्रीय राजनीति में जबलपुर की पहिचान रहे | ऐसे शख्स का न रहना निश्चित तौर पर खलने वाला है | महाकोशल की इस चेतनास्थली ने देश और दुनिया को एक से बढ़कर  एक विभूतियाँ  दीं किन्तु राजनीति के क्षेत्र में आजादी के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर शरद यादव ने जिन शिखरों को छुआ वह किसी और के लिए न तो संभव हुआ और न ही निकट भविष्य में संभव होता दिखता है | शरद भाई को स्वर्गीय लिखना अच्छा तो नहीं लग रहा लेकिन विधि के इस विधान को स्वीकार करना ही नियति है |

विनम्र श्रद्धांजलि |  

रवीन्द्र वाजपेयी 
 


Thursday 12 January 2023

झगड़े में संसद और न्यायपालिका दोनों की छवि खराब होगी



आम तौर पर उपराष्ट्रपति ज्यादा चर्चा में नहीं रहते | राज्यसभा के पदेन सभापति के अलावा वे कुछ सरकारी संस्थाओं के मुखिया भी  होते हैं | संवैधानिक ओहदे की वजह से विवादित  विषयों पर बोलने से भी वे परहेज करते हैं | राष्ट्रपति के रहते हुए वैसे भी उनकी भूमिका सीमित होती है और फिर संसदीय प्रजातंत्र में प्रधानमंत्री का चेहरा ही समूचे तंत्र में नजर आता है | लेकिन नए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अपने पूर्ववर्तियों से अलग दिखने  का संकेत दे रहे हैं | राज्यसभा की  आसंदी पर विराजमान होते ही उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक बताते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालेजियम व्यवस्था को जारी रखने संबंधी फैसले पर जिस तरह निशाना साधा उससे लग गया कि वे महत्वपूर्ण मामलों में अपनी राय व्यक्त करने से पीछे नहीं हटेंगे | यद्यपि उनके उस वक्तव्य पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की किन्तु श्री धनखड़ उससे अविचलित रहते  हुए खुलकर अपने विचार व्यक्त करने में संकोच नहीं करते | इसका ताजा प्रमाण है जयपुर में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उनका भाषण जिसमें उन्होंने विधायिका की सर्वोच्चता में न्यायपालिका  के हस्तक्षेप को गलत मानते हुए कहा कि वे इससे सहमत नहीं हैं कि संसद कानून बनाये और सर्वोच्च न्यायालय उसे रद्द कर दे | संसद द्वारा लिए गए फैसले की किसी अन्य संस्था द्वारा समीक्षा किये जाने पर सवाल उठाते हुए श्री धनखड़ ने पूछा कि क्या संसद द्वारा बनाया कानून तभी लागू माना जायेगा जब उस पर अदालत की मुहर लग जाए  ? उपराष्ट्रपति ने ये भी कहा कि संसद सर्वोच्च है जिसके बनाये गए कानूनों को अन्य संस्था द्वारा अमान्य करना प्रजातंत्र के लिए अच्छा नहीं है | उक्त सम्मलेन में देश भर से आये विधानसभा और विधान परिषदों के सभापतियों के अतिरिक्त लोकसभा अध्यक्ष और  राजस्थान के मुख्यमंत्री की उपस्थिति में विधायिका द्वारा पारित कानूनों पर अदालतों की दखलंदाजी पर खुलकर चर्चा हुई | अनेक वक्ताओं ने कहा कि अदालतों को मर्यादा के भीतर रहकर काम करना चाहिए | कुछ समय पहले जयपुर में ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजजू ने सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के सामने कहा था कि अदालतें वकीलों का चेहरा देखकर फैसला सुनाती हैं | इस सबसे ऐसा लगता है कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच चल रहा शीत युद्ध और त्तेज होगा | हालाँकि श्री रिजजू भी समय – समय पर न्यायपालिका की भूमिका पर टीका – टिप्पणी करते रहे हैं जिसका न्यायाधीशों ने बुरा भी माना | अब चूंकि बीड़ा उपराष्ट्रपति ने उठाया है इसलिए कहा जा सकता है कि आने वाले समय में न्यायपालिका , विधायिका और कुछ हद तक कार्यपालिका के बीच टकराव खुलकर सामने आयेगा | इसकी वजह एक तो कालेजियम द्वारा नए न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु भेजी गई सिफारिशों को केंद्र सरकार द्वारा लम्बे समय से लंबित रखा जाना है | और दूसरा ये कि सरकार राष्ट्रीय न्यायिक  आयोग संबंधी विधेयक दोबारा संसद में लाने के संकेत दे रही है जिससे न्यायपालिका और संसद के बीच रस्साकशी और तेज हो जायेगी | सबसे रोचक बात ये है उपराष्ट्रपति अग्रिम मोर्चे पर नजर आ रहे हैं जो कि राज्यसभा के सभापति के साथ ही  पेशे से अधिवक्ता होने के नाते दोहरी भूमिका में हैं | वैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी कालेजियम व्यवस्था के विरुद्ध अनेक बातें सामने आ चुकी हैं | न्यायपालिका के भीतर भी एक वर्ग है जिसे ये लगता है कि इस प्रणाली में अनेक विसंगतियां हैं | राजनीतिक क्षेत्र में भी न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाये जाने पर आम तौर पर सहमति है | इसीलिये  सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे रद्द किये जाने के बाद से संसद की सर्वोच्चता और न्यायपालिका द्वारा उसके निर्णयों को रद्द करने पर बहस चल रही है | गौरतलब है न्यायपालिका द्वारा अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर की जाने वाली टिप्पणियाँ भी  आलोचना का कारण बनती रही हैं | सुनवाई के दौरान अनेक न्यायाधीश ऐसी बातें कह जाते हैं जो  फैसलों या आदेशों में तो शामिल नहीं की जातीं किन्तु उनके कारण सरकार की स्थिति खराब होती है | हमारे देश में न्यायपालिका के प्रति सम्मान का जो भाव है उसके कारण उसकी आलोचना करते समय भी काफी सतर्कता बरती जाती है | लेकिन न्यायिक सक्रियता के अतिरेक से वह लिहाज टूट रहा हैं | ऐसे में  पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में व्यक्त  भावनाओं का शुद्ध मन से  संज्ञान लिया जाना जरूरी है | विधायिका और न्यायपालिका के बीच नियन्त्रण और सन्तुलन होना चाहिए न कि टकराव क्योंकि उससे दोनों की छवि पर आंच आयेगी जो कि पहले  ही काफी खराब हो चुकी है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 11 January 2023

निवेशक सम्मेलन की सफलता के लिए नौकरशाहों पर नकेल जरूरी




म.प्र का इंदौर नगर इन दिनों वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है | प्रवासी भारतीयों के दो दिवसीय जलसे के बाद आज से वहां ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट प्रारम्भ हुई | जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आभासी माध्यम से संबोधित किया | म.प्र सरकार द्वारा आयोजित यह सम्मलेन चूंकि विधानसभा चुनाव वाले साल में हो रहा है लिहाजा ये मान  लेना गलत नहीं होगा कि इसके जरिये  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जनता को ये विश्वास दिलाना चाहते हैं कि उनकी सरकार प्रदेश के आर्थिक विकास के लिए पूरी तरह कटिबद्ध है | इसमें दो मत नहीं कि कभी बीमारू राज्य कहलाने वाला म.प्र अब विकास की दौड़ में काफी आगे बढ़ा है | बिजली  , पानी , सड़क आदि के क्षेत्र में  जो उल्लेखनीय प्रगति 2003 के बाद से हुई उसकी वजह से ये निवेशकों के लिए आदर्श राज्य बन गया है | भूमि की उपलब्धता भी काफी है | केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने से भी स्थितियाँ निवेश के अनुकूल हुई हैं | ऐसे में श्री चौहान का ये प्रयास अपेक्षित परिणाम दे सकता है | सबसे बड़ी बात ये है कि प्रवासी सम्मलेन की वजह से अनेक विदेशी निवेशक पहले से ही इंदौर में मौजूद हैं और उन्हें इस प्रदेश में उद्योग - व्यापार की संभावनाओं का अध्ययन करने का अवसर भी मिला होगा | इंदौर चूंकि हमेशा से ही इस दिशा में आगे रहा है इसलिए भी इस आयोजन  को सफलता मिलने की आशाएं हैं । लेकिन सम्मेलन समाप्त होने के बाद जो खेल शुरू होता है उस पर नजर रखना मुख्यमंत्री के लिए जरूरी है | अब तक के अनुभव बताते हैं कि सम्मेलन के दौरान जो निवेशक  उद्योग लगाने हेतु प्रस्ताव हस्ताक्षरित करते हैं वे बाद में  पीछे हट जाते हैं | इसका असली कारण नौकरशाही है जो निवेश के लिए आने वालों को खून के आंसू रुलाने से बाज नहीं आती | सम्मलेन के समय तो मुख्यमंत्री चूंकि खुद उपस्थित रहते हैं इसलिए अफसरशाही विनम्रता और सौजन्यता की प्रतिमूर्ति बनी रहती है किन्तु आयोजन खत्म होते ही वह अपने ढर्रे पर लौट आती है जिससे निवेशक हतोत्साहित हो जाते हैं | ये देखते हुए श्री चौहान को चाहिये कि वे सम्मलेन में आये निवेश प्रस्तावों पर तेजी से अमल करवाने के लिए समूची प्रक्रिया पर निरन्तर नजर रखें ताकि प्रदेश में पूंजी  लगाने के इच्छुक उद्योगपतियों को भटकना न पड़े | इस बारे में श्री मोदी की कार्यशैली अनुकरणीय है | गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने उस राज्य को निवेशकों की पहली पसंद बनाने में सफलता हासिल की तो उसकी वजह उनसे संपर्क बनाए रखते हुए बाधाओं  को तत्काल दूर करने के बारे में मुख्यमंत्री कार्यालय का मुस्तैद रहना था | चोटी के उद्योगपतियों को गुजरात में निवेश हेतु राजी करने के बाद वे व्यक्तिगत संपर्क रखते हुए उनको प्रोत्साहित किया करते थे | प. बंगाल से टाटा कम्पनी की  नैनो कार का कारखाना गुजरात ले आने की घटना उद्योग जगत में काफी चर्चित हुई थी | चूंकि मुख्यमंत्री स्वयं सतर्क रहते इसलिए नौकरशाही भी अपने दायित्व का निर्वहन करने में पीछे नहीं रही | इस ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के उपरान्त श्री चौहान को भी चाहिए वे मुख्यमंत्री कार्यालय में निवेश प्रस्तावों संबंधी एक विशेष सेल बनाकर उनकी दैनंदिन प्रगति पर नजर रखें | पिछले अनुभवों को देखते हुए ऐसा करना नितान्त आवश्यक है | आज  श्री मोदी ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए  एम.पी अजब है ,गजब है के साथ और सजग भी जोड़कर श्री चौहान की जिम्मेदारी बढ़ा दी है | चुनावी वर्ष होने से मुख्यमंत्री के पास निवेश प्रस्तावों को अमली जामा पहिनाने के लिए बहुत ही कम समय है क्योंकि नवम्बर में होने वाले चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही आदर्श आचार संहिता  लागू हो जाने से सरकार नीतिगत निर्णय नहीं कर सकेगी | और विपक्ष भी चुनाव मैदान में उसे घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा | इसलिए जैसे तेवर आजकल श्री चौहान भ्रष्ट और निकम्मे अधिकारियों के विरुद्ध दिखा रहे हैं वैसी ही सख्ती  उन्हें निवेश प्रस्तावों के क्रियान्वयन से जुड़े अधिकारियों पर भी दिखानी चाहिए | प्रधानमंत्री ने एम . पी को अजब और गजब के साथ सजग बताकर सांकेतिक शैली में जो सन्देश प्रदेश सरकार को दिया यदि मुख्यमंत्री उसके निहितार्थ को समझते हुए अपने नौकरशाहों पर कसावट रख सकें तभी निवेशक सम्मेलन का उद्देश्य पूरा हो सकेगा |  


रवीन्द्र वाजपेयी 




Tuesday 10 January 2023

वरना जोशीमठ जैसे हादसे होते ही रहेंगे



अब ये तय हो चुका है कि जिस तरह टिहरी बाँध बन जाने से गढ़वाल अंचल के अनेक स्थान जलमग्न हो गये उसी तरह जोशीमठ का बड़ा हिस्सा भी अतीत होने जा रहा है | जो स्थितियां अब तक सामने में आई हैं उनके अनुसार उसे  खाली करने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं है | उसके साथ ही सैकड़ों अन्य गाँवों में  भी विस्थापन  प्रारंभ हो गया है | जिस तरह से वहां धरती धंस रही है उसे देखते हुए किसी बड़े भूगर्भीय बदलाव की आशंका से लोगों में दहशत है | अपना आशियाना उजड़ते देख रहे लोगों के मन पर क्या बीत रही होगी ये वे ही जानते हैं | जोशीमठ का स्वरूप क़स्बानुमा ही है | सर्दियों में भगवान बद्रीनाथ यहीं आकर विराजते हैं | शंकराचार्य जी की पीठ भी यहीं है | बद्रीनाथ धाम का यह प्रवेश द्वार होने से भी महत्वपूर्ण है | चीन सीमा के सन्निकट होने से यह सैन्य दृष्टि से काफी संवेदनशील माना जाता है | बद्रीनाथ के अलावा फूलों की घाटी और औली नामक पर्यटन स्थल जाने के लिए भी जोशीमठ शुरुआती स्थल है | शाम के बाद चूंकि उक्त  स्थलों तक जाने की अनुमति नहीं होती , लिहाजा ये  सैलानियों और पर्यटकों के रात्रिकालीन विश्राम का केंद्र बन गया था | औली को पर्यटन स्थल के रूप में  काफ़ी बाद में विकसित किया गया लेकिन बद्रीनाथ की यात्रा तो सदियों से होती आ रही है | पहले ज़माने में  तीर्थयात्री पैदल आते थे और  रास्ते भर स्थानीय लोगों के लकड़ी से  बने मकान उनके आश्रय स्थल होते थे जिन्हें चट्टियां कहा जाता था | लेकिन जब से सडकें बनीं और मोटर वाहन से आना - जाना सुलभ हुआ तब से जोशीमठ बद्रीनाथ के पहले रात्रिकालीन पड़ाव बन गया | और  वहां स्थानीय लोगों के साथ ही बाहरी व्यवसायियों ने होटल और अतिथि गृह बनाने शुरू कर दिये  | ध्यान  देने वाली  बात ये है कि दशकों पूर्व तकनीकी रिपोर्ट में दी गई चेतावनी का उल्लंघन करते हुए भी इसको कस्बे से शहर बनाने की कोशिश होती रही | पहाड़ी भूमि  की क्षमता और तासीर को उपेक्षित करते हुए  निर्माण के लिए पहाड़ों को खोदा - तोड़ा गया जिसका दुष्परिणाम अब जाकर नजर आया | आज वहां दो आलीशान होटल धराशायी किये जा रहे है | पूरे शहर को तीन हिस्सों में बांटकर लोगों को सुरक्षित स्थान पर रखने की योजना भी बन गई है | केन्द्र सरकार हर स्थिति से निपटने को तैयार है | जोशीमठ के लोगों को बचाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में हो रही बैठकें इसका प्रमाण है | लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि एक बार फिर आग लगने पर कुआ खोदने की परम्परा दोहराई जा रही है | उत्तरकाशी सहित उत्तराखंड के अनेक इलाकों में भूस्खलन की घटनाओं से बहुत नुकसान हो चुका है | पहाड़ से मलबा गिरने के कारण अनेक स्थानों पर नदी का जलस्तर ऊपर उठ जाने से दर्जनों  गाँव उजड़ने को मजबूर हो गए | ये स्थिति केवल गढ़वाल में नहीं अपितु समूचे उत्तराखंड और हिमाचल के अनेक स्थानों की है | हिमालय पर्वतमाला भूकम्प की दृष्टि से बेहद संवेदनशील होने के कारण उसमें  चल  रहे विकास कार्यों  से होने वाले नुकसान की अनदेखी के कारण कब क्या हो जाए ये फ़िलहाल तो कोई नहीं बता पायेगा लेकिन जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए न  तो प्रकृति को दोष दे सकते हैं और न ही पर्वतों और नदियों को क्योंकि  उनकी अपनी दुनिया है जिसमें मानवीय दखलंदाजी एक सीमा तक ही  स्वीकार्य है | लेकिन ज्योंही मनुष्य अपने ज्ञान और उससे अर्जित शक्ति पर अहंकार करते हुए प्रकृति से छेड़खानी करता है तो एक सीमा  के बाद वह अपना  क्रोध व्यक्त किये बिना नहीं मानती | पर्वतों की दुर्गम तीर्थ यात्रा के पीछे का उद्देश्य भी आमोद - प्रमोद नहीं था | इसीलिए उसमें होने वाले कष्टों में भी यात्री आनंद की अनुभूति करते थे | लेकिन अब समूचा परिदृश्य बदल गया है | तीर्थयात्रा और पर्यटन के घालमेल का परिणाम ही जोशीमठ के मौजूदा हालात के तौर पर सामने है | आजकल वन्य प्राणियों के बस्तियों में घुसने और जहरीले सर्पों के घरों में डेरा ज़माने की खबरें आये दिन सुनाई देती हैं | इसका कारण उनके ठिकाने में किया जाने वाला अतिक्रमण है | जंगलों की बेरहमी से कटाई और शहरों के असीमित विस्तार की वजह से इन प्राणियों के संसार  में मानवीय दखल के  कारण मजबूरी या प्रतिशोधस्वरूप वे हमारी बस्ती और घरों में आने लगें तो उनका कसूर नहीं है | प्रकृति की जो रचना है उसको नुकसान पहुँचाने की भारी कीमत चुकाने के बावजूद भी हमें अक्ल नहीं आ रही तो फिर जोशीमठ जैसे हादसों की पुनरावृत्ति होती रहेगी |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 9 January 2023

प्रवासी सम्मेलन से भारत की वैश्विक भूमिका और मजबूत होगी



म.प्र की  व्यवसायिक राजधानी इंदौर में 17 वें भारतीय प्रवासी दिवस का आयोजन मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में भारत की भूमिका के मद्देनजर बेहद महत्वपूर्ण और सामयिक है | विश्व के अनेक देशों में जाकर बस गए भारतवंशियों को अपनी मातृभूमि से भावनात्मक तौर पर जोड़े रखने में प्रवासी दिवस का यह आयोजन बहुत सहायक साबित हुआ है | 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी घोषणा की थी और 2003 में प्रथम प्रवासी सम्मलेन आयोजित हुआ | इंदौर का यह 17 वाँ आयोजन है | इसका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहाँ आज इसको संबोधित किया वहीं कल राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू इसके समापन में शामिल होंगी | विदेश मंत्री एस. जयशंकर विगत अनेक दिनों से इंदौर में आयोजन की तैयारियों में जुटे हुए हैं | इस आयोजन की तिथि 9 जनवरी रखने के पीछे कारण ये है कि 1915 में इसी तारीख को महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे | दरअसल प्रवासी सम्मलेन की सोच उस समय पैदा हुई जब वाजपेयी सरकार द्वारा 1998 में किये गए परमाणु परीक्षण के बाद  अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे | तब वाजपेयी जी ने  विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों का आह्वान  किया और उन्होंने भारत में बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भेजकर उन प्रतिबंधों के विरूद्ध मजबूती से खड़े होने में देश को सक्षम बनाया | 2003 के बाद से अप्रवासियों को परदेशी न  मानते हुए वतन के प्रति उनके मन में जो भावना है उसे और सुदृढ़ करने का प्रयास लगातार चलता रहा है | बाद में आई सरकारों ने भी उसके महत्व को समझा जिसका अनुकूल परिणाम देखने मिला  है | प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी ने प्रवासियों से सम्पर्क बढ़ाने पर काफी जोर दिया | इसीलिये वे अपनी हर प्रमुख विदेश यात्रा में वहां रह रहे भारत वंशियों से मिलकर उन्हें भारत से जोड़े रखने का प्रयास करते हैं | इस बारे में ये  उल्लेखनीय है कि आज  भारतीय मूल के लोग सारी दुनिया में फैल चुके हैं | उनमें बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्होंने अपने परिश्रम और योग्यता से सम्मान और समृद्धि अर्जित कर ली है | अपनी जन्मभूमि को छोड़कर गये इन लोगों की मन में ये भावना आ  चुकी है कि उन्हें भारत को विकसित देश बनाने के लिए कुछ करना चाहिए | प्रवासी दिवस का आयोजन उस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है | इसके जरिये पूंजी निवेश तो आता ही है भारतीय संस्कृति के प्रति उनके मन में जो श्रृद्धा और प्रेम है वह भी मजबूत होता है | अमेरिका , कैनेडा और ब्रिटेन जैसे समृद्ध देशों में सुविधाजनक जीवन यापन कर रहे भारतीय मूल के लोगों में अपनी मातृभूमि को विश्व के विकसित देशों की कतार में खड़ा करने की जो ललक विगत 10 – 15 साल में जागी है उसका काफी श्रेय प्रवासी सम्मलेन को दिया जा सकता है | सूचना तकनीक के विकास के बाद से भारत ने सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में जो चमत्कारिक प्रगति की उसकी वजह से बड़ी संख्या में भारतीय युवक विदेशों में जाकर काम कर रहे हैं | निश्चित रूप से उन्हें वहां बेहतर अवसर उपलब्ध हैं | लेकिन देश से दूर रहकर भी इसके विकास से जुड़े रहने की भावना उनके मन में जीवंत रहे इसके लिए उनसे संपर्क और संवाद बनाये रखना देश के दूरगामी  हितों में है | भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों से संपर्क स्थापित रखने के लिए ही अप्रवासी भारतीय मंत्रालय भी बना  रखा है जो उनकी तमाम  समस्याओं का समाधान करता है | इस मंत्रालय की वजह से विदेशों में बसे भारतवंशियों को  अपने देश के साथ जुड़े रहने में काफी सुविधा हुई है | इंदौर में प्रवासी सम्मेलन ऐसे समय हो रहा है जब पूरा विश्व कोरोना के बाद की परिस्थितियों से जूझ रहा  है | दूबरे में दो आसाढ़ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए रूस और यूक्रेन युद्ध जैसी मुसीबत आ खड़ी हुई जिसकी वजह से तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडराने लगा है | ऐसे में भारत की भूमिका पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं | न सिर्फ आर्थिक अपितु कूटनीतिक क्षेत्र में भी हमारा प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है | इस उपलब्धि में सरकार की नीतियां तो प्रशंसा की पात्र हैं ही किन्तु अप्रवासी भारतीयों की भूमिका को भी इसका श्रेय जाता है | अमेरिका , कैनेडा , ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की राजनीति में भारतीय मूल के लोगों का  महत्वपूर्ण पदों पर बैठना इसका प्रमाण है | उस दृष्टि से इंदौर का सम्मेलन  रणनीतिक दृष्टि से भी काफी महत्त्व रखता है | प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का इसमें आकर  विदेशों से आये प्रतिनिधियों को सम्मानित करना एक  बुद्धिमत्तापूर्ण कदम है | उम्मीद की जा सकती है कि इसके जरिये भारत अपनी वैश्विक भूमिका को और मजबूत कर  सकेगा |

 रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 7 January 2023

जोशीमठ : विकास के नाम पर विनाश का पूर्वाभ्यास



क्रिया की प्रतिक्रिया के सिद्धांत का ताजा प्रमाण है उत्तराखंड में जोशीमठ शहर के धंसने की घटना | बीते कुछ दिनों से वहां दहशत का माहौल है | शहर के वाशिंदे रात को चैन की नींद सो नहीं पा रहे | उन्हें इस बात का भय सता रहा है कि कहीं उनके मकान की छत ही न गिर जाये | बद्रीनाथ धाम जाने वाले मार्ग में जोशीमठ अंतिम पड़ाव है | शीतकाल में भगवान बद्रीनाथ यहीं विराजते हैं | उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जाने वाले मार्गों के उन्नयन के साथ ही जोशीमठ में एक सुरंग का निर्माण हो रहा है | जो इस हादसे की वजह मानी जा रही  है | जैसे ही ये पता चला कि शहर धंस रहा है ,  काम बंद कर जांच शुरू कर  दी गयी | प्रशासन के साथ ही आपदा प्रबंधन की टीमें जोशीमठ में मौजूद रहकर  बचाव की  कार्ययोजना बनाने में जुटी है | उधर हल्दवानी से भी इसी तरह की खबर आने से उत्तराखंड के साथ ही केंद्र सरकार की चिंता भी बढ़ गई  है | राहत एवं बचाव की तैयारियों के अलावा नुकसान को कम से कम करने की दिशा में भी प्रयास चल पड़े हैं | वैसे  उत्तराखंड में ये पहली घटना नहीं है जब भूकंप , भूस्खलन , बादल फटने और पहाड़ के धसकने से नदियों में अचानक आई बाढ़ से तबाही मची हो | दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति निरंतर चेतावनी देती आ रही है कि हिमालय के समूचे क्षेत्र के भूगर्भीय संतुलन को बिगाड़ने से बचें | वृक्षों की  अंधाधुंध कटाई के कारण पहाड़ जिस तरह नंगे हुए उसकी वजह से उनका धसकना शुरू हुआ | पानी के जो झरने कदम – कदम पर नजर आ जाते थे वे धीरे – धीरे लुप्त हो गए | हरियाली कम हुई तो तापमान बढ़ने लगा जिसका असर ग्लेशियरों के पिघलने के तौर पर सामने आ रहा है  | टिहरी बाँध के निर्माण के विरोध में चले आंदोलन के समय जो चेतावनियाँ दी गईं थीं उनको नजरअंदाज किये जाने के नुकसान आज सबके सामने आ चुके हैं | इसी तरह वृक्षों की बेरहम कटाई रोकने के लिये चले चिपको आन्दोलन पर भी ध्यान नहीं दिए जाने से समूचे उत्तराखंड का पर्यावरण प्रभावित हुआ | हिमालय पर्वतमाला के इस क्षेत्र को ठोस चट्टानी मानने की मानसिकता ने विकास की जो रूपरेखा तैयार की उसी का दुष्परिणाम जोशीमठ में उत्पन्न नए खतरे के रूप में प्रकट हुआ है | पहाड़ों का सीना चीरकर विकसित किये जा रहे चौड़े – चौड़े राजमार्ग , नदियों की धारा रोककर लगाये जा रहे पन बिजली संयंत्र , कांक्रीट से बन रहे मकान और साल दर साल यात्रियों की बढ़ती संख्या के कारण वाहनों की धमाचौकड़ी ने देवभूमि कहलाने वाले उत्तराखंड में मानवीय हस्तक्षेप जरूरत से ज्यादा बढ़ा दिया | लेकिन विकास और ज्यादा कमाई के फेर में न सिर्फ सरकार अपितु वहां रहने वाले वाशिंदे भी ये भूल गए कि पहाड़ और प्रकृति की सहनशीलता की सीमा है | जब तक उनसे बर्दाश्त हुआ तब तक वे शांत बने रहे लेकिन जब लगा कि विकास की वासना में अँधा मनुष्य उसकी खामोशी को कमजोरी मानकर अत्याचार जारी रखने पर आमादा है तब उसने पहले तो हलके संकेतों से अपनी नाराजगी व्यक्त की और जब उस पर भी इंसानी दुस्साहस जारी रहा तब उन्हें ये लगने लगा कि साधारण  चेतावनियों से काम नहीं चल रहा और उसी के बाद प्रकृति ने अपना रौद्र रूप विभिन्न तरीकों से प्रदर्शित करना प्रारंभ किया | लेकिन अपने गरूर में डूबी व्यवस्था और अधकचरी आयातित सोच ने विकास के जो मापदंड तय किये उसमें प्रकृति और पर्यावरण पर अत्याचार पहली पायदान थी | विगत कुछ दशक में उत्तराखंड जिस तरह के भूगर्भीय परिवर्तन झेल रहा है वे सही मायनों में आने वाले संकट के संकेत थे किन्तु हमारे कम या बिना पढ़े बुजुर्ग भले ही अंग्रेजी तो क्या ठीक से हिन्दी में भी अपनी बात व्यक्त न कर पाते हों किन्तु वे प्रकृति की भाषा को समझकर उसकी तकलीफें दूर करने में सक्षम थे | लेकिन विज्ञान और तकनीक के जानकार जिस दुनिया में विचरण करते हैं उसमें प्रकृति से सामंजस्य बनाकर चलने के बजाय उससे टकराकर  पराजित करने की जो मानसिकता है उसी का दुष्परिणाम प्राकृतिक आपदाओं के रूप  में समय – समय पर सामने आता रहता है | लेकिन अब चिंता इसलिए बढ़ रही है क्योंकि उनकी पुनरावृत्ति जल्दी – जल्दी होने लगी है | जोशीमठ के अलावा उत्तराखंड के अन्य इलाकों में लगातार आ रही आपदाएं किसी बड़े खतरे का संकेत हैं | बुद्धिमत्ता इसी में है कि बजाय  हठधर्मिता दिखाने के उन गलतियों को सुधारने का प्रयास हो जिनके कारण शीतलता का प्रतीक हिमालय गुस्से से लाल होने लगा है | अब भी यदि हम नहीं चेते तो फिर ये कहना गलत न होगा कि विकास के नाम पर विनाश का पूर्वाभ्यास हो रहा है | 

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 6 January 2023

वरना पेट्रोल से भी महंगा बिकेगा पानी



जल ही जीवन है का नारा जगह – जगह देखने मिल जाता है | इस पर बौद्धिक चिंतन – मनन भी खूब होता है | वैश्विक तापमान बढ़ने की वजह से अब तो पृथ्वी पर  ध्रुव क्षेत्रों के ग्लेशियर तक पिघलने लगे हैं जिसकी वजह से समुद्री जल का स्तर बढ़ने और तटवर्ती शहरों के अलावा मालदीव जैसे टापू नुमा देशों के डूब जाने की आशंका है | ये कहना गलत नहीं है कि जिस तरह 20 वीं सदी में कच्चे  तेल के स्रोतों पर कब्ज़ा करने के लिए महाशक्तियाँ आपस में टकराती रहीं ठीक वैसी ही आशंका 21 वीं सदी के उत्तरार्ध में जलस्रोतों पर आधिपत्य हेतु हो सकती है | बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिक क्रांति ने परम्परागत जल प्रबन्धन की व्यवस्था को पूरी तरह बदलकर रख दिया | जल के उपयोग हेतु  किया जाने वाला श्रम तकनीक के विकास की वजह से कम हो जाने के कारण उसका उपयोग फिजूलखर्ची की सीमा तक जा पहुंचा | जिसका प्रमाण नगर निगम  के नलों से आने वाले पानी से मोटर वाहन धोये जाने के रूप में देखा जा सकता है | उस दृष्टि से ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास के साथ ही जल संरक्षण इस सदी की सबसे प्रमुख प्राथमिकता है | इसलिए गत दिवस म.प्र की राजधानी भोपाल में आयोजित वाटर विजन 2047 सेमीनार को आभासी माध्यम से संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से जल संरक्षण हेतु जागरूक रहने का जो आह्वान किया वह पूरी तरह सामयिक है | केंद्र सरकार के जलशक्ति मंत्रालय द्वारा आयोजित सेमीनार में विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे हैं | निश्चित रूप से यह विषय पूरे देश के लिए चिंता का कारण है | विकास दर के आधार पर भारत को दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था की मान्यता मिलना गौरवान्वित करता है किन्तु इसी के साथ ये भी विचार योग्य है कि बड़ी संख्या में छोटी – छोटी नदियाँ अस्तित्वहीन हो चली हैं | गावों  और शहरों में सैकड़ों साल पहले बने तालाब लापरवाही के चलते प्रदूषित होने के बाद सूखते गए | ऐसा ही हश्र कुओं का हुआ | धरती के सीने को छेदकर जल निकालने की तरकीब और तकनीक ने पानी के परम्परागत स्रोतों को नष्ट करने में प्रमुख भूमिका निभाई | जब तक पानी प्राप्त करना श्रम साध्य था तब तक उसकी अहमियत का एहसास सभी को था लेकिन ज्यों  – ज्यों उसे पाने में आसानी होती गई त्यों – त्यों उसके संचय का संस्कार भी लुप्त होता गया | विकास की वासना में हम ये भूल गए कि प्रकृति हमें जो भी देती है उसकी सीमा का उल्लंघन समूची मानव जाति के लिए विनाश का आधार बन रहा  है | भारत जैसे देश में जहाँ का मौसम विविधताओं से भरा है , जल संरक्षण मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है | ऐसे में जब प्रधानमंत्री द्वारा प्रारम्भ अटल जल योजना के अंतर्गत प्रत्येक घर में नलों द्वारा पानी पहुंचाए जाने पर जोरदार काम चल रहा है तब जल स्रोतों के साथ ही वर्षा जल का संरक्षण सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए | खेतों को सींचने के लिए भी ड्राप इरीगेशन की जो तकनीक इजरायल ने दी है उसका ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जाना जरूरी है | सबसे बड़ी जरूरत है भवनों  की छतों से वर्षा के जल को वाटर हार्वेस्टिंग के जरिये सहेजने की | नये घरों के निर्माण हेतु इसकी अनिवार्यता के बावजूद नगरीय निकायों की  अनदेखी इस दिशा में किये जाने वाले प्रयासों को फलीभूत नहीं होने देती | केंद्र सरकार को चाहिये वाटर हार्वेस्टिंग को कानूनी अनिवार्यता का रूप दे | इसकी मदद से प्रति वर्ष अपार जलराशि बेकार होने से बचाये जाने के अलावा निकटवर्ती भूजल स्तर उठाने में भी मदद मिलेगी | जल का संरक्षण , संग्रहण और संवर्धन तीनों पर एक साथ अमल किये जाने का युद्धस्तर पर प्रयास होना चाहिए | लेकिन जैसा श्री मोदी ने अपने सम्बोधन में कहा जब तक जनता  स्वप्रेरित होकर इस अभियान में सहभागिता नहीं देती तब तक लक्ष्य कितने भी बड़े तय कर  लिए जावें और योजनाओं का खाका तैयार हो जाये लेकिन जमीन पर नतीजे नहीं दिखाई देंगे | उन्होंने स्वच्छता अभियान का हवाला देते हुए कहा कि वह इसीलिये प्रभावशाली हो सका क्योंकि वह जनता का अभियान बन गया  | 140  करोड़ की आबादी के लिए  रोटी , कपड़ा  और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही उसे जीवन यापन  हेतु जल की पर्याप्त आपूर्ति भी उतनी ही जरूरी है | कविवर रहीम सैकड़ों साल पहले बड़े ही सरल शब्दों में कह गए थे कि रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून | उनके इन चंद शब्दों में निहित अर्थ को समझकर उसे अपने आचरण में चरितार्थ करना ही मानवता की निरंतरता का मूल मंत्र हैं | प्रधानमंत्री श्री मोदी भविष्य के लिए जिस प्रकार का ढांचा खड़ा करना चाहते हैं उसमें जन सहयोग की भी महती जरूरत है | जल संरक्षण के बारे में सोचते समय हमें केवल अपने नहीं  अपितु अपनी संतानों की प्यास बुझाने के बारे में भी  सोचना चाहिए | वरना वह दिन दूर नहीं जब बाजारवादी ताकतें  पानी को पेट्रोल से भी महंगा कर देंगी |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 5 January 2023

सम्मेद शिखर मसले का मिल बैठकर हल निकालना जरूरी



झारखंड स्थित जैन समाज के पवित्र तीर्थस्थल सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल घोषित करने के झारखंड सरकार के निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में जैन समाज आंदोलित और आक्रोशित है | एक वयोवृद्ध मुनि की तो अनशन के चलते मृत्यु तक हो गयी | जैन समुदाय की चिंता का विषय ये है कि उनके प्रमुख तीर्थस्थल को पर्यटन स्थल का रूप देने के बाद वह आमोद – प्रमोद के साथ ही उन सब सुविधाओं से परिपूर्ण हो जायेगा जो जैन  जीवन शैली में निषिद्ध हैं | मसलन वहां बड़े – बड़े होटल खुलेंगे जिनमें माँस – मदिरा के  सेवन के अलावा पर्यटकों  की  मौज - मस्ती से भी इस तीर्थ स्थल के सात्विक वातावरण पर तामसी प्रवृत्ति हावी होगी | जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार इस क्षेत्र में आदिवासी समाज का भी कोई धार्मिक स्थल है | आदिवासी बहुल इस राज्य में  झामुमो (झारखण्ड मुक्ति मोर्चा) के हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री हैं जो अपने समुदाय के लोगों को संतुष्ट करने के लिए सम्मेद शिखर में पर्यटन को विकसित करना चाह रहे हैं | साथ ही  जिस तरह जैन समाज इस मुद्दे पर संगठित है उसी तरह से श्री सोरेन की पार्टी आदिवासी समुदाय के  शक्ति प्रदर्शन  की तैयारी कर रही है | यदि ऐसा हुआ तब टकराव की स्थिति पैदा होना स्वाभाविक है | हालाँकि जैन धर्म को मानने वाले अहिंसा में विश्वास करते हैं इसलिए उनके आन्दोलन शांतिपूर्ण होते हैं | इसी तरह आदिवासी समुदाय भी  सामाजिक अनुशासन से बंधा होने के कारण टकराव से बचता है | लेकिन जिस बात का डर है वह ये कि आदिवासियों के बीच नक्सली और ईसाई मिशनरियों की जो घुसपैठ है वह दोनों समुदायों के बीच वैमनस्य उत्पन्न करते हुए अपना उल्लू सीधा कर सकती है | ये सम्भावना भी जताई जा रही है कि केंद्र सरकार अपने अधिकार का उपयोग करते हुए कोई ऐसा निर्णय लेगी जिससे इस विवाद को नासूर बनने से रोका जा सके | लेकिन उसके सामने भी ये समस्या है कि एक पक्ष को खुश करने में दूसरा नाराज न हो जाये |  केंद्र में बैठी भाजपा सरकार के लिए भी इस मसले पर ठोस निर्णय करना आसान नहीं रहेगा क्योंकि इसी वर्ष जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं उनमें जैन और आदिवासी मतदाता अनेक सीटों पर निर्णायक संख्या में होने से केंद्र सरकार किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले दसियों बार सोचेगी ताकि कर्नाटक , म.प्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की चुनावी संभावनाएं प्रभावित न हों | समस्या कांग्रेस के सामने भी है क्योंकि वह झारखंड सरकार में हिस्सेदार रहने  से सम्मेद शिखर विवाद में पक्ष बने बिना नहीं रहेगी | राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार होने से उसे भी दोनों समुदायों के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी | इस मामले में झामुमो पूरी तरह निश्चिंत है क्योंकि झारखंड में उसका जनाधार मुख्यतः आदिवासी समुदाय के बीच ही है इसलिए वह छोटे से जैन वोट बैंक को नजरअंदाज भी कर सकता है जबकि भाजपा और कांग्रेस के लिए ऐसा  करना बेहद कठिन है | लेकिन एक  पहलू ये भी है कि इस विवाद की आड़ में कुछ शरारती तत्व जैन समाज को मुख्यधारा से अलग करने का प्रयास करने में जुट गए हैं| इसके लिए सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों का उपयोग जिस तरह से किया जा रहा है वह चिंता  का बड़ा कारण है | जैन समुदाय भले ही राजनीतिक कारणों से अल्पसंख्यक दर्जे में रख दिया गया हो लेकिन वह मुस्लिम और ईसाई समाज से सर्वथा भिन्न है | उसकी  पहिचान मुख्य तौर पर व्यवसायी के रूप में होने से वह समाज की मुख्यधारा में पूरी तरह रचा बसा है और उन्मादी सोच का भी उसमें कोई स्थान नहीं है | इस आधार पर सम्मेद शिखर मुद्दे पर सामाजिक विद्वेष पैदा करने की किसी भी साजिश पर निगाह रखना जरूरी है | इस तरह के विवाद अन्य राज्यों में भी  होते रहते हैं | बेहतर है उन्हें सभी पक्ष मिलकर इस तरह सुलझा लें जिससे कि आपसी सौहार्द्र और समन्वय बना रहे | सबसे बड़ी बात ये है कि देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू स्वयं एक आदिवासी हैं | उनके अलावा भी आदिवासी समुदाय के  अनेक राजनीतिक नेता और नौकरशाह महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं | उन सबको चाहिए वे जैन समाज के साथ बैठकर बीच का रास्ता निकालें | आदिवासियों  के जो सामाजिक मुखिया हैं उन्हें भी  संवाद की स्थिति बनाकर विवाद का समुचित हल निकालने हेतु पहल करनी चाहिए | देश वैसे भी अनेकानेक घरेलू समस्याओं से जूझ रहा है | राजनीति के सौदागर ऐसे मामलों में आग पर पानी की बजाय घी डालने से बाज नहीं आते | संदर्भित विवाद में भी ऐसा ही होता लग रहा है | बेहतर होगा  दोनों पक्ष  समझदारी  का परिचय देते हुए राजनीतिक जमात को इस मुद्दे से दूर ही रखें अन्यथा मामला और उलझता जाएगा क्योंकि वोटों की फसल जहरीले बीजों से ही लहलहाती है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 4 January 2023

कोहरे के दौरान रेल और हवाई यातायात की दिक्कतें रोकने का पुख्ता प्रबंध हो



उत्तर भारत में कड़ाके की  सर्दी पड़ रही है | पहाड़ों से आ रही बर्फीली हवाएं  जनजीवन को प्रभावित कर रही हैं | राजस्थान में अनेक स्थानों पर पारा शून्य से भी नीचे आ चुका है | सुबह होने के बावजूद कोहरा छाये रहने से जहाँ लोग धूप से वंचित हो जाते हैं वहीं सड़क दुर्घटनाएं बढ़ जाती  हैं | लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित होता है रेल गाड़ियों और हवाई जहाजों का आवगमन | उत्तर भारत जाने और  आने वाली रेलों के  घन्टों विलम्ब से चलने का सिलसिला शुरू हो चुका है | विमानों को भी उड़ान भरने और उतरने में परेशानी होने से या तो उड़ानें रद्द हो रही हैं या फिर उनकी  समय सारिणी बुरी तरह गड़बड़ाने लगी है | ये पहली सर्दी नहीं है जिसमें इस तरह की समस्या उत्पन्न हुई हो | हर साल इस मौसम में रेल और हवाई यातायात पर कोहरे की मार पड़ती है | हालाँकि अमेरिका , कैनेडा और यूरोप के ज्यादातर देश सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण इस तरह की मुसीबत झेलते हैं | रूस सहित चीन का  बड़ा  भूभाग इन दिनों हिमाछाद्दित हो जाता है | लेकिन वहां इस मौसम के अनुरूप तमाम व्यवस्थाएं होने से प्रतिकूलता में भी अनुकूलता का प्रबंध कर लिया गया है | इसके ठीक विपरीत हमारे देश में विकास की गति तो बहुत तेज है जिसका परिणाम तेजी से विकसित हो रही विमान सेवाएं और द्रुत गति से दौड़ती वन्दे भारत रेल गाड़ियाँ हैं | बुलेट ट्रेन की महत्वाकाँक्षी योजना पर भी काम हो रहा है | देश में विश्वस्तरीय एक्सप्रेस राजमार्गों का निर्माण युद्धस्तर पर होने से एक तरफ जहां सडक मार्ग पर यातायात में उल्लेखनीय वृद्धि देखने मिल रही है वहीं प्रमुख मार्गों पर चलने  वाली रेल गाड़ियों में भी यात्रियों की भीड़ पूरे साल देखी जाती है | लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार का प्रमाण है कि वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा करने वाले निरंतर बढ़ रहे हैं | ऐसा ही कुछ विमान सेवाओं के बारे में है | बीते कुछ सालों में देश के अनेक नगरों में नये हवाई अड्डे या तो बनाये गये हैं या पहले से मौजूद विमानतल का उन्नयन किया गया है | इसकी वजह से अब महानगरों से निकलकर विमान सेवा मझोले आकार के शहरों तक भी पहुँचने लगी है | हवाई यातयात पर निगाह रखने वाली संस्थाओं के अनुसार अब मध्यम वर्गीय परिवारों में भी हवाई जहाज में बैठने की लालसा पैदा हो गयी है | निजी विमानन कंपनियों के इस व्यवसाय में उतरने से भी विमान सुविधाएँ लगातर वृद्धि की ओर हैं | लेकिन इस सबके बावजूद सर्दियों के कुछ महीनों में जब कोहरे की वजह से सूर्यदेव छिपे रहते हैं तब रेल और हवाई यातायात में आने वाली दिक्कतों को दूर करने का कोई भी सार्थक प्रयास देखने नहीं मिल रहा | मसलन हर साल बजट में ये सुनने में मिलता है कि रेल गाड़ियों को कोहरे में भी समय से चलाने के लिए जरूरी उपकरणों की व्यवस्था की जा रही है | इसके लिए बजट में समुचित प्रावधान भी किये जाते हैं परन्तु समस्या जस की तस बनी रहती है | इसी प्रकार  हवाई अड्डों पर कोहरे के दौरान विमानों के सुरक्षित उड़ने और उतरने के लिये किये जा रहे इंतजाम भी हवा हवाई ही हैं | इसकी वजह से यात्रियों को तो परेशानी होती ही है लेकिन रेलवे  और विमान कंपनियों को भी  आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है | ऐसे में जब हमारा देश दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और जल्द ही हम जापान और जर्मनी से आगे निकलने की राह पर बढ़ रहे हैं तब इस तरह की तकनीकी कमियां हमारे विकास को आधा – अधूरा साबित करती हैं | प्रधानमंत्री ने आर्थिक क्षेत्र के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किये हैं उनको पूरा करने के लिए हमें इस तरह की सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने पर भी जोर देना होगा | कोहरे में रेल और हवाई जहाजों के निर्बाध सञ्चालन के लिये अत्याधुनिक तकनीक आधारित उपकरण खरीदना समय की मांग है | केंद्र सरकार को इस दिशा में गंभीरता से विचार कर जरूरी कदम उठाना चाहिए |


रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 3 January 2023

गंगा : मानव की बजाय खुद के कल्याण की मोहताज हो गई



कोलकाता से आई एक रिपोर्ट के अनुसार प. बंगाल में गंगा नदी का जल पीने तो क्या नहाने लायक तक नहीं है | इसकी मुख्य वजह उद्योगों से निकलकर उसमें मिलने  वाला दूषित जल और पदार्थ हैं  | यद्यपि मैदानी इलाकों में आने के बाद से ही गंगा की पवित्रता पर मानवीय दखलंदाजी का दुष्प्रभाव पड़ने लगता है किन्तु प. बंगाल से जो जानकारी आई है उसके अनुसार तो स्थिति बहुत ही खराब है | गंगा शुद्धि अभियान पर अरबों रूपये खर्च होने के बाद भी उसकी दशा सुधरने की बजाय अगर  और बिगड़ रही है तब ये कहना  गलत नहीं  होगा कि प्रयास या तो आधे – अधूरे थे या फिर योजना का क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं किया गया | गंगा के पानी में किस स्थान पर कितना प्रदूषण है ये वैज्ञानिक परीक्षणों से स्पष्ट किया जाता है | उस दृष्टि से प. बंगाल के जो ताजा आंकड़े आये हैं वे भयावह हैं क्योंकि गंगा किनारे रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए वह केवल पवित्र नदी ही नहीं अपितु जल आपूर्ति का स्रोत भी है | उनके रोजमर्रे की जरूरतों में पानी का जो हिस्सा है वह उन्हें गंगा से ही प्राप्त होता है | ऐसे में यदि उसका जल पीने तो क्या नहाने योग्य भी नहीं रहा तब उसका होना निरर्थक है | एक नदी जिसके जल की शुद्धता सदियों से असंदिग्ध रही हो वह यदि विज्ञानं के विकास के साथ ही  प्रदूषित होती चली गयी तो  ये साबित होता है कि प्राथमिकताओं में कहीं न कहीं दिशाहीनता रही | हालांकि गंगा या अन्य नदियाँ एकाएक अपवित्र हो गयी हों ऐसा नहीं है | औद्योगिकीकरण के साथ ही आबादी के असीमित विस्तार ने नदियों के जल को दूषित करना शुरू किया | इसीलिये न सिर्फ गंगा अपितु देश  की सभी छोटी - बड़ी नदियों की दशा एक सी हो गयी है | नालों का गन्दा पानी खुले आम उनमें मिलता हुआ देखा जा सकता है | यहां तक कि सीवर से आने वाला पानी भी निकटस्थ नदी में छोड़ा जाता है | जब शहर छोटे हुआ करते थे तब नाले – नालियों का जल आस पास के खेतों में उपयोग होता था | लेकिन बेतहाशा शहरीकरण  के कारण वे  खेत कांक्रीट के जंगलों  में तब्दील हो चुके हैं | इस वजह से शहरी बस्तियों का निस्तारित  पानी ,   जल स्रोतों को प्रदूषित करने का कारण बन रहा है जिससे  गंगा ही नहीं वरन देश की अधिकतर नदियों के साथ ही कुँए और तालाब का जल शुद्धता गँवा बैठा है | यहाँ तक कि भूजल भी अब पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहा जा सकता | इसके लिए प्रथम दृष्टया तो सरकार ही कसूरवार है क्योंकि जल स्रोतों की  सुरक्षा  और  शुद्धता के लिए उसे जो प्रबंध करने चाहिए थे वे उसने नहीं किये और जो किये भी वे अपर्याप्त होने के साथ ही अव्यवस्था  और भ्रष्टचार का शिकार होकर रह गए | गंगा शुद्धि इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है | हालाँकि ये कहना भी सही नहीं है कि कुछ भी नहीं हुआ लेकिन हालात चूंकि अपेक्षित स्तर तक नहीं सुधर सके इसलिए माना जा सकता है कि प्रयासों में ईमानदारी और प्रतिबद्धता की कमी रही | बहरहाल प.बंगाल से गंगा की दुर्दशा संबंधी जो जानकारी आई है वह केवल सरकार के ही नहीं अपितु  समाज के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए |  ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेना गैर जिम्मेदाराना सोच है कि  सरकार , स्थानीय प्रशासन , नगरीय निकाय और उद्योग इसके लिए कसूरवार हैं | नदियों के साथ ही अन्य जल स्रोतों के प्रति श्रृद्धा का भाव रखने वाले समाज में उनकी पवित्रता और सुरक्षा को लेकर जो लापरवाही देखने में आती है वह भी उनका सत्यानाश करने की दोषी है | जिन नदियों में स्नान कर हम पुण्य कमाने की लालसा रखते हैं उन्हें अशुद्ध करने से बड़ा पाप नहीं है | प्रकृति और शुद्ध पर्यावरण हमें ईश्वर की अनुपम देन  है | लेकिन हम उसके प्रति कृतज्ञ होने के बजाय एहसान फरामोश हो चले हैं | राजधानी दिल्ली में छठ पूजा के दिन  श्रृद्धालु यमुना के जिस जल में स्नान और पूजन - अर्चन करते हैं उसके चित्र देखकर घिन आती है | उसके बाद भी लोग उस जल से अपनी धार्मिक आस्था का निर्वहन करते हैं तो उसे श्रद्धा कहें या मूर्खता ये विश्लेषण का विषय है | कोरोना काल में जब लॉक डाउन की वजह से लोग घरों में रहने मजबूर थे तब नदियाँ अपने नैसर्गिक रूप में लौट आई थीं | उस समय के तमाम चित्र और वीडियो जमकर प्रसारित हुए  जिन्हें लोगों की सराहना भी मिली किन्तु ज्योंही लॉक डाउन से आजादी मिली त्योंही नदियों की बदहाली पहले जैसे हो गयी | तमाम अनुभवों के बाद निष्कर्ष यही है कि प्रकृति से मिली इस अमूल्य दौलत के प्रति हम जिस तरह से लापरवाह हैं उस रवैये को बदलना होगा | पूरी तरह सरकार के भरोसे बैठे रहना  उचित नहीं  है | वह जो कर रही है , उसे करने दें किन्तु जहाँ हम गलत हैं उसमें सुधार कर लिया जावे तो काफी कुछ बदलाव आ सकता है | इसी तरह  नदियों के संरक्षण हेतु केवल पर्यावरणविद संघर्ष करें और हम दूर खड़े देखते रहे तो बड़ी बात नहीं नदियों का जल , पीने और नहाने ही नहीं अपितु छूने लायक तक न बचेगा | हमारे देश में प्रत्येक नदी गंगा का प्रतीक मानकर पूजी जाती है | लेकिन उसके बचाव हेतु हम क्या करते हैं , इस प्रश्न का जवाब कोई नहीं  देता | गौरतलब है गंगा न तो एक दिन में प्रदूषित हुई और न ही थोड़े से प्रयासों से स्वच्छ होने वाली है | जब तक नदियों के प्रति आस्थावान लोग उन पर अत्याचार करना बंद नहीं करते तब तक वे धीमी मौत की शिकार होती रहेंगी | गंगा का पृथ्वी पर अवतरण मानव  कल्याण के लिए हुआ था लेकिन बदले में मानव ने उसे जो दिया उसके कारण आज वह अपने कल्याण की मोहताज हो गई है | 

रवीन्द्र वाजपेयी