Friday 8 February 2019

खाली खज़़ाने से खैरात बांटने की प्रतिस्पर्धा

मप्र की कमलनाथ सरकार ने गत दिवस अनेक महत्त्वपूर्ण फैसले लिए। इनमें बेरोजगारों को वर्ष भर में 100 दिन काम की गारंटी के आधार पर प्रशिक्षण और भत्ता, किसानों को आधी दर पर बिजली, 100 यूनिट तक के विद्युत उपभोक्ताओं को 100 रु. प्रतिमाह में बिजली, सामाजिक सुरक्षा पेंशन 300 से बढ़ाकर 600  रु. करने जैसे जनहितकारी निर्णय हैं। चूंकि इनसे प्रदेश के लाखों लोगों को सीधे आर्थिक लाभ मिलेगा इसलिये लाभार्थी समुदाय में से शायद ही कोई इसका विरोध करेगा। हालांकि और ज्यादा की उम्मीद और उस हेतु दबाव बनाने का प्रयास भी जारी रहेगा क्योंकि ये दिल मांगे मोर वाला विज्ञापन अपने देश की मानसिकता बन गई है। केंद्रीय बजट में किसानों को 6 हजार रुपए सालाना दिए जाने पर तंज कसने वाले क्या बता सकेंगे कि मात्र 600 रु. प्रति माह या 7200 रु. प्रति वर्ष में किसी वृद्ध का गुजारा कैसे होगा? बहरहाल मप्र सरकार अपने चुनावी वायदों को पूरा करने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है इसलिये उसकी प्रशंसा हो रही है लेकिन ले देकर एक सवाल फिर उठ खड़ा होता है कि खाली खजाने वाली आर्थिक परिस्थिति में राज्य सरकार आखिरकार इस सबके लिए धन कहां से जुटाएगी? बिजली की दरें आधी करने या एक रु. प्रति यूनिट में बाँटने से मप्र विद्युत मंडल के पहले से ही चरमरा चुके अर्थतंत्र का क्या होगा इसका उत्तर भी फिलहाल किसी की पास नहीं है। चुनावी वायदों को पूरा करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाना किसी भी दल की सरकार के लिए विश्वसनीयता की कसौटी पर खरा उतरने के लिहाज से एक आदर्श स्थिति कही जा सकती है लेकिन केवल चुनाव जीतने के लिए की जाने वाली इन मेहरबानियों के चलते सरकार की माली हालत जिस प्रकार बिगड़ती जा रही है वह चिंता का विषय है। ये बात केवल मप्र तक ही सीमित नहीं है। हाल ही में मोदी सरकार ने भी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने बजट में जिस तरह की दरियादिली दिखाई वह भी सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है। गत दिवस लोकसभा में अपने लंबे और बेहद आक्रामक भाषण में प्रधानमंत्री ने कांग्रेस शासित राज्यों द्वारा किसानों के कर्ज माफी के मामले में की जा रही देरी पर कटाक्ष किये लेकिन ऐसा कहते हुए वे  भूल गए कि उनकी अपनी सरकार और भाजपा शासित राज्यों में भी इसी तरह जनता से बटोरे गए धन की होली जलाई जाती है। लोकतंत्र जनता के लिए समर्पित शासन व्यवस्था है। उस दृष्टि से श्री मोदी और श्री क़मलनाथ कोई गलत काम नहीं कर रहे। लेकिन बीते कुछ दशक में महज वोट बटोरने के लिए जिस तरह से सरकारी खजाना लुटाए जाने की परंपरा सी बन गई है उसकी वजह से ही घाटे की अर्थव्यव्यस्था जैसा बोझ सहने की मजबूरी सिर पर चढ़कर बैठ गई है। मोदी सरकार कितना भी दावा करे कि उसने घाटे को अनुमानित सीमा के भीतर कर रखा है लेकिन प्रश्न ये है कि घाटा आखिऱकार रहे ही क्यों ? सही बात तो ये है कि राजनीति का एकमात्र उद्देश्य किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करना रह गया है। जो पार्टी या नेता इसमें असफल रहता है तो उसे जनता भी भाव नहीं देती। कई अच्छी सरकारें केवल इसलिए अगला चुनाव नहीं जीत सकीं क्योंकि उन्होंने काम तो ठोस किया किन्तु लोगों को तात्कालिक लाभ देने वाली  योजनाएं लागू करने में वे विफल रहीं। वाजपेयी सरकार का उदाहरण इस बारे में सबसे अच्छा है। उसके बाद सभी की समझ में आ गया कि ऐसे कार्य करो जिससे जनता को नगद-नारायण मिलता रहे फिर चाहे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतें पूरी हों या नहीं? गत दिवस किसी संदर्भ में लोकसभा के भीतर दलीय मतभेदों से ऊपर उठकर अधिकतर पार्टियों के सांसदों ने मेज थपथपाकर परिवहन मंत्री नितिन गड़करी की जमकर तारीफ की। इनमें सोनिया गांधी भी थीं। इस वाकये से ये स्पष्ट हो गया कि विकास के क्षेत्र में ठोस कार्य की अपेक्षा और प्रशंसा तो सभी करते हैं किंतु खुद गद्दी मिलते ही सब भूलकर मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर समाज के एक बड़े हिस्से को निठल्ला बनाने से बाज नहीं आते। यही सूरते हाल बना रहा और चुनाव की समयसारिणी में यथोचित सुधार नहीं हुआ तब आने वाले कुछ सालों में भारत की बड़ी आबादी काम धंधा छोड़कर सरकार से मिलने वाली खैरात का इतंजार करती बैठी रहेगी। सवा अरब की आबादी वाले देश में बेरोजगारी का रोना तो प्रत्येक पार्टी और नेता रोता है किन्तु लोगों को काम करने हेतु प्रेरित करने की तकलीफ  कोई नहीं उठाना चाहता क्योंकि वैसा करने में लोगों के नाराज होने का खतरा जो है। ये स्थिति चुनाव जीतने के लिए तो लाभप्रद हो सकती है लेकिन इस वजह से युवा पीढी में कार्य संस्कृति का अभाव भी देखा जाने लगा है। सस्ती और मुफ्त बिजली ने पूरे अर्थतंत्र की रीढ़ तोड़कर रख दी है। किसानों के कर्ज माफ  किये जाने का बैंकिंग सेक्टर पर क्या असर पड़ा ये भी किसी से छिपा नहीं है। सरकारें जनकल्याण के काम जरूर करें किन्तु उसके कारण उसका अपना अर्थ प्रबंध यदि असंतुलित होने लगे तब किसी अन्य मार्ग की तलाश की जाए वरना एक कदम आगे और दो कदम पीछे का खेल चलता रहेगा। आरक्षण ने समाज को टुकड़े टुकड़े कर दिया और मुफ्तखोरी अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह चाटने में जुटी हुई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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