Tuesday 24 December 2019

संदर्भ झारखंड : भाजपा युक्त भारत अधर में



एक समय था जब कांग्रेस ये कहते हुए विपक्ष का मजाक उड़ाया करती थी कि वह स्थिर सरकार नहीं दे सकता। 1967 में बनी संविद सरकारें और उसके बाद 1977 में बनी जनता पार्टी की अल्पजीवी सरकार ने कांग्रेस की उक्त बात को सही साबित भी किया। 1989 में आई विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार तो साल भर भी नहीं चल पाई वहीं उसके बाद प्रधानमन्त्री बने चंद्रशेखर तो लालकिले पर झंडा फहराए बिना ही भूतपूर्व हो गए। कमोबेश यही नजारा 1996 और 1998 में बनी वाजपेयी सरकारों का भी हुआ जो क्रमश: 13 दिन और 13 महीनों की मेहमान बनीं। यद्यपि 1999 में जब अटल जी दोबारा सत्ता में आये तो उन्होंने पांच साल तक सरकार चलाकर उस मिथक को तोड़ दिया। राममन्दिर मुद्दे के बाद से देश में भाजपा का प्रभाव तेजी से बढ़ा और विभिन राज्यों में उसकी सरकारें बनीं भी किन्तु बाबरी विध्वंस ने उन्हें चलता कर दिया। 1998 में भाजपा ने मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बनाई। उनमें राजस्थान में तो प्रत्येक पांच साल में सता परिवर्तन होता रहा लेकिन मप्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें पूरे 15 साल चलीं। इस बीच उत्तराखंड और हिमाचल जैसे छोटे राज्यों के साथ गोवा में भी वह सत्ता में आती-जाती रही। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के साथ उसने सत्ता का स्वाद चखा। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से देश का मानचित्र बदला और भाजपा कहीं सीधे तो कहीं परोक्ष तौर पर शासन में आ गई। पूर्वोत्तर के उन राज्यों में जहां उसका नामलेवा नहीं था वहां भी उसने सत्ता हासिल कर ली। त्रिपुरा के वामपंथी दुर्ग को ढहा देना कोई मामूली बात नहीं थी। सबसे महत्वपूर्ण बात ये हुई कि भाजपा ने सरकार बनाना ही नहीं चलाना भी सीख लिया। और यहीं से उसके दिमाग में ये घमंड घर कर गया कि उसने स्थायी सरकार दी है। लेकिन मप्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान और अब महाराष्ट्र के बाद झारखंड में उसके हाथ से सत्ता निकल जाना दर्शाता है कि केवल. स्थिर सरकार ही भावी सफलता की गारंटी नहीं है। महाराष्ट्र और झारखंड दोनों में भाजपा के मुख्यमंत्री अपने हाथों से अपनी पीठ ठोंकते हुए ये कहते रहे कि उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता को ख़त्म करते हुए पूरे पांच साल सरकार चलाने जैसा कारनामा कर दिखाया। स्मरणीय है उक्त दोनों राज्यों में लम्बे समय से कोई मुख्यमंत्री पूरे पांच साल नहीं टिक सका था। ऐसा ही दावा हरियाणा के मुख्यमंत्री विधानसभा चुनाव के दौरान करते रहे। लेकिन नतीजों में ये बात साफ हो गयी कि केवल सरकार का पांच साल तक चलते रहना या मुख्यमंत्री का न बदला जाना अगला चुनाव जिताने में सहायक नहीं बन सकता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं डा. मनमोहन सिंह , जो पूरे 10 साल तक प्रधानमन्त्री रहे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह साफ़ हो गयी। उसके बाद एक- एक कर राज्य उसके हाथ से निकलते चले गए। ऐसा लगा कि नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया कांग्रेस मुक्त भारत का नारा वास्तविकता में बदल जाएगा। लेकिन गत वर्ष दिसम्बर में अचानक हवा उल्टी बहने लगी। मप्र, छतीसगढ़ और राजस्थान भाजपा के हाथ से निकल गए। इस साल हुए महाराष्ट्र के चुनाव में भी उसका सितारा डूब गया। शिवसेना से पुराना नाता तो टूटा ही साथ ही एनसीपी के अजीत पवार के साथ अलसुबह सरकार बनाने का नाटक भी बदनामी का सबब बन गया। हरियाणा में हालाँकि सरकार बन गई लेकिन मनोहरलाल खट्टर अपनी साफ़ -सुथरी छवि के बाद भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सके। महाराष्ट्र में भी बेदाग छवि देवेन्द्र फडनवीस के काम नहीं आई। कल यही कहानी झारखंड में भी दोहराई गयी जहां पांच साल तक सरकार चलते रहने को अपनी सफलता बताने वाले मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में लड़ी भाजपा न केवल सत्ता गँवा बैठी बल्कि श्री दास के अलावा विधानसभा अध्यक्ष, अनेक मंत्री और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तक चुनाव हार गए। सबसे रोचक बात ये है कि उक्त सभी राज्यों में भाजपा की सरकारों का पतन लगभग एक जैसे कारणों से हुआ। मुख्यमंत्री पद पर ऐसे व्यक्तियों को बिठाया जाना पार्टी को भारी पड़ गया जो स्थानीय जातिगत समीकरणों में फिट नहीं बैठते थे। केन्द्रीय नेतृत्व की पसंद होने से वे खुद को सर्वशक्तिमान समझने लग गये। उन्होंने दूसरी पंक्ति के नेताओं को चुन चुनकर कमजोर किया और चुनाव के दौरान टिकिट वितरण में तानाशाही की। झारखंड में सरयू राय की गिनती ईमानदार राजनेता के रूप में होती थी। सफल और लोकप्रिय मंत्री होने के बाद भी उनका टिकिट काटा गया। नाराज होकर वे निर्दलीय उतरे और मुख्यमंत्री को लम्बे अंतर से हरा दिया। इसके अलावा स्थानीय मुद्दों की तुलना में राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता देना भी भाजपा को महंगा पड़ गया। सरल शब्दों में कहें तो किसी छोटी सी परचून की दूकान पर सौ-पचास रूपये का सामान खरीदने पर भुगतान हेतु 2000 रु. का नोट दिया जाए। भाजपा को ये गलतफहमी हो गयी थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर जो बड़े निर्णय करने में सफल हो सकी उनका प्रतिसाद उसे राज्यों के चुनाव में मिलेगा। हालाँकि ये कहना भी सही नहीं है कि राष्ट्रीय विषय राज्य के चुनाव में पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाते हैं लेकिन राज्य की सरकार का कामकाज और स्थानीय मुद्दे ज्यादा असरकारक होते हैं। और फिर जातिगत समीकरण भी मायने रखते हैं। मोदी के नाम और चेहरे को हर मर्ज की दवा समझने की गलती भी भाजपा की पराजय के सिलसिले के लिए जिम्मेदार है। झारखंड में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का चेहरा आदिवासी मतदाताओं को रस नहीं आया। सबसे बड़ी बात टिकिट वितरण में की गई मनमानी रही। पांच साल तक जिस आजसू के साथ सरकार चलाई उसे ही भाजपा ने चुनाव में छोड़ दिया। इसी तरह एनडीए का हिस्सा रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति ने भी अलग से चुनाव लड़ा। इससे भाजपा समर्थक मत तो बंट गए जबकि आदिवासी हेमंत सोरेन को बतौर मुख्यमंत्री पेश करते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राजद ने चुनाव पूर्व गठबंधन करते हुए भाजपा विरोधी मतों को गोलबंद करने में सफलता हासिल कर ली। आजसू और कभी भाजपा के बड़े नेता रहे बाबूलाल मरांडी की पार्टी भी नुकसान में रही। ऐसा लगता है झारखंड के मतदाताओं ने रघुवर दास की सरकार से तो नाराजगी निकाली लेकिन झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबंधन को सुविधाजनक बहुमत देकर राज्य को अस्थिरता से भी उबार दिया। वरना अपने जन्म के बाद से ही झारखंड में जनप्रतिनिधियों के सरे आम बिकने के नजारे सर्वविदित हैं। इस चुनाव के बाद भाजपा बिहार में नीतीश कुमार के सामने झुकने मजबूर हो गयी है। वहीं दिल्ली के आसन्न चुनाव में भी वह बुझे मन से उतरेगी। 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के  बाद भी भाजपा को दिल्ली और बिहार में जबर्दस्त पराजय झेलनी पड़ी थी। उस समय भी ये कहा गया था कि मोदी लहर खत्म हो गयी। लेकिन उसके बाद 2017 में उप्र विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल करते हुए उस धारणा को झुठला दिया। यद्यपि उसके बाद भी भाजपा के लिए कहीं खुशी कहीं गम वाली स्थिति बनती रही। 2018 में तीन राज्य गंवाने के बाद लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार की वापिसी पर संदेह पैदा होने लगा परन्तु तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए 
भाजपा पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरी। लेकिन कुछ, महीनों बाद ही वह लहर एक बार फिर बेअसर नजर आने लगी। आगे क्या होगा ये कहना मुश्किल है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि राज्यों के चुनावों के मुद्दे और समीकरण राष्ट्रीय राजनीति से सर्वथा भिन्न हो गये हैं। दूसरी बात ये भी है कि कांग्रेस अपनी दम पर दोबारा खड़े होने की बजाय क्षेत्रीय दलों के साथ कनिष्ठ भागीदार बनने की नीति पर चलने को राजी हो गयी है। ये नीति दूरगामी लिहाज से कितनी असरकारक होगी कहना कठिन है। रही बात भाजपा की तो उसे क्षेत्रीय दलों के साथ ही छोटी पार्टियों से गठबंधन करने की अपनी नीति और शैली में लचीलापन लाना होगा। झारखंड चुनाव का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसके बारे में सोचने पर ये कहना सही होगा कि हार ने फिलहाल भाजपा का घर देख लिया है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा फलीभूत हो न हो लेकिन भाजपा युक्त भारत बनने की सम्भावनाएं एक बार फिर अधर में लटक गई हैं।

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