Friday 13 January 2023

भौगोलिक दूरी भी शरद भाई से जबलपुर की भावनात्मक निकटता में बाधक नहीं बन सकी



1975 की जनवरी देश की राजनीति में एक नया सन्देश लेकर आई ,जब विपक्ष के साझा  प्रत्याशी शरद यादव ने कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे स्व. सेठ गोविन्द दास के निधन से रिक्त हुई जबलपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में उनके पोते रवि मोहन को भारी अंतर से हरा दिया | उस समय देश में स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आन्दोलन आकार ले रहा था | स्व. यादव जबलपुर वि.वि के छात्र नेता थे और उस समय रायपुर की जेल में बंद थे | 1971 का लोकसभा और 1972 का विधानसभा चुनाव हारने के कारण जनसंघ उस उपचुनाव  के प्रति अनमना था | तभी  खबर आई कि श्री यादव  उसमें  हाथ आजमाना चाहते थे लेकिन  वे जिस समाजवादी पार्टी से ताल्लुकात रखते थे उसका प्रभाव इतना था नहीं कि वे जमानत भी बचा पाते | इसलिए उनने जेल से ही जनसंघ के स्थानीय नेताओं को सन्देश भेजा कि वे उनका समर्थन करें तो कांग्रेस को टक्कर दी जा सकती है | हालांकि उनकी जनसंघ वालों से ज्यादा नहीं पटती थी किन्तु बिन बुलाये आई मुसीबत नुमा उस उपचुनाव से छुटकारा पाने के लिए जनसंघ ने श्री यादव के  ऑफर को सहर्ष स्वीकार कर लिया और वे सर्वदलीय  प्रत्याशी बन गए |  कांग्रेस के गढ़ रहे जबलपुर में सेठ जी के पौत्र को हराना सपने देखना जैसा था | उल्लेखनीय है गोविन्द दास जी संविधान सभा के सदस्य रहने के बाद 1952 से लगातार लोकसभा सदस्य बनते रहे | लेकिन चुनाव प्रचार शुरू होते ही श्री यादव के पक्ष में महौल बनने लगा | इसका कारण बतौर छात्र नेता बनी संघर्षशील युवा की छवि थी जबकि रवि मोहन पूरी तरह सार्वजनिक जीवन से दूर थे | और फिर देश भर से विपक्षी नेताओं ने जबलपुर आकर प्रचार किया | अंतिम सभा मालवीय चौक पर स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की थी जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा | सभा स्थल से लगभग  एक किलो मीटर दूर तक लाउड स्पीकर लगाये गए थे | उस सभा ने चुनाव परिणाम का अग्रिम ऐलान कर दिया था | उस तरह श्री यादव अचानक देश में परिवर्तन के प्रतीक  बन गए | इंदिरा गांधी के एकाधिकारवादी रवैये के विरुद्ध जयप्रकाश जी के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन के साथ जुड़ने में विपक्षी दलों की हिचक उस उपचुनाव ने दूर कर दी | लोकसभा में श्री यादव का प्रवेश भारतीय राजनीति में एक नए युग का शुभारम्भ बन गया | कालान्तर में लालू यादव , राम विलास पासवान , मुलायम सिंह यादव , नीतीश कुमार जैसे जो नेता समाजवादी धारा से निकलकर राजनीति में चमके वे सब उस समय छात्र राजनीति के इर्द गिर्द ही सिमटे थे | जून माह में आपातकाल आ गया और विपक्ष कैद कर दिया गया | परिणामस्वरूप  एक दूसरे के साथ हाथ मिलाने से भी कतराने वाले  विपक्षी  जनता पार्टी के रूप में गले मिलने राजी हुए  और  1977  के  लोकसभा चुनाव ने केंद्र में कांग्रेस की सत्ता का पहली बार खात्मा किया | शरद यादव दूसरी बार जीतकर लोकसभा पहुंचे | लेकिन अपने अंतर्विरोधों के चलते वह सरकार 27 महीनों में दम तोड़ बैठी | रास्वसंघ को मुद्दा बनाकर दोहरी सदस्यता का जो विवाद स्व. मधु लिमये ने शुरू किया वह उस राजनीतिक प्रयोग की असमय मौत का कारण बन गया | इंदिरा जी की तानाशाही का विरोध करने वाले अनेक दल कांग्रेस के जाल में फंस गए | चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा तो पूरी हो गयी किन्तु कुछ ही दिनों में कांग्रेस ने अपनी बैसाखी खींच ली  | 1980 के  मध्यावधि चुनाव में इंदिरा जी सत्ता में लौट आईं | जबलपुर से शरद यादव लोकदल से  मैदान में उतरे  किन्तु जनसंघ के अलग हो जाने से उनकी जमानत जप्त  हो गयी | उसके तुरंत बाद वे इस शहर को छोड़कर नए ठिकाने की तलाश में निकल गए | चौधरी चरण सिंह , देवीलाल और चंद्रशेखर  की मदद से उन्होंने दिल्ली में अपने लिए जगह बनाई और राज्यसभा में आ गये | राजनीतिक जोड़ - तोड़ में उनका कोई मुकाबला नहीं था जिसके चलते  उ.प्र के बदायूँ और बाद में बिहार के मधेपुरा से वे लोकसभा में आते रहे और  जब हारे तो राज्यसभा में आने में सफल रहे | 1989 और उसके बाद बनी अनेक सरकारों में मंत्री रहने के बाद वे  अटल जी की सरकार के हिस्से भी रहे | समाजवादी राजनीति  के मूल चरित्र में मिलने ,  बिछड़ने और फिर मिलने का जो गुण है उसके अनुरूप वे भी कभी लालू तो कभी नीतिश के साथ आये - गए | जॉर्ज फर्नांडीज के साथ भी उनके संबंध नर्म – गर्म रहे | एनडीए के संयोजक का पद भी संभाला | लेकिन इस आवाजाही में वे अपनी राजनीतिक जमीन  नहीं बना सके | और आखिर में ये स्थिति आ गयी कि राष्ट्रीय राजनीति  में रिंग मास्टर की भूमिका निभाने वाले शरद भाई दिल्ली में एक सरकारी मकान के लिए तरस गए | लंबे समय से  अस्वस्थ होने के कारण वे राजनीति की मुख्य धारा से दूर थे | कल रात ज्योंहीं उनके न रहने की  खबर आई , बीते लगभग पांच दशक का राजनीतिक घटनाचक्र याद आने लगा | जबलपुर के मालवीय चौक से चलकर दिल्ली के राजनीतिक मंच पर उन्होंने जिस तरह अपने को प्रतिष्ठित किया वह आसान नहीं था | शरद भाई के तौर पर अपनी मित्र मंडली में लोकप्रिय श्री यादव ने जबलपुर छोड़ तो दिया लेकिन जब भी यहाँ आते संघर्ष के दिनों के साथियों से मिलना  नहीं भूलते | यहां से जो भी दिल्ली गया उससे वे बड़ी ही आत्मीयता से मिले और उसकी मदद की | उनका चला जाना राजनीति के एक अध्याय की समाप्ति है | आजादी के बाद देश में हुए दो परिवर्तनों में उनकी भूमिका रही | मंडल आयोग के जरिये ओबीसी आरक्षण से सोशल इन्जीनियरिंग नामक जो प्रयोग हुआ उसके शिल्पकारों में भी वे  रहे | हालाँकि उनका राजनीतिक जीवन अस्थिरता और वैचारिक भटकाव के बीच झूलता रहा | लेकिन नाटे कद की शारीरिक रचना के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपना कद बहुत ऊंचा किया और लगातार  बनाये रखा | इसमें दो राय नहीं हैं कि 1980 में हारने के बाद वे जबलपुर न छोड़ते तो म.प्र में तीसरी शक्ति की  कमी  शायद न रहती | जितनी उठापटक उन्हें दूसरों की जमीन पर पैर ज़माने के लिए करनी पड़ी  उतनी यहाँ  करते तब शायद उनके  राजनीतिक सफर का अंत  भी उतना ही जोरदार रहता जितना उसका आरम्भ था | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि शरद यादव और जबलपुर के बीच भावनात्मक निकटता में  भौगोलिक दूरी और भौतिक अनुपस्थिति कभी बाधक नहीं बनी | शायद उनके मन में भी जबलपुर छोड़ने की तड़प रही होगी | उनके निधन से इस अंचल में उनके अनगिनत चाहने वालों के साथ ही उन लोगों को भी दुःख है  जिनका उनसे कभी वास्ता नहीं पड़ा क्योंकि चाहे दिल्ली के लिए पहली सीधी ट्रेन क़ुतुब एक्सप्रेस हो या रेल जोन जैसी उपलब्धि , उसके साथ उनका नाम स्थायी रूप से जुड़ा हुआ है और सदैव रहेगा | लम्बे समय तक वे राष्ट्रीय राजनीति में जबलपुर की पहिचान रहे | ऐसे शख्स का न रहना निश्चित तौर पर खलने वाला है | महाकोशल की इस चेतनास्थली ने देश और दुनिया को एक से बढ़कर  एक विभूतियाँ  दीं किन्तु राजनीति के क्षेत्र में आजादी के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर शरद यादव ने जिन शिखरों को छुआ वह किसी और के लिए न तो संभव हुआ और न ही निकट भविष्य में संभव होता दिखता है | शरद भाई को स्वर्गीय लिखना अच्छा तो नहीं लग रहा लेकिन विधि के इस विधान को स्वीकार करना ही नियति है |

विनम्र श्रद्धांजलि |  

रवीन्द्र वाजपेयी 
 


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