Monday 18 February 2019

वरना केशर की क्यारियों में जहर फूलता रहेगा

पुलवामा हादसे के बाद भले ही सुरक्षा बलों को बदला लेने की छूट दे दी गई हो लेकिन कश्मीर घाटी के अंदरूनी हालात बहुत आश्वस्त करने वाले नहीं हैं। बारूदी सुरंगें हटाते समय एक युवा मेजर की मौत हो गई। इसके बाद बीती रात से पुलवामा में चल रही मुठभेड़ में भी सुरक्षा बलों के चार लोग शहीद हो गए जिनमें एक मेजर भी शामिल बताया जा रहा है। चौतरफा दबाव के बाद गत दिवस केंद्र सरकार ने पांच अलगाववादियों की सुरक्षा तथा अन्य सुविधाएं वापिस ले लीं। इसका घाटी के माहौल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि जिन आतंकवादियों से बचाने के लिए इन्हें सुरक्षा देकर सरकारी दामाद जैसी हैसियत दी गई थी वे उन्हीं की तरफदारी करने से बाज नहीं आते थे। हुर्रियत कांफे्रंस को गैर राजनीतिक मानकर पिछली केंद्र सरकार के जमाने से ये व्यवस्था चली आ रही थी। मोदी सरकार ने भी जब इसे जारी रखा तब उसे अपने समर्थकों की घोर आलोचना झेलनी पड़ी। बहरहाल गत दिवस पांच उन नेताओं की सुरक्षा एवं सुविधाएं वापिस लेने का फैसला हो गया जो ऊपर से तो नरम दिखते हैं लेकिन भीतर ही भीतर आतंगवादियों के हमदर्द बने हुए थे। बीते शुक्रवार की नमाज नें मीर वाइज उमर फारुख ने मस्जिद में दी गई तकरीर में केंद्र सरकार पर तंज भी कसा था कि एक आतंकवादी मारोगे तो दस पैदा होंगे। पुलवामा हमले की निंदा करने की बजाय ये नेतागण घुमा फिराकर भारत सरकार की नीति और सैन्य बलों की ज्यादती का रोना रोने से बाज नहीं आए। कुल मिलाकर इन्हें दी गई सरकारी सुविधाएं सांप को दूध पिलाने जैसी साबित हो रही थीं। यही वजह है केन्द्र के इस फैसले का आम तौर पर स्वागत ही हुआ। यद्यपि कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज ने जरूर एतराज जताते हुए इसे कश्मीर के प्रति संकीर्ण रवैया निरूपित किया। अभी तक कांग्रेस ने उनकी प्रतिक्रिया पर कोई राय व्यक्त नहीं की। इसी तरह के देश विरोधी बयान पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धु भी लगातार देते जा रहे हैं। पुलवामा हादसे के बाद भी घाटी के भीतर न तो नेताओं और न ही जनता के स्तर पर किसी तरह का अफसोस दिखाई दिया। जिस आतंकवादी युवक ने आत्मघाती हमले को अंजाम दिया उसके परिवारजन भी उसी का बचाव करते दिखे। इस प्रकार जो बात सतह पर दिखाई दे रही है वह है कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावना का विस्तार। चूंकि वहां से हिंदुओं का पूरी तरह से पलायन हो चुका है इसलिए अलगाववादी अपने मंसूबे में सफल हो रहे हैं। श्रीनगर को एक बार छोड़ दें लेकिन छोटे शहरों और कस्बों में तो भारत के हितों की बात करने का दुस्साहस कोई कर ही नहीं सकता। सेना के बल पर आतंकवाद को खत्म करने में काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन अलगाववादी भावनाएं वहां की हवा - पानी में पूरी तरह घुल चुकी हैं। इसकी एक वजह कश्मीर घाटी का शेष भारत से संवाद खत्म हो जाना है। आतंकवाद की वजह से घाटी में पर्यटक भी अब उतने नहीं जाते। यही वजह है कि पुलवामा हादसे का बदला लेने के लिए सेना चाहे सर्जिकल स्ट्राइक या युद्ध कर पाकिस्तान की पिटाई कर दे किन्तु जब तक कश्मीर घाटी के भीतर भारतीयता का स्वस्फूर्त माहौल नहीं पैदा होता तक कोई उम्मीद करना व्यर्थ है। लेकिन न तो ये अब्दुल्ला और मुफ्ती खानदान के जरिये मुमकिन है और न ही हुर्रियत जैसे संगठनों की मदद से जो चुनाव की प्रक्रिया को ही निरर्थक मानते हैं। ये सब देखने के बाद अब केवल एक उपाय बच रहता है और वह है कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करना। अनुच्छेद 35-ए और धारा 370 को समाप्त करने को लेकर देश भर में जैसी आम राय है वैसी शायद ही किसी अन्य मसले को लेकर होगी। ये कहना भी काफी हद तक सच है कि कांग्रेस और वामपंथियों सहित जो लोग कश्मीर की विशेष स्थिति के समर्थक हैं वे भी वर्तमान वातावरण को देखते हुए ज्यादा मुंह खोलने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए वह पाकिस्तान की गर्दन मरोडऩे के लिए भले ही सेना को खुली छूट दे दे लेकिन घाटी के भीतर अलगाववाद के जड़ें तब तक नहीं उखाड़ी जा सकेंगी जब तक वहां जो आबादी का असंतुलन है उसे दूर नहीं किया जाए। मौजूदा स्थितियों में सेना ही नहीं पूरी केंद्र सरकार भी सिर के बल खड़ी हो जाए तो भी घाटी से खदेड़ दिए गए हिन्दू वहां लौटने को तैयार होंगे क्योंकि वहां उनकी स्थिति दांतों के बीच जीभ सरीखी होगी। घाटी से बाहर शरणार्थी बनकर रह रहे पंडितों की घर वापिसी के तमाम आश्वासन और कार्ययोजनाएं हवा-हवाई होकर रह गईं। वैसे तो फारुख अब्दुल्ला हमेशा कहते हैं कि पंडितों की वापिसी के बिना कश्मीर अधूरा है लेकिन उनकी हिफाजत की गारंटी देने हिम्मत उन्होंने कभी नहीं दिखाई। आज जो हालात हैं उनका सैन्य और राजनीतिक आधार पर कितना भी विश्लेषण कर लिया जावे लेकिन जब तक घाटी का मौजूदा जनसंख्या समीकरण बदलकर घाटी में हिंदुओं की आबादी नहीं बढ़ाई जाती तब तक चाहे कितनी भी अच्छी और बड़ी-बड़ी बातें कर ली जाएं किन्तु केशर की क्यारियों में जहर फूलता रहेगा। पंजाब में आतंकवाद ने दम तोड़ा तो वहां सिखों के साथ ही हिंदुओं की अच्छी खासी आबादी और उनके बीच के सांस्कृतिक रिश्ते भी उसका बड़ा कारण था जिसका कश्मीर घाटी में सर्वथा अभाव है। उस दृष्टि से सभी राजनीतिक दलों को इस बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए। धारा 370 का धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता से कोई सम्बंध नहीं है। वह जब बनाई गई तब की परिस्थितियां जो भी रही हों किन्तु बीते सात दशक में झेलम और चिनाब में इतना पानी बह चुका है कि उस धारा के बारे में पुनर्विचार की महती जरूरत है। यदि इस लोकसभा चुनाव के पहले ये सम्भव न हो तो मुख्य धारा की दोनों पार्टियाँ कम से कम देश से वायदा करें कि चाहे सत्ता में आएं या विपक्ष में किन्तु कश्मीर समस्या के मूल कारण को दूर करने वे साथ रहेंगी। राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता पर मंडरा रहे खतरे के मद्देनजऱ राजनीतिक हितों की जगह अभी भी यदि राष्ट्रहित को प्राथमिकता नहीं दी गई तब हमें किसी बड़े खतरे के लिए तैयार हो जाना चाहिए क्योंकि घाटी में मौजूद राजनीतिक पार्टियां  और विभिन्न नामों से चल रहे अलगाववादी संगठनों के बीच कितने भी मतभेद हों लेकिन भारत के विरोध में वे एकस्वर में बोलते हैं। तो क्या देश की उन ताकतों को एकजुट नहीं होना चाहिए जो भारत की एकता और अखंडता की कसमें खाया करती हैं। रष्ट्रभक्ति कोई ज्वार-भाटा नहीं जो आए और चला जाए, ये तो नदी के सतत प्रवाह की तरह होनी चाहिए ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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