Tuesday 31 December 2019

वंशवाद : भारतीय राजनीति का स्थापित सत्य



महाराष्ट्र मंत्रीमंडल का गत दिवस जो विस्तार हुआ उसकी सबसे उल्लेखनीय बात ये है कि 14 मंत्री ऐसे हैं जो किसी नेता के परिवारजन हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कैबिनेट मंत्री बने लेकिन शरद पवार के भतीजे अजीत को एक बार फिर उप मुख्यमंत्री पद मिल गया। सबसे चौंकाने वाला नाम मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य का रहा जिन्हें कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। हालाँकि इससे शिवसेना के भीतर ही असंतोष की खबरें भी मिली हैं। मिली जुली सरकार में योग्यता से ज्यादा सौदेबाजी महत्वपूर्ण होती है और उस लिहाज से उद्धव ने कुछ अप्रत्याशित नहीं किया। चूंकि सरकार की स्थिरता पर प्रश्नचिन्ह कायम हैं इसलिए मुख्यमंत्री ने आलोचना की परवाह किये बिना अपने बेटे को कैबिनेट मंत्री बनाकर भविष्य के लिए तैयार कर लिया। वैसे भी शिवसेना ने शुरुवात में आदित्य का नाम ही बतौर मुख्यमंत्री आगे किया था। कल ज्योंही मंत्रीमंडल का विस्तार हुआ त्योंही परिवारवाद के आरोप लगे। इसकी वजह आदित्य का मंत्री बनना ही रहा लेकिन शिवसेना की सहयोगी एनसीपी और कांग्रेस दोनों को परिवारवाद से धेले भर परहेज नहीं रहा और फिर खुद उद्धव भी तो इसी वजह से राज ठाकरे को किनारे करते हुए पार्टी के मुखिया बन बैठे। यूँ भी देश में जितनी क्षेत्रीय पार्टियां हैं सभी वंशवाद की पोषक हैं इसलिए उद्धव को कठघरे में खड़ा करना औचित्यहीन है। पिछली देवेन्द्र फणनवीस सरकार में भी स्व. गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मंत्री थीं। इसी तरह स्व. प्रमोद महाजन की बेटी पूनम मुम्बई से भाजपा सांसद हैं। हालाँकि नीतीश कुमार जैसे नेता भी हैं जिनके परिवारजन सियासत से दूर हैं लेकिन भाजपा के शेष सहयोगी अकाली, लोजपा आदि में वंशवाद का बोलबाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जब मतदाता नेताओं के परिजनों को चुनाव जितवाने में मददगार बनते हैं तब उन्हें जनस्वीकृति मिल जाती है। वरना राहुल और प्रियंका गांधी, सुखबीर और हरसिमरत बादल, ओमप्रकाश और दुष्यंत चौटाला, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, स्टालिन, कनिमोझी, फारुख और उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती जैसे तमाम नेता राजनीति में स्थापित नहीं होते। भाजपा के शीर्षस्थ स्तर पर भले ही परिवारवाद अभी भी उतना हावी नहीं है लेकिन उसके बाद वाले स्तर पर उसकी शुरुवात हो चुकी है। वामपंथी दलों में परिवारजनों को आगे बढ़ाने का चलन बेशक नहीं है। समूचे परिदृश्य पर नजर डालने के बाद ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि वंशवाद भारतीय राजनीति की सच्चाई बन चुका है। उद्धव ठाकरे द्वारा अपने बेटे को अपने ही मंत्रीमंडल में कैबिनेट मंत्री बनाने पर इसीलिये किसी को आश्चर्य नहीं हुआ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

सीडीएस : सही समय, सही निर्णय, सही व्यक्ति



यद्यपि यह आम जनता से जुड़ा हुआ विषय नहीं है इसलिए इस पर सार्वजानिक चर्चा अपेक्षाकृत कम ही होगी लेकिन सुरक्षा से सम्बन्धित होने के कारण सीडीएस (चीफ  ऑफ डिफेन्स स्टाफ ) पद का सृजन निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो वर्षों से लंबित था। मोदी सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए आज ही सेवानिवृत्त हो रहे थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत को इस पद पर नियुक्त करने का आदेश पारित कर दिया। सीडीएस की आयु सीमा भी 65 वर्ष रखी गई है। सीडीएस दरअसल सेना के तीनों अंगों के बीच समन्वयक की भूमिका का निर्वहन करने के साथ ही रक्षा संबंधी जरूरतों को लेकर सलाहकार का काम भी देखेंगे। वैसे तो अजीत डोभाल के रूप में पूर्णकालिक रक्षा सलाहकार पहले से है लेकिन उनके पास और भी ऐसे कार्य है जिनकी वजह से सेना की जरूरतों के साथ रणनीतिक निर्णयों के लिए एक विशेषज्ञ की आवश्यकता लम्बे समय से अनुभव की जा रही थी। कारगिल युद्ध के दौरान सेना के सभी अंगों के बीच समन्वय की कुछ कमी की वजह से जो नुकसान उठाना पड़ा उसके बाद से ही इस पद की जरूरत पर जोर दिया जाता रहा था। लेकिन इच्छाशक्ति की कमी की वजह से बात टलती चली गई। बीते कुछ समय से केंद्र सरकार इस बारे में गम्भीर थी। विशेष रूप से पाकिस्तान और चीन दोनों की तरफ  से सीमा पर मौजूद खतरे को दृष्टिगत रखते हुए ये जरूरी हो गया था कि रोजमर्रे की सैन्य गतिविधियों के सुचारू संचालन में बार-बार राजनीतिक नेतृत्व का मुंह नहीं ताकना पड़े और सरकार के उच्च स्तर को भी बजाय सेना के तीनों अंगों से बात करने के एक ही सूत्र से सारी जानकारी मिलती रहे। मोदी सरकार ने सेना को सुसज्जित करने के साथ ही मोर्चे पर कार्रवाई करने के मामले में काफी छूट दी है। इसके अच्छे परिणाम भी आये। रक्षा उपकरणों की जो खरीदी मनमोहन सरकार ने धीमी कर रखी थी उसमें भी तेजी लाई गयी और बजाय एक या दो देशों पर निर्भर रहने के राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न देशों से बाकायदा मोलभाव करते हुए अस्त्र-शस्त्र खरीदे जाने के अलावा देश में उनके उत्पादन संबंधी अनुबंध भी उन देशों से किये गए। ये बात भी सही है कि भारत जैसे विविधता भरे देश में आंतरिक समस्याओं में केंद्र सरकार इतनी उलझी रहती है कि उसके पास रक्षा मामलों पर समुचित ध्यान देने हेतु समय कम पड़ता है। इस वजह से महत्वपूर्ण फैसले लालफीताशाही के शिकार होकर रह जाते हैं। वाजपेयी सरकार के समय रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज सियाचिन दौरे पर गए तब उन्हें मालूम हुआ कि सैनिकों को बर्फ  पर चलने के लिए आइस स्कूटर दिए जाने की फाइल लम्बे समय से रक्षा मंत्रालय में दबी पड़ी है। उस पर नाराज होते हुए जॉर्ज ने आदेश दिया कि उसके लिए जिम्मेदार मंत्रालय के अधिकारियों को कुछ दिनों तक सियाचिन में रखा जाए जिससे उन्हें सैनिकों की मुश्किलों की जानकारी मिले। ये बात भी सही है कि सेना के अधिकारी सिविल प्रशासन के साथ समुचित संवाद नहीं कर पाते क्योंकि दोनों की कार्यशैली में जमीन आसमान का अंतर होता है। सीडीएस उस लिहाज से सेना की समन्वित आवाज सरकार तक पहुँचाने में सेतु का काम करेंगे। तीनों अंगों के बीच बेहतर तालमेल और संवाद के लिए सैन्य पृष्ठभूमि का व्यक्ति ही सर्वथा उपयुक्त रहेगा ये बात विभिन्न अध्ययनों से साबित हो चुकी है। प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री के लिए भी तीन सेनाध्यक्षों से संवाद करने की बजाय समूची सेना के एक मुखिया से संवाद निर्णय और रणनीति दोनों के लिए फायदेमंद रहेगा। दुनिया के विभिन्न देशों में सीडीएस का पद है। और फिर जनरल रावत ने बतौर थलसेनाध्यक्ष उल्लेखनीय काम किया। सर्जिकल स्ट्राइक के अलावा सीमा पार से होने वाली घुसपैठ रोकने में उनकी रणनीति कारगर रही। चीन से सटी सीमा पर भी भारतीय सेना ने अनेक विषम परिस्थितियों में सराहनीय काम किया। सबसे बड़ी बात ये है कि वे काफी आक्रामक माने जाते हैं जो शत्रु पर मनोवैज्ञनिक दबाव बनाने में सहायक होता है। सीडीएस प्रधानमंत्री को आणविक हथियारों सबंधी सलाह देने हेतु भी अधिकृत होंगे जो बहुत ही जिम्मेदारी भरा काम है। कुल मिलाकर केंद्र सरकार का ये निर्णय रक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद करने के साथ ही निर्णयात्मक अनिश्चितता को दूर करने वाला होगा। सेना के तीनों अंगों के लिए भी अपने ही बीच के व्यक्ति के जरिये सरकार के साथ सम्पर्क करना अपेक्षाकृत आसान रहेगा। जनरल रावत का मौजूदा सरकार के साथ अच्छा समन्वय बना रहने से ये उम्मीद की जा सकती है कि सीडीएस पद का सृजन अपनी सार्थकता को साबित करेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 30 December 2019

अपना घर भी साफ करे पत्रकार बिरादरी



मप्र की राजनीति में हलचल मचा देने वाले हनी ट्रैप कांड में हुए खुलासे के अनुसार न सिर्फ राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी अपितु कतिपय पत्रकार भी उसमें लिप्त बताये जा रहे हैं। फर्क  केवल ये है कि एक तरफ नेता और अधिकारी जहां अय्याशी के चक्कर में फंसकर ब्लैकमेल होते रहे वहीं जिन पत्रकारों के नाम उछले हैं वे उन महिलाओं के साथ इस धंधे में शामिल होकर ब्लैकमेलिंग में भागीदार बनते रहे। अखबारी रिपोर्ट के अनुसार जो प्रारंभिक आरोप पत्र दाखिल हुए उनमें नेताओं और अधिकारियों को तो अलग रखा ही गया लगे हाथ पत्रकारों को भी बख्श दिया गया है। यद्यपि ये कहा जा रहा है कि अभी जांच चल रही है और हो सकता है आने वाले दिनों में आरोपियों की सूची में उन लोगों के नाम भी दिखाई दें जो प्रतिष्ठा रूपी खजूर के झाड़ पर बैठे हुए हैं। ये सम्भावना भी जताई जा रही है कि अदालत भी स्वत: होकर आरोप पत्र से बाहर रखे गये उन लोगों को लपेटे में ले सकती है जिन्हें सरकारी जाँच एजेंसी ने अभी तक दूर रखा हुआ है। इस बारे में एक बात तो साफ है कि जिन महिलाओं को हनी ट्रैप का जाल फैलाकर करोड़ों वसूलने के आरोप में पकड़ा गया वे लम्बे समय से अपना कारोबार फैलाये हुईं थीं। बीच-बीच में कुछ सीडी भी प्रकाश में आईं लेकिन तत्कालीन सरकार ने उसकी तरफ  ध्यान क्यों नहीं दिया ये बड़ा सवाल है। शायद मौजूदा सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती यदि सत्ता के गलियारों में अच्छी पहुँच रखने वाले कतिपय वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों की इज्जत तार-तार होने की नौबत नहीं आती। संचार क्रांति के इस दौर में इस तरह की बातों को प्रसारित करना बेहद आसान हो गया है। यू ट्यूब पर इस काण्ड के सम्बन्ध में जो सामग्री उपलब्ध है उसका प्रमाणीकरण भले न हो पाया हो लेकिन उसे हांडी का एक चावल मानकर कुछ निष्कर्ष तो निकाले ही जा सकते हैं। यूँ भी राजनेताओं और उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारियों का गठजोड़ कोई नई बात नहीं है। सता प्रतिष्ठान में शराब और शबाब के चलन की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है परन्तु इस तरह का नंगा नाच नहीं होता था। इस सम्बन्ध में सबसे चिंताजनक और शर्मनाक बात ये है कि अब समाचार माध्यमों से जुड़े लोग भी इस तरह के धंधों में शरीक पाए जाने लगे हैं। पत्रकारिता के नाम पर राजधानियों में होने वाली दलाली भी नई बात नहीं रही। टेलीकॉम घोटाले में जिस तरह से देश के नामचीन पत्रकारों की असलियत सामने आई वह देखकर पूरे देश को आश्चर्य हुआ। भले ही वे जिस संस्थान में कार्यरत थे वहां से बाहर कर दिए गए हों लेकिन उनकी करतूतों ने पूरे पत्रकार जगत को संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया। मप्र के हनी ट्रैप काण्ड में भी पत्रकारों की संलिप्तता ने समूची पत्रकार बिरादरी के समक्ष शोचनीय हालत उत्पन्न कर दिए हैं। भले ही चंद स्तरहीन लोगों के कारण पूरी पत्रकार बिरादरी को लांछित नहीं किया जा सकता लेकिन दूसरों की टोपी उछालकर खुद को परम पवित्र समझने वालों को भी ये सोचना और समझना चाहिए कि वे अपने ही बीच बैठे उन लोगों का पर्दाफाश करें जो इस पवित्र पेशे को कलंकित कर रहे हैं। खोजी पत्रकारिता की आड़ में चल रहे गोरखधंधे भी चिंता का विषय हैं। ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि कुछ लोगों के लिए पत्रकारिता भी राजनीति की तरह अपने स्वार्थ सिद्ध करने का जरिया बन गई है। कुछ अखबार और टीवी चैनलों के मालिक इस माध्यम का किस हद तक दुरूपयोग करते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। हनी ट्रैप काण्ड में नेताओं और अधिकारियों के साथ ही पत्रकारों के नाम आने से निश्चित रूप से उन लोगों का चिंतित होना लाजमी है जो व्यवसायिकता के इस दौर में भी स्वस्थ ही नहीं अपितु स्वच्छ पत्रकारिता के प्रति संकल्पित हैं। बेहतर हो खोजी पत्रकारिता में महारत रखने वाले रोमांच प्रेमी पत्रकार अपनी बिरादरी में घुसे और छिपे उन चेहरों से नकाब उतारने का भी दुस्साहस करें जो इस पवित्र पेशे के साथ व्यभिचार करने पर आमादा हैं। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए आये दिन शासन से गुहार लगाने के साथ ही पत्रकारिता की सुरक्षा की चिंता समय की मांग है। राजनीति और प्रशासन में बैठे लोगों ने तो मान-मर्यादा को कब की तिलांजलि दे दी। लेकिन पत्रकारिता से जुड़े लोगों को अपने पेशे की प्रतिष्ठा बनाये रखने आगे आना चाहिए क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कुछ होता भी नहीं है। इसके पहले कि मीडिया माफिया को औपचारिक मान्यता मिल जाए पत्रकार बिरादरी को अपना घर साफ करने की पहल करनी चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 28 December 2019

लोकतंत्र को रस्ते का माल सस्ते में न समझें



उप्र की योगी सरकार द्वारा बीते दिनों लखनऊ सहित प्रदेश के कुछ और शहरों में हुए हिंसक उपद्रव और तोडफ़ोड़ के दोषियों की गिरफ्तारी के साथ ही सार्वजनिक संपत्ति को पहुंचाए गये नुकसान की भरपाई उपद्रवियों से किये जाने का जो फैसला किया गया उससे भले ही कुछ लोग असहमत हों लेकिन जनांदोलन के नाम पर सरकारी या निजी संपत्ति को क्षति पहुँचाने का जो चलन चल पड़ा है उस पर नियंत्रण लगाना निहायत जरूरी हो गया है। योगी सरकार ने उपद्रवियों की पहिचान कर गिरफ्तारी तो की ही, लगे हाथ उन्हें नुकसान की भरपाई का नोटिस भी थमा दिया। भुगतान नहीं करने पर उनके घर या अन्य संपत्ति की कुर्की किये जाने की घोषणा भी कर दी। इस फैसले का ये कहकर विरोध हो रहा है कि उपद्रव में भाग लेने वाले अधिकांश लोग बेहद गरीब हैं जिनसे नुकसान का हर्जाना वसूलना संभव नहीं है। इसी तरह उन्हें लम्बे समय तक जेल में रखे जाने पर उनके परिजनों के सामने आजीविका का संकट उत्पन्न हो जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने तो बिना समुचित कानूनी प्रक्रिया पूरी किये नुकसान की भरपाई को गैर कानूनी बता दिया। विरोध में और भी तर्क दिए जा रहे हैं। लेकिन पूरे देश में सुलझे दिमाग के लोगों ने योगी आदित्यनाथ के इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे देश भर में लागू किये जाने की जरूरत बताई। योगी सरकार के संदर्भित फैसले का एक वर्ग विशेष इसलिए विरोध कर रहा ही क्योंकि इससे प्रभावित होने वाले अधिकतर लोग मुस्लिम समुदाय के हैं। ये भी कहा जा रहा है कि अतीत में हुए पाटीदार, गुर्जर और जाट आन्दोलनों में भी सरकारी और दीगर संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया गया किन्तु उसके लिए दोषी लोगों को गिरफ्तार तो किया गया लेकिन उनसे नुकसान की भरपाई नहीं की गयी। लोगों को इस बात का भी ज्यादा पता नहीं है कि देश में सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम 1984 पहले से लागू है लेकिन उसका उपयोग नहीं होने से जनांदोलनों में सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाना सामान्य प्रक्रिया हो चली है। दिल्ली के जामिया मिलिया विवि में भी बस को आग लगाई गयी। देश के अनेक शहरों में बीते कुछ दिनों में जो भी आन्दोलन हुए उनमें तोडफ़ोड़ और आगजनी भी अनिवार्य रूप से हुई। आन्दोलन की पीठ पर हाथ रखने वाले नेता और संगठन भी हिंसा और तोडफ़ोड़ की आलोचना करते तो हैं लेकिन उससे हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति की नैतिकता कोई नहीं दिखाता। योगी सरकार की कड़ाई का असर ये हुआ कि बुलंदशहर के मुस्लिम समुदाय द्वारा अन्दोलन के दौरान हुए नुकसान की भरपाई हेतु राशि एकत्र कर प्रशासन को सौंप दी। भीड़तंत्र में बदलते जा रहे हमारे लोकतंत्र में दायित्वबोध पूरी तरह से गायब है। राजनीतिक नेतृत्व ही इसके लिए जिम्मेदार है। बिना टिकिट लिए रेलों में भरकर लोगों को दिल्ली ले जाकर रैलियाँ करने से शुरू प्रवृत्ति अब हिंसक हो चली है। योगी सरकार की वैचारिक स्तर पर कितनी भी आलोचना क्यों न हो लेकिन इस मामले में उसका कदम पूरी तरह सही है। लोकतंत्र को रस्ते का माल सस्ते में समझने वालों को ये जान लेना चाहिए कि स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता में फर्क होता है और उनके द्वारा किये जाने वाले किसे भी गैर कानूनी कृत्य की सजा उन्हें भोगनी पड़ेगी फिर चाहे वह जेल हो या आर्थिक दंड।

-रवीन्द्र वाजपेयी


नीति-निर्णय अच्छे पर नौकरशाही को कसना होगा



मप्र की कमलनाथ सरकार अपना एक वर्ष पूरा कर चुकी है। उसके सिर पर मंडराने वाली अस्थिरता की तलवार भी दूर हो गई है। कुशल और अनुभवी राजनेता की तरह उन्होंने दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे अपने प्रतिद्वंदियों को भी ठंडा कर दिया। कमलनाथ मुख्यमंत्री के साथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। इस तरह सत्ता और संगठन दोनों पर उनका नियंत्रण है। बीते एक साल के दौरान उन्होंने प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनाने हेतु काफी प्रयास किये। इंदौर में बहुत बड़ा निवेशक सम्मलेन भी आयोजित किया। हालांकि उसमें जो निवेश प्रस्ताव आये उनमें से कितने जमीन पर उतरेंगे ये अभी स्पष्ट नहीं है किन्तु प्रदेश सरकार द्वारा नये उद्योग लगाने के लिए सरकारी औपचारिकताओं की समय सीमा तय करने की जो व्यवस्था की जा रही है , वह सही दिशा में उठाया कदम है। बीते अनेक सालों से प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए कवायद जारी है। पिछली शिवराज सरकार ने भी खूब निवेशक सम्मलेन किये लेकिन उनका समुचित लाभ नहीं मिल सका। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के प्रयासों को तो हलके में नहीं लिया जा सकता लेकिन नौकरशाही की कार्यशैली में अपेक्षित सुधार नहीं होने से बात आगे नहीं बढ़ सकी। कमलनाथ खुद भी औद्योगिक पृष्ठभूमि से हैं और देश के बड़े औद्योगिक घरानों से उनका निकट सम्बन्ध है। अतीत में वे केंद्र सरकार में वाणिज्य मंत्रालय भी संभाल चुके हैं। इस वजह से उन्हें उद्योग लगाने वालों को सरकारी विभागों से होने वाली दिक्कतों का पूरा एहसास है। संभवत: इसीलिये उन्होंने औद्योगिक इकाई स्थापित करने की दिशा में आने वाली परेशानी दूर करने के लिए सरकारी विभागों की तरफ  से होने वाले विलम्ब को खत्म करने की व्यवस्था की। राजनीतिक दृष्टिकोण से अलग हटकर देखें तो मुख्यमंत्री ने रचनात्मक सोच का परिचय दिया। नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री बनकर गये तब उन्हें शासन - प्रशासन का रत्ती भर अनुभव नहीं था। लेकिन उन्होंने बिना वक्त गंवाए राज्य की नौकरशाही को उद्योग-धंधों के प्रति उदार और सहयोगात्मक रवैया अपनाने के लिए प्रेरित किया। और जल्द ही उसके अच्छे नतीजे आने लगे। श्री मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी कार्यशैली बहुत ही सहायक बनी। कमलनाथ को बहुत ही व्यावहारिक नेता माना जाता है। एक साल के भीतर उन्होंने ये समझ लिया कि मप्र के औद्योगिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा यहाँ की नौकरशाही का रवैया है जो किसी भी काम में अड़ंगा लगाने में सिद्धहस्त है। शिवराज सिंह निश्चित रूप से एक लोकप्रिय जननेता थे लेकिन वे नौकरशाही पर नियंत्रण नहीं रख पाये जिसकी वजह से उनकी सरकार औद्योगिक विकास के पैमाने पर अपेक्षित सफलता अर्जित नहीं कर सकी। कमलनाथ ने उस कमी को भांपकर नौकरशाही में कसावट लाने के लिए नए उद्योग हेतु आने वाले आवेदनों से जुड़ी औपचारिकताओं को पूरा करने की समयबद्ध प्रक्रिया तय करने का जो निर्णय लिया वह निश्चित रूप से अच्छे नतीजे दे सकेगा। लेकिन पिछले अनुभवों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि सचिवालय के अलावा अन्य शासकीय दफ्तरों में बैठे छोटे और बड़े बाबू भी बहुत ही मोटी चमड़ी वाले हैं। उनमें पेशेवर सोच नाम की चीज नहीं होने से वे किसी भी अच्छी योजना का सत्यानाश करने में नहीं हिचकते। मुख्यमंत्री को ये देखना होगा कि उनके अच्छे फैसले पूरी तरह से अमल में आ जाएं। इस हेतु ऊपर से लेकर नीचे तक नजर रखनी होनी क्योंकि मप्र में सरकारी मशीनरी की कार्य संस्कृति अभी भी कई दशक पुरानी है। कमलनाथ ने यदि उसे सुधार लिया तब औद्योगिक विकास की दिशा में तय किये गए लक्ष्य हासिल किये जा सकेंगे वरना वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति बनी रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 December 2019

अपने ही बुने जाल में फंस गई कांग्रेस



 पहले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर ( एनसीआर) फिर नागरिकता संशोधन कानून ( सीएए) और अब राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर पूरे देश में राजनीति  गरमाई हुई है | समूची कवायद को संविधान और धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा बताया जा रहा है | बीते दिनों पूर्वोत्तर और उत्तर भारत के अनेक राज्यों में हिंसक उपद्रव भी हुए | केंद्र सरकार ने साफ़ शब्दों में आश्वासन दिया कि समूची प्रक्रिया के पीछे किसी की नागरिकता छीनने का कोई इरादा नहीं है | लेकिन विरोधी उसे मानने को राजी नहीं हैं | गैर भाजपा शासन वाले अनेक राज्यों के साथ ही भाजपा के सहयोगी नीतीश कुमार ने भी बिहार में नागरिकता संशोधन कानून लागू करने से इंकार कर दिया | संसद में इसका समर्थन करने वाली बीजद की उड़ीसा सरकार ने भी इसे लागू करने में असमर्थता व्यक्त कर दी | हालाँकि इस मामले में पेंच ये भी है कि नागरिकता देना केंद्र सरकार के अधिकार में है न कि राज्य के | बावजूद इसके राजनीतिक दांव पेंच अपनी तरह से चल रहे हैं | एनसीआर और सीएए को लेकर विवाद खत्म हो पाता उसके पहले ही केन्द्रीय मंत्री परिषद ने एनपीआर तैयार करने को मंजूरी देकर मानो बर्र के छत्ते में पत्थर मार दिया | सरकार ने स्पष्ट किया कि इस हेतु किसी तरह का दस्तावेजी प्रमाण नहीं देना पड़ेगा  और सम्बंधित व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी ही पर्याप्त होगी किन्तु सरकार विरोधी खेमा ये प्रचारित करने में जुट गया कि एनपीआर के जरिये एकत्र की गई जानकारी ही बाद में जाकर एनसीआर का आधार बन जायेगी | हालांकि वह इस बात को साफ़ नहीं कर पाया कि यदि ऐसा होता भी है तो इससे आम आदमी को क्या नुकसान होगा ? इस खींचातानी में केंद्र सरकार ने ये खुलासा कर  दिया कि 2011 की जनगणना के पहले 2010 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने की कवायद शुरू की थी | इसके अंतर्गत अनेक नागरिकों को बाकायदा परिचय पत्र भी दिए गए जिनमें सर्वप्रथम उस समय की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल थीं | इस रजिस्टर की कल्पना कारगिल युद्ध के बाद की गयी | यूपीए सराकार के दौर में एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में देश के सभी नागरिकों का एक रजिस्टर बनाने की जरूरत बताई | लेकिन काम शुरू हुआ 2010 में | उल्लेखनीय है 2021 में पुनः देश की जनगणना होनी है | उस हेतु केंद्र सरकार ने एनपीआर तैयार करने का निर्णय लिया जो कोई नई बात नहीं है | फिर इसका विरोध क्यों  हो रहा है ये समझ से परे है | सरकार का कहना है कि विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन में जनसँख्या रजिस्टर से मदद मिलती है | विपक्ष का ये आरोप भी बेमानी है कि इस हेतु एकत्र की जाने वाली जानकारी ही एनसीआर का आधार बनेगी | देश में रहने वालों के बारे में अधिकृत जानकारी का आखिर कोई रिकार्ड तो होना ही चाहिए | आखिर मतदाता सूची बनाते समय भी तो व्यक्ति को वांछित जानकारी देनी होती है | पूर्व गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने ये सफाई दी है कि 2010 में जिस एनपीआर की शुरुवात की गयी थी उसमें एनसीआर का कोई जिक्र नहीं था लेकिन जो जानकारी आई उसके अनुसार तो मनमोहन सरकार ने संसद में ही बताया था कि एनआरसी की दिशा में एनपीआर पहला कदम है | जिस तरह की बातें सामने आती जा रही हैं उनसे स्पष्ट हो गया है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर पूरे देश को भ्रमित और भयभीत कर रही है | देश में जनसँख्या का रजिस्टर बने और फिर नागरिकता का रिकार्ड तैयार किया जाए इसमें किसी को ऐतराज क्यों होना चाहिए ? हर देश अपने नागरिकों की पंजी रखता है | नागरिकों को परिचय पत्र भी दिया जाता है जो बहुउद्देशीय होता है | प्रधानमन्त्री ने हाल ही में ये सवाल उठाया था कि सात दशक तक ये काम क्यों नहीं हो पाया , इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए | राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी ये आवश्यक है कि देश  में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के बारे में सरकार के पास विधिवत जानकारी रहे | नागरिकता सम्बन्धी मौजूदा विवाद पर अनेक लोगों का कहना है कि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को  जन्म देने वाले देश का विदेशियों को नागरिकता देने के मामले में इतना अनुदार हो जाना उसकी प्राचीन संस्कृति के विरुद्ध है | शशि थरूर जैसे नेताओं ने तो राष्ट्रीय शरण नीति बनाने की वकालत तक की है | सारा झगड़ा इस बात का है कि सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक में मुस्लिमों को बाहर रखते हुए पाकिस्तान , बांग्ला देश और अफगानिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार केवल हिन्दू , सिख , बौद्ध , जैन , ईसाई और पारसी शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान किया | इसे लेकर पूरे देश में मुस्लिम समुदाय को भड़काकर हिंसा फ़ैलाने का तानाबाना बुना गया | सरकार के बारम्बार आश्वस्त करने का भी कोई असर नहीं हुआ | मुसलामानों के मन में सुनियोजित तरीके से ये डर बिठा दिया गया कि उनकी नागरिकता को खतरे में डालने हेतु मोदी सरकार ने एनसीआर , सीएए और एनपीआर जैसे फैसले किये | लेकिन धीरे  - धीरे कांग्रेस अपने बनाये जाला में स्वयं फंसती जा रही है क्योंकि  एनसीआर और एनपीआर को लेकर उसकी सरकार ने ही कदम आगे बढ़ाये थे | हाँ , एक बात जरुर है कि मोदी सरकार ने इस मामले में निर्भीक होकर निर्णय किये | यदि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने अक्लमंदी दिखाते हुए एनसीआर और एनपीआर के लिए मोदी सरकार को कठघरे  में खड़ा करने की बजाय ये कहने का साहस दिखाया होता कि ये तो उसके कार्यकाल में उठाये गये कदम थे तब शायद उसके पक्ष में एक सकारात्मक वातावरण बना होता और एक जिम्मेदार विपक्ष होने के लिए उसकी प्रशंसा होती | बहरहाल कांग्रेस गलतियों को सुधारने की बजाय उन्हें दोहराने पर आमादा है | आज जिस नीतिगत भटकाव और गैर जिम्मेदाराना आचरण का वह परिचय दे रही है उसकी वजह से न तो वह मुसलमानों की चहेती रह सकी और न ही हिन्दुओं का मन ही जीत पा रही है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 December 2019

अरुंधती राय : विकृत मानसिकता की प्रतीक



कुछ लोग सुर्खियों में बने रहने के लिए ऊलजलूल बातों का सहारा लिया करते हैं। कथित सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका अरुंधती राय भी उन्हीं में से एक हैं। इनके उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स पर जब बुकर पुरस्कार मिला तब इनकी शख्सियत का संज्ञान लिया गया। अरुंधती कहने को तो बहुत कुछ करती हैं। वे पर्यावरण सुरक्षा के लिए भी लड़ती हैं। नर्मदा बचाओ आन्दोलन में इनकी उपस्थिति यदा-कदा दिखाई देती है। इसके अलावा ये फिल्मों में अभिनय के साथ ही पटकथा लेखन से भी जुड़ी हुई हैं। लेकिन इनका जिक्र अक्सर किसी न किसी विवाद के सिलसिले में होता है। इनकी कार्यप्रणाली में वामपंथी सोच भी परिलक्षित होती है। संक्षेप में कहें तो अरुंधती चंद उन लोगों में से हैं जो मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग का दावा करते नहीं थकते और इन्हें हर चीज में खामी नजर आती है। कश्मीर की आजादी का समर्थन करते हुए टुकड़े-टुकड़े गैंग की पक्षधर बनने में भी ये न डरती हैं और न ही हिचकतीं। कभी-कभी तो लगता है अरुंधती ऐसी किसी विदेशी कार्ययोजना का हिस्सा हैं जो भारत को भीतर से कमजोर करने में जुटी हुई है। उन जैसे तमाम लोग हैं जो कभी असहिष्णुता का रोना रोते हुए देश के भीतर भय का माहौल बनाते हैं तो कभी अवार्ड वापिसी का ढोंग रचकर खुद को त्याग की प्रतिमूर्ति साबित करने से बाज नहीं आते। अरुंधती का उल्लेख करने के पीछे वजह गत दिवस दिल्ली विवि के छात्रों के बीच दिया उनका वह बयान है जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर हेतु पूछताछ किये जाने पर गलत जानकारी देने सुझाव देते हुए कहा कि अपना नाम रंगा बिल्ला या कूंग फू  कुत्ता बताने के अलावा घर का पता रेस कोर्स (नया नाम लोक कल्याण मार्ग) अर्थात दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री आवास लिखवायें। उन्होंने अपना फोन नम्बर भी गलत बताने की समझाइश दे डाली। दिल्ली विवि के छात्रों द्वारा नागरिकता संबंधी नई व्यवस्थाओं के विरोध में आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए अरुंधती ने इस बात पर भय व्यक्त किया कि राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर (एनपीआर) में दर्ज जानकारी ही आगे जाकर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनसीआर) का आधार बन जायेगी। उन्होंने समूची प्रक्रिया को मुस्लिम विरोधी बताते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधा। देश के नागरिक के तौर पर उन्हें या किसी और को भी सरकार की नीतियों और निर्णयों से असहमत होते हुए उनकी आलोचना करने का अधिकार है लेकिन कानून की शक्ल में लागू किसी व्यवस्था का उल्लंघन अपराध की शक्ल में आता है। उस दृष्टि से अरुंधती का बयान निश्चित तौर पर आपत्तिजनक है। किसी सरकारी दस्तावेज के लिए जान-बूझकर गलत जानकारी देने का अर्थ सरकार को धोखा देना है। दूसरे शब्दों में ये चार सौ बीसी है। जिसके लिए दंड का प्रावधान है। बड़ी-बड़ी बातें करने वाली अरुंधती को क्या इतना भी नहीं पता कि अपनी पहिचान छिपाना संदेह को जन्म देता है। और फिर यदि कोई व्यक्ति अपना नाम, पता और फोन नम्बर जान-बूझकर गलत बताता है तब उसका उद्देश्य अपराधिक ही हो सकता है। डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने अरुंधती पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करते हुए उन्हें गिरफ्तार किये जाने की जो मांग की है वह पूरी तरह सही है। सार्वजानिक रूप से उन्होंने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में गलत जानकारी देने की जो सलाह दी वह सरकार के विरुद्ध एक तरह की बगावत ही है। कोई अशिक्षित या अल्प शिक्षित व्यक्ति यदि इस तरह की बातें कहता तब उसे माफ किया भी जा सकता था लेकिन अरुंधती को तो ज्ञान का अजीर्ण है। इसलिए बेहतर होगा उनके विरूद्ध कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए जिससे कोई और उन जैसी जुर्रत नहीं कर सके। बड़ी बात नहीं ये बयान भी देश को कमजोर करने वाली ताकतों की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा हो। ये पहला अवसर नहीं है जब अरुंधती ने देश हित के विरुद्ध बात कही हो। उन जैसे कुछ और लोग भी देश में हैं जो अदृश्य ताकतों से निर्देशित और नियंत्रित होकर देश को खंडित करने में जुटे हुए हैं। ये बात भी सर्वविदित है कि कुछ विदेशी एजेंसियां भारत के ऐसे लोगों को पुरस्कृत करते हुए उन्हें मालामाल करती हैं जो व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह का वातावरण बनाकर देश की एकता को छिन्न-भिन्न करने में सहायक बन सकें। डा. स्वामी ने मांग के अनुसार यदि अरुंधती को राजद्रोह में गिरफ्तार किया जाता है तब अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे का ढोल पीटते हुए टुकड़े-टुकड़े गिरोह के सदस्य पूरे देश में छाती पीटते नजर आने लगेंगे और उनके सरपरस्त कुछ टीवी पत्रकार अपने शो के जरिये ऐसा जाहिर करेंगे मानों देश में लोकतंत्र समाप्त हो गया हो। बीते कुछ वर्षों में देश के भीतर सक्रिय विघटनकारी ताकतों के बीच परदे के पीछे गठबंधन हो चुका है। उनके नाम और चेहरे भले ही अलग-अलग हों लेकिन उनका मकसद चूँकि एक ही है इसलिए वे तमाम मतभेदों के बाद भी एकजुट हो जाते हैं। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि मोदी सरकार आने के बाद हजारों ऐसे संगठनों को मिलने वाला विदेशी अनुदान बंद हो गया जिनकी गतिविधियाँ संदिग्ध थीं। किसी भी घटना पर दिल्ली के इण्डिया गेट सहित देश के विभिन्न शहरों के मुख्य स्थलों पर मोमबत्तियां लेकर व्यक्त की जाने वाली संवेदनशीलता के पीछे दरअसल विदेशी अनुदान छिन जाने का दर्द भी है। किसी भी मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाकर देश में तनाव उत्पन्न करने में ऐसे लोगों का ही हाथ है। नागरिकता संशोधन कानून के 
विरोध में मुस्लिम समुदाय को उकसाकर उनको हिंसक आन्दोलन के रास्ते पर धकेलकर इस तबके ने उन्हें अलग थलग कर दिया जो देश को तोडऩे की दूरगामी योजना के लिए जरूरी है। लेकिन उस कदम से मुस्लिम समुदाय पूरे देश की सहानुभूति गँवा बैठा। सरकार द्वारा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के बारे में ज्योंही निर्णय किया त्योंही टुकड़े-टुकड़े गैंग ने अरुंधती के मुंह से गलत जानकारी देने जैसी बेतुकी और गैर कानूनी बात उछलवा दी। लेकिन ये अच्छा हुआ जो उनके इरादे शुरू में ही उजागर हो गए। सरकार को चाहिए अरुंधती पर कड़ी से कड़ी कानून सम्मत कार्रवाई करते हुए देशविरोधी तत्वों के हौसले पस्त करे। लोकतंत्र में वैचारिक स्वतंत्रता का तो सम्मान होना चाहिए किन्तु देशविरोधी बातें करने वालों की जुबान पर ताला लगाना भी उतना ही जरूरी है। अरुंधती के जिस उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिला उसके कुछ हिस्सों में जिस तरह की गंदगी है उससे इनकी प्रदूषित सोच का पता किया जा सकता है।
अरुंधती राय : विकृत मानसिकता की प्रतीक

कुछ लोग सुर्खियों में बने रहने के लिए ऊलजलूल बातों का सहारा लिया करते हैं। कथित सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका अरुंधती राय भी उन्हीं में से एक हैं। इनके उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स पर जब बुकर पुरस्कार मिला तब इनकी शख्सियत का संज्ञान लिया गया। अरुंधती कहने को तो बहुत कुछ करती हैं। वे पर्यावरण सुरक्षा के लिए भी लड़ती हैं। नर्मदा बचाओ आन्दोलन में इनकी उपस्थिति यदा-कदा दिखाई देती है। इसके अलावा ये फिल्मों में अभिनय के साथ ही पटकथा लेखन से भी जुड़ी हुई हैं। लेकिन इनका जिक्र अक्सर किसी न किसी विवाद के सिलसिले में होता है। इनकी कार्यप्रणाली में वामपंथी सोच भी परिलक्षित होती है। संक्षेप में कहें तो अरुंधती चंद उन लोगों में से हैं जो मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग का दावा करते नहीं थकते और इन्हें हर चीज में खामी नजर आती है। कश्मीर की आजादी का समर्थन करते हुए टुकड़े-टुकड़े गैंग की पक्षधर बनने में भी ये न डरती हैं और न ही हिचकतीं। कभी-कभी तो लगता है अरुंधती ऐसी किसी विदेशी कार्ययोजना का हिस्सा हैं जो भारत को भीतर से कमजोर करने में जुटी हुई है। उन जैसे तमाम लोग हैं जो कभी असहिष्णुता का रोना रोते हुए देश के भीतर भय का माहौल बनाते हैं तो कभी अवार्ड वापिसी का ढोंग रचकर खुद को त्याग की प्रतिमूर्ति साबित करने से बाज नहीं आते। अरुंधती का उल्लेख करने के पीछे वजह गत दिवस दिल्ली विवि के छात्रों के बीच दिया उनका वह बयान है जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर हेतु पूछताछ किये जाने पर गलत जानकारी देने सुझाव देते हुए कहा कि अपना नाम रंगा बिल्ला या कूंग फू  कुत्ता बताने के अलावा घर का पता रेस कोर्स (नया नाम लोक कल्याण मार्ग) अर्थात दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री आवास लिखवायें। उन्होंने अपना फोन नम्बर भी गलत बताने की समझाइश दे डाली। दिल्ली विवि के छात्रों द्वारा नागरिकता संबंधी नई व्यवस्थाओं के विरोध में आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए अरुंधती ने इस बात पर भय व्यक्त किया कि राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर (एनपीआर) में दर्ज जानकारी ही आगे जाकर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनसीआर) का आधार बन जायेगी। उन्होंने समूची प्रक्रिया को मुस्लिम विरोधी बताते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधा। देश के नागरिक के तौर पर उन्हें या किसी और को भी सरकार की नीतियों और निर्णयों से असहमत होते हुए उनकी आलोचना करने का अधिकार है लेकिन कानून की शक्ल में लागू किसी व्यवस्था का उल्लंघन अपराध की शक्ल में आता है। उस दृष्टि से अरुंधती का बयान निश्चित तौर पर आपत्तिजनक है। किसी सरकारी दस्तावेज के लिए जान-बूझकर गलत जानकारी देने का अर्थ सरकार को धोखा देना है। दूसरे शब्दों में ये चार सौ बीसी है। जिसके लिए दंड का प्रावधान है। बड़ी-बड़ी बातें करने वाली अरुंधती को क्या इतना भी नहीं पता कि अपनी पहिचान छिपाना संदेह को जन्म देता है। और फिर यदि कोई व्यक्ति अपना नाम, पता और फोन नम्बर जान-बूझकर गलत बताता है तब उसका उद्देश्य अपराधिक ही हो सकता है। डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने अरुंधती पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करते हुए उन्हें गिरफ्तार किये जाने की जो मांग की है वह पूरी तरह सही है। सार्वजानिक रूप से उन्होंने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में गलत जानकारी देने की जो सलाह दी वह सरकार के विरुद्ध एक तरह की बगावत ही है। कोई अशिक्षित या अल्प शिक्षित व्यक्ति यदि इस तरह की बातें कहता तब उसे माफ किया भी जा सकता था लेकिन अरुंधती को तो ज्ञान का अजीर्ण है। इसलिए बेहतर होगा उनके विरूद्ध कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए जिससे कोई और उन जैसी जुर्रत नहीं कर सके। बड़ी बात नहीं ये बयान भी देश को कमजोर करने वाली ताकतों की किसी दूरगामी योजना का हिस्सा हो। ये पहला अवसर नहीं है जब अरुंधती ने देश हित के विरुद्ध बात कही हो। उन जैसे कुछ और लोग भी देश में हैं जो अदृश्य ताकतों से निर्देशित और नियंत्रित होकर देश को खंडित करने में जुटे हुए हैं। ये बात भी सर्वविदित है कि कुछ विदेशी एजेंसियां भारत के ऐसे लोगों को पुरस्कृत करते हुए उन्हें मालामाल करती हैं जो व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह का वातावरण बनाकर देश की एकता को छिन्न-भिन्न करने में सहायक बन सकें। डा. स्वामी ने मांग के अनुसार यदि अरुंधती को राजद्रोह में गिरफ्तार किया जाता है तब अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे का ढोल पीटते हुए टुकड़े-टुकड़े गिरोह के सदस्य पूरे देश में छाती पीटते नजर आने लगेंगे और उनके सरपरस्त कुछ टीवी पत्रकार अपने शो के जरिये ऐसा जाहिर करेंगे मानों देश में लोकतंत्र समाप्त हो गया हो। बीते कुछ वर्षों में देश के भीतर सक्रिय विघटनकारी ताकतों के बीच परदे के पीछे गठबंधन हो चुका है। उनके नाम और चेहरे भले ही अलग-अलग हों लेकिन उनका मकसद चूँकि एक ही है इसलिए वे तमाम मतभेदों के बाद भी एकजुट हो जाते हैं। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि मोदी सरकार आने के बाद हजारों ऐसे संगठनों को मिलने वाला विदेशी अनुदान बंद हो गया जिनकी गतिविधियाँ संदिग्ध थीं। किसी भी घटना पर दिल्ली के इण्डिया गेट सहित देश के विभिन्न शहरों के मुख्य स्थलों पर मोमबत्तियां लेकर व्यक्त की जाने वाली संवेदनशीलता के पीछे दरअसल विदेशी अनुदान छिन जाने का दर्द भी है। किसी भी मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाकर देश में तनाव उत्पन्न करने में ऐसे लोगों का ही हाथ है। नागरिकता संशोधन कानून के 
विरोध में मुस्लिम समुदाय को उकसाकर उनको हिंसक आन्दोलन के रास्ते पर धकेलकर इस तबके ने उन्हें अलग थलग कर दिया जो देश को तोडऩे की दूरगामी योजना के लिए जरूरी है। लेकिन उस कदम से मुस्लिम समुदाय पूरे देश की सहानुभूति गँवा बैठा। सरकार द्वारा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के बारे में ज्योंही निर्णय किया त्योंही टुकड़े-टुकड़े गैंग ने अरुंधती के मुंह से गलत जानकारी देने जैसी बेतुकी और गैर कानूनी बात उछलवा दी। लेकिन ये अच्छा हुआ जो उनके इरादे शुरू में ही उजागर हो गए। सरकार को चाहिए अरुंधती पर कड़ी से कड़ी कानून सम्मत कार्रवाई करते हुए देशविरोधी तत्वों के हौसले पस्त करे। लोकतंत्र में वैचारिक स्वतंत्रता का तो सम्मान होना चाहिए किन्तु देशविरोधी बातें करने वालों की जुबान पर ताला लगाना भी उतना ही जरूरी है। अरुंधती के जिस उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिला उसके कुछ हिस्सों में जिस तरह की गंदगी है उससे इनकी प्रदूषित सोच का पता किया जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 25 December 2019

क्या ममता राज्यपाल से मंत्रियों को शपथ नहीं दिलवायेंगी



भारत एक संघीय गणराज्य है। इसके अंतर्गत देश का शासन केंद्र और प्रदेश का राज्य की चुनी हुई सरकार चलाती है। संविधान में दोनों के क्षेत्राधिकार का स्पष्ट वर्णन है। किस सरकार को किस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार है वह भी सूची के रूप में पूरी तरह साफ है। इसके अलावा समवर्ती सूची भी है जिसमें उल्लिखित विषयों पर दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं। संघीय सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल हर राज्य में नियुक्त किये जाते हैं जिनका दायित्व संविधान के दायरे में राज्य के शासन का संचालन करवाना है। हालाँकि इस पद को लेकर काफी विवाद रहा है। विशेष रूप से राष्ट्रपति शासन लगाने संबंधी सिफारिश पर राज्यपालों की भूमिका कठघरे में खड़ी की जाती रही है। उन्हें केंद्र का एजेंट कहने वाले भी कम नहीं है। चुनाव बाद जब किसी को बहुमत नहीं मिलता तब राज्यपाल की भूमिका बेहद निर्णायक हो जाती है। कर्नाटक, गोवा और हाल ही में महाराष्ट्र में राज्यपाल द्वारा अल्पमत सरकार को शपथ दिलवाने पर काफी उंगलियाँ उठी। अनेक क्षेत्रीय दलों द्वारा इस पद को ब्रिटिश राज का अवशेष मानकर खत्म कर देने की मांग भी की जाती रही। एक समय था जब इस पद पर अत्यंत योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी किन्तु कालान्तर में महामहिम कहलाने वाले राज्यपालों के रूप में बुजुर्ग, बीमार और राजनीति से अनिवार्य सेवानिवृत्त किये जाने वाले नेताओं को पदस्थ किया जाने लगा। पूर्व नौकरशाहों, सैन्य अधिकारियों और पूर्व न्यायाधीशों को उपकृत करने के लिए भी राज्यपाल बना दिया जाता है। इस पद पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत राजनीति से उपर उठकर संवैधानिक प्रमुख की अपनी भूमिका का निष्पक्ष होकर निर्वहन करें। लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि अनेक राज्यपाल इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसीलिये उन्हें रबर स्टैम्प भी कहा जाता है। ऐसी ही धारणा राष्ट्रपति को लेकर भी है। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और उनके उत्तराधिकारी रहे डॉ. राधाकृष्णन के बाद डॉ. अब्दुल कलाम ही ऐसे रहे जो पूरी तरह से निर्विवाद रहने से सम्मान के पात्र बने। वैसे तो डॉ. जाकिर हुसैन, आर. वेंकटरमण और के.आर. नारायणन भी उच्च प्रतिभा संपन्न थे किन्तु वे भी सरकार की गलत बात पर उंगली उठाने का साहस नहीं कर सके। लेकिन इससे अलग हटकर एक दूसरा पहलू भी है जो संवैधानिक प्रमुख के सम्मान से जुड़ा हुआ है। चूंकि राष्ट्रपति या राज्यपाल पद पर आसीन अधिकतर व्यक्ति राजनीतिक पृष्ठभूमि से ही आते हैं इसलिए वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी निष्पक्षता पर हावी हो जाती है। राष्ट्रपति बनने के पहले स्व. ज्ञानी जैल सिंह का एक बयान बड़ा ही चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा जी के कहने पर झाड़ू तक लगाने जैसी बात कही थी। इंदिरा जी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी को शपथ दिलवाने की बात आई तब ज्ञानी जी ने बिना संसदीय दल का नेता चुने ही स्व. गांधी को प्रधानमन्त्री की शपथ दिलवा दी। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जब राष्ट्रपति और राज्यपाल ने सरकार के गलत निर्णयों को भी आंख मूंदकर मंजूर किया। लेकिन हमारे देश में राजनीति और राजनेताओं का स्तर भी चूंकि गिरता चल गया इसलिए सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर विराजमान होने वाले महानुभावों के आचरण में भी उसी अनुपात में गिरावट आती गई। ऐसे में जो राजनेता राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल की आलोचना करते हैं उन्हें अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए। ताजा संदर्भ राष्ट्रपति और राज्यपाल के अपमान की कुछ घटनाएँ हैं जो संविधान और संघीय ढाँचे के लिहाज से चिंताजनक हैं। पुडुचेरी (पांडिचेरी) विवि में एक छात्रा ने राष्ट्रपति के हाथ से अपनी उपाधि और स्वर्णपदक लेने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने नागरिकता संशोधन विधेयक पर हस्ताक्षर कर उसे कानून बनवा दिया। दूसरा घटनाक्रम बंगाल का है जहां मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और राज्यपाल जगदीप धनगड़ के बीच चल रहा शीतयुद्ध अब बेहूदगी तक आ पहुंचा है। हाल ही में राज्यपाल को विधानसभा भवन के भीतर  जाने तक से रोक दिया गया था। गत दिवस उन्हें जादवपुर विवि के दीक्षांत समारोह में जाने से रोका गया। छात्रों के साथ ही तृणमूल कर्मचारी संघ के लोगों ने महामहिम को विवि में जाने नहीं दिया जिसके बाद उनकी अनुपस्थिति में ही दीक्षांत समारोह संपन्न हुआ। राज्यपाल ने कुलपति की भूमिका पर भी सवाल उठाये जो छात्रों और कर्मचारियों को रोकने का प्रयास करने की बजाय दूर खड़े चुपचाप देखते रहे। उल्लेखनीय है सुश्री बैनर्जी और राज्यपाल के बीच जिस तरह की बयानबाजी चल रही है वह संघीय ढांचे के लिए चिंता का विषय है। राजनीतिक मतभेद अपनी जगह हो सकते हैं। संवैधानिक प्रमुख से असहमति रखने का भी अधिकार मुख्यमंत्री और प्रधानमन्त्री को है लेकिन उनके अपमान की कोशिश को प्रोत्साहन देना गलत परिपाटी है। 1996 में तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा स्व. अटलबिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने हेतु निमन्त्रण दिए जाने पर रामविलास पासवान उनसे नाराज हो गए। 13 दिन बाद उस सरकार के पतन के बाद जब एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में दूसरी सरकार बनी और श्री पासवान ने उसमें मंत्री के तौर पर शपथ ली तब अपनी नाराजगी का प्रगटीकरण करते हुए उन्होंने राष्ट्रपति का अभिवादन करने की सौजन्यता तक नहीं दिखाई। जिसे लेकर वे आलोचना का पात्र भी बने। वैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की आलोचना असामान्य या आपत्तिजनक नहीं है लेकिन उनका अपमान एक तरह से संविधान का अनादर ही कहा जाएगा। संसद में पीठासीन अधिकारी के निर्णयों से विपक्ष रजामंद नहीं होता। शोर शराबा और बहिर्गमन भी आम बात है। लेकिन उनका बहिष्कार नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति के हाथ से उपाधि नहीं लेने वाली छात्रा कल को यदि प्रशासनिक या पुलिस अधिकारी बन जाए तब क्या वह उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने से भी मना कर सकेगी? जादवपुर विवि तो यूँ भी दिल्ली के जेएनयू का दूसरा संस्करण कहा जाता है जहां के छात्र वामपंथी अराजकता के जरिये आतंक मचाये रखते हैं। राज्यपाल विवि के कुलाधिपति होते हैं और दीक्षांत समारोह सबसे महत्वपूर्ण आयोजन। उसमें राज्यपाल के आगमन को रोकने वाले छात्रों पर पुलिस ने क्या कार्रवाई की ये बड़ा सवाल है। ममता बैनर्जी के राजभवन से मतभेद अपनी जगह हैं लेकिन जहां संवैधानिक गरिमा की रक्षा का मामला हो वहां निजी या सियासी मनमुटाव अर्थहीन और अप्रासंगिक होकर रह जाता है। सुश्री बैनर्जी को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि अपने मंत्रीमंडल का विस्तार करते समय वे नए मंत्रियों को शपथ दिलवाने हेतु क्या राज्यपाल से अनुरोध नहीं करेंगीं। वैसे भी हमारे देश में सरकार का प्रमुख राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल ही होता है। देश का वर्तमान राजनीतिक वातावरण जिस तरह से प्रतिशोध से परिपूर्ण हो चला है और उसके फलस्वरूप सौजन्यता और संवाद निरंतर घटते जा रहे हैं उसे देखते हुए संघीय ढांचे के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। देश में राजनीतिक विभिन्नता होने से राज्य और केंद्र में परस्पर विरोधी विचारधाराओं की सत्ता है। ऐसे में जरूरी है सभी दल और उनके नेतागण संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें। राज्यों की स्वायतत्ता का अर्थ स्वेच्छाचारिता अथवा स्वच्छन्दता कतई नहीं हो सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 24 December 2019

संदर्भ झारखंड : भाजपा युक्त भारत अधर में



एक समय था जब कांग्रेस ये कहते हुए विपक्ष का मजाक उड़ाया करती थी कि वह स्थिर सरकार नहीं दे सकता। 1967 में बनी संविद सरकारें और उसके बाद 1977 में बनी जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने कांग्रेस की उक्त बात को सही साबित भी किया। 1989 में आई विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार तो साल भर भी नहीं चल पाई वहीं उसके बाद प्रधानमन्त्री बने चंद्रशेखर तो लालकिले पर झंडा फहराए बिना ही भूतपूर्व हो गए। कमोबेश यही नजारा 1996 और 1998 में बनी वाजपेयी सरकारों का भी हुआ जो क्रमश: 13 दिन और 13 महीनों की मेहमान बनीं। यद्यपि 1999 में जब अटल जी दोबारा सत्ता में आये तो उन्होंने पांच साल तक सरकार चलाकर उस मिथक को तोड़ दिया। राममन्दिर मुद्दे के बाद से देश में भाजपा का प्रभाव तेजी से बढ़ा और विभिन राज्यों में उसकी सरकारें बनीं भी किन्तु बाबरी विध्वंस ने उन्हें चलता कर दिया। 1998 में भाजपा ने मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बनाई। उनमें राजस्थान में तो प्रत्येक पांच साल में सता परिवर्तन होता रहा लेकिन मप्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें पूरे 15 साल चलीं। इस बीच उत्तराखंड और हिमाचल जैसे छोटे राज्यों के साथ गोवा में भी वह सत्ता में आती-जाती रही। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के साथ उसने सत्ता का स्वाद चखा। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से देश का मानचित्र बदला और भाजपा कहीं सीधे तो कहीं परोक्ष तौर पर शासन में आ गई। पूर्वोत्तर के उन राज्यों में जहां उसका नामलेवा नहीं था वहां भी उसने सत्ता हासिल कर ली। त्रिपुरा के वामपंथी दुर्ग को ढहा देना कोई मामूली बात नहीं थी। सबसे महत्वपूर्ण बात ये हुई कि भाजपा ने सरकार बनाना ही नहीं चलाना भी सीख लिया। और यहीं से उसके दिमाग में ये घमंड घर कर गया कि उसने स्थायी सरकार दी है। लेकिन मप्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान और अब महाराष्ट्र के बाद झारखंड में उसके हाथ से सत्ता निकल जाना दर्शाता है कि केवल. स्थिर सरकार ही भावी सफलता की गारंटी नहीं है। महाराष्ट्र और झारखंड दोनों में भाजपा के मुख्यमंत्री अपने हाथों से अपनी पीठ ठोंकते हुए ये कहते रहे कि उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता को ख़त्म करते हुए पूरे पांच साल सरकार चलाने जैसा कारनामा कर दिखाया। स्मरणीय है उक्त दोनों राज्यों में लम्बे समय से कोई मुख्यमंत्री पूरे पांच साल नहीं टिक सका था। ऐसा ही दावा हरियाणा के मुख्यमंत्री विधानसभा चुनाव के दौरान करते रहे। लेकिन नतीजों में ये बात साफ हो गयी कि केवल सरकार का पांच साल तक चलते रहना या मुख्यमंत्री का न बदला जाना अगला चुनाव जिताने में सहायक नहीं बन सकता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं डा. मनमोहन सिंह , जो पूरे 10 साल तक प्रधानमन्त्री रहे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह साफ़ हो गयी। उसके बाद एक- एक कर राज्य उसके हाथ से निकलते चले गए। ऐसा लगा कि नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया कांग्रेस मुक्त भारत का नारा वास्तविकता में बदल जाएगा। लेकिन गत वर्ष दिसम्बर में अचानक हवा उल्टी बहने लगी। मप्र, छतीसगढ़ और राजस्थान भाजपा के हाथ से निकल गए। इस साल हुए महाराष्ट्र के चुनाव में भी उसका सितारा डूब गया। शिवसेना से पुराना नाता तो टूटा ही साथ ही एनसीपी के अजीत पवार के साथ अलसुबह सरकार बनाने का नाटक भी बदनामी का सबब बन गया। हरियाणा में हालाँकि सरकार बन गई लेकिन मनोहरलाल खट्टर अपनी साफ़ -सुथरी छवि के बाद भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सके। महाराष्ट्र में भी बेदाग छवि देवेन्द्र फडनवीस के काम नहीं आई। कल यही कहानी झारखंड में भी दोहराई गयी जहां पांच साल तक सरकार चलते रहने को अपनी सफलता बताने वाले मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में लड़ी भाजपा न केवल सत्ता गँवा बैठी बल्कि श्री दास के अलावा विधानसभा अध्यक्ष, अनेक मंत्री और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तक चुनाव हार गए। सबसे रोचक बात ये है कि उक्त सभी राज्यों में भाजपा की सरकारों का पतन लगभग एक जैसे कारणों से हुआ। मुख्यमंत्री पद पर ऐसे व्यक्तियों को बिठाया जाना पार्टी को भारी पड़ गया जो स्थानीय जातिगत समीकरणों में फिट नहीं बैठते थे। केन्द्रीय नेतृत्व की पसंद होने से वे खुद को सर्वशक्तिमान समझने लग गये। उन्होंने दूसरी पंक्ति के नेताओं को चुन चुनकर कमजोर किया और चुनाव के दौरान टिकिट वितरण में तानाशाही की। झारखंड में सरयू राय की गिनती ईमानदार राजनेता के रूप में होती थी। सफल और लोकप्रिय मंत्री होने के बाद भी उनका टिकिट काटा गया। नाराज होकर वे निर्दलीय उतरे और मुख्यमंत्री को लम्बे अंतर से हरा दिया। इसके अलावा स्थानीय मुद्दों की तुलना में राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता देना भी भाजपा को महंगा पड़ गया। सरल शब्दों में कहें तो किसी छोटी सी परचून की दूकान पर सौ-पचास रूपये का सामान खरीदने पर भुगतान हेतु 2000 रु. का नोट दिया जाए। भाजपा को ये गलतफहमी हो गयी थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर जो बड़े निर्णय करने में सफल हो सकी उनका प्रतिसाद उसे राज्यों के चुनाव में मिलेगा। हालाँकि ये कहना भी सही नहीं है कि राष्ट्रीय विषय राज्य के चुनाव में पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाते हैं लेकिन राज्य की सरकार का कामकाज और स्थानीय मुद्दे ज्यादा असरकारक होते हैं। और फिर जातिगत समीकरण भी मायने रखते हैं। मोदी के नाम और चेहरे को हर मर्ज की दवा समझने की गलती भी भाजपा की पराजय के सिलसिले के लिए जिम्मेदार है। झारखंड में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का चेहरा आदिवासी मतदाताओं को रस नहीं आया। सबसे बड़ी बात टिकिट वितरण में की गई मनमानी रही। पांच साल तक जिस आजसू के साथ सरकार चलाई उसे ही भाजपा ने चुनाव में छोड़ दिया। इसी तरह एनडीए का हिस्सा रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति ने भी अलग से चुनाव लड़ा। इससे भाजपा समर्थक मत तो बंट गए जबकि आदिवासी हेमंत सोरेन को बतौर मुख्यमंत्री पेश करते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राजद ने चुनाव पूर्व गठबंधन करते हुए भाजपा विरोधी मतों को गोलबंद करने में सफलता हासिल कर ली। आजसू और कभी भाजपा के बड़े नेता रहे बाबूलाल मरांडी की पार्टी भी नुकसान में रही। ऐसा लगता है झारखंड के मतदाताओं ने रघुवर दास की सरकार से तो नाराजगी निकाली लेकिन झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबंधन को सुविधाजनक बहुमत देकर राज्य को अस्थिरता से भी उबार दिया। वरना अपने जन्म के बाद से ही झारखंड में जनप्रतिनिधियों के सरे आम बिकने के नजारे सर्वविदित हैं। इस चुनाव के बाद भाजपा बिहार में नीतीश कुमार के सामने झुकने मजबूर हो गयी है। वहीं दिल्ली के आसन्न चुनाव में भी वह बुझे मन से उतरेगी। 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के  बाद भी भाजपा को दिल्ली और बिहार में जबर्दस्त पराजय झेलनी पड़ी थी। उस समय भी ये कहा गया था कि मोदी लहर खत्म हो गयी। लेकिन उसके बाद 2017 में उप्र विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल करते हुए उस धारणा को झुठला दिया। यद्यपि उसके बाद भी भाजपा के लिए कहीं खुशी कहीं गम वाली स्थिति बनती रही। 2018 में तीन राज्य गंवाने के बाद लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार की वापिसी पर संदेह पैदा होने लगा परन्तु तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए 
भाजपा पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरी। लेकिन कुछ, महीनों बाद ही वह लहर एक बार फिर बेअसर नजर आने लगी। आगे क्या होगा ये कहना मुश्किल है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि राज्यों के चुनावों के मुद्दे और समीकरण राष्ट्रीय राजनीति से सर्वथा भिन्न हो गये हैं। दूसरी बात ये भी है कि कांग्रेस अपनी दम पर दोबारा खड़े होने की बजाय क्षेत्रीय दलों के साथ कनिष्ठ भागीदार बनने की नीति पर चलने को राजी हो गयी है। ये नीति दूरगामी लिहाज से कितनी असरकारक होगी कहना कठिन है। रही बात भाजपा की तो उसे क्षेत्रीय दलों के साथ ही छोटी पार्टियों से गठबंधन करने की अपनी नीति और शैली में लचीलापन लाना होगा। झारखंड चुनाव का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसके बारे में सोचने पर ये कहना सही होगा कि हार ने फिलहाल भाजपा का घर देख लिया है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा फलीभूत हो न हो लेकिन भाजपा युक्त भारत बनने की सम्भावनाएं एक बार फिर अधर में लटक गई हैं।

Monday 23 December 2019

मुस्लिम समाज के लिए गम्भीर चिंतन का समय



नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध का शोर कुछ धीमा पड़ते ही उनके समर्थन में भाजपा भी खुलकर मैदान में आ गई। गत दिवस राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक हिस्सों में समर्थन रैलियां हुईं। दिल्ली में तो खुद प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने मोर्चा सम्भाला। संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो जाने के बाद भाजपा विजयोल्लास में डूबी रहे लेकिन उसी दौरान विपक्षी दलों ने चौतरफा मोर्चा खोल दिया। मुस्लिम सामुदाय को इतना ज्यादा डरा दिया गया कि वह अनेक शहरों में हिंसक हो उठा। कुछ दिनों तक तो ऐसा एहसास भी हुआ मानो पूरा देश अशांत है। भाजपा और केंद्र सरकार दोनों के लिए ये अप्रत्याशित हमला था। दरअसल तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और फिर राम जन्मभूमि विवाद के शान्ति से निबट जाने के बाद भाजपा के रणनीतिकारों को लगने लगा था कि उनकी राह से सभी अवरोधक हट गए हैं। बात गलत भी नहीं थी। लेकिन सीएए की प्रतिक्रिया बेहद उग्र हो गयी। मुस्लिम समुदाय शायद इतना आक्रामक न हुआ होता लेकिन विपक्ष को भी लगा यदि इस मुद्दे पर भी वह हारकर बैठा रहा तब वह भविष्य में चुनौती देने लायक नहीं बचेगा और इसी रणनीति के अंतर्गत उसने इतना जयादा हल्ला मचाया कि मुसलमान उत्तेजित हो उठे। उनके बीच ये भावना फैली कि भाजपा उन्हें चौतरफा घेर रही है। लगातार ऐसे फैसले लिए गये जिनका निशाना  मुस्लिम समुदाय ही माना गाया। हालांकि उक्त सभी भाजपा के चिरपरिचित और मूलभूत मुद्दे रहे हैं लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी उन पर अमल किये जाने से विपक्षियों को लगा कि उन्हें ही कुछ करना चाहिए वरना वे जनता की नजर में अप्रासंगिक होकर रह जायेंगे। चूंकि संसद में भाजपा ने बड़ी ही चतुराई से उनकी एकता में सेंध लगा दी इस वजह से उनकी हताशा और बढ़ गई। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में राज्यसभा में बहुमत नहीं होने से सरकार को अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। लेकिन इस बार संख्याबल के लिहाज  से वह पूर्वापेक्षा बेहतर स्थिति में है और कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा भी उसकी मदद करने सहमत हो जाने से संदर्भित संवेदनशील मुद्दों पर सरकार का आत्मविश्वास प्रबल हुआ। अनुच्छेद 370 हटाने का विधेयक पहले राज्यसभा में प्रस्तुत करने से ही ये संकेत मिल गया था कि सत्ता पक्ष के हौसले काफी बुलंद हैं। लगातार भाजपा ने जब संसद में ऐसे विषय मंजूर करवा लिए जिनके लिए उसके समर्थक तक उसे उलाहना दिया करते थे तब विपक्ष में चिंता  बढ़ी और उसने मुस्लिम समुदाय के बीच घबराहट पैदा कर दी जिसका परिणाम बीते सप्ताह देश भर में हुआ विरोध था। लेकिन मुस्लिम समुदाय द्वारा किया गया विरोध हिंसात्मक हो गया। इसके पीछे सुनियोजित षडयंत्र के प्रमाण भी मिलने लगे हैं। जिस तरह से पत्थरबाजी, आगजनी और अन्य उपद्रव हुए वे तात्कालिक नहीं हो सकते। इस सबसे ये एहसास मजबूत होने लगा कि देश का जनमानस सीएए और एनआरसी के घोर खिलाफ  है। अंतत: आक्रमण ही सर्वोत्तम  सुरक्षा के सिद्धांत का पालन करते  हुए भाजपा ने भी अपने सेनापति और अन्य सरदारों को पलटवार हेतु सामने किया। प्रधानमन्त्री ने दिल्ली की रैली में सीएए को लेकर व्याप्त भ्रांतियां दूर कीं वहीं एनआरसी को लेकर भी स्पष्ट कर दिया कि वह अभी दूर है। उन्होंने भारतीय मुस्लिम समुदाय को आश्वस्त भी किया कि वे भयभीत न हों। इसी के साथ श्री मोदी ने विपक्ष को भी जमकर लताड़ा। भाजपा आगामी कुछ दिनों के भीतर देश भर में एक हजार के करीब रैलियां आयोजित करते हुए सीएए तथा एनआरसी के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास करेगी। गत दिवस जहां-जहां भी उसकी रैलियां हुई वहां-वहां अच्छी खासी भीड़ उमड़ी। सबसे बड़ी बात ये थी कि किसी भी प्रकार की गड़बड़ी नहीं सुनाई दी। इसके पहले जो तीन बड़े फैसले लिए गये उनके सम्बन्ध में भाजपा और सरकार को मैदान में आकर स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन इस मामले में सत्तापक्ष के सामने जीत के बाद भी रक्षात्मक होने की जरूरत इसलिए आ पड़ी क्योंकि संसद में उसका साथ देने वाली पार्टियां भी बाहर सीएए और एनआरसी का विरोध कर रही है। पहले उड़ीसा में बीजद सरकार ने अपने राज्य में इसे लागू करने से इनकार कर दिया और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी उसी दिशा में चल पड़े। शिवसेना ने लोकसभा में खुलकर साथ दिया लेकिन राज्यसभा में वह मतदान से दूर हो गयी। और अब उद्धव ठाकरे भी कांग्रेस और एनसीपी के दबाव में केंद्र के फैसले के विरुद्ध खड़े हो गए। समाज का एक जिम्मेदार तबका प्रधानमन्त्री से अपेक्षा कर रहा था कि वे देश के सामने स्थिति स्पष्ट करें। संभवत: उन्हीं सबके कारण भाजपा भी मैदान में आकर मोर्चे पर डटी। गत दिवस श्री मोदी ने जिस तरह खुलकर मुसलमानों को आश्वस्त किया उसके बाद उन्हें अपने भ्रम दूर कर विपक्ष की चालों से बचना चाहिए जिसने उनके कंधों पर रखकर बंदूक चलाई जिससे पूरे देश में उनके विरुद्ध धु्रवीकरण हो गया। मुस्लिम समाज के लिये वर्तमान समय बेहद महत्वपूर्ण है। उसे गम्भीरता के साथ चिंतन करना चाहिए क्योंकि जरा सी गलती उसका बड़ा नुकसान  कर सकती है। समय के साथ चलते  हुए उसे अपनी नौजवान पीढ़ी को पत्थर फेंकने की बजाय शिक्षा की तरफ  मोडऩा चाहिए। 21 वें सदी में 18 वीं सदी की सोच के चलते तरक्की की कल्पना करना बेकार है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 21 December 2019

एक जैसे उपद्रव : किसी बड़े षडय़ंत्र का हिस्सा



नागरिकता संबंधी नए कानून और भविष्य में बनाये जाने वाले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर देश भर में होने वाला विरोध धीरे-धीरे हिंसक उपद्रव में तब्दील हो गया है। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विवि परिसर में पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई के बाद देश भर में ऐसा माहौल बनाया गया मानो लोकतंत्र खत्म हो गया हो। शुरुवात में तो उस घटना के विरोध में अनेक विश्वविद्यालयों में छात्रों ने अपना गुस्सा व्यक्त किया। लेकिन धीरे - धीरे ये साफ होता गया कि छात्रों को आगे कर देश विरोधी तत्वों ने अपना खेल शुरू कर दिया। दो दिन पहले लखनऊ और उसके बाद गत दिवस देश के अनेक राज्यों में जुमे की नमाज के बाद धारा 144 का उल्लंघन करते हुए जुलुस निकालने से रोके जाने पर पुलिस पर पथराव हुआ और वाहनों में तोडफ़ोड़ तथा आगजनी की गई। टीवी चैनलों पर नकाबपोश लोगों द्वारा जिस तरह पुलिस पर हमले किये जाने के दृश्य दिखाए गये वे इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं कि ये उपद्रव पूर्व नियोजित थे और इनके पीछे किसी संगठित गिरोह का हाथ है। कल दिल्ली में दोपहर बाद जुमे की नमाज तक हालात नियंत्रण में थे लेकिन अचानक भीड़ जमा हुई और पथराव तथा आगजनी शुरू कर दी गयी। पूरे देश से जो समाचार मिल रहे हैं उनके अनुसार मुख्य रूप से पुलिस थानों और वाहनों को निशाना बनाया जा रहा है। विपक्षी नेता और मुस्लिम धर्मगुरू हालाँकि हिंसा की निंदा कर रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने के लिये उनकी तरफ  से कोई सार्थक प्रयास होता नहीं दिख रहा। गत दिवस जबलपुर के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी जो उपद्रव हुआ उसमें कम उम्र के बच्चों को चेहरे पर रुमाल बांधकर पुलिस पर पथराव करने के लिए भीड़ में आगे रखा जाना ये साबित करता है कि बलवा किये जाने की पूरी तैयारी की गयी थी। बताया जाता है कि पुलिस और प्रशासन ने मुस्लिम धर्मगुरु से मिलकर स्थिति शांतिपूर्ण बनाये रखने हेतु सहयोग भी मांगा था। खुफिया रिपोर्ट भी किसी अनिष्ट की आशंका बता चुकी थी। धारा 144 लागू होने से जुलूस पर रोक लगी हुई थी किन्तु उसके बाद भी भीड़ एकत्र हुई और पुलिस द्वारा रोके जाने पर पथराव और तोडफ़ोड़ की गई। पूरे देश विशेष रूप से उत्तर भारत में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हो रहे उपद्रव का स्वरूप और तरीका एक जैसा होने से ये संदेह मजबूत हो रहा है कि विरोध करने वालों को मानों इसका विधिवत प्रशिक्षण दिया गया हो। ये देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि कश्मीर घाटी में अलगाववादी संगठनों द्वारा युवाओं को सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने के लिए जिस प्रकार से तैयार किया गया था वैसा ही कुछ मौजूदा घटनाक्रम में भी दिखाई दे रहा है। जामिया मिलिया परिसर रहा हो या दिल्ली, लखनऊ अथवा अन्य कोई शहर, अचानक इतने पत्थर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने आये लोगों के हाथ में कहाँ से आ गए, ये यक्ष प्रश्न है। सोनिया गांधी और प्रियंका से लेकर बाकी विपक्षी नेता विरोध के अधिकार की वकालत तो कर रहे हैं किन्तु जिस तरह की पत्थरबाजी और आगजनी की जा रही है उसकी निंदा करने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही। इस पूरे खेल में जेएनयू मार्का संगठन जिस तरह सक्रिय हुए उससे भी किसी सुनियोजित षडय़ंत्र की बात को बल मिलता है। मुसलमानों द्वारा तीन तलाक और राम मन्दिर फैसले का जिस तरह शांति के साथ विरोध हुआ उससे उन लोगों की आशाओं पर पानी फिर गया जो देश को भीतर से कमजोर करने में लगे रहते हैं। दिल्ली में परसों हुए विरोध में जेएनयू का वह छात्र नेता भी शरीक था जिसे भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा लगाने वालों का सरगना कहा जाता है। जंतर मंतर पर भी कुछ ऐसे चेहरे नजर आये जो टुकड़े-टुकड़े गैंग के हिस्से हैं। कुल मिलाकर ये कहना सही है कि नागरिकता संशोधन कानून और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर पूरे देश में पूर्व तैयारी से उपद्रव करने का तानाबाना बुना गया है। लोकसभा चुनाव में मिली जबरदस्त पराजय के बाद जब तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और फिर अयोध्या विवाद जैसे मसले आसानी से हल हो गए तब विपक्ष के एक तबके और विशेष रूप से वामपंथी समुदाय के पेट में जबर्दस्त दर्द होने लगा। वे किसी अवसर की ताक में थे ही। अब तक जो मुसलमान शांति के साथ अपने काम धंधे में लगा हुआ था उसे देश से निकाले जाने के नाम पर भयभीत करते हुए उपद्रव के लिए उकसा दिया गया। अचानक बदले इन हालातों ने मुस्लिम समुदाय को एक बार फिर मुख्यधारा से दूर कर दिया। सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि जो भी उपद्रव हुए उन्होंने मुस्लिम समाज और पुलिस के बीच संघर्ष का स्वरूप ले लिया। सरकार के किसी फैसले का विरोध तो लोकशाही का हिस्सा है किन्तु हिंसा का सहारा लिए जाने से मुस्लिम समुदाय के प्रति रही-सही सहानुभूति भी लुप्त होने लगी है। मुस्लिम समाज के अनेक धर्मगुरु भी अचानक हुए उपद्रवों से भौचक हैं। असदुद्द्दीन ओवैसी जैसे नेता को भी भाव नहीं मिल रहा। इससे ये आशंका और भी प्रबल होती है कि देशव्यापी उपद्रव किसी बड़े षडय़ंत्र का हिस्सा हैं। कश्मीर में अलगाववाद पर ऐतिहासिक प्रहार के बाद देश विरोधी ताकतों ने नए सिरे से देश को अस्थिर करने का कुचक्र रचा है और मुसलमानों को ही एक बार फिर बतौर औजार इस्तेमाल किया जा रहा है। बेहतर हो ऐसे लोगों से बचते हुए मुस्लिम समाज के समझदार लोग सक्रिय हों। वोट बैंक के शिकंजे से आजाद होते मुसलमानों को एक बार फिर अपने शिकंजे में कसने की कोशिश चल पड़ी है। यदि वे अभी भी नहीं चेते तो फिर उनके बीच व्याप्त अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी कभी दूर नहीं होगी। कुछ शरारती लोग ये प्रचारित करने में जुटे हुए हैं कि पूरा देश नए कानून के विरुद्ध सड़कों पर है। मुसलमानों को इस गलतफहमी से बचना चाहिए वरना वे अलग थलग पड़े रहेंगे। दूध में शक्कर की तरह मिलकर उसकी मिठास बढ़ाना ही सही तरीका होता है, बजाय उसमें नींबू की बूँद बनकर मिलने के, जो उसे फाड़ देती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 20 December 2019

ममता की मांग मोहम्मद गौरी को बुलाने जैसी



इसमें दो राय नहीं है कि स्व. ज्योति बसु के बाद वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी बंगाल की सबसे लोकप्रिय ही नहीं ताकतवर नेता हैं। साधारण रहन-सहन और जुझारू स्वभाव की वजह से उनकी जनता के बीच जबर्दस्त पकड़ है । कांग्रेस भी अपने चरमोत्कर्ष के समय बंगाल के जिस वामपंथी लाल किले की एक ईंट तक नहीं हिला सकी उसे ममता ने अपने साहसपूर्ण संघर्ष से मिट्टी में मिला दिया । आज इस राज्य में वामपंथी तीसरे स्थान पर लुढ़क चुके हैं। भाजपा ने भले ही पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को आश्चर्यचकित करते हुए डेढ़ दर्जन सीटें जीत लीं किन्तु उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि  इस कामयाबी के पीछे सुश्री बैनर्जी का अथक परिश्रम ही था वरना भाजपा बंगाल में नगरनिगम पार्षद का चुनाव जीतने तक की स्थिति में नहीं थी । ममता ने पहले कांग्रेस और फिर वामपंथियों को जिस तरह से शिकस्त दी उससे उनका कद राष्ट्रीय राजनीति में भी बढ़ा। अटल  जी की सरकार में वे मंत्री  भी रहीं लेकिन अपने तुनुकमिजाजी स्वभाव के  कारण एनडीए से बाहर आ गईं। संभवत: उन्हें उसी समय ये खतरा महसूस होने लगा था कि भाजपा दबे पाँव उनके प्रभावक्षेत्र में घुसपैठ कर  रही है। उनका शक गलत भी नहीं था। भाजपा ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध काफी पहले से अभियान छेड़ रखा था। असम में तो इसके अच्छे परिणाम मिलने लगे परन्तु बंगाल में वह काफी मशक्कत के बाद भी पैर नहीं जमा सकी। लेकिन बीते कुछ सालों में उसने इस राज्य में जबर्दस्त पकड़ बनाई। पिछले विधानसभा चुनाव में यद्यपि उसे आशानुरूप सफलता नहीं मिली लेकिन उसके बाद हुए पंचायत चुनाव में उसने बंगाल के भीतरी इलाकों में अपना जनाधार प्रदर्शित करते हुए ममता के लिए चुनौती पेश कर दी । 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले सुश्री बैनर्जी ने विपक्षी गठबंधन बनाकर भाजपा को रोकने की जबर्दस्त कोशिशें कीं। कोलकाता में हुई महारैली के जरिये विपक्षी एकता की सूत्रधार बनने का प्रमाण भी दिया। धुर विरोधी भी मोदी को हटाने के लिए उनके मंच पर आये। बात तो ममता के प्रधानमन्त्री बनने तक की होने लगी। उसके पहले  के पांच साल में केंद्र सरकार और भाजपा ने शारदा चिटफंड घोटाले की जाँच के जरिये ममता के किले में सेंध लगाने का दांव चलते हुए तृणमूल के  अनेक वरिष्ठ नेताओं को अपने पाले में खींच लिया । घोटाले में फंसे पार्टी के कुछ मंत्री, सांसद और विधायक जेल भी गये। सीबीआई की जाँच को लेकर ममता ने बागी अंदाज भी दिखाए। धीरे-धीरे  भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके राजनीतिक मतभेद निजी शत्रुता की शक्ल ले बैठे । और उसके बाद से ममता की जुबान और कार्यशैली में कड़वाहट और बगावती अंदाज बढ़ता चला गया। संघीय ढांचे को खतरे के नाम पर उन्होंने बात-बात में केंद्र से टकराहट की स्थितियां उत्पन्न कीं। दरअसल भाजपा ने बंगाल से  बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करने की जो मांग बुलंद की उससे सुश्री बैनर्जी को घबराहट होने लगी। 27 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में बांग्लादेश से आये लाखों मुस्लिम मतदाता बन गये हैं और अनेक सीटों पर उनका समर्थन जिताऊ साबित होता है। भाजपा ने जब-जब इसके विरुद्ध आवाज उठाई तब-तब सुश्री बैनर्जी ने दहाड़ते हुए कहा कि एक भी मुस्लिम को बंगाल से भगाया नहीं जाएगा। लेकिन उस जिद ने राज्य में धार्मिक ध्रुवीकरण की स्थितियां बना दीं। ये कहना गलत नहीं होगा कि मुस्लिम तुष्टीकरण के मामले में उन्होंने कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया। हालाँकि दुर्गा पंडालों को अनुदान देकर हिन्दुओं को  लुभाने की भी भरपूर कोशिश की किन्तु मुहर्रम की वजह से  दुर्गा विसर्जन पर रोक लगाने जैसे उनके फैसलों से हिन्दुओं में नाराजगी बढ़ती गई जिसका सीधा लाभ भाजपा ने उठा लिया। हालांकि ये कहना जल्दबाजी होगी कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा, ममता के किले को धराशायी कर ही देगी किन्तु हालिया विधानसभा उपचुनावों से एक बात साबित हो गयी कि भाजपा बंगाल में तृणमूल की निकटतम प्रतिद्वंदी बन गयी है।  यही वजह है कि सुश्री बैनर्जी ने पहले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और अब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरुद्ध मोर्चा खोलते हुए  ऐलान कर दिया कि वे बंगाल में इन्हें लागू नहीं होने देंगीं। इस कानून के विरुद्ध वे लगातार रैलियां भी कर रही हैं। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा तरह-तरह के नाटक और अन्य प्रपंच रचे जाते हैं परंतु गत दिवस ममता ने एक बेहद खतरनाक बयान देते हुए केंद्र सरकार को चुनौती दे डाली कि उसमें हिम्मत है तो वह एनआरसी और सीएए पर जनमत संग्रह करवा ले। और हारने पर प्रधानमंत्री स्तीफा दें। इसी के साथ उन्होंने ये मांग भी रख दी कि जनमत संग्रह की प्रक्रिया संरासंघ की निगरानी में हो। उनकी ये मांग भारत के घरेलू मामलों में अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप के दरवाजे खोल सकती है। जिससे सबसे ज्यादा लाभ पाकिस्तान उठाये तो आश्चर्य नहीं होगा। उल्लेखनीय है पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर विवाद का फैसला संरासंघ की निगरानी में जनमत संग्रह के जरिये करवाने की जिद पर अड़ा हुआ है। लेकिन लम्बे समय तक कश्मीर में अपने पर्यवेक्षक रखने के बाद अंतत: संरासंघ ने कश्मीर विवाद को दोनों देशों के बीच का मसला मानकर अपने पर्यवेक्षक वापिस बुला लिए। अनुच्छेद 370 हटाते समय लोकसभा में हुई बहस के दौरान कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी जब कश्मीर में संरासंघ की निगरानी का उल्लेख करते हुए  विश्व बिरादरी की विपरीत प्रतिक्रिया का अंदेशा जताया तब खुद सोनिया गांधी चौंक गईं । श्री चौधरी के उस बयान ने कांग्रेस की जबर्दस्त फजीहत करवाई थी । ममता तो उससे भी दो कदम आगे बढ़कर देश के अंदरूनी मामले में संरासंघ की निगरानी की मांग कर बैठीं जो देश की सार्वभौमिकता के लिए खतरा है । उनके इस बयान से देश के अंदरूनी हालातों को लेकर पाकिस्तान और चीन जैसे शत्रु देश भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार से  बाज नहीं आयंगे । ममता एक राज्य की निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने भारत की प्रभुसत्ता की रक्षा की शपथ ली हुई है। अतीत में वे केंद्र में भी मंत्री रही हैं। राजनीति में विरोधी पक्ष की आलोचना करना गलत नहीं है। सैद्धांतिक और नीतिगत मतभेद भी स्वाभाविक हैं। लेकिन किसी विवादग्रस्त मुद्दे पर संरासंघ की निगरानी में जनमत संग्रह करवाने की मांग तो पृथ्वीराज चौहान से बदला लेने के लिए मोहम्मद गौरी को निमंत्रण देने जैसा है। आश्चर्य की बात है इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी विपक्षी दल ने ममता के उक्त बयान की आलोचना करना तो दूर उससे असहमति तक नहीं जताई । यदि इस प्रवृत्ति को कड़ाई से नहीं दबाया गया तो बड़ी बात नहीं कल को ममता और उनकी देखासीखी कोई अन्य नेता चुनाव आयोग को दरकिनार रखते हुए संरासंघ की निगरानी में चुनाव करवाने जैसी  मांग करने लग जाए। ममता अपनी तमाम खूबियों के बाद भी अपने जिद्दी स्वभाव और सनकीपन के लिए कुख्यात हैं। लेकिन देश के आन्तरिक मामलों का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश देशहित के विरुद्ध है। राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय को इसका संज्ञान लेते हुए समुचित कदम उठाना चाहिए वरना भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे गली-गली सुनाई देने लगेंगे। और इस ऐतिहासिक तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि देश के विभाजन की शुरुवात बंगाल से ही हुई थी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 19 December 2019

कुछ लोग हैं जो कुछ समझना ही नहीं चाहते



सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता संशोधन कानून पर रोक लगाने की मांग नामंजूर करते हुए केंद्र सरकार को जनवरी 2020 के दूसरे सप्ताह तक जवाब देने के निर्देश के साथ ये भी कहा कि वह इस कानून का समुचित प्रचार करे जिससे आम जनता के मन में व्याप्त भ्रम दूर हो सके। अदालत 22 जनवरी को इन याचिकाओं पर सुनवाई करेगी। तुरंत रोक नहीं लगाये जाने से याचिका से फौरन होने वाले लाभ की उम्मीद धूमिल पड़ गई। अनुभव बताते हैं कि जिस याचिका पर शुरू में ही स्थगन नहीं मिलता वह लम्बी खिंचती है और निर्णय आने तक बहुत कुछ ऐसा हो जाता है जिसके कारण मूल मुद्दा पृष्ठभूमि में चला जाता है। यदि सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाओं पर स्थगन आदेश दे दिया होता तब शायद आज देश का माहौल कुछ और होता। जवाब पेश करने हेतु समय मिल जाने से केंद्र सरकार को तो राहत मिली ही साथ में भाजपा की तेज चलती सांसें भी सामान्य हो गईं होंगी। दरअसल इस मुद्दे को ऊपरी तौर पर तो संविधान विरोधी बताकर केंद्र सरकार की घेराबंदी की जा रही है लेकिन असली बात ये है कि राजनीतिक खींचातानी में ये ले-देकर फिर वही हिन्दू और मुस्लिम वोट बैंक पर आकर केन्द्रित हो गया है। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विवि में हुए उपद्रव और पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों का प्रतिनिधिमंडल राष्ट्रपति के पास जा पहुंचा। ऐसा माहौल बना दिया गया मानो उक्त विवि के छात्र पूरी तरह दूध के धुले हों। पुलिस पर हुए हमलों को नजरंदाज करते हुए केवल छात्रों की पिटाई का अतिरंजित प्रचार करते हुए पूरे देश में आन्दोलन फैलाने का सुनियोजित प्रयास जिस तरह से हुआ वह ये दर्शाता है कि विपक्ष ने नए कानून को मुस्लिम विरोधी बताकर सरकार को घेरने की रणनीति बनाई थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी चाल को फिलहाल तो बेअसर कर दिया। सरकार को सम्बंधित कानून का समुचित प्रचार करने का निर्देश देकर न्यायपालिका ने बहुत ही सही कदम उठाया जो वाकई जरूरी था। इस कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर देश में रह रहे मुसलमानों को इस बात के लिए डराया जा रहा है कि उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए समुचित सबूत देने होंगे। अनेक पढ़े-लिखे मुस्लिम भी सोशल मीडिया पर ये लिख रहे हैं कि वे अपनी नागरिकता का प्रमाण नहीं देंगे। लेकिन जब कोई उनसे पूछता है कि उनसे प्रमाण कौन माँग रहा है तो वे निरुत्तर हो जाते हैं। केवल मुस्लिम ही क्यों अन्य समुदायों में भी इस बात को लेकर भ्रम की स्थिति है कि केंद्र सरकार ने मुसलमानों को भयभीत करने के लिए ये कानून बनाया है। चूंकि बीते कुछ महीनों में हुए कुछ बड़े फैसलों को मुस्लिम हितों के विरूद्ध मान गया इसलिए उनमें ये बात तेजी से फैलाई जा रही है कि ये कानून उन्हें देश से बेदखल करने के उद्देश्य से लाया गया है। प्रधानमन्त्री और गृहमंत्री लगातार कह रहे हैं कि उन मुसलमानों को डरने की कोई जरूरत नहीं जो पहले से ही विधिवत भारत के नागरिक हैं। गृहमंत्री ने तो संसद में हुई बहस के दौरान ही ये साफ कर दिया था कि ये कानून किसी की नागरिकता छीनने नहीं अपितु देने के लिए लाया गया है। सही बात तो ये है कि इस कानून में निहित देश के दूरगामी हितों को उपेक्षित करते हुए एक वर्ग विशेष ने ठीक वैसा ही रवैया अख्तियार कर लिया है जैसा कभी असहिष्णुता तो कभी अन्य किसी वजह से देखने आया है। पूर्वोत्तर के राज्यों की चिंता तो एक बार समझ में आती है क्योंकि मौजूदा कानून का सबसे ज्यादा असर उन्हीं पर होगा। असम, त्रिपुरा, मणिपुर सभी इस बात को लेकर भयभीत हैं कि अब तक शरणार्थी माने जा रहे बांग्लादेशियों को नागरिकता मिल जाने से उनके राज्य की सांस्कृतिक और भाषायी पहिचान खतरे में पडऩे के साथ ही जमीन की कमी भी होगी। लेकिन देश के बाकी हिस्सों में विरोध किस आधार पर किया जा रहा है ये साफ तौर पर कोई भी बताने की स्थिति में सक्षम नहीं है। जहां तक बात संविधान की मूल भावना और धर्मनिरपेक्षता की है तो नागरिकता के मापदंड तय करने में देशहित को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। केंद्र द्वारा बनाया कानून एक दिन में तैयार नहीं हो गया। 1971 के बाद से ही ऐसे किसी कानून की जरूरत अनुभव की जा रही थी जो भारत को धर्मशाला बनने से रोके। आतंकवाद के मद्देनजर भी तमाम सावधानियों की आवश्यकता थी, जो शरणार्थियों की शक्ल में आतंकवादियों के आयात को रोक सके। राजनीतिक तौर पर जनता द्वारा ठुकराई गई राजनीतिक ताकतों के मन में इस बात का भय बैठ गया है कि इस तरह के फैसले लागू करते हुए मोदी सरकार देश का हिन्दुकरण कर रही है। हिन्दू राष्ट्र बनाने जैसी बातें भी उछाली जा रही हैं। लेकिन मुस्लिम समुदाय के बीच भी एक वर्ग ऐसा है जो राजनीतिक प्रपंच से परे हटकर निजी हितों के साथ ही देश के दूरगामी भविष्य की भी चिंता करता है। राम जन्मभूमि विवाद पर मुस्लिम समुदाय की जो आम प्रतिक्रिया आई उससे कट्टरवादी बेहद निराश हो उठे थे। मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाकर उनका भयादोहन करने वाली पार्टियों को भी अपना वोट बैंक हाथ से खिसकता दिखने लगा। यही वजह है कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करते हुए तुष्टीकरण लॉबी अपनी आखिरी कोशिश में जुटी है। जामिया मिलिया में पुलिस की कार्रवाई की तुलना जलियांवाला बाग कांड से किया जाना ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि विरोध करने वालों के पास तर्क और तथ्य दोनों का पूरी तरह अभाव हो चला है। सर्वोच्च न्यायालय के कहे अनुसार केंद्र सरकार संदर्भित कानून का प्रचार करते हुए आम जनता को उसकी विस्तृत जानकारी दे तो उसमें गलत कुछ भी नहीं है किन्तु ध्यान देने योग्य बात तो ये है कि जो नासमझ हैं उन्हें तो समझाया जा सकता है लेकिन जो कुछ समझना ही नहीं चाहते उनका कुछ नहीं किया जा सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 18 December 2019

कमलनाथ: बाधा दौड़ का पहला चरण पूरा



मप्र की कमलनाथ सरकार ने अपना एक वर्ष पूरा कर लिया। यह निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि है क्योंकि गत वर्ष राज्य में त्रिशंकु विधानसभा बनने के बाद सपा,बसपा और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से बनी इस सरकार के स्थायित्व पर पहले दिन से ही शंका के बादल मंडराते रहे। भाजपा की तरफ से लगातार ये आभास करवाया जाता रहा कि वह जिस दिन चाहे सत्ता पलट देगी। लेकिन धीरे-धीरे अनिश्चितता के बादल छंटने से  पार्टी नेताओं के बड़बोलेपन में भी कमी आती गई। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सार्वजानिक तौर पर ये कह  दिया कि कमलनाथ सरकार को गिराने की कोई कोशिश नहीं की जा रही। यद्यपि नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव आये दिन मुख्यमंत्री को अपने विधायक गिनते रहने की सलाह देते रहते हैं लेकिन कुछ महीने पहले भाजपा के दो विधायकों द्वारा पाला बदल लिए जाने के बाद से पार्टी आक्रमण भूलकर बचाव की मुद्रा में आ गई। उससे भी बड़ी बात ये रही कि कमलनाथ सरकार ने भाजपा सरकार के समय के अनेक ऐसे, मामलों की जाँच शुरू करवा दी जिनमें भ्रष्टाचार होने की आशंका है। कुछ गिरफ्तारियां भी की गईं जिनसे पूर्व मंत्री और भाजपा के चहेते अधिकारी ही नहीं बल्कि शिवराज सिंह तक दबाव में आ गये। हनीट्रैप नामक खुलासे के बाद तो भाजपा में और भी डर बैठ गया। उसके अनेक नामी-गिरामी नेताओं के उस काण्ड में लिप्त होने की खबरों ने पार्टी की आक्रामकता पर एक तरह से लगाम लगा दी। यही वजह रही कि शुरुवाती महीनों में रोजाना सरकार गिराने की जो धमकियां सुनाई देती थीं वे नेपथ्य में चली गईं। हालांकि कांग्रेस के अपने घर का माहौल भी बहुत अच्छा नहीं रहा। उमंग सिंगार और दिग्विजय सिंह के बीच हुआ विवाद सार्वजनिक होने से सरकार और पार्टी दोनों को शर्मनाक स्थिति से गुजरना पड़ा। विभिन मंत्रियों के बीच भी टकराव देखने मिला। गुना के पूर्व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के असंतुष्ट होने को लेकर  तरह-तरह की चर्चाएं चली आ रही हैं। कमलनाथ की जगह नए प्रदेश अध्यक्ष के नाम पर भी खींचातानी है। बीच-बीच में श्री सिंधिया के भाजपा के साथ आने की अटकलें भी व्यक्त की गईं किन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं। भाजपा वाले ये शिगूफा भी छोड़ते रहे कि महाराष्ट्र से फुर्सत होते ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह आपरेशन मप्र में जुटेंगे लेकिन महाराष्ट्र में मात खाने के बाद भाजपा अपना घर बचाने में जुट गयी। ये भी सुनने में आता रहा है कि मोदी-शाह मप्र में शिवराज की जगह किसी और की ताजपोशी चाहते हैं किन्तु कोई उपयुक्त और सक्षम नेता नजर नहीं आने की वजह से कदम आगे नहीं बढ़ा पा रहे। एक चर्चा ये भी है कि प्रधानमंत्री के बेहद निकटस्थ कहे जाने वाले उद्योगपति गौतम अडानी के कमलनाथ से भी उतने ही मधुर संबंध हैं। मप्र की सरकार को बचाए रहने में अडानी की भूमिका भी बताई जा रही है। वास्तविकता जो भी हो लेकिन राजनीतिक दृष्टि से देखें तो कमलनाथ ने न सिर्फ भाजपा को ठंडा कर  दिया बल्कि अपनी पार्टी के भीतर उठ रहे विरोध के स्वरों को भी शांत करने  में वे सफल रहे। रही बात सरकार द्वारा वायदे पूरे करने की तो ये बात सही है कि किसानों के कर्जे माफ करने के वायदे में सरकार सफल नहीं रही जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में उसे लेकर असंतोष बढ़ा है लेकिन प्रशासनिक स्तर पर उनकी सरकार ने जमीन जायजाद के व्यवसाय से जुडी अड़चनों को दूर करने संबंधी जो निर्णय किये उनका काफी स्वागत हुआ। कालोनियों के नियमितीकरण,उद्योग हेतु भूमि के उपयोग के नियमों का सरलीकरण और हाल ही में माफिया के विरुद्ध जंग शुरू करने जैसे फैसलों की आम तौर पर प्रशंसा हो रही है। वहीं पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ाने का  फैसला इस सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ाने वाला रहा। आर्थिक मोर्चे पर भी बेहतर प्रबन्धन की दिशा में अपेक्षित कार्य नहीं हो सका। भले ही मुख्यमंत्री पिछली सरकार पर खजाना खाली कर जाने की तोहमत लगाएं किन्तु कमलनाथ की पृष्ठभूमि और अनुभव देखते हुए ये माना जाता था कि वे आर्थिक दृष्टि से प्रदेश की सेहत सुधार्रेंगे। हालांकि इंदौर में हुए निवेशक सम्मलेन की सफलता को लेकर काफी ढोल पीटे गये किन्तु ऐसे आयोजनों के पिछले नतीजे देखते हुए ज्यादा उम्मीदें लगाना व्यर्थ ही है। जहां तक बात कानून व्यवस्था की है तो इस मोर्चे पर भी प्रदेश सरकार का कामकाज औसत ही रहा। लेकिन शिवराज सरकार की जांच करवाने के बावजूद वे अपने राज में भ्रष्टाचार को रोक नहीं सके। विशेष रूप से स्थानान्तरण उद्योग को लेकर सरकार के दामन पर छींटे पड़ते रहे। इस संबंध में ये चौंकाने वाली बात है कि बीते पूरे साल भर स्थानान्तरण का सिलसिला चलता रहा। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि इसका टिके रहना है। बाकी मामलों में पिछली सरकार और इसमें विशेष अंतर नहीं किया जा सकता। देखने वाली बात ये होगी कि सरकार का स्थायित्व सुनिश्चित  हो जाने के बाद अब मुख्यमंत्री किस तरह काम करते हैं। उनकी अगली अग्नि परीक्षा स्थानीय निकाय चुनावों में होगी। लोकसभा के दंगल में चारों खाने चित्त हो जाने के बाद भी श्री नाथ ने अपनी सरकार को बचाए रखा लेकिन स्थानीय चुनावों में भाजपा से उनका कड़ा  मुकाबला होगा। एक बात और भी उनके लिए परेशानी उत्पन्न कर सकती है और वह है निगम मंडलों तथा प्राधिकरणों में नियुक्ति नहीं होना। आज की राजनीति में नीति और सिद्धांत तो रहे नहीं इसलिए कब क्या हो  जाए कहना कठिन है लेकिन इतना तो कहा  ही जा सकता है कि कमलनाथ ने बाधा दौड़ का पहला चरण सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है जिससे उनका आत्मविश्वास निश्चित रूप से बढ़ा होगा। रही बात भाजपा से मिलने वाली संभावित चुनौती की तो ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि पार्टी एक साल पहले  मिली पराजय से उबर नहीं सकी है और बजाय मजबूत होने के उसके भीतर खींचातानी बढ़ी है। शिवराज सिंह और प्रदेश संगठन दोनों में सामंजस्य भी पहले जैसा नहीं रहा। उस आधार पर कहा  जा सकता है कि कमलनाथ सरकार पर अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरने का आरोप लगाने वाली भाजपा भी बतौर विपक्ष अपनी भूमिका का निर्वहन सही  तरीके से नहीं कर सकी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 17 December 2019

ओशो ने कर्मभूमि जबलपुर को क्यों छोड़ा-


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मप्र सरकार, जबलपुर टूरिज्म प्रमोशन काउन्सिल और स्थानीय जिला प्रशासन के सहयोग से मनुष्य के रूप में जन्म लेने के बाद भगवान कहलाने वाले आचार्य रजनीश की स्मृति में बीते सप्ताह हुआ त्रिदिवसीय आयोजन हर दृष्टि से प्रशंसायोग्य था। उसका विधिवत प्रचार - प्रसार भी हुआ और संस्कारधानी के समाचार माध्यमों ने भी दुनिया भर में लाखों लोगों को अपने विचारों से प्रेरित और प्रभावित करने वाले उस विलक्षण व्यक्तित्व को समुचित सम्मान दिया। कालान्तर में रजनीश ने ओशो नाम धारण किया और आज की दुनियां उन्हें इसी नाम से ज्यादा जानती भी है। जबलपुर ओशो की कर्मभूमि रही है। सागर में उनकी शिक्षा हुई और उसके उपरांत वे जबलपुर आ गये और स्थानीय शास. महाकोशल कला महाविद्यालय में दर्शन शास्त्र के अध्यापक बने। इसी शहर में उन्होंने अपनी विचारयात्रा का विधिवत शुभारंभ किया। आज भी सैकड़ों ऐसे महानुभाव हैं जिन्होंने तब के रजनीश और आज के ओशो को निकट से देखा और जाना। बड़े फुहारे पर संत तारण तारण जयंती के आयोजन का मंच संचालन करते युवा रजनीश की स्मृति भी बहुतों के मन - मष्तिष्क में सजीव है। उनके प्रवचन और आनंदमय जीवन की कला सिखाने वाले शिविर के अनुभव भी इस शहर के सैकड़ों लोगों को याद हैं। उनकी सोच धारा के विरुद्ध तैरने की रही जिस वजह से वे जितने पूजित हुए उतने ही विवादित भी। इसीलिए उनके आकर्षण में बंधे सभी लोग उनके साथ स्थायी तौर पर नहीं जुड़ सके। जिन्होंने युवा रजनीश को मंच दिया उनमें से भी अनेक जल्द ही उनसे परहेज करने लग गये। समाज में विचार क्रांति की मशाल जलाने वालों के साथ इस तरह का व्यवहार तो सुकरात के दौर से ही होता आया है। ऐसे में रजनीश के प्रति उपजा आकर्षण अनायास यदि विकर्षण में तब्दील हो गया तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। और फिर उस समय का जबलपुर तथा निकटवर्ती इलाका वैचारिक दृष्टि से अपनी पारंपरिक सोच के विरुद्ध एकाएक विद्रोह का साहस भी नहीं रखता था। बावजूद इसके कि वह दौर राजनीति , साहित्य , पत्रकारिता , शिक्षा और संस्कृति के लिहाज से इस शहर का स्वर्णयुग माना जाता है। कहने का आशय ये कि उस समय का जबलपुर हर उस मापदंड पर खरा उतरता था जो किसी दार्शनिक की चिंतन धारा को बहने के लिए समुचित और सरल रास्ता उपलब्ध कराता। लेकिन रजनीश ने अचानक ये शहर छोड़ दिया और ऐसा छोड़ा कि दोबारा कभी उसकी सुध नहीं ली। मौलश्री का वह वृक्ष हो या नगर के इर्दगिर्द के वे निर्जन स्थान जहां युवा रजनीश ने ध्यान और ज्ञान के अभिनव प्रयोग किये, वे सब उनकी बाट जोहते हुए निराश हो गये। प्रश्न ये है कि रजनीश ने अपनी ये कर्मभूमि छोड़ी तो छोड़ी क्यों? वे कोई व्यवसायी तो थे नहीं जो व्यापार के फैलाव के लिए संभावना वाली जगह जाकर स्वयं को स्थापित करते। भले ही उनका सन्यास आम धारणा के अनुरूप नहीं रहा लेकिन उन्होंने अपनी जीवन यात्रा को जिस मार्ग पर अग्रसर किया वह था तो सन्यास का ही। फिर भी रजनीश ने हिमालय की तलहटी , नदी का किनारा या ऐसी ही किसी निर्जन जगह का चयन नहीं किया। संस्कारधानी छोडकर वे जा पहुचे मायानगरी मुम्बई और उसके बाद की उनकी यात्रा अमेरिका होते हुए पुणे में आकर ठहर गयी और वहीं बीसवीं सदी के इस विलक्षण विचारक ने ओशो के नाम से पृथ्वी नामक इस गृह की यात्रा को पूर्ण किया और लौट गए उस अनजान जगह जो आज भी दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है। रजनीश कम उम्र में चले गये। लेकिन अपना काम पूरा कर गए। उन जैसी विभूतियों की जिन्दगी लम्बी नहीं, बड़ी होती है। ऐसे लोग खुद के लिए कुछ कमाते नहीं लेकिन लुटाते दोनों हाथों से हैं। लेकिन इस मामले में रजनीश विरोधाभासी थे। उन्होंने ज्ञान भी अर्जित किया और धन भी। वैराग्य की चरम अवस्था और जीवन में अनवरत आनन्द की विधि से पूरी दुनिया को अवगत करवाने वाले ओशो के पास वह सब था जिसे देखकर उनके समकालीन धनकुबेर तक आश्चर्यचकित हो जाते थे। हर पल यहाँ जी भर जियो उनका उपदेश था। अपनी इच्छाओं को दबाकर घुटन में जीने की बजाय उनकी उन्मुक्त अभिव्यक्ति की अनुमति देने के साथ ही वे अपने प्रशंसकों और अनुयायियों को महावीर, बुद्ध , कन्फ्युशियस ही नहीं अपितु राम और कृष्ण के व्यक्तित्व और कृतित्व की वस्तुपरक व्याख्या से मन्त्रमुग्ध कर देते थे। उनकी स्मृति में आयोजित संदर्भित समारोह में उनका स्मरण वास्तविकता और औपचारिकता दोनों ही तरीके से हुआ। कुछ लोगों को ओशो जबलपुर के नये ब्रांड एम्बेसेडर लगने लगे। उनके नाम को अनेक तरीकों से भुनाने के प्रयास भी अपनी चिरपरिचित शैली में शुरू हो गये हैं। भंवरताल स्थित मौलश्री वृक्ष मानो बुद्ध के बोधि वृक्ष का आधुनिक अवतार बन गया। देश विदेश से आये ओशो प्रेमियों ने उनकी शान और श्रद्धा में विचार रखे। ग्लैमर का तड़का भी लगा और ओशो द्वारा सुझाई गयी आनंदमय जीवनशैली का भी प्रगटीकरण हुआ। ओशो को भुलाने और समुचित सम्मान नहीं दिए जाने के लिए प्रायश्चियत करते हुए भूल सुधार की कसमें भी खाई गईं। चूंकि समूचे आयोजन को सरकारी सहयोग और संरक्षण प्राप्त था इसलिए केंद्र और राज्य के मंत्रियों के अलावा भी विभिन्न हस्तियाँ पधारीं। कार्यक्रम में देश के कोने-कोने और विदेश से ओशो भक्तों की भारी भीड़ उमडऩे की वजह से दर्शकों/श्रोताओं की समस्या का स्वत: समाधान हो गया अन्यथा पूरे आयोजन में जबलपुर की जनता का अभाव था। बेहतर होता यदि जबलपुर के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों को बुलाकर एक संगोष्ठी कराई गई होती। बावजूद इसके ओशो की स्मृति में वह सब हुआ जो ऐसे आयोजनों में परम्परागत तौर पर होता है। लेकिन एक प्रश्न किसी ने नहीं छेड़ा कि क्या वजह रही जो रजनीश ने अपनी कर्मभूमि को त्यागकर दोबारा इसकी तरफ  मुड़कर नहीं देखा। संभवत: रजनीश ने ही ये कहा था कि गौतम बुद्ध का सामना एक दिन अचानक उनकी पत्नी यशोधरा से हो गया। यशोधरा ने उनसे पूछा कि क्या जो कार्य वे कर रहे हैं उसे घर में रहते हुए नहीं किया जा सकता था, और बुद्ध निरुत्तर होकर रह गए।  क्या कभी किसी ने ऐसा ही सवाल रजनीश से भी पूछा कि क्या वे जबलपुर में रहकर ओशो नहीं बन सकते थे ? ओशो स्मृति में हुआ आयोजन हर दृष्टि से सफल और सार्थक रहा किन्तु अपने रजनीश के प्रति श्रद्द्धावनत होते हुए यदि संस्कारधानी दुनिया भर से आये ओशो भक्तों को उस हकीकत से भी अवगत करवा देती जिसके चलते वह क्रांतिकारी विचारक अपनी कर्मभूमि से मुंह मोड़कर चलता बना, तब शायद उस मौन अपराधबोध से उसे मुक्ति मिल जाती जो अनेक दशकों से उसके मन को कचोटता रहा है। वैसे इस शहर के बारे में एक सबसे कड़वी टिप्पणी है कि ये उस नागिन की तरह है जो अपने अंडे खुद होकर खा जाती है। शायद रजनीश की छठी इन्द्रिय उस खतरे को भांप गई थी। चलो, फिर भी अच्छा हुआ जो वे सशरीर न सही लेकिन बतौर आयोजन की विषयवस्तु बनकर लौटे तो। यूँ भी बहुत कम दार्शनिकों का मूल्यांकन उनके जीवन काल में हो पाता है। रजनीश को तो चलते, फिरते और बोलते हुए देखने वाले अभी जीवित हैं। आज की संस्कारधानी के पास भी फिराक गोरखपुरी के शब्दों में ये कहने का अधिकार तो कम से कम है ही कि :-
आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेंगी हम - असरो,
जब उन्हें ध्यान आयेगा कि तुमने ओशो को देखा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

जामिया मिलिया : छात्रों के कन्धों का इस्तेमाल



महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अनेक बार अपने आन्दोलन को हिंसा होने पर स्थगित कर दिया था। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विवि में पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका को सुनने से इंकार करते हुए साफ कह दिया कि पहले हिंसा रोको। उल्लेखनीय है नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उक्त संस्थान में छात्रों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन के दौरान हिंसा होने लगी। सार्वजानिक संपत्ति की तोडफ़ोड़ के साथ वाहन भी जलाये गये। दिल्ली पुलिस ने परिसर में घुसकर उपद्रवी तत्वों पर कार्रवाई की जिससे छात्र और भड़क गए। कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियां छात्रों के समर्थन में कूद पड़ीं। प्रियंका गांधी तो इंडिया गेट पर धरने पर बैठ गईं। याचिका पर विचार करने के लिए दी गईं दलीलों पर प्रधान न्यायाधीश ने गुस्सा व्यक्त करते हुए कहा कि सार्वजानिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और बसों को जलाए जाने जैसी घटनाएं रोके बिना न्यायालय सुनवाई नहीं करेगा। यद्यपि अदालत ने ये भी कहा कि वह ये फैसला नहीं कर रही कि कौन सही और कौन गलत है। जामिया मिलिया दिल्ली का सुप्रसिद्ध शिक्षण संस्थान है। इस केन्द्रीय विवि को गुणवत्ता के आधार पर काफी बेहतर श्रेणी प्राप्त है। इसकी स्थापना यूं तो अलीगढ़ में हुई किन्तु कालान्तर में इसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। हालांकि इसका मुस्लिम स्वरूप बरकरार रखा गया। पूर्व राष्ट्रपति स्व. डा. जाकिर हुसैन भी इसके उपकुलपति रहे थे। दिल्ली स्थित जेएनयू की तरह यह संस्थान उतना विवादास्पद नहीं रहा किन्तु बीते कुछ सालों से यहां भी वामपंथी तेवर नजर आने लगे हैं जिसकी बानगी ताजा उपद्रवों से मिली। कुलपति ने ये आरोप लगा दिया कि पुलिस ने बिना अनुमति परिसर में प्रवेश किया और छात्रों की पिटाई कर डाली। इसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम विवि में भी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया और देखते-देखते देश के कई शहरों में छात्र जामिया मिलिया के छात्रों के समर्थन में आन्दोलनरत हो उठे। प्रश्न ये है कि उक्त विवि के छात्रों को नागरिकता संशोधन कानून से ऐसी क्या परेशानी हो गयी कि वे हिंसक आन्दोलन पर उतर आये। ये बात सही है कि दिल्ली पुलिस ने परिसर में घुसकर तोडफ़ोड़ और आगजनी करने वाले छात्रों पर बलप्रयोग किया किन्तु किसी कानून का विरोध करते हुए इस तरह की गतिविधि में शामिल लोग महज ये कहकर सहानुभूति के पात्र नहीं बन सकते कि वे छात्र हैं। पुलिस पर पत्थर फेंकते हुए छात्रों की भीड़ के चित्र सार्वजानिक हो चुके हैं। विवि परिसर में इतने पत्थर किसके द्वारा और क्यों लाये गए इस बात का उत्तर भी कुलपति को देना चाहिए। समूची घटना से ये तो पता चलता ही है कि छात्रों की आड़ में असामाजिक तत्वों ने अपना खेल दिखा दिया। आज हुई गिरफ्तारियां इसका प्रमाण हैं। जिस तरह से अलीगढ़ मुस्लिम विवि में इसकी त्वरित प्रतिक्रिया हुई वह भी सवाल खड़े कर रही है। टीवी पर अनेक छात्रों ने ये स्वीकार किया कि कतिपय वामपंथी संगठन विवि की परीक्षा टलवाना चाहते थे और उसी उद्देश्य से नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर ये हिंसा करवाई गई। सच्चाई जो भी हो लेकिन इतना तो सच है कि विवि परिसर में इस कानून के विरोध का कोई अर्थ नहीं था। वहां पढऩे वाले वाले छात्र इससे तनिक भी प्रभावित नहीं हो रहे हैं। न तो उनकी नागरिकता खतरे में है और न ही उन्हें कोई देश से निकाल रहा है। ऐसे में आन्दोलन इतना हिंसक कैसे हुआ ये गम्भीरता से सोचने वाली बात है। और फिर कांग्रेस ने जिस तत्परता से हिंसक आन्दोलन की निंदा करने की बजाय उलटे पुलिस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया उससे ये संदेह और भी गहराता है कि छात्रों की हिंसा के पीछे राजनीतिक षडयंत्र काम कर रहा था। जामिया मिलिया के छात्र विवि परिसर के बाहर आकर जब बस को जलाने लगे तब पुलिस ने उन्हें रोककर परिसर में लौटाने की कोशिश की और उसके बाद उपद्रव होने पर फिर पिटाई हुई। इस घटना का सबसे चिंताजनक पहलू ये है कि इस्लामिया नाम जुड़ा होने के बावजूद जामिया मिलिया में अलीगढ़ मुस्लिम विवि जैसी कट्टरता और जेएनयू की तरह वामपंथी धारा नहीं थी। लेकिन ताजा आन्दोलन के बाद अब ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि एक अच्छे भले शैक्षणिक संस्थान का माहौल खराब कर दिया गया। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जिस तरह का विरोध हो रहा है उसके पीछे अधिकतर वही लोग हैं जिन पर इस कानून का रत्ती भर भी असर नहीं होने वाला। कानून को मुस्लिम विरोधी बताने वालों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि देश का आम मुसलमान इसे लेकर सड़कों पर क्यों नहीं उतरा? चंद नेता ही इसे लेकर भड़काने वाली गतिविधियों को हवा दे रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने हिंसा रोके बिना याचिका की सुनवाई नहीं करने की जो बात कही वह पूरी तरह सही है क्योंकि दबाव की इस राजनीति का अंत समय की मांग और जरूरत दोनों हैं। यूं भी हिंसा से किसी आन्दोलन का औचित्य खतरे में पड़ जाता है। असम में उक्त कानून का सबसे ज्यादा विरोध शुरू हुआ लेकिन उसके हिंसक होते ही आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे प्रमुख संगठन ने उसे वापिस लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय जाने का निर्णय लिया। देश के जिन हिस्सों में कानून के विरोध में प्रदर्शन आदि हो रहे हैं उनमें मुस्लिमों की संख्या कितनी है ये देखने वाली बात है। बेकार में धजी का सांप बनाकर चंद राजनीतिक नेताओं ने जो गलती की उसका लाभ उठाकर देश विरोधी ताकतें अपने षडय़ंत्र में कामयाब हो गईं। विदेशी नागरिकों पर केंद्रित कानून को मुस्लिम विरोधी बताकर उसका विरोध करने वाले ये भूल गए कि ऐसा करते हुए एक बार फिर वे हिन्दू धु्रवीकरण की परिस्थितियां बनाने में सहायक बन गए हैं। राजनीति अपनी जगह है किन्तु पढ़ाई-लिखाई कर रहे छात्रों के कंधों पर रखकर बन्दूक चलाने वालों को ये सोचना चाहिए कि अराजकता फैलाने वाले भी अंतत: उसी की चपेट में आ जाते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 16 December 2019

मायावती के सवालों का भी जवाब दें राहुल



ऐसा लगता है राहुल गांधी बोलने के पहले सोचते नहीं हैं। या फिर उन्हें आज तक ये समझ नहीं आया कि कब, कहाँ, क्या और कैसे बोलना चाहिए ? बीते सप्ताह दिल्ली में हुई कांग्रेस की रैली में उन्होंने बड़ी ही तेज आवाज में कहा कि उनका नाम राहुल सावरकर नहीं बल्कि राहुल गांधी है और वे सच्चाई की लिए मर जायंगे लेकिन माफी नहीं मांगेंगे। इसके पीछे उनके उस बयान पर माफी मांगने सम्बन्धी मांग थी जिसमें उन्होंने प्रधानमन्त्री के मेक इन इण्डिया नारे का रेप इन इण्डिया कहकर मजाक उड़ाया था। संसद और बाहर उसे लेकर काफी बवाल मचा था। दिल्ली की रैली में वे मोदी सरकार पर नीतिगत हमले करते तो किसी को ऐतराज नहीं होता किन्तु उन्होंने बेवजह खुद के सावरकर नहीं होने की बात कह डाली जो न सिर्फ  अप्रासंगिक अपितु अनावश्यक भी थी। जब से महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा ने स्वातंत्र्य वीर सावरकर को भारत रत्न देने की बात अपने घोषणापत्र में शामिल की तभी से कांग्रेस और वामपंथी लॉबी सावरकर जी को लेकर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करने में जुटी हुई है। ये सही है कि उन पर महात्मा गांधी की हत्या का आरोप लगा था किन्तु वे अदालत से बरी हो गये। बावजूद इसके ये कहा जाता रहा कि सावरकर जी की विचारधारा ने ही नाथूराम गोडसे को गांधी जी की हत्या के लिए उकसाया। और द्विराष्ट्र का सिद्धांत भी उन्हीं का दिया हुआ था। जेल से बाहर आने के लिए अंग्रेजों से लिखित माफी मांगने का आरोप भी उन पर लगाया गया। लेकिन सावरकर जी के प्रति कांग्रेस की नाराजगी के बावजूद स्व. इंदिरा गांधी के प्रधानमन्त्री कार्यकाल में ही उन पर डाक टिकिट जारी किया गया था। यही नहीं इंदिरा जी ने लिखित रूप में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सावरकर जी के संघर्ष की प्रशंसा भी की थी। दरअसल जब से देश के विभाजन के लिए भाजपा ने पंडित नेहरू को जिम्मेदार ठहराने का अभियान छेड़ा है तभी से कांग्रेस कभी सावरकर जी और कभी जनसंघ के संस्थापक स्व. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विभाजन के लिए कसूरवार ठहराने की रणनीति पर चल पड़ी है। इतिहास को लेकर विभिन्न अवधारणाएं होना गलत नहीं हैं। उसकी प्रामाणिकता पर भी विवाद हो सकते हैं लेकिन सावरकर जी का इतिहास इतना पुराना भी नहीं है कि उसे लेकर अनभिज्ञता रहे। ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध उनका संघर्ष किसी प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं है। उन्हें काले पानी की सजा के दौरान अंडमान की सेलुलर जेल में 10 वर्षों तक कठोर यातनाएं सहनी पड़ीं। उनके पूरे परिवार को प्रताडि़त किया गया। कट्टर हिंदूवादी होने के बावजूद सावरकर जी ने समाज सुधार विशेष तौर पर जातिवाद के विरुद्ध काफी जनजागरण किया। वे उच्च कोटि के लेखक थे। ऐसे व्यक्ति से वैचारिक मतभेद रखना तो सामान्य बात है लेकिन उसका अपमान करने की कोशिश किसी भी दृष्टि से शोभनीय नहीं कही जा सकती। महाराष्ट्र में जिस शिवसेना के साथ कांग्रेस ने हाल ही में मिलकर सरकार बनाई है वह सावरकर जी को अपना आदर्श और प्रेरणास्रोत मानती है। उन्हें भारत रत्न दिए जाने की भी वह पक्षधर है। राहुल के बयान पर उसने भी नाराजगी जताई है। यद्यपि संजय राउत जैसे बड़बोले प्रवक्ता ने बजाय आग उगलने के ये कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि कांग्रेस के उच्च नेताओं से बात की जायेगी। उन्होंने श्री गांधी को सावरकर जी द्वारा रचित साहित्य पढऩे के लिए दिए जाने की बात भी कही। राज्य के गृहमंत्री ने भी राहुल की बात पर ऐतराज किया है। हालांकि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की खामोशी चौंकाने वाली है। बहरहाल श्री गांधी द्वारा खुद के सावरकर नहीं होने की बात से कांग्रेस को एक बार फिर जबर्दस्त नुकसान हो गया। स्वातंत्र्य वीर के तौर पर प्रसिद्ध सावरकर जी की स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका है उसके कारण शिवसेना और भाजपा के अलावा भी देश का एक बड़ा वर्ग उनके प्रति सम्मान का भाव रखता है। युवा पीढ़ी में भले ही उस महान नेता के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हो लेकिन श्री गांधी द्वारा की गयी टिप्पणी के बाद से सावरकर जी को पढऩे और समझने के प्रति असंख्य लोगों की रूचि जागृत हो गई है। सोशल मीडिया पर जो कुछ भी चल रहा है उससे ये स्पष्ट हो जाता है कि सावरकर जी अचानक राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बन गए। इस मुद्दे पर राजनीतिक दृष्टिकोण से भी सोचें तो राहुल ने एक बार फिर बचकानापन दिखाते हुए कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर दी है। उनकी दादी ने जिस व्यक्ति के सम्मान में डाक टिकिट जारी करवाया और स्वाधीनता संग्राम में उनकी संघर्षशीलता के प्रति आदरभाव व्यक्त किया हो उसके प्रति हल्कापन दिखाना किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है। बसपा नेत्री मायावती ने श्री गांधी द्वारा सावरकर जी के प्रति व्यक्त किये गये उद्गार के बाद कांग्रेस पर दोहरा चरित्र रखने का आरोप लगाते हुए सवाल किया कि शिवसेना अपने एजेंडे पर कायम है। जिसके तहत उसने नागरिकता संशोधन विधेयक पर मोदी सरकार का साथ दिया और वह सावरकर जी की अनन्य भक्त भी है। फिर भी कांग्रेस उसके साथ महाराष्ट्र सरकार में क्यों बनी हुई है? महाराष्ट्र के कांग्रेस नेताओं के साथ ही शरद पवार की एनसीपी भी श्री गांधी द्वारा सावरकर जी के बारे में जिस तरह की बातें की गईं उनसे सनाके में है। दरअसल कांग्रेस की दिक्कत ये है कि वह महात्मा गांधी से ज्यादा आज के गांधी परिवार की भक्त हो गयी जिस वजह से उसके किसी सदस्य द्वारा की गई गलतियों पर टोकने वाला कोई नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 14 December 2019

माफिया उन्मूलन : सरकारी मुख्यालय से हो शुरुवात



मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों को माफिया के विरुद्ध निर्णायक मुहिम छेडऩे का जो आदेश दिया वह स्वागतयोग्य है। प्रदेश भर से आये उच्च अधिकारियों को उन्होंने जिस सख्त अंदाज में निर्देश दिए यदि उसका सही-सही पालन हो गया तो निश्चित रूप से ये बड़ी उपलब्धि होगी। माफिया शब्द से साधारण तौर पर अभिप्राय अपराधी गिरोहों से होता है लेकिन धीरे-धीरे सफेदपोश माफिया भी अस्तित्व में आता गया और आज आलम ये है कि कोई भी ऐसा क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसका माफियाकरण न हो गया हो। एक समय था जब अपराधी तत्व राजनेताओं के संरक्षण में पलते रहते थे। लेकिन कालान्तर में वे खुद ही राजनेता बन गए। हालात यहाँ तक आ गए कि देश की संसद और विधानसभाओं में बड़ी संख्या में ऐसे जनप्रतिनिधि चुनकर आने लगे जिन पर संगीन अपराधों के मुकदमे चल रहे हैं। फूलन देवी का लोकसभा के लिए चुना जाना काफी कुछ कह गया। अनेक ऐसे कुख्यात अपराधी तत्व हैं जो कत्ल या उस जैसे ही किसी अपराध के प्रकरण में जेल में बंद रहने के बाद भी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। ये विडंबना ही है कि चुनाव जीतने की क्षमता वाले उम्मीदवार उतारने की रणनीति के चलते राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी की अपराधिक अपराधिक पृष्ठभूमि को अनदेखा करने की आदत डाल ली है। राजनीति और अपराध का गठजोड़ जब पूरी तरह सफलतापूर्वक स्थापित हो गया तब अन्य क्षेत्रों में भी माफिया का प्रवेश हुआ और स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई कि शासन, प्रशासन, उद्योग-व्यापार, सभी में सीधे या परोक्ष रूप से माफिया का दबदबा बढ़ता गया। भू माफिया, शराब माफिया, दूध माफिया से बढ़ते-बढ़ते बात मीडिया माफिया तक आ पहुँची है। किसी भी क्षेत्र में गलत काम करने वालों का संगठित गिरोह माफिया कहा जा सकता है। उस दृष्टि से देखें तो कमलनाथ ने बहुत ही सही सोच का परिचय दिया। अभी तक होता ये था कि सरकार द्वारा कड़ाई बरतने की हिदायत मिलते ही पुलिस और प्रशासन मिलकर स्थापित अपरधियों की पकड़-धकड़ कर दिया करते थे। लेकिन मुख्यमंत्री ने माफिया विरोधी मुहिम को व्यापक रूप देने का हुक्मनामा जारी करते हुए अधिकारियों को कड़े शब्दों में समझा दिया कि ढिलाई बरतने पर उनकी खैर नहीं रहेगी। जैसे समाचार मिल रहे हैं उनके अनुसार प्रशासनिक अमला माफिया विरोधी अभियान में जुट गया है। लेकिन सवाल ये है कि पुलिस और प्रशासन के अनेक जिम्मेदार लोगों का माफिया से जो याराना है उसे मुख्यमंत्री किस तरह रोक सकेंगे? सही बात तो यही है कि माफिया के विस्तार में राजनीति, पुलिस और प्रशासन का ही योगदान है। अपराधी प्रवृत्ति एक मानसिकता है लेकिन संगठित अपराध जब सरकारी संरक्षण में चलने लगते हैं तब उसे माफिया की हैसियत मिल जाती है। उस लिहाज से कमलनाथ को चाहिए कि वे माफिया विरोधी अभियान का शुभारम्भ भोपाल स्थित सचिवालय से करें। सचिवालय में घूमने वाले दलाल किस-किस अधिकारी से मिलते हैं उसका पता किया जाए तो ये बात उजागर होते देर नहीं लगेगी कि माफिया राज का उद्गम स्थल सरकार का अपना मुख्यालय ही है। राजधानी में बैठे अनेक पत्रकार भी सत्ता के दलाल बनकर माफिया के कारोबार में मददगार बनते सुने जा सकते हैं। मुख्यमंत्री की मंशा पर कोई शक किए बिना ये कहना सर्वथा उचित रहेगा कि जब तक सरकार अपने घर की सफाई नहीं करती तब तक माफिया का उन्मूलन नहीं हो सकता। हाल ही में इंदौर के एक अखबार मालिक के कथित अवैध कारोबार को सरकार ने नेस्तनाबूत कर दिया। इसके पीछे जो वजह बताई गई वह हनीट्रैप नामक उस कांड से जुड़ी हुई है जिसमें अनेक राजनेताओं तथा आला अधिकारियों की रंगरेलियों की सचित्र दास्तान का पर्दाफाश हुआ। सरकार द्वारा उक्त अखबार मालिक और उसके होटलों इत्यादि पर जिस तरह से बुलडोजर चलाया गया उसे लेकर तरह-तरह की बातें सोशल मीडिया पर चल रही हैं। उक्त अख़बार मालिक की काली करतूतों से किसी को सहानुभूति नहीं हो सकती लेकिन उसको बर्बाद किये जाने की वजह यदि बड़ी हैसियत वाले तमाम नेताओं और अधिकारियों की इज्जत उतरने का खौफ  है तब मुख्यमंत्री को चाहिये वे इस मामले में उछल रहे आरोपों को लेकर अपनी सरकार की अग्निपरीक्षा देने का साहस भी दिखाएँ। कमलनाथ बहुत ही अनुभवी नेता हैं। उनकी योग्यता और दक्षता असंदिग्ध है किन्तु माफिया के सफाए के लिए उन्होंने नौकरशाहों को जो निर्देश दिए वे तब तक कारगर नहीं हो सकेंगे जब तक सत्ता से जुड़े लोगों के साथ ही प्रशासन और पुलिस की विभिन्न क्षेत्रों के अपराधी तत्वों के साथ चल रही अघोषित भागीदारी पर शिकंजा नहीं कसा जाता। बीते दिनों प्रदेश में रेत के ठेके नीलाम किये गए। मुख्यमंत्री यदि सही-सही पता कर लें कि जिन लोगों ने आर्थिक मंदी के इस दौर में भी सरकार की उम्मीद से बहुत बढ़कर बोली लगाई वे और उनके साथ कौन-कौन हैं तो उनको माफिया की वास्तविक स्थिति पता चल जायेगी। यदि पुलिस और प्रशासन ठान ले तथा राजनेता संरक्षण नहीं दें तो किसी शहर या बस्ती में चलने वाली अधिकतर अपराधिक गतिविधियों को चुटकी बजकर रोका जा सकता है। माफिया राज यदि आज समूची व्यवस्था पर हावी है तो उसके लिये सरकारी अमला सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। मप्र अपेक्षाकृत शांत राज्य है और यहाँ कानून व्यवस्था भी काफी अच्छी मानी जाती है। लेकिन समय के साथ ही इस राज्य में भी उन समस्त बुराइयों का पदार्पण होता गया जिनके लिए उप्र और बिहार को बदनाम किया जाता रहा। खैर, कमलनाथ की कोशिश को देर आयद दुरुस्त आयद मानकर उम्मीद की जानी चाहिए कि ज्यादा न सही थोड़ा सा भी कुछ हो गया तो वह भी राहत की बात होगी। लेकिन मुख्यमंत्री की निष्पक्षता तभी साबित हो सकेगी जब वे शासन -प्रशासन और अपनी पार्टी के माफिया के साथ चले आ रहे गठबंधन को तहस-नहस करने की हिम्मत दिखाएँ। यदि वे ऐसा कर सके तब मप्र को विकसित राज्य बनाने का सपना साकार हो सकेगा। वरना जो चल रहा है वैसा ही चलता रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 13 December 2019

काश, समय रहते इलाज कर लिया होता



समय पर इलाज नहीं होने से किस तरह छोटी सी फुंसी पहले फोड़ा और बाद में नासूर बन जाती है इसका ताजा उदहारण है पूर्वोत्तर की वर्तमान स्थिति। पहले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और अब नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध को लेकर देश के पूर्वी राज्यों में जिस बड़े पैमाने पर हिंसक आन्दोलन हो रहे हैं उन्हें तात्कालिक प्रतिक्रिया कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आजादी के बाद से ही पूर्वोत्तर राज्यों में भाषा, संस्कृति और क्षेत्रीयता के नाम पर अलगाववाद के बीज बोये जाते रहे हैं। जनजातीय समुदायों के बाहुल्य वाले इस अंचल में सांस्कृतिक विविधता तो सदियों से ही थी लेकिन ब्रिटिश राज में वहां ईसाई मिशनरियों का जाल फैलता चला गया। स्वाधीन भारत में इस इलाके की संवेदनशीलता पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिए जाने की वजह से पूर्वोत्तर मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह गया। म्यांमार (बर्मा) और बांग्ला देश (1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान) से घुसपैठिये लगातार सीमावर्ती राज्यों में आते गए। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ असम। पूर्व राष्ट्रपति स्व. फखरुद्दीन अली अहमद जब असम की राजनीति में सक्रिय थे उस समय वहां काफी मुस्लिम घुसपैठिये आये जिन्हें सुनियोजित तरीके से नागरिकता दी जाती रही क्योंकि वे कांग्रेस के वोट बैंक माने जाते थे। सांस्कृतिक और भाषायी विविधता के साथ भौगोलिक संरचना की वजह से पूर्वोत्तर में नए-नए राज्य बनते गये। इसके पीछे भी अनेक कारण थे लेकिन दुर्भाग्यवश इन प्रदेशों में राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा की बजाय क्षेत्रीय दलों या ये कहें कि कबीला संस्कृति पर आधारित राजनीति का आधिपत्य बना रहा। ईसाई मिशनरियों के अलावा यहाँ चीन ने भी भारत विरोधी भावनाओँ को भड़काते हुए अशांति का माहौल बनाये रखा। पूर्वोत्तर के राज्यों की क्षेत्रीय पहिचान और सांस्कृतिक विशिष्टता बनाये रखने के लिए उन्हें जम्मू कश्मीर जैसे तरह-तरह के अनेक विशेषाधिकार भी दिए गए। इन राज्यों में अनेक सशस्त्र उग्रवादी संगठन भारत के विरुद्ध विद्रोह पर उतारू रहे जिसकी वजह से समूचा इलाका अशांत बना रहा। समय-समय पर अनेक समझौते भी केंद्र ने किये लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जिस तरह से शेष भारत का तादात्म्य इस इलाके से नहीं कायम हो सका ठीक वैसी ही स्थिति इन राज्यों के लोगों की भी रही। प्राकृतिक सौन्दर्य और अपार वन संपदा से से भरपूर पूर्वोत्तर के अरुणाचल राज्य को तो चीन अपने नक्शे में दिखाने से भी बाज नहीं आता। लम्बे समय तक अशांत रहने के बावजूद पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय प्रभुसत्ता बनी रही तो उसका कारण हमारे सुरक्षा बल ही हैं। जहां तक बात वर्तमान समस्या की है तो इसकी शुरुवात 1971 में बांग्ला देश बनने के पहले तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हुए गृह युद्ध से उत्पन्न हुई जब बहुत बड़ी संख्या में शरणार्थी बनकर लाखों लोग सीमा पार करते हुए सीमावर्ती राज्यों में आ गए। सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ असम। बांग्ला देश के निर्माण के बाद इंदिरा गांधी और शेख मुजीब के बीच समझौता हुआ जिसके अनुसार भारत में घुस आये शरणार्थियों को वापिस भेजा जाना तय हुआ। लेकिन मुजीब के तख्ता पलट के बाद वहां सत्ता में आये लोगों के भारत के साथ रिश्ते बिगड़ गए और शरणार्थी भारत में ही रह गये। हालाँकि उस समय उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में शिविर बनाकर रखा गया था किन्तु असम और बंगाल में वे बड़ी संख्या में जमे रहे और यहीं से असम का ऐतिहासिक छात्र आंदोलन शुरू हुआ। लंबे संघर्ष के बाद स्व. राजीव गांधी ने आन्दोलनकारियों के साथ नया समझौता करते हुए असम को शरणार्थियों के बोझ से मुक्ति देने का वायदा किया। उसके बाद वहां असम गण परिषद की सरकार बनी लेकिन बाद में डेढ़ दशक तक कांग्रेस सत्ता में रही। डा मनमोहन सिंह भी इसी राज्य से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे हैं लेकिन उस समझौते को अमल में लाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किये गए। और यदि किये भी गये होंगे तो उनका कोई असर जमीन पर तो नहीं दिखाई दिया। इस कारण से वहां जनसंख्या असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती गयी। अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के फेर में कांग्रेस और वामपंथियों ने बांग्ला देश से आये मुसलमानों को अपना वोटबैंक बना लिया। आज ममता बनर्जी भी उसी लाइन पर चल रही हैं। इस समस्या को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के दखल पर नागरिकता रजिस्टर बनाया गया लेकिन उसके झमेले में फंसने के बाद केंद्र सरकार नया विधेयक लेकर आई जो अब कानून बन गया है। हालाँकि इसके अनुसार 2014 की निश्चित तिथि तक आये गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है लेकिन पूर्वोत्तर में ये आशंका व्याप्त है कि इस कानून के कारण अब नये सिरे से शरणार्थियों का रेला आना शुरू हो जाएगा। असम के अलावा अन्य राज्यों को अपनी भाषा और संस्कृति खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। विधेयक पारित होने के पहले ही बड़ा इलाका आन्दोलन की चपेट में आ चुका था। हलात बेहद तनावपूर्ण हैं। उनमें सुधार कैसे होगा ये कह पाना बेहद कठिन है। केंद्र सरकार आश्वासन दे रही है। प्रधानमंत्री गृहमंत्री भी ये समझा रहे हैं कि डरने की बात नहीं है। आगे क्या होगा ये कोई नहीं बता पा रहा। विपक्ष ने केंद्र सरकार को इसके लिए जिम्मेदार बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया है। हिंसा का ये दौर लम्बा चलेगा या फिर जल्द ही शांति हो जायेगी ये फिलहाल कहना कठिन है। लेकिन इस विवाद से एक बात पुन: साबित हो गयी कि इस तरह की समस्याओं का हल जितनी जल्दी हो किया जाना चाहिए। पूर्वोत्तर में मोदी सरकार ने विकास की धारा बहाने के लिए कारगर कदम उठाये हैं। वहां का पर्यटन भी बढ़ा है लेकिन अचानक वहां अशांति का पुराना माहौल लौट आया। उम्मीद है जल्द ही हालात सामान्य होंगे और भ्रम तथा आशंकाएं दूर हो जायेंगीं किन्तु पूर्वोत्तर में अलगाववाद और घुसपैठ की समस्या का समय रहते समाधान न किये जाने की कितनी बड़ी कीमत देश ने चुकाई ये गम्भीर चिन्तन का विषय है। राष्ट्रीय विषयों पर राजनीति से उपर उठकर सोचने की प्रवृत्ति न जाने कब हमारे यहाँ विकसित होगी?

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 12 December 2019

एक वायदा अच्छे दिन का भी तो था



तीन तलाक, अनुच्छेद 370, राम मंदिर और अब नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद मोदी सरकार के पास ये कहने का भरपूर अवसर है कि उसने भाजपा के घोषणापत्र के उन परंपरागत वायदों को पूरा कर दिया जिन्हें लेकर उसे विपक्ष और जनता दोनों से उलाहने सुनने मिलते थे। यद्यपि अयोध्या मसला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निपटाया गया लेकिन वह चूंकि हिंदुओं के पक्ष में गया इसलिए उसका राजनीतिक फायदा भाजपा के खाते में आया और हिंदुत्व की भावना को भी इस फैसले से काफी बल मिला किन्तु शेष तीनों विषय मोदी सरकार की उपलब्धि माने जाएंगे। सबसे बड़ी बात ये हुई कि विपक्ष द्वारा राज्यसभा में सरकार की राह में अवरोधक लगाने की रणनीति बुरी तरह बिखर गई। हालांकि बीते कुछ वर्षों में उच्च सदन में भाजपा और एनडीए की सदस्य संख्या खासी बढ़ गई लेकिन पूर्ण बहुमत में अभी भी कमी है। बावजूद उसके भाजपा का संसदीय प्रबंधन अपेक्षाकृत बेहतर रहा और वह कांग्रेस सहित शेष भाजपा विरोधी दलों की एकता में सेंध लगाने में कामयाब हो गई। नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में उत्पन्न विसंगतियों के कारण लाना पड़ा। इसका पूर्वोत्तर राज्यों में जिस तरह का विरोध हो रहा है उसे देखते हुए केंद्र सरकार को आने वाले समय में विकट हालातों का सामना करना पड़ सकता है। ये दांव यदि उल्टा पड़ा तो पूर्वोत्तर में भाजपा के रथ के पहिये फंस भी सकते हैं । लेकिन देश के बाकी हिस्सों में पार्टी अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं को बांधे रखने में जरूर सफल होगी । विपक्ष भी ये नहीं कह सकेगा कि भाजपा चुनाव जीतने के लिए भावनात्मक मुद्दे उठाती है । लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि अब मोदी सरकार को इस आरोप से खुद को बचाना होगा कि वह आर्थिक मोर्चे पर मिल रही विफलता पर पर्दा डालने के लिए विवादग्रस्त विषयों को छेड़कर देश का ध्यान भटकाती रहती है। समाज के एक बड़े वर्ग के अनुसार संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक को जिस तरह पेश किया गया उसकी उतनी जरूरत नहीं थी। सरकार उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप होने वाले उपद्रवों का पूर्वानुमान लगाने में भी विफल रही । ये भी कहा जा रहा है कि कश्मीर में शान्ति का दावा कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरने के पहले ही मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर में अलगाववाद के नए बीज बो दिये । हालांकि सरकार जिस तरह से अपने फैसले पर कायम रही उससे ये लगता है कि इस विधेयक को लेकर भी उसके मन में कश्मीर जैसी ही कोई न कोई कार्ययोजना है जिसकी वजह से वह पूर्वोत्तर में भड़क उठी हिंसा को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है । हो सकता है उसका आत्मविश्वास ठोस तैयारी की वजह से हो किन्तु अब समय आ गया है जब केंद्र सरकार को आर्थिक मोर्चे पर छाई निराशा को दूर करने की परिणाममूलक कोशिशें करनी चाहिए। आर्थिक मंदी कहें या सुस्ती लेकिन वास्तविकता यही है कि कारोबारी जगत में जबरदस्त अनिश्चितता है । घटते उत्पादन और बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़े जनचर्चा के विषय बनते जा रहे हैं । विकास दर को लेकर पेश की गई रंगीन तस्वीर के रंग फीके पडऩे लगे हैं । भाजपा के भीतर ही अर्थव्यवस्था को लेकर असंतोष और आलोचना महसूस की जा सकती है । वित्तमंत्री द्वारा दी जाने वाली सफाई मजाक का विषय बनने लगी है । प्रधानमंत्री तो यूं भी ऐसे मुद्दों पर कुछ बोलने से कतराते हैं । भाजपा के प्रवक्ता भी संतोषजनक जवाब देने की बजाय या तो कन्नी काट जाते हैं या फिर तथ्यहीन बातें कहकर अपनी, पार्टी और सरकार तीनों की भद्द पिटवा देते हैं । भावनात्मक मुद्दों को व्यापक राष्ट्रीय हितों से जोड़ने  की उसकी रणनीति अब तक निश्चित रूप से कारगर रही किन्तु आर्थिक मोर्चे को लंबे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता । मौजूदा वित्तीय वर्ष समाप्ति की ओर है । नए बजट का खाका तैयार होने लगा है। जीएसटी की वसूली उम्मीद से कम होने के साथ ही राजकोषीय घाटा भी अनुमानों के बाहर जाने को मचल रहा है । विपक्ष के साथ ही अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विशेषज्ञ और रेटिंग एजेंसियां भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर चिंताजनक भविष्यवाणी करते रहती हैं । ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि भले ही सरकार कुछ भी कहती रहे लेकिन आम जनता भी आर्थिक स्थिति को लेकर आश्वस्त नहीं है । नोटबन्दी और जीएसटी की वजह से आई कारोबारी सुस्ती दूर होने का नाम ही नहीं ले रही। समूचा व्यापार, उद्योग और बैंकिंग जगत एक अजीबोगऱीब दहशत से गुजर रहा है। सरकार इस स्थिति से बेखबर या उदासीन है ये कहना तो गलत होगा लेकिन उसने जो उपाय किये वे जरूरत के मुताबिक अपर्याप्त थे या फिर माकूल नहीं रहे। हाल ही में वित्तमंत्री ने आगामी बजट में निजी आयकर की दरें घटाने के संकेत दबी जुबान में दिए थे। कारपोरेट कर में कमी के बाद से ये मांग उठने लगी थी कि आम जनता को भी तो कुछ राहत सीधे तौर पर मिले जिससे उसकी क्रय शक्ति बढऩे से बाजारों में मांग उठे। ऐसा होगा या कुछ और निर्णय लिए जाएंगे ये स्पष्ट नहीं है क्योंकि मोदी सरकार पूर्वानुमान लगाने के अवसर नहीं देती । खैर जो भी हो लेकिन कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए क्योंकि शांतिकाल में आम इंसान की चिंता घर, परिवार और रोजी रोटी पर केंद्रित रहती है। बाजारवाद के इस दौर में केवल भावनाएं लंबे समय तक जनापेक्षाओं को दबाकर नहीं रख सकतीं। मोदी सरकार इस वास्तविकता को जितनी जल्दी समझ ले उतना बेहतर होगा। प्रधानमंत्री को ये भी याद रखना चाहिए कि उन्होंने एक वायदा अच्छे दिन आने का भी किया था।

-रवीन्द्र वाजपेयी