Wednesday 15 July 2020

ईरान : सतही तौर पर नुकसान लेकिन ......





भारत और ईरान के सम्बन्धों में अचानक आया दुराव अस्वाभाविक नहीं है। दोनों के रिश्ते कूटनीतिक के अलावा सांस्कृतिक और व्यापारिक भी थे। पाकिस्तान में चीन द्वारा ग्वादर बंदरगाह बनाने का काम लिया तो भारत ने भी ईरान में चाबहार का बंदरगाह बनाने का अनुबंध करने के साथ ही वहां से अफगानिस्तान तक रेल लाइन बिछाने का काम भी ले लिया। इसका उद्देश्य अफगानिस्तान और मध्य एशिया के दूसरे देशों तक भारत की आवाजाही को सुगम बनाना था जो व्यापार के लिये भी बहुत ही मददगार होती। लेकिन बीते दो वर्षों से भारत और  ईरान के रिश्तों में ठंडक आ गई। इसका कारण अमेरिका बना जिसने ईरान के विरुद्ध वैसा ही रुख अख्तियार कर रखा है जैसा कभी ईराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के प्रति था। आर्थिक प्रतिबंध थोपकर उसे जबरदस्त नुकसान पहुँचाने के अमेरिकी दांव के  पीछे दरअसल ईरान को परमाणु शक्ति बनने से रोकना था। ईरान की मुख्य आय का स्रोत कच्चा तेल ही है। आर्थिक प्रतिबंधों के कारण उसने अपने तेल को सस्ते दाम पर बेचने की नीति अपनाई। इसका लाभ लेकर भारत सरकार ने भी ईरान से अनुबंध किया। मोदी सरकार ने उससे रिश्ते मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन अमेरिका से कूटनीतिक और आर्थिक हितों के साथ ही सैन्य मोर्चे पर बढ़ती नजदीकियों के कारण भारत को ईरान से न चाहते हुए भी दूरी बनानी पड़ी। तेल खरीदी रोकना उसमें सबसे प्रमुख कदम था। ऐसे में चीन ने उसका हाथ पकड़ने की पेशकश  की और गत दिवस इसका परिणाम भी सामने आ गया। भारत से चाबहार बंदरगाह और वहां से अफगानिस्तान की सीमा तक रेल लाइन बिछाने का काम छीनकर चीन को दे देना महज एक व्यापारिक समझौता नहीं बल्कि समूचे एशियाई क्षेत्र के शक्ति संतुलन के लिहाज से इसे एक बड़ा बदलाव माना जा सकता है। ईरान से चीन की निकटता के चलते उसे अपना व्यापार बढ़ाने का बहुत बड़ा अवसर मिलने की संभावना है। पाकिस्तान तो एक तरह से चीन का उपनिवेश है ही जहाँ वह जो चाहे कर  सकता है। चाबहार बंदरगाह मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक उपलब्धियों में गिना जाता था। ईरान से मिलने वाले सस्ते कच्चे तेल से भी हमारी अर्थव्यवस्था को काफी सहारा मिलता रहा। ईरान और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार भी काफी संतुलित था। सबसे बड़ी बात ये रही कि कट्टरपंथी मुस्लिम देश होने के बाद भी ईरान ने भारत और पाकिस्तान के बीच बने  रहने वाले तनाव में कभी भी एकपक्षीय रवैया नहीं अपनाया। बावजूद इसके भारत द्वारा अमेरिका को खुश करने के फेर में उससे तेल की खरीदी रोक दी गई। चीन तो ऐसे अवसरों की तलाश करता ही रहता है, परन्तु इस बारे में सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि भारत के साथ मजबूत रिश्तों को लेकर ईरान में कभी भी विरोध के स्वर नहीं  सुनाई दिए जबकि चीन के साथ हुए  हालिया 25 वर्षीय करार के विरुद्ध पूरे देश में बवाल मच गया है। लोगों का कहना है कि चीन  ने जिस भी देश में निवेश किया वह उस पर कर्ज का बोझ लादकर गुलाम बनाने का दाँव चलता है। अफ्रीका के अनेक देशों पर चीन ने जिस तरह से शिकंजा कसा वह ईरान के लोगों को डरा रहा है लेकिन अमेरिका द्वारा लगातार धमकाए जाने के कारण ईरान को भी अपने लिए एक संरक्षक चाहिए था और उसी कारण उसने चीन का हाथ थाम लिया। हालांकि इस  निष्कर्ष तक पहुंचना जल्दबाजी होगी कि ये भारत के लिए कूटनीतिक झटका है या नहीं क्योंकि ईरान से तेल की खरीदी बंद करने के बाद ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं था। देखने वाली बात ये होगी कि क्या चीन के विरोध में वहां जिस तरह की जन भावनाएं देखने मिल रही हैं वे कितनी देर तक टिकती हैं ?  यदि वे इसी तरह उग्र बनी रहीं तब तो ईरानी सरकार के लिये मुसीबत खड़ी हो जायेगी। कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित होने वाले देशों में ईरान काफी अग्रणी रहा। शुरुवाती दौर में इटली, स्पेन और ईरान में ही कोरोना का तांडव सबसे ज्यादा था। इस कारण ईरान में जनता का एक बड़ा वर्ग चीन  को कोरोना के लिए जिम्मेदार, मानकर उसके साथ किसी भी तरह के समझौते की मुखालफत कर रहा है। एशिया के कूटनीतिक संतुलन में चीन के साथ ईरान की दोस्ती से होने से वाले  बदलाव का असर  आने वाले समय में दिखाई देगा। भारत की मजबूरी ये है कि उसे भी अमेरिका की बहुत जरूरत है। बावजूद इसके भारत और ईरान में नजदीकी की संभावनाएं पूरे तौर पर खत्म नहीं हुईं हैं क्योंकि चीन के साथ उसके रिश्ते मजबूरी का सौदा हो सकते हैं लेकिन उनमें स्थायित्व की गारंटी नहीं दी जा सकती। सतही तौर पर ये कूटनीतिक बदलाव भारत के हितों पर चोट है लेकिन इसे धक्का नहीं कहा जा सकता क्योंकि रिश्ते कमजोर करने की पहल तो भारत ने ही की थी। उसके व्यापक राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर शायद ऐसा करना ही ठीक था। और फिर कूटनीति में रिश्ते आदर्श और भावनाओं से ज्यादा आवश्यकता और उपयोगिता पर आधारित होते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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