Wednesday 11 December 2019

शिवसेना : नीतिगत पलायन को मजबूर



नागरिकता संशोधन विधेयक पर शिवसेना ने लोकसभा में सरकार का साथ दिया था लेकिन कहा जा रहा है कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा नाराजगी व्यक्त किये जाने के बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पलटी मारी और राज्यसभा में विधेयक के समर्थन को लेकर किन्तु-परन्तु लगाते हुए शर्तें रख दीं। महाराष्ट्र और मराठी माणूस तक सीमित रहने वाले श्री ठाकरे को अचानक दूसरे राज्यों की चिंताएं भी सताने लगीं। पार्टी के अत्यंत मुखर प्रवक्ता संजय राउत से जब लोकसभा में समर्थन के बाद राज्यसभा में आनाकानी के बारे में पूछा गया तो वे बोले कि लोकसभा में जो हुआ उसे भूल जाओ। आज की भारतीय राजनीति में इस तरह से पलटी मारना कोई नई बात नहीं है। भाजपा के साथ बिहार में सरकार चला रहे जनता दल (यू) में भी इस विधेयक को समर्थन पर अंतर्कलह की खबर है। लेकिन उसका अनेक नीतिगत मामलों में भाजपा के साथ मतभेद जाहिर है परन्तु शिवसेना और भाजपा दोनों का वैचारिक आधार एक समान है। एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा में भी श्री ठाकरे ने भाजपा को सुनाते हुए साफ तौर पर कहा था कि हिंदुत्व उनकी स्थायी नीति है। लोकसभा में उक्त विधेयक का समर्थन किये जाने से लगा कि शिवसेना श्री ठाकरे के उस दावे को सही साबित कर रही है लेकिन गत दिवस उनके बयान से ऐसा महसूस हुआ कि शिवसेना सत्ता की लालच में कांग्रेस के दबाव के आगे झुकने को तैयार हो गई। राज्यसभा में उसका अंतिम रुख क्या रहेगा ये अभी तक साफ़ नहीं है लेकिन यदि उसने विरोध में मत दिया तब माना जाएगा कि उद्धव ठाकरे पूरी तरह जाल में फंस चुके हैं। उल्लेखनीय है तीन तलाक के मामले में कांग्रेस भी ऐसी ही दुविधा की शिकार थी। लोकसभा में तो उनकी पार्टी ने सरकार का साथ दिया लेकिन राज्यसभा में उसका निर्णय बदल गया। इस अलटी-पलटी का उसे जबर्दस्त नुकसान हुआ। क्योंकि वह मुसलमानों और हिन्दुओं में से किसी का भी विश्वास नहीं जीत सकी। शिवसेना ने सत्ता के लिये भले ही पूरी तरह विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों से गठजोड़ कर लिया हो लेकिन उसकी छवि एक हिंदूवादी पार्टी की ही मानी जायेगी। और उससे हटने का परिणाम उसकी पहिचान नष्ट हो जाने के तौर पर सामने आये बिना नहीं रहेगा। नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में अनेक नेताओं ने साफ तौर पर आरोप लगाया कि भाजपा, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की राह पर चल रही है। शिवसेना की अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना से ही जुड़ी हुई थी। स्व. बाल ठाकरे ने कभी भी उसे छिपाया नहीं। उद्धव ठाकरे के अब तक के नीतिगत वक्तव्य भी प्रखर हिंदुत्व पर ही केन्द्रित थे लेकिन ऐसा लगता है सत्ता सुन्दरी के सान्निध्य में आते ही वे अपने स्वर्गीय पिता की तेजस्विता को तिलाजंलि देने को मजबूर हो गए। अभी तक भाजपा पर ये आरोप लगा करता था कि वह विपक्ष में रहते हुए जिन मुद्दों को लेकर आक्रामक रहा करती है उन्हें सत्ता में आने के बाद किनारे कर देती है। कांग्रेस ने तो उप्र विधानसभा के पिछले चुनाव में राम मन्दिर बनाने के वायदे के साथ ही अपना प्रचार शुरू किया था। राहुल गांधी ने अयोध्या के मंदिरों में मत्था टेक कर खुद को हिंदूवादी दिखाने का भरसक प्रयास किया। बाद में गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनाव में तो वे हिन्दू नेता से भी एक कदम आगे बढ़कर ब्राह्मण के रूप में खुद को पेश करने लगे। मंदिरों और मठों में धोती पहिनकर अनुष्ठान करते हुए उनके चित्र भी खूब प्रसारित हुए। बाद में मानसरोवर की यात्रा करते हुए उन्होंने शिवभक्त होने का भी दावा किया। लेकिन उनके प्रयासों को आम जनता में कोई अहमियत नहीं मिली। दूसरी तरफ  सत्ता में आते ही अपने मूल मुद्दों से मुंह मोड़ लेने वाली भाजपा ने बड़ी ही चतुराई से तीन तलाक़ और अनुच्छेद 370 जैसे जटिल मामलों को आसानी से निपटा दिया। नागरिकता संशोधन भी उसकी नीतियों का ही हिस्सा है और जैसी कि राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा है कि इससे फुर्सत पाते ही मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने की तरफ  कदम बढ़ाएगी। लोकसभा में परसों बोलते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने साफ कहा भी कि ये सब भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में किये गए वायदे ही थे। उस दृष्टि से देखें तो शिवसेना ने नागरिकता संशोधन विधेयक पर जिस तरह से अपने रुख में परिवर्तन के संकेत दिए उससे उसे तात्कालिक फायदा भले हो लेकिन दूरगामी नुकसान से वह नहीं बच सकेगी। राजनीति में स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होने की बात को चाहे जितना भी स्वाभाविक मान लिया जाए लेकिन किसी पार्टी की नीतियां और सिद्धांत तो स्थायी होने चाहिए क्योंकि उन्हीं से तो उसकी पहिचान होती है। शिवसेना और भाजपा के बीच अधिकतर मुद्दों पर वैचारिक साम्यता होने के बावजूद आक्रामकता का अंतर जरूर था। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने अपनी मूल पहिचान को तो और भी पुख्ता कर लिया लेकिन जो शिवसेना बाबरी ढांचे के विध्वंस का श्रेय लेने में नहीं डरी वह श्रीमती गांधी की नाराजगी से ही अपनी नीति छोड़ बैठी। उद्धव ठाकरे भले ही पहली बार सत्ता में आए है लेकिन उन्हें राजनीतिक अनुभव काफी लम्बा है। उस आधार पर उनका बदला हुआ रुख चौंकाने वाला है। यदि आगे भी वे इसी तरह घुटने टेकते रहे तो बड़ी बात नहीं महाराष्ट्र में भी कर्नाटक के नाटक का मंचन हो जाए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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