Friday 31 July 2020

निचली अदालत में 20 साल लगे तब सर्वोच्च तक तो पीढ़ी बीत जायेगी



एक समय था जब जया जेटली का नाम सार्वजनिक तौर पर चर्चा में रहा करता था। वैसे वे राजनेता नहीं रहीं लेकिन पूर्व रक्षा मंत्री स्व. जॉर्ज फर्नांडीज की महिला मित्र के तौर पर जगह बनाने में कामयाब हुईं और समता पार्टी की अध्यक्ष तक बन गईं। दिलचस्प बात ये है कि उनके पति अशोक जेटली , जॉर्ज साहब के निजी सचिव हुआ करते थे। बाद में संभवत: उनका पति से अलगाव हो गया। श्रीमती जेटली की बेटी अदिति प्रख्यात क्रिकेटर अजय जडेजा की पत्नी हैं। जॉर्ज से उनकी निकटता इस हद तक बढ़ी कि वे उनके मंत्री वाले बंगले में ही रहने लगीं। उस समय जॉर्ज की पत्नी लैला कबीर उनसे अलग हो चुकी थीं। लेकिन बाद में जब वे अल्जाइमर से पीडि़त हो गये तब वे लौट आईं और अन्तिम समय में जया को उनसे मिलने तक नहीं दिया जिसे लेकर वे अदालत तक गईं। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की तरह से ही स्व. फर्नांडीज भी लम्बे समय तक गम्भीर रूप से अस्वस्थ रहने की वजह से सार्वजनिक चर्चाओं से दूर थे। और पत्नी लैला के लौट आने के बाद जया भी समाचारों से अलग हो गईं। गत दिवस अचानक एक बार फिर उनका नाम सामने आया और उसमें भी स्व. फर्नांडीज ही संदर्भ बने। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि 2001 में तहलका नामक वेब पोर्टल ने एक स्टिंग आपरेशन किया जिसमें जया और उनके करीबी गोपाल पचरेवाल के अलावा मेजर जनरल रह चुके एसपी मुरगई को रक्षा सौदे में घूस लेते कैमरे में कैद किया गया। ब्रिटेन की एक काल्पनिक कम्पनी के प्रतिनिधि बनकर आये तहलका के पत्रकारों ने वह स्टिंग किया था। उसके बाद जॉर्ज को वाजपेयी सरकार का रक्षा मंत्री पद छोड़ना पड़ा। मामला सीबीआई को गया जिसने जांच के बाद 2006 में आरोप पत्र दाखिल किया और तकरीबन 14 -15 साल की लंबी न्यायालयीन प्रक्रिया के बाद गत दिवस दिल्ली की एक अदालत ने जया और उनके उक्त दोनों साथियों सहित तीन अन्य को चार-चार साल की सजा के अलावा एक - एक लाख का अर्थदंड लगाया। जया के पक्ष में देश के सबसे महंगे वकीलों में से एक मुकुल रोहतगी खड़े हुए और शाम होने के पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने सजा पर स्थगन देते हुए फिलहाल श्रीमती जेटली को जेल जाने से बचा लिया। उनकी आयु 78 वर्ष की है। सीबीआई तो 7 साल की सजा चाहती थी किन्तु अदालत ने रहम करते हुए मात्र 4 वर्ष तक जेल में रखने का फैसला किया। इस तरह 2001 से शुरू हुआ मामला तकरीबन दो दशक बाद जाकर अंजाम तक भले ही पहुँच गया लगता है किन्तु उस काण्ड में सजा दिए जाने में इतना विलम्ब भारतीय न्याय और दंड प्रक्रिया दोनों पर नये सिरे से सवाल खड़े करता है। अव्वल तो सीबीआई ने ही आरोप पत्र प्रस्तुत करने में पांच साल का समय खर्च किया और फिर अदालत ने 14-15 साल खा लिए। अब मामला उच्च और फिर सर्वोच्च न्यायालय तक जाएगा और तब तक कितने आरोपी जीवित बचेंगे ये कह पाना मुश्किल है। जॉर्ज साहब की गिनती देश के अत्यंत ईमानदार और सादगी पसंद नेताओं में होती थी। बिना कलफ के कपड़े पहिनने और रक्षा मंत्री रहते हुए अपने बंगले के प्रवेश द्वार को सदैव खुला रखने वाले उस नेता पर कभी कोई तोहमत नहीं लगी। लोहिया युग के समाजवादी फक्कड़पन के वे अंतिम प्रतिनिधि थे लेकिन उनके सान्निध्य में रहने वाली जया जेटली की वजह से उनके निजी और पारिवारिक जीवन पर तो छींटे पड़े ही लेकिन तहलका के उस स्टिंग ने जॉर्ज की जीवन भर की प्रतिष्ठा और पुण्याई को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया। वैसे जॉर्ज को भले ही उस काण्ड के परिप्रेक्ष्य में मंत्री पद छोड़ना पड़ा लेकिन उन पर घूस खाने जैसा कोई आरोप नहीं लगा।  लेकिन जया जेटली ने उनके घर में रहते हुए ही जो किया वह राजनेताओं के निकटवर्ती लोगों द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार का एक और उदाहरण है। आगे ये सिलसिला रुक जाएगा ऐसा नहीं लगता क्योंकि बीते बीस बरस बाद आज की राजनीति पूरी तरह से कारपोरेट संस्कृति से प्रेरित और प्रभावित है। लेकिन इससे हटकर बात भारतीय न्याय प्रणाली की करें तो भ्रष्टाचार के उच्च स्तरीय मामले के पहले चरण का फैसला आरोप पत्र दाखिल होने के 15 साल बाद आना और श्रीमती जेटली को तुरन्त सजा पर स्थगन मिल जाना ये स्पष्ट करता है कि न्याय पालिका की कार्यप्रणाली में न जाने कितने झोल हैं। आज के दौर में परिवर्तन इतनी तेजी से होने लगे हैं कि घटनाओं को याद रख पाना मुश्किल हो गया है। ऐसे में जॉर्ज, जया और उस स्टिंग के बारे में आम जनता को शायद ही कुछ याद होगा। जाँच एजेंसी के पास भी काम का अम्बार है और फिर उस पर भी वीआईपी नामक मानसिक बोझ रहता है। फिर भी इतने लम्बे समय बाद पहले पायदान का फैसला देखकर भ्रष्टाचारियों के हौसले और बुलंद ही होंगे। पता नहीं न्यायपालिका को ये देरी महसूस होती है या नहीं लेकिन यदि इस ढर्रे को नहीं सुधारा जा सका तो कहना गलत नहीं होगा कि सत्ता प्रतिष्ठान की नाक के नीचे चलने वाली लूटपाट को रोकने के प्रयास कभी सफल नहीं होंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 30 July 2020

फ़िल्मी दुनिया का असली चेहरा सामने आने लगा है सुशांत की मौत के साथ ही माफिया के धन का पर्दाफाश जरूरी




फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु का प्रकरण भी फ़िल्मी पटकथा की तरह नए  - नए घुमाव ले रहा है | मुम्बई पुलिस की जाँच से असंतुष्ट सुशांत के पिता ने पटना में उसकी महिला मित्र रिया चक्रवर्ती , जिससे उसकी शादी होने की खबर थी , के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई | जिसके अनुसार रिया ने धोखे से उसके बैंक खाते से 15 करोड़ निकलवा दिए तथा उसे आत्महत्या के लिये  प्रेरित किया | इसके पहले खुद रिया  मुम्बई में सुशांत की मौत की जांच कराए जाने की मांग पुलिस से कर चुकी थी | इस बारे में अभी तक ये कहा जा रहा था कि फिल्म उद्योग में चल रहे परिवारवाद की वजह से उद्योग में जमे कुछ परिवारों के लड़के - लड़कियों को ही काम मिलता है | बाहरी दायरे से आई  नवोदित प्रतिभाओं को निरुत्साहित ही नहीं अपितु अपमानित और उपेक्षित करते हुए उनका भविष्य चौपट करने का षडयंत्र रचा जाता है | इसके चपेट में अभिनेता और अभिनेत्रियाँ ही नहीं  अपितु  गायक और संगीतकार भी आये बिना नहीं रहते |

चर्चा शुरू होते ही अनेक अभिनेता और अभिनेत्रियों के साथ ही ए.आर रहमान जैसे संगीतकार ने  ये माना कि उनसे भी काम छीनने की हरकतें हुई | फिल्म उद्योग के अनेक नामचीन निर्माताओं और  निर्देशकों के अलावा कुछ बड़े प्रोडक्शन हाउस इसे लेकर निशाने पर हैं | देखते - देखते एक बड़ा वर्ग ऐसा खड़ा  हो गया जिसके  अनुसार सुशांत की मौत स्वाभाविक नहीं थी ,  या तो उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित किया गया अथवा उसकी हत्या की गयी | कुछ सफल फिल्मों के बाद उसे जिस तरह से काम मिलना बंद हो गया था उससे वह परेशान होकर अवसाद की स्थिति में चला गया और उसकी वह दवाएं भी लेता था |

चूँकि उसने कोई पत्र नहीं छोड़ा था इसलिए प्रथम दृष्टया पुलिस ने उसे आत्मह्त्या  का साधारण  मामला समझकर बंद करना चाहा किन्तु जब चौतरफा हल्ला मचा तब एक विशेष जांच दल बनाकर बात आगे बढ़ाई गयी | सुशांत के सचिव और रिया  के साथ ही  फिल्म उद्योग के अनेक ऐसे लोगों  से घंटों पूछताछ की गई जिन पर सुशांत से काम छीनने की तोहमत फ़िल्मी जमात के भीतर से ही  लगाई गई  | 

इसी बीच सीबीआई जांच की गुहार दिवंगत अभिनेता के परिवारजनों द्वारा लगाये जाने के बाद भी महाराष्ट्र सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई | उसके बाद ही उसके पिता ने पटना में रिपोर्ट दर्ज करवाई जिस पर वहां की  पुलिस ने फ़ौरन मामला  कायम  करते हुई मुम्बई कूच कर  दिया | इधर बिहार पुलिस के हाथों   गिरफ्तार होने से बचने के लिए रिया चक्रवर्ती सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंची | उसकी अर्जी है कि मामला मुम्बई में ही चले | सुशांत के पिता का मुम्बई और रिया के बिहार पुलिस पर अविश्वास के बीच महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने सीबीआई जाँच की फिर  मांग ठुकरा दी | वहीं  बिहार सरकार भी रिया की याचिका का विरोध करने सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंची है | चूँकि सीबीआई से जाँच करवाना या न करवाना राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार की बात है इसलिए न्यायालय इस बारे में आदेश नहीं देता | लेकिन अब यह मामला बिहार की राजनीति का विषय बन गया है | बिहार सरकार के साथ ही राजग नेता तेजस्वी यादव भी  महाराष्ट्र पुलिस की जांच से असंतुष्ट हैं | भाजपा भी सीबीआई जाँच की  मांग  उठा चुकी है | कहा जा रहा है बिहार विधानसभा चुनाव में भी  सुशांत की मौत मुद्दा बनने जा रही है | स्मरणीय है वह पटना का रहने  वाला था |

रिया चक्रवर्ती इस मामले में कितनी दोषी  हैं ये कहना मुश्किल है किन्तु  बिहार पुलिस  से बचने का उसका प्रयास संदेह पैदा करता है | लेकिन उससे भी ज्यादा बड़ा मुद्दा फिल्म उद्योग के वे बड़े चेहरे  हैं जिन पर परिवारवाद के कारण फ़िल्मी दायरे के बाहर से आकर संघर्ष से सफलता हासिल करने वाले कलाकारों को हतोत्साहित करने का आरोप है | सुशांत का परिवार तो शोक संतप्त है किन्तु जब फ़िल्मी दुनिया के अनेक कलाकारों ने खुलकर इस तरह का आरोप लगाया तब तो मामला जांच योग्य बनता ही है | बात केवल फिल्मों तक सीमित न रहकर टीवी धारावाहिकों से कलाकारों की अचानक छुट्टी  किये जाने तक भी जा पहुंची | फिल्म और टीवी की दुनिया में अभिनेत्रियों के  शोषण के किस्से  तो आम थे | अनेक नामी गिरामी हस्तियों पर खुलकर आरोप लगे भी लेकिन परिवारवाद के कारण नई  प्रतिभाओं को काम मिलने में अड़ंगेबाजी पहली बार सुनाई दे रही  है | हालाँकि कंगना रनौत नामक अभिनेत्री ने काफी पहले से इसके विरुद्ध आवाज उठानी शुरु कर  दी थी लेकिन उसे उसका व्यक्तिगत झगड़ा मानकर उपेक्षित कर  दिया गया | सुशांत की मौत के बाद से कंगना और  आक्रामक हो उठी हैं |

वैसे इस मामले में दो बातें काफी  अहम हैं | पहली तो शिवसेना के साथ फ़िल्मी दिग्गजों के निकट रिश्ते | शिव  उद्योग सेना के वार्षिक जलसे में पूरी फिल्मी  दुनिया निःशुल्क मंचीय कार्यक्रम देकर ठाकरे परिवार से अभयदान प्राप्त करती रही है | इसी तरह मुम्बई पुलिस भी हर साल एक बड़ा आयोजन करती है जिसमें पूरी फ़िल्मी बिरादरी मुफ्त नाच  गाना  तो करती ही है मुम्बई पुलिस को खुले हाथ से दान भी देती है | उक्त दो कारणों से सुशांत की मौत के मामले पर पर्दा डाले जाने का संदेह यदि व्यक्त किया जा रहा है तो उसे पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं  किया जा सकता | उद्धव ठाकरे सरकार द्वारा सीबीआई जाँच से इंकार करना भी ये साबित करता है कि मुम्बई पुलिस के जरिये किसी न किसी को बचाने की कोशिश की जा सकती है |

लेकिन बीती शाम एक टीवी चैनल पर अभिनेता , टीवी एंकर और कुछ समय के लिए राजनीति कर चुके शेखर सुमन ने सुशांत की मृत्यु को साधारण आत्महत्या मानने से इंकार करते  हुए एक तरफ तो जहाँ सीबीआई जांच की जरुरत बताते हुए फ़िल्मी दुनिया में कुछ परिवारों की गिरोहबंदी का आरोप लगाकर कहा  कि उस कारण न जाने कितनी प्रतिभाओं को उभरने के पहले ही बाहर करवा दिया गया | लेकिन शेखर ने उससे भी बड़ा  आरोप ये लगाया कि फिल्मों के निर्माण में लगने वाला अनाप - शनाप पैसा कहाँ से आता है , इसकी जांच होनी चाहिए | और ये वाकई बहुत ही सामयिक मुद्दा है |

फिल्म उद्योग में काले धन का  उपयोग शुरू  से होता आया है | एक ज़माने में आयकर वाले फिल्मी  कलाकारों के यहाँ खूब छापे मारते थे | लेकिन बाद में बड़ी ही चतुराई से फ़िल्मी कलाकरों ने राजनीति में पदार्पण कर लिया | शुरुवात पृथ्वीराज कपूर और नर्गिस दत्त जैसों को राज्यसभा में मनोनीत किये जाने से हुई लेकिन बाद में तो दक्षिण भारत से प्रेरित होकर अमिताभ  बच्चन ,  सुनील दत्त , शत्रुघ्न सिन्हा , विनोद खन्ना , जयाप्रदा , धर्मेन्द्र , गोविंदा , हेमा मालिनी और सनी देओल जैसे कलाकार लोकसभा में जा पहुंचे | सुनील दत्त , विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा तो मंत्री भी बने | जो सीधे राजनीति में नहीं है वे किसी न किसी पार्टी का चुनाव प्रचार कर उस पर एहसान लाद देते हैं |  इस चलन के कारण शासन - प्रशासन में फ़िल्मी दुनिया की  प्रभावशाली  उपस्थिति नजर आने लगी | राज्यसभा में भी जावेद  अख्तर , शबाना आजमी और जया बच्चन ने लम्बी परियां खेलीं | सलमान खान  के पिता सलीम खान भी उच्च सदन में जगह पा गये | गईं तो लता मंगेशकर और रेखा भी लेकिन वे महज औपचारिकता बनकर रह गईं |

इस वजह से ये देखने में आया कि सरकार किसी की भी हो लेकिन फ़िल्मी दुनिया के हित सुरक्षित रहने लगे | और यही वजह है कि दाउद इब्राहीम के फ़िल्मी हस्तियों से ऐलानिया रिश्ते उजागर होने के बाद भी किसी का बाल बांका नहीं हुआ | शेखर  सुमन खुद फ़िल्मी दुनिया में कई दशक से हैं इसलिए उनके द्वारा फिल्मों में लगने वाले धन के रहस्यमय स्रोतों का जो उल्लेख किया गया उसकी जांच तो केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा की ही जानी चाहिए | लेकिन ऐसा होना आसान नहीं है | क्योंकि संसद के दोनों सदनों में में  फ़िल्मी दुनिया के अनेक वजनदार लोग जमे बैठे हैं |

ज्यादा न सही लेकिन फ़िल्मी कलाकारों के बार - बार दुबई जाने और वहां सम्पत्ति में निवेश की जाँच हो जाये तो अनेक चमकते चेहरों का मेकअप उतर जायेगा | सुशांत की  मौत से उठे सवालों और विवादों को केवल व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता न मानकर समग्र जांच होनी चाहिए | कंगना रनौत  तो परिवारवाद के अलावा मूवी माफिया जैसे विशेषण का भी उपयोग लगातार कर रही हैं | वे इस समय फिल्मों में सफलता के शिखर पर हैं इसलिए उन्हें असफल या कुंठित कहकर खारिज करना भी ठीक नहीं होगा  |

सुशांत की मौत से निकलकर सामने आये सवालों का जवाब तलाशने का इससे अच्छा अवसर  शायद ही मिले क्योंकि मायानगरी की चकाचौंध के पीछे का अन्धेरा  खुलकर सामने आया है | और इस काम में वहां के लोग ही बिना डरे साथ दे रहे हैं |

प्राथमिक शिक्षा को विवि जैसा महत्व दिए बिना नई शिक्षा नीति निरर्थक



केंद्र सरकार ने 34 साल बाद नई शिक्षा नीति के ऐलान के साथ ही मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदलकर फिर से शिक्षा मंत्रालय करने का निर्णय किया। 10 + 2 प्रणाली के स्थान पर 5 + 3 + 3 + 4 करने के साथ ही इंजीनियरिंग जैसे विषय की पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले विद्यार्थियों को उनके द्वारा बिताये गये वर्षों के आधार पर प्रमाणपत्र या डिप्लोमा देने का प्रावधान भी किया गया। सबसे अच्छी बात ये है कि प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में विद्यार्थी चाहे तो क्षेत्रीय भाषा का चयन भी कर सकेगा। उसे अन्य भाषाएँ सीखने का विकल्प भी रहेगा। निचली कक्षाओं में अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता खत्म करना बड़ा कदम कहा जा सकता है। इसी तरह विषयों के चयन में चले आ रहे ढर्रे को बदलने का साहस भी नीति में दिखाई देता है। भौतिक शास्त्र के साथ योग, फैशन और रसायन शास्त्र के संग संगीत तथा दर्शन जैसे विषय का अध्ययन भी सम्भव होगा। अर्थात विद्यार्थी चाहे तो विज्ञान संकाय के विषय के साथ वाणिज्य और कला के विषय भी ले सकेगा। खेल और संस्कृति के साथ संवैधानिक मूल्य जैसे विषय पाठ्यक्रम का हिस्सा होंगे। 2040 तक उच्च शिक्षा के सभी संस्थानों को बहु विषय संस्थान बनाना होगा जिसमें 3000 से ज्यादा छात्र होंगे। साथ ही वे ऑन लाइन और डिस्टेंस लर्निग कोर्स का विकल्प भी दे सकेंगे। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को अधिक स्वायत्तता देने की योजना भी इस नीति में है। 2050 तक कम से कम 50 फीसदी छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा देने का सपना भी दिखाया गया है। 12 वीं उत्तीर्ण कर चुके हर छात्र के पास कोई न कोई करोबारी योग्यता होगी। प्रारंभिक स्तर से ही इसकी शुरुवात अच्छी सोच है। 10 वीं और 12 में अनुत्तीर्ण होने के बाद पढ़ाई छोड़ चुके विद्यर्थियों को दोबारा परीक्षा का अवसर दिया जाएगा। पूरे देश के लिए एक ही शिक्षा नीति होगी। बीएड कालेज बंद कर दिए जायेंगे तथा उसकी शिक्षा सामान्य महाविद्यालय से ली जा सकेगी। नौकरी करने वाले को 3 और शोध के इच्छुक छात्रों को 4 वर्ष में डिग्री मिलेगी। सरकार की मानें तो शिक्षा का नेटवर्क बढ़ाने पर भी जोर दिया जाएगा। सतही तौर पर देखें तो ये बड़ी ही क्रांतिकारी नीति है। प्रसिद्ध विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने कैम्पस खोल सकेंगे। इस नीति को लागू करने के पहले देश भर से सुझाव मांगे जाने का दावा भी किया गया है। 2035 तक उच्च शिक्षा में 50 फीसदी छात्रों को शामिल करने के लक्ष्य के साथ ही शोध छात्रों के लिए भी अनेक बदलाव नीति का हिस्सा हैं। कुल मिलाकर देखें तो प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है जैसे केन्द्र सरकार ने शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करने का प्रयास किया है। भारतीय शिक्षा प्रणाली और शैक्षणिक संस्थानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खड़े रहने के लिए सक्षम बनाने के साथ ही उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने वाले छात्रों को देश में रहकर ही अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा मिलना निश्चित तौर पर प्रतिभा पलायन को रोकने में सहायक बनेगा। और भी ऐसे प्रावधान हैं जो इस बात का संकेत दे रहे हैं कि आने वाले कुछ सालों में भारतीय शिक्षा प्रणाली बदलते समय की जरूरतों के अनुरूप अपने को ढालने में कामयाब हो जायेगी। लेकिन ढेर सारे हसीन सपनों के बावजूद ये सवाल उठता है कि प्राथमिक स्तर की गुणवत्तायुक्त शिक्षा क्या देश के उन लाखों गरीब परिवारों के बच्चों को नसीब हो पायेगी जो केवल दोपहर का मुफ्त भोजन करने सरकारी शाला में आते हैं और वह भी ऐसा जिसमें भ्रष्टाचार बिलबिलाता रहता है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार के शिक्षा मंत्री मनीष सिसौदिया ने महज पांच साल में सरकारी विद्यालयों का जैसा कायाकल्प कर दिखाया, वैसा करने के लिए इस शिक्षा नीति में क्या है, ये स्पष्ट नहीं किया गया है। कहते हैं अमेरिका में बच्चों को अपने घर से एक निश्चित दूरी के बाहर के विद्यालय में पढ़ने की अनुमति नहीं होती। लेकिन वहां हमारे देश की तरह सरकारी और निजी शाला के स्तर में फर्क नहीं होता और शिक्षा की गुणवत्ता भी एक समान रहती है। इसलिए शिक्षा नीति चाहे कितनी भी अच्छी हो लेकिन जब तक दिल्ली जैसी विद्यालयीन शिक्षा ख़ास तौर पर प्राथमिक स्तर पर उपलब्ध न हो तब तक नीति लागू भले हो जाए लेकिन अपने लक्ष्य से दूर ही रहेगी। इसलिए बेहतर होगा कि केंद्र सरकार नीति को ऊपर से लागू करने के पहले प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त ऊँच - नीच के माहौल को खत्म करे। आम पब्लिक के लिए चलाये जा रहे सरकारी विद्यालयों में अध्ययनरत छात्र और महंगे निजी पब्लिक स्कूल के विद्यार्थी के बीच हीनता और श्रेष्ठता का भाव मिटाए बिना देश में शिक्षा का लोकव्यापीकरण करने की बात सोचना भी बेकार है। कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था का एक नया रूप सामने आया है। ऑन लाइन पढ़ाई के कारण बाजार में मोबाईल फोन और लैपटॉप की बिक्री आसमान छू गयी। लेकिन ऐसे लाखों परिवार होंगे जिनके पास मोबाईल और लैपटॉप तो क्या स्टेशनरी तक के लिए पैसे नहीं होते। यदि सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हुए केवल साक्षर नहीं अपितु उच्च शिक्षा में भी जाएँ तो उसे प्राथमिक स्तर की शिक्षा को भी विश्वविद्यालय के बराबर महत्त्व देना होगा। वरना ये देश बीते सात दशक से न जाने कितनी नीतियाँ देख चुका है जिनके अंतर्गत एक तरफ तो शिक्षा के पांच सितारा संस्थान खुल गये वहीं दूसरी तरफ ऐसे लाखों सरकारी विद्यालय हैं जिनमें बैठने के लिये टाट पट्टी तक नहीं है। यदि सरकार ने इस तरफ ध्यान दिया तो निश्चित रूप से उसकी ये कोशिश ईमानदार कही जायेगी अन्यथा ले देकर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती रहेगी। काश, नीति में कहीं इस बात का संकल्प भी होता कि अब श्रीकृष्ण और सुदामा को एक साथ पढ़ने का अवसर दोबारा मिल सकेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 29 July 2020

भूमि पूजन का विरोध करने वाले पुरानी गलतियाँ दोहरा रहे



अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण बेशक भाजपा के घोषणापत्र का हिस्सा था। बीते तीन दशक में इसके लिए हुए आन्दोलनों को उसका प्रत्यक्ष समर्थन भी रहा। लेकिन कांग्रेस  के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी 2017  में उप्र विधानसभा के चुनाव प्रचार की शुरुवात अयोध्या में हनुमान गढ़ी  के महंत से आशीर्वाद  लेकर की। पूरे चुनाव के दौरान वे और उनकी पार्टी  भाजपा पर आरोप लगाती रही कि वह चुनाव जीतने के लिए मंदिर मुद्दा गरमाती है और बाद में उसे भुला देती है। यहाँ तक कहा जाने लगा कि मंदिर  का ताला खुलवाने और शिलान्यास करवाने का काम स्व. राजीव गांधी ने किया था और मंदिर का निर्माण राहुल करवाएंगे। यद्यपि वह सब उप्र के हिन्दू मतदाताओं को लुभाने का दांव था जिसमें सफलता नहीं मिली। उसके बाद गुजरात चुनाव में राहुल का जनेऊधारी अवतार सामने आया। फिर वे शिव भक्त बने। कर्नाटक चुनाव में मंदिरों और मठों में धोती पहिनकर भी गए। फिर भी कोई लाभ नहीं हुआ। आखिर में शिवभक्ति का चरमोत्कर्ष दिखाने के  लिए कैलाश-मानसरोवर की यात्रा भी की परन्तु 2019 के लोकसभा चुनाव पर उस सबका कोई असर नहीं पड़ा। बीते लगभग सवा साल में श्री गांधी किसी मंदिर या मठ में गये हों ये शायद ही किसी ने देखा होगा। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी या भाजपा ने मन्दिर को लेकर अपनी नीति में कोई बदलाव नहीं किया। राम मंदिर का फैसला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाये जाने के पहले ही उप्र की योगी आदित्यनाथ  सरकार द्वारा अयोध्या के विकास की रूपरेखा बनाकर उस पर काम शुरू कर दिया गया था। इसी पृष्ठभूमि के कारण यदि राम मन्दिर के निर्माण में भाजपा और उसके सहयोगी संगठन आगे-आगे हैं तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जाना चाहिए। और जिन लोगों ने मंदिर निर्माण  के लिए लम्बी  मैदानी लड़ाई लड़ी तथा जिनके मन में उसे लेकर किसी भी तरह का कोई संदेह  नहीं था उनको ही यदि उसके निर्माण के लिए गठित न्यास में रखा गया तो उस पर भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भूमि पूजन में आमंत्रित किया जाना भी एक सही कदम कहा जाएगा क्योंकि राममंदिर का निर्माण देश के अधिकतर लोगों की चिर संचित आकांक्षा है और प्रधानमंत्री जनभावनाओं के सबसे उपयुक्त प्रतिनिधि होते हैं। कुछ लोग संवैधानिक हैसियत के मद्देनजर उनके हिन्दुओं के एक मंदिर की आधारशिला रखने हेतु जाने को धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध बता रहे हैं। लेकिन आजादी के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद  गुजरात के ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के बाद आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मना करने के बाद भी गये थे। धर्मनिरपेक्षता के प्रति नेहरू जी का वह  आग्रह कालान्तर में पाखंड बन गया क्योंकि  सरकारी खर्चे पर रोजा अफ्तार का आयोजन करते समय किसी को संविधान की रोक -टोक याद नहीं रहती थी। श्री मोदी को अयोध्या जाने से रोकने के लिए असदुद्दीन ओवैसी आवाज उठायें तो बात समझ आती है लेकिन शरद पवार सहित कुछ हिन्दू धर्मगुरु भी उस पर नाक सिकोड़ें ये देखकर आश्चर्य होता है। श्री पवार ने तो यहाँ तक कटाक्ष कर  दिया कि मन्दिर बनाने से कोरोना ठीक हो जाएगा। लेकिन उनकी पार्टी के टेके से चल रही महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना ने राम मन्दिर निर्माण के लिए 1 करोड़ का दान देकर श्री पवार को आईना दिखा दिया। उनमें हिम्मत हो तो वे श्री ठाकरे  और उनकी पार्टी पर भी तंज करके बताएं। सही बात ये है कि भाजपा विरोधी तमाम पार्टियां मन्दिर को लेकर शुरू से ही गलत रास्ते पर चल पड़ीं। भाजपा ने बेशक इस मुद्दे का लाभ लेकर अपना उत्थान किया लेकिन इसके लिये भी उसके विरोधी ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने उसके अंधे विरोध के फेर में जनमानस को पढऩे में चूक की। स्व. राजीव गांधी ने शाह बानो सम्बन्धी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटकर जो भूल की वैसी ही बाकी गैर भाजपा पार्टियाँ भी मन्दिर मुद्दे पर विपरीत दिशा में जाकर कर बैठीं। उम्मीद थी कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद इस मुद्दे से राजनीति दूर हो जायेगी। लेकिन भूमि पूजन में  अड़ंगा लगाने की कोशिशें जिस तरह सामने आईं और उसके साथ ही श्री मोदी के अयोध्या जाने को लेकर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं उनसे लगता है कि विपक्ष गलतियों को दोहराने की हिमाकत कर रहा है। यदि वह मंदिर निर्माण शीघ्र करने के प्रयासों का स्वागत करते हुए सहयोग की पहल करे तब निश्चित रूप से भाजपा या प्रधानमंत्री पूरा श्रेय नहीं ले सकेंगे।  राम मंदिर अब एक वास्तविकता है जिसे रोकने की कोशिश देश के अधिकतर लोगों को ठेस पहुंचाने वाली है। बेहतर हो गैर भाजपाई तबका 5 अगस्त के आयोजन के ऐतिहासिक महत्व को समझकर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाये। गुजरात में विश्व की सबसे बड़ी सरदार पटेल की जो मूर्ति बनाई गयी उसका भी इसी तरह विरोध किया गया जिससे सरदार साहब की विरासत सहज रूप से भाजपा ने हथिया ली। राम के नाम पर किसी तरह की राजनीति भाजपा न कर सके इसके लिए जरूरी है कांग्रेस सहित अन्य पार्टियाँ भी अयोध्या मुद्दे पर विरोध के लिए विरोध करना बंद करते हुए मंदिर  निर्माण में सहभागिता दें। शिवसेना ने कांग्रेस और शरद पवार दोनों को ये बता दिया है कि वह उनके  साथ सत्ता में हिस्सेदार रहकर भी जन भावनाओं के विरुद्ध जाने का खतरा नहीं उठाना चाहती।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 28 July 2020

पहले तो जानवर बाड़ेबंदी में रखे जाते थे लेकिन अब विधायक भी




देश में रिसॉर्ट राजनीति सम्भवत: सबसे पहले तब शुरू हुई जब कांग्रेस ने गुजरात में भाजपा की केशुभाई पटेल सरकार के विरुद्ध बगावत करने वाले शंकर सिंह वाघेला को उनके समर्थक बागी विधायकों सहित मप्र के खजुराहो स्थित पांच सितारा होटल में पनाह दी। उस समय दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। ऐसा लगता है उसके बाद से राजनीतिक उठापटक के दौरान विधायकों को रखे जाने के लिए पांच सितारा होटल या उसी के समकक्ष कोई रिसॉर्ट न्यूनतम जरूरत बन गयी। तब से न जाने कितनी मर्तबा विधायकों को हवाई जहाज में भरकर किसी रमणीय स्थान पर पूरी घेराबंदी में रखा गया जिससे कोई भाग न निकले। इस काम के लिए पैसे की कोई कमी नहीं आती। पता नहीं ठहरने वाली जगह का भुगतान कौन करता है? लेकिन मोटा-मोटा हिसाब लगाया जाए तो शुरू से अब तक विधायकों के इस पांच सितारा ऐशो आराम पर कई अरब रूपये तो खर्च हो ही चुके होंगे। कुछ महीनों पहले मप्र ने ये नज़ारा देखा था और अब बीते कुछ दिनों से राजस्थान में ये खेल चल रहा है। अशोक गहलोत सरकार के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट डेढ़ दर्जन बागी विधायक लेकर दिल्ली के पास हरियाणा में किसी आलीशान होटल में मेहमाननवाजी कर रहे हैं। कांग्रेस का आरोप है हरियाणा की भाजपा सरकार उनकी मेजबान है। किसी को भी उनसे मिलने नहीं दिया जा रहा। इधर मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने अपने समर्थक 102 विधायकों को जयपुर के ही एक आलीशान होटल में टिका रखा है जो उनके किसी नजदीकी का बताया जाता है। कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि उनके बेटे वैभव की भी इस होटल में हिस्सेदारी है। बहरहाल किसी पांच सितारा होटल में सौ से ऊपर जनसेवकों के रहने-खाने का खर्च करोड़ों में तो पहुँच ही गया होगा। प्रश्न ये है कि एक-दूसरे पर विधायक खरीदने का आरोप लगाने वाली पार्टियों का अपने विधायकों पर क्या जरा भी विश्वास नहीं रहा ? मप्र में हुए सत्ता पलट के दौरान ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के बागी विधायकों को जहाँ विशेष विमान से भेजकर  बेंगुलुरु के किसी रिसॉर्ट में रख दिया गया वहीं कांग्रेस अपने विधायकों को लेकर जयपुर जा पहुँची । उल्लेखनीय है बेंगुलुरु में भाजपा की तो जयपुर में कांग्रेस की सरकार होने से दोनों पार्टियों ने सुरक्षित स्थान का चयन विधायक छिपाने के लिए किया। बाद में भाजपा ने अपने विधायकों को हरियाणा भेज दिया। सरकार बदल गयी। कांग्रेस ने 35 करोड़ में विधायक खरीदने का आरोप भाजपा पर लगाया जिसकी कोई जांच नहीं हुई। लेकिन कुछ महीने बीत जाने के बाद दोनों पार्टियों से यदि ये पूछा जाए कि विधायकों की मेहमाननवाजी में कितना खर्च हुआ तो बात हवा में उड़ा दी जावेगी। गहलोत समर्थक कांग्रेस के विधायक जयपुर में ही एक साथ रखे गये हैं। जब वे मुख्यमंत्री को अपना समर्थन दे चुके फिर भी उन्हें जिसे आजकल बाड़ेबंदी कहा जाने लगा है, में क्यों रखा गया? वैसे आम बोलचाल की भाषा में बाड़ेबंदी मनुष्यों के नहीं अपितु पशुओं को भागने से रोकने के लिए अथवा किसी खुले स्थान को तारों से घेरने हेतु प्रयुक्त होने वाला शब्द है। भले ही विधायक स्वेच्छा से वहां रह रहे हैं लेकिन इस दौरान उनके निर्वाचन क्षेत्र के किसी नागरिक को उनसे बहुत जरूरी काम पड़ जाये तो वे अपने जनप्रतिनिधि तक से नहीं मिल सकते। तो क्या ये जनता और मतदाताओं के अधिकारों का हनन नहीं है ? विधायकों के पाला बदल को घोड़ों की बिक्री कहा जाता है। लेकिन सही कहें तो ये घोड़े जैसे समझदार और वफादार जानवर का अपमान है। जिस तरह विधायकों को हफ्तों उनके निर्वाचन क्षेत्र के अलावा घर - परिवार से दूर रखा जाता है वह कैसा संसदीय लोकतंत्र है ? आज राजस्थान में  कांग्रेस और अशोक गहलोत, सचिन पायलट तथा भाजपा को जली-कटी सुना रहे हैं किन्तु वे इस बात का कोई जवाब नहीं देते कि 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद गहलोत सरकार को समर्थन दे रही बसपा के छह विधायकों को कांग्रेस में शामिल करना क्या खरीद-फरोख्त नहीं थी? गत वर्ष इन्हीं दिनों मप्र के दो भाजपा विधायकों ने विधानसभा में कमलनाथ सरकार के पक्ष में मतदान किया तब कांग्रेस ये कहते नहीं थकती थी कि भाजपा के 10 से 15 विधायक उसके संपर्क में हैं। जब सिंधिया गुट ने बगावत की तब भी वही दावा दोहराया गया। राजस्थान में संकट की शुरुवात होते ही खुद श्री गहलोत ने दर्जन भर भाजपा विधायक तोड़ने का दंभ भरा था। भाजपा भी मप्र में कमलनाथ सरकार के बनते ही उसे गिराने की डींग हांका करती थी। कहने का आशय ये है कि आम जनता के सेवक होने का दावा करने वालों का पांच सितारा होटलों और रिसॉर्ट रूपी ऐशगाहों में गुलछर्रे उड़ाना लोकतंत्र का बाजारीकरण नहीं तो और क्या है ? उससे भी बड़ी बात ये है कि इससे साबित होता है विधायकों की विश्वसनीयता इतनी कम हो चुकी है कि उनकी अपनी पार्टी तक उन्हें बिकाऊ मानकर उन पर धेले भर विश्वास नहीं करती। आश्चर्य की बात ये है कि इस बाड़ेबंदी को एक भी विधायक ने अपना अपमान बताते हुए इस तरह कैद होने से इंकार नहीं किया। मप्र में भाजपा कांग्रेस के विधायकों को अभी भी तोड़ने में लगी है। जबकि इससे उसके अपने संगठन में नाराजगी बढ़ रही है। इस खेल का अंत क्या होगा ये तो पता नहीं लेकिन ये सच है कि जनता द्वारा चुने हुए माननीय विधायक घोड़े तो पहले ही कहलाने लगे थे लेकिन आगे जाकर उन्हें गुलाम कहा जाने लगे तो अचरज नहीं होगा। आखिर जो विधायक खुली हवा में सांस लेने से भी वंचित कर दिया जावे उसे और क्या कहा जाए ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 27 July 2020

राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों को स्पष्ट करे सर्वोच्च न्यायालय




राजस्थान का राजनीतिक संकट शुरू तो हुआ था सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच अहं की टकराहट से किन्तु बाद में भाजपा विरुद्ध कांग्रेस से होते हुए पहले विधानसभा अध्यक्ष तथा उच्च न्यायालय और अब मुख्यमंत्री और राज्यपाल के अधिकारों पर आकर केन्द्रित हो गया। बात सर्वोच्च न्यायालय तक भी जा पहुँची जो आज सुनवाई कर रहा है। मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने संबंधी अनुरोध पर राज्यपाल कलराज मिश्र की ना-नुकुर पहली नजर में तो समझ से परे है। पहले अनुरोध पर उन्होंने अल्प सूचना पर सत्र आहूत करने पर एतराज जताते हुए विश्वास मत की जरूरत को ही नकार दिया। श्री गहलोत ने फिर एक और पत्र देकर कोरोना पर विचार हेतु 31 जुलाई को सत्र बुलाने संबंधी  चिट्ठी भेजकर राज्यपाल द्वारा उठाई गयी आपात्तियों की गुंजाईश खत्म कर दी। इस खेल में एक गलती कांग्रेस से ये हो गई कि उसने सचिन पायलट के साथ गए बागी विधायकों की सदस्यता रद्द करने संबंधी कारण बताओ नोटिस विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी से इस आधार पर जारी करवा दिया कि वे पार्टी व्हिप के बाद भी कांग्रेस विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। विधायकों ने नोटिस का जवाब देने की बजाय उसकी वैधानिकता को अदालत में ये कहते हुए चुनौती दी कि व्हिप केवल सदन में उपस्थिति और मतदान के लिए लागू होता है। राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा नोटिस के क्रियान्वयन पर स्थगन के बाद अध्यक्ष ने अपने अधिकार क्षेत्र में न्यायालयीन हस्तक्षेप को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे डाली। जब वहाँ से भी तात्कालिक राहत नहीं मिली तब श्री गहलोत ने बहुमत साबित करने हेतु सत्र बुलाने का अनुरोध राज्यपाल से किया जिसे ठुकरा दिया गया। उसके बाद दूसरा पत्र विगत दिवस भेजा गया जिसमें विश्वास मत का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री की मंशा स्पष्ट है। यदि सत्र आयोजित हुआ तब कांग्रेस व्हिप जारी करेगी जिसका उल्लंघन करने पर पायलट गुट के बागी विधायकों की सदस्यता आसानी से रद्द हो जायेगी। सदन में अपना बहुमत साबित करने के बाद मुख्यमंत्री सुरक्षित हो जायेंगे और बगावत का धुआं निकल जायेगा। हो सकता है राज्यपाल भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार कर रहे हों। हॉलांकि उन्हें मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने संबंधी अनुरोध को टांगकर रखने का अधिकार भले ही हो लेकिन संदर्भित प्रकरण में उसका औचित्य स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि श्री गहलोत ने एक मूर्खता और कर दी। उनका ये बयान बहुत ही आपत्तिजनक था कि जनता आकर राजभवन घेर ले तो वे जिम्मेदार नहीं होंगे। राज्य सरकार का मुखिया यदि राजभवन की सुरक्षा से मुकर जाए तो ये संवैधानिक मशीनरी के ठप्प होने का प्रमाण है। हॉलांकि बाद में कांग्रेस को उसकी गलती का एहसास हो गया, तभी उसने देश भर में राजभवन के सामने विरोध प्रदर्शन का फैसला करते समय राजस्थान के राजभवन को छोड़ दिया। लेकिन जहाँ तक बात राज्यपाल की है तो जिस तरह विधानसभा अध्यक्ष श्री जोशी ने खुद को कांग्रेस का हितचिन्तक साबित कर दिया ठीक वैसे ही राज्यपाल श्री मिश्र भी सतही तौर पर तो भाजपा की तरफदारी करते दिखाई दिए। ये बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि विधानसभा अध्यक्षों द्वारा एक तरफ तो अपनी शक्तियों को असीमित बताकर उनमें दखलंदाजी पर ऐतराज जताया जाता है लेकिन विधायकों के योग्यता संबंधी फैसलों पर उनकी कार्रवाई सदैव सत्ता पक्ष के इशारे पर चलती है। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा ही नहीं बाकी दल भी बराबर के दोषी हैं। इसी तरह राज्यपाल के पद की गरिमा और निष्पक्षता पूरी तरह संदेहास्पद हो गई है। सवाल केवल राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल का नहीं बल्कि दूसरे राज्यों के महामहिम किसी भी ऐसी स्थिति में केंद्र में बैठी सरकार के इशारे पर काम करते हैं। बीते वर्ष महाराष्ट्र में राजनीतिक अनिश्चितता के बीच राज्यपाल द्वारा सुबह-सुबह देवेन्द्र फड़नवीस और अजीत पवार को शपथ दिलाने जैसी जो कार्रवाई की गई वह लोकतंत्र का मजाक था। केंद्र द्वारा भी भोर के समय राष्ट्रपति शासन हटाये जाने जैसी हरकत घोर आपत्तिजनक थी। लेकिन कांग्रेस ने खुद लम्बे समय तक ऐसा ही किया इसलिए वह ऐसे मामलों में ज्यादा बोलते समय अपराधबोध से ग्रसित हो जाती है। राजस्थान का ये गतिरोध कहाँ जाकर खत्म होता है इसका सभी को इंतजार है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए वह इस घटनाक्रम को आधार बनाकर राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों और कर्तव्यों के साथ ही दलबदल कानून में रह गये उन छिद्रों के बारे में भी अपनी राय दे जिनकी वजह से चुने हुए जनप्रतिनिधि भी बाजारवादी व्यवस्था के हिस्से बनकर बिकाऊ माल की तरह जा बैठते हैं। यद्यपि ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी कुछ लक्ष्मण रेखाएं होती हैं लेकिन कम से कम वह टिप्पणियों के माध्यम से सरकार और संसद को इशारे तो कर सकता है। और फिर वह संविधान का संरक्षक होने के साथ ही उसका व्याख्याकार भी तो है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 24 July 2020

आत्मनिर्भर भारत : ऐसे अवसर रोज - रोज नहीं मिलते ।




 प्रधानमन्त्री द्वारा आत्मनिर्भर भारत का जो आह्वान किया गया उसका असर आम भारतीय की मानसिकता पर दिखने लगा है । न सिर्फ जनता अपितु व्यापारियों ने  भी सस्ती चीनी वस्तुएं खरीदकर मुनाफा कमाने की बजाय भारत में बने सामान की बिक्री करने का जो संकल्प दिखाया वह उत्साह जगाने वाला है ।  उपभोक्ता और विक्रेता दोनों यदि एक ही  भावना से प्रेरित हों  तो बाजारवाद का दबाव भी  बेअसर होकर रह जाता है ।  कोरोना संकट  के दौरान भारत ने  तेजी से फेस मास्क और पीपीई किट तथा सैनिटाइजर का उत्पादन करते हुए न सिर्फ घरेलू मांग पूरी करने की क्षमता अर्जित की वरन निर्यात भी किया ।  कोरोना संक्रमण के इलाज हेतु प्रारम्भिक स्तर पर लगने वाली  दवाइयां भी भारत ने बड़े पैमाने पर दुनिया भर को निर्यात कीं । कोरोना की स्वदेशी वैक्सीन बनाने का काम तो देश में तेजी से चल ही रहा है लेकिन विदेशी संस्थानों द्वारा विकसित किये जा रहे वैक्सीन का उत्पादन भी भारत में किये जाने के अनुबंध भी आपदा को अवसर में बदलने का उदहारण हैं । आज खबर आई कि केंद्र  सरकार ने देश के दवा निर्माताओं को दवाइयों में प्रयुक्त्त होने वाले कच्चे माल का देश में  उत्पादन करने पर बड़े प्रोत्साहन और आर्थिक अनुदान   देने की पेशकश की  है ताकि  चीन पर निर्भरता खत्म की जा सके ।   खुशी की बात ये है कि भारत में दवा उत्पादन करने वाली इकाइयों ने भी चीन पर आश्रित रहने की मजबूरी त्यागने का मन बना लिया है ।  उम्मीद की  जा रही है कि सब कुछ ठीक रहा तो अगले  छ: महीने के भीतर अधिकतर दवाइयों का उत्पादन पूरी तरह स्वदेशी कहला सकेगा ।  रक्षाबन्धन के त्यौहार पर चीन से आने वाली राखियों के प्रति भी जिस तरह की अनिच्छा दिखाई दे रही है वह भी अच्छा संकेत है ।  चीन के साथ सीमा पर चल रहे विवाद के बीच भारत द्वारा आर्थिक मोर्चे पर बनाये गये दबाव से प्रेरित होकर दुनिया के तमाम देशों ने चीन को आर्थिक मोर्चे पर चोट पहुँचाने का दांव चल दिया है ।  भले ही चीन इस बारे में ऊपरी तौर पर बेफिक्री दिखा रहा हो लेकिन जल्द ही उसके चेहरे पर परेशानी नजर आने लगेगी ।  कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया  को ये समझ में आ गया कि चीन को सुधारना नामुमकिन है ।  अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश ने सस्ते चीनी श्रमिकों के लालच में उसे विश्व का सबसे बड़ा उत्पादन केंद्र बनाने की जो भूल की उसका दुष्परिणाम सामने आते ही वह  और उसके सहयोगी देश चीन से पिंड छुड़ाने के रास्ते तलाश रहे हैं ।  लेकिन भारत को  वहां से निकल रहे  उद्योगों की राह ताकने की बजाय अपना स्वयं का ढांचा इस तरह  खड़ा करना चाहिए जिससे मेक इन इण्डिया ही नहीं अपितु मेड इन इंडिया का डंका दुनिया  में पिटे ।  किसी देश की ताकत और समृद्धि तभी मानी जाती है जब उसका बनाया सामान दुनिया  के बाजारों में बिके ।  संयोगवश पूरी दुनिया में भारतीय प्रवासी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं ।  यदि हम मेड इन इंडिया को भी गुणवत्ता के आधार पर एक ब्रांड बना सकें तो बड़ी बात नहीं  अप्रवासी भारतीय भारत के सबसे बड़े ब्रांड एम्बेसेडर साबित होंगे ।  संकट के समय ही किसी व्यक्ति या देश की  संघर्ष क्षमता और प्रतिबद्धता की परीक्षा होती है ।  नियति ने भारत के सामने भी वैसा ही अवसर उत्पन्न किया है जिसका पूरा - पूरा फायदा हमें उठाना होगा ।  लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि लोगों के मन में उपजे राष्ट्रवाद का लाभ  लेकर उन्हें घटिया सामान टिकाया जाए ।  उत्पादन करने वालों को ये ध्यान  रखना  होगा कि वैश्वीकरण के इस दौर में उपभोक्ता  को बहुत समय तक भावनात्मक स्तर पर प्रभावित नहीं रखा जा सकता ।  कोरोना संकट के समय भी  घटिया मास्क और पीपीई किट  बनाने जैसी खबरें आईं जो दुर्भाग्यपूर्ण हैं ।  भारत वर्तमान में एक संक्रान्तिकाल से गुजर रहा है । नई पीढ़ी हर क्षेत्र में नेतृत्व करने के लिए तत्पर है  ।  उसमें प्रतिभा भी  है और हौसला  भी ।  सबसे अच्छी बात ये है कि वह  वैश्विक सोच रखती है जिसके कारण वह प्रतिस्पर्धा से सफलता हासिल करने से डरती नहीं ।  यदि भारत सरकार इस मौके का लाभ  लेते हुए भारतीय उद्यमशीलता को समुचित प्रोत्साहन , संरक्षण और सहायता प्रदान करे तो आने वाले कुछ सालों के भीतर भारत चीन से आगे न सही लेकिन बराबरी से खड़ा होने में सक्षम अवश्य हो जाएगा ।  नियति ऐसे  मौके रोज - रोज नहीं  देती ।  इसलिए  भारत को इसका पूरा - पूरा फायदा उठाना चाहिए ।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 23 July 2020

तो युधिष्ठिर कहते सबसे बड़ा आश्चर्य है भारत में बिना भ्रष्टाचार के विकास ! नेता और नौकरशाहों के गठबंधन ने किया बेड़ा गर्क


मेरे पिछले आलेख , क्या कभी भ्रष्टाचार पर भी लॉक डाउन होगा ,  पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए मित्रवर डॉ . योगेंद्र प्रताप सिंह ने कहा था कि बिना भ्रष्टाचार के  विकास पर राष्ट्रीय बहस  होनी चाहिए | उनका सुझाव न सिर्फ सामयिक अपितु देश के व्यापक हित में होने से मुझे लगा कि बात आगे बढ़ाई जाए | उन्होंने ये भी माना कि भ्रष्टाचार रहित विकास की  सम्भावना असंभव न सही लेकिन कठिन तो है | वैसे देश के अधिकतर लोगों का अभिमत है कि भ्रष्टाचार गाजर घास की तरह है जिसका उन्मूलन नामुमकिन है क्योंकि उसे एक जगह से उखाड़ो तो दूसरी जगह जम  आती है | उक्त आलेख का संदर्भ था मप्र के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी का एक पुराना वीडियो जिसमें वे अपने मातहत वर्दीधारियों से लिफाफे लेते दिखाई  दे रहे थे | वीडियो सार्वजनिक होते ही उन्हें परिवहन आयुक्त के  पद से हटाकर पुलिस मुख्यालय पदस्थ कर  दिया गया | जांच भी शुरू हो गई है | लेकिन खबर है उनसे छोटे पद का अधिकारी जाँच हेतु पूछताछ हेतु नियुक्त हुआ, जिसे लेकर  तरह - तरह की चर्चाएँ हैं |

डा. सिंह ने जो विषय सुझाया वह इसलिए उपयुक्त लगा क्योंकि जबसे उदारीकरण आया तब से विकास सम्बन्धी सपने भी मानो बलैक एंड व्हाईट फिल्मों के दौर से निकलकर टेक्नीकलर फिल्मों के  युग में प्रविष्ट हो चले हैं | पहले जहां  लाखों की किसी योजना को बहुत बड़ा समझ जाता था वहीं आजकल तो करोड़ों भी किसी नाली या पुलिया के निर्माण पर खर्च होने  वाली रकम है | विकास माने जाने वाले किसी भी कार्य के लिए तो अरबों और उससे भी  इतनी बड़ी राशि की घोषणा होने लगी है जिसके आगे  लगने वाले शून्य गिनने में भी समय लगता है | परियोजना ज्यादा बड़ी हो तो बात हजार करोड़ या लाख करोड़ में होने लगती है |

देश  में विकास  कार्यों पर ज्यादा खर्च होना संतोष के साथ ही गौरव का भी  विषय है | अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने के प्रयास भी अपनी जगह अच्छे संकेत हैं लेकिन सवाल ये है कि क्या बात है हमारे देश में कोई भी परियोजना न तो समय पर पूरी होती है और न ही निश्चित बजट में | इसी के साथ ही  उसमें गुणवत्ता का पालन भी नहीं  होता तो उसका सीधा - सीधा कारण है भ्रष्टाचार |

बीते कुछ वर्षों से देश में गरीबों के लिए प्रधानमन्त्री आवास योजना के अंतर्गत पक्के मकान बनाये जा रहे हैं | इस योजना की आवश्यकता और औचित्य से भला कौन इंकार करेगा | लेकिन अपवाद स्वरूप एकाध जगह ठीक - ठाक निर्माण भले मिल जाये,  वरना कार्य इतना घटिया है कि कुछ वर्षों बाद वे सभी भ्रष्टाचार के जीवंत दस्तावेज बन जायेंगे | दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेल के कुछ दिन पहले ही नया - नया बना पुल भरभरा कर गिर गया था | अभी हाल ही में बिहार में  बने एक पुल की प्रारंभिक  सड़क  ही धंस गई  | देश की राजधानी दिल्ली और  मायानगरी मुम्बई के कुछ हिस्सों को छोड़कर शहर के बाकी हिस्सों की सड़कों को देखने के बाद बिना सिविल इंजीरियरिंग पढ़ा इन्सान भी बता देगा कि उनके  निर्माण में कितना भ्रष्टाचार हुआ है ?

ये सब तो छोटे - छोटे उदाहरण हैं | सही बात तो ये है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार और विकास एक दूसरे के समानार्थी बन चुके हैं | ये भी कहा जा सकता है कि दोनों का चोली दामन का साथ है | कहने वाले कहेंगे कि भ्रष्टाचार तो एक वैश्विक समस्या है |  भूमंडलीकरण का दौर शुरू होते ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जाल जिस तरह फैला उसके बाद विदेशी घूस भी हमारे  प्रशासनिक ढांचे में सहज रूप से आने लगी | विश्व बैंक , एशिया  डेवलेपमेंट बैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा  कोष के अलावा और भी विदेशी एजेंसियों से विकास के लिए कर्ज लेने के पीछे उद्देश्य देश का विकास कम नेताओं और नौकरशाहों का विकास ज्यादा होता है |

देखने वाली बात है कि दूसरे  महायुद्ध में बर्बाद हुए जापान और  जर्मनी ने विकास के  आसमान छू लिए | इस्रायल  जैसा छोटा सा देश अस्तित्व में आते ही पड़ोसी देशों के हमले का शिकार हो गया | बीते सात दशक से  वह चारों तरफ से शत्रुओं  से घिरा होने के बाद भी तकनीक के मामले में हमसे कई गुना आगे है | चीन में 1949 में साम्यवादी क्रांति हुई | 1962 में उसने लड़ाई में हमें बुरी तरह हरा दिया | उस लड़ाई के बाद रक्षा क्षेत्र में भ्रष्टाचार का जबर्दस्त खुलासा हुआ और पंडित नेहरु को अपने प्रिय रक्षामंत्री वीके . कृष्णा मेनन को हटाना पडा | 1988 तक चीन की  अर्थव्यवस्था हमसे कमजोर थी  और आज वह अमेरिका की  अर्थव्यस्था को हिलाने  की स्थिति में आ गया | डेढ़ दशक से ज्यादा चले युद्ध में बर्बाद हो चुके वियतनाम की  छलांग भी भारत से कहीं  बेहतर है |

ऐसे में ये बात दिमाग में कौंधना स्वाभाविक है कि आखिर क्या बात है कि विकास की दौड़ में हमारा देश उक्त देशों की तुलना में पीछे रह गया | कहने वाले ये कहने से नहीं  चूकेंगे कि जो देश चंद्रमा और मंगल तक जाने की क्षमता अर्जित कर चुका हो उसे पिछड़ा कैसे कह सकते हैं ? बेशक भारत ने अन्तरिक्ष विज्ञान में अपने बूते जो कर दिखाया  वह गौरवान्वित करता है लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि आज देश के करोड़ों लोगों के पास रहने को घर नहीं है | 2014 में सत्ता में आने के बाद जब नरेंद्र मोदी ने लालकिले की  प्राचीर से  शौचालय जैसी  मूलभूत सुविधा को राष्ट्रीय अभियान बनाकर लागू किया तब बड़े - बड़े लोगों ने उनका मजाक उड़ाया लेकिन बाद में उसकी सार्थकता समझ में आई । तब भी ये सवाल उठा कि विकास की प्राथमिकताओं में शौचालय के बारे में किसी ने पहले क्यों नहीं सोचा ? उस अभियान के कारण घरों में शौचालय बनाने की जो मुहिम चली वह एक क्रांतिकारी बदलाव था लेकिन उसके तहत बने छोटे सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण में हुआ भ्रष्टाचार चीख - चीखकर व्यवस्था के खून में आ चुकी खराबी का प्रमाण दे रहा है |

देश में आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए बीते सात दशक में जितना धन खर्च हुआ उतने में तो उनमें अमेरिका के हवाई द्वीप जैसा नजारा दिखाई देना चाहिए था | यही हाल गाँवों की दशा  सुधारने के काम में हुआ | ग्रामीण विकास के लिये आजादी के बाद से बेहिसाब पैसा खर्च होने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्र आज तक शहरों जैसी मूलभूत सुविधाओं से क्यों वंचित हैं , ये वह प्रश्न है जिसका उत्तर कोई नहीं  देगा क्योंकि उक्त दोनों क्षेत्रों की तकदीर संवारने के लिए आये पैसे की बड़ी रकम नेता - नौकरशाह गठबंधन की भेंट चढ़ गयी |  जो सरकारें भ्रष्टाचार के मामले में ज्यादा बदनाम हुईं वे तो ठीक हैं लेकिन जिनके राज में ईमानदारी का खूब गाना गया उनके दौर में भी विकास के नाम पर हुई लूटमार किसी से छिपी नहीं है |

ऐसे में सवाल उठता है कि  विदेशी कर्ज और जनता के पैसे से किये जाने विकास में  भ्रष्टाचार कब तक चलता रहेगा और क्या भ्रष्ट व्यक्ति को उसके किये का समुचित दंड इस तरह  सुनिश्चित होगा जिससे और कोई वैसा करने के बारे में सौ बार सोचे  |

निश्चित रूप से जब देश विश्व की  पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने के बाद मोदी जी  के अनुसार 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने का सपना  साकार करने की सोच रहा हो तब इस वास्तविकता की अनदेखी करना अपने आपको धोखा देने से कम न होगा कि  हमारा देश आजादी के बाद भ्रष्टाचार जैसी बुराई  से बचा रहता तब आज हम एशिया में जापान और चीन को पीछे छोड़कर विश्व के विकसित देशों की अग्रिम पंक्ति में बैठे होते |

ये भ्रष्टाचार ही है जिसने हमारी नौजवान प्रतिभाओं को प्रवासी भारतीय बनने के लिए मजबूर कर दिया | प्रधानमंत्री जितनी मेहनत विदेशी निवेश लाने के लिए करते हैं यदि उतनी ही वे भारत में भ्रष्टाचार मुक्त विकास को सपने से हकीकत में बदलने में करें तो विदेशों में जा बसे प्रतिभाशाली भारतीय अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर  गुजरने की भावना लिए दौड़े चले आएंगे | और तब उनकी प्रतिभा और क्षमता के सामने विदेशी निवेश गैर जरूरी लगने लगेगा |

आज सर्वत्र ये सुनने में मिलता है कि ईमानदार वह है जिसे या तो भ्रष्टाचार करने का अवसर नहीं  मिला या फिर उसे भ्रष्टाचार करना नहीं  आता | लेकिन ये अवधारणा बदली जा सकती है और बदलना ही चाहिये । वरना विकास की राह पर हमारी गति बीते सात दशक जैसी ही बनी रहेगी | भले ही हम पहले से बेहतर होते जाएँ लेकिन एशिया के ही अनेक छोटे - छोटे देशों की तुलना में हम फिसड्डी ही रहेंगे |

समय आ गया है जब बिना भ्रष्टाचार के  विकास को भी राष्ट्रीय अभियान बनाया जाए | लेकिन इसके लिए राजसत्ता में बैठे नेताओं को ये ठान लेना होगा  कि भले ही अगला चुनाव न जीतें लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ों में  इतना मठा डाल जायेंगे जिससे वह दोबारा न पनप सके | चूंकि उसकी शुरुवात ऊपरी संरक्षण से ही  होती है इसलिए रूकावट भी वहीं से करनी होगी | हालाँकि ऐसा करना कठिन है लेकिन कार्य कठिन है तभी तो करने योग्य है वरना सरल काम तो सभी कर लेते हैं |

महाभारत में युधिष्ठिर और यक्ष सम्वाद के दौरान यक्ष पूछता है विश्व का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? और उत्तर  में युधिष्ठिर कहते हैं कि मनुष्य नित्यप्रति लोगों को मरते देखकर भी अमरत्व की कामना करता है |

यदि ये प्रश्न आज के समय युधिष्ठिर से पूछा जाता तब वे बिना संकोच किये  उत्तर देते कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है भारत में भ्रष्टाचार के बिना विकास |

वैक्सीन आने तक हर किसी को कोरोना योद्धा बनना होगा




एक तरफ  तो वैक्सीन बन जाने की खबरों के साथ उम्मीद की किरण नजर आने लगी है लेकिन दूसरी तरफ  भारत में कोरोना संक्रमण अब पूरे उफान पर है । बीते 24 घंटों में 48 हजार नये मामलों के साथ अब तक कुल संक्रमित लोगों का आंकड़ा 12 लाख से ज्यादा हो चुका  है। यद्यपि तकरीबन 7 लाख 80 हजार मरीज स्वस्थ भी हो गये हैं किन्तु इससे संतुष्ट हो जाना अपने को धोखा देने जैसा होगा। इसका कारण ये है कि नए मामलों की संख्या में नित्य तकरीबन 10 फीसदी की दर से वृद्धि होने से आने वाले कुछ दिनों में कोरोना को लेकर किये गये चिकित्सा प्रबंध अपर्याप्त हो जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा। गिने-चुने महानगरों को अलग कर दें तो देश के बाकी हिस्सों में सरकारी चिकित्सालय इस मौसम में होने वाली डेंगू और चिकिनगुनिया जैसी बीमारियों के इलाज तक की समुचित व्यवस्था नहीं कर पाते, फिर कोरोना तो बहुत बड़ी बात है। यद्यपि ये कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बेहद दयनीय स्थिति के बावजूद भारत में कोरोना के इलाज पर अपेक्षा से कहीं ज्यादा बेहतर काम हुआ। बीते कुछ महीनों में बड़े सरकारी चिकित्सालयों में ढांचागत सुधार के साथ ही डाक्टरों और उनके सहयोगी स्टाफ  की सेवाओं की गुणवत्ता भी प्रशंसनीय रही है। लेकिन 135 करोड़ की विशाल आबादी वाले देश के अधिकतर लोग जिस ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं उनमें से अधिकतर आज भी झोला छाप कहे जाने वाले चिकित्सकों के भरोसे ही हैं। देश के अधिकतर जिला अस्पतालों में मूलभूत सुविधाओं और योग्य डाक्टरों का अभाव है। ऐसे में केवल वैक्सीन का इन्तजार करना स्वाभाविक है। संतोष का विषय ये है कि दुनिया के अनेक देशों द्वारा विकसित की जा रही वैक्सीन का उत्पादन भारत में ही होगा लेकिन उसका पहला उपयोग भारत में हो सकेगा ये निश्चित नहीं है। ऐसे में हमें अपने देश में बनाई जा रही वैक्सीन पर ही निर्भर रहना होगा जिसका मानव परीक्षण प्रारम्भ हो चुका है तथा आगामी दिसम्बर माह के अंत तक वह बाजार में आ जायेगी। लेकिन उसके बाद भी इतनी विशाल जनसँख्या का टीकाकरण कोई आसान काम नहीं होगा। और तब तक भारत में कोरोना संक्रमितों की कुल संख्या यदि एक करोड़ को पार कर जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। भले ही ठीक होने वालों का आंकड़ा 75 फीसदी क्यों न हो जाए लेकिन तब बचे हुए 25 फीसदी सक्रिय मरीज भी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बहुत बड़ी समस्या बन जायेंगे। विशेष रूप से छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में कोरोना का फैलाव स्थिति को गम्भीरतम बना सकता है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि वैक्सीन के आने के पहले तक कोरोना संबंधी प्रत्येक सावधानी का ईमानदारी और जिम्मेदारी से पालन किया जाए। बीते लगभग दो महीने में इसको लेकर जिस अव्वल दर्जे की लापरवाही देश भर में दिखाई दी उसी के कारण संक्रमण का प्रसार तेजी से हुआ। वहीं दूसरी तरफ दो माह तक लॉक डाउन के दौरान अनेक राज्य सरकारों ने तो जहाँ अपने चिकित्सा ढांचे में जबरदस्त सुधार कर लिए किन्तु बाकी के खुशफहमी में ही जीते रहे, जिसका दुष्परिणाम अब सामने आ रहा है। समय की मांग है कि पूरा देश कोरोना को लेकर केवल चिंता में डूबकर न बैठा रहे वरन गम्भीरता के साथ उसके फैलाव को रोकने के लिये होने वाले प्रयासों का हिस्सा बने। दूसरे शब्दों में कहें तो समय आ गया है जब हम सभी को कोरोना योद्धा की भूमिका में आना होगा क्योंकि सरकार की अपनी सीमाएं हैं जिनमें इलाज के लिए तो उस पर निर्भर रहा जा सकता है किन्तु कोरोना संबंधी सावधानियों का पालन करवाने के लिए भी सरकारी अमले के भरोसे बैठे रहना अपने और साथ दूसरों के प्राण संकट में डालने जैसा ही होगा। उस दृष्टि से उचित यही होगा कि सामाजिक स्तर पर भी कोरोना को लेकर सामूहिक दायित्व बोध पैदा हो जिसका अभाव बीते दो महीने में खुलकर सामने आ चुका है। वैक्सीन आने में अभी समय तो है ही लेकिन उसके अलावा अभी भी वैज्ञानिक इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि वह कितनी प्रभावशाली होगी? ये भी सुनने में आ रहा है कि उनका प्रभाव स्थायी न होकर कुछ समय तक ही रहेगा। ऐसे में कोरोना की वापिसी की आशंका बनी रहेगी। जैसी कि खबरें आ रही हैं उनके अनुसार तो चीन में भी इक्का-दुक्का नए मामले आये दिन निकल रहे हैं जबकि हांगकांग में तो 100 नये संक्रमित प्रतिदिन निकलने से वहां सीमित लॉक डाउन शुरू किया जा चुका है। ये देखते हुए भारत में भी वैक्सीन के भरोसे बैठे रहने की बजाय इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि कोरोना का सामुदायिक विस्तार न होने पाए वरना वैक्सीन आने तक हालात बेकाबू हो सकते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 22 July 2020

बिहार और असम में बाढ़ की समस्या स्थायी तो इलाज अस्थायी क्यों



वैसे ये कोई नई बात नहीं है । जिस तरह हर साल बरसात आती है उसी तरह बिहार और असम में बाढ़ का आना भी एक परंपरा है । इसका एक कारण तो अति वृष्टि होता है लेकिन दूसरा है नेपाल और तिब्बत से आने वाली नदियों में अतिरिक्त जल का प्रवाह  । इन दिनों भी दोनों राज्य बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे हैं । अनेक जिलों में दूर - दूर तक  केवल और केवल पानी ही दिखाई देता है । समाचार माध्यमों के जरिये जो चित्र देखने मिल रहे हैं वे भयावह होने के अलावा आपदा प्रबंधों का खोखलापन साबित करने के लिए पर्याप्त हैं । कहा जाता है कि इसके पीछे नेपाल और चीन का भारत विरोधी रवैया भी है ।  लेकिन बिहार और असम में बरसात के दौरान प्रति वर्ष पैदा होने वाले हालात से ये प्रश्न पैदा होता है कि क्या इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं  है ? बताने की जरूरत नहीं है कि बाढ़ की वजह से इन दोनों राज्यों के बड़े हिस्से में जनजीवन पूरी तरह अस्त - व्यस्त होने के साथ ही लोगों की घर - गृहस्थी बर्बाद हो जाती है । कच्चे मकान और झोपड़ी ही नहीं  पक्के  घरों में रह  रहे लोगों को भी खून के आंसू रोना पड़ते हैं । खेतों में पानी भरने से जहां अगली फसल का काम प्रभावित होता है वहीं उद्योग - व्यापार भी  चौपट होकर रह जाते हैं । राहत और पुनर्वास के काम में पूरा सरकारी अमला जुट जाता है । करोड़ों - अरबों रूपये खर्च होते हैं । जमकर राजनीति होती है और नेताओं के हवाई  सर्वेक्षण भी । विपक्ष सरकार पर आरोपों की बौछार करता है तो सत्ता में बैठे महानुभाव पिछली सरकारों पर जिम्मेदारी डालकर बच निकलने का प्रयास करते हैं । और इसी के चलते बरसात विदा हो जाती  है , जिसके बाद जैसे थे की स्थितियां बन जाती है । ये सिलसिला न जाने कब से चला आ रहा है । ये कहना तो गलत होगा कि केंद्र और राज्य सरकार्रों ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया किन्तु ये बात पूरी तरह सही है कि जितना होना चाहिये था उतना नहीं  किया जा सका । और जो हुआ वह भी बढ़ती आबादी के सामने कम ही है । लेकिन ऐसे में सवाल ये है कि हर  साल करोड़ों ही नहीं अरबों का  नुकसान होने के बाद भी  समस्या के स्थायी  समाधान के बारे के में क्यों नहीं  सोचा जाता और यदि सोचा भी गया तो फिर उस पर अमल क्यों नहीं  हुआ या कितना हुआ  ? इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं दुनिया के लगभग सभी देशों में आती हैं । अमेरिका तक इनसे बच नहीं पाता । अति हिमपात , बाढ़ , समुद्री तूफ़ान , जंगलों की  आग जैसी विभीषिकाएँ गाहे - बगाहे वहां  आती रहती हैं । जन - धन की हानि के साथ ही समूची  व्यवस्था चरमरा जाती है किन्तु आपदा के जाते ही वहां भविष्य के लिए नए सिरे से उपाय किये जाते हैं । दुर्भाग्य से हमारे यहाँ  आपदा प्रबन्धन अभी भी चींटी की चाल से चलता देखा जा सकता है । बिहार और असम को एक बार छोड़ भी दें तो देश की व्यवसायिक राजधानी कही जाने वाली मुम्बई में प्रतिवर्ष बरसात के दौरान  जल भराव होता है जिससे मुम्बई ठहर जाती है । लेकिन इस समस्या को हल करने के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं  किया जाता जिससे लगे कि महाराष्ट्र सरकार अथवा मुम्बई की  महानगरपालिका पिछली गलतियों से सबक लेकर भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति  को रोकने के प्रति गंभीर और ईमानदार हो । जहां तक बिहार और असम की बात है तो ये समस्या चूँकि इनके साथ स्थायी तौर पर जुड़ी  है , तब बुद्धिमत्ता इसी में है कि समय रहते ही वहां राहत और पुनर्वास के इंतजाम किये जाने के साथ ही जलप्लावन से गम्भीर रूप से प्रभावित होने वाले स्थानों पर बसे लोगों को अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह पर बसाने की तैयारी भी की जानी चाहिए । ये बात तो सही है कि गरीबों की  विशाल संख्या के लिए वैकल्पिक आवासीय व्यवस्था करना कोई खेल नहीं है किन्तु कभी न कभी तो ये करना ही पड़ेगा । इस काम में पैसा भी काफ़ी खर्च होगा लेकिन हर साल बाढ़ से निजी और सार्वजनिक सम्पति के नुकसान के साथ ही राहत और पुनर्वास पर सरकार जितना खर्च करती है वह सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसा है । बेहतर होगा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के प्रति तदर्थवादी रवैया त्यागकर स्थायी  समाधान की दिशा में कदम बढ़ाये जाएं । दरअसल हमारे देश में आपदाएं भी नेताओं  और नौकरशाहों के लिए लाभ का सौदा होती हैं । शायद यही  वजह होगी उन्हें  साल दर  साल बनाये रखने में शासन और प्रशासन की रूचि बनी रहती है । स्व.राजीव गांधी भले  न रहे हों लेकिन उपर से चले 1 रुपये के नीचे आते तक घटते - घटते 15 पैसे रह जाने  की संस्कृति आज भी बदस्तूर जारी है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 July 2020

कोरोना के चरमोत्कर्ष में चुनाव के बारे में सोचना ही गलत



चुनाव आयोग ने गत दिवस मप्र विधान सभा के दो दर्जन उपचुनाव सितम्बर के अंत तक करवाने की बात कही। इनमें से कुछ सीटें ऐसी हैं जिन्हें रिक्त हुए पहले ही छह महीने बीत चुके हैं। आयोग अपने संवैधानिक दायित्व के निर्वहन के प्रति सजग और सक्रिय रहे ये बहुत ही अच्छी बात है। भारत के चुनाव आयोग की कार्यकुशलता पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। विभिन्नता से भरे देश में जहाँ राजनीतिक और सामाजिक वातावरण प्रान्त दर प्रान्त बदल जाता है वहां चुनाव जैसी जटिल प्रक्रिया को सुचारू तरीके से पूरा कर लेना निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। लेकिन मौजूदा हालातों में जब कोरोना नामक वायरस के कारण पूरी दुनिया ठहर सी गयी है तब चुनाव प्रक्रिया को कुछ समय के लिए टालना समय की मांग है। मप्र में कोरोना के तेजी से फ़ैलाव को देखते हुए दोबारा लॉक डाउन लागू करने पर विचार हो रहा है। कल ही राज्य सरकार ने दो दिन तक पूरे प्रदेश में साप्ताहिक लॉक डाउन की मंजूरी दी। प्रदेश के जिन अंचलों में उपचुनाव प्रस्तावित हैं वहां कोरोना के दर्जनों नए मामले रोज आने के कारण प्रशासन वैसे ही परेशान है। बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी भी कोरोना की चपेट में आते जा रहे हैं। इसे देखते हुए ये निर्णय भी किया गया कि जिस दफ्तर में कोई भी संक्रमित पाया जाएगा उसे कुछ दिन तक बंद रखा जाए। ऐसे में यदि सितम्बर के अंत तक चुनाव आयोग उपचुनाव करवाने की बात कह रहा है तो राज्य सरकार के साथ सभी राजनीतिक दलों को मिलकर उससे आग्रह करना चाहिए कि वह स्थितियां सामान्य होने तक प्रतीक्षा करे। राष्ट्रीय स्तर पर भी देखें तो अक्टूबर-नवंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं। आयोग अपनी तैयारियों में जुटा हुआ है। जबकि राज्य में पहले कोरोना का विस्फोट हुआ और अब बाढ़ ने तबाही मचा दी है। राज्य में कोरोना जांच का कार्य जिस कछुआ चाल से चल रहा है उसकी वजह से हालात बेकाबू होने लगे हैं। मौतों का आंकड़ा भी लगातार ऊपर जा रहा है। आने वाले दिनों में बिहार और उसका पड़ोसी राज्य बंगाल कोरोना संक्रमण के मामले में देश में अग्रणी होने की तरफ  बढ़ रहे हैं। दोनों में घनी आबादी के बावजूद स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत ही सामान्य स्तर की हैं। ऐसे में बिहार विधानसभा के चुनाव अक्टूबर-नवम्बर में करवाने का निर्णय किसी भी स्थिति में संभव नहीं लगता। इस बारे में सबसे प्रमुख बात ये है कि चुनाव आयोग राज्य के प्रशासनिक ढांचे के मार्फत ही समूची प्रक्रिया का संचालन करता है। निष्पक्षता बनाये रखने के लिए दूसरे राज्यों से पर्यवेक्षक और सुरक्षा बल भी बुलाये जाते हैं। सरकार का पूरा ध्यान चुनाव प्रबंधन पर केन्द्रित हो जाता है। ये सब देखते हुए मौजूदा हालातों में चुनाव का संचालन किसी तरह से व्यवहारिक नहीं कहा जाएगा। जहाँ तक बात संविधान के प्रावधानों का पालन करने की है तो आम जनता की जि़न्दगी की रक्षा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। संविधान जिन लोगों के लिए बना है क्या उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य महत्वपूर्ण नहीं है ? देश में कोरोना संक्रमण के सामुदायिक फैलाव का खतरा व्यक्त किया जा रहा है। लगभग 40 हजार नए मरीज रोज निकल रहे हैं। नए-नए हॉट स्पॉट सामने आ रहे हैं। टेस्टिंग की संख्या अपर्याप्त होने से भी संक्रमण को नियंत्रित करने में कठिनाई आ रही हैं। शहरों तक सीमित कोरोना कस्बों से होते हुए ग्रामीण क्षेत्रों तक भी जा पहुंचा हैं। चिकित्सा जगत इस बात को लेकर चिंतित है कि ग्रामीण अंचल में संक्रमण और बढ़ा तब हालत बेकाबू हो जाएंगे। समूचे परिदृश्य पर नजर दौड़ाने के बाद ये पक्के तौर पर मान लिया गया है कि अगस्त और सितम्बर में संक्रमण अपने चरमोत्कर्ष पर होगा और ऐसे में सरकारी अमला जन स्वास्थ्य से ध्यान हटाकर चुनाव प्रबंधन में लिप्त हो जाये, इससे बड़ा जनविरोधी काम दूसरा नहीं हो सकता। जो कर्मचारी चुनाव ड्यूटी में तैनात होंगे वे कोरोना से बचे रहेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। ऐसे में बेहतर होगा केंद्र सरकार स्वास्थ्य आपातकाल के मद्देनजर चुनाव आयोग को तब तक के लिए चुनाव रोकने के लिये कहे जब तक कोरोना की वैक्सीन नहीं आ जाती। चूँकि दिसम्बर तक पूरी दुनिया में अनेक देश कोरोना वैक्सीन का उत्पादन करने की स्थिति में आ जायेंगे और भारत उसका बड़ा केंद्र होगा तब फिर चुनाव के बारे में सोचना उचित रहेगा। उल्लेखनीय है नेताओं द्वारा तो वर्चुअल रैली के माध्यम से प्रचार कर लिया जाएगा लेकिन मतदाता को तो मतदान केंद्र तक जाना ही होगा। लॉक डाउन हटते ही लोगो ने जिस तरह की लापरवाही का परिचय दिया उसे देखने के बाद चुनाव करवाना हजारों लोगों के जिंदगियों को खतरे में डालने से कम नहीं होगा।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 20 July 2020

राम मंदिर : स्वाधीन भारत के इतिहास का नया अध्याय



अयोध्या में राममंदिर के भूमि पूजन की तारीख तय होने से लम्बे समय से चली आ रही अनिश्चितता खत्म हो गयी। आगामी 5 अगस्त को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अयोध्या जाकर मंदिर निर्माण का विधिवत शुभारंभ करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद यद्यपि केंद्र सरकार ने न्यास के गठन के साथ ही भूमि आवंटन की प्रक्रिया भी त्वरित गति से पूरी कर दी थी। अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के साथ ही भगवान राम की इस प्राचीनतम नगरी को विश्वस्तरीय बनाने की भी महत्वाकांक्षी योजना तैयार की गयी है। यूँ तो ये नगरी सदियों से दुनिया भर में फैले करोड़ों सनातन धर्मियों के लिए आस्था का केंद्र रही किन्तु इसका मौजूदा स्वरूप आकर्षित नहीं करता। पूरी अयोध्या घूम लेने के बाद लगता ही नहीं कि इसका अतीत इतना गौरवशाली रहा होगा। हालाँकि 2017 में योगी सरकार के आने के बाद इस धार्मिक नगरी को विकसित करने का काम शुरू हो गया। विशेष रूप से दीपावली की रात्रि लाखों दीपमालिकाओं से सरयू तट को आलोकित करने जैसे आयोजन ने अयोध्या के आकर्षण में वृद्धि की है। लेकिन रामलला के अस्थायी मंदिर में विराजमान होने एवं भव्य मंदिर के निर्माण को लेकर चली आ रही अनिश्चितता के कारण राम भक्तों को निराशा और गुस्सा दोनों आते थे। अब चूंकि मंदिर निर्माण का काम शुरू होने के साथ ही अयोध्या के सर्वतोमुखी विकास की विस्तृत कार्ययोजना भी जमीन पर उतर आयेगी इसलिए ये उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ वर्षों में अयोध्या न सिर्फ  दुनिया भर के राम भक्तों के लिए श्रद्धा का केद्र बनेगी अपितु भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के इच्छुक शोध कार्ताओं के लिए भी एक प्रमुख स्थल होगी। अभी तक राम मन्दिर को लेकर होने वाली राजनीति को भी विराम लग जाएगा। चुनाव में भाजपा मंदिर वहीं बनायेंगे का नारा गुंजाती थी तो विपक्ष कटाक्ष करता था पर तारीख नहीं बतायेंगे। गत दिवस श्री मोदी द्वारा 5 अगस्त को अयोध्या आने की पुष्टि किये जाते ही अब एक नया दौर शुरू होने जा रहा है। जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार राम मंदिर वाकई विश्वस्तरीय एहसास करवाएगा। अयोध्या को अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार विकसित करने की कार्य योजना तैयार की गयी है उसके मुताबिक़ उसको देश के सबसे बड़े पर्यटन स्थल के तौर पर तैयार किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के अलावा पर्यटकों के लिए सभी अत्याधुनिक सुविधाएँ भी उपलब्ध रहेंगी। इस बारे में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि लखनऊ स्थित अयोध्या शोध संस्थान ने भगवान राम की वैश्विक यात्रा संबंधी जो तथ्य एकत्र किये हैं वे राम के वैश्विक प्रभाव के जीवंत प्रमाण हैं। विश्व का एक भी ऐसा कोना नहीं है जहाँ भगवान राम संबंधी कोई दस्तावेज, पुरातात्विक अवशेष या आस्था के प्रमाण मौजूद न हों। उक्त संस्थान के निदेशक डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह ने बीते कुछ वर्षों में जो जानकारी एकत्र की है वह उन तमाम इतिहासकारों के दावों को रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक बना देती है जो कभी राम को ही कपोल कल्पना बताने से नहीं चूकते तो कभी आर्यों के विदेशी होने जैसी बातें उड़ाकर भारत के प्राचीनतम राष्ट्र होने को ही नकारते हैं। भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार के बारे में डॉ. सिंह ने जो प्रामाणिक कार्य किया है उसके मूल्यांकन का सही समय भी आ गया लगता है। और उस दृष्टि से राम मन्दिर के निर्माण का जो अकादमिक महत्व है वह पूरे विश्व में भारत और उसकी अति समृद्ध सनातन संस्कृति के महत्व को नए सिरे से स्वीकृति दिलवाने में सहायक बनेगा। सबसे बड़ी बात ये होगी कि अयोध्या का विकास उप्र के पूर्वी हिस्से को विकास के मुहाने पर ला खड़ा कर देगा। हालांकि आज भी कुछ ऐसे नेता हैं जिन्हें इस ऐतिहासिक कार्य से भी चिढ़ हो रही है। राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने व्यंग्य कसते हुए कहा कि मंदिर निर्माण से कोरोना ठीक किया जाएगा। हो सकता है आगे और भी आलोचनाएँ सुनने मिलें लेकिन कोई कुछ भी कहे राम मंदिर का निर्माण शुरू होना स्वाधीन भारत के इतिहास में एक नये अध्याय का प्रारंभ होगा। अयोध्या का विकसित स्वरूप भारत के प्राचीन सांस्कृतिक गौरव और वैभव की झलक सारी दुनिया को दिखाने में सहायक बनेगा। राम की वैश्विक प्रासंगिकता भी इस मंदिर निर्माण के साथ ही एक बार फिर साबित होगी। अयोध्या राष्ट्रीय एकता के साथ ही दुनिया भर में फैले हिन्दुओं के लिए अपनी मातृभूमि से भावनात्मक तौर पर जुडऩे का माध्यम बन सकेगी ये विश्वास और प्रबल हो रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 19 July 2020

लिफाफों की शक्ल में सामने आई वर्दीधारियों की निर्लज्जता ! क्या कभी भ्रष्टाचार पर भी लॉक डाउन होगा ?





अपने  बेटे - बेटी की शादी में यदि पुलिस अधिकारी अपने अधीनस्थों से उपहार या व्यवहार स्वरूप मिलने वाले लिफाफे लेता कैमरे में कैद हो जाये तो इसे सामान्य शिष्टाचार माना जायेगा | इसी तरह यदि कोई  मातहत कर्मचारी या  अधिकारी अपने साहब के घर दीवाली पर  बधाई देते समय महंगी मिठाई या मेवे का डिब्बा लेकर जाए तो वह भी सहज सामाजिक सौजन्यता मानी जाती है | लेकिन जब आईजी स्तर का अधिकारी किसी सरकारी विश्रामगृह में बैठकर वर्दीधारी पुलिस वालों से लाइन लगवाकर एक के बाद एक बंद लिफ़ाफ़े लेता जाए और उन्हें तत्काल ब्रीफकेस में रखते हुए उन पर कुछ लिख ले तो उसे सामान्य शिष्टाचार की बजाय पहली नजर में भ्रष्टाचार ही माना जायेगा |  

गत शनिवार को मप्र  के परिवहन आयुक्त वही.मधुकुमार  का पुराना वीडियो तेजी से प्रसारित हुआ | जिसमें वे कमरे में सोफे पर बैठे हुए हैं | बाहर से एक के बाद एक पुलिस की वर्दी पहिने लोग आकर उन्हें सैल्यूट मारते और हाथ में लिफाफा देकर चले जाते हैं | किसी - किसी से वे हालचाल भी पूछते दिखते हैं | एक के लौटने और अगले के अंदर आने के पहले वे लिफ़ाफ़े को ब्रीफकेस में रखते और उस पर पेन से कुछ लिखते नजर आये | एक वर्दीधारी ने तो उनके चरण स्पर्श भी  किये |

वीडियो कई बरस पहले का बताया जा रहा है | उस वक्त वे आईजी के दायित्व में थे | 
परिवहन आयुक्त का पद  किसी भी राज्य में मोटी मलाई वाला माना जाता है | आबकारी आयुक्त भी इसी के टक्कर का होता है | राजनीतिक जगत में चलने वाली चर्चाओं के अनुसार ये  दोनों विभाग सत्तारूढ़ लोगों के लिए कुबेर के खजाने जैसे होते हैं | इसका आशय अपने आप में स्पष्ट है |

श्री मधुकुमार शानिवार की रात को ही परिवहन आयुक्त के पद से हटाकर राज्य पुलिस मुख्यालय में पदस्थ कर दिए गए | चूंकि वे भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं इसलिए उनके बारे में राज्य सरकार कोई बड़ा फैसला करने से पहले सोच - समझकर ही आगे बढ़ेगी |  और फिर  उसे आईपीएस लॉबी की  नाराजगी की चिंता करना भी तो जरूरी है | इस बारे में चौंकाने वाली बात ये है कि श्री मधुकुमार की छवि एक ईमानदार पुलिस अधिकारी की  बताई जाती है | अभी तक उनकी कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आई । वहीं वीडियो की फोरेंसिक जांच होना भी बाकी है। 

राजनेता होते तो अब तक वीडियो से छेड़छाड़ का हल्ला  मचाते हुए खुद को राजा हरिश्चंद्र का कलियुगी अवतार बताने का ढोल  पीटने लगते | जाति के नाम पर प्रताड़ित किये जाने का शोर भी सुनाई देने लगता | लेकिन अधिकारियों की  कुछ बाध्यताएं होती  हैं | शायद इसीलिए श्री मधुकुमार समाचार माध्यमों से कुछ कहने को उपलब्ध नहीं हुए |

वैसे वीडियो जितना स्पष्ट है उसे देखने के बाद वह पूरी तरह  असली प्रतीत होता है | श्री मधुकुमार को जानने वाले प्रदेश में हजारों लोग होंगे | अब तक कोई भी उनके बचाव में नहीं आया | रविवार बीच में आ जाने से शासन का रुख भी स्पष्ट नहीं  हो सका | लेकिन वीडियो सार्वजनिक होते ही राज्य सरकार ने बिना देर किये परिवहन आयुक्त पद से उनको छू करते हुए पुलिस मुख्यालय में बिठा दिया | इसे एक तरह का दंड ही माना जाता है | वीडियो की  जांच होने तक हो सकता है शर्मिंदगी से बचने के लिए वे अवकाश पर चले जाएं | या सरकार खुद उन्हें छुट्टी पर जाने कह दे जिससे समाचार माध्यमों  के सवालों का जवाब देने से बचा जा सके |

अभी तक का अनुभव बताता है कि बड़े ओहदों पर बैठने वाले नौकरशाहों पर सरकार के किसी ताकतवर का वरदहस्त होता है |  इंदौर के चर्चित हनी ट्रैप कांड में सैकड़ों टेप बरामद होने की  जानकारी आई थी लेकिन अभी तक उसमें किस -- किस की करतूतें छिपी हैं ये सामने नहीं आया | उस कांड के सूत्रधार जीतू सोनी का आर्थिक साम्राज्य चौपट कर दिया गया किन्तु किसी राजनेता या अफसर पर अभी तक एक भी छींटा नहीं पड़ा |

इसी तरह भोपाल में मुख्यमंत्री बंगले पर ही नजर आने वाले नाटे कद के एक आईएएस अधिकारी की एक कॉल गर्ल नुमा किसी लड़की से फोन पर हुई बातचीत तो यू ट्यूब तक पर आ गई |  लेकिन उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा | श्री मधुकुमार के  मामले में भी क्या होगा ये कहना मुश्किल है क्योंकि जांचकर्ता तो उन्हीं के भाई - बन्द  ही तो होंगे |

लेकिन इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि आम जनमानस संदर्भित वीडियो पर अविश्वास करने को  तैयार नहीं लगता | फिल्मों में तो इस तरह के दृश्य आम हैं जिन पर पुलिस भी ऐतराज करने से बचती है ।

दरअसल ये  प्रशासन का वह चेहरा है जिस पर शराफत , कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी का मुलम्मा चढ़ा रहता है | लेकिन ज्योंही वह उतरता है तब लोगों को  पता चलता है कि असलियत क्या है ?

सबसे बड़ी बात ये है कि इतने बड़े ओहदे पर बैठने के बाद भी बेहद फूहड़पन और निर्लज्जता से लिफ़ाफ़े लिए गए | कुछ लोगों का ये भी मानना है कि उक्त वीडियो के जरिये कोई श्री मधुकुमार का भयादोहन करते हुए उनसे धन ऐंठता रहा होगा और जब आपूर्ति रुकी तब उसने उक्त वीडियो सार्वजनिक कर दिया हो | सच्चाई तो  श्री मधुकुमार ही बता सकेंगे | यदि वे निर्दोष हैं तब उन्हें शासन से अनुमति लेकर तत्काल अपनी सफाई जनता के सामने रखना चाहिए | हालाँकि अधिक सम्भावना तो यही है कि वे ऐसा करेंगे नहीं और खुदा न खास्ता कर भी दिया तो भी कोई उस पर भरोसा नहीं करेगा  |

लेकिन विचारणीय सवाल ये है कि देश की सबसे कठिन और श्रेष्ठ चयन प्रक्रिया से सफलतापूर्वक गुजरते हुए आईएएस - आईपीएस बनने वाले ये अधिकारी किस हद तक चले जाते हैं ?  उन्हें अपने पद और उससे जुड़ी प्रतिष्ठा की धेले भर भी परवाह नहीं रहती | उससे भी बड़ी बात ये कि ऐसा करते हुए पकड़े जाने के बाद उनकी पत्नी और बच्चों पर क्या गुजरती होगी इसका विचार भी वे क्या कभी नहीं करते ? यद्यपि पत्नी ये न जानती हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि  उसे भी घर आने वाली लक्ष्मी से परहेज नहीं रहता |

राजस्थान उच्च न्यायालय ने कुछ वर्ष पूर्व एक घूसखोर अधिकारी को सजा देते हुए उसकी पत्नी को भी दण्डित किया था | न्यायाधीश का मानना रहा कि घूस के पैसे से ऐश करने में चूँकि पत्नी भी शामिल रही इसलिए उसे भी दंड का भागीदार बनना चाहिए  | मप्र के ही एक आईएएस दम्पत्ति करोड़ों की अवैध कमाई के चलते न सिर्फ नौकरी बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा भी खो बैठे | आयु के जिस दौर में अपने जीवन का संध्याकाल गुजारना था , उसमें वे कोर्ट - कचहरी के चक्कर काट रहे हैं  | काली कमाई भी गई और जो है वह भी वकीलों की भेंट चढ़ जाएगी  | मप्र विद्युत मंडल के एक सचिव थे विनायक  ब्राह्मणकर | वे भी अवैध कमाई में फंसने के बाद अदालतों के चक्कर लगाते - लगाते आत्महत्या कर बैठे |

संदर्भित वीडियो देखने के बाद कानपुर के चर्चित विकास दुबे के प्रकरण की याद आ गई | और ये लगा कि  उच्च पदों पर विराजमान पुलिस अधिकारियों  की घूसखोरी ही निचले स्तर पर भ्रष्टाचार को पनपाती है | जिसकी  कोख से ऐसे अपराधी पैदा होते हैं जो वक्त आने पर वर्दीधारियों तक को नहीं  छोड़ते |

हालाँकि ये सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा क्योंकि बेईमानी से अर्जित  राशि का सफर कई मुकामों से होता हुआ ऊँचाई तक पहुंचता है | ऐसा लगता है कि मोटी चमड़ी के मामले में तो अब गेंडे भी भ्रष्ट लोगों के सामने मात खा जायेंगे | इस तरह के काण्ड तभी रुक सकते हैं जब ये भय हो कि ऊपर वाला सब देख रहा है लेकिन जब वही सब कुछ जानकर भी अनजान बना रहे तब भ्रष्टाचार की अमर बेल यूँ ही बढ़ती  रहेगी |

कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए उसकी चेन तोड़ने की बात कही जाती है लेकिन भ्रष्टाचार की चेन तोड़ने के लिए कभी किसी ने लॉक डाउन जैसा कोई उपाय नहीं सुझाया |

एक डिटर्जेंट के विज्ञापन की पंच लाइन है : - तो दाग अच्छे हैं | 

हमारे शासकों और प्रशासकों को  भी दाग अच्छे लगते हैं |

Saturday 18 July 2020

पहला दौर जीतने के बाद धैर्य रखना चाहिए था गहलोत को



राजस्थान  का राजनीतिक रण जिस दिशा में बढ़ रहा है उसके कारण संवैधानिक संकट उत्पन्न हो सकता है। मुख्यमंत्री  अशोक गहलोत ने अपने बहुमत का जुगाड़ करते ही जिस तरह के तेवर दिखाए उससे कांग्रेस  आलाकमान भी हतप्रभ है। सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री के साथ ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से  हटाने के अलावा उनके साथ बागी हुए दो मंत्रियों की छुट्टी के बाद श्री गहलोत का रास्ता साफ़ हो चुका था। ये बात स्पष्ट  हो चुकी है कि श्री पायलट के पास सरकार गिराने या भाजपा के सहयोग से बनाने लायक संख्याबल नहीं है। और अभी तक की स्थिति में वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। बजाय बागी विधायकों को योग्यता संबंधी नोटिस देने के श्री गहलोत बेहतर होता विधानसभा का सत्र बुलवाकर अपना बहुमत साबित करने का दांव  चलते और तब पायलट खेमा पार्टी व्हिप के फेर में फंसकर या तो सरकार का समर्थन करता या उल्लंघन करने पर सदस्यता गंवाता। इसी तरह जब कांग्रेस हाईकमान सचिन पायलट को माफ़ करने के ऐलानिया आश्वासन के साथ गुस्सा थूककर घर लौट आने के लिए पुचकारने में लगा था तभी श्री गहलोत ने अपने बयान के जरिये जहर बुझे तीर  छोड़कर हाईकमान को झटका दे दिया। उनकी रणनीति इस बारे में बहुत स्पष्ट है। वे समझ चुके हैं कि कांग्रेस की केन्द्रीय राजनीति में वे अपरिहार्य हैं। जैसी कि चर्चा है पार्टी के केन्द्रीय कार्यलय का खर्च राजस्थान से ही पुजाया जाता है। केन्द्रीय नेतृत्व में अब इतना दम नहीं है कि वह किसी राज्य के मुख्यमंत्री को चलता कर सके।  इसमें दो मत नहीं हैं कि कांग्रेस पार्टी आज भी गांधी परिवार के इर्द - गिर्द ही मंडराती है किन्तु उसका रौब-रुतबा पहले जैसा नहीं रहा। इसकी वजह साफ है। अव्वल तो 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद राजस्थान और मप्र में राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य  सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं  बन सके। सचिन को तो खैर उपमुख्यमंत्री  की गद्दी ही नसीब हो गई जबकि श्री सिंधिया लोकसभा चुनाव हारकर पूरी तरह हाशिये पर आ गये। राहुल की नजदीकी के बावजूद जब प्रदेश में उनकी उपेक्षा जारी रही तब वे बगावत कर बैठे और कमलनाथ सरकार धराशायी हो गयी। राजस्थान में भी जिन सचिन पायलट ने बगावत का झंडा उठाया वे भी टीम राहुल के अन्तरंग सदस्य थे। इन दो उदाहरणों से स्पष्ट हो गया कि राहुल गांधी के अत्यंत करीबी युवा नेताओं का ही कांग्रेस से मोहभंग होने लगा क्योंकि वरिष्ठ नेता उन्हें अपेक्षित महत्व नहीं देते वहीं  राहुल भी उनका संरक्षण करने में विफल रहे हैं। गांधी परिवार के अत्यंत करीबी माने जाने वाले कुछ वरिष्ठ नेतागण  भी इस बात से रुष्ट हैं कि पार्टी का प्रथम परिवार धीरे - धीरे अपनी पकड़ खो रहा है। ज्योतिरादित्य के बाद साचिन ने जिस तरह से सोनिया गांधी के अलावा राहुल और प्रियंका वाड्रा की उपेक्षा की वह साधारण बात नहीं है। अशोक गहलोत इस कमजोरी को भांप गए और उन्होंने बिना समय गँवाए श्री पायलट की  वापिसी  के सारे रास्ते बंद कर  दिए। ये भी चर्चा है कि इस खेल में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का भी गुप्त सहयोग मिल रहा है जो  इस दौरान पूरी तरह से  चुप्पी साधे हुए हैं। फिर भी  पायलट गुट की बगावत को काफी हद तक बेअसर कर देने के बाद श्री गहलोत को संभलकर कदम आगे बढ़ाना थे किन्तु  लगता है वे अति आत्मविश्वास का शिकार हो गये हैं। विधायकों  की खरीद फरोख्त संबंधी कुछ ऑडियो टेप को आधार बनाकर उनकी सरकार ने दो बागी  कांग्रेस विधायकों के साथ ही केन्द्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के विरुद्ध भी मामला पंजीबद्ध कर  उनसे पूछताछ के लिए विशेष जांच दल भेज दिया। यही नहीं तो उनकी गिरफ्तारी की मांग भी उठवा दी। स्मरणीय है श्री शेखावत ने ही जोधपुर लोकसभा सीट पर श्री गहलोत के पुत्र वैभव को रिकार्ड मतों  से हराया था। इस तरह की कार्रवाई से गहलोत परिवार की खीझ ही सामने आ रही है। ऑडियो टेप को लेकर की जा रही कार्रवाई धैर्य के साथ होती तो वह निष्कर्ष तक पहुंचती। लेकिन श्री गहलोत लगता है एक साथ अनेक मोर्चे खोल बैठे जो उनकी पूरी बढ़त को मटियामेट कर  सकती  है। सचिन पायलट का अभियान तो उन्होंने बड़ी ही चतुराई से फुस्स कर दिया किन्तु ये दूसरा मोर्चा उनके लिए मुसीबत का सबब बन सकता है। अभी तक भाजपा दूर से बैठकर नजारा देख रही थी। लेकिन मुख्यमंत्री ने अति उत्साह में जो कदम उठा लिए उनके बाद भाजपा हाईकमान भी यदि मैदान में आ गया तब श्री गहलोत की जादूगरी बेअसर होकर रह जायेगी। राजनीति में आक्रामक होना बुरा नहीं है लेकिन ये ध्यान भी रखना चाहिए कि आपके तीर इधर-उधर न चले जाएँ। वैसे राजस्थान की मौजूदा राजनीति में एक से बढ़कर एक पैंतरे देखने मिल रहे हैं परन्तु  मुख्यमंत्री ने बिना सोचे - समझे हमले जारी रखे तब उनका दम जल्दी फूलने का खतरा है।  उनको ये ध्यान रखना चाहिए कि सचिन की वापिसी में रोड़े अटकाकर उनने कांग्रेस  हाईकमान को भी छेड़ दिया है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 17 July 2020

न्याय की देवी को काली पट्टी और मी लॉर्ड को चश्मे के 50 हजार मुंशी प्रेमचन्द के पंच परमेश्वर याद आ गये





देश में विधायिका और  कार्यपालिका में बैठे कथित जनसेवकों द्वारा सरकार के पैसों पर किये जाने ऐश के बारे में जनता की आवाज तो नक्कारखाने में तूती समान होकर रह जाती है | जिन्हें जनता के बारे में सोचना  और कुछ करना चाहिये वे नेता और नौकरशाह आज भी अंग्रेजों के दौर वाली ठसक दिखाने से बाज नहीं आते | इसीलिये देश के भविष्य के लिए चिंतित हर जिम्मेदार नागरिक न्यायपालिका की तरफ बड़ी ही  उम्मीद से निहारता है | और ये कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि न्यायापालिका ने देश हित में अनेक ऐतिहासिक फैसले सुनाकर लोकतांत्रिक मर्यादाओं  और मूल्यों की रक्षा की | अमूमन  देखा गया है कि कार्यपालिका और विधायिका जिन पेचीदा मामलों अथवा विवादों को छूने से भी कतराती हैं  न्यायपालिका साहस दिखाते हुए उनका हल निकाल देती है |

ये भी  संतोष  और सौभाग्य का विषय है कि संसद और विधानसभा के फैसलों को मानने से इंकार करने की जुर्रत करने वाले भी न्यायपालिका के अप्रिय लगने वाले फैसलों को  सिर झुकाकर मंजूर कर लेते  हैं  | 

अयोध्या की राम जन्मभूमि का विवाद सुलझाने की हिम्मत न देश की संसद की हुई और न ही किसी प्रधानमंत्री ने इसे हल करने का  साहस जुटाया  | राष्ट्रीय  राजनीति को गहराई  तक प्रभावित करने वाले उक्त मुद्दे पर जिस तरह का भावनात्मक ध्रुवीकरण हुआ उसके बाद राजनीतिक समाधान की सभी संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं |  लेकिन राजनीतिक पार्टियों के अलावा धार्मिक संगठन और साधु -संत , मुल्ला - मौलवी सभी  ने एक स्वर से कह दिया कि  सर्वोच्च न्यायालय जो फैसला देगा उसे सभी स्वीकार कर लेंगे और हुआ भी यही |

लेकिन न्यायपालिका के प्रति बिना शर्त सम्मान में तब कमी आती है जब कतिपय आचरण और क्रियाकलाप उसके श्रेष्ठि भाव का परिचय देते हैं | न्यायपालिका में निचले स्तर पर तो भ्रष्टाचार है ही किन्तु जब उच्च स्तर पर भी उसकी जानकारी  आती है तब दुःख के साथ चिंता  भी होने लगती है | बाहर के लोग आरोप लगायें  तो बात नजरअंदाज भी की जा सकती है लेकिन जब न्यायपालिका की सर्वोच्च आसंदी पर विराजमान माननीय एक दूसरे के  विरुद्ध मोर्चा  खोकर बैठ जाएँ तब ये सोचना पड़ता है कि पानी सिर से ऊपर आने को है | उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने तो सर्वोच्च न्यायालय के  न्यायाधीशों तक के विरुद्ध मनमर्जी से आदेश पारित कर दिए | बाद में वे फरार हो गये और चेन्नई में पकड़े गए |

खैर , ये सब तो समाज में आये चारित्रिक  पतन या बदलाव के कारण सामान्य प्रतीत होने लगा है | आखिर न्यायाधीश भी तो इसी समाज और न्यायिक व्यवस्था से आते हैं जहाँ भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मानकर आंखें मूँद लेने की प्रवृत्ति हावी हो चुकी है | और यही वजह है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर आसीन मान्यवर भी  राजनेताओं की तरह राजसी ठाठ - बाट की अपेक्षा करने से बाज नहीं आते | उनके पद की गरिमा और महत्व को देखते हुए उन्हें अच्छा वेतन- भत्ते , आवास , नौकर - चाकर , सुरक्षा , चिकित्सा आदि मिलना जरूरी है | सेवा निवृत्ति के बाद भी उन्हें  शासकीय अधिकारियों जैसी या उससे अधिक सुविधाएं मिलना भी काफ़ी हद तक ठीक ही है | न्यायाधीशों की शान में गुस्ताखी करने की हिम्मत अच्छे - अच्छों की नहीं  पड़ती | यहाँ तक कि छुटभैये नेता से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक की बखिया उधेड़ने वाले समाचार माध्यम भी , मी लॉर्ड की  बात आते ही दायें - बाएं होने लगते हैं |

इसी संदर्भ में  बॉम्बे  उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को महाराष्ट्र सरकार के एक निर्णय के अंतर्गत  चश्मा बनवाने हेतु प्रतिवर्ष 50 हजार रु. की  राशि मंजूर किया जाना न सिर्फ आश्चर्यचकित  करने अपितु हंसने  को मजबूर करता है | उनकी  पत्नी और  आश्रित बच्चे भी इस व्यवस्था से लाभान्वित हो सकेंगे | इस बारे में पांच -  छः माह पहले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश और मुख्य सचिव अजॉय मेहता के बीच चर्चा हुई थी | आजकल श्री मेहता मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सलाहकार हैं |

सवाल ये नहीं है कि न्यायाधीशों की सेवा शर्तों के अनुसार उन्हें क्या मिलता है ? सवाल ये है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य के मुख्य न्यायाधीश और मुख्य सचिव  के बीच चश्मे जैसी बेहद मामूली चीज के लिए राशि के निर्धारण पर चर्चा हुई और उस पर लम्बे विचार - विमर्श के बाद सरकार ने अंततः प्रस्ताव पारित कर  दिया | कोई न्यायाधीश और उसकी पत्नी  तथा बच्चे कौन सा चश्मा लगायें और उसकी  कीमत क्या हो ये  उनकी निजी पसंद का मामला है | उनका इलाज सरकारी खर्च पर हो और उन्हें विशिष्ट व्यक्ति के तौर पर तमाम सुविधाएं  और सम्मान हासिल हों इसमें भी किसी को आपत्ति नहीं है लेकिन चिकित्सा सुविधा के तहत  चश्मे की कीमत तय करने के लिए माननीय मुख्य न्यायाधीश को मुख्य सचिव के साथ बैठना पड़ा ये शोचनीय है |  

पता नहीं ये व्यवस्था बाकी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में भी है या नहीं  किन्तु राज्य की न्यायपालिका और नौकरशाही का मुखिया बैठकर न्याय व्यवस्था में सुधार जैसे किसी विषय पर चर्चा करते तो वह स्वागतयोग्य होती  | लेकिन महज एक चश्मे  की कीमत हेतु दो दिग्गजों ने अपना समय खर्च किया ये हमारी न्याय  व्यवस्था और शासन प्रणाली दोनों के लिए गम्भीर विमर्श का विषय होना चाहिए |

मेरा आशय न्यायपालिका का मखौल उड़ाना बिलकुल नहीं है लेकिन इस तरह के शासकीय निर्णयों और उनमें न्यायपालिका के शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति की सक्रिय भूमिका से यदि आम जनता के बीच न्यायपालिका की निरंतर खराब हो रही छवि और गिर जाए तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जाना चाहिए | उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को मिलने वाला वेतन इतना कम नहीं है कि उन्हें अपने और पत्नी के साथ ही आश्रित बच्चों के लिए चश्मा जैसी मामूली चीज खरीदने के लिए सरकार का मुंह ताकना पड़े |और फिर प्रतिवर्ष 50 हजार रु. के चश्मा भत्ते की राशि का प्रावधान तो और चौंकाने वाला है | कल को ऐसी ही  सुविधा देश के सम्मानीय विधायक - सांसद  और उनके पीछे आला नौकरशाह भी हासिल करने लगें तब उनका  हाथ पकड़ने वाला कौन होगा ?

उल्लेखनीय है निःशुल्क नेत्र शिविरों में गरीबों के मोतियाबिंद ऑपरेशन हेतु सरकार तीन से चार हजार रु. प्रति मरीज बतौर अनुदान शिविर आयोजकों को देती है | उस आधार पर देखें तो बॉम्बे उच्च न्यायालय में तकरीबन 68 न्यायाधीश हैं | इसकी पीठ नागपुर , औरंगाबाद और गोवा  में है | साधारण बुद्धि वाला भी बता देगा कि इन न्यायाधीशों को चश्मा भत्ते के रूप में दी जाने वाली राशि से कितने गरीबों की आँख का मोतियाबिंद ठीक किया जा सकता है |

ऐसे समय में जब कोरोना  संकट के कारण   देश के सांसदों और  शासकीय कर्मियों के वेतन भत्ते कम कर दिए गए और सरकारी राजस्व गिर रहा है तब इस तरह के चश्मे भत्ते की स्वीकृति  आँखों में किरकिरी पैदा करने वाली है |

भारतीय फिल्मों में न्यायाधीश के  पीछे खड़ी न्याय की देवी रूपी प्रतिमा की आंख में पट्टी बांधी होती है | यदि यही स्थिति रही तो बड़ी बात नहीं आने वाले समय में न्याय की देवी की आँखों पर भी कोई ब्रांडेड चश्मा हो |

अनायास मुंशी प्रेमचंद की कालजयी  कहानी पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख जैसे पंच याद आ गये जो किसी सरकारी सुविधा के मोहताज हुए बगैर लम्बी - लम्बी  तारीखें दिये बिना ऐसा न्याय करते थे जिसमें दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता था |

लेकिन उनकी आँखों पर लोकलाज का चश्मा था , किसी सरकार का नहीं |

नेता और जनता नहीं माने तो बीमारी महामारी में बदल जायेगी



आखिरकार भारत में कोरोना 10 लाख  का आंकड़ा लांघ गया ।  हालांकि अभी तक ठीक होने वालों का राष्ट्रीय औसत 63 प्रतिशत है जबकि मृत्यु दर को लेकर थोड़ा भ्रम है ।  यदि ठीक होने  वालों की  संख्या से उसे जोड़ें तो वह 4 फीसदी  है लेकिन अब तक संक्रमित हुए कुल लोगों की संख्या के आधार पर मूल्यांकन करें तो वह मात्र ढाई प्रतिशत ही आती है ।  संतोष की बात ये जरूर  है कि अस्पतालों में भर्ती मरीज 3.6।  लाख ही हैं किन्तु  चिंता का विषय ये है कि प्रतिदिन ठीक होने वाले मरीजों की तुलना में नए संक्रमित ज्यादा होने से अस्पतालों की क्षमता  निरंतर कम होती जा रही है । वृद्धि का आंकडा मात्र तीन दिनों में एक लाख होने के बाद आशंका है कि कुछ दिनों के बाद प्रति दिन 1 लाख नए मरीज आयेंगे । और वही भयभीत कर  रहा है  क्योंकि उस स्थिति में न तो सरकारी  और न ही निजी क्षेत्र के अस्पतालों में पैर रखने की जगह बचेगी ।  इसके अलावा विचारणीय बात ये भी है कि बरसात के  मौसम में डेंगू , मलेरिया , चिकिनगुनिया और अन्य वायरल बीमारियाँ भी तेजी से फैलती हैं जिनके कारण अस्पतालों पर  वैसे भी काफी दबाव रहता है ।  उस स्थिति में यदि कोरोना  संक्रमण इसी गति से बढ़ता गया तब चिकित्सा प्रबंध गड़बड़ा जायेंगे ।  हालांकि हो वैसा ही रहा है जैसा विशेषज्ञ अनुमान लगा चुके थे । जुलाई और अगस्त में  कोरोना का चरमोत्कर्ष आने के बाद उसमें ढलान आने की बात लगातार जिम्मेदार सूत्रों ने कही थी ।  उनको लगता था कि तब तक शायद वैक्सीन भी  बाजार में आ जायेगी ।   लेकिन उस बारे में नित नई खबरें आने के बाद भी अभी तक कोई निश्चित तिथि बताने जैसी स्थिति नहीं   है ।  भारत सहित अनेक देशों ने संकेत दिया है कि  वे वैक्सीन बनाने के बाद उसके  मानव  परीक्षण के दौर  में हैं और अतिशीघ्र उसके  बाजार में आने की सम्भावना है ।  इस बारे में उल्लेखनीय बात ये होगी कि भारत में बनी वैक्सीन यदि पहले आ गई तब तो हमारे देश के लोगों को उसका लाभ तत्काल मिल जाएगा वरना  विदेशों में बनी वैक्सीन के भारतीय बाजारों में आने में समय लगेगा ।  यद्यपि ये  बात आशा जगाने वाली  है कि वैक्सीन खोजे कोई भी लेकिन उसका व्यावसायिक उत्पादन भारत में भी होगा क्योंकि यहाँ उसके लिए जरूरी अधोसंरचना पहले से है ।  माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स ने भी गत दिवस इसकी उम्मीद जताई है ।  लेकिन मोटे तौर पर ये माना जा रहा है कि वैक्सीन पूरी  तरह से बाजार में आने तक 2020 विदा हो जाएगा । और इसीलिये शायद कुछ विदेशी विशेषज्ञों ने आगामी वर्ष की जनवरी  और फरवरी में  कोरोना के भयावह होने की आशंका  जताई है ।  आंकड़ों की मगजमारी से  अलग  हटकर देखें तो ये मानना पड़ेगा कि प्रारम्भिक दौर में अच्छा प्रदर्शन  करने के बाद भारत बीते डेढ़ महीने के दौरान  गंभीर हालात में आ पहुंचा है । और इसकी वजह जनता और नेताओं द्वारा  बरती गई घोर लापरवाही है ।  लॉक डाउन के दौरान भारत में कोरोना का फैलाव देश की आबादी के मद्देनजर बहुत ही मामूली था ।  कुल मरीजों के  0 फीसदी चंद महानगरों में ही सिमटे थे । हॉट स्पॉट का चयन भी  सही समय पर कर लिया गया ।  कन्टेनमेंट जोन बनाकर कोरोना के सामुदायिक फैलाव को रोकने में भी उल्लेख्नीय सफलता हासिल हुए । मुम्बई के धारावी इलाके की झोपड़ पट्टी में कोरोना को जिस तरह से नियंत्रित किया जा सका उसकी वैश्विक स्तर पर तारीफ भी हुई लेकिन लॉक डाउन हटते  ही अनुशासनहीनता का जो नजारा  दिखाई दिया वह कोरोना के विस्फोट का कारण बन गया । जिन दो - तीन सावधानियों का पालन कोरोना से बचाव के लिए ज़रूरी बताया गया वे इतनी कठिन या अव्यवहारिक नहीं हैं जिनका पालन न किया जा सके । मुंह और नाक को ढंकने के  साथ ही हाथ को साफ करते रहना और लोगों के बीच शारीरिक दूरी जैसे सामान्य उपायों से कोरोना सदृश खतरनाक संक्रमण को रोकना संभव  है लेकिन न जाने लोगों को इसमें भी क्या परेशानी होती है ? बाजारों सहित सार्वजनिक स्थलों पर आम जनता जिस बेख़ौफ़ अंदाज में घूमती दिखती है  उससे तो लगता है उसे अपनी जान की  कोई परवाह ही  नहीं है ।  लेकिन बीते एक - दो सप्ताह में कोरोना संक्रमण का आंकड़ा  जिस तेजी से आसमान छूने पर आमादा है उसे देखते हुए अब लोगों को सावधान होना चाहिए वरना दो महीने से ज्यादा के लॉक डाउन की समूची मेहनत पर पानी फिर जाएगा । कुछ जगहों को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो देश की  अर्थव्यवस्था दोबारा राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन की अनुमति नहीं  देती । यूँ भी पूरी दुनिया ये स्वीकार कर चुकी है कि लॉक डाउन एक हद के बाद अनावश्यक और नुकसानदेह हो जाता है । ऐसे में अब बात जनता के स्तर पर आकर ठहर जाती है । हमारी जान की रक्षा के  लिए सरकार और डाक्टर से पहले हम जिम्मेदार हैं । लेकिन जनता को प्रेरित करने वाले राजनेता भी कोरोना के फैलाव के लिए कम दोषी नहीं हैं । अनेक शहरों में राजनीतिक जलसों के  बाद  बड़ी  संख्या में मरीजों का  निकलना इसका प्रमाण है । कोरोना के प्रति यदि इसी तरह का गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखाया जाता रहा तब बीमारी के महामारी में बदलने की आशंका वास्तविकता में बदल जायेगी ।  क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 16 July 2020

बात तो लाख टके की कही गहलोत ने लेकिन ....



राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भले ही ये कटाक्ष अपनी सत्ता के लिए खतरा बने हुए सचिन पायलट पर किया हो लेकिन उसमें सच्चाई है। यद्यपि उनकी टिप्पणी से कांग्रेस हायकमान नाराज बताया जाता है, परन्तु श्री पायलट के सन्दर्भ में उनका ये कहना गलत नहीं है कि इनकी रगड़ाई नहीं हुई, केंद्र में मंत्री बन गये। यदि रगड़ाई हुई होती तो और अच्छा काम करते। गहलोत जी ने लगे हाथ ये भी कह दिया कि सोने की छुरी खाने के लिए नहीं होती, अच्छी अंग्रेजी बोलने और स्मार्ट दिखने मात्र से कुछ नहीं होता। हालाँकि ये सब उन्होंने तब कहा जब सचिन को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। निश्चित तौर पर ये एक व्यक्ति विशेष को लक्ष्य बनाकर कसा गया तंज है, किन्तु इसमें भारतीय राजनीति की वह कड़वी हकीकत छिपी हुई है जिसने लोकतंत्र में नव सामन्तवाद की नींव डाल दी। इसकी शुरुवात कब और किसने की ये तो शोध का विषय है लेकिन नेता पुत्रों और पुत्रियों के अलावा उनके कृपापात्रों का राजनीति में अचानक आकर छा जाना राजनीतिक पार्टियों के वैचारिक आधार और संगठनात्मक ढांचे को कमजोर करता है। श्री गहलोत ने खुद के चालीस वर्षीय राजनीतिक जीवन के हवाले से ये कहना चाहा कि वे परिश्रम करते हुए नीचे से ऊपर आये। उनका कथन पूरी तरह सही है लेकिन सवाल ये भी है कि उनके अपने बेटे वैभव की राजनीति में कितनी रगड़ाई हुई जिनको पिछले लोकसभा चुनाव में जोधपुर सीट से कांग्रेस टिकिट दी गई किन्तु वे बुरी तरह हार गए। बाद में उन्हें राजस्थान क्रिकेट एसो. का अध्यक्ष बनवाया गया जिसमें भी मुख्यमंत्री पिता का ही हाथ रहा। राजनीति में रगड़ाई से श्री गहलोत का आशय संगठन में निचले स्तर से उठते हुए ऊपर आने से है, पुरानी परम्परा यही थी। आजादी के आन्दोलन के समय छोटे कार्यकर्ता और बड़े नेता सभी जेल जाते थे। आजादी के बाद सत्ता और विपक्ष दोनों में ऐसे नेताओं की बहुतायत थी जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में कठोर संघर्ष और नि:स्वार्थ सेवा के आधार पर अपनी जगह बनाई। लेकिन उसके बाद परिवारवाद का सिलसिला शुरू हुआ। फिर भी तत्कालीन बड़े नेताओं के वंशजों को भी सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों का थोड़ा ज्ञान तो होता था जो उन्हें आजादी के संघर्ष के दौरान उनके परिवार की भूमिका से प्राप्त हुआ किन्तु साठ के दशक के बाद से राजनीतिक परिदृश्य जिस तरह बदला उसने राजनीति को पारिवारिक व्यवसाय और उत्तराधिकार में बदल दिया। धीरे-धीरे राजनीति के भी कुछ राजघराने बन गये और युवराजों के साथ ही उनके इर्दगिर्द मंडराने वालों को भी राजनीतिक जागीरदारी बतौर दी जाने लगी। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं जिन्हें 1980 में संजय गांधी की निकटता का लाभ मिला मप्र की छिंदवाड़ा सीट से उम्मीदवारी के रूप में। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की प्रचंड लहर में समूचा उत्तर भारत कांग्रेस विहीन हो गया था। यहाँ तक कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी हार गए। तब भी छिंदवाड़ा में कांग्रेस के गार्गीशंकर मिश्रा जीते थे। इसलिए उसे सुरक्षित सीट मानकर कमलनाथ को वहां भेजा गया। 1980 से वे वहां ऐसे जमे कि छिंदवाड़ा और कमलनाथ समानार्थी बन बैठे। 2018 में उन्हें मप्र के मुख्यमंत्री बनने का अवसर भी मिल गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने बेटे नकुल नाथ को वहां से लोकसभा चुनाव जितवा दिया। श्री गहलोत द्वारा जिस रगड़ाई को मापदंड बनाने की बात कही उसमें कमलनाथ और नकुलनाथ कितने फिट बैठते हैं ये विश्लेषण का विषय है। उनके कारण उस अंचल के न जाने कितने प्रतिभावान कांग्रेसी जमीन से उपर नहीं उठ सके। ये तो महज एक उदहारण है। सचिन पायलट या वैभव गहलोत ही अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें बिना रगड़ाई के राजनीति में महत्व मिल गया हो। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा और प्रिय दत्त जैसे चेहरे भी तो बिना रगड़ाई के चमक उठे। और अब तो राजनीति में वंशवाद रूपी अमर बेल को रोपने वाली कांग्रेस ही अकेले उसकी पोषक नहीं रही। राहुल और प्रियंका को लेकर परिवारवाद का रोना रोने वाले दूसरे दलों में भी तो कमोबेश यही आलम है। उमर अब्दुल्ला, सुखबीर बादल, भूपिंदर हुड्डा, कुलदीप विश्नोई, अभय चौटाला, अनुराग ठाकुर, अजय माकन, अखिलेश यादव, पंकज सिंह, दुष्यंत सिंह, राजवीर सिंह, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, संदीप दीक्षित, अभिषेक सिंह, हेमंत सोरेन, नवीन पटनायक, अभिजीत मुखर्जी, अशोक चव्हाण, आदित्य ठाकरे, कुमारस्वामी, जगनमोहन रेड्डी, कनिमोझी, स्टालिन जैसे और भी नाम हैं जिन्हें बिना रगड़ाई किये राजनीति में पैराशूट से उतार दिया गया। भले ही बाद में इनमें से कुछ ने अपनी मेहनत और योग्यता से मुकाम बनाया जिनमें नवीन पटनायक सबसे ज्यादा उल्लेखनीय हैं। लेकिन राजनीति का ककहरा पढ़े बिना ही इनमें से अधिकतर को स्नातक और किसी-किसी को तो डाक्टरेट की मानद उपाधि तक दे दी गयी। यद्यपि इस दौर में भी अनेक ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपनी औलादों या अन्य परिजनों को सियासत से दूर रखा। इनमें लालकृष्ण आडवाणी, डा. मुरलीमनोहर जोशी, डा. मनमोहन सिंह, नीतीश कुमार और शरद यादव उल्लेखनीय हैं वरना राजनीति विशद्ध पारिवारिक पेशा बनकर रह गयी है। राजीव गांधी ने अरुण नेहरु और अरुण सिंह जैसे कार्पोरेट संस्कृति के अपने यारों को सरकार का हिस्सा बनाया। श्री नेहरू तो बाद में भी सक्रिय रहे लेकिन अरुण सिंह गुमनामी में डूब गये। नेहरू-गांधी परिवार में घरेलू कर्मचारी की हैसियत वाले आर के धवन और माखनलाल फोतेदार सत्ता प्रतिष्ठान में जिस ऊंचाई तक पहुंचा दिए गये वह केवल उनके दरबारी होने का पुरुस्कार था। आजकल टीवी पर राजनीतिक पार्टियों के अनेक ऐसे प्रवक्ता नजर आने लगे हैं जिनका कोई जमीनी आधार नहीं है। उस दृष्टि से श्री गहलोत ने रगड़ाई वाला जो मुद्दा उठाया वह पूरी तरह से समयोचित है। लेकिन उनका बयान उनकी पार्टी के आला नेताओं को ही रास नहीं आने की जानकारी है क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में जमे नेताओं में से अधिकतर ने बिना रगड़ाई वाले अपने परिजनों और कृपापात्रों को ऊंची छलांग लगवा दी। गांधी परिवार के सदस्यों ने तो शिखर पर आने के लिए नीचे से चढ़ाई करने के बजाय हेलीकाप्टर का सहारा लिया ही लेकिन केवल कांग्रेस ही क्यों बाकी लगभग सभी पार्टियों में संघर्ष की आग में तपे बिना रेडीमेड नेताओं की लम्बी जमात है। वामपंथी पार्टियाँ हालाँकि अभी अपवाद बनी हुई हैं लेकिन वहां भी वैचारिक भटकाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। अतीत में अमिताभ बच्चन द्वारा हेमवतीनंदन बहुगुणा और गोविंदा द्वारा राम नाइक जैसे नेताओं को हराना भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बनाओं में से एक है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 15 July 2020

ईरान : सतही तौर पर नुकसान लेकिन ......





भारत और ईरान के सम्बन्धों में अचानक आया दुराव अस्वाभाविक नहीं है। दोनों के रिश्ते कूटनीतिक के अलावा सांस्कृतिक और व्यापारिक भी थे। पाकिस्तान में चीन द्वारा ग्वादर बंदरगाह बनाने का काम लिया तो भारत ने भी ईरान में चाबहार का बंदरगाह बनाने का अनुबंध करने के साथ ही वहां से अफगानिस्तान तक रेल लाइन बिछाने का काम भी ले लिया। इसका उद्देश्य अफगानिस्तान और मध्य एशिया के दूसरे देशों तक भारत की आवाजाही को सुगम बनाना था जो व्यापार के लिये भी बहुत ही मददगार होती। लेकिन बीते दो वर्षों से भारत और  ईरान के रिश्तों में ठंडक आ गई। इसका कारण अमेरिका बना जिसने ईरान के विरुद्ध वैसा ही रुख अख्तियार कर रखा है जैसा कभी ईराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के प्रति था। आर्थिक प्रतिबंध थोपकर उसे जबरदस्त नुकसान पहुँचाने के अमेरिकी दांव के  पीछे दरअसल ईरान को परमाणु शक्ति बनने से रोकना था। ईरान की मुख्य आय का स्रोत कच्चा तेल ही है। आर्थिक प्रतिबंधों के कारण उसने अपने तेल को सस्ते दाम पर बेचने की नीति अपनाई। इसका लाभ लेकर भारत सरकार ने भी ईरान से अनुबंध किया। मोदी सरकार ने उससे रिश्ते मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन अमेरिका से कूटनीतिक और आर्थिक हितों के साथ ही सैन्य मोर्चे पर बढ़ती नजदीकियों के कारण भारत को ईरान से न चाहते हुए भी दूरी बनानी पड़ी। तेल खरीदी रोकना उसमें सबसे प्रमुख कदम था। ऐसे में चीन ने उसका हाथ पकड़ने की पेशकश  की और गत दिवस इसका परिणाम भी सामने आ गया। भारत से चाबहार बंदरगाह और वहां से अफगानिस्तान की सीमा तक रेल लाइन बिछाने का काम छीनकर चीन को दे देना महज एक व्यापारिक समझौता नहीं बल्कि समूचे एशियाई क्षेत्र के शक्ति संतुलन के लिहाज से इसे एक बड़ा बदलाव माना जा सकता है। ईरान से चीन की निकटता के चलते उसे अपना व्यापार बढ़ाने का बहुत बड़ा अवसर मिलने की संभावना है। पाकिस्तान तो एक तरह से चीन का उपनिवेश है ही जहाँ वह जो चाहे कर  सकता है। चाबहार बंदरगाह मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक उपलब्धियों में गिना जाता था। ईरान से मिलने वाले सस्ते कच्चे तेल से भी हमारी अर्थव्यवस्था को काफी सहारा मिलता रहा। ईरान और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार भी काफी संतुलित था। सबसे बड़ी बात ये रही कि कट्टरपंथी मुस्लिम देश होने के बाद भी ईरान ने भारत और पाकिस्तान के बीच बने  रहने वाले तनाव में कभी भी एकपक्षीय रवैया नहीं अपनाया। बावजूद इसके भारत द्वारा अमेरिका को खुश करने के फेर में उससे तेल की खरीदी रोक दी गई। चीन तो ऐसे अवसरों की तलाश करता ही रहता है, परन्तु इस बारे में सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि भारत के साथ मजबूत रिश्तों को लेकर ईरान में कभी भी विरोध के स्वर नहीं  सुनाई दिए जबकि चीन के साथ हुए  हालिया 25 वर्षीय करार के विरुद्ध पूरे देश में बवाल मच गया है। लोगों का कहना है कि चीन  ने जिस भी देश में निवेश किया वह उस पर कर्ज का बोझ लादकर गुलाम बनाने का दाँव चलता है। अफ्रीका के अनेक देशों पर चीन ने जिस तरह से शिकंजा कसा वह ईरान के लोगों को डरा रहा है लेकिन अमेरिका द्वारा लगातार धमकाए जाने के कारण ईरान को भी अपने लिए एक संरक्षक चाहिए था और उसी कारण उसने चीन का हाथ थाम लिया। हालांकि इस  निष्कर्ष तक पहुंचना जल्दबाजी होगी कि ये भारत के लिए कूटनीतिक झटका है या नहीं क्योंकि ईरान से तेल की खरीदी बंद करने के बाद ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं था। देखने वाली बात ये होगी कि क्या चीन के विरोध में वहां जिस तरह की जन भावनाएं देखने मिल रही हैं वे कितनी देर तक टिकती हैं ?  यदि वे इसी तरह उग्र बनी रहीं तब तो ईरानी सरकार के लिये मुसीबत खड़ी हो जायेगी। कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित होने वाले देशों में ईरान काफी अग्रणी रहा। शुरुवाती दौर में इटली, स्पेन और ईरान में ही कोरोना का तांडव सबसे ज्यादा था। इस कारण ईरान में जनता का एक बड़ा वर्ग चीन  को कोरोना के लिए जिम्मेदार, मानकर उसके साथ किसी भी तरह के समझौते की मुखालफत कर रहा है। एशिया के कूटनीतिक संतुलन में चीन के साथ ईरान की दोस्ती से होने से वाले  बदलाव का असर  आने वाले समय में दिखाई देगा। भारत की मजबूरी ये है कि उसे भी अमेरिका की बहुत जरूरत है। बावजूद इसके भारत और ईरान में नजदीकी की संभावनाएं पूरे तौर पर खत्म नहीं हुईं हैं क्योंकि चीन के साथ उसके रिश्ते मजबूरी का सौदा हो सकते हैं लेकिन उनमें स्थायित्व की गारंटी नहीं दी जा सकती। सतही तौर पर ये कूटनीतिक बदलाव भारत के हितों पर चोट है लेकिन इसे धक्का नहीं कहा जा सकता क्योंकि रिश्ते कमजोर करने की पहल तो भारत ने ही की थी। उसके व्यापक राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर शायद ऐसा करना ही ठीक था। और फिर कूटनीति में रिश्ते आदर्श और भावनाओं से ज्यादा आवश्यकता और उपयोगिता पर आधारित होते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

राहुल ब्रिगेड को अपने भविष्य की चिंता सता रही कांग्रेस नहीं जागी तो ऐसे झटके लगते रहेंगे



राजस्थान की राजनीतिक गुत्थी सुलझी अथवा और उलझ गई ये कहना फ़िलहाल बेहद कठिन है | जहां तक सरकार बचाने का सवाल था तो तकनीकी तौर पर अभी भी अशोक गहलोत सरकार के पास बहुमत है | बागी नेता सचिन पायलट को सत्ता और संगठन के पदों से भले  हटा दिया गया हो लेकिन अभी भी उनको कांग्रेस से निष्कासित नहीं किया गया | और वे पार्टी के विधायक दल में ही माने जायेंगे | जैसे कि संकेत हैं वे आज या कल  अपना भावी कदम घोषित करेंगे | यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं कि सचिन की मनुहार करने में कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी ,  लेकिन उन्होंने उनसे बात करना तक जरूरी नहीं समझा |  राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा तक को उन्होंने तवज्जो नहीं दी | जिससे स्पष्ट हो गया कि पार्टी के  आला नेतृत्व से वे बहुत ज्यादा दुखी थे |

रही बात पद की तो वे राजस्थान के उपमुख्यमंत्री तो थे ही | भविष्य में सरकार की कमान उनके हाथ ही आने की संभावना भी हर कोई जता रहा था | पार्टी संगठन के भी वे ही मुखिया थे | ऐसे में क्या हो गया कि वे इतने आगे बढ़ गए जहाँ से लौटना संभव नहीं रहा | और किसी वजह से लौटते भी तो अपामान और पराजय का घूँट पीना पड़ता | कांग्रेस का आरोप है कि वे भाजपा के हाथों में खेल रहे हैं | ऊपरी तौर पर देखें तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि 20 - 30 विधायकों को लेकर सरकार गिराने की जुर्रत तो महामूर्खता होगी | कांग्रेस छोड़कर मप्र की कमलनाथ सरकार गिरवा चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया से सचिन की नजदीकियों के कारण भाजपा और उनके बीच रणनीतिक सामंजस्य बनने की बात तो हर कोई स्वीकार कर रहा है |

लेकिन श्री पायलट ने लगातार ये बात दोहराई  कि वे भाजपा में नहीं जा रहे  | ऐसे  में सवाल उठता है कि जब कांग्रेस में उनके लिए जगह बची नहीं और भाजपा में उन्हें जाना नहीं है तब वे क्या करेंगे क्या ? हाल - फ़िलहाल के लिए कोई क्षेत्रीय पार्टी बना भी  लें तो उसका भविष्य अनिश्चितता के घेरे में ही रहेगा | चुपचाप घर बैठने वाली बात होती तब उन्हें इतना बखेड़ा करने की जरूरत ही क्या थी ? सरकार में क्रमांक दो की हैसियत तो उनकी थी ही | मुख्यमंत्री से थोड़ा सा सामंजस्य स्थापित कर लेते तो सत्ता का सुख भोगते रहते | लेकिन पहले ज्योतिरादित्य और अब सचिन की बगावत केवल सत्ता में हिस्सेदारी का मामला नहीं है |

सचिन को मनाने से मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और राहुल गांधी की टीम के ही एक  सदस्य मिलिंद देवड़ा ने साफ़ इंकार कर दिया | वहीं स्व. सुनील दत्त की बेटी और मुम्बई से सांसद रहीं प्रिया दत्त ने भी सचिन के विरुद्ध हुई कार्रवाई पर नाराजगी जताकर पार्टी आला कमान के कान खड़े कर दिए हैं | उप्र में भी जितिन प्रसाद नामक राहुल ब्रिगेड के एक सदस्य को सिंधिया और सचिन के रूप में दो युवाओं का बाहर जाना नागवार गुजर रहा है ।

सचिन की आगे की रणनीति कल तक  सामने आ  जायेगी किन्तु  यहाँ सवाल गहलोत सरकार के बचने या गिरने से भी बड़ा है | मप्र की तरह से ही  राजस्थान में भी सचिन के भाजपा में आने की खबरें वहां के भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं  को विचलित कर रही हैं | पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे उनको किस हद तक स्वीकार करेंगीं ये बताने वाला कोई नहीं है | सचिन पायलट को मुख्यमंत्री  बनवाकर बाहर से समर्थन देने का विकल्प  भी तलाशा जा रहा होगा | विधानसभा से सचिन समर्थक विधायकों की छुट्टी होने पर थोक  के भाव उपचुनाव होंगे और उनमें  भाजपा की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे हैं |

लेकिन समूचे विवाद की जड़ है राहुल गांधी का नेतृत्व और उनकी अंशकालिक राजनीतिक शैली | कोप भवन में जाकर बैठ जाने के बाद जिस तरह ज्योतिरादित्य और सचिन को अंतिम समय तक मनाने की कोशिशें की गईं यदि वे उनकी नाराजगी का पहला संकेत मिलते ही की गई होतीं तो बात इस हद तक शायद न बिगड़ती | लेकिन इस सबसे हटकर जो बात समझ आती है वह यह कि कांग्रेस के युवा नेतृत्व के दिल में ये धारणा घर करती जा रही है कि पार्टी का  भविष्य अंधकारमय है | ऐसे में उसमें बने रहने से उनका राजनीतिक कैरियर धक्के खाने में ही गुजर जाएगा | जहां तक बात राहुल और प्रियंका की है तो उन्हें राज परिवार की खानदानी हैसियत तो हासिल है ही | संयोगवश राहुल की टीम कहे जाने वाले समूह में ज्योतिरादित्य , सचिन , मिलिंद , जितिन और अब प्रिया  जैसे नेता भी वंशवाद की उपज ही हैं | उनकी पढ़ाई - लिखाई , पेशवर योग्यता और व्यक्तित्व सभी  दरकिनार रह जाते यदि वे क्रमशः माधव राव सिंधिया , राजेश पायलट , जितेन्द्र प्रसाद और सुनील दत्त के बेटे - बेटी न होते | ऐसे में उनका महत्वाकांक्षी होना स्वभाविक है | पिता की मृत्यु ने ही उनके लिए सियासी अवसर पैदा किया था |

 उन्हें लगने लगा कि राहुल तो गांधी परिवार की विरासत का लाभ लेते हुए महत्वपूर्ण बने रहेंगे लेकिन कांग्रेस नामक जहाज के डूबते जाने की आशंका दिन ब दिन प्रबल होने से उनका अपना भविष्य चौपट हो जाएगा | इस युवा नेताओं का झगड़ा दरअसल न कांग्रेस की नीतियों से है और न ही राहुल से | इन सबको इस बात की  चिंता है कि कांग्रेस का भविष्य जिस तरह से अनिश्चित होता जा रहा है उसे देखते हुए अगले चुनाव में भी उसकी वापिसी के आसार नजर नहीं आ रहे | ऐसे में अपना भविष्य बचाने  की गरज से ये सब समय रहते सुरक्षित  हो जाना चाहते हैं |

कांग्रेस का ये  कहना शत - प्रतिशत सही है कि उसने इन सबको बेहद कम उम्र में बहुत  कुछ दिया किन्तु ये भी उतना ही सच है कि कांग्रेस ने इन सभी के पिता के नाम को भुनाने के लिए इनका उपयोग किया | वरना तो ये सभी पढ़ने - लिखने के बाद अन्य काम कर रहे थे | कांग्रेस ने सभी दिवंगत नेताओं के बेटे - बेटियों को तो उपकृत नहीं  किया | एक बार सियासत में आने के बाद इनके मन में भी लड्डू फूटने लगे तो आश्चर्य कैसा ?  

उस दृष्टि से कांग्रेस को ये समझ लेना चाहिए कि जिन युवा नेताओं को वह भविष्य में अग्रणी पंक्ति का योद्धा बनाना चाह रही थी वे सभी सेनापति की अक्षमता का आकलन करने के बाद खेमा बदलने की  मानसिकता बना बैठे हैं | और आज के दौर में इसमें कुछ भी  अटपटा नहीं है  | एक जमाने में जब ज्योतिरादित्य के स्वर्गीय पिता अपनी माँ राजमाता विजयाराजे  की इच्छा के विरुद्ध कांग्रेस में गये थे तब वे भी अपने सुरक्षित भविष्य के प्रति चिंतित थे |

कांग्रेस को इस मानसिकता को गम्भीरता से समझ लेना चाहिए | उसके लिए चिंता का विषय कुछ राज्य सरकारें नहीं बल्कि गांधी परिवार विशेष रूप से राहुल और अब उनकी बहिन प्रियंका के नेतृत्व की प्रति बढ़ता अविश्वास ही है | यदि इन बानगियों के बाद भी कांग्रेस खुशफहमी में बैठी रही तो  उसे ऐसे झटके लगातार लगते रहेंगे | जहां तक बात भाजपा पर खरीद - फरोख्त का आरोप लगाने की है तो ये भारतीय राजनीति के बदलते हुए चरित्र की पहिचान है | राजस्थान में बसपा के सभी छह विधायकों को कांग्रेस में शामिल करने का दांव क्या मुफ्त में संभव हुआ ? कमलनाथ सरकार ने भी तो बाहरी समर्थन का जो जुगाड़ किया वह भी निःशुल्क नहीं माना जा सकता |

आने वाले दिनों में कांग्रेस से और भी लोग इसी तरह टूटें तो अचरज  वाली बात नहीं रहगी | आजदी के बाद पंडित नेहरु ने तमाम समाजवादी नेताओं को धीरे - धीरे कांग्रेस में खींचकर समाजवादी आन्दोलन को बहुत नुकसान पहुंचाया था | भाजपा भी अब सत्ता में आने और उसमें बने रहने के कांग्रेसी गुर सीखती जा रही है | जब नवजोत सिद्धू और शत्रुघ्न सिन्हा कांग्रेस में आये तब वह खुश थी , अब भाजपा की बारी है |

हाँ ,  एक बात और है | सचिन पायलट कश्मीर की नेशनल कान्फ्रेंस नेता फारुख अब्दुल्ला के दामाद हैं | ऐसे में उनकी बगावत को कश्मीर की  भावी राजनीति से जोड़कर देखा जाना गलत नहीं होगा ।

Tuesday 14 July 2020

कम से कम पढ़े लिखे लोग तो कोरोना के प्रति गंभीरता बरतें




देश में कोरोना संक्रमण की संख्या 9 लाख पार कर गई। अब प्रति तीन दिन में एक लाख नए मरीज सामने आ रहे हैं। कुछ राज्यों ने इस वजह से लॉक डाउन बढ़ा दिया । वहीं अधिकतर राज्यों ने सप्ताह में एक या दो दिन का अनिवार्य लॉक डाउन घोषित कर दिया है । संक्रमित लोगों की संख्या जिस तेजी से बढ़  रही है उसे देखते हुए अगस्त खत्म होने तक भले ही ठीक होने वालों का प्रतिशत काफी हो लेकिन अस्पतालों की व्यवस्था अपर्याप्त हो जायेगी। वैसे भी अब जैसी जानकारी आ रही है उसके अनुसार सरकारी अस्पतालों में पहले जैसी मुस्तैदी नहीं रही। संक्रमित व्यक्तियों को घर पर रखने जैसे प्रयोग भी भविष्य को भांपकर किये जाने लगे हैं। निजी अस्पतालों के लिए कोरोना नोट छापने की मशीन बनकर सामने आया है। एक तरफ तो आशा जगाने वाली बात है कि भयावह स्थिति से निकलकर दिल्ली में ठीक होने वालों का प्रतिशत 80 तक जा पहुंचा है और मुम्बई की धारावी नामक एशिया की सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी में कोरोना को नियंत्रित कर लिया गया है। लेकिन दूसरी तरफ  ये बात भी पूरी तरह सही है कि इस अचानक आई बाढ़ का सबसे बड़ा कारण है लॉक डाउन का खुलना। हालांकि जाँच की संख्या बढऩे से भी नये मामले सामने आने लगे हैं लेकिन संक्रमण फैलाने के लिए आम जनता की लापरवाही पूरी तरह से जिम्मेदार है। लॉक डाउन लगाना जिस तरह से मजबूरी थी ठीक वैसे ही उसे हटाना भी जरूरी हो गया था। कारोबारी सक्रियता के अभाव में न सिर्फ  अर्थव्यवस्था अपितु समूचा सामाजिक ढांचा ही चरमराने लगा था। पूरी दुनिया में ऐसा ही देखने मिला। आखिर देश को पूरी तरह से सुप्तावस्था में तो नहीं रखा जा सकता था। बीते छ: सप्ताह की जो रिपोर्ट आई उसके मुताबिक उद्योग व्यापार क्षेत्र में काफी तेजी से काम शुरू हो चुका है। कुछ में तो लॉक डाउन से पहले वाली स्थिति लौट आई है। प्रवासी श्रमिकों के घर लौट जाने के कारण जरूर मानव संसाधन की कमी महसूस की जा रही है लेकिन उसके बाद भी उत्पादन ने गति पकड़ ली है। सबसे बड़ी बात ये है कि तमाम आशंकाओं के बावजूद बाजार में मांग नजर आ रही है। ऑटोमोबाइल क्षेत्र इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। पिछली फसल अच्छी आने के कारण ग्रामीण बाजार भी अर्थव्यवस्था को अच्छा समर्थन दे रहे हैं। कोरोना के कारण गर्मियों में होने वाले शादी-विवाह की संख्या में बेहद कमी आई। आमंत्रितों की संख्या भी सीमित किये जाने का असर कारोबार पर पड़ा। हमारे देश की आर्थिक रीढ़ को खेती और शादी दोनों का जबर्दस्त सहारा मिलता है। लेकिन जैसी उम्मीद है दीपावाली तक कोरोना ढलान पर आयेगा और तब बीते छ: महीने की कसर पूरी हो जायेगी। यद्यपि इस बारे में अभी कुछ भी कहना कठिन है लेकिन ये बात तो है कि भारत को लेकर दुनिया आशान्वित है। गत दिवस गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई ने जानकारी दी कि उनकी कम्पनी भारत में 75 हजार करोड़ का निवेश करने वाली है। उसके पहले प्रसिद्ध एपल कम्पनी ने भी चीन से अपना कारोबार घटाकर भारत में अपने उत्पादन में वृद्धि का ऐलान किया था। चीनी एप प्रतिबन्धित होने के बाद जिस तरह से भारत में बने एप की विश्वव्यापी मांग हुई वह भी उत्साहजनक है। कहने का आशय ये है कि कोरोना संकट का प्रारम्भ में भारत ने जिस तरह से मुकाबला किया उससे उसकी विश्वसनीयता बढ़ी तथा आपदा प्रबन्धन के पेशेवर रवैये की दुनिया भर में तारीफ  हुई। लेकिन लॉक डाउन खुलते ही जनता ने दो माह से भी ज्यादा जिस धैर्य और अनुशासन का परिचय दिया वह सब देखते-देखते काफूर हो गया। बाजारों में तो लगता ही नहीं है कि कोरोना का कोई भय कहीं है भी। बड़े राजनीतिक जलसों में शासन के मंत्री तक बिना मास्क के नजर आते हैं । शारीरिक दूरी बनाये रखने की प्रति भी अव्वल दर्जे का उपेक्षा भाव हर किसी में है। शादी-विवाह एवं शव यात्रा में लोगों की उपस्थिति को सीमित किये जाने के बाद भी भीड़ की जाती है। जबलपुर नगर निगम में पदस्थ अपर आयुक्त स्तर के अधिकारी द्वारा अपने परिवार के एक विवाह में कानूनों का उल्लंघन करने के कारण दर्जनों लोगों को कोरोना हो गया। शहर के अनेक प्रशासनिक अधिकारी भी उस गैर कानूनी जलसे में शामिल थे। यदि अपर आयुक्त और उनके परिवार को कोरोना न हुआ होता तो बात दबी रहती। लेकिन समाचार पत्रों ने मामला उठाया तब जाकर गत दिवस उनके विरुद्ध रिपोर्ट की गई। ये तो महज एक मामला है। देश भर में ऐसी गलतियाँ जान बूझकर होने से कोरोना तेजी पकड़ रहा है। यदि अभी भी इस बारे में जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया गया तो आगे पाट पीछे सपाट और एक कदम आगे , दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी रहेगी। कम से कम पढ़े लिखे लोग तो इस बात को समझें कि कोरोना न सिर्फ  आपके वरन सम्पर्क  में आने वाले अन्य लोगों के लिए भी जानलेवा हो सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी