प्रधानमन्त्री द्वारा आत्मनिर्भर भारत का जो आह्वान किया गया उसका असर आम भारतीय की मानसिकता पर दिखने लगा है । न सिर्फ जनता अपितु व्यापारियों ने भी सस्ती चीनी वस्तुएं खरीदकर मुनाफा कमाने की बजाय भारत में बने सामान की बिक्री करने का जो संकल्प दिखाया वह उत्साह जगाने वाला है । उपभोक्ता और विक्रेता दोनों यदि एक ही भावना से प्रेरित हों तो बाजारवाद का दबाव भी बेअसर होकर रह जाता है । कोरोना संकट के दौरान भारत ने तेजी से फेस मास्क और पीपीई किट तथा सैनिटाइजर का उत्पादन करते हुए न सिर्फ घरेलू मांग पूरी करने की क्षमता अर्जित की वरन निर्यात भी किया । कोरोना संक्रमण के इलाज हेतु प्रारम्भिक स्तर पर लगने वाली दवाइयां भी भारत ने बड़े पैमाने पर दुनिया भर को निर्यात कीं । कोरोना की स्वदेशी वैक्सीन बनाने का काम तो देश में तेजी से चल ही रहा है लेकिन विदेशी संस्थानों द्वारा विकसित किये जा रहे वैक्सीन का उत्पादन भी भारत में किये जाने के अनुबंध भी आपदा को अवसर में बदलने का उदहारण हैं । आज खबर आई कि केंद्र सरकार ने देश के दवा निर्माताओं को दवाइयों में प्रयुक्त्त होने वाले कच्चे माल का देश में उत्पादन करने पर बड़े प्रोत्साहन और आर्थिक अनुदान देने की पेशकश की है ताकि चीन पर निर्भरता खत्म की जा सके । खुशी की बात ये है कि भारत में दवा उत्पादन करने वाली इकाइयों ने भी चीन पर आश्रित रहने की मजबूरी त्यागने का मन बना लिया है । उम्मीद की जा रही है कि सब कुछ ठीक रहा तो अगले छ: महीने के भीतर अधिकतर दवाइयों का उत्पादन पूरी तरह स्वदेशी कहला सकेगा । रक्षाबन्धन के त्यौहार पर चीन से आने वाली राखियों के प्रति भी जिस तरह की अनिच्छा दिखाई दे रही है वह भी अच्छा संकेत है । चीन के साथ सीमा पर चल रहे विवाद के बीच भारत द्वारा आर्थिक मोर्चे पर बनाये गये दबाव से प्रेरित होकर दुनिया के तमाम देशों ने चीन को आर्थिक मोर्चे पर चोट पहुँचाने का दांव चल दिया है । भले ही चीन इस बारे में ऊपरी तौर पर बेफिक्री दिखा रहा हो लेकिन जल्द ही उसके चेहरे पर परेशानी नजर आने लगेगी । कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया को ये समझ में आ गया कि चीन को सुधारना नामुमकिन है । अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश ने सस्ते चीनी श्रमिकों के लालच में उसे विश्व का सबसे बड़ा उत्पादन केंद्र बनाने की जो भूल की उसका दुष्परिणाम सामने आते ही वह और उसके सहयोगी देश चीन से पिंड छुड़ाने के रास्ते तलाश रहे हैं । लेकिन भारत को वहां से निकल रहे उद्योगों की राह ताकने की बजाय अपना स्वयं का ढांचा इस तरह खड़ा करना चाहिए जिससे मेक इन इण्डिया ही नहीं अपितु मेड इन इंडिया का डंका दुनिया में पिटे । किसी देश की ताकत और समृद्धि तभी मानी जाती है जब उसका बनाया सामान दुनिया के बाजारों में बिके । संयोगवश पूरी दुनिया में भारतीय प्रवासी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं । यदि हम मेड इन इंडिया को भी गुणवत्ता के आधार पर एक ब्रांड बना सकें तो बड़ी बात नहीं अप्रवासी भारतीय भारत के सबसे बड़े ब्रांड एम्बेसेडर साबित होंगे । संकट के समय ही किसी व्यक्ति या देश की संघर्ष क्षमता और प्रतिबद्धता की परीक्षा होती है । नियति ने भारत के सामने भी वैसा ही अवसर उत्पन्न किया है जिसका पूरा - पूरा फायदा हमें उठाना होगा । लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि लोगों के मन में उपजे राष्ट्रवाद का लाभ लेकर उन्हें घटिया सामान टिकाया जाए । उत्पादन करने वालों को ये ध्यान रखना होगा कि वैश्वीकरण के इस दौर में उपभोक्ता को बहुत समय तक भावनात्मक स्तर पर प्रभावित नहीं रखा जा सकता । कोरोना संकट के समय भी घटिया मास्क और पीपीई किट बनाने जैसी खबरें आईं जो दुर्भाग्यपूर्ण हैं । भारत वर्तमान में एक संक्रान्तिकाल से गुजर रहा है । नई पीढ़ी हर क्षेत्र में नेतृत्व करने के लिए तत्पर है । उसमें प्रतिभा भी है और हौसला भी । सबसे अच्छी बात ये है कि वह वैश्विक सोच रखती है जिसके कारण वह प्रतिस्पर्धा से सफलता हासिल करने से डरती नहीं । यदि भारत सरकार इस मौके का लाभ लेते हुए भारतीय उद्यमशीलता को समुचित प्रोत्साहन , संरक्षण और सहायता प्रदान करे तो आने वाले कुछ सालों के भीतर भारत चीन से आगे न सही लेकिन बराबरी से खड़ा होने में सक्षम अवश्य हो जाएगा । नियति ऐसे मौके रोज - रोज नहीं देती । इसलिए भारत को इसका पूरा - पूरा फायदा उठाना चाहिए ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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