Thursday 30 July 2020

प्राथमिक शिक्षा को विवि जैसा महत्व दिए बिना नई शिक्षा नीति निरर्थक



केंद्र सरकार ने 34 साल बाद नई शिक्षा नीति के ऐलान के साथ ही मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदलकर फिर से शिक्षा मंत्रालय करने का निर्णय किया। 10 + 2 प्रणाली के स्थान पर 5 + 3 + 3 + 4 करने के साथ ही इंजीनियरिंग जैसे विषय की पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले विद्यार्थियों को उनके द्वारा बिताये गये वर्षों के आधार पर प्रमाणपत्र या डिप्लोमा देने का प्रावधान भी किया गया। सबसे अच्छी बात ये है कि प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में विद्यार्थी चाहे तो क्षेत्रीय भाषा का चयन भी कर सकेगा। उसे अन्य भाषाएँ सीखने का विकल्प भी रहेगा। निचली कक्षाओं में अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता खत्म करना बड़ा कदम कहा जा सकता है। इसी तरह विषयों के चयन में चले आ रहे ढर्रे को बदलने का साहस भी नीति में दिखाई देता है। भौतिक शास्त्र के साथ योग, फैशन और रसायन शास्त्र के संग संगीत तथा दर्शन जैसे विषय का अध्ययन भी सम्भव होगा। अर्थात विद्यार्थी चाहे तो विज्ञान संकाय के विषय के साथ वाणिज्य और कला के विषय भी ले सकेगा। खेल और संस्कृति के साथ संवैधानिक मूल्य जैसे विषय पाठ्यक्रम का हिस्सा होंगे। 2040 तक उच्च शिक्षा के सभी संस्थानों को बहु विषय संस्थान बनाना होगा जिसमें 3000 से ज्यादा छात्र होंगे। साथ ही वे ऑन लाइन और डिस्टेंस लर्निग कोर्स का विकल्प भी दे सकेंगे। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को अधिक स्वायत्तता देने की योजना भी इस नीति में है। 2050 तक कम से कम 50 फीसदी छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा देने का सपना भी दिखाया गया है। 12 वीं उत्तीर्ण कर चुके हर छात्र के पास कोई न कोई करोबारी योग्यता होगी। प्रारंभिक स्तर से ही इसकी शुरुवात अच्छी सोच है। 10 वीं और 12 में अनुत्तीर्ण होने के बाद पढ़ाई छोड़ चुके विद्यर्थियों को दोबारा परीक्षा का अवसर दिया जाएगा। पूरे देश के लिए एक ही शिक्षा नीति होगी। बीएड कालेज बंद कर दिए जायेंगे तथा उसकी शिक्षा सामान्य महाविद्यालय से ली जा सकेगी। नौकरी करने वाले को 3 और शोध के इच्छुक छात्रों को 4 वर्ष में डिग्री मिलेगी। सरकार की मानें तो शिक्षा का नेटवर्क बढ़ाने पर भी जोर दिया जाएगा। सतही तौर पर देखें तो ये बड़ी ही क्रांतिकारी नीति है। प्रसिद्ध विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने कैम्पस खोल सकेंगे। इस नीति को लागू करने के पहले देश भर से सुझाव मांगे जाने का दावा भी किया गया है। 2035 तक उच्च शिक्षा में 50 फीसदी छात्रों को शामिल करने के लक्ष्य के साथ ही शोध छात्रों के लिए भी अनेक बदलाव नीति का हिस्सा हैं। कुल मिलाकर देखें तो प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है जैसे केन्द्र सरकार ने शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करने का प्रयास किया है। भारतीय शिक्षा प्रणाली और शैक्षणिक संस्थानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खड़े रहने के लिए सक्षम बनाने के साथ ही उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने वाले छात्रों को देश में रहकर ही अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा मिलना निश्चित तौर पर प्रतिभा पलायन को रोकने में सहायक बनेगा। और भी ऐसे प्रावधान हैं जो इस बात का संकेत दे रहे हैं कि आने वाले कुछ सालों में भारतीय शिक्षा प्रणाली बदलते समय की जरूरतों के अनुरूप अपने को ढालने में कामयाब हो जायेगी। लेकिन ढेर सारे हसीन सपनों के बावजूद ये सवाल उठता है कि प्राथमिक स्तर की गुणवत्तायुक्त शिक्षा क्या देश के उन लाखों गरीब परिवारों के बच्चों को नसीब हो पायेगी जो केवल दोपहर का मुफ्त भोजन करने सरकारी शाला में आते हैं और वह भी ऐसा जिसमें भ्रष्टाचार बिलबिलाता रहता है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार के शिक्षा मंत्री मनीष सिसौदिया ने महज पांच साल में सरकारी विद्यालयों का जैसा कायाकल्प कर दिखाया, वैसा करने के लिए इस शिक्षा नीति में क्या है, ये स्पष्ट नहीं किया गया है। कहते हैं अमेरिका में बच्चों को अपने घर से एक निश्चित दूरी के बाहर के विद्यालय में पढ़ने की अनुमति नहीं होती। लेकिन वहां हमारे देश की तरह सरकारी और निजी शाला के स्तर में फर्क नहीं होता और शिक्षा की गुणवत्ता भी एक समान रहती है। इसलिए शिक्षा नीति चाहे कितनी भी अच्छी हो लेकिन जब तक दिल्ली जैसी विद्यालयीन शिक्षा ख़ास तौर पर प्राथमिक स्तर पर उपलब्ध न हो तब तक नीति लागू भले हो जाए लेकिन अपने लक्ष्य से दूर ही रहेगी। इसलिए बेहतर होगा कि केंद्र सरकार नीति को ऊपर से लागू करने के पहले प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त ऊँच - नीच के माहौल को खत्म करे। आम पब्लिक के लिए चलाये जा रहे सरकारी विद्यालयों में अध्ययनरत छात्र और महंगे निजी पब्लिक स्कूल के विद्यार्थी के बीच हीनता और श्रेष्ठता का भाव मिटाए बिना देश में शिक्षा का लोकव्यापीकरण करने की बात सोचना भी बेकार है। कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था का एक नया रूप सामने आया है। ऑन लाइन पढ़ाई के कारण बाजार में मोबाईल फोन और लैपटॉप की बिक्री आसमान छू गयी। लेकिन ऐसे लाखों परिवार होंगे जिनके पास मोबाईल और लैपटॉप तो क्या स्टेशनरी तक के लिए पैसे नहीं होते। यदि सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हुए केवल साक्षर नहीं अपितु उच्च शिक्षा में भी जाएँ तो उसे प्राथमिक स्तर की शिक्षा को भी विश्वविद्यालय के बराबर महत्त्व देना होगा। वरना ये देश बीते सात दशक से न जाने कितनी नीतियाँ देख चुका है जिनके अंतर्गत एक तरफ तो शिक्षा के पांच सितारा संस्थान खुल गये वहीं दूसरी तरफ ऐसे लाखों सरकारी विद्यालय हैं जिनमें बैठने के लिये टाट पट्टी तक नहीं है। यदि सरकार ने इस तरफ ध्यान दिया तो निश्चित रूप से उसकी ये कोशिश ईमानदार कही जायेगी अन्यथा ले देकर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती रहेगी। काश, नीति में कहीं इस बात का संकल्प भी होता कि अब श्रीकृष्ण और सुदामा को एक साथ पढ़ने का अवसर दोबारा मिल सकेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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