Wednesday 31 August 2022

गोर्वाचोव : बिना युद्ध के दुनिया का भूगोल बदल गए



दुनिया में आने वाला हर शख्स आखिरकार इतिहास बन जाता है | लेकिन आने वाली पीढ़ियां उन्हीं को याद रखती हैं जो इतिहास बना जाते हैं | उन्हीं में से एक थे सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचोव जिनका बीती रात निधन हो गया | 1985 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनने के बाद उन्होंने साम्यवादी व्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया शुरू करने का दुस्साहस किया | जिसमें सबसे पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सरकार की आलोचना के अलावा साहित्य और कला जगत को स्टालिनवादी जंजीरों से आजादी देना था | दूसरे महायुद्ध के बाद शुरू हुए शीतयुद्ध ने भले ही सोवियत संघ को एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित कर  दिया लेकिन जिस साम्यवाद के नाम पर दुनिया को दो ध्रुवीय बनाने का प्रयास हुआ उसका प्रभाव  सीमित होने से वह एक ऐसी दीवार के भीतर सिमटकर रह गया जिसके भीतर झाँकने की अनुमति किसी को न थी और जो खुद के पैदा किये खतरों से ही सहमी रहा करती थी | 1949 में जब चीन में माओ त्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी क्रांति का दूसरा सबसे बड़ा प्रयोग हुआ तब ये माना गया कि पश्चिमी पूंजी आधारित चकाचौंध की जगह आर्थिक समानता की पैरोकार शासन नियंत्रित साम्यवादी व्यवस्था लेगी | लेकिन माओ ने बिना देर लगाए ये साफ़ कर दिया कि उनका साम्यवाद सोवियत संघ की उंगली पकड़कर नहीं चलेगा  | संभवतः उसी दिन सोवियत संघ  के पतन की बुनियाद रख दी गई थी | स्टालिन के दौर में सोवियत संघ क्रूरता का पर्याय बन चुका था | राजसत्ता के विरुद्ध बोलना तो दूर सोचने तक पर पाबंदी थी | असहमति का परिणाम सायबेरिया के वे श्रम शिविर थे जो अत्याचार के पर्याय बन गए | हालाँकि स्टालिन के बाद आये निकिता क्रुश्चेव ने उस छवि को दूर करने का काफी प्रयास किया लेकिन शीतयुद्ध के कारण महाशक्तियों के बीच का अविश्वास इतना ज्यादा था कि अनेक मर्तबा तीसरे विश्व युद्ध का खतरा तक  पैदा हो गया | उल्लेखनीय है पूर्वी यूरोप के साम्यवाद प्रभावित देशों में यूगोस्लाविया ने सोवियत आधिपत्य को स्वीकार नहीं किया था | बाद में पोलैंड और चेकोस्लाविया ने भी  वैसी ही कोशिश की जिसे  मॉस्को के हुक्मरानों ने कुचल दिया | लेटिन अमेरिका कहलाने वाले क्षेत्र में क्यूबा नामक देश में भी साम्यवादी सत्ता कायम हुई जिसका नेतृत्व लगभग पांच दशक तक फिडेल कास्त्रो ने किया | इस देश को दबाने की कोशिश अमेरिका ने कई बार की | एक बार तो इसे लेकर सोवियत  संघ  और अमेरिका के बीच परमाणु युद्ध होते – होते बच गया था | निश्चित तौर पर सोवियत संघ वैचारिक और सामरिक तौर पर दुनिया के एक धड़े का सिरमौर बना रहा लेकिन विश्व बिरादरी  से कटे रहने के कारण एक तरफ जहाँ विश्व व्यापार में उसकी पकड़ कायम नहीं हो सकी वहीं तकनीक के विकास में भी वह श्रेष्ठता के स्तर को छूने में असाफ्ल रहा | सबसे बड़ी गलती उससे ये हुई कि अन्तरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने में  उसकी आर्थिक स्थिति खराब होती गई | सामरिक स्पर्धा के फेर में हथियारों पर भी सोवियत संघ ने अनाप शनाप पैसा खर्च किया | 1985 में जब गोर्वाचोव सत्ता में आये तब तक सोवियत संघ आर्थिक मंदी का शिकार होने के कारण अपनी जनता का लालन - पालन करने में तकलीफ महसूस  करने लगा था | वे इस बात को समझ गये कि साम्यवादी जंजीरों में जंग लगने से वे कमजोर हो चली हैं और इसीलिये  उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही आर्थिक सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया भी शुरू की | दूसरे महायुद्ध के दौरान दो हिस्सों में विभाजित जर्मनी का एकीकरण भी  गोर्वाचोव के नीतिगत बदलाव का वह परिणाम था जिसने दो देशों को बांटने  वाली बर्लिन की दीवार को ढहा दिया | हालाँकि उसके पहले पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में लोकतंत्र के लिए हुए आंदोलनों को कुचलने में  भी गोर्वाचोव ने काफी जोर लगाया था लेकिन दीवार पर लिखी इबारत को वे समझ चुके थे और इसीलिए उन्होंने अपने देश में ग्लासनोस्त नामक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पेरेस्त्रोइका नामक आर्थिक पुनर्गठन के कार्यक्रम लागू किये | जनता और शासन व्यवस्था पर कम्युनिस्ट पार्टी के नियन्त्रण को कम करने के साथ ही बड़ी संख्या में राजनीतिक बंदियों को रिहा करने जैसे निर्णयों से उन्होंने दुनिया का ध्यान खींचा | अमेरिका के साथ निरस्त्रीकरण समझौता करने के लिए उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार भी मिला  | लेकिन उनकी उदारवादी नीतियों के कारण सोवियत संघ में समाहित 15 गणराज्य भी  आजाद होने मचल उठे | यद्यपि गोर्वाचोव ने संघ को बचाने के लिए लचीलापन लाने का सुझाव दिया लेकिन तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी | अंततः 25 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ बिखर गया | उसके एक दिन पहले गोर्वाचोव ने राष्ट्रपति पद छोड़ दिया और इस तरह वे उस साम्यवादी साम्राज्य के अंतिम मुगल के रूप में इतिहस के पन्नों में दर्ज हो गये | हालाँकि उसके बाद एक बार उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा लेकिन जिस जनता को उनके हाथों लोकतंत्र का स्वाद चखने मिला उसी ने उन्हें अस्वीकार कर दिया | यद्यपि उससे गोर्वाचोव के कृतित्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती | हालाँकि रूस में एक तबका आज भी उनको अमेरिका के एजेंट के तौर पर आरोपित करता है जिसने सोवियत संघ को टुकड़ों में बाँट दिया | लेकिन उन्हें  इस बात का श्रेय देना ही पड़ेगा कि आज न केवल रूस अपितु सोवियत संघ के हिस्से रहे बाकी के देश यदि वैश्विक  मुख्यधारा से जुड़े तो उसका कारण गोर्वाचोव की नीतियाँ ही थीं | ये कहना भी  गलत न होगा कि चीन ने साम्यवादी व्यवस्था में रहते हुए ही पूंजी के महत्व को स्वीकार कर माओवादी दौर के लौह आवरण को हटाकर अपने दरवाजे विश्व व्यापार के लिए खोले तो उसके पीछे भी सोवियत संघ का विघटन बड़ा कारण बना | दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया का भूगोल बदला था | लेकिन गोर्वाचोव ने बिना युद्ध के ही वह कारनामा कर दिखाया | भले ही वे चर्चाओं से दूर चले गये थे लेकिन इतिहास उन्हें एक ऐसे शख्स के रूप में याद रखेगा जिसने साम्यवादी शासन की जंजीरों को तोड़कर सोवियत संघ रूपी कृत्रिम व्यवस्था की कैद में रह रहे करोड़ों लोगों को आजादी की साँस लेने का अवसर प्रदान किया | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 30 August 2022

कहीं सर्वोच्च न्यायालय को भी न रोकने लगें राज्य



भारत संघीय गणराज्य है | संविधान में केंद्र और राज्यों के अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख है | कुछ विषय दोनों के क्षेत्राधिकार में आते हैं | कानून - व्यवस्था और अपराधों की जांच वैसे तो राज्यों का मसला है लेकिन जरूरत पड़ने पर वे केन्द्रीय एजेंसियों मसलन सीबीआई को ये जिम्मा सौंपते हैं | आर्थिक अपराधों के लिए ईडी है वहीं आतंकवाद के  मामलों में एनआईए की भूमिका होती है | लेकिन बीते कुछ सालों से  सीबीआई और ईडी को लेकर अनेक राज्यों को  भारी नाराजगी है जिसके चलते उन्होंने सीबीआई पर उनके  यहाँ आने पर  रोक लगाई है | इनमें प. बंगाल सबसे आगे है जहां छापा मारने गयी सीबीआई  टीम को पुलिस द्वारा गिरफ्तार तक किया  जा चुका है | 2014 के बाद से केन्द्रीय जाँच एजेंसियों और गैर भाजपा शासित राज्यों के बीच टकराव बढ़ता गया | पहले तो केवल सीबीआई खटकती थी लेकिन अब ईडी आंख का कंकड़ बन गई है | आरोप है कि केंद्र सरकार इनके जरिये गैर भाजपा राज्य सरकारों को अस्थिर करने में जुटी है | बिहार में नीतीश सरकार के विश्वास मत वाले दिन भी जब सीबीआई ने राज्य में छापेमारी की तो विवाद और गहरा गया | प. बंगाल के एक मंत्री 50 करोड़ की जप्ती के सिलसिले में जेल में हैं | महाराष्ट्र की पिछली सरकार के दो मंत्रियों के बाद शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत भी अंदर हैं | रेलवे भर्ती घोटाले में उनके बेटे – बेटियों पर भी तलवार लटक रही है | दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री जेल में हैं और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया के भीतर जाने की स्थिति बन रही है |  जाँच के घेरे में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला भी हैं और कांग्रेस के  शीर्षस्थ नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी | आशय ये है कि सीबीआई और ईडी द्वारा  गैर भाजपा राजनीतिक दलों के दिग्गजों के गले में डाले गए फंदों से राजनीतिक सौजन्यता तो पूरी तरह से खत्म हुई  ही , साथ ही केंद्र और राज्यों में  समन्वय  भी कम हुआ   है | गत दिवस खबर आई कि बिहार  सरकार भी  सीबीआई को राज्य में घुसने से रोकने जा रही है  | आरजेडी के उपाध्यक्ष शिवानन्द तिवारी ने इस आशय का बयान देते हुए कहा कि महागठबंधन की सभी पार्टियों ने  उक्त निर्णय लिया है | लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी तल्ख़ अंदाज में कह दिया कि कौन क्या  कहता है , मुझे नहीं मालूम लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है | लेकिन इसी बीच प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का ये बयान आ गया कि राज्य में पदस्थ  सीबीआई और ईडी के अधिकारियों के विरुद्ध उनकी सरकार के पास काफ़ी शिकायतें हैं जिनकी वे जांच करवाएंगी क्योंकि यदि केंद्र सरकार हमारे अधिकारियों  को बुलायेगी तो हम उनके अधिकारियों के साथ वैसा ही करेंगे | उल्लेखनीय है राज्य सरकार के कुछ अधिकारियों की जांच जब कोलकाता में करने में सीबीआई को परेशान किया गया तब उनको दिल्ली आने का सम्मन दिया गया | इससे ममता भड़क उठीं और उक्त बयान दे डाला | रही बात  शिवानन्द तिवारी के बयान की तो ऐसा लगता है लालू परिवार पर सीबीआई का शिकंजा कसे जाने के भय से शायद  आरजेडी , नीतीश पर  दबाव बनाना चाहती है | गौरतलब है प. बंगाल  के अलावा छत्तीसगढ़ , राजस्थान , पंजाब और मेघालय ने भी सीबीआई पर रोक लगा रखी है | उद्धव ठाकरे ने भी  मुख्यमंत्री रहते हुए ऐसा ही कदम उठाया था | हालांकि इसके औचित्य पर सवाल उठते रहे हैं | जब किसी छापे में कुछ नहीं मिलता तब सीबीआई और ईडी पर हमले बढ़ जाते हैं और जब पार्थ चटर्जी जैसे नेताओं का खजाना बेपर्दा होता है और हेमंत सोरेन के नजदीकी की आलमारी से झारखंड पुलिस द्वारा उपयोग की जाने वाली एके 47 रायफल बरामद होती है तब लगता है ये एजेंसियाँ सही काम कर रही हैं | लेकिन जिस तरह से विपक्षी राज्य सरकारें केंद्र के आधिपत्य को चुनौती देने लगी हैं उसे देखते हुए ये आशंका भी  निराधार  नहीं है कि आने वाले समय में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों से असंतुष्ट कोई राज्य उसकी सर्वोच्चता को नकारने का दुस्साहस करने लगे | हाल ही में द्रमुक  नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री डी. राजा ने तमिलनाडु पर हिन्दी लादे जाने का विरोध करते हुए अलग तमिल राष्ट्र बनाने जैसी धमकी  तक दे डाली | आजादी के 75 साल बाद भी जम्मू कश्मीर के अलावा उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में अलगाववाद के बीज गाहे - बगाहे अंकुरित होते रहते हैं | दिल्ली में हुए किसान आन्दोलन के बाद   खालिस्तान के समर्थक पंजाब में फिर सिर उठाने लगे हैं | ऐसे तत्वों को ममता बैनर्जी जैसे नेता अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित करते हैं | सीबीआई और ईडी के गलत उपयोग का बेशक विरोध होना चाहिए | विपक्ष का ये कहना पूरी तरह सही है कि क्या भाजपा के तमाम नेता भ्रष्टाचार और अवैध कारनामों से पूरी तरह दूर हैं जो ये एजेंसियां उनके गिरेबान पर हाथ नहीं डालतीं | लेकिन जब विपक्ष  द्वारा शासित राज्य नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर अपने राज्य में लागू करने पर रोक लगाते हैं तब उनकी नीयत पर भी सवाल उठते हैं | यहाँ तक कि बिहार में भाजपा के साथ रहते हुए भी नीतीश ने उक्त दोनों कानूनों को लागू न करने के साथ ही भाजपा की असहमति के बावजूद जाति आधारित जनगणना का फैसला कर डाला | कुल मिलाकर चिंता का विषय ये है कि राष्ट्रगान जन गण मन  में जिस संघीय ढांचे का भावनात्मक और सांकेतिक उल्लेख है , संदर्भित विवाद उसकी अवधारणा के लिए खतरा है | चूंकि इसके पीछे दलगत राजनीति है इसलिए सभी पक्ष एक दूसरे पर दोष मढ़ते रहेंगे | बेहतर हो राजनीति पर प्रभाव डालने वाली ताकतें ऐसे अवसरों पर खुलकर सामने आयें क्योंकि प्रश्न  केंद्र और राज्य सरकार का नहीं वरन देश की एकजुटता का है | संघीय गणराज्य एक आदर्श व्यवस्था है जो  नियन्त्रण और संतुलन के  सिद्धांत से संचालित होती है | इसलिए केंद्र और  राज्य दोनों को अधिकारों के साथ ही मर्यादाओं का भी ध्यान रखना चाहिए | वैसे विपक्ष के भीतर भी इस बारे में कम विरोधाभास नहीं हैं | सोनिया जी और राहुल से ईडी की पूछताछ पर देश भर में आन्दोलन करने वाली कांग्रेस ने मनीष सिसौदिया पर सीबीआई की दबिश पर कहा कि उन पर ऐसे दस छापे पड़ने चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 August 2022

अवैध निर्माणों के विरुद्ध लड़ने का साहस तो पैदा किया इस फैसले ने



दिल्ली का हिस्सा बन चुके उ.प्र के नोएडा में दो गगनचुम्बी आवासीय इमारतों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद गत दिवस ध्वस्त कर दिया गया | 29 और 32  मंजिला इन इमारतों के निर्माण में नियमों का  उल्लंघन बड़े पैमाने पर होने के बाद इनका खड़ा रहना कानून तोड़ने वालों का हौसला बढ़ने का कारण बनता | सबसे बड़ी बात ये रही कि इन इमारतों को गिरवाने की याचिका इसमें फ़्लैट खरीदने वालों की तरफ से ही लगाई गयी | फ़्लैट धारकों की शिकायत ये थी कि सुपरटेक नामक बिल्डर ने शुरुआत में जितनी मंजिलें बनाने का नक्शा स्वीकृत करवाया था उससे ज्यादा बनाने की अनुमति बाद में ले ली | दो इमारतों के बीच की दूरी भी  कम कर दी तथा  उद्यान आदि के लिए खुली भूमि तक नियमानुसार नहीं छोड़ी गयी | और तो और ग्रीन बेल्ट के लिए रिक्त रखी गई अविकसित शासकीय भूमि पर भी बलात कब्जा कर लिया गया | अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उक्त याचिका पर जो फैसला दिया उसे ही सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखते हुए उक्त इमारतों में फ़्लैट खरीदने वालों को पूरे पैसे लौटाने के साथ ही अवैध इमारतों को गिराए जाने का आदेश देते हुए समय सीमा भी तय कर दी | हालाँकि इतने बड़े निर्माण को सुरक्षित तरीके से गिराए जाने के लिए तकनीकी विशेषज्ञों की व्यवस्था करने में समय लगा |  अंततः गत दिवस इस बहुप्रतीक्षित अभियान को बिना किसी जनहानि के संपन्न  कर लिया गया | पूरे देश और दुनिया में इसका दृश्य देखा गया | भारत में अपने तरह का पहला मामला होने के कारण  आख़िरी समय तक लोगों को ये विश्वास था कि दोषी बिल्डर जुगाड़ तकनीक का उपयोग करते हुए विध्वंस की कार्रवाई को रुकवा लेगा परन्तु  उसे निराशा हाथ लगी | इसके बाद सोशल मीडिया पर जो प्रतिक्रिया देखने मिलीं उनमें अधिकांश का अभिमत यही है कि उक्त इमारतों को जमींदोज करने के बजाय राजसात करते हुए नेकी के किसी प्रकल्प में उपयोग किया जाता  | हालाँकि एक वर्ग उन लोगों का भी है जो ये मानते हैं कि कानून का राज केवल किताबों तक सीमित न रहते हुए लोगों को प्रत्यक्ष नजर आना जरूरी है | और इसीलिये इन इमारतों को अस्तित्वहीन करना सही कदम था ताकि अवैध निर्माण करने  और उन्हें संरक्षण देने वालों का मनोबल टूटे | बहरहाल ये बहस कुछ दिनों तक चलेगी और संभव है कि सरकार और सर्वोच्च न्यायालय जनभावनाओं का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय क्षति को रोकने के लिए अवैध निर्माण को  किसी रचनात्मक उद्देश्य हेतु उपयोग किये जाने का विकल्प तलाशें  | इस अवैध निर्माण को स्वीकृति देने वाले उ.प्र के संबन्धित अधिकारी भी  गैरकानूनी  मंजूरी  दिये जाने के अपराधी होने के साथ ही 500 करोड़ रु. की राष्ट्रीय क्षति के लिए जिम्मेदार हैं | लेकिन जो जानकारी आई उसके अनुसार सपा और बसपा की सरकार के ज़माने में सुपरटेक को जिस तरह मनमाने तरीके से गलत काम करते रहने की आजादी मिली उसका पर्दाफाश किया जाना भी जरूरी है | साधारण व्यक्ति भी बेझिझक ये कह देगा कि बिना राजनेताओं की संगामित्ति के इतना बड़ा अवैध निर्माण और वह भी एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी परियोजना) में होना असम्भव है | नोएडा दिल्ली का ही वृहत्तर हिस्सा  है | जिस इलाके में उक्त अवैध निर्माण गिराया गया उसी में बसपा प्रमुख मायावती की भी आलीशान कोठी है जिसे लेकर भी तरह – तरह की चर्चाएँ सुनने मिलती हैं | लेकिन प्रश्न ये है कि इन दो इमारतों को गिराए जाने के बाद देश भर में हो चुके अवैध निर्माणों को भी क्या इसी अंजाम तक पहुंचाया जायेगा क्योंकि इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ठोस आधार है या फिर कोई ऐसी व्यवस्था की जायेगी जिससे निर्माण में लगा धन मलबे में न बदले | ज़ाहिर तौर पर इस बारे में  संसद और न्यायपालिका ही समुचित प्रावधान बना सकते हैं लेकिन इतना जरूर है कि न्यायपालिका की सर्वोच्च पीठ के फैसले से आम जनता में ये उम्मीद जागी है कि साहस और  धैर्य पूर्वक सामूहिक रूप से लड़ाई लड़ी जावे तो धनबल और राजनेताओं का संरक्षण भी बेअसर साबित हो सकता है  | इसमें दो मत नहीं है कि अपना घर होने का सपना पाले लाखों लोग बिल्डरों की धोखधड़ी का शिकार हैं जिनके पास लड़ने का समय , साहस और संसाधन न होने से वे अपनी पीड़ा को अपने भीतर समेटे रह जाते हैं | यद्यपि रेरा नामक नियामक व्यवस्था के कारण बिल्डरों की कारस्तानियों पर एक हद तक तो लगाम लगी है लेकिन इसकी वजह से देश भर में हजारों प्रोजेक्ट लालफीताशाही के चलते शुरू नहीं हो पा रहे | कुल मिलाकर इस फैसले से पूरे देश में अवैध निर्माणों के विरुद्ध बिना डरे मैदान में उतरने का साहस तो पैदा हुआ ही | सरकारी अमले के मन में भी ये बात बैठ गयी है कि सर्वोच्च न्यायालय के बेहद कड़े फैसले के बाद अब उनकी करतूतों पर पर्दा पडा रहना नामुमकिन हो जाएगा | निचली अदालतों को भी सर्वोच्च न्यायालय ने रास्ता दिखा दिया है जो सुस्त कानूनी प्रक्रिया के कारण ऐसे मामलों  को टालती रहती हैं | इसमें दो राय नहीं कि उक्त इमारतों को गिराये जाने से अरबों रूपये की निर्माण सामग्री मिट्टी में मिल गयी किन्तु इस बारे में केवल भावनात्मक आधार पर सोचने की बजाय जमीनी हकीकत को भी ध्यान रखना होगा | भ्रष्टाचार को पालने पोसने वाले नेता , नौकरशाह और बिल्डरों के गठजोड़ को तोड़ने के लिए कड़े कदम उठना समय की मांग है | प्रधानमंत्री ने स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से इस बारे में जो विचार व्यक्त किये उनको अमल में लाना आसान नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार समूची व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठ जाने के बाद धीरे – धीरे हमारी मानसिकता  पर भी हावी हो गया है | इस स्थिति को बदलने के लिये वैसी ही संगठित और साहसिक सोच की जरूरत है जिसका परिचय उक्त इमारतों में फ़्लैट खरीदने वालों ने ये जानते हुए भी दिया कि उससे उनका बड़ा नुकसान भी हो सकता था | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 August 2022

यही हाल रहा तो कुछ और नेता कांग्रेस छोड़ेंगे



जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ | यद्यपि इसके संकेत तो उसी दिन मिल गये थे जब गुलाम नबी आजाद ने जम्मू कश्मीर में कांग्रेस के चुनाव अभियान समिति का अद्यक्ष बनाये जाने पर इस्तीफ़ा दे दिया था | बताया जा रहा है प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर किसी अन्य की नियुक्ति के बाद उनके सब्र का बांध टूट गया और  ये भी कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव टाल दिए जाने के कारण वे हताश हो उठे | वैसे तो जी  – 23 नामक असंतुष्ट नेताओं  का नेतृत्व कर रहे श्री आजाद का पार्टी से मोहभंग तो उसी समय से होने लगा था जब उनको राज्यसभा की टिकिट नहीं मिली | कपिल सिब्बल , आनंद शर्मा और मनीष तिवारी के अलावा भी अनेक नेता हैं जो संगठन को लेकर पार्टी आलाकमान से अपनी नाराजगी व्यक्त  करते रहे | उनकी मुख्य मांग  संगठन चुनाव  करवाए जाने की रही है | पार्टी का पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं होने से निर्णय प्रक्रिया में विलंब की शिकायत भी  आम है | कांग्रेस  कार्यसमिति का पुनर्गठन भी  असंतुष्टों की मांग रही है | उम्मीद की जा रही थी कि सितम्बर में पार्टी संगठन के चुनाव हो जायेंगे | लेकिन राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष बनने से पूरी तरह मना कर  देने के बाद जब गांधी परिवार के बाहर का कोई दमदार नेता सामने नहीं आया और परिवार के बेहद करीबी  अशोक  गहलोत भी पीछे हट गए तब दो कार्यकारी अध्य्क्ष बनाकर सोनिया गांधी के नेतृत्व को ही जारी रखने पर विचार हुआ | लेकिन न जाने क्यों इस निर्णय को भी टाल दिया गया | पहले से ही नाराज चल रहे श्री आजाद को लगा कि यही अवसर है अलग रास्ता चुनने का और उन्होंने श्रीमती गांधी को पांच पन्ने की  लम्बी चिट्ठी लिखकर कांग्रेस की दुर्दशा के लिए राहुल को जिम्मेदार ठहरा दिया | अपने इस्तीफे में उन्होंने साफ़ कहा है कि उनको उपाध्यक्ष बनाये जाने के बाद से ही कांग्रेस का पराभव प्रारंभ हुआ | इस्तीफे के बाद पत्रकार वार्ता में भी उन्होंने अपने आरोप दोहराए | जवाब में कांग्रेस ने भी  हमलावर रुख अपनाते हुए याद दिलाया कि पार्टी ने उन्हें सब कुछ दिया लेकिन बुरे दिनों में वे उसे छोड़कर चलते बने | पार्टी के प्रवक्ता जयराम रमेश ने तो श्री आजाद के डीएनए के मोदीमय होने का कटाक्ष तक कसा | दरअसल राज्यसभा से विदाई के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस भावुक अंदाज में श्री आजाद की प्रशंसा की थी उसी दिन से कयास लगाये जा रहे थे कि वे भाजपा के करीब जा सकते हैं | यद्यपि उन्होंने  फिलहाल ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है | संभवतः वे अलग पार्टी बनाकर भाजपा से चुनाव के पहले या बाद में गठबंधन करेंगे | उल्लेखनीय है वे स्वयं भी जम्मू क्षेत्र के वाशिंदे हैं | उनके साथ ही कांग्रेस के कुछ पूर्व विधायकों के इस्तीफे से ये संकेत तो मिला ही है कि वे कांग्रेस की जड़ों में मठा  डालने की कोशिशों में जुट गए हैं जो भाजपा के लिए मददगार हो सकता है | एक बात तो तय है कि श्री आजाद के कांग्रेस से निकल आने के बाद जम्मू कश्मीर में कांग्रेस चेहरा विहीन हो गई है | मौजूदा स्थिति में उसके पास जम्मू अंचल में ही संभावनाएं थीं |  श्री आजाद द्वारा उठाये गए कदम के कारण भाजपा इस क्षेत्र में सफलता के  प्रति आश्वस्त हो चली है | लेकिन पार्टी  से 50 साल के रिश्ते खत्म करने वाले इस नेता को लेकर कांग्रेस की तरफ से जो कुछ भी कहा गया वह भी गौरतलब है | हालाँकि ये कहना  सौ फीसदी सही है कि वे अपने गृह राज्य तक में जनाधार वाले नेता नहीं थे | एक बार लोकसभा में आये तो भी महाराष्ट्र से वरना राज्यसभा के माध्यम से ही सत्ता और संगठन में महत्त्व के पदों पर रहे | उस दृष्टि से कांग्रेस उन पर जो आरोप लगा रही है वे पूरी तरह सही हैं | लेकिन उसके साथ ही ये भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि वे कांग्रेस के ऐसा अल्पसंख्यक चेहरा रहे हैं जो  कभी भी गांधी परिवार के विरुद्ध नहीं गया | ऐसे में संगठन के चुनाव करवाए जाने की उनकी मांग पर ध्यान नहीं  दिया जाना  क्या अव्वल दर्जे की लापरवाही नहीं थी ? उनका ये कहना भी गलत नहीं है  कि सोनिया जी तो नाममात्र की  अध्यक्ष हैं और सारे निर्णय राहुल करते हैं | दरअसल कांग्रेस की सारी समस्याएँ श्री गांधी की कार्यशैली के कारण हैं जो जिम्मेदारी  से तो बचते हैं  लेकिन पार्टी पर अपना कब्जा नहीं  छोड़ना चाहते | राजनीति  के लिहाज से श्री आजाद द्वारा इस्तीफे में कही गयी तमाम बातों का कांग्रेस ने जिस  शैली और शब्दों में जवाब दिया भले ही वे  अपनी जगह सही हैं परन्तु पार्टी से 50 साल का रिश्ता तोड़ते समय उन्होंने जो कुछ लिखकर दिया , पार्टी  को उस पर विचार करना चाहिए क्योंकि आम तौर पर अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में भी ऐसे ही भाव हैं  | चूंकि श्री आजाद के पास खोने को कुछ नहीं था और पाने के रास्ते भी बंद हो चुके थे इसलिए वे अपना दर्द बयां करते हुए बाहर आ गये | आगे उनकी राजनीति किस दिशा में बढ़ेगी ये तो वे ही बता पाएंगे लेकिन कांग्रेस के लिए वे अनेक ऐसे सवाल छोड़ गये हैं जिनका जवाब तलाशना उसके भविष्य को संवारने में सहायक होगा | पार्टी से जाने वाले व्यक्ति को गद्दार और एहसान फरामोश कह देना आसान है लेकिन उसके द्वारा जो कारण बताये जाते हैं उनमें निजी स्वार्थ के अलावा भी कुछ तो विचारणीय होते होंगे  | गत दिवस श्री आजाद के त्यागपत्र के बाद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे पृथ्वीराज चव्हाण ने भी अफ़सोस जताते हुए कहा  कि पिछले चार साल से उनको श्री गांधी से मुलाकात का समय नहीं  मिला | वैसे ये शिकायत कांग्रेस में बने हुए तमाम नेताओं की है | जितिन प्रसाद ,  ज्योतिरादित्य सिंधिया , आरपीएन सिंह , कपिल सिब्बल  और अब गुलाम नबी आजाद के जाने के बाद बड़ी बात नहीं आनंद शर्मा सहित कुछ और नेता कांग्रेस छोड़ दें | पार्टी का ये कहना कि इनके जाने से पार्टी शुद्ध हुई , मन को बहलाना मात्र है | यदि गांधी परिवार वाकई चाहता है कि कांग्रेस के अच्छे दिन वापस आयें तो उसे राज परिवार की छवि से बाहर निकलना होगा | फिलहाल तो पार्टी का यह  प्रथम परिवार रोम जलता रहा और नीरो बांसुरी बजाता रहा वाली उक्ति को चरितार्थ कर रहा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 August 2022

भाजपा : ऊपर उठने के फेर में जड़ों से न कट जाए



भाजपा आज देश की सबसे ताकतवर पार्टी मानी जाती है | 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तीस साल बाद केंद्र में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनाने के बाद इस पार्टी ने अपना विस्तार जिस तेजी से किया वह निश्चित रूप से उल्लेखनीय है | जिस उत्तर पूर्व में उसका नामलेवा नहीं होता था वहां के अनेक राज्यों  में सरकारें बनाकर उसने न सिर्फ कांग्रेस अपितु वामपंथियों को भी चौंका दिया | असम की राजनीति में तो वह लम्बे समय से मुख्यधारा में थी लेकिन  मणिपुर और त्रिपुरा में सत्ता हासिल कर लेना बड़ी बात रही | तमिलनाडु में अवश्य अभी भी वह घुटनों के बल चल रही है , लेकिन  केरल में जनाधार जमीनी स्तर पर मजबूत करने के साथ ही आंध्र और तेलंगाना में वह तेजी से जगह बनाती जा रही है | कर्नाटक में तो उसकी सरकार है ही | गोवा , महाराष्ट्र और गुजरात में भी उसके बिना राजनीति की कल्पना करना कठिन है | म.प्र. , राजस्थान और छत्तीसगढ़ की  दो ध्रुवीय राजनीति में  भाजपा एक पक्ष है | हरियाणा में उसके पास सत्ता है लेकिन पंजाब में अकालियों की छाया से बाहर आकर वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने के लिए हाथ  पांव मार रही है | जम्मू कश्मीर की सियासत में तो  वह मुख्य भूमिका में आ ही चुकी है | उ.प्र तो उसका गढ़ बन ही चुका है , रही बात बिहार की तो हाल ही में हुए राजनीतिक घटनाक्रम के बाद यद्यपि वह सत्ता से बाहर हो गई किन्तु इस राज्य में भी उसका दबदबा बढ़ता जा रहा है | पड़ोसी राज्य झारखंड में  भाजपा वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के तौर पर स्थापित है | अरुणाचल जैसे सीमान्त राज्य में सरकार होना उसके अकल्पनीय विस्तार का प्रमाण है | हालाँकि कलात्मक बल्लेबाजी करते हुए बिना रन बनाते  हुए भी  विकेट पर टिके रहने की  टेस्ट मैच के जमाने वाली सोच को अब न दर्शक सराहते हैं और न ही समीक्षक | 1971 में लोकसभा चुनाव के दौरान इन्दिरा जी ने किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की जो शैली स्थापित की उसने भारतीय राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदलकर रख दी | उसी का अनुसरण करते हुए क्षेत्रीय दलों ने भी तात्कालिक और भावनात्मक मुद्दे उछालकर चुनाव जीतने में महारत हासिल की | धीरे – धीरे जाति और क्षेत्रीय पहिचान चुनावी राजनीति के औजार बनते गए | भाजपा चूंकि इन सबसे अलग किस्म की पार्टी थी लिहाजा वह उन फार्मूलों से चुनाव जीतने की न तो इच्छुक थी और न ही पारंगत | इसीलिये उसने हिंदुत्व का मुद्दा पकड़ा जो उसकी पसंद भी था और पहिचान भी | राम  मंदिर आन्दोलन उस दृष्टि से भारतीय राजनीति में एक बड़े मोड़ का कारण बना जिसके जरिये भाजपा ने उ.प्र में अपना दबदबा कायम किया जिसके बिना दिल्ली की सत्ता हासिल करना असंभव होता | आगे की कहानी सभी जानते हैं | लेकिन 2014 में श्री मोदी ने जिस आक्रामक तरीके से हिन्दुत्व , राष्ट्रवाद और विकास का समन्वित रूप मतदाताओं के सामने पेश किया उसके चमत्कारिक परिणाम देखने मिले और भाजपा अपने बल पर सरकार बनाने में कामयाब हो गयी | वैसे सरकार तो स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी तीन बार बनाई लेकिन बहुमत के अभाव में उनकी  सारी शक्ति और समय सहयोगी दलों के दबाव को झेलने में ही गुजर गया | लेकिन श्री मोदी का ये सौभाग्य है कि पर्याप्त बहुमत होने से भीतरी और बाहरी दबाव से वे बचे रहे और इसीलिए उन्होंने भाजपा के प्रभावक्षेत्र को उत्तर भारत से निकालकर एक राष्ट्रीय पार्टी का स्वरूप देने पर भी ध्यान दिया जिसके अनुकूल परिणाम भी सामने आये | लेकिन इसका एक नुकसान ये हुआ कि उसका पूरा जोर सत्ता हासिल करने में लगने लगा | हालाँकि सभी राजनीतिक दलों का उद्देश्य यही  होता है किन्तु अपने को सबसे अलग बताने वाली इस पार्टी में सत्ता की भूख जिस तरह बढ़ती जा रही है उससे उसके अपने समर्थक ही हैरान हैं | इसका सबसे बड़ा कारण पार्टी की नीति – रीति से पूरी तरह अपरिचित लोगों का आकर महत्वपूर्ण पदों पर बैठ जाना है | प. बंगाल में पिछले विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा में जिस तरह से भीड़ आई उसके कारण उसे चुनाव में लाभ तो हुआ लेकिन जब सरकार बनाने में असफलता हाथ लगी तो अनेक नेता जैसे आये वैसे ही वापस लौट गये | भाजपा के अपने कैडर में इस बात को लेकर काफी नाराजगी है कि सत्ता की खातिर नींव के पत्थरों को उपेक्षा की जा रही है | महाराष्ट्र  में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने और देवेन्द्र फड़नवीस को उनके मातहत उपमुख्यमंत्री बनाये जाने जैसे निर्णय से पार्टी के भीतर ही सवाल उठाये जा रहे हैं | भाजपा के बारे में ये अवधारणा मजबूत होती जा रही है कि वह ईडी और सीबीआई का डर फैलाकर विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारें गिराने पर आमादा है | कुछ दिनों से दिल्ली और झारखंड में ऑपरेशन लोटस के अंतर्गत सरकार गिराने का आरोप जिस तरह से भाजपा पर लग रहा है उसमें सच्चाई न हो तब भी उसकी छवि सरकार गिराऊ पार्टी की बनती जा रही है ,  जो अच्छा नहीं है | मान लीजिये दिल्ली  और झारखण्ड में सत्ताधारी खेमे में सेंध लगाकर  वह अपनी सरकार बना ले तो भी उसमें दलबदलुओं की  बहुतायत होगी | एक ज़माने में विपक्षी सरकारों को गिराने के लिए कांग्रेस बदनाम थी | राज्यपाल के जरिये किसी न किसी बहाने राष्ट्रपति शासन लगवा देना आम बात थी | कालान्तर में बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने उस सिलसिले को रोक दिया | लेकिन केंद्र में ताकतवर होने के बाद भाजपा ने राज्यों में भी अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए जिस तरह की रणनीति बनाई उसका उसे लाभ तो हुआ और अनेक ऐसे राज्य उसके आधिपत्य में आते गए जहाँ वह हाशिये से ही बाहर हुआ करती थी | लेकिन उसके साथ ये बदनामी भी जुड़ती जा रही है कि वह पैसे के बल पर विपक्षी विधायकों को खरीदकर सत्ता पर काबिज होने की हवस का शिकार है | हालांकि म.प्र और महाराष्ट्र में क्रमशः कांग्रेस और शिवसेना में जो टूटन हुई उसके लिए वे पार्टियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो अपने घर में चल रही कलह को नहीं  रोक सकीं किन्तु भाजपा के लोगों में  इस बात पर नाराजगी है कि वे वर्षों  से चप्पलें घिसते रह गये और नए – नवेले लोगों को सत्ता का सुख दे दिया गया | दिल्ली और झारखंड के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम में भाजपा पर सत्ता बदलवाने की कोशिश करने का आरोप प्रमाणित न होने पर भी सही लगता है क्योंकि उसकी छवि वैसी बनती जा रही है | राजनीति में सत्ता के जरिये भी किसी राजनीतिक दल की विचारधारा , नीतियों और कार्यक्रमों का प्रचार – प्रसार होता है लेकिन कार्यकर्ता आधारित दल के  सत्ता पर पूरी तरह  आश्रित हो जाने का दुष्परिणाम ही है कि जिस प. बंगाल में अनेक दशकों तक वाममोर्चे की सरकार रही | और जिसे साम्यवादियों का लाल किला कहा जाता था , आज वहां की विधानसभा में एक भी वामपंथी विधायक नहीं है | भाजपा को ये देखना चाहिए कि ऊपर उठने के फेर में वह अपनी जड़ों से न कट जाए |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 25 August 2022

प्रकृति वंदन : पर्यावरण संरक्षण की दिशा में संघ का सराहनीय कदम



रास्वसंघ को उसके विरोधी सांप्रदायिक संगठन मानते हैं | हिन्दू समाज को अनुशासन और एकता के सूत्र में पिरोने के लिए 1925 से कार्यरत संघ का विस्तार जिस तरह हुआ वह समाजशास्त्रियों  के लिए जिज्ञासा का विषय रहा है | अपनी स्थापना के समय से ही प्रचार और  आत्मप्रशंसा से दूर रहने की वजह से इस संगठन के बारे में भ्रांतियां भी बहुत फैलाई गईं | लेकिन उन सबसे अविचलित रहते हुए उसने कार्य जारी रखा और 2025 में शताब्दि वर्ष की ओर बढ़ रहे संघ ने सामाजिक जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है | उसके लगभग तीन दर्जन अनुषांगिक संगठन विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं | संघ चूंकि खुद को सांस्कृतिक संगठन कहता है और भारतीय संस्कृति में उसकी अगाध श्रृद्धा है इसलिए उसके हर प्रकल्प  में भारतीय परम्पराओं का पालन किया जाता है | आज देश का एक भी भाग ऐसा नहीं है , जहाँ संघ की उपस्थिति न हो | वैचारिक तौर पर भी उसकी स्वीकृति और आकर्षण बढ़ा है जिसका सबसे बड़ा कारण उसकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता और लक्ष्य केन्द्रित कार्यशैली है | भारतीयता से सराबोर इस संगठन को पुरातनपंथी या दकियानूसी कहने वाले कथित प्रगतिशील लोगों के लिए ये बात शोचनीय होना चाहिए कि जिस वामपंथी विचारधारा से प्रेरित होकर वे संघ को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास करते रहे वह अपनी जन्मभूमि में ही दम तोड़ बैठी , जबकि तीन – तीन बार प्रतिबंधित किये जाने के बावजूद संघ शक्तिशाली होता गया और उसके प्रभावक्षेत्र में भी वृद्धि हो रही है | अब तो विदेशों में भी उसकी जड़ें जम रही हैं | ये बात पूरी तरह सही है कि समाज के एक बड़े वर्ग को संघ में भारतीय संस्कृति का संरक्षक नजर आता है | आज जब राजनीति पूरी तरह कलुषित हो चुकी है तब संघ  राष्ट्रवाद , निःस्वार्थ सेवा और अनुशासन के  प्रतीक के तौर पर लोगों का विश्वास अर्जित करने में सफल है | पश्चिमी संस्कृति को ही प्रगतिशीलता का परिचायक मानने वाले लोगों के दुष्प्रचार के बावजूद वह  भारतीय जनमानस में ये बात स्थापित करने में सफल हुआ है कि भारत  की सारी समस्याओं का हल भारत में ही है परन्तु उसके लिए हमें अपने सामर्थ्य पर भरोसा करना होगा | यही वजह है कि संघ ने दैनिक शाखाओं के जरिये हिन्दू समाज को संगठित करने के अपने मूल कार्य के अलावा समाज की रचनात्मक शक्तियों को देश के विकास और मजबूती के लिए एकजुट करने का अभियान शुरू किया जिसके  उत्साहजनक परिणाम आने लगे हैं | इसी दिशा में उसने पर्यावरण संरक्षण का अभियान हाथ में लिया | आगामी 28 अगस्त को प्रकृति वंदन नामक कार्यक्रम के अंतर्गत देश भर में 55 लाख पर्यावरण प्रेमी प्रकृति की पूजा , वृक्षारोपण और तालाबों की सफाई जैसे कार्य करेंगे | इसके अंतर्गत देश के 150 से भी अधिक विश्वविद्यालयों के छात्र एक सप्ताह तक पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न कार्यों में योगदान देंगे | जिसे वन वीक फार नेशन का नाम दिया गया है | गत वर्ष भी संघ द्वारा आयोजित प्रकृति वंदन दिवस के साथ 52 लाख लोग जुड़े थे | यह आयोजन निश्चित रूप से धर्म और आध्यात्मिक क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों और संगठनों के लिए प्रेरणादायक है | हमारे देश में राजनीति और धर्म दो ऐसे क्षेत्र हैं जो हर समय सक्रिय रहते हैं और जिनसे करोड़ों लोगों का सीधा जुड़ाव है | यदि इस जनशक्ति का उपयोग प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण हेतु किया जा सके तो  देश में शुद्ध हवा की उपलब्धता बढ़ सकती है , जलस्रोतों को सूखने से बचाया जा सकता है और औसत जन स्वास्थ्य में सुधार के कारण लोगों की जीवनशैली में गुणात्मक सुधार होना भी संभव है | अब चूंकि संघ जैसा समर्पित संगठन प्रकृति वंदन अभियान के साथ पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय हुआ है तब ये मानकर चला जा सकता है कि प्रकृति की रक्षा के लिए लाखों समर्पित व्यक्ति संगठित होकर जो कुछ भी करेंगे उसके सुपरिणाम आने वाले समय में महसूस किये जा सकेंगे | इस बारे में ये भी अपेक्षित है कि जिस तरह राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता की खातिर वैचारिक मतभेदों के बावजूद भी एकजुट हो जाती हैं ठीक वैसे ही संघ की विचारधारा से असहमति रखने वालों को भी चाहिए कि प्रकृति वंदन के इस अनुष्ठान का हिस्सा बनकर प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण में योगदान दें | अनुभव बताते हैं कि संघ ने जो भी कार्य हाथ में लिया उसे सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया है | कन्याकुमारी में समुद्र के बीच विशाल चट्टान पर निर्मित विवेकानंद शिला स्मारक और  अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर जैसे प्रकल्प को साकार बनाने में संघ की भूमिका और योगदान किसी से छिपा नहीं है | शिक्षा , कला , संस्कृति , इतिहास , विज्ञान और अब प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में संघ का आगे आना आश्वस्त करता है | प्राप्त जानकारी के अनुसार संघ राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर पर पर्यावरण के संरक्षण हेतु कार्यरत विभिन्न संगठनों के साथ ही शिक्षण संस्थानों को भी इस अभियान में शामिल करने के लिए प्रयासरत है | उसकी संगठन क्षमता को देखते  हुए इस कार्य की सफलता सुनिश्चित लगती है | संघ के आलोचकों को भी  इस अभियान में सहयोग देना चाहिये क्योंकि इसके साथ देश का भविष्य जुड़ा हुआ है |


- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 24 August 2022

जांच रुकवाने का प्रलोभन देने वाले पर आपराधिक प्रकरण दर्ज करें सिसौदिया



दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने ये कहकर सनसनी मचा दी कि भाजपा ने उनको ऑफर दिया है कि आम आदमी पार्टी तोड़कर भाजपा में आने पर सीबीआई और ईडी के मामले खत्म करवा दिए जायेंगे  | लेकिन वे महाराणा प्रताप के वंशज हैं इसलिए सिर कटवा लेंगे लेकिन झुकायेंगे नहीं | भारतीय राजनीति में इस तरह की बातें आये दिन सुनाई देती हैं | जात – पांत मिटाने का उपदेश देने वाले राजनीतिक जब नेता किसी भी मामले में  घिर जाते हैं तब उनको अपनी जाति याद आने लगती है | उस दृष्टि से सिसौदिया जी को अचानक अपने महान पूर्वज की याद आ जाना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता | उनके यहाँ सीबीआई छापे को राजपूतों की आन  – बान – शान के  साथ गुस्ताखी बताते हुए पार्टी के एक नेता ने गुजरात में 5 हजार राजपूतों के आम आदमी  पार्टी में शामिल होने की घोषणा कर डाली और श्री सिसौदिया भी राजपूत नेता बनकर गुजरात जा पहुंचे  | आने वाले दिनों में वे मेवाड़ के राजवंश से अपनी रिश्तेदारी  भी निकाल लें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए | लेकिन राजनीति में आने से पहले पत्रकारिता करते रहे मनीष ने अब तक इस बात का खुलासा नहीं किया कि वह कौन व्यक्ति  था जिसने सीबीआई और ईडी जांच बंद करवाने की शर्त पर उन्हें भाजपा में शामिल होने का न्यौता दिया था | दिल्ली के उपमुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर होने के नाते उनका ये दायित्व है कि इस तरह का प्रलोभन देने वाले व्यक्ति का नाम उजागर करने के साथ ही उसके विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाएं |  यदि उन्हें कोई पद देने की बात कही जाती तब वह राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा होता लेकिन सीबीआई और ईडी की जांच बंद करवाने का  आश्वासन आपराधिक कृत्य है और ऐसा दुस्साहस करने वाले को दण्डित किया ही जाना चाहिए | साफ़ – सुथरी राजनीति का नारा लेकर मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी अपने आक्रामक तेवरों के लिये जानी जाती है | पंजाब में उसकी  सरकार के एक मंत्री के कारनामे उजागर होते ही उसे जेल भेजने जैसा साहसिक कार्य वहां के मुख्यमंत्री ने खुद होकर किया | लेकिन दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को जेल जाने के बाद भी  पद से न हटाया जाना पार्टी के दोहरे चरित्र को पेश कर रहा है | श्री सिसौदिया जब आबकारी नीति में घोटाले के आरोप में फंस गये तब उनको राणा प्रताप से अपना खून का रिश्ता याद आया | हो सकता है आम आदमी पार्टी राजस्थान के विधानसभा चुनाव में उनको बतौर राजपूत नेता पेश करे | लेकिन राजनीतिक दांव पेंच अपनी जगह हैं परन्तु पार्टी छोड़कर आने पर अपराधिक प्रकरणों की जांच बंद करवाने का प्रस्ताव पूरी तरह गैर कानूनी है | ऐसे में श्री सिसौदिया को अपनी प्रामाणिकता साबित करने के लिए उस शख्स के विरुद्ध आपराधिक  प्रकरण दर्ज करवाने आगे आना चाहिए जिसने उनको कथित प्रलोभन दिया | हालाँकि ऐसे मामलों में फंसने पर ज्यादातर नेता इसी तरह की  शान हांकते हैं | प. बंगाल के एक वजनदार मंत्री की महिला मित्र के यहाँ  50 करोड़ नगदी मिलने के पहले तक मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और  तृणमूल कांग्रेस के अन्य नेता ईडी और सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप लगाते नहीं थकते थे | लेकिन जबसे नोटों का जखीरा जप्त हुआ तबसे सबकी  बोलती बंद है | श्री सिसौदिया के यहाँ पड़े छापे के बाद सीबीआई ने उस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं  किया इसलिए कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी किन्तु उन्हें भाजपा में आने का जो सशर्त ऑफर मिला उसका खुलासा तो होना ही चाहिए | अन्यथा बतौर शिक्षा मंत्री उनकी  जो छवि बनी है वह तार – तार होते देर नहीं लगेगी | सीबीआई के छापे  के बाद  श्री सिसौदिया की  पहली  प्रतिक्रिया बहुत ही संयत और परिपक्व थी  | ये कहना भी गलत न होगा कि शिक्षा  के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के कारण उन्हें जन सहानुभूति भी मिली | लेकिन दलबदल करने के बदले जाँच खत्म करवाने जैसे ऑफर का जिक्र करने के बाद वे व्यर्थ के विवाद में फंस गये हैं | हालांकि  भाजपा के बारे में ये बात काफी प्रचारित की  रही है कि वह अपने विरोधियों को डराने और   विपक्षी राज्य  सरकारें गिराने के लिए सीबीआई और ईडी का दुरूपयोग कर रही है | लेकिन श्री सिसौदिया ने जिस ऑफर की बात कही है वैसा   आरोप ममता बैनर्जी और संजय राउत जैसे नेताओं द्वारा लगाये जाने पर लोग उतनी गंभीरता से नहीं लेते किन्तु दिल्ली के उपमुख्यमंत्री की छवि एक सौम्य नेता की रही है | इसलिए उनके द्वारा कही गयी बात में तथ्य की अपेक्षा की जाती है | आरोप लगाने के बाद  ये पूछे जाने पर कि किसने उन्हें संदर्भित प्रस्ताव दिया , उनकी तरफ से कोई जवाब न मिलने से विश्वसनीयता  पर सवाल उठ खड़े हुए हैं | आम आदमी पार्टी के सर्वोच्च नेता अरविन्द केजरीवाल भी अपने सबसे विश्वसनीय सहयोगी को भारत रत्न दिलवाने की  मांग करते हुए आबकारी घोटाले के कारण उनके दामन पर पड़े छींटों को धोने का प्रयास तो कर  रहे हैं लेकिन उनका भी ये दायित्व है कि जिस भाजपा नेता ने उनके उपमुख्यमंत्री को पार्टी तोड़कर उनके साथ आने का न्यौता दिया उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करें | अन्यथा न सिर्फ श्री सिसौदिया अपितु पूरी पार्टी की प्रामाणिकता पर सवाल उठने लगेंगे | इस बारे में ये उल्लेखनीय है कि दिल्ली में किये गये एक ताजा  सर्वेक्षण में 51 प्रतिशत लोगों ने श्री सिसौदिया को आबकारी घोटाले में दोषी माना है | ये बात भी ध्यान देने योग्य है कि कांग्रेस ने भी खुलकर श्री सिसौदिया पर डाले गये छापे का समर्थन कर  उन्हें तत्काल मंत्रीमंडल से हटाये जाने की  मांग की है  |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

Tuesday 23 August 2022

विपक्षी एकता की राह में कांटे बिछा रही ममता की एकला चलो नीति



एक तरफ आम आदमी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव को मोदी विरुद्ध केजरीवाल बताने पर जुटी है वहीं प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने विपक्षी एकता के प्रयासों को नया मोड़ देते हुए कह दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को खड़ा करने का मॉडल पूरी तरह असफल है | इसके साथ ही भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का महागठबंधन बनाने की कोशिश पर भी तृणमूल कांग्रेस ने सवाल उठाते हुए कहा है कि केवल बिहार , महाराष्ट्र और झारखंड में इसकी जरूरत है | बाकी राज्यों में जो क्षेत्रीय पार्टी है उसे ही भाजपा का सामना करने का अवसर दिया जाए | पार्टी के प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी , तमिलनाडु में द्रमुक , और उ.प्र में सपा बतौर क्षेत्रीय ताकत भाजपा से जूझेंगी | ममता बैनर्जी के हवाले से साफ़ कर दिया गया कि प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सभी 42 सीटों पर मैदान में उतरेगी | यद्यपि ममता राहुल गांधी का मखौल पहले भी उड़ा चुकी हैं लेकिन इस बार तो उन्होंने बिना लाग लपेट के कह दिया कि वे श्री मोदी का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हैं | तृणमूल द्वारा कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दलों के आधिपत्य को स्वीकार किया गया है वहीं बिहार , महाराष्ट्र और झारखंड में विपक्ष के महागठबंधन की गुंजाईश बताकर उसने नीतीश , शरद पवार और हेमंत सोरेन को झटका दे दिया  | सबसे बड़ी बात ये है कि कांग्रेस को पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया गया है जबकि म.प्र , राजस्थान , हिमाचल और छत्तीसगढ़ के अलावा गुजरात में भाजपा का मुकाबला कांग्रेस से ही होता आया है | कर्नाटक और केरल में भी वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है | क्षेत्रीय पार्टियों को उनके प्रभाव वाले राज्य में सर्वेसर्वा बनाने के पीछे ममता की सोच प.बंगाल पर अपना एकछत्र राज कायम रखना है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का महागठबंधन यदि आकार लेता है तब वामपंथी और कांग्रेस प. बंगाल में अपना हिस्सा मांगेंगे  जिसके लिए ममता किसी भी कीमत पर तैयार नहीं हैं | उन्हें लग रहा है कि पिछला विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जिस तरह से भाजपा में तोड़फोड़ की है उसके बाद वह आगामी लोकसभा चुनाव में 2014 और 2019 वाला प्रदर्शन शायद ही दोहरा सकेगी और तृणमूल 35 सीटें भी जीत गई तो उनकी वजनदारी बढ़ जायेगी  | हालांकि  इस मामले में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन भी काफी मजबूत हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में न तो उनकी रूचि है और न ही  स्वीकार्यता | जहां तक बात उ.प्र की है तो ये जगजाहिर है कि वहां भाजपा को रोकना आसान नहीं होगा | इसी तरह बिहार में भले ही नीतीश ने लालू यादव की पार्टी से गठबंधन कर लिया हो लेकिन दोनों के बीच बंटवारे के कारण नीतीश का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होना नामुमकिन है | शरद पवार के साथ भी यही समस्या है क्योंकि उन्हें अबकी बार कांग्रेस  के अलावा शिवसेना के साथ भी सीटों की साझेदारी करनी होगी | लेकिन ममता और तृणमूल इस बात को भूल रही हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव के पहले  गुजरात , हिमाचल , कर्नाटक , म.प्र , छत्तीसगढ़ ,राजस्थान और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होंगे और उनके नतीजे भी राष्ट्रीय राजनीति को अपने तरीके से प्रभावित करेंगे | ऐसे में उन्होंने अभी से महागठबंधन पर सवाल उठाकर कांग्रेस को हाशिये पर धकेलने का जो दांव चला है वह उनके स्वभाव को देखते हुए  स्वाभाविक है | लेकिन अचानक बदले उनके सुरों से राजनीति पर नजर रखने वाले थोडा भौंचक जरूर हैं क्योंकि विधानसभा चुनाव जीतने के बाद सुश्री बैनर्जी ने शरद पवार और सोनिया गांधी से मिलकर मोदी विरोधी महागठबंधन बनाने की भूमिका तैयार की थी | हालाँकि उसी दौरान उन्होंने खुद को श्री  मोदी के मुकाबले खड़ा किये जाने की जो बात की  उससे कांग्रेस चौकन्नी हो गई थी | और फिर गोवा विधानसभा चुनाव में तृणमूल ने अपने उम्मीदवार उतारकर जब  विपक्ष का खेल खराब किया उसके बाद से  श्री पवार और कांग्रेस दोनों सशंकित हो उठे  | हालाँकि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने भी सुश्री बैनर्जी ने विपक्ष  को एकजुट  करने का प्रयास किया लेकिन शरद पवार , गोपालकृष्ण गांधी  और फारुख अब्दुल्ला  किसी ने भी उम्मीदवार बनने पर स्वीकृति नहीं दी | उसके बाद मजबूरी में उन्होंने यशवंत सिन्हा को उतारा लेकिन भाजपा ने द्रौपदी मुर्मु को सामने लाकर विपक्ष की एकता को छिन्न - भिन्न कर दिया | | उसके बाद उपराष्ट्रपति चुनाव आया लेकिन कोलकाता में ईडी द्वारा ममता सरकार के वरिष्ट मंत्री पार्थ चटर्जी के काले धन को उजागर किये जाने के बाद उनके तेवर ढीले पड़ गए और राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की एकता का प्रयास करने वाली तृणमूल कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति चुनाव से दूर रहने का ऐलान करते हुए भाजपा उम्मीदवार जगदीप धनखड़ की जीत को आसान बना दिया जबकि प. बंगाल के राज्यपाल के रूप में उनके साथ ममता के रिश्ते बहुत ही तनावपूर्ण रहे | ये पैंतरा निश्चित तौर पर चौंकाने वाला था | राजनीति के जानकार ये मान रहे हैं कि श्री चटर्जी की करीबी महिला के निवास से बड़ी मात्रा में काला धन जप्त होने के बाद से ममता दबाव में आ गईं | उनके भतीजे अभिषेक और उनकी पत्नी भी सीबीआई जाँच के शिकंजे में होने के अलावा  अनेक तृणमूल विधायक गम्भीर अपराधों के आरोपी हैं | राज्य से जुड़ी वित्तीय मांगों को लेकर प्रधानमंत्री से दिल्ली में उनकी मुलाकात के बाद ये कयास जोर पकड़ने लगे कि वे केंद्र से टकराने के खतरों को भांप चुकी हैं और अब अपना  ध्यान केवल प. बंगाल में लगाएंगी | उस दृष्टि से प. बंगाल में सभी लोकसभा सीटों पर लड़ने का उनका ऐलान विपक्षी एकता की राह में कांटे बिछाने जैसा ही है | इसी के साथ कांग्रेस का मनोबल तोड़ने के साथ विपक्ष के गठबंधन को तथाकथित कहकर तृणमूल  परोक्ष रूप से भाजपा की राह आसान बनाने का काम ही कर रही  है | दरअसल उन्हें लगने लगा है कि विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास उनके गले पड़ जाएगा | इसीलिए उन्होंने एकला  चलो की नीति पर चलने का मन बना लिया है | क्षेत्रीय दलों को उनके वर्चस्व वाले राज्यों का चौधरी बना देने का उनका सुझाव विपक्ष की संभावित एकता में पलीता लगाने की कोशिश प्रतीत होती है | तृणमूल के अचानक बदले रुख से लगता है कि ममता दूरगामी राजनीति के मद्देनजर अपने पांसे चल रही हैं जिसका उद्देश्य खुद को मजबूत रखते हुए बाकी विपक्ष को आपस में लड़ने के के लिए छोड़ देना है | इसे भविष्य में भाजपा से नजदीकी बढ़ाने के तौर पर भी देखा जा सकता है | आखिरकार अतीत में भी तो वे एनडीए में रहते हुए वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 22 August 2022

अध्यक्ष को लेकर बनी अनिश्चितता कांग्रेस के लिए नुकसानदेह



देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के लिए पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है | 2019 में मिली करारी हार की  जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद त्याग दिया था | कई महीनों की मान – मनौव्वल के बाद भी वे राजी नहीं हुए और किसी अन्य पर रजामंदी नहीं बनी तब कार्यकारी अध्यक्ष के तौर पर एक बार फिर सोनिया गांधी को ही कमान सौंप दी गई | बीते तीन साल से कांग्रेस में अध्यक्ष के चुनाव को लेकर चर्चा चल रही है | सोनिया जी अस्वस्थतावश इस दायित्व को ठीक से सँभालने में असमर्थ हैं | ऐसे में बात लौट फिरकर राहुल और उनकी बहन प्रियंका वाड्रा पर आ जाती है | लेकिन राहुल की  अस्थिर सोच और उ.प्र चुनाव में प्रियंका की विफलता के कारण अनिश्चितता बनी रही जिसका असर पार्टी की सेहत पर पड़ने से दो दर्जन नेताओं द्वारा जी – 23 नामक समूह बनाकर आंतरिक लोकतंत्र की बहाली हेतु आवाज उठाई गई | उनमें से कपिल सिब्बल तो सपा की  टिकिट पर राज्यसभा में आ भी गये | बाकी के भले ही पार्टी में बने हुए हैं लेकिन उनकी नाराजगी का आलम ये हैं कि गुलाम नबी आजाद ने जम्मू कश्मीर और  आनन्द शर्मा ने हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव अभियान का प्रभारी बनाये जाने पर त्यागपत्र दे दिया | चौतरफा दबाव के बाद अब कांग्रेस में नया अध्यक्ष चुनने के लिये कवायद शुरू हुई है | बीते तीन सालों से ये माना जाता रहा है कि राहुल ही  फिर से पार्टी की बागडोर संभालेंगे क्योंकि ज्यादातर कांग्रेसजन मानते हैं कि गांधी परिवार के बिना पार्टी को एकजुट रखना असंभव होगा | लेकिन आम जनता के बीच पार्टी का चेहरा बने रहने के बाद भी राहुल अध्यक्ष बनने से बचते रहे | जहां तक बात प्रियंका की है तो उ.प्र में कांग्रेस का सफाया  होने के बाद उनकी क्षमता पर भी सवालिया निशान लगे हैं | वैसे भी 2019 में अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद राहुल ने ऐलानिया तौर पर कहा था कि अगला अध्यक्ष गैर गांधी होगा | गत दिवस उन्होंने अध्यक्ष बनने से फिर इंकार कर दिया जिसके बाद गैर गांधी अद्यक्ष  को लेकर नए सिरे से कयास लग रहे हैं | लेकिन ये भी सुनने में आ रहा है कि यदि किसी नाम पर सहमति न बनी तब श्रीमती गांधी को ही कार्यकारी अध्यक्ष बनाये रखकर   लोकसभा चुनाव तक काम चलाया जावेगा | ये देखकर इस बात का आश्चर्य होता है कि आजादी के बाद अधिकांश समय देश पर राज करने वाली पार्टी के पास राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने हेतु सक्षम नेता का अभाव हो गया है | हालाँकि ऐसा नहीं है कि जो नाम सामने आये हैं वे जनता के बीच अपरिचित हों या उनका  कोई जनाधार न हो | राज्यसभा के जरिये राजनीति में बने रहे चंद दरबारियों को छोड़ दें तो भी अनेक ऐसे नेता कांग्रेस में हैं जो अपने राज्य में प्रभावशाली होने की वजह से राष्ट्रीय मंच पर भी अपनी भूमिका निभा सकते हैं | लेकिन दूसरी तरफ ये भी उतना ही सही है कि कांग्रेस में एक अवधारणा सुनियोजित तरीके से स्थापित कर दी गयी है कि गांधी परिवार रूपी संजीवनी के बिना पार्टी का जीवित रहना संभव नहीं  है | यही वजह है कि उसके अति विश्वस्त माने जाने वाले नेताओं को भी पार्टी की कमान सौंपने की सम्भावना आख़िरी क्षण में खत्म कर दी जाती है | ताजा खबर है कि राहुल के इनका करने से उत्पन्न  स्थिति में श्रीमती गांधी की  वर्तमान हैसियत बरकरार रखते हुए उनके साथ कुछ सहायक और जोड़ दिए जाएँ जिससे उन पर ज्यादा बोझ न आये | ऐसे में पार्टी पर परिवार का नियन्त्रण भी बना रहेगा और राहुल त्याग की प्रतिमूर्ति बने रहेंगे | लेकिन गांधी परिवार को ये समझ लेना चाहिये कि कांग्रेस यदि नए नेतृत्व को सामने नहीं लाती तब 2024 आते - आते तक पार्टी के पास जो बची – खुची पूंजी है वह भी खिसक जाये तो अचम्भा नहीं होगा | गुलाम नबी  आजाद और आनंद शर्मा के हालिया निर्णय  खुले संकेत हैं | राहुल को भी ये बात समझ लेनी चाहिए कि कांग्रेस अपनी दम पर आगामी चुनाव में नरेंद्र मोदी का सामना करने में सक्षम नहीं है | और अब तो विपक्ष के बाकी दल भी उसका नेतृत्व स्वीकार करने में हिचक रहे हैं | नीतीश कुमार द्वारा  भाजपा का साथ छोड़ देने के बाद  देश के मौजूदा राजनीतिक हालात पर एक एजेंसी के ताजा सर्वेक्षण में जो निष्कर्ष आये हैं उसमें  हालाँकि लोगों ने कांग्रेस को पूरी तरह नहीं नकारा किन्तु राहुल के बारे में निराशा खुलकर सामने आई है | विपक्ष के जो चेहरे लोगों की पसंद बने उनमें दिल्ली  के मुख्यमंत्री अरविन्द  केजरीवाल हालाँकि नरेंद्र मोदी से काफी पीछे हैं लेकिन राहुल गांधी से बहुत आगे | और यही बात कांग्रेस की चिंता का विषय होना चाहिए | वैसे भी आम आदमी पार्टी इस बात को लोगों के मन – मस्तिष्क में बिठाने में कामयाब हो रही है कि भाजपा का विकल्प बनने की  ताकत कांग्रेस में नहीं बची और श्री केजरीवाल ही आगामी लोकसभा चुनाव में श्री मोदी के मुकाबला करने का दम रखते हैं | हालाँकि 2024 आने में अभी देर है और तब तक देश की राजनीति में न जाने कौन से परिवर्तन हो जाएँ लेकिन इतना तो सच है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस अपने सबसे खराब दौर में आ पहुँची और उनके अध्यक्ष पद छोड़ देने के बावजूद जिस तरह से पार्टी अभी तक उनके परिवार की गिरफ्त में ही  है उसके कारण आम जनता के मन में उसके प्रति आकर्षण खत्म होने लगा है | पंजाब और राजस्थान की  अंतर्कलह रोकने में गांधी परिवार जिस तरह विफल साबित हुआ उससे भी पार्टी का भविष्य खतरे में है | गुजरात में आम आदमी पार्टी जिस तेजी से उभर रही है उसे देखते हुए कहा जाने लगा है कि वहां कांग्रेस की बजाय वह भाजपा से मुकाबला करने जा रही है | ऐसे में कांग्रेस को चाहिए कि वह राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर अनिश्चितता समाप्त करते हुए तदर्थवाद से बाहर निकले | यदि उसे गांधी परिवार के अधीन ही रहना है तो फिर राहुल को साहस के साथ जिम्मेदारी सम्भालना चाहिए | आधे – अधूरे मन से राजनीति करने का ज़माना  खत्म हो चुका  है | हालाँकि श्री गांधी अगले महीने से देश की पदयात्रा पर निकल रहे हैं | लेकिन यदि वे पार्टी के अध्यक्ष नहीं बने तब उनकी यात्रा को अपेक्षित प्रतिसाद नहीं मिल सकेगा क्योंकि बाकी विपक्षी पार्टियों को भी उनमें संभावना नजर आनी बंद हो चुकी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 20 August 2022

नए मतदाता : अब्दुल्ला और महबूबा को बपौती खत्म होने का भय



जम्मू कश्मीर की राजनीति में नया उबाल आ गया है | निर्वाचन आयोग ने निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए लगभग 25 लाख नए मतदाता जोड़े जाने की बात कही है | इसमें 18 वर्ष की आयु पूरी करने वाले युवाओं के अलावा राज्य में निवास करने वाले गैर कश्मीरी कर्मचारी , छात्र , मजदूर या सामान्य रूप से रहने वाला कोई भी अन्य व्यक्ति मतदाता बन सकेगा जबकि धारा 370 के रहते तक  राज्य का स्थायी निवासी ही मतदाता बन सकता था | इस धारा को  विलोपित करने के साथ ही  लद्दाख को अलग केन्द्र शासित क्षेत्र  बनाये जाने के बाद विधानसभा सीटों का परिसीमन नए सिरे से किये जाने का  फारुख , उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित घाटी के अन्य अलगाववादी नेताओं द्वारा इस आधार पर विरोध किया गया कि जम्मू क्षेत्र में सीटें बढ़ जाने से घाटी का वर्चस्व कम हो जाएगा  |  और अब 25 लाख नए मतदाता जोड़े जाने के  फैसले से  घाटी के राजनीतिक दलों के पेट में खलबली मच गयी है क्योंकि राज्य के मूल निवासी न होने के कारण वे अलगाववाद के विरोध में राष्ट्रीय एकता और अखंडता के पक्ष में मतदान कर सकते हैं | जम्मू के हिन्दू बहुल क्षेत्र में तो राष्ट्रवादी धारा  सदैव बहती रही लेकिन घाटी में शुरू से ही 90 फीसदी से ज्यादा आबादी मुस्लिम होने से उसे देश की मुख्यधारा से काटे रखने में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार कामयाब होते रहे | हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन भी जम्मू में पांव नहीं जमा सके जबकि घाटी में भारत विरोधी माहौल बनाने में उन्हें कामयाबी मिली  | 2019 में धारा 370 विलोपित कर  जम्मू कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति खत्म कर दी गई | जिसके परिणामस्वरूप  इस राज्य में जाकर बसने पर लगी बंदिश भी नहीं रही  | उस फैसले के बाद से विधानसभा भंग चल रही है | नए परिसीमन के बाद चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग ने मतदाता सूचियों को अंतिम रूप देने के तहत नए मतदता जोड़ने का फैसला लिया  | इसका विरोध कर रहे  घाटी के नेताओं का  कहना है कि 25 लाख नए मतदाता शामिल करने का उद्देश्य राजनीतिक संतुलन भाजपा के पक्ष में झुकाना है | विशेष  रूप से घाटी के भीतर  अन्य राज्यों के मतदाताओं को मत देने का अवसर मिलने पर  नेशनल   कांफ्रेंस और पीडीपी के अलावा बाकी छोटी – छोटी पार्टियों की चौधराहट के लिए खतरा पैदा हो जाएगा | अब तक जितने भी चुनाव हुए उनमें घाटी सदैव राष्ट्रीय धारा के विरुद्ध जाती रही है | पहले कांग्रेस और फिर  भाजपा ने घाटी में पैर ज़माने के काफी प्रयास किये लेकिन वहां के लोगों के मन में जो जहर अलगाववादी नेताओं द्वारा भरा जाता रहा उसके कारण वे राष्ट्रीय पार्टियों को  तिरस्कृत करते रहे | परिसीमन के कारण नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी पहले ही परेशान थे और ऊपर से राज्य में रह रहे गैर कश्मीरियों को मताधिकार दिए जाने की खबर आ गई | वैसे अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का डर अपनी जगह ठीक है क्योंकि जम्मू कश्मीर में अस्थायी तौर पर रह रहे 25 लाख  मतदाताओं के नाम जोड़े जाने से राज्य का चुनावी गणित पूरी तरह बदल सकता है | घाटी के अलगाववादी नेताओं को ये बात समझ में आने लगी है कि  नए मतदाता उनके चंगुल में फंसने से रहे और उनका मत निश्चित रूप से राष्ट्रवादी शक्तियों को मजबूत बनाने के लिए जायेगा जिससे नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी का वर्चस्व खत्म होना तय है | सवाल ये है कि जब  कश्मीर घाटी के नेताओं को केंद्र सरकार में मंत्री के रूप में पूरे देश पर राज करने वाली व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाता रहा तब वे किस मुंह से घाटी को देश से अलग मानते हैं ? महबूबा मुफ्ती के पिता स्व. मुफ्ती मो. सईद तो 1989 में वी.पी सिंह सरकार में गृहमंत्री तक बनाये गये थे | फारुख और उनके बेटे उमर भी केंद्र में मंत्री रह चुके हैं | फारुख का नाम हाल ही में  ममता बैनर्जी ने  राष्ट्रपति हेतु भी  आगे बढ़ाया था | कश्मीर घाटी के अनेक लोग देश के अन्य हिस्सों में काम करते हैं | हजारों छात्र भी दूसरे राज्यों में अध्ययनरत हैं | उच्च शिक्षा के  संस्थानों में जम्मू कश्मीर के लिए विशेष कोटा रहा है | ऐसे में घाटी  के नेता किस हक  से गैर कश्मीरी अस्थायी रहवासियों को मताधिकार देने का विरोध कर रहे हैं ? रही बात उनके प्रभावक्षेत्र के घटने की तो धारा 370  हटने के बाद कश्मीर घाटी भी देश के अन्य हिस्सों की तरह हो चुकी है , जहाँ कोई भी जाकर रह सकता है | ये बात  जरूर है कि आतंकवाद के कारण इस दिशा  में अपेक्षानुसार प्रगति नहीं हुई | ये बात भी काबिले गौर है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी भी उम्मीद के  मुताबिक नहीं हो पा रही क्योंकि पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी घाटी में रह रहे पंडितों की हत्या कर डर का माहौल बनाये हुए हैं | ये बात सौ फीसदी सही है कि कश्मीर घाटी के मुस्लिम स्वरूप को एकाएक बदले बिना वहां अलगाववाद को समाप्त करना संभव नहीं है | हिन्दुओं और सिखों की जो आबादी फ़िलहाल वहां रह रही है वह भी जब पूर्णरूपेण सुरक्षित नहीं है तब नए लोगों का वहां आकर बसना मौजूदा हालात में तो मुमकिन नजर नहीं आता | लेकिन घाटी का राजनीतिक संतुलन नए मतदाताओं को शामिल कर बदलते हुए अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का वर्चस्व कम किया जा सके तो वहां  मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति का श्री गणेश हो सकता है | इसलिए चुनाव आयोग को बिना विरोध की परवाह किये जम्मू कश्मीर में अस्थायी रूप से रह रहे लोगों को मतदान का अधिकार प्रदान कर देना चाहिए | उस दृष्टि से आगामी विधानसभा चुनाव इस समस्याग्रस्त राज्य के साथ ही देश के  लिए भी बेहद महत्वपूर्ण होगा | धारा 370 हटाकर जम्मू कश्मीर को देश के अन्य राज्यों जैसा बना देने के बाद अब वहां ऐसी सरकार की  जरूरत ही जो पूरी तरह से अलगाववादी सोच से मुक्त हो | इस साल  रिकॉर्ड संख्या में सैलानी घाटी में आये थे जिससे वहां आर्थिक गतिविधियाँ तेज हुई हैं | अब जरूरत ऐसी राज्य सरकार की है जो भारत की एकता और अखंडता के लिए प्रतिबद्ध हो | नए मतदाता इस उद्देश्य को पूरा करने में सहायक होंगे ये उम्मीद की जा सकती है और इसी वजह से अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के पेट में मरोड़ होने लगा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 18 August 2022

बिहार में आई बहार , कानून मंत्री फरार



राजनीति के अपराधीकरण को लेकर उपदेशात्मक बातें तो सभी  करते हैं लेकिन जब उनका पालन करने का समय आता है तब व्यवहारिकता बीच में आ जाती है | ये बात बिलकुल सही है कि महज आरोप लगने से किसी को अपराधी मान लेना उचित नहीं है | अदालत द्वारा दण्डित  किये जाने पर ही व्यक्ति दोषी कहा जाता है किन्तु जब बात नैतिकता और शुचिता की हो तब मापदंड बदल जाते हैं | गांधी , लोहिया और दीनदयाल नामक जो तीन राजनीतिक धाराएँ इस देश की राजनीति में  दिशा निर्देशक रहीं हैं उनमें नैतिकता के महत्व और जरूरत को स्वीकार किया जाता है | यहाँ मार्क्स और माओ के अनुयायियों की बात इसलिए नहीं की जा रही क्योंकि उनके लिए  भारतीय आदर्श बेमानी हैं और वे सत्ता के लिए खून बहाने की मानसिकता से प्रेरित हैं | आजादी के 75 साल पूरे होने पर समूचे देश ने स्वाधीनता संग्राम के महानायकों के योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके द्वारा स्थापित आदर्शों का अनुसरण करने का संकल्प भी लिया | आजादी के बाद की प्रारंभिक राजनीति में नीति , नीयत और नैतिकता के समावेश पर भी खूब विमर्श सुनने –  देखने मिला परन्तु बिहार में नई – नई बनी महा गठबंधन सरकार में कानून मंत्री बनाये गए कार्तिकेय सिंह की  आपराधिक पृष्ठभूमि सामने आने के बाद ये कहना पूरी तरह सही होगा कि सत्ता और नैतिकता का कोई रिश्ता नहीं रह गया है | इस बारे में ज्ञात हुआ है कि बरसों  पुराने अपहरण के मामले में उनका नाम है | गत 12 अगस्त को अदालत ने अग्रिम जमानत की  अर्जी पर विचार करते हुए आगामी 1 सितम्बर तक उनकी गिरफ्तारी पर रोक भी लगा दी थी | लेकिन 16 अगस्त को मामले की सुनवाई पर जब वे हाजिर नहीं हुए तब उनके विरुद्ध वारंट जारी किया गया | विपक्ष का आरोप है कि जिस समय कार्तिकेय को अदालत में उपस्थित रहना उसी समय वे मंत्री पद की  शपथ ले रहे थे और जिसके बाद उनको कानून मंत्रालय दे दिया गया | यद्यपि बिहार जैसे राज्य की राजनीति में नैतिकता ख़ास मायने नहीं रखती क्योंकि लालू प्रसाद  यादव ने अपने शासनकाल में अपराधियों को जिस तरह से संरक्षण और प्रोत्साहन दिया उसके कारण ये  तत्व राजनीति पर कब्जा करने में सफल हो गए | बावजूद इसके नीतीश कुमार उन नेताओं में थे जिन्होंने लालू का  विरोध करने का साहस दिखाया और सफल भी हुए | उनको सुशासन बाबू का ख़िताब भी इसी वजह से हासिल भी हुआ | लेकिन हालिया राजनीतिक परिवर्तन के बाद उन्होंने जिस तरह से लालू के परिवार के समक्ष घुटने टेके उससे लगने लगा है कि वे अपनी साफ़ – सुथरी छवि को भी मुख्यमंत्री की गद्दी पर बने रहने के  लिए दांव पर लगाने तैयार हो गये हैं | कार्तिकेय पर भाजपा नेताओं द्वारा लगाए गये आरोपों से लालू जिस तरह बौखलाए वह तो फिर भी समझ  में आने वाली बात है क्योंकि उनकी राजनीति ऐसे लोगों के बलबूते पर ही चलती रही है | लेकिन बिहार के मुख्यंमत्री पद पर बरसों से काबिज नीतीश का ये कहना गले नहीं उतरता कि उनको कार्तिकेय प्रकरण की जानकारी नहीं थी | एक बार मान भी लें कि वे उनके विरुद्ध अदालत द्वारा जारी वारंट से अनभिज्ञ थे तब भी विपक्ष द्वारा मुद्दा उठाये जाते ही पुलिस और प्रशासन से कहकर उनकी पूरी कर्मपत्री हासिल कर सकते थे | लेकिन उन्होंने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक न तो कार्तिकेय को पाक साफ़ ठहराया और न ही उन्हें मंत्री पद से हटाया |  इस बारे में मंत्री जी के अधिवक्ता का कहना है कि उन पर कई साल  पहले  अपहरण का प्रकरण दर्ज हुआ था | लेकिन पुलिस ने प्रारंभिक जाँच के बाद ही उन्हें निर्दोष मानकर तत्संबंधी जानकारी अदालत में भी पेश कर दी थी | लेकिन उसके बाद भी वारंट के जारी होने से सवाल उठना स्वाभाविक है | रही बात मुख्यमंत्री की अनभिज्ञता की तो अब जबकि वे जान चुके हैं तब तो  उन्हें कार्तिकेय को मंत्री बनाये रखने पर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि जिस सरकार का कानून मंत्री ही अपहरण जैसे मामले में फंसा हो तो उसकी छवि को लेकर कैसी अवधारणा जनमानस में बनेगी ये बताने की जरूरत नहीं है | वैसे वास्तविकता तो ये है कि नीतीश ने अपने हाथ से अपने पर काट लिए हैं | उनके मंत्रीमंडल में लालू की  पार्टी के मंत्रियों की भरमार है | तेजस्वी और तेजप्रताप दोनों को मंत्री बनाने से साबित हो गया कि मुख्यमंत्री ने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया है | हालाँकि केवल नीतीश को ही इसके लिए कसूरवार ठहराना एकपक्षीय सोच होगी क्योंकि अपराधी से परहेज करने की सोच राजनीति में पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है | क्षेत्रीय पार्टियों पर तो  अपराधी तत्वों का दबदबा किसी से छिपा नहीं रहा लेकिन अब भाजपा और कांग्रेस भी इससे मुक्त नहीं रहीं | इसीलिये इस सम्बन्ध में की जाने वाली आलोचना वजनदारी नहीं रखती | हालाँकि लालू  की पार्टी के एक नेता ने कार्तिकेय के बारे में विचार किये जाने की बात कही है , वहीं इस सरकार को समर्थन कर रही भाकपा माले ने  नीतीश और तेजस्वी से इस  बारे में पुनर्विचार न होने पर  समर्थन वापिस लेने की धमकी भी दे डाली | कार्तिकेय अपहरण के मामले में अदालत द्वारा दोषी पाए जाते हैं या बरी किये जावेंगे ये कहना कठिन है लेकिन इस विवाद की वजह से नीतीश कुमार और उनकी नई नवेली सरकार के लिए सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली कहावत चरितार्थ हो गई | रही बात भाजपा अथवा अन्य  किसी के द्वारा की जा रही आलोचना की तो घूम – फिरकर बात वहीं  आ जाती है कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी कोई पाप न किया हो | लगता है हमाम में सभी के निर्वस्त्र होने वाली उक्ति आज की भारतीय राजनीति के लिए ही बनी थी |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 17 August 2022

भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग की शुरुआत अपने दल से ही करें प्रधानमंत्री



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनसंवाद की कला में बेहद पारंगत हैं | किसी भी सार्वजनिक आयोजन में उनका उद्बोधन देश के विकास और भविष्य पर केन्द्रित रहता है | दो दिन पूर्व नौवीं बार लालकिले की प्राचीर से लगभग 86 मिनिट तक उन्होंने देश और दुनिया की बातें कीं | मौका चूंकि स्वाधीनता के अमृत महोत्सव का था लिहाजा भाषण का पहला हिस्सा स्वाधीनता सेनानियों और अन्य महापुरुषों के प्रति सम्मान व्यक्त करने पर केन्द्रित रहा और तदुपरांत वे मौजूदा समस्याओं और  25 वर्ष बाद के भारत के संभावित चित्र में अपनी कल्पनाओं के रंग भरने में जुट गये | इस दौरान प्रधानमंत्री ने पांच प्रण करने का आह्वान किया | ये हैं भारत को विकसित राष्ट्र बनाना , मानसिक गुलामी से मुक्ति , अपनी विरासत पर गर्व , एकता और एकजुटता तथा नागरिक कर्तव्यों का बोध | निश्चित रूप से इन पंचभूत संकल्पों से कोई असहमत नहीं हो सकता क्योंकि इनके जरिये भारत न केवल विकसित अपितु सुसंस्कृत , संगठित  और अनुशासित देश बन सकेगा |  प्रधानमंत्री ने 2047 में आजादी की शताब्दि तक के 25 वर्ष को अमृतकाल बताते हुए युवाओं से कहा कि ये उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होगा क्योंकि भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने में उन्हें अपना महत्वपूर्ण योगदान देने का अवसर मिलेगा | बीते कुछ समय से वे चूंकि रेवड़ी राजनीति के दुष्प्रभावों पर बोलते आ रहे थे इसलिए बीते वर्षों के विपरीत उनकी तरफ से किसी भी प्रकार की नई सौगात अथवा  कार्यक्रम की घोषणा नहीं की गयी | लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे जरूर रहे जिन पर उन्होंने सांकेतिक शैली में अपनी बात कही जिनमें सबसे प्रमुख थे भ्रष्टाचार और परिवारवाद | जहाँ तक बात परिवारवाद की है तो वह राजनीतिक दलों द्वारा विकसित संस्कृति के रूप में स्थापित बुराई है | लेकिन भ्रष्टाचार तो  समूची व्यवस्था से लिपटी विषबेल  है जिसे जितना काटो  उतना फैलती जा रही है | इसकी शुरुवात कब , कैसे और किसके द्वारा की गई ये शोध का विषय है किन्तु  ये वास्तविकता है  कि बीते 75 साल में  हम आजादी के समय तय किये गए लक्ष्यों के अनुरूप विकसित देशों की बराबरी नहीं कर सके तो उसकी सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार ही है | श्री मोदी ने आयकर विभाग और ईडी के छापों में बड़ी मात्रा में बरामद हो रहे काले धन पर कटाक्ष करते हुए कहा कि देश के करोड़ों लोगों के पास रहने की जगह नहीं है वहीं  कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास काला धन रखने के लिए  जगह कम पड़ रही है | उनका इशारा संभवतः कोलकाता में ममता सरकार के वरिष्ट मंत्री पार्थ चटर्जी के ठिकानों से बरामद 50 करोड़ की तरफ रहा होगा | दरअसल  देश में आये दिन किसी न किसी के पास छापों में करोड़ों की नगदी और काली कमाई से अर्जित संपत्ति का खुलासा होता है | पार्थ चटर्जी तो  मंत्री रहे लेकिन अदना से सरकारी लिपिकों , पुलिस कर्मियों और ग्राम पंचायत के सचिव जैसों के यहाँ जब बेहिसाब नोटों के  बण्डल जप्त होते हैं तब भ्रष्टाचार को प्रमाणित करने के लिए किसी जांच आयोग की जरूरत महसूस नहीं होती | उस दृष्टि से उसके विरुद्ध निर्णायक लड़ाई का आह्वान उद्बोधन की मुख्य बात मानी जानी चाहिये क्योंकि इस पर काबू किये बिना देश  एक कदम आगे , दो कदम पीछे की स्थिति में बना रहेगा  | लेकिन भ्रष्टाचार से लड़ने में सफलता के लिए प्रधानमंत्री को शुरुआत  अपने घर अर्थात भाजपा से करनी होगी और दूसरी बात अगला चुनाव जीतने के दबाव से मुक्त होकर कदम उठाने होंगे | आज केंद्र के साथ ही देश के बड़े हिस्से में भाजपा का राज है | श्री मोदी तो भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त हैं लेकिन क्या राज्यों में कार्यरत भाजपा सरकारों को ये प्रमाणपत्र दिया जा सकता है ? म.प्र और हाल ही में बनी महाराष्ट्र की सरकार में दूसरी पार्टी से आये विधायकों में से अनेक दागदार होने के बावजूद मंत्री बना दिए गए या फिर  उनकी घेराबंदी में ढील दे दी गई | टीवी पर होने वाली बहसों में भाजपा के प्रवक्ता इस सवाल का जवाब देने से बचते नजर आते हैं कि आयकर और ईडी वालों को भाजपा नेताओं या उसके साथ जुड़े कारोबारियों में कोई भी भ्रष्ट क्यों नहीं लगता ? केंद्र सरकार के प्रयासों से देश भर में वैश्विक स्तर के राजमार्गों का जो निर्माण हो रहा है उसके प्रति हर किसी के मन में प्रशंसा का भाव है लेकिन भाजपा शासित राज्यों की सरकारों द्वारा बनाये जाने वाले प्रादेशिक राजमार्गों के निर्माण में होने वाले भ्रष्टाचार को लेकर आम जन क्या कहते हैं इसका संज्ञान लिया जाना भी जरूरी है | इसी तरह सरकारी नौकरियों में होने वाला लेन देन भाजपा की हुकूमत वाले राज्यों में भी बेरोकटोक जारी है | इस हेतु ली  जाने वाली परीक्षाओं के पर्चे लीक होने से वे आगे बढ़ जाती हैं | परीक्षाओं के बाद साक्षात्कार हो जाने पर भी नियुक्तियां होने में बरसों - बरस बीत जाते हैं | प्रधानमंत्री आवास योजना हेतु मिलने वाली राशि के वितरण में सरकारी अमला और सरपंच  खुलकर घूसखोरी करते हैं | स्थानीय निकायों में मकान का नक्शा बिना चढ़ोत्री के स्वीकृत  नहीं होता | बिना घूस खिलाये व्यावसायिक निर्माण की अनुमति मिलना तो सपने देखने जैसा है | शराब और खनन के ठेकों में जितना भ्रष्टाचार अन्य राज्यों में है उतना ही भाजपाई सरकारों की छत्रछाया में चल रहा है | परिवहन विभाग में केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने यद्यपि काफी सुधार किये हैं लेकिन आरटीओ का नाम लेते ही भ्रष्टाचार की बू आने लगती है | आशय ये है कि जिस तरह श्री मोदी ने गुजरात में  मुख्यमंत्री रहते हुए विकास का एक मॉडल पेश किया था वैसा ही प्रयास उन्हें भाजपा शासित राज्यों में भ्रष्टाचार  मुक्त शासन व्यवस्था बनाने के लिए करना चाहिए जिससे पार्टी विथ डिफ़रेंस का दावा जमीनी तौर पर सही साबित हो सके | प्रधानमंत्री ने 2047  में आजादी की शताब्दि तक जिस अमृत काल की बात की है यदि उस दौरान केवल भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था बनाने का लक्ष्य सामने रखकर उस पर काम  किया जावे तभी  भारत को विकसित देश बनाने का सपना साकार हो सकता  है | यद्यपि  भ्रष्टाचार की जड़ें काफी गहरी हैं जिन्हें उखाड़ना आसान नहीं है | लेकिन देश को बर्बादी और विखंडन से बचाना है तो श्री मोदी को बिना लिहाज किये  कदम बढाने होंगे | और ऐसा करने पर उन्हें जनता का साथ भी खुलकर मिलेगा क्योंकि भ्रष्टाचार से सबसे ज्यादा पीड़ित वही है | प्रधानमंत्री से देश को अपेक्षा है कि वे अपनी तरह ही  भाजपा को भी  भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त करने का दुस्साहस करेंगे | सही  बात ये है कि आज के  परिदृश्य में वे ही ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें कठोर फैसले करने का माद्दा है | ऐसे में उन्हें चाहिए लोकसभा चुनाव के पहले तक भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने आह्वान के अनुरूप कड़े से कड़े कदम उठायें जिससे विकास की गति और गुणवत्ता दोनों में वृद्धि हो | वरना हर साल 15 अगस्त आता रहेगा और हम अच्छे – अच्छे भाषण सुनकर फिर उसी ढर्रे पर लौट आयेंगें जो बीते 75 साल से हमारे जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 15 August 2022

राजनीतिक और आर्थिक से ज्यादा मानसिक गुलामी खतरनाक



हजारों साल के ज्ञात इतिहास और वक्त के थपेड़ों से अपने अस्तित्व को बचाए रखने वाली संस्कृति से समृद्ध देश के साथ गुलामी शब्द का जुड़ना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं था  | लेकिन हमारे महान भारतवर्ष को इस दुर्भाग्य से गुजरना पड़ा और लगभग चार सौ वर्षों तक विदेशियों की दासता झेलने के बाद आखिरकार 15 अगस्त 1947 को वह अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर एक स्वाधीन देश बना | पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों की सत्ता के अधीन रहने के बाद जब हम आजाद हुए तो  देश खुशियों में डूबा हुआ  था  | हालाँकि आजादी की लड़ाई में जितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी उससे ज्यादा लोगों को देश के विभाजन में जान गंवाना पड़ी | लेकिन  गलतियों से सीख न लेने की प्रवृत्ति  हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गई  | और इसीलिए 75 साल पहले भारत माता के टुकड़े कर मुसलमानों के लिए अलग  बनाये गए पाकिस्तान में  हिन्दुओं और सिखों को अपना सब कुछ छोड़कर पलायन हेतु मजबूर किए जाने के बावजूद देश जश्न मनाता रहा  |  आजादी की वह  तारीख कभी भुलाई नहीं जा सकेगी किन्तु आज जब उस दौर की चश्मदीद पीढ़ी लुप्तप्राय  है और बीते 75 साल में  उन  बातों पर पर्दा डालकर रखा गया जिनसे  भावी पीढ़ी विभाजन के लिए जिम्मेदार उन गलतियों के बारे  में जान सकती थी , तब ये जरूरी हो जाता है कि  अमृत महोत्सव की खुशी के साथ उन गलतियों का भी ईमानदार विश्लेषण किया जावे जिनके कारण  परतंत्रता का कलंक हमारे माथे पर लगा रहा | इतिहास वह नींव है जिस पर किसी भी देश का भविष्य खड़ा होता है | कहने को तो हमें अपने गौरवशाली अतीत पर बड़ा गर्व है लेकिन चार सौ साल की  दासता की यादें शर्मिंदा करती हैं | और इसीलिए आज  स्वाधीनता दिवस पर  उन बातों पर भी चिंतन – मनन होना चाहिए जिनके कारण हमने अपनी आजादी खोई थी |  सच्चाई ये है कि आज भी  हमारी एकता और अखंडता पर खतरा मंडरा रहा है  | भले ही अब  19 वीं और 20 वीं सदी के उपनिवेशवाद का लौटना संभव नहीं रहा लेकिन देश को भीतर से कमजोर करने वाली वह मानसिकता पुष्पित – पल्लवित है जिसने मोहम्मद गौरी और गजनवी जैसों के लिए लाल कालीन बिछाये थे  | पाठक सोच रहे होंगे अमृत महोत्सव जैसे अवसर पर गुलामी के घावों को कुरेदने का क्या औचित्य है ? लेकिन बिना इतिहास में झांके ऐतिहासिकता का जिक्र सार्थक नहीं होता  | इसलिए ये जरूरी  है कि अपनी  उपलब्धियों को जीवंत रखने के साथ ही  हमें उन गलतियों को भी सदैव याद रखना चाहिए जिनकी वजह से सोने की चिड़िया विदेशी पिंजरे में कैद होकर रह गई थी | जिस पश्चिमी सीमा पर हमारे सबसे जुझारू और लड़ाकू जाति समूह रहते थे वहीं से सबसे जयादा आक्रान्ता आकर हमें लूटकर जाते रहे और अंततः एक ने आकर यहीं ठिकाना जमा लिया | सोचने का विषय ये है कि जब पहला विदेशी हमला हुआ तभी हमने इस बात का पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किया कि दोबारा किसी की हिम्मत न हो हमारी तरफ देखने की | विचारणीय है कि जिस देश ने सिकंदर के विश्व विजय के इरादों को ध्वस्त कर दिया हो वह सैकड़ों की संख्या में आने वाले लुटेरों के सामने घुटना टेक कैसे हो गया ?  इतिहास में छिपी उन भयानक भूलों पर पड़ी  धूल को हटाये बिना आजादी के अमृत महोत्सव का जश्न महज औपचारिकता का निर्वहन रह जाएगा | आज देश में एक ऐसा वर्ग है जिसे भारत की प्राचीनता पर ही संदेह है | संगठित देश के तौर पर हमारे अस्तित्व को नकारने वाले भी हैं  | ऐसे लोगों की  शातिर सोच बीते 75 साल से ये समझाने की साजिश रच रही है कि कारवाँ आते गए हिन्दोस्तां बनता गया | आज जरूरत इस सोच को बदलने की है | आजादी के 75 सालों में देश ने बेशक बहुत कुछ किया और कमाया | वैश्विक मंचों पर हमारी उपस्थिति उभरती हुई विश्व शक्ति का एहसास करवाती है | पृथ्वी से अन्तरिक्ष तक हमारी उपलब्धियों का गौरवगान हो रहा है | सैन्य और आर्थिक मोर्चे पर हमारी  शक्ति का लोहा पूरी दुनिया मान रही है | लेकिन आज भी वे कारण उपस्थित हैं जिनसे आजादी के लिए खतरा  है | सता की खातिर समाज को जातियों में खंड – खंड कर देना , धार्मिकता के नाम पर  सदियों पुरानी अरब से आयातित कट्टरता को गले से लगाये रखना , सेना के पराक्रम पर सवालिया निशान लगाना ,और  देश की अखंडता के विरुद्ध उठने  वाली आवाजों को आजादी का नाम देना इस बात का प्रमाण है कि आज भी जयचंद और मीर जाफर वाली सोच को जीवित रखने वाले मौजूद हैं , जो चिंता का विषय है | हालाँकि बीते 75 सालों  में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिस पर गर्व किया जा सकता है और जिस तरह का आत्मविश्वास युवा पीढ़ी में है वह आश्वस्त करता है | राजनीतिक स्थायित्व और नेतृत्व की दृढ़ता की वजह से किसी भी वैश्विक संकट के समय दुनिया भारत की तरफ देखने लगी  है | विश्व जनमत को अपनी तरफ मोड़ने की शक्ति भी हम हासिल चुके हैं | वैश्विक महामारी के रूप में आई आपदा का जिस कुशलता और साहस के साथ भारत ने मुकाबला किया उससे  विश्व आश्चर्यचकित रह गया | लेकिन आंतरिक तौर पर देश को कमजोर करने वाली विघटनकारी ताकतें भी तेजी से सिर उठा रही हैं | पंजाब में खालिस्तानी मानसिकता का उभार शुभ संकेत नहीं है | इसी तरह  इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने का जो सुनियोजित्त षडयंत्र हाल के दिनों में देखने मिला वह एक और  विभाजन की भूमिका तैयार करने जैसी शरारत  ही है | क्षेत्रीयता के नाम पर देश की अखंडता को  दी जा रही चुनौती  दुर्भाग्यपूर्ण है |   सबसे बड़ी समस्या है भ्रष्टाचार , जो देश को घुन की तरह खाए जा रहा है | सरकारी एजेंसियों द्वारा की जाने वाली छापेमारी में जिस बड़े पैमाने  पर  काला धन बाहर आ रहा है उससे यह साबित हो गया है कि बीते 75 सालों में किस बेरहमी से देश को लूटा गया | जनकल्याण की सरकारी योजनाओं का लाभ सही लोगों को मिलने की बजाय नौकरशाहों और नेताओं के गठजोड़ ने हड़प लिया | लोकतंत्र के नाम पर चुनावों में जनता के धन की बर्बादी के खेल को रोकना रोकना समय की मांग है वरना मुफ्तखोरी  का नशा  कार्यसंस्कृति को पूरी तरह नष्ट कर देगा | कृषि का घटता रकबा भी भविष्य में कृषि प्रधान देश के विशेषण के छिन जाने का कारण बन सकता है | हर समय किसी न किसी राज्य में होने वाले चुनाव  नीतिगत अनिश्चितता के साथ ही भ्रष्टाचार के बड़े स्रोत बन गये हैं | कुल मिलाकर आजादी के इस अमृत महोत्सव में हमें उन विषैली प्रवृत्तियों  के प्रति भी सावधान रहना होगा जो धीरे – धीरे व्यवस्था रूपी  शिराओं में फैलती जा रही हैं | बीते 75 सालों में जो हासिल  किया गया उस पर गर्व करना पूरी तरह सही है लेकिन आत्ममुग्धता से बचते हुए  उन हालातों  और गलतियों को दोहराए  जाने से बचना होगा जिनके कारण भारत माता को सैकड़ों सालों तक दासता का दंश सहना पड़ा | इसलिए आज हर्षोल्लास के साथ ही गंभीर चिंतन का भी दिन है  क्योंकि गुलामी की मानसिकता के बीज  किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं और जरा सी असावधानी होते ही उनके अंकुरित होने का अंदेशा बना हुआ है | इस बात को सदैव याद रखना चाहिए कि राजनीतिक और आर्थिक से ज्यादा मानसिक गुलामी  ज्यादा खतरनाक होती है |  15 अगस्त 1947 को हम राजनीतिक तौर पर भले ही स्वतंत्र हो गए लेकिन मानसिक गुलामी  बदस्तूर जारी रही , वरना भारत के साथ  इण्डिया शब्द संविधान में न लिखा जाता  |

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर अनन्त शुभकामनाओं सहित ,

रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 13 August 2022

महंगाई : आंकड़ों की बाजीगरी का भी अमृत महोत्सव



बीते दो दिनों से सुनने में आ रहा है कि 
जुलाई में खुदरा महंगाई घटकर 6.71 फीसदी हो गई जो जून में 7.01 थी | राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के  आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच महीनों में ये आंकड़ा सबसे कम है | यद्यपि उक्त संस्थान ने ये भी स्पष्ट किया है कि अभी भी महंगाई निर्धारित दर से ज्यादा है जो कि 2 से 6 फीसदी होनी चाहिये | अधिकृत आंकड़ों के अनुसार  जुलाई 2021 में वह  5.59 प्रतिशत के स्तर पर थी  जबकि अप्रैल आते – आते उछलते हुए 7.79 तक जा पहुँची | राहत की  खबर औद्योगिक उत्पादन में ही देखी गई जो जून के महीने में 12.3 प्रतिशत बढ़ गया | अर्थशास्त्र में नीतिगत नियोजन आंकड़ों  के आधार पर ही किया जाता है | रिजर्व बैंक भी महंगाई के आंकड़ों के आधार पर ही ब्याज दर घटाता – बढ़ाता है | हाल ही में रिजर्व बैंक द्वारा ऋणों पर ब्याज दर बढ़ाये जाने का उद्देश्य  भी महंगाई पर काबू करना था | ये बात तो सर्वविदित है कि कोरोना के संक्रमण ने जिस तरह पूरी दुनिया के अर्थतंत्र को हिलाया उससे भारत भी अछूता नहीं रह सका | हालांकि दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों ने ये स्वीकार किया कि कोरोना काल में भी दुनिया के विकसित देशों की  तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में रही और ये भी कि इस वैश्विक महामारी से जूझने में भारतीय प्रबंधन काफी अच्छा रहा | इसमें भी दो राय नहीं हैं कि 135 करोड़ की विशाल आबादी का भरण - पोषण करना उस विकट स्थिति में बहुत ही कठिन था | इसके साथ ही इतनी बड़ी जनसँख्या को कोरोना से बचाव हेतु टीके लगाना भी आसान काम न था | लेकिन आज भी जब दुनिया के तमाम देश कोरोना के कहर से पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं तब भारत में आर्थिक स्थितियां सामान्य होने लगी हैं | इसका प्रमाण रिहायशी घरों , कारों और दोपहिया वाहनों की बिक्री में वृद्धि के अलावा पर्यटन व्यवसाय में दिखाई दे रही तेजी है | बीती गर्मियों में शादी – विवाह भी खूब हुए जिनके कारण उपभोक्ता बाजार में रौनक रही | वहीं उससे जुड़ी अन्य व्यवसायिक गतिविधियों का ठहराव भी दूर हुआ | जीएसटी की मासिक वसूली का आंकड़ा जिस तेजी से बढ़ता जा रहा है उससे भी आर्थिक सुस्ती खत्म होने के संकेत मिले हैं | पेट्रोल – डीजल की बिक्री लगातार बढ़ते जाने से ये जाहिर हो रहा है कि परिवहन और सड़क मार्ग से होने वाला आवागमन कोरोना पूर्व की स्थिति में आ चुका है | निर्माण गतिविधियों के रफ़्तार पकड़ने के कारण मजदूरों को काम मिलने लगा है | हवाई और रेल यात्रियों की संख्या में भी वृद्धि देखी जा रही है | कुल मिलाकर बाजार में मांग  बढ़ने से उत्पादन करने वालों का हौसला बढ़ा जिसकी वजह से भी कीमतों में स्थिरता  आई होगी | दरअसल महंगाई बढ़ने के पीछे एक कारण रूस - यूक्रेन के बीच छिड़ी लड़ाई भी है जिससे खाद्यान्न और खाने का तेल बेतहाशा महंगा हो गया | ऐसा लगता है सरकार द्वारा अनाज का निर्यात रोकने का असर कीमतों पर पड़ने से खुदरा महंगाई नीचे आ गई | अन्यथा महंगाई कम होने  का खास अनुभव नहीं हो रहा | उलटे उपभोक्ता बाजार में तकरीबन हर चीज के जो दाम बीते दो साल में बढ़े , वे वहीं ठहर गये | इस आधार पर देखें तो महंगाई घटने का दावा सच्चाई से दूर लगता है | वैसे भी सरकारी संस्थान के आंकड़ों  में हेराफेरी  नई बात  नहीं है | राजनीतिक कारणों से भी उनको सरकार की छवि के मद्देनजर प्रसारित – प्रचारित किया जाता है | बीते दिनों संसद के मानसून सत्र में विपक्ष द्वारा महंगाई को लेकर सरकार को घेरने का भरपूर प्रयास भी किया गया | यद्यपि कुछ हद तक  ये तो माना  जा सकता है कि रोजमर्रे की उपभोक्ता वस्तुओं के दामों का बढ़ना तो रुका ही है | लेकिन हाल ही में रसोई गैस के महंगे होने से महंगाई का आंकड़ा लगता है फिर जस का तस हो जायेगा | अभी बाजार के जो संकेत हैं वे एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाले स्थिति बयाँ कर रहे हैं | पेट्रोल - डीजल की कीमतें काफी दिनों से स्थिर हैं लेकिन रूस – यूक्रेन युद्ध के कारण कच्चे तेल और गैस की जो किल्लत है उसकी वजह से अन्य तेल उत्पादक देशों की मुनाफाखोरी भी चरम पर है | ऐसे में मूल्यों की स्थिरता पर सदैव संदेह के बादल मंडराते रहते हैं | ये देखते हुए महंगाई घटने के जो आंकड़े विगत दिवस जारी हुए वे ऊँट के मुंह में जीरे से भी कम कहे जाएँ तो गलत न होगा | असली सर्वेक्षण इस बात का होना चाहिए कि दैनिक उपयोग की जिन भी चीजों के दाम कोरोना के कारण बढ़े ,  वे वापस  लौटे या नहीं ? ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि बाजार का चरित्र यही है कि कुछ अपवाद छोड़कर एक बार बढ़े हुए दाम भले ही कुछ समय के लिए स्थिर हो जाएं लेकिन लौटकर नीचे नहीं आते | केंद्र और विभिन्न राज्यों ने हाल ही में कर्मचारियों और पेंशनधारियीं का मंहगाई भत्ता बढ़ाया था  | 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए केंद्र सरकार राहतों का पिटारा खोलेगी इसमें दो राय नहीं है | दूसरी तरफ रिजर्व बैंक महंगाई पर लगाम लगाने के लिए घिसे – पिटे तरीके आजमायेगा | लेकिन इन कृत्रिम उपायों से महंगाई का घटना अर्थव्यवस्था के वास्तविक चित्र को पेश नहीं करता | आंकड़ों की  बाजीगरी देश बीते 75 साल से देखता आ रहा है | ये बात सच है कि महंगाई और विकास एक दूसरे के समानांतर चलते हैं | लेकिन हमारे देश में उनके  बीच का सामंजस्य बिगड़ता चला गया | यही वजह रही कि विकास कम हुआ और महंगाई ज्यादा बढ़ गई | मसलन लोगों की आय उस अनुपात में नहीं बढ़ सकी जिसमें जरूरी चीजें और सेवाएँ महंगी हुई हैं | इस आधार पर जो ताजा आंकड़े आये हैं उनको वास्तविकता की कसौटी पर कसने पर कुछ अलग ही स्थिति नजर आयेगी | उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के अमृत महोत्सव पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसी कुछ घोषणा करेंगें जिससे आम आदमी राहत महसूस करे क्योंकि आंकड़ों की विश्वसनीयता भी नेताओं की तरह खत्म हो चुकी है |

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 12 August 2022

नेता , नौकरशाह और न्यायाधीश भी तो मुफ्त रेवड़ियां छोड़ने आगे आयें



देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमना कुछ ही दिनों में सेवानिवृत्त होने वाले हैं | उसके पहले वे चुनावी वायदों की शक्ल में मुफ्त रेवड़ियाँ बाँटने की जो प्रतिस्पर्धा राजनीतिक दलों में चल रही  है उस पर रोक लगाने संबंधी  याचिका का निपटारा करने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं | वरिष्ट अधिवक्ता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को अदालत मित्र बनाने के साथ ही  आम आदमी पार्टी को भी  स्वतः संज्ञान लेते हुए  बतौर एक पक्ष जोड़ा गया है | केंद्र सरकार ने अदालत से गुहार लगाई है कि जब तक विधायिका इस बारे में कोई निर्णय नहीं करती तब तक अदालत मुफ्त रेवड़ियों की बंदरबांट पर रोक लगाने की पहल करे | प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो लगभग रोज इस बारे में बोल रहे हैं | गत दिवस श्री रमना ने अपने से जुड़े दो वाकये सुनाकर इस बात पर जोर दिया कि मुफ्त के नाम पर जो किया जा रहा है वह बजाय जाति और वर्ग विशेष के , आर्थिक आधार पर होना चाहिए जिससे समाज के सभी लोगों को उसका लाभ मिले | मुफ्त रेवड़ियों और सुविधाओं के वर्गीकरण पर भी चर्चा हुई | न्यायालय द्वारा बीते दिनों बनाये गये पैनल में चुनाव आयोग के शामिल होने संबंधी अनिच्छा का जिक्र भी आया | अभी तक जो देखने मिला उसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय , चुनाव आयोग और केंद्र सरकार तीनों इस बात पर चिंतित दिखते हैं कि चुनावी वायदों के रूप में की जाने वाली घोषणाओं से सरकारी खजाने पर पड़ने वाला बोझ असहनीय होता जा रहा है | और पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने की महत्वाकांक्षा पूरी होने की  राह में मुफ्त रेवड़ियाँ बड़ी बाधा बन रही हैं |  रोचक बात ये है कि सभी दल अपने वायदों को जन कल्याण  का नाम देते हैं वहीं दूसरे की घोषणा मुफ्त रेवड़ी बता दी जाती है | बसों में वृद्ध महिलाओं को निःशुल्क यात्रा की सुविधा कुछ राज्यों में मिलने पर रेलवे में वरिष्ट नागरिकों को मिलने वाली रियायत भी शुरू करने का मुद्दा उठता है | वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन के साथ ही किसान कल्याण निधि को भी रेवड़ी की श्रेणी में रखा जा रहा है | बढ़ते – बढ़ते बात गरीबों को दिए जा रहे मुफ्त खाद्यान्न तक जा पहुँची | आम आदमी  पार्टी का कहना है कि ये सब उसकी बढ़ती लोकप्रियता से डरकर हो रहा  है | हालाँकि मुख्य न्यायाधीश भी जनकल्याण की योजनाओं को जारी रखने के पक्षधर हैं लेकिन ये कहना गलत न होगा कि संसद , सरकार , न्यायपालिका , चुनाव आयोग और राजनीतिक दल कोई भी मुफ्तखोरी बंद करने का दोष अपने सिर पर लेने तैयार नहीं  हैं | और इसका  सबसे बड़ा कारण ये है कि सांसद , मंत्री , न्यायाधीश , नौकरशाह और राजनेता सभी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मुफ्त सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं | इसलिए  जब दूसरे की  सुविधाएँ बंद करने का मसला उठता है तो उनके कंधे अपराधबोध से झुक  जाते हैं | प्रधानमन्त्री ने गत दिवस तंज कसा कि कोई डीजल – पेट्रोल मुफ्त देने का वायदा भी कर सकता है | शायद उनका इशारा उ.प्र के विधानसभा चुनाव में ऑटो चालकों को माह में एक – दो  बार मुफ्त  पेट्रोल दिए जाने के वायदे की तरफ था | लेकिन जो प्रधानमंत्री लगभग रोज ही मुफ्तखोरी के विरुद्ध देश को चेता रहे हैं उन्होंने भी तो अपने आठ वर्ष के कार्यकाल में मुफ्त बांटने में लेशमात्र संकोच नहीं किया | और जब जनता सांसदों / विधायकों को मिलने वाली  मुफ्त यात्रा , इलाज और पेंशन पर सवाल उठाती है तब प्रधानमंत्री की अपनी  पार्टी भाजपा और किसी दूसरी पार्टी की तरफ से जनता की  मांग के समर्थन में एक भी आवाज नहीं सुनाई देती | समाजवादी और वामपंथी विचाराधारा का झंडा उठाने वाले जनप्रतिनिधि भी सरकार से मिल  रही मुफ्त सुविधाओं में कटौती करने की मांग को अनसुना कर देते हैं | ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या सरकारी खजाना जनता को बांटी जाने वाली रेवड़ियों से ही खाली होता है ?  नेता , नौकरशाह , न्यायाधीश , मंत्री और चुने हुए जनप्रतिनिधि भी तो नव सामंतवाद के प्रतीक बनकर वही सब कर रहे हैं जो अंग्रेजी सत्ता के दौर में हुआ करता था | इस बारे में यक्ष प्रश्न ये है कि आजादी के 75 वर्ष पूरे करने वाले देश में आज भी जब करोड़ों लोगों को हजार – दो हजार रूपये की पेंशन से गुजारा करना पड़ता हो और करोड़ों लोग गरीबी के कारण मुफ्त अनाज के लिए मोहताज हों तब इस देश का नेतृत्व कर चुके लोगों  की ईमानदारी और क्षमता पर सवाल उठना स्वाभाविक है | सही बात ये है कि व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठे महानुभाव अपने सुख और सुविधाओं पर तो बेरहमी से धन खर्च करना अधिकार समझते हैं ,  लेकिन जनता  को मिलने वाली सुविधाएँ  फिजूलखर्ची लगती हैं | ये देखते हुए प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश सहित चुनिन्दा अर्थशास्त्रियों द्वारा चुनावी वायदों के जरिये परोसी जा रही रेवड़ियों के दुष्परिणाम पर जो चिंता व्यक्त की जा रही है वह सैद्धांतिक और व्यवहारिक आधार पर पूरी तरह उचित है किन्तु ऐसा कहने से पहले सरकारी खजाने को लूटने वाले विशेषाधिकार संपन्न तबके के ऐशो – आराम पर हो रहे  अपव्यय को रोकने का साहस और नैतिकता भी दिखाई जानी चाहिए | सत्ता हासिल करने के लिये मुफ्त रेवड़ियाँ बाँटने की संस्कृति ने चुनाव  को डिस्काउंट सेल  और मतदाता को ग्राहक बनाकर रख दिया है | देश की बड़ी आबादी मुफ्त रेवड़ियों के फेर में निठल्लेपन को अपना चुकी है | कोरोना काल में मुफ्त अनाज वितरण वाकई जरूरी था वरना श्रीलंका जैसे हालात पैदा होना तय था | लेकिन उसके बाद जब अर्थव्यवस्था में सुधार के दावे किये जा रहे हैं और उद्योग , व्यवसाय सब पूर्व की स्थिति में लौट आये हैं तब इस योजना की समीक्षा कर केवल उन्हीं परिवारों को मुफ्त खाद्यान्न मिलना चाहिए जो सही मायनों में इसके पात्र हों | बूढ़े , अशक्त , निराश्रित आदि की चिंता करना वाकई सरकार का कर्तव्य है | विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन की योजना गरीब बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए आकृष्ट करने शुरू हुई थी लेकिन वह घोर अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का शिकार बन गई | सर्वोच्च न्यायालय ने भी जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ  हितग्राही तक न पहुंचने की बात कही है | मुफ्त रेवड़ियों के वितरण को लेकर शुरू हुई बहस या विमर्श तब तक अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकेगा जब तक नेता , न्यायाधीश और  जनप्रतिनिधि खुद होकर उन्हें मिल रही मुफ्त सुविधाओं और रेवड़ियां त्यागने की पहल नहीं करते | आजादी के अमृतकाल में इस बात का विचार मंथन जरूरी हैं कि बीते 75 साल में आर्थिक विषमता घटने की बजाय और बढ़ती क्यों जा रही है ? जब आजादी मिली तब इस देश में केवल गरीब थे लेकिन आज उससे ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं तो क्या ये स्थिति शर्मनाक नहीं है ? और यदि है तो जो लोग मुफ्त रेवड़ियों के बाँटे जाने पर चिंतित और व्यथित हैं उनमें से कितने उन्हें मिलने वाली मुफ्त सरकारी सुविधाओं को खजाने पर बोझ मानकर छोड़ने की ईमानदारी दिखायेंगे ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 10 August 2022

नीतीश ने भाजपा से बचने बड़ी मुसीबत मोल ले ली



बिहार में सरकार बदल गयी किन्तु मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहेंगे | आठवीं बार मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़कर दोबारा राजद से गठजोड़ कर लिया | उन्हें भाजपा छोड़ बाकी सभी दलों का समर्थन भी हासिल हो गया | सब कुछ बड़े ही नाटकीय तरीके से हुआ  जिससे किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि लम्बे समय से नीतीश और भाजपा के रिश्तों में सहजता खत्म हो चुकी थी | हालांकि नीतीश सदैव भाजपा पर हावी रहे जो सत्ता के लालच में हर दबाव को सहती रही | लेकिन दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जब जद ( यू ) को एक ही मंत्री पद देना तय किया तब जो गाँठ बंधना शुरू हुई वह और कसती गयी | दोनों तरफ से  बयानों के तीर चलते रहे | विधानसभा अध्यक्ष के साथ सदन के भीतर हुए नीतीश के विवाद ने भी आग में घी का काम किया | लेकिन नागरिकता संशोधन , कृषि कानून , जाति आधारित जनगणना और अग्निवीर योजना जैसे केंद्र सरकार के फैसलों का जिस तरह नीतीश ने विरोध किया उससे भाजपा भी नाराज थी | लेकिन नीतीश भाजपा की मजबूरी बन गये थे | मजबूरी नीतीश के सामने भी थी क्योंकि बीते दस साल में वे दो बार लालू के साथ आये और फिर अलग होकर भाजपा से जुड़े | हालाँकि वे आज जिस मुकाम पर हैं उसमें भाजपा का ही योगदान है जिसने उन्हें केंद्र में मंत्री पद के साथ ही लम्बे समय तक बिहार का मुख्यमंत्री बनाये रखा | लालू के जंगल राज के विरुद्ध भाजपा के समर्थन से वे बिहार में सुशासन बाबू के तौर पर स्थापित हुए | दस साल तक ये गठबंधन चला लेकिन 2013 में भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो नीतीश ने एनडीए त्याग  दिया परन्तु लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ़ होने का बाद विधानसभा चुनाव में उन्हीं लालू के साथ गलबहियां करने लगे जिनके जंगलराज और चारा घोटाले जैसे  भ्रष्टाचार के विरुद्ध खुलकर खड़े रहे | बिहार में बहार है ,नीतीशै कुमार है का नारा गूंजा और उस गठबंधन ने मोदी लहर को रोक लिया | लेकिन महज दो साल के भीतर वे दौड़े – दौड़े उन्हीं मोदी के पास गये जिनकी वजह से उन्होंने भाजपा के साथ दो दशक का गठबंधन तोड़ा था | उसके बाद 2019 का लोकसभा और 2020 का विधानसभा चुनाव दोनों ने मिलकर लड़ा | इन दोनों में प्रधानमंत्री सितारा प्रचारक रहे और नीतीश ने उनके साथ मंच साझा करने में संकोच भी नहीं किया | ये वही मोदी हैं जिनका बिहार में आना उनको उस समय भी नागवार गुजरता था जब वे एनडीए में रहे | खुन्नस इतनी ज्यादा थी कि प्राकृतिक आपदा के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर श्री मोदी द्वारा भेजी गई सहायता राशि तक लौटा दी और पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आये नेताओं को दिया भोज भी  रद्द कर दिया क्योंकि उसमें श्री मोदी होते | लेकिन 2017 में जब लगा कि लालू  कुनबे के साथ सरकार चलाने से सुशासन बाबू की छवि तार – तार हो जायेगी तो  श्री मोदी की शरण लेने में संकोच नाहीं किया   | 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के प्रति  काफी नाराजगी रही जिससे उनकी सीटें घटकर 45 हो गईं | यदि श्री मोदी धुआंधार प्रचार न करते तब नीतीश के हाथ से सत्ता खिसक जाती | बड़ी पार्टी बनने के बाद भी भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री बनाया जो उसकी भी मजबूरी थी | भाजपा जानती  थी कि उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो लालू और नीतीश की टक्कर का हो | सही बात ये है कि बिहार में राजनीति के तीन ध्रुव नीतीश , भाजपा और लालू के तौर पर बन गए हैं | इनमें से कोई भी अपनी दम पर  चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है | लेकिन ये भी सही है कि बीते दो दशक में बिहार में यदि किसी ने अपना विस्तार किया तो भाजपा ने , जबकि नीतीश और लालू दोनों सिकुड़े हैं | वहीं रामविलास पासवान के निधन के बाद उनका अपना कुनबा भी छिन्न – भिन्न हो गया | पिछले विधानसभा चुनाव में उनके बेटे चिराग ने जिस तरह एनडीए में रहते हुए जद ( यू ) के उम्मीदवारों को हरवाया  उससे नीतीश के मन में ये बात बैठ गयी कि वह भाजपा का खेल था | हालाँकि चिराग की बजाय भाजपा ने उनके चाचा पारस को केंद्र में मंत्री बनाया  किन्तु केंद्र  में दो मंत्रियों की मांग पूरी न होने के बाद से ही नीतीश सशंकित हो उठे थे | इसीलिये केंद्र सरकार के निर्णयों और नीतियों का विरोध करते रहे जबकि भाजपा उनके साथ भागीदार थी | हालाँकि उनको उम्मीद रही  कि भाजपा उन्हें  उपराष्ट्रपति बनाकर उपकृत करेगी किन्तु जब ऐसा नहीं हुआ तब उनको ये डर सताने लगा कि बिहार में भी महाराष्ट्र जैसा खेल न हो जाए | कांग्रेस के कुछ विधायकों के भाजपा के संपर्क में होने की भनक लगने से उनके कान  खड़े हो गए | हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का वह बयान भी उनको चुभ गया कि क्षेत्रीय पार्टियाँ खत्म हो जायेंगी | उनके मन में ये बात घर करने लग गई थी कि उनका तख्ता पलट किया जा सकता है और उस सूरत में वे लालू और कांग्रेस से समर्थन मांगेगे तो उनका हाथ दबा रहेगा | ये देखते हुए उन्होंने वही किया जिसकी उम्मीद थी |  इसके पीछे उनकी एक चाल और भी है | बीते दिनों जब ओवैसी की पार्टी के विधायक तेजस्वी के साथ आये तो राजद सबसे बड़ा दल बन गया | जैसी खबरें चल रही थीं उनके अनुसार नीतीश को समर्थन दे रही छोटी पार्टियाँ और निर्दलीयों पर तेजस्वी जिस तरह से डोरे डाल रहे थे उससे भी वे सतर्क थे | इसलिए उन्होंने ऐसा पैंतरा चला कि  भाजपा से भी पिंड छूटा  , वहीं तेजस्वी की मुख्यमंत्री बनने की योजना पर भी पानी फेर दिया | कहा जा रहा है कि इस दांव के बाद वे 2024 में श्री मोदी के मुकाबले विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बन जायेंगे | लेकिन ये  दिवास्वप्न ही रहेगा क्योंकि ममता बैनर्जी , शरद पवार , और राहुल गांधी इतनी आसानी से पीछे हट जायेंगे ये मान लेना मूर्खता होगी | अरविन्द केजरीवाल की भी महत्वाकांक्षाएं कम नहीं है | इससे भी बड़ी बात ये है कि आपराधिक मामलों में घिरे लालू परिवार के विरुद्ध चल रही जांचों के  हश्र पर इस  सरकार का भविष्य निर्भर  करेगा | नीतीश को ये तो पता ही है कि  तेजस्वी और तेजप्रताप पहले भी उनके कन्धों पर सवार हो गये थे और इस बार भी वे बाज नहीं आयेंगे | 2024 के चुनाव के पहले  देश की राजनीति में कितने उलटफेर होंगे ये कोई नहीं बता सकता | हालाँकि नीतीश ने एक बार फिर ये साबित कर दिया कि वे राजनीति के कितने चतुर खिलाड़ी हैं | लेकिन जिस भय से उन्होंने भाजपा से दूरी बनाई वह लालू और कांग्रेस के साथ जाने से तो और बढ़ जाएगा क्योंकि उसी कारण तो वे 2017 में उस गठबंधन को छोड़ भाजपा के साथ लौटे थे | रही बात भाजपा की तो नीतीश के साथ रहते –रहते उसने बिहार में अपना जनाधार इतना तो बढ़ा ही लिया कि उसके बिना वहां की राजनीति की कल्पना नहीं  की जा सकती |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 9 August 2022

खेलों में पदक जीतने वाले महानायक से कम नहीं



बीते 28 जुलाई  से  इंग्लैण्ड के बर्मिंघम  में चल रहे राष्ट्रमंडल खेल गत दिवस संपन्न हो गए | इस आयोजन में भारत के खिलाड़ियों ने कुल 61 पदक जीतकर तालिका में चौथा स्थान अर्जित किया , जिनमें 22 स्वर्णपदक हैं | कुश्ती में भारतीय दल के प्रत्येक खिलाड़ी ने कोई न कोई पदक जीता | इस बार निशानेबाजी नहीं हुई वरना पदक संख्या और ज्यादा हो जाती | सबसे बड़ी बात ये  देखने मिली कि जिन खेलों में भारत की उपस्थिति नाममात्र की रहा करती थी उनमें भी  हमारे खिलाड़ियों ने पदक जीतकर अपना दबदबा साबित कर दिया | 2024 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में होने वाले ओलम्पिक खेलों के मद्देनजर राष्ट्रमंडल खेलों में हासिल  सफलता निश्चित तौर पर खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने में सहायक साबित होगी | इस आयोजन की खास बात ये रही कि पदक जीतने वाले अनेक लड़के – लड़कियां बहुत ही साधारण आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति से निकले हुए हैं | उनके माता – पिता किसी तरह गुजर - बसर करते हैं | विपरीत हालातों के बावजूद अपने संकल्प और कठोर परिश्रम से अंतर्राष्ट्रीय खेलों के विजय मंच पर भारत का राष्ट्रध्वज फहराने वाले ये खिलाड़ी सही मायनों में महानायक हैं | ये परम संतोष का विषय है कि  युवा पीढ़ी के मन में खेलों के प्रति पेशेवर दृष्टिकोण पनप रहा है | इसी वजह से अब हमारा दल केवल अपनी हाजिरी लगाने नहीं जाता अपितु उसमें शामिल खिलाड़ी अपने प्रदर्शन से ये साबित करते हैं कि भारत की प्रगति कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रही | इन खेलों की पदक तालिका में आस्ट्रेलिया , इंग्लैण्ड और कैनेडा के बाद भारत चौथे स्थान पर रहा |  हालाँकि पहले और दूसरे स्थान पर आये देशों से हम काफी पीछे हैं लेकिन तीसरे और हमारे बीच अंतर सम्मानजनक है | इस बारे में संतोषजनक बात ये भी है कि बीते दो दशक में अब क्रिकेट , टेनिस , बैडमिन्टन जैसे ग्लैमरयुक्त खेलों से हटकर अन्य मैदानी खेलों के प्रति  भी भारतीय युवाओं में आकर्षण बढ़ा है | कुश्ती , भारोत्तोलन , निशानेबाजी और मुक्केबाजी के अलावा एथलेटिक्स में भी जिस तरह नई प्रतिभाएं अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों पर अपने को साबित करने लगी हैं वह बहुत ही शुभ लक्षण है | पिछड़े समझे जाने वाले इलाकों विशेष रूप से  उत्तर पूर्वी राज्यों से निकलने वाले खिलाड़ी जिस परिवेश और परिस्थिति से आते हैं वह देखकर उनके जुनून के प्रति सम्मान और बढ़ जाता है | यद्यपि इस बार  राष्ट्रमंडल खेलों में 72 देश शामिल हुए लेकिन आस्ट्रेलिया , इंग्लैण्ड , कैनेडा , न्यूजीलैंड , भारत और दक्षिण अफ्रीका के अतिरिक्त बाकी की उपस्थिति एक दो खेलों को छोड़कर औपचारिक ही रहती है | कुछ देश तो भौगोलिक और जनसँख्या के लिहाज से भी बेहद छोटे हैं | उस दृष्टि से भारत को तो राष्ट्रमंडल खेलों में पदक तालिका में सबसे ऊपर होना चाहिए परन्तु कटु सत्य है कि आजादी की बाद जो प्राथमिकतायें देश को आगे ले जाने के लिए निश्चित की गईं उनमें खेल और खिलाड़ी  फेहरिस्त में बहुत नीचे थे | यद्यपि पंजाब जैसे राज्य ने खेलों के विकास पर समय रहते ध्यान दिया जिसकी वजह से वहां से काफी खिलाड़ी निकले और उनके लिए वह आर्थिक दृष्टि से भी आय का साधन बना | अन्य  राज्य उस दृष्टि से काफी पिछड़ गये  | यहाँ तक कि राष्ट्रीय खेल कहे जाने वाले हॉकी में भी हम पिछड़ते चले गये | रह गया तो केवल क्रिकेट जो  महानगरों से निकलकर गाँवों तक में फ़ैल गया | लेकिन धीरे – धीरे ही सही बीते दो दशक के भीतर मैदानी खेलों के प्रति  भी आकर्षण बढ़ा और साधनों के अभाव में भी अनेक ऐसे खिलाड़ी उभरे जिन्होंने वैश्विक स्तर पर अपना कौशल दिखाया | पिछले ओलम्पिक में हमारे दल को प्राप्त  पदकों की संख्या उत्साहवर्धक थी | देश में क्रिकेट के बाद टेनिस और बैडमिन्टन का दबदबा बना था | लेकिन अब निशानेबाजी , मुक्केबाजी , कुश्ती , भारोत्तोलन और अन्य एथेलेटिक्स में  भी हमारे खिलाड़ी जिस तरह से रूचि ले रहे हैं उससे  भविष्य की उम्मीदें बढ़ी हैं | सरकार के अलावा निजी क्षेत्र से प्रायोजक  मिल जाने के कारण अनेक खिलाड़ी प्रतियोगिताओं के पूर्व विदेश  में रहकर प्राशिक्षण प्राप्त करते हैं जिसका प्रभाव उनके प्रदर्शन में नजर आता है | ये भी अच्छे संकेत हैं  कि इन खेलों के प्रशिक्षण संस्थान  पूर्व खिलाड़ियों द्वारा संचालित किये जाने लगे हैं | पदक जीतने वालों को मिलने वाले पुरस्कार , पदोन्नति और प्रोत्साहन भी खेलों में भविष्य बनाने के लिए युवाओं को प्रेरित करते हैं | बीते कुछ सालों में आम जनता में भी क्रिकेटरों की दीवानगी के साथ ही अन्य खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने वालों के प्रति भी रूचि और सम्मान जागा है | इस बारे में भारत सरकार को चाहिए वह  औद्योगिक संगठनों की मदद से इन खेलों की विश्व स्तरीय प्रतियोगिता आयोजित करे | इसी प्रकार आईपीएल की तर्ज पर फ़ुटबाल , बैडमिन्टन और लॉन टेनिस जैसे खेलों की विश्वस्तरीय पेशेवर प्रतियोगिताएं आयोजित की जावें जिनसे देश की प्रतिष्ठा के साथ ही पर्यटन और प्रबंधन कौशल में वृद्धि होती है | भारत में मूलभूत ढांचे के अंतर्गत जिस तरह राजमार्ग और फ्लायओवर आदि बनाये जा रहे हैं वैसे ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम तैयार  किये जाएँ जिससे  आने वाले एक दशक के भीतर हम विश्व ओलम्पिक की मेजबानी के लिए अपनी दवेदारी पेश करते हुए ज्यादा  से ज्यादा  पदक जीतने के लिए उदीयमान खिलाड़ी तैयार करने पर ध्यान दें | इसके लिए ये भी जरूरी है कि खेल संघों को मठाधीशों की राजनीति से मुक्त किया जाए | 135 करोड़ की आबादी वाला जो देश धरती से अंतरिक्ष तक अपनी उपस्थिति से पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहा है उसका ओलम्पिक की पदक तालिका में नीचे रहना शोभा नहीं देता |  इसीलिये राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतकर आजादी के अमृत महोत्सव की खुशियों में वृद्धि करने वाले सभी खिलाड़ी हमारे लिए आदरणीय हैं | जो पदक पाने से चूक गए उनका भी उतना ही सम्मान होना  चाहिए क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की किसी भी प्रतियोगिता में सम्मिलित होने की पात्रता भी किसी उपलब्धि से कम नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 8 August 2022

कहीं नीतीश की दशा भी उद्धव जैसी न हो जाए



राजनीति में स्थायी दोस्त अथवा दुश्मन नहीं होते | इस उक्ति को चरितार्थ होते हुए देखने के लिए भारत सबसे उपयुक्त देश है | ये शोध का विषय है कि बीते 75 वर्षों के दौरान भारतीय राजनीति में सिद्धांतों  की लक्ष्मण रेखा लांघकर कितने समझौते किये गए ? पहले  जिसे अनैतिक  समझा जाता था वह बेमेल गठबंधन और  साझा न्यूनतम कार्यक्रम ( कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ) के रूप में स्थापित हो गया जिसमें अनेक दल मिलकर सरकार बनाते हैं | चूंकि इसमें जनहित नहीं होता अतः निजी स्वार्थों की पूर्ति रुकते ही बिखराव हो जाता है | मौजूदा राजनीति में सैद्धांतिक छुआछूत समाप्त हो चुकी है | दुश्मन कब दोस्त बन जाए कहना कठिन है | ये सिलसिला 1967 में बनी संविद सरकारों के रूप में शुरू हुआ था जिसके पीछे स्व. डा. राम मनोहर लोहिया द्वारा दिया गया गैर कांग्रेसवाद का नारा था | उस प्रयोग में घोर विरोधी माने जाने वाले जनसंघ और कम्युनिस्ट सरकार में शामिल रहे | यद्यपि वह दौर ज्यादा नहीं चला लेकिन उसने सैद्धांतिक पहिचान को नष्ट करते हुए दलबदल को मान्यता दिलवा दी | उसके बाद राजनीतिक अस्पृश्यता का दौर कुछ वर्षों तक फिर जारी रहा लेकिन 1975 में लगे आपातकाल ने अंततः विरोधी विचारधारा वाले दलों को एकजुट होने बाध्य कर दिया जिसका परिणाम जनता पार्टी थी | 1977 में इस पार्टी ने केंद्र से कांग्रेस को सत्ता से हटाकर इतिहास तो रचा लेकिन नेताओं की पदलिप्सा और अहं की वजह से वह सरकार आधे कार्यकाल में ही गिर गई और गैर कांग्रेसवाद के  अधिकांश समर्थक  कांग्रेस की गोद में जा बैठे | तबसे राजनीति में ऐसे गठबंधन बनने का प्रादुर्भाव हुआ जिनका उद्देश्य केवल सत्ता हासिल करना था | हालाँकि भाजपा और वामपंथी दलों ने गठबंधन की राजनीति में भी अपने दूरगामी लक्ष्य सामने रखे जिसके उदाहरण डा.मनमोहन सिंह जैसे पूंजीवादी सोच वाले प्रधानमंत्री को वामपंथी समर्थन और भाजपा द्वारा जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर बनाई गई सरकार थे | महाराष्ट्र में शिवसेना का कांग्रेस के समर्थन से सत्ता हासिल करना सबसे ताजा नजीर है | देश की राजनीति में समाजवादी विचारधारा  और मंडल आन्दोलन की जमीन बना बिहार भी गठबंधन बनने और टूटने के लिए विख्यात है | बीते अनेक दशकों से इस राज्य की राजनीति लालू प्रासाद यादव , नीतीश कुमार और स्व. रामविलास पासवान के इर्द गिर्द घूमती रही है | ये तीनों 1974 में स्व. जयप्रकाश नारायण द्वारा शुरू किये गये छात्र आन्दोलन की उपज थे  | एक ज़माने में  तीनों एक ही थाली में खाया  करते थे किन्तु फिर इनके बीच  समाजवादी संस्कृति का पालन करते हुए कभी एक साथ तो कभी कोसों दूर चले जाने का क्रम जारी रहा | जिन पासवान ने गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से न हटाये जाने के विरोध में अटल जी की  सरकार और भाजपा से नाता तोड़ लिया था वे ही मोदी सरकार में मंत्री बन बैठे | इसी तरह लालू यादव  कांग्रेस के साथ राज्य और केंद्र में सत्ता  सुख लूटने में नहीं सकुचाये | जहाँ तक नीतीश  कुमार की बात है तो ये कहना गलत न होगा कि उनकी छवि लालू और रामविलास की तुलना में अच्छी रही | बिहार को गुंडा राज से मुक्त कर विकास की राह पर आगे बढाने का श्रेय भी उनको जाता है |  वे वाजपेयी सरकार में भी वे मंत्री रहे | हालाँकि एनडीए में रहते हुए भी वे श्री मोदी से खुन्नस रखते थे | लेकिन बाद में स्व. पासवान की तरह उनके साथ आ गए | बिहार की सत्ता में लम्बे समय तक बने रहने का अवसर उन्हें भाजपा के कारण ही मिलता रहा | बावजूद उसके 2014 में श्री मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने के बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश ने एक बार फिर लालू का हाथ थामा और सत्ता में लौटे | लेकिन लालू के बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप की हरकतों से त्रस्त होकर 2017 में नीतीश ने सीधे श्री मोदी से मिलकर भाजपा के साथ सरकार बना ली | 2019 के लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन को अच्छी सफलता मिली | लेकिन केन्द्रीय मंत्रीमंडल में एक ही जगह दिए जाने से नाराज होकर उनकी पार्टी जद ( यू ) सरकार से बाहर रही परन्तु उसके पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह नीतीश की इच्छा के विरुद्ध मंत्री बन गये| इसी तरह हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के उप सभापति बने | 2020 के विधानसभा चुनाव में जद ( यू ) और भाजपा मिलकर ही लड़े और उनके गठबंधन को मामूली बहुमत भी मिला |  लेकिन नीतीश की सीटें भाजपा से कम आईं जिसकी वजह स्व. पासवान के बेटे चिराग द्वारा जद ( यू ) के विरुद्ध ऊम्मीदवार उतारा जाना था | चिराग उस समय तक एनडीए में थे | हालाँकि भाजपा ने ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद नीतीश को गद्दी पर बिठा दिया किन्तु उनके मन में ये डर बैठ गया कि वह महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी बड़े भाई की भूमिका में आती जा रही है जिससे उनका प्रभाव क्षीण हो रहा है |  यही वजह है कि 2020 के बाद से  केंद्र सरकार से टकराने का मौका वे तलाशते  रहे | हाल ही में  जाति आधारित जनगणना करवाने  का फैसला उसी दिशा  में एक कदम था | पिछली छठ पूजा के अवसर पर लालू के परिवार में शामिल होने के साथ ही उन्होंने ये संकेत देना शुरु कर दिया कि उनका मन भाजपा से उचटने लगा है | हाल ही में राज्यसभा के चुनाव में उन्होंने आरसीपी सिंह को टिकिट नहीं दी जिससे वे मोदी मंत्रीमंडल से बाहर हो गये | राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से तो उनको जद ( यू ) ने पहले ही चलता कर दिया था | आख़िरकार श्री सिंह ने पार्टी छोड़ते हुए नीतीश पर आरोपों की बौछार लगा दी | उधर जद ( यू ) का कहना है कि भाजपा उनको  एकनाथ शिंदे बनाकर महाराष्ट्र जैसा खेल रचना चाह रही थी | लेकिन समय रहते हमने उसे विफल कर दिया | अब खबर ये है कि नीतीश फिर से  तेजस्वी के साथ  सरकार बनाने जा रहे हैं | इस प्रयास में वे कितना सफल होंगे ये तो फिलहाल कहना मुश्किल है लेकिन ऐसा लगता है प्रधानमंत्री के लिए अनेक मर्तबा नाम चलने के  बावजूद बिहार तक सीमित रह जाने से वे कुंठित हो चले हैं | कुछ समय पहले उनका नाम पहले राष्ट्रपति और फिर उप राष्ट्रपति के लिए भी चला लेकिन भाजपा ने उनको मौक़ा नहीं  दिया | यद्यपि नीतीश की पार्टी ने एनडीए के ऊम्मीदवार का ही समर्थन किया लेकिन दिल्ली में आयोजित राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण में उनके न जाने से चर्चाओं का दौर चल पड़ा | आरसीपी प्रकरण के बाद जद ( यू ) जिस तरह आक्रामक  है उसे बड़े राजनीतिक घटनाचक्र का संकेत कहा जा सकता है | लेकिन इस आयु में अब नीतीश के पास करने को कुछ ख़ास नहीं है | लालू पुत्रों के साथ वे सरकार तो बना सकते हैं लेकिन उनके साथ पिछले कटु अनुभवों के बावजूद यदि वे ऐसा करते हैं तब ये कहना गलत न होगा कि वे अपना बुढापा खराब करने जा रहे हैं | उन्हें लग रहा होगा कि शायद 2024 में विपक्ष उन्हें प्रधानमत्री के चेहरे के तौर पर पेश करेगा लेकिन तब तक वे मुख्यमंत्री भी रहेंगे या नहीं इस बात की गारंटी नहीं हैं क्योंकि राबडी  देवी और तेजस्वी इस बात को कभी  भूल नहीं सकेंगे कि लालू  की इस दुर्दशा के जिम्मेदार नीतीश ही हैं | ऐसे में बड़ी  बात नहीं होगी कि आरजेडी के साथ सरकार बनाने की कोशिश में उनकी दशा भी उद्धव ठाकरे जैसी हो जाए | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 6 August 2022

अपनी घेराबंदी हुई तो लोकतंत्र खतरे में दिखने लगा



कांग्रेस के पूर्व और संभवतः भावी अध्यक्ष राहुल गांधी ने गत दिवस कहा कि देश में लोकतंत्र खत्म हो चुका है |  सभी सरकारी संस्थाओं में रास्वसंघ के लोग बैठे हैं और इसी कारण विपक्ष प्रभाव  नहीं छोड़ पाता | उनके मुताबिक संस्थागत ढांचे की मदद से ही चुनाव जीते जाते हैं | लगे हाथ उन्होंने ये कटाक्ष भी कर दिया कि हिटलर भी चुनाव जीतकर ही सत्ता में आया था | उनके अनुसार कांग्रेस ने अपने शासनकाल में कभी भी इन संस्थाओं पर कब्ज़ा नहीं किया और उस समय लड़ाई दो – तीन राजनीतिक दलों के बीच होती थी | पार्टी द्वारा महंगाई के विरुद्ध दिल्ली में किये जा रहे प्रदर्शन के पूर्व पार्टी मुख्यालय में आयोजित पत्रकार वार्ता में उन्होंने लोकतंत्र पर खतरे का कई बार उल्लेख किया | परोक्ष तौर पर वे ये भी कह गये कि विपक्ष बुरी तरह कमजोर हो चुका है और मौजूदा हालात के चलते उसका चुनाव जीतना कठिन है | राजनीति में श्री गांधी को आये लम्बा समय बीत चुका है | लोकसभा सदस्य के साथ ही वे कांग्रेस पार्टी के महासचिव और अध्यक्ष भी बने | आज भी ज्यादातर लोग उनको ही कांग्रेस का भविष्य मानते हैं | यद्यपि उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस अपने सबसे बुरे दिनों में आ पहुँची है | देश का नेतृत्व करना तो बड़ी बात है अब तो विपक्षी पार्टियाँ  तक उसकी अगुआई स्वीकार करने  तैयार नहीं है | राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष में हुआ  जबरदस्त बिखराव आया इसका प्रमाण है  | सही बात ये है कि 2014 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद हौसला पस्त होने के कारण विपक्ष की भूमिका का निर्वहन भी वह नहीं कर सकी | 2019 के बाद तो उसकी हालत और पतली होने लगी और परिणामस्वरूप  पार्टी के भीतर पहली बार अनेक वरिष्ट नेता सामूहिक तौर पर राहुल के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े | हालाँकि  हार की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने  अध्यक्षता छोड़ दी और उनकी माताजी सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष बनकर पार्टी चलाने लगीं | लेकिन तीन साल बीतने के बाद भी कांग्रेस अपना अध्यक्ष नहीं चुन सकी और ले – देकर पार्टी मां, बेटे और बेटी के नियंत्रण में बनी हुई है | लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की जरूरत को महसूस करने वाले लोगों की शिकायत ये रही है कि कांग्रेस विपक्ष की अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभा सकी जिससे उसकी स्वीकार्यता घटती जा रही है ।  उ.प्र विधानसभा चुनाव में मात्र दो सीटें जीतने के कारण 2024 में भी उसके लिए कोई सम्भावना नजर नहीं आ रही | लेकिन बीते कुछ समय से पार्टी अचानक चैतन्य नजर आने लगी | देश भर में महंगाई के विरुद्ध हुआ प्रदर्शन उसी का परिणाम है | संभवतः आगामी 2 अक्टूबर से राहुल पदयात्रा पर भी निकलने वाले हैं | निश्चित रूप से पार्टी की सेहत के लिए ये अच्छा निर्णय  है लेकिन इस  आक्रामकता और सक्रियता के पीछे न तो महंगाई और बेरोजगारी है और न ही लोकतंत्र की चिंता | कांग्रेस और गांधी परिवार  को सड़क पर उतरता देख खुश हो रहे लोगों को  ये गलतफहमी दूर कर लेनी  चाहिए कि वे जनता अथवा लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने मैदान में उतरे हैं  | सत्य  तो ये है कि जब – जब इस परिवार पर कोई मुसीबत आती है  तब – तब  उसे लोकतंत्र खतरे में दिखने लगता है | 1975 में जब स्व. इंदिरा गांधी का चुनाव उच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया तब श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र के खतरे में पड़ जाने के नाम पर आपातकाल लगाकर समूचे विपक्ष को जेल में डाल दिया , अख़बारों पर  सेंसरशिप लागू की गई , मौलिक अधिकार निलम्बित हो गये , विपक्ष की अनुपस्थिति में मनमाने संविधान संशोधन संसद में किये गये | अपने पिता के साथी रहे जयप्रकाश नारायण , आचार्य कृपलानी और मोराजी देसाई जैसे प्रखर गांधीवादी नेताओं को लोकतंत्र विरोधी मानकर जेल में डालने में इंदिरा जी ने तनिक भी संकोच नहीं किया | उस दृष्टि से राहुल का ये कहना कि हिटलर भी चुनाव जीतकर आया था , सही मायनों में उनकी दादी पर पूरी तरह सही बैठता है | श्री गांधी शायद ये भूल गए कि पत्रकार वार्ता में सरकार की तीखी आलोचना करना लोकतंत्र में ही संभव है | वास्तविकता ये है कि ईडी ( प्रवर्तन निदेशालय ) द्वारा की गई घेराबंदी के बाद राहुल और उनके परिवार को याद आया कि लोकतंत्र खतरे में है , महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है और इसके लिए काले कपड़े पहिनकर सड़कों पर नजर आना चाहिए | जनता से जुड़े मुद्दों पर विपक्षी पार्टियां और  नेता सरकार के विरुद्ध आवाज उठायें तो ये उनका अधिकार ही नहीं अपितु कर्तव्य भी है | सत्तारूढ़ पार्टी को चुनाव में हराकर सरकार में आने की आकांक्षा भी लोकतान्त्रिक प्रणाली में स्वीकार्य है | लेकिन श्री गांधी  भूल जाते हैं कि लोकतंत्र तब खतरे में पड़ता है जब सत्ता  किसी व्यक्ति या परिवार की मुट्ठी में कैद हो जाती है |  नेहरू – गांधी परिवार आजादी के बाद चूंकि  लम्बे समय तक सत्ता में रहा इसलिए राहुल विपक्ष में रहते हुए खुद को असहज महसूस करते हैं और इसीलिये उनका गुस्सा बातों और व्यवहार में झलकता है | बीते आठ सालों से कांग्रेस विपक्ष में है | महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएँ भी  इस दौरान बनी रहीं | इनके अलावा भी अनेक ऐसे मुद्दे रहे जिन पर उसको सड़कों पर उतरकर जनता की आवाज उठाना चाहिए थी | उस दृष्टि से इस दौरान श्री गांधी जितने महीनों अपनी गुप्त विदेश यात्राओं पर रहे उतने दिनों में देश का चप्पा – चप्पा छान लेते तो वह कांग्रेस के साथ – साथ देश और लोकतंत्र के लिए फायदेमंद रहता | अब जबकि वे और उनकी माँ काँग्रेस पार्टी के पैसे से नेशनल हेराल्ड की अरबों रूपये की संपत्ति के तीन चौथाई मालिक बन जाने के मामले में घिर गये तब उन्हें लोकतंत्र , महंगाई और बेरोजगारी का ख्याल आया | बेहतर हो राहुल समय निकालकर 1975 से 1977 के घटनाक्रम का सूक्ष्म अध्ययन करें तो उन्हें समझ आएगा कि लोकतंत्र को कुचलने का दुस्साहस किसने , क्यों और कैसे किया ? मौजूदा केंद्र सरकार से उनका मतभेद स्वाभाविक है | रास्वसंघ से उनका दुराव  भी समझ में आता है | लेकिन उनका ये कहना हास्यास्पद है कि देश को सिर्फ चार लोग चला रहे हैं क्योंकि ऐसा कहते समय वे भूल गए कि उनकी अपनी पार्टी तो परिवार के तीन लोगों द्वारा ही संचालित है | और जहां तक बात विभिन्न संस्थानों में रास्वसंघ के लोगों के बैठने पर उनके ऐतराज की है तो श्री गांधी शायद भूल गए होंगे कि कांग्रेस के राज में आयातित विचारधारा के पोषक वामपंथी मानसिकता वाले लोग महत्वपूर्ण संस्थानों पर काबिज थे जिन्होंने देश को भीतर से कमजोर करने का काम तो किया ही लगे हाथ कांग्रेस की जड़ों में मठा डालते हुए उसे इस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि बाकी विपक्षी दल तक उसके साथ खड़े होने में छिटकने लगे हैं | अच्छा तो यही होगा कि राहुल जमीनी सच्चाई को समझें | लोकतंत्र किसी परिवार या पार्टी का बंधुआ न होकर जनता के निर्णय से चलने वाली व्यवस्था है और उसी जनता ने कांग्रेस और गांधी परिवार को सत्ता से उतार फेंका | 

- रवीन्द्र वाजपेयी