Monday 6 July 2020

मंत्री काबिल हो तो किसी भी विभाग को महत्वपूर्ण बना सकता है। पद या विभाग नहीं काम दिलाता है सम्मान





मप्र में नया मंत्रीमंडल बन गया | इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर आये अनेक  विधायकों को भी प्रमुखता से स्थान मिला | लेकिन उस वजह से भाजपा के तमाम वरिष्ठ विधायकों का पत्ता तो कटा ही प्रदेश के अनेक क्षेत्र मंत्रीमंडल में प्रतिनिधित्व पाने से वंचित रह गए | इस वजह से भाजपा के भीतर तो असंतोष है ही लेकिन अभी तक मंत्रियों को विभागों का बंटवारा भी नहीं हो सका 
। जैसी कि खबर है उसके अनुसार मुख्यमंत्री को इस कार्य के लिये हायकमान के पास जाना पड़ रहा है | पार्टी अनुशासन के लिहाज से ये अच्छा माना जा सकता है।| कांग्रेस में तो नेहरु युग से ही केन्द्रीय संगठन द्वारा प्रादेशिक इकाइयों के निर्णय लेने की  स्वतंत्रता सीमित कर दी  गई थी जो इंदिरा जी का दौर आते तक पूरी तरह से खत्म हो गई | लेकिन शनैः शनैः सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र केवल दिखावे तक सीमित रह गया | असलियत में चाहे पार्टी क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय उसकी स्थानीय इकाई तो छोड़ दीजिये प्रादेशिक संगठन तक ज़रा - ज़रा सी बात में हायकमान की तरफ देखने मजबूर कर दिया गया है |

लेकिन संदर्भित मसला मंत्रियों के विभागों के बंटवारे का है | सिंधिया समर्थक जो मंत्री बनाये  गये वे अपने लिए ऐसे विभाग चाहते हैं जो ताकतवर या राजनीतिक शब्दावली  में मलाईदार कहे जाते हैं | दूसरी तरफ मुख्यमंत्री चाह रहे हैं कि भाजपा के कोटे से मंत्री बने लोगों को प्रभावशाली विभाग दिए जा सकें जिससे कि सरकार पर उनका नियन्त्रण बना रहे | ये बात सर्वविदित है श्री सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा  में आने के बाद भी बागी विधायकों की निष्ठा उनके राजनीतिक आका ज्योतिरादित्य में ज्यादा है | और ग्वालियर राजपरिवार के इस वारिस को भी ये लगता होगा कि पार्टी में अपना समानांतर रुतबा बनाकर रखा जाए जिससे पूछ्परख होती रहे | वरना  भाजपा सदृश कैडर आधारित पार्टी में रहकर स्वतंत्र अस्तित्व बरकरार रखना बेहद कठिन है |

लेकिन राजनीति से थोड़ा अलग हटकर देखें तो सरकार में महत्वपूर्ण विभाग नामक अवधारणा राजनेताओं के मानसिक खोखलेपन और अक्षमता को उजागर करती हैं | मंत्रीमंडल सामूहिक जिम्मेदारी पर कार्य करता है जिसमें सभी मंत्री समान होते हैं |  प्रधानमन्त्री अथवा मुख्यमंत्री की हैसियत समानों में बड़े ( Elder amongst Equals )  मानी जाती है | ऐसे में जबकि सभी मंत्री एक समान होते हैं तब विभागों को लेकर खींचातानी , सौदेबाजी , नाराजगी क्यों होती है , ये बड़ा सवाल है | मप्र में ही नहीं अपितु और भी राज्यों में  चाहे सरकार  एक दल की हो या मिली जुली , ये नजारा साफ  तौर पर दिखाई  देता है | विभाग चयन का आधार  ये होता है कि उसके पास कितना ज्यादा बजट और प्रशासनिक उथलपुथल मचाने की गुंजाईश है | और फिर कौन से विभाग के मंत्री को सबसे ज्यादा प्रचार मिल सकता है ..वगैरह वगैरह | लेकिन इस जद्दोजहद में उलझे राजनेता ये भूल जाते हैं कि सरकारी महकमे में कोई भी ऐसा नहीं होता जिसे महत्वहीन कहा जा सके | ये तो सम्बन्धित मंत्री पर निर्भर करता है कि कैसे अपने विभाग को महत्वपूर्ण बना दे | वर्तमान केन्द्र सरकार में नितिन गडकरी को ही लें तो महाराष्ट्र में शिवसेना - भाजपा की संयुक्त सरकार में लोकनिर्माण  विभाग के मंत्री के तौर पर उन्होंने जो कारनामा कर दिखाया उसकी वजह से भ्रष्टाचार के लिए बदनाम माने जाने वाले इस विभाग में रहने के बाद भी उन्होंने राष्ट्रव्यापी ख्याति और प्रशंसा अर्जित की | जब 2014 में  नागपुर से लोकसभा चुनाव जीतकर वे मोदी सरकार में मंत्री बने तब भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते  लोगों को  अपेक्षा थी कि उन्हें गृह , रक्षा अथवा उनके व्यवसायिक अनुभव को देखते हुए वित्त या उद्योग जैसा मंत्रालय मिलेगा लेकिन मिला परिवहन जैसा विभाग | लेकिन उन्होंने अपनी  कार्यकुशलता से इस विभाग को सरकार की उपलब्धियों का पर्याय बना  दिया | मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में विदेश मंत्री रहीं सुषमा स्वराज को लेकर ये प्रचार काफी चला कि प्रधानमन्त्री उन्हें उभरने ही नहीं देते थे | विदेशी दौरों में भी मोदी - मोदी के नारे सुनाई देने से उक्त कथन की पुष्टि होती दिखी लेकिन सुषमा जी ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद विदेश मंत्रालय के मानवीय पक्ष को जिस कुशलता से सामने लाते  हुए उस तक  आम भारतीय की पहुंच स्थापित की वह बहुत बड़ा काम  था | विदेशों में संकट से घिरे भारतीयों को निकालने के खतरे से भरे अभियानों को उन्होंने जितने बेहतरीन तरीके से पूरा किया वह अब इतिहास बन चुका है | इस प्रकार उपेक्षा के तमाम किस्सों से अविचलित रहते हुए सुषमा जी ने विदेश मंत्रालय को पहली बार देशवासियों के सामान्य सरोकारों से जोड़कर दिखा दिया कि हर विभाग महत्वपूर्ण होता है | मप्र में स्व. बाबूलाल गौर का नाम भी कर्मठता के  प्रतीक के तौर पर लिया जाता है जिन्होंने बुलडोजर चलवाकर पूरे प्रदेश में जबरदस्त तोड़फोड़ की लेकिन जनता उनकी उस कार्यशैली पर फ़िदा हो गई |  

केरल की वर्तमान वाममोर्चा सरकार की स्वास्थ्य मंत्री के. के. शैलजा कोरोना संकट के दौरान अपने परिश्रम और सूझबूझ से पूरे देश में चर्चित और प्रशंसित हुईं | राज्य के मुख्यमंत्री से ज्यादा केरल के बाहर शैलजा टीचर कहलाने वाली इस मंत्री को डंका बज रहा है |

मनमोहन सिंह की सरकार में बतौर पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अपनी छाप छोड़ी थी | स्व. जार्ज फर्नांडीज थे तो श्रमिक नेता लेकिन वाजपेयी सरकार के रक्षा मंत्री के तौर पर उन्होंने सियाचिन सहित दूसरे दुर्गम स्थानों पर पदस्थ सैनिकों की तकलीफों को समझकर रक्षा मंत्रालय की सोच को और व्यवहारिक बनाया | हमारे देश में अब तक अनेक प्रधानमन्त्री बन चुके लेकिन उनमें से कुछ ही पद से हटने के बाद भी जनमानस में प्रतिष्ठित हैं जबकि बाकी के सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में सिमटकर रह गये | यही स्थिति राष्ट्रपति पद की है | इस पद को राजनीति का अंत समझा जाता है | लेकिन डा. एपीजे कलाम ने इस पद को जो लोकप्रियता और सम्मान दिलवाया उतना तो अनेक प्रधानमन्त्री भी नहीं पा सके |

उपरोक्त उदहारण तो मात्र संकेत हैं | कहने का आशय ये है कि मंत्री पद के लिए झगड़ने के बाद  महत्वपूर्ण विभाग प्राप्त करने के लिए की जाने वाली मशक्कत से सम्बन्धित व्यक्ति के मन में व्याप्त हीन भावना ही व्यक्त होती है | वैसे ये दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे देश में शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर बातें तो बड़ी - बड़ी होती हैं लेकिन इन विभागों को उतना महत्व मिलता है जितना गृह , वित्त , विदेश , या लोक निर्माण विभाग को मिलता है |

ये देखते हुए मंत्री बन जाने के उपरांत भी अपनी मर्जी के विभाग से वंचित रह जाने वाला नेता जब रूठा या निराश दिखता है तब उसकी अक्ल पर हंसी आती है | आज  तक किसी भी मंत्री ने ये कहकर मंत्री पद नहीं त्यागा कि जो विभाग उसे दिया गया , वह उसे संभालने के लिए सक्षम या योग्य नहीं था |

इसी वजह से बीते काफी समय से सेवानिवृत्त नौकरशाहों को सरकार का हिस्सा बनाने का चलन शुरू हो गया | डा. मनमोहन सिंह स्वयं नौकर शाह रहे | देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल भी उनकी सरकार में मंत्री बने | मोदी सरकार ने हरदीप पुरी , आर के सिंह , जनरल वी.के. सिंह , सतपाल सिंह और अब एस.जयशंकर को मंत्री बनाया | देश के अनेक राज्यों में पूर्व सरकारी अफसर राजनीति में उतरकर सरकार का हिस्सा इसलिए बनाये जाने लगे क्योंकि चुनाव जीतकर आये पेशेवर राजनेता अपनी योग्यता और क्षमता से बाहर जाकर पद के लिए अड़ने लगे | हाल ही में दिवंगत हुए अजीत जोगी ने आईएएस की नौकरी छोड़कर मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया |
प्रजातंत्र की बेहतरी इसी में है कि ऐसे काबिल लोग मंत्री बनाये जाएं जिनकी लार किसी विभाग विशेष के लिए टपकने की बजाय , वे इस बात के लिए कटिबद्ध हों कि जो भी मंत्रालय उन्हें मिलेगा उसे वे महत्वपूर्ण बना देंगे | संचार क्रांति के प्रादुर्भाव और विकास के पैमाने वैश्विक स्तर पर तय होने के बाद अब योग्यता , क्षमता , कार्यकुशलता तथा समयबद्ध पारिणाम मूलक कार्यशैली ही किसी नेता को प्रतिष्ठा दिलवा सकती है |

 किसी अनुभवी व्यक्ति का ये कथन महत्वपूर्ण मंत्रालय के लिए साष्टांग दंडवत  करते हुए मंत्रियों के लिए प्रेरणादायक है कि यदि सफलता की कोई राह है तो मैं उसे तलाशकर रहूंगा और यदि नहीं मिली तो खुद बना लूंगा |

इस सम्बन्ध में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का उदाहरण सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है | वे अपने पिता स्व. बीजू पटनायक के विपरीत बिना किसी तामझाम के बतौर मुख्यमंत्री का काम करते हुए जनता के मन में जगह बना चुके हैं | आज के दौर में पांचवी बार सरकार बना लेना ये साबित करता है कि पद या महकमा नहीं आपका काम और उसका परिणाम मायने रखता है |

No comments:

Post a Comment