Tuesday 17 December 2019

ओशो ने कर्मभूमि जबलपुर को क्यों छोड़ा-


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मप्र सरकार, जबलपुर टूरिज्म प्रमोशन काउन्सिल और स्थानीय जिला प्रशासन के सहयोग से मनुष्य के रूप में जन्म लेने के बाद भगवान कहलाने वाले आचार्य रजनीश की स्मृति में बीते सप्ताह हुआ त्रिदिवसीय आयोजन हर दृष्टि से प्रशंसायोग्य था। उसका विधिवत प्रचार - प्रसार भी हुआ और संस्कारधानी के समाचार माध्यमों ने भी दुनिया भर में लाखों लोगों को अपने विचारों से प्रेरित और प्रभावित करने वाले उस विलक्षण व्यक्तित्व को समुचित सम्मान दिया। कालान्तर में रजनीश ने ओशो नाम धारण किया और आज की दुनियां उन्हें इसी नाम से ज्यादा जानती भी है। जबलपुर ओशो की कर्मभूमि रही है। सागर में उनकी शिक्षा हुई और उसके उपरांत वे जबलपुर आ गये और स्थानीय शास. महाकोशल कला महाविद्यालय में दर्शन शास्त्र के अध्यापक बने। इसी शहर में उन्होंने अपनी विचारयात्रा का विधिवत शुभारंभ किया। आज भी सैकड़ों ऐसे महानुभाव हैं जिन्होंने तब के रजनीश और आज के ओशो को निकट से देखा और जाना। बड़े फुहारे पर संत तारण तारण जयंती के आयोजन का मंच संचालन करते युवा रजनीश की स्मृति भी बहुतों के मन - मष्तिष्क में सजीव है। उनके प्रवचन और आनंदमय जीवन की कला सिखाने वाले शिविर के अनुभव भी इस शहर के सैकड़ों लोगों को याद हैं। उनकी सोच धारा के विरुद्ध तैरने की रही जिस वजह से वे जितने पूजित हुए उतने ही विवादित भी। इसीलिए उनके आकर्षण में बंधे सभी लोग उनके साथ स्थायी तौर पर नहीं जुड़ सके। जिन्होंने युवा रजनीश को मंच दिया उनमें से भी अनेक जल्द ही उनसे परहेज करने लग गये। समाज में विचार क्रांति की मशाल जलाने वालों के साथ इस तरह का व्यवहार तो सुकरात के दौर से ही होता आया है। ऐसे में रजनीश के प्रति उपजा आकर्षण अनायास यदि विकर्षण में तब्दील हो गया तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। और फिर उस समय का जबलपुर तथा निकटवर्ती इलाका वैचारिक दृष्टि से अपनी पारंपरिक सोच के विरुद्ध एकाएक विद्रोह का साहस भी नहीं रखता था। बावजूद इसके कि वह दौर राजनीति , साहित्य , पत्रकारिता , शिक्षा और संस्कृति के लिहाज से इस शहर का स्वर्णयुग माना जाता है। कहने का आशय ये कि उस समय का जबलपुर हर उस मापदंड पर खरा उतरता था जो किसी दार्शनिक की चिंतन धारा को बहने के लिए समुचित और सरल रास्ता उपलब्ध कराता। लेकिन रजनीश ने अचानक ये शहर छोड़ दिया और ऐसा छोड़ा कि दोबारा कभी उसकी सुध नहीं ली। मौलश्री का वह वृक्ष हो या नगर के इर्दगिर्द के वे निर्जन स्थान जहां युवा रजनीश ने ध्यान और ज्ञान के अभिनव प्रयोग किये, वे सब उनकी बाट जोहते हुए निराश हो गये। प्रश्न ये है कि रजनीश ने अपनी ये कर्मभूमि छोड़ी तो छोड़ी क्यों? वे कोई व्यवसायी तो थे नहीं जो व्यापार के फैलाव के लिए संभावना वाली जगह जाकर स्वयं को स्थापित करते। भले ही उनका सन्यास आम धारणा के अनुरूप नहीं रहा लेकिन उन्होंने अपनी जीवन यात्रा को जिस मार्ग पर अग्रसर किया वह था तो सन्यास का ही। फिर भी रजनीश ने हिमालय की तलहटी , नदी का किनारा या ऐसी ही किसी निर्जन जगह का चयन नहीं किया। संस्कारधानी छोडकर वे जा पहुचे मायानगरी मुम्बई और उसके बाद की उनकी यात्रा अमेरिका होते हुए पुणे में आकर ठहर गयी और वहीं बीसवीं सदी के इस विलक्षण विचारक ने ओशो के नाम से पृथ्वी नामक इस गृह की यात्रा को पूर्ण किया और लौट गए उस अनजान जगह जो आज भी दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है। रजनीश कम उम्र में चले गये। लेकिन अपना काम पूरा कर गए। उन जैसी विभूतियों की जिन्दगी लम्बी नहीं, बड़ी होती है। ऐसे लोग खुद के लिए कुछ कमाते नहीं लेकिन लुटाते दोनों हाथों से हैं। लेकिन इस मामले में रजनीश विरोधाभासी थे। उन्होंने ज्ञान भी अर्जित किया और धन भी। वैराग्य की चरम अवस्था और जीवन में अनवरत आनन्द की विधि से पूरी दुनिया को अवगत करवाने वाले ओशो के पास वह सब था जिसे देखकर उनके समकालीन धनकुबेर तक आश्चर्यचकित हो जाते थे। हर पल यहाँ जी भर जियो उनका उपदेश था। अपनी इच्छाओं को दबाकर घुटन में जीने की बजाय उनकी उन्मुक्त अभिव्यक्ति की अनुमति देने के साथ ही वे अपने प्रशंसकों और अनुयायियों को महावीर, बुद्ध , कन्फ्युशियस ही नहीं अपितु राम और कृष्ण के व्यक्तित्व और कृतित्व की वस्तुपरक व्याख्या से मन्त्रमुग्ध कर देते थे। उनकी स्मृति में आयोजित संदर्भित समारोह में उनका स्मरण वास्तविकता और औपचारिकता दोनों ही तरीके से हुआ। कुछ लोगों को ओशो जबलपुर के नये ब्रांड एम्बेसेडर लगने लगे। उनके नाम को अनेक तरीकों से भुनाने के प्रयास भी अपनी चिरपरिचित शैली में शुरू हो गये हैं। भंवरताल स्थित मौलश्री वृक्ष मानो बुद्ध के बोधि वृक्ष का आधुनिक अवतार बन गया। देश विदेश से आये ओशो प्रेमियों ने उनकी शान और श्रद्धा में विचार रखे। ग्लैमर का तड़का भी लगा और ओशो द्वारा सुझाई गयी आनंदमय जीवनशैली का भी प्रगटीकरण हुआ। ओशो को भुलाने और समुचित सम्मान नहीं दिए जाने के लिए प्रायश्चियत करते हुए भूल सुधार की कसमें भी खाई गईं। चूंकि समूचे आयोजन को सरकारी सहयोग और संरक्षण प्राप्त था इसलिए केंद्र और राज्य के मंत्रियों के अलावा भी विभिन्न हस्तियाँ पधारीं। कार्यक्रम में देश के कोने-कोने और विदेश से ओशो भक्तों की भारी भीड़ उमडऩे की वजह से दर्शकों/श्रोताओं की समस्या का स्वत: समाधान हो गया अन्यथा पूरे आयोजन में जबलपुर की जनता का अभाव था। बेहतर होता यदि जबलपुर के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों को बुलाकर एक संगोष्ठी कराई गई होती। बावजूद इसके ओशो की स्मृति में वह सब हुआ जो ऐसे आयोजनों में परम्परागत तौर पर होता है। लेकिन एक प्रश्न किसी ने नहीं छेड़ा कि क्या वजह रही जो रजनीश ने अपनी कर्मभूमि को त्यागकर दोबारा इसकी तरफ  मुड़कर नहीं देखा। संभवत: रजनीश ने ही ये कहा था कि गौतम बुद्ध का सामना एक दिन अचानक उनकी पत्नी यशोधरा से हो गया। यशोधरा ने उनसे पूछा कि क्या जो कार्य वे कर रहे हैं उसे घर में रहते हुए नहीं किया जा सकता था, और बुद्ध निरुत्तर होकर रह गए।  क्या कभी किसी ने ऐसा ही सवाल रजनीश से भी पूछा कि क्या वे जबलपुर में रहकर ओशो नहीं बन सकते थे ? ओशो स्मृति में हुआ आयोजन हर दृष्टि से सफल और सार्थक रहा किन्तु अपने रजनीश के प्रति श्रद्द्धावनत होते हुए यदि संस्कारधानी दुनिया भर से आये ओशो भक्तों को उस हकीकत से भी अवगत करवा देती जिसके चलते वह क्रांतिकारी विचारक अपनी कर्मभूमि से मुंह मोड़कर चलता बना, तब शायद उस मौन अपराधबोध से उसे मुक्ति मिल जाती जो अनेक दशकों से उसके मन को कचोटता रहा है। वैसे इस शहर के बारे में एक सबसे कड़वी टिप्पणी है कि ये उस नागिन की तरह है जो अपने अंडे खुद होकर खा जाती है। शायद रजनीश की छठी इन्द्रिय उस खतरे को भांप गई थी। चलो, फिर भी अच्छा हुआ जो वे सशरीर न सही लेकिन बतौर आयोजन की विषयवस्तु बनकर लौटे तो। यूँ भी बहुत कम दार्शनिकों का मूल्यांकन उनके जीवन काल में हो पाता है। रजनीश को तो चलते, फिरते और बोलते हुए देखने वाले अभी जीवित हैं। आज की संस्कारधानी के पास भी फिराक गोरखपुरी के शब्दों में ये कहने का अधिकार तो कम से कम है ही कि :-
आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेंगी हम - असरो,
जब उन्हें ध्यान आयेगा कि तुमने ओशो को देखा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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