Wednesday 18 January 2023

देखें प्रधानमंत्री की सलाह को भाजपाई कितना मानते हैं



 
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  भाजपा को राजनीतिक दल से ऊपर उठकर सामाजिक आन्दोलन बनाने की जो बात कही वह सभी दलों के लिए एक नेक सलाह है | भाजपा रास्वसंघ के प्रचारक रहे स्व.  दीनदयाल उपाध्याय को अपना वैचारिक मार्गदर्शक मानती है | जब स्व. डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की और संघ से सहायता मांगी तब दीनदयाल जी को  राजनीतिक क्षेत्र में भेजा गया | डा. मुखर्जी चूंकि जल्द चल बसे इसलिए वैचारिक अभिभावक की भूमिका में दीनदयाल जी ही   आ गये  | हालाँकि बाद में अटल बिहारी वाजपेयी , नानाजी देशमुख , सुंदर सिंह भंडारी और कुशाभाऊ ठाकरे जैसे प्रचारक भी संघ से जनसंघ में आये किन्तु पार्टी के सैद्धांतिक चेहरे के रूप में  स्व. उपाध्याय का नाम ही लिया जाता  है | जब भाजपा  के रूप में जनसंघ का पुनर्जन्म हुआ तब उसने भी दीनदयाल जी के उस चिन्तन को ही आत्मसात किया जिसमें समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के उत्थान को सत्ता का उद्देश्य बताया  गया है | महात्मा गांधी और डा. राममनोहर लोहिया के विचार भी इसी पर जोर देते रहे | वामपंथी चिंतन का भी मूल आधार आर्थिक और सामाजिक विषमता  मिटाना ही है | वैसे राजनीति को सामाजिक आन्दोलन बनाने का सबसे सफल प्रयोग गांधी जी ने स्वाधीनता संग्राम के रूप में किया जिसमें  आजादी के बाद  की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के बारे में उनकी  सोच  झलकती थी | लेकिन उनके अनुयायी सत्ता की मृग मरीचिका में उलझकर रह गये | भारत में समाजवादी चिंतन भी मूलतः कांग्रेस की कोख से ही निकला था इसलिए वह भी सत्ता की भूल भुलैया में  अपनी साख खो बैठा | उसके बाद अवसर मिला विशुद्ध भारतीय चिंतन पर आधारित राजनीति करने का दावा करने वाली भाजपा को जो बीते नौ साल से देश के साथ ही अनेक राज्यों की सत्ता पर काबिज है | हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर उसने शून्य से शिखर तक की यात्रा तो कर ली किन्तु स्व. उपाध्याय द्वारा जो उपदेश दिया गया उसे कार्यरूप में परिणित करने का उद्देश्य अभी भी पूरा नहीं हो सका | भले ही 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न और लाखों लोगों को आवास मिल गया किन्तु आर्थिक और शैक्षणिक विषमता के कारण बहुत बड़ा वर्ग आजादी के लाभों से वंचित है | प्रधानमंत्री चूंकि स्वयं संघ के प्रचारक  रहे हैं इसीलिये उनके द्वारा भाजपा को सामाजिक आंदोलन में बदलने की बात कहे जाने पर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि  रास्वसंघ ने भी बीते कुछ वर्षों में वन्चित और उपेक्षित वर्ग को मुख्यधारा में लाने का जो अभियान चला रखा है उसी के कारण जातिवादी ताकतों की राजनीति कमजोर पड़ी है | हाल ही में छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में ईसाई मिश्नारियों द्वारा किये जाने वाले धर्मांतरण के विरुद्ध  आदिवासी जिस तरह से संगठित होकर सामने आये वह उन्हीं प्रयासों का  सुपरिणाम है | उस दृष्टि से श्री मोदी का सन्देश  भाजपा के सुरक्षित भविष्य के लिए सुझाया गया नुस्खा है | दरअसल प्रधानमंत्री जान चुके हैं कि सत्ता की अंधी दौड़ में शामिल राजनीतिक दल यदि समाज से कट जाता है तो एक सीमा के बाद उसका पराभव  सुनिश्चित है | और ये भी कि तात्कालिक लाभ बांटकर सत्ता भले ही प्राप्त कर ली जाये लेकिन बिना सामाजिक जुड़ाव के वह भी ज्यादा नहीं टिकती | कांग्रेस के अलावा प. बंगाल में वामपंथियों और सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवादी राजनीति करने वाले समाजवादियों की जो स्थिति आज है उससे भाजपा ने सबक न लिया तब उसका भी वैसा ही हश्र होना तय है | और यही श्री मोदी की चिंता का विषय है | इस बारे में स्व. नानाजी देशमुख का उदाहरण सामने है जिन्होंने केंद्र सरकार का मंत्री पद त्यागकर राजनीति से सन्यास ले लिया और चित्रकूट में ग्रामोदय विवि के रूप में एक ऐसा आदर्श स्थापित किया जो गांधी जी के ग्राम स्वराज , लोहिया जी के समतामूलक समाज और दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद का श्रेष्ठतम समन्वय है | देखने वाली बात ये होगी कि प्रधानमंत्री ने भाजपा को सामाजिक आन्दोलन के तौर पर विकसित करने की जो बात कही वह जमीन पर कितनी उतरती है क्योंकि उनकी पार्टी भी ऊपरी तौर पर तो बाकी  दलों की तरह  सत्ताभिमुखी नजर आती है | नब्बे के दशक में जब उसका सितारा उदय होने लगा था तब लालकृष्ण आडवाणी ने दो बातें कही थीं | पहली तो ये कि भाजपा देश का  राजनीतिक एजेंडा तय  करती है और दूसरा वह पार्टी विथ डिफ़रेंस है | तात्कालिक परिस्थितियों में चूंकि जनता अन्य सभी को आजमा चुकी थी इसलिए उसने भाजपा पर भरोसा  जताना शुरू किया जिसका चरमोत्कर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के राज्याभिषेक के रूप में सामने आया | उन्होंने सत्ता संभालते ही समाज के वंचित और उपेक्षित तबके के उत्थान पर ध्यान केन्द्रित किया और सरकारी  तौर -- तरीकों में आमूल बदलाव करते हुए जनधन खातों के रूप में ऐसी व्यवस्था ईजाद की जिसने दलालों को अलग कर दिया | उसी का असर रहा कि पांच साल बाद श्री मोदी को पहले से भी बड़ा जनादेश प्राप्त हुआ | उनके दूसरे कार्यकाल का अंतिम दौर शुरू हो चुका है | ऐसे समय में आम तौर पर सत्ता में बैठे नेता चुनावी रणनीति पर विचार करते हैं | जाहिर है भाजपा में भी ऐसा चल रहा होगा लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री ने भाजपा को एक सामाजिक उपक्रम में बदलने का जो आह्वान किया वह 21 वीं सदी की राजनीतिक शैली बन सकती है | श्री मोदी को ये एहसास हो चला है कि राजनीति का जो मौजूदा स्वरूप है उसके प्रति आम जनता के मन में सम्मान घटता जा रहा है | ऐसे में यदि वह सत्ता की दौड़ से समय निकालकर  समाज के साथ जुड़ने का प्रयास करे तब विचारधारा के विस्तार के साथ ही सामाजिक विखंडन को रोकने में सहायक बन सकती है | लेकिन सवाल ये है कि उनकी इस सदिच्छा को कितने भाजपा नेता और महत्वाकांक्षाओं का बोझ लिए घूम रहे कार्यकर्ता सम्मान देते हैं ? दरअसल प्रधानमंत्री की दूरदर्शी सोच यही है कि पार्टी को अपना सामाजिक आधार इतना मजबूत कर लेना चाहिए जिससे वह किसी या कुछ नेताओं पर निर्भर न रहे | अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी ये एक संकेत है |


रवीन्द्र वाजपेयी 

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