म.प्र. में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बनने के 100 दिनों बाद उनका मंत्रीमंडल गत दिवस आकार ले सका। लेकिन इसे न तो शिवराज सिंह का मंत्रीमंडल कहा जा सकता है और न ही भाजपा का। भले ही अभी भी भाजपा के मंत्री संख्या में ज्यादा हों लेकिन दलबदल करके आये ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक कांग्रेस विधायकों को मंत्री बनाए जाने की बाध्यता से पूरे परिदृश्य पर मजबूरी का साया छा गया। जो भाजपाई मंत्री बन भी गये वे अपने अगल-बगल भिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि और संस्कृति के मंत्रियों की मौजूदगी से कितना सहज महसूस करेंगे ये बड़ा सवाल है। यही परेशानी नौकरशाही की है क्योंकि आजकल उसकी प्रतिबद्धता भी शासन में बैठे चेहरों के अनुसार बदलती रहती है। उस दृष्टि से मंत्रीमंडल विपरीत धाराओं का मिलाप है। उस पर भी दबाव ये कि दलबदल करके आये सभी विधायकों को दो महीने के भीतर उपचुनाव जीतना होगा। और यही वह कारण है जिसकी वजह से भाजपा और शिवराज चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सके। यद्यपि मुख्यमंत्री तमाम बाधाओं को पार करते हुए भी अपने आधा दर्जन करीबियों को मंत्री बनवाने में कामयाब हो गए लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद से पहली बार अपने सहयोगियों की टीम को चुनने में उन्हें इतनी परेशानी उठानी पड़ी। इसमें भी सबसे बड़ी बात ये रही कि श्री चौहान को बाहरी प्रतिरोध से अधिक अपनी ही पार्टी के भीतर जबर्दस्त विरोध से जूझना पड़ा। मंत्रीमंडल विस्तार को अंतिम रूप देने के पहले तो यहाँ तक खबर चल पड़ी कि संभवत: उन्हें ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जायेगा। लेकिन उन अटकलों को झुठलाते हुए वे फिलहाल तो अपनी गद्दी बचा ले गये। लेकिन इस मंत्रीमंडल में उनके आभामंडल से ज्यादा भाजपा संगठन और श्री सिंधिया का असर साफ़ दिख रहा है। ग्वालियर महाराज तो वैसे भी एक तयशुदा राजनीतिक सौदेबाजी के बाद भाजपा में आये थे। राज्यसभा में उनके निर्वाचन से पहली शर्त पूरी हो गई और दूसरी के तहत उनके साथ आये बागी विधायकों में से कुछ को मंत्री पद भी मिल गया। अब तीसरी बची है उन्हें केन्द्रीय मंत्रीपद दिया जाना जिसमें किसी भी प्रकार की अड़चन नहीं होगी। लेकिन मप्र में एक से ज्यादा राजनीतिक शक्ति केंद्र बन गये हैं जिसका प्रभाव आने वाले दिनों में नजर आयेगा। भाजपा और शिवराज दोनों की सबसे बड़ी चिंता दो दर्जन उपचुनाव में अधिकांश जीतने को लेकर है। हालाँकि अभी भी सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है लेकिन उपचुनाव में थोड़ी सी भी घट-बढ़ हुई तो इस सरकार के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराते देर नहीं लगेगी। मुख्यमंत्री से ज्यादा ज्योतिरादित्य इसे जानते हैं। उन्हें पता है कि इन उपचुनावों को जीतना केवल श्री चौहान ही नहीं वरन उनके अपने राजनीतिक भविष्य और प्रभाव के लिए कितना महत्वपूर्ण है। इसीलिये गत दिवस उन्होंने भोपाल में सभी 24 उप चुनाव जीतने का दावा करते हुए टाइगर अभी जिंदा है जैसी टिप्पणी की। संयोगवश अधिकांश उपचुनाव ग्वालियर-चम्बल संभाग के अलावा मध्यभारत अंचल में होने वाले हैं जहाँ ज्योतिरादित्य का निजी और पुश्तैनी प्रभाव माना जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उनकी बुआ यशोधरा राजे को मंत्री पद मिल गया वर्ना उनकी छुट्टी होने की आशंका थी। जिस तरह प्रदेश के विन्ध्य और महाकौशल अंचल को मंत्री पद से वंचित रखा गया उसका कोई तात्कालिक असर भी फिलहाल नहीं होने वाला क्योंकि मंत्री नहीं बन पाए भाजपा विधायकों को ये लग रहा है कि उपचुनाव की सभी सीटें तो जीती नहीं जा सकेंगीं। उस स्थिति में कुछ मंत्री विधायक नहीं रह जायेंगे और तब खाली हुई जगह उनका राजयोग लौटा देगी। इस उम्मीद को पूरी तरह निराधार भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि भाजपा का एक बड़ा वर्ग खून का घूँट पीकर रह गया है। भले ही ऊपर से कैसे भी मनोभाव दिखाए जाएं किन्तु भीतर ही भीतर भाजपाई कांग्रेस से आकर पूरी राजनीति और प्रशासन तन्त्र पर प्रभाव जमा रहे सिंधिया समर्थकों को पचा नहीं पा रहे। खास तौर पर वहाँ जहां कम मतों से भाजपा 2018 का चुनाव हारी थी। बहरहाल मंत्रीमंडल तो जैसे-तैसे बन गया और आज शाम तक सम्भवत: विभागों की बन्दरबांट भी हो चुकी होगी। लेकिन इसके बाद ही सरकार का ध्यान शासन से ज्यादा उपचुनाव जीतने पर ही केन्द्रित रहेगा। यद्यपि ये मान लेना गलत नहीं है कि शिवराज और सिंधिया की मिली - जुली ताकत कांग्रेस पर भारी पड़ेगी लेकिन भाजपा को ये नहीं भूलना चाहिये कि कोरोना ने समाज के सभी वर्गों को जिस तरह से हलाकान किया और बीते एक माह से पेट्रोल-डीजल के दामों में रोजाना वृद्धि की गयी उसने सभी वर्गों को नाराज किया है। बिजली बिलों का भारी भरकम बोझ भी जनरोष का कारण है। व्यापार चौपट होने से व्यापारी वर्ग भी सरकार से नाराज चल रहा है तो मध्यमवर्ग की अपनी पीड़ा है। इस सबके बीच 2018 के संग्राम में एक दूसरे के मुकाबले खड़े शिवराज और महाराज एक साथ आकर कितना प्रभाव छोड़ते हैं इस पर सबकी निगाहें लगी हैं। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो जिस तरह क्मलनाथ अभी भी पूरी ताकत अपने हाथ में केन्द्रित रखना चाहते हैं वह असंतोष को और बढ़ा सकता है। पिछले चुनाव के पहले भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आये कुछ नेताओं का पार्टी से त्यागपत्र देना भले ही छोटी सी खबर हो लेकिन उसका भी सांकेतिक महत्व तो है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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