राष्ट्रीय राजनीति में तेलंगाना का खास महत्त्व नहीं है | लेकिन इसके मुख्यमंत्री केसीआर (के. चंद्रशेखर राव) को राष्ट्रीय नेता बनने का शौक चर्राया हुआ है | इसीलिए उन्होंने अपनी पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदलकर भारत राष्ट्र समिति कर दिया | एक समय था जब वे भाजपा के साथ थे क्योंकि तब उनकी सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस थी | लेकिन भाजपा के उभार के साथ ही उनको लगा कि देर सवेर वही उनके लिए चुनौती बनेगी इसलिए उन्होंने उससे दूरी ही नहीं बनाई बल्कि कुछ मामलों में वे ममता बैनर्जी से भी ज्यादा भाजपा विरोधी हो गये | बीते कुछ महीनों से श्री राव आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तीसरा मोर्चा बनाने के लिए हाथ पाँव मार रहे हैं | गत दिवस नए नाम वाली उनकी पार्टी की पहली रैली खम्मम शहर में हुई जिसमें दिल्ली , पंजाब और केरल के मुख्यमंत्री क्रमशः अरविन्द केजरीवाल , भगवंत सिंह मान , विजयन के अलावा सपा के अखिलेश यादव और सीपीआई से डी. राजा मंचासीन रहे | चूंकि वे कांग्रेस को अलग रखते हुए तीसरा मोर्चा बनाना चाह रहे हैं इसलिए उसका रैली में न होना तो समझ में आता है किन्तु ममता के अलावा , कर्नाटक से जनता दल ( सेकुलर ) , बिहार से जनता दल ( यू ) और राजद , हरियाणा से , लोकदल , झारखण्ड से झामुमो और पंजाब से अकाली दल जैसी पार्टियों के नेता भी उक्त रैली में नहीं पहुंचे | इसी तरह शरद पवार और उद्धव ठाकरे ने भी दूरी बनाये रखी | नवीन पटनायक , जगन मोहन रेड्डी , चंद्रा बाबू नायडू और स्टालिन जैसे विपक्षी चेहरे भी केसीआर के जमावड़े में नहीं दिखे | इसमें दो मत नहीं हैं कि वे जमीनी नेता हैं | केंद्र सरकार में मंत्री रहने की वजह से राष्ट्रीय स्तर पर उनके सम्पर्क भी हैं | दक्षिण भारत के बाकी विपक्षी नेताओं से अलग श्री राव धाराप्रवाह हिन्दी बोल लेते हैं | लेकिन राज्य की सीमा से निकलकर केंद्र की राजनीति करने का जो भूत उन पर सवार है उसके चलते वे अपने घर को कमजोर करने की वही ग़लती कर रहे हैं जो कभी स्व. एन.टी.रामाराव और बाद में उनके विरुद्ध बगावत कर मुख्यमंत्री बने चंद्राबाबू नायडू ने की थी | राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों के नेताओं का प्रवेश नया नहीं है | चौधरी चरण सिंह , देवीलाल , देवगौड़ा , मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे अनेक क्षेत्रीय नेताओं ने केंद्र में आकर अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहा किन्तु कुछ समय तक चमकने के बाद अपने राज्य में ही उनका आभामंडल फीका पड़ने लगा | इस बारे में तामिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियाँ द्रमुक और अद्रमुक काफी समझदार साबित हुई जो अपने राज्य से बाहर कदम बढ़ाने से सदैव बचती रहें जिसका परिणाम ये है कि पांच दशक से भी ज्यादा वे बारी – बारी से राज्य की सत्ता पर काबिज हैं | जहां तक बात तीसरे मोर्चे की है तो उसका गठन अतीत में भी अनेक मर्तबा हो चुका है | पहले वह कांग्रेस के विरुद्ध बनता था जिसे भाजपा से सहयोग लेने में कोई झिझक नहीं थी और फिर उसका निशाना भाजपा बन गई जिसके लिए उसने कांग्रेस से हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया | केसीआर की ताजा पहल जिस तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की है वह प्रत्यक्षतः कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाकर चलने के संकेत दे रहा है | इसीलिये आम आदमी पार्टी के दोनों मुख्यमंत्री कल रैली में शरीक हुए | केरल के मुख्यमंत्री का आना भी उल्लेखनीय है | अखिलेश यादव भी उ.प्र में कांग्रेस और बसपा से हाथ मिलाने के बाद अब एकला चलो की नीति पर हैं | लेकिन अभी भी विपक्ष का बड़ा हिस्सा केसीआर के साथ आने से कतरा रहा है | दरअसल उसमें से कुछ कांग्रेस और कुछ भाजपा के साथ जुड़ने के जुगाड़ में हैं | उड़ीसा के मुख्यमंत्री श्री पटनायक भले ही राज्य में भाजपा से अलगाव बनाकर चलते हों लेकिन संसद में उनकी पार्टी हमेशा भाजपा का साथ देती रही है | शिवसेना में हुई टूट के बाद पार्टी नेतृत्व इस असमंजस में है कि वह कांग्रेस और रांकापा के साथ रहे या नहीं क्योंकि उनकी संगत से उसकी हिंदूवादी छवि खंडित हुई है | इसी तरह नीतीश और तेजस्वी कांग्रेस के ज्यादा निकट हैं | तमिलनाडु में भी द्रमुक और कांग्रेस साथ हैं | रही बात ममता की तो वे मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाली मानसिकता के कारण किसी से नहीं जुड़ सकतीं | तृणमूल के अनेक नेताओं के घोटालों में फंस जाने के बाद उनका मोदी विरोध वैसे भी ठंडा पड़ चुका है | सबसे बड़ी बात ये है कि बिना कांग्रेस के किसी भी विपक्षी गठबंधन का आकार लेना अव्यवहारिक होगा | ऐसे में 2024 में भाजपा को सत्ता से हटाने की जो कोशिश केसीआर कर रहे हैं उसका लाभ अंततः भाजपा को ही मिलेगा क्योंकि विरोधी मत जितने विभाजित होंगे उसकी सम्भावनाएं और मजबूत होती जायेंगी | विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा प्रधानमंत्री का चेहरा भी है | राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा उन्हें नरेंद्र मोदी का विकल्प साबित करने के लिए आयोजित की गयी है | वे स्वयं भी अनेक अवसरों पर स्पष्ट कर चुके हैं कि भाजपा के विरोध में बनने वाले विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ ही होना चाहिए | जबकि ममता साफ कह चुकी हैं कि भाजपा से लड़ने में कांग्रेस पूरी तरह अक्षम है और वे ही श्री मोदी का विकल्प बन सकती हैं | ये देखते हुए कहना गलत न होगा कि तीसरे मोर्चे की ये पहल शायद ही असर दिखा सके क्योंकि बीते तीन दशक में इस बारे में जितने भी प्रयोग हुए वे सब दिशाहीन होकर भटकाव के शिकार हो गए | चूंकि ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी खतरा महसूस होता है लिहाजा वे उसे भी कमजोर करने में लगी हुई हैं | उस दृष्टि से केसीआर द्वारा भाजपा के विरोध में तीसरी ताकत खड़ी करने की कवायद अंततः कांग्रेस की जड़ों में मठा डालने का ही प्रयास बनकर रह जाएगी |
रवीन्द्र वाजपेयी
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