Thursday 28 February 2019

सरकार और सेना को उसका काम करने दें

हम भारतीय बहुत भावुक होते हैं। परसों सुबह जब पता चला कि हमारे विमानों ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकवादी अड्डों को तबाह कर दिया तब हर किसी की जुबान पर इस बार-आरपार की रट थी। टीवी चैनल सेना की शौर्य गाथा और भारत की सैन्य क्षमता का बखान करने में जुटे हुए थे। कल सुबह जब भारत में घुसे पाकिस्तानी एफ 16 को मार गिराने की खबर आई तब परसों वाली खुशी और उत्साह द्विगुणित हो गया। लेकिन थोड़ी देर बाद ज्योंही पता लगा कि हमारा मिग लड़ाकू विमान भी मार गिराया गया और उसका पायलट लापता है त्योंही सीमा से दूर बैठे लोगों का मन भी दुखी हो गया। शुरू-शुरू में तो टीवी चैनलों ने पाकिस्तान द्वारा  पायलट के उसके कब्जे में होने के दावे की जमकर खिल्ली उड़ाई किन्तु जब उसके वीडियो फुटेज सामने आ गए तब युद्ध का उन्माद उस पायलट की सलामती की चिंताओं में बदल गया। दोपहर विदेश मंत्रालय ने भी पायलट के लापता होने की बात कहकर सन्देह की पुष्टि कर दी। पाकिस्तानी सेना की पकड़ में आने के पहले अभिनंदन नामक उस पायलट के साथ हुई मारपीट के दृश्य देखकर पूरा देश मानसिक रूप से विचलित हो उठा और उसकी सलामती के लिए दुआ करने लगा। अपनी सेना और सैनिकों के प्रति सम्मान और सम्वेदनशीलता भारतीय चरित्र में है। यही वजह है कि हमारी सेना भी देशवासियों की भावनाओं को सदैव महत्व देती हैं। लेकिन इस भावनात्मक रिश्ते से अलग हटकर सेना को अपने दायित्व के निर्वहन में अनगिनत कठोर वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है। सैनिक का प्रशिक्षण भी इस तरह का होता है जिससे वह विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत और हौसला नहीं छोड़ता। इसका ताजा प्रमाण विंग कमांडर अभिनंदन द्वारा शत्रु के कब्जे में आने के बाद भी भयमुक्त बने रहने से मिला। इसी सन्तुलित व्यवहार की अपेक्षा ऐसे अवसरों पर देश के प्रत्येक जिम्मेदार व्यक्ति और वर्ग से की जाती है। विशेष रूप से टीवी चैनलों और सोशल मीडिया से जुड़े लोगों से ये अपेक्षा सबसे ज्यादा है क्योंकि अति उत्साह और जल्दबाजी की धुन में बहुत सी ऐसी खबरें और जानकारियां प्रस्तुत कर दी जाती हैं जो अपरिपक्व और अनावश्यक होने के साथ ही नुकसानदेह भी होती हैं। कल भारतीय पायलट के साथ की गई मारपीट का वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित करने वालों ने ये नहीं सोचा कि उसके परिवार वालों पर उसे देखकर क्या बीती होगी? उनके साथ ही पूरा देश भाव विव्हल हो गया जिसका असर सरकार और सेना दोनों पर पड़ता है। इस संबंध में भारत के लोगों को इजरायल से सीखना चाहिये। सेना के एक सेवा निवृत्त वरिष्ठ अधिकारी ने टीवी चैनल पर चल रही बहस में इस बात को उछाला भी कि पुलवामा की घटना की बाद सेना और सरकार दोनों पर जो मानसिक दबाव बनाया गया उसकी वजह से शत्रु पक्ष काफी सतर्क हो गया वरना बालाकोट में मारे गए आतंकवादियों की संख्या कई गुनी ज्यादा होती। सैन्य सामग्री से लदी ट्रेनों की आवाजाही के चित्रों का प्रसारण करने के साथ ही सीमा पर हो रही सैनिक और नागरिक गतिविधियों की सविस्तार जानकारी भी सुरक्षा की दृष्टि से हानिकारक हो सकती है। टीवी चैनलों द्वारा ऐसे अवसरों पर सुबह से रात तक बिना रुके जो कुछ भी दिखाया और बताया जाता है उससे भी जनता और सरकार उत्तेजना के शिकार होते हैं। टीवी चैनलों पर युद्धोन्माद भड़काने का आरोप लगाने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। सैनिक क्षमता और लड़ाकू विमानों सहित अन्य युद्ध उपकरणों तथा तकनीक का विवरण सार्वजनिक करना भी एक तरह से गैर जरूरी लगता है। समाचार चैनलों पर बैठे नेता और अन्य विशेषज्ञ सरकार और सेना को जिस तरह से सुझाव देने लग जाते हैं वह भी  अनावश्यक और अतिशयोक्तिपूर्ण होता है। समाचार माध्यम चूंकि जनमत को भी प्रभावित करते हैं इसलिए उनका ये दायित्व हो जाता है कि वे उन्माद और उत्तेजना फैलाने से परहेज करें। कतिपय टीवी चैनलों द्वारा पाकिस्तान के सेवा निवृत्त फौजी जनरलों को बहस के पैनल में शामिल किया जाता है जो खुलकर भारत को गालियां देते हैं। पता नहीं इससे उन्हें क्या लाभ मिलता है लेकिन देशहित में उनका ऐसा करना हर किसी को नागवार गुजरता है। यही गलती सोशल मीडिया पर अति सक्रिय अनेक महानुभाव करते हैं। अधकचरी जानकारी और आपत्तिजनक टिप्पणियों से वे पूरे वातवारण को प्रदूषित करते हैं। दुख की बात है कि पूरा देश जहाँ सेना के पराक्रम और केंद्र सरकार की निर्णय क्षमता की प्रशंसा कर रहा है तथा पूरी दुनिया आतंकवाद के  विरुद्ध भारत की पहल का समर्थन कर रही है तब एक तबका सेना के हमले में मारे गए आतंकवादियों की संख्या को झूठा बताने में जुटा हुआ है। अति बुद्धिजीविता के शिकार कई लोगों ने पुलवामा के हमले को  प्रायोजित बताने की धृष्टता तक कर डाली। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि युद्ध के बारे में नीति और निर्णय करने का अधिकार पूरी तरह से चुनी हुई सरकार और उसके निर्देश पर कार्य करने वाली सेना का ही होता है। सामान्य परिस्थिति में सरकार की आलोचना लोकतंत्र में स्वीकार्य है किंतु जब देश संकट में हो तब मतभेदों और आलोचना से परहेज करना चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि समाचार के साथ ही अभिव्यक्ति के अन्य प्रचलित माध्यम पूरी तरह से दायित्वबोध और देशहित का ध्यान रखें। देश की सम्प्रभुता और सुरक्षा के लिए युध्द यदि अपरिहार्य है तो उससे परहेज नहीं करना चाहिए लेकिन युद्धोन्माद और अनावश्यक टीका-टिप्पणियां व्यर्थ का तनाव उत्पन्न करते हुए सेना और सरकार दोनों पर जो मनोवैज्ञानिक दबाव बनाती हैं वह नुकसानदेह होता है। युद्ध के समय सेना के शौर्य  और सरकार की दृढ़ता के साथ ही जनता के धैर्य और समझदारी का भी इम्तिहान होता है। हालांकि ऐसे अवसरों पर भावनाओं का अपना महत्व है किन्तु उनमें भी संयम और अनुशासन होना चाहिए। वर्तमान स्थिति में सेना और सरकार अपना काम बखूबी कर रही हैं। समाचार माध्यमों, राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों, और सोशल मीडिया के महारथियों सहित जनता का भी ये फर्ज है कि अपनी-अपनी भूमिका का अपेक्षित सीमा में रहकर निर्वहन करें।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 February 2019

मोदी : इतिहास बनाने का ऐतिहासिक मौका

कल पूरे दिन देश हर्षोल्लास में डूबा रहा। भारतीय वायुसेना ने पराक्रम और पेशेवर दक्षता का जो प्रमाण पेश किया उसके समक्ष पूरा भारत नतमस्तक हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ये दिखा दिया कि संकट के समय परिपक्व नेतृत्व किस तरह का होना चाहिए। पुलवामा की घटना के बदले स्वरूप की गई सैनिक कार्रवाई  युद्ध अथवा हमला न होकर आत्मरक्षार्थ उठाया कदम था। इसका जो सीमित उद्देश्य था वह पूरा होने के बाद वायुसेना के विमान वापिस आ गए। विदेश विभाग सहित सेना की ओर से जारी किसी भी बयान में  न तो अतिरेक था और न ही युद्धोन्माद। एक जिम्मेदार और सभ्य देश के रूप में भारत ने विश्व के सभी प्रमुख देशों को इसकी जानकारी देकर राजनयिक औपचारिकताओं का भी विधिवत निर्वहन किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरी रात जागकर सेना का मनोबल बढ़ाया वहीं उसके बाद दिन भर विभिन्न आयोजनों में वे जिस सामान्य तरीके से शामिल हुए उसने पूरे देश को प्रभावित किया। कुल मिलाकर राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ता और सेना के साथ बेहतर समन्वय की वजह से भारत की शक्ति पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गई वहीं पाकिस्तान हंसी का पात्र बन गया। इस दौरान सबसे सकारात्मक बात ये रही कि लगभग पूरे विपक्ष ने सेना और सरकार का समर्थन किया। हालांकि चंद सिरफिरे पिछली सर्जिकल स्ट्राइक की तरह कल की कार्रवाई पर भी सन्देह करने से बाज नहीं आए किन्तु जनता ने पूरे देश में विजयोल्लास मनाकर उनको उपेक्षित कर दिया। दरअसल आतंकवाद के विरुद्ध भारत की लड़ाई का ये एक छोटा सा कदम ही था। पाकिस्तान बौखलाहट में ऐसा कुछ किये बिना नहीं रहेगा जिससे इमरान सरकार और फौज अपना चेहरा छिपा सके। गौर करने वाली बात ये है कि कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कल की कार्रवाई को निर्दोष लोगों की जान जाने और हिंसा प्रेरित बताते हुए कश्मीर की जनता के लिए खतरा बताया। पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों के सरगना भी इतनी आसानी से हार नहीं मानेंगे। पुलवामा की घटना के उपरांत भारत की राजनयिक मोर्चेंबंदी की वजह से पाकिस्तान विश्व बिरादरी में जिस तरह से अलग-थलग पड़ गया उसके बाद भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। सबसे ज्यादा देखने वाली बात ये होगी कि इमरान कितने दिन सत्ता में रह पाते हैं क्योंकि अतीत गवाह है जब-जब भी भारत ने पाकिस्तान को सैनिक दृष्टि से शिकस्त दी तब-तब वहां सेना ने तख्ता पलटकर सत्ता पर कब्जा किया।  इमरान यूँ भी राजनीतिक तौर पर नवाज शरीफ  की तुलना में बेहद कमजोर हैं और सेना प्रमुख जनरल वाजबा के रहमोकरम पर चल रहे हैं। पुलवामा हमले के बाद यदि वे थोड़ी सी भी समझदारी दिखाते तब भारत शायद कल की कार्रवाई नहीं करता। अब चूंकि मोदी सरकार ने सेना को खुली छूट दे दी है और कश्मीर घाटी के भीतर सुरक्षा बलों ने जबरदस्त दबाव बना दिया है तब पाकिस्तान की सेना बदहवासी में जो कदम उठा सकती है उनके प्रति सतर्कता रखनी जरूरी है। वैसे इस पिटाई के बाद जब तक पाकिस्तान और उसके पालतू आतंकवादी सतर्क हों कश्मीर घाटी में अलग़ाववाद की जडें उखाड़कर फेंकने का काम पूरा कर लेना चाहिए। कल सुबह के बाद मोदी सरकार बहुत से दबावों से मुक्त हो गई है। जनमत साथ होने से विपक्ष भी ज्यादा बोलने से बचेगा। इस स्थिति का लाभ लेते हुए ऐसा कुछ करना चाहिए जो भले ही प्रधानमंत्री और भाजपा को तात्कालिक लाभ न दे सके किन्तु जिससे देश के दूरगामी हितों की पूर्ति होती हो। ये कहना गलत नहीं होगा कि श्री मोदी में कड़े निर्णय लेने और उन पर डटे रहने का माद्दा है। किसी भी संकट के समय न तो वे विचलित होते हैं और न ही सफलता पर इतराते हैं। जनता के बीच उनकी छवि भी अच्छी है और संवाद की कला में भी वे माहिर हैं। बिना किसी अनुभव और पृष्ठभूमि के उन्होंने विश्व मंच पर भारत को जिस प्रकार एक आर्थिक और सामरिक महाशक्ति के तौर पर प्रतिष्ठित किया वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। बीते एक पखवाड़े में पाकिस्तान की जैसी कूटनीतिक घेराबन्दी भारत ने की वह प्रधानमंत्री की कोशिशों का ही परिणाम है। उनकी विदेश यात्राओं पर हुए खर्च का मुद्दा उठाने वालों को भी ये समझ में आ गया होगा कि उनसे देश को कितना कुछ हासिल हुआ। ये सब देखते हुए यदि देश का जनमानस श्री मोदी से कश्मीर समस्या के स्थायी हल की अपेक्षा करने लगा  है तो वह स्वाभाविक ही है। किसी भी देश के इतिहास में ऐसे अवसर कम ही आते हैं जब नेतृत्व के प्रति देशवासियों के मन में भरोसा हो वहीं नेतृत्व भी उस भरोसे को कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध हो। प्रधानमंत्री को चाहिए वे अपनी चिरपरिचित कार्यशैली को बढ़ाते हुए कश्मीर में अलग़ाववाद को समाप्त करने के लिए हर जरूरी कदम उठाएं। जब देश का भविष्य दांव पर हो तब चुनाव की चिंता छोड़ देनी चाहिए। विपक्ष का भी फर्ज है वह सरकार के साथ बिना पूर्वाग्रह के खड़ा रहे। देश की आंतरिक सुरक्षा को जो खतरा है उसकी मुख्य वजह कश्मीर घाटी है। यदि ये अवसर गंवा दिया गया तो आने वाली पीढिय़ां भी इस दर्द को भोगने मजबूर होती रहेंगी। आस्तीन के सांपों को ज्यादा मोहलत देना आत्मघाती होता है। सत्तर साल के कटु अनुभवों के बाद भी यदि हमने उनसे सबक नहीं लिया तो फिर आर्थिक समृद्धि और सामरिक शक्ति का लाभ ही क्या?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 26 February 2019

कश्मीर को मुख्यधारा में लाने का स्वर्णिम अवसर

कश्मीर को अपनी पुश्तैनी जायजाद समझ्ने वाली पार्टियां नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी समय के अनुसार रंग बदलने में माहिर हैं जब-जब ये किसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ गठबंधन में होती हैं तब  उनका रवैया पूरी तरह से अलहदा रहता है। फारुख अब्दुल्ला दिल्ली में आकर भारत माता की जय के नारे लगाते हैं तो महबूबा मुफ्ती पत्थरबाजी करने वालों को सुधरने की नसीहत देने में नहीं हिचकतीं। लेकिन ज्योंहीं ये अपनी दम पर सत्ता हासिल करतीं या विपक्ष में आती हैं तब इनके सुर बदल जाते हैं। ये खेल आज़ादी के बाद से अनवरत जारी है। पुलवामा हमले के बाद केंद्र सरकार द्वारा बरती गई सख्ती से अब्दुल्ला और महबूबा दोनों भनभनाए हुए हैं। हालांकि सेना ने उनकी पार्टी के किसी नेता या कार्यकर्ता की गिरेबाँ पर हाथ नहीं डाला लेकिन अलगाववादियों पर कसी नकेल के कारण दोनों की नींद हराम है। यासीन मलिक की गिरफ्तारी पर जिस तरह से महबूबा ने सवाल उठाए उससे ये बात साबित हो गई कि देश विरोधी तत्वों के प्रति उनके मन में कितनी हमदर्दी है। सर्वोच्च न्यायालय में धारा 35 ए की सुनावाई होने के पहले केंद्र सरकार ने कश्मीर घाटी में एहतियातन सुरक्षा बलों की अतिरिक्त टुकडिय़ां तैनात करने के साथ ही अलगाववादी नेताओं की धरपकड़ की। इस पर उमर अब्दुल्ला ने नसीहत दी कि राज्यपाल को चुनाव कराने के जिस काम के लिए भेजा गया है वे उसे करें। लेकिन महबूबा मुफ्ती ने एक कदम आगे बढ़कर तो भारत सरकार को धमकी दे डाली। गत दिवस एक बयान में उन्होंने 35 ए को छेडऩे के विरुद्ध चेतावनी देते हुए कह दिया कि ऐसा होने पर वह सब देखना पड़ेगा जो 1947 से आज तक नहीं देखा गया और फिर कश्मीर के लोग कौन सा झंडा उठाने के लिये मजबूर होंगे कहा नहीं जा सकता। महबूबा के इस बयान से उनका गुस्सा कम हताशा ज्यादा झलकती है। इसी तरह उमर अब्दुल्ला इस तरह बात कर रहे हैं जैसे राज्यपाल किसी अन्य देश से आए हों। उमर और महबूबा के बाप - दादा भी ऐसे ही जहर बुझे बयान देकर कश्मीरी जनता के रहनुमा बने रहने का स्वांग रचते रहे हैं। असलियत ये है कि उनके सामने गिरगिट भी पानी भरने लगती है। उमर के दादा शेख अब्ददुल्ला शुरू में प्रखर राष्ट्रवादी बने रहे लेकिन बाद में वे कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाकर उसके शासक बनने के ख्वाब देखने लगे। जब पण्डित नेहरू को अपने इस भरोसेमंद दोस्त की वास्तविकता पता चली तब उन्होंने शेख को सत्ता से हटा दिया और उसके बाद अब्दुल्ला परिवार कश्मीर में जनमत संग्रह की रट लगाने लगा। कम लोगों को याद होगा कि इंग्लैंड में डॉक्टरी की शिक्षा लेते समय फारुख जनमत संग्रह मोर्चा चलाते हुए विदेशों में भारत विरोधी दुष्प्रचार करते थे। मरहूम मुफ्ती मो. सईद भी लंबे समय तक अब्दुल्ला परिवार के साथ चिपके रहे लेकिन जब उन्हें लगा कि शेख पूरी तरह से अपने परिवार तक ही सीमित हैं तब उन्होंने पीडीपी बनाकर अपना अलग अस्तित्व बनाया लेकिन उनकी पार्टी भी नेशनल कान्फ्रेंस की तरह ही कुनबे में सिमटकर रह गई। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि कश्मीर घाटी में अलगाववाद को पनपाने में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का बड़ा योगदान है क्योंकि इनकी वजह से बाकी नेता सत्ता से वंचित होकर दूसरे रास्ते पर चले गये। ये दुर्भाग्य ही है कि पहले कांग्रेस और फिर भाजपा दोनों कश्मीर घाटी को समस्याग्रस्त बनाये रखने के लिये जिम्मेदार इन पार्टियों के मायाजाल में फंसती रहीं। 2014 के विधानसभा चुनाव में जब किसी को बहुमत नहीं मिला तब भाजपा ने पीडीपी से गठबंधन कर सरकार बनाने का दांव चला। वह कितना कामयाब रहा ये बताने की जरूरत नहीं है। सरकार गिराने के बाद जब भाजपा ने सख्ती दिखाई तब महबूबा पाकिस्तान की जुबान बोलने लगीं। ये अच्छा ही है कि केंद्र सरकार घाटी में अलग़ाववाद के विरुद्ध कड़े कदम उठाते हुए आगे बढ़ रही  है। पुलवामा की घटना के बाद तो सेना को खुली छूट दे दी गई। भारत सरकार के कड़क रवैये से पाकिस्तान भी घबराहट में है। लेकिन अब्दुल्ला और मुफ्ती की चिंता का कारण धारा 35 ए की समाप्ति की अटकलें हैं। सर्वोच्च न्यायालय में आज से शुरू हो रही सुनवाई को लेकर भी ये चर्चा है कि अगर प्रकरण ज्यादा खिंचने के आसार हुए तो मोदी सरकार अध्यादेश के जरिये जम्मू - कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति को  बदलने का दुस्साहस करेगी । लोकसभा चुनाव करीब होने से भाजपा पर भी ऐसा कुछ करने का दबाव है जो प्रधानमंत्री के 56 इंची सीने के दावे को सही साबित कर सके । ताजा खबरों के मुताबिक आज तड़के भारतीय वायुसेना के विमानों ने पाक के कब्जे वाले कश्मीर में बमबारी करते हुए आतंकवादी संगठन जैश ए मोहम्मद के कई अड्डे नष्ट कर दिए । इस हमले में 200 से 300 आतंकवादियों के मरने की खबर है । उच्चस्तरीय राजनीतिक क्षेत्रों में चल रही चर्चाओं के अनुसार पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान पर जिस तरह से अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ा उसने भारत का उत्साह बढ़ाया है और उसी के बल पर मोदी सरकार कश्मीर समस्या के ठोस हल की तरफ कदम बढ़ाने जा रही है । धारा 35 ए और 370 में किसी भी तरह का बदलाव कश्मीर घाटी में अलगवावाद की जड़ें खोदने में कारगर तो होगा ही इसके बाद वह मुख्यधारा से भी जुड़ सकेगी । महबूबा का कल का बयान उसी के डर का नतीजा है । उसके पहले उमर अब्दुल्ला का बयान भी उसी दबाव के कारण दिया गया। पुलवामा घटना के बाद प्रधानमंत्री ने बेहद गुस्से में पाकिस्तान को चेताया था कि उसने बहुत बड़ी गलती कर दी जिसकी भारी कीमत उसे चुकानी पड़ेगी । कश्मीर घाटी में अलगाववादी ताकतों की कमर तोडऩे के बाद आज किया गया हवाई हमला इस बात का संकेत है कि केंद्र सरकार आर पार के मूड में आ गई है । देश इस समूची कार्रवाई में सरकार के साथ है। विपक्ष भी पुलवामा कांड के बाद से ही साथ देने का आश्वासन दे रहा है । आज सुबह की कार्रवाई के बाद पूरी दुनिया को ये सन्देश चला गया कि भारत पलटवार करने में सक्षम है । ऐसी स्थिति में अगर कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने वाले संवैधानिक प्रावधान खत्म किये जाते हैं तो देश और विदेश में ज्यादा चूं - चपाट नहीं होगी । देशहित का  तकाजा है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ तात्कालिक स्वार्थों को परे रखकर एकजुट हों । आपस में लडऩे के लिए बहुत मौके आएंगे लेकिन मौजूदा समय एकजुटता के प्रदर्शन का है । भारतीय वायुसेना को उसके साहसिक और सफल अभियान हेतु पूरे राष्ट्र की बधाई और केंद्र सरकार को भी जिसने सेना को अपने साथियों के बलिदान का बदला लेने के लिए खुला हाथ दिया ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 February 2019

चित्रकूट : विकृत मानसिकता का फैलाव चिंताजनक

मप्र के चित्रकूट से अपहृत दो जुड़वा बच्चों की नृशंस हत्या केवल कानून व्यवस्था का विषय नहीं है। विपक्ष ने राज्य सरकार पर हमला बोला तो सत्ता में बैठे लोगों ने अपहरणकर्ताओं के संबंध विपक्ष से सम्बद्ध कतिपय संगठनों से जोड़कर गेंद उसी के पाले में लौटाने की कोशिश की। क्षेत्रीय जनता ने भी ऐसे अवसरों पर नजर आने वाले रोष का प्रकटीकरण अपने ढंग से करते हुए तनावपूर्ण हालात पैदा कर दिए। इस पूरे प्रकरण का सबसे दुखद पहलू यही रहा कि अपहरणकर्ताओं ने बच्चों के घर वालों से 20 लाख रुपये फिरौती के नाम पर प्राप्त करने के बाद भी उनको बजाय लौटाने के यमुना नदी में हाथ-पांव बांधकर फेंक दिया। 12 दिनों तक चले इस प्रकरण में बच्चों की मौत के बाद सभी अपहरणकर्ताओं का पकड़ा जाना दरअसल कई सवाल खड़े कर रहा है। इतने दिनों तक उनकी भनक तक नहीं लगना वाक़ई पुलिस की कार्यप्रणाली और क्षमता पर सन्देह करने का अवसर देती है। तीन राज्यों के अपराधी आपस में किस तरह सम्पर्क में आये और वारदात को अंजाम दिया ये सब बातें जांच में सामने आएंगी किन्तु इसमें एक विचारणीय बिंदु ये भी है कि कहीं पुलिस विभाग के किसी व्यक्ति की भी तो अपहरणकर्ताओं से मिली भगत नहीं थी? सच्चाई जो भी हो लेकिन अपराधियों को कड़े से कड़ा दंड मिलने के बाद भी दो मासूमों की जि़न्दगी तो लौटकर नहीं आएगी। जैसी जनकारी आई है उसके अनुसार अपहरणकर्ताओं ने बच्चों से पूछा कि क्या वे बाद में उन्हें पहिचान लेंगे? बाल सुलभता में उन्होंने हाँ में जवाब दिया जिससे उन्हें भविष्य में पकड़े जाने का डर सताने लगा और उसी के बाद बच्चों के हाथ पैर बांधकर यमुना में फेंक दिया गया। इस वारदात का एक चौंकानेे वाला पहलू ये है कि लगभग सभी अपराधी अच्छे खासे शिक्षित हैं। उनके बीच तालमेल कैसे बना और इतने जघन्य अपराध के लिए वे मानसिक तौर पर किस तरह तैयार हुए ये भी बड़ा सवाल है। लेकिन इस सबसे अलग हटकर सबसे बड़ी विचारणीय बात है समाज में विकृत मानसिकता का फैलाव। निर्भया कांड में शरीक अपराधियों का शैक्षणिक स्तर बहुत ही निम्न था लेकिन सन्दर्भित घटना से जुड़े लोग पढ़े-लिखे  होने के बाद भी इस तरह की राक्षसी प्रवृत्ति में लिप्त हो गए ये देखकर दुख और चिंता दोनों हो रहे हैं। दुर्भाय से हमारे देश में सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़कर समाज अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि पहले जहां अशिक्षित और समाजिक तौर पर पिछड़े कहे जाने वाले तबके में भी संस्कार और मानवता दिखाई दे जाती थी वहीं आज के दौर में  सुसंस्कृत और सुशक्षित माने जाने वाले लोगों के भीतर भी अपराधिक मानसिकता तेजी से हावी होती जा रही है। माँ-बाप अपने बच्चों को खूब लाड़ प्यार करते हैं। उन्हें बेहतर से बेहतर विद्यालय में पढ़ाते हैं। उनका भविष्य संवारने हेतु महंगी कोचिंग दिलवाते हैं और छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। लेकिन इस सबके बीच उन्हें संस्कार और संवेदनशीलता की सीख देने के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। छोटा परिवार होने के बाद भी अभिभावकों का उनकी सन्तान के साथ संवाद पूर्वापेक्षा घट रहा है। एकाकी परिवारों के बच्चों में रिश्तों के निर्वहन और सम्मान का भाव भी निरन्तर ढलान पर है। इस सबका दुष्परिणाम समाज के सुशक्षित और यहां तक कि सम्पन्न वर्ग के बीच बढ़ती अपराधिक प्रवृत्ति के रूप में परिलक्षित हो रहा है। नजदीकी संबंधों में भी दुष्कर्मों की बढ़ती संख्या इसका ज्वलंत प्रमाण है। किशोरावस्था के बच्चों की सोच में आ रहा बदलाव भी चिंताजनक है। समय आ गया है जब ऐसे मामलों को केवल अपराध मानकर भुला न दिया जाए। समाजशास्त्रियों को भी अपनी मांद से निकलकर सक्रिय भूमिका का निर्वहन करते हुए इस प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों के फैलाव के बारे में समाज को सतर्क और शिक्षित करने आगे आना चाहिए। केवल राजनीति और सरकार के भरोसे सब छोड़ निर्विकार होकर बैठने की आदत नहीं छोड़ी गई तब इस तरह के दर्दनाक हादसे दोहराए जाते रहेंगे। केवल दंड देने मात्र से अगर अपराध मिटता होता तो निर्भया कांड के बाद देश में दुष्कर्म बन्द हो चुके होते। चित्रकूट अपहरण कांड की परिणिती जिस तरह हुई वह दिल दहला देने वाली है। ये कैसे हुआ इसकी विवेचना तो पुलिस और अदालत अपने स्तर पर कर लेंगी किन्तु ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं ये समाज के लिए भी चिंता और चिंतन का विषय होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी