Friday 31 March 2023

कर्नाटक के सर्वेक्षण भाजपा के लिए चिंता का विषय




कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान होते ही विभिन्न एजेंसियों द्वारा किये गए चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के निष्कर्ष भी सार्वजनिक हो गये | इनका औसत निकालने पर ये बात  सामने आई है कि भाजपा अपनी सत्ता गंवाती नजर आ रही है | एक – दो नतीजों में वह सबसे बड़ी पार्टी बन भी रही है लेकिन बहुमत से उसे दूर ही रहना पडेगा | हालाँकि 2018 में हुए चुनाव में भी कमोबेश यही स्थिति बनी थी | भाजपा 108 सीटें प्राप्त कर बहुमत से पीछे रह गई किन्तु राज्यपाल ने येदियुरप्पा को शपथ दिलवा दी जिन्होंने  विश्वास मत अर्जित करने के पहले ही स्तीफा दे दिया  और तब कांग्रेस ने जनता दल ( एस ) से हाथ मिलाकर सरकार बना ली जिसके मुख्यमंत्री कुमार स्वामी बनाये गए | लेकिन बाद में कांग्रेस में हुई तोड़फोड़ के बाद भाजपा ने अपनी सत्ता बना ली और  येदियुरप्पा की ताजपोशी के कुछ समय बाद बसवराज बोम्मई को उनकी जगह बिठा दिया गया | बीते पांच साल में दक्षिण के इस राज्य में काफी राजनीतिक उठापटक चलती रही | जिसमें हिजाब विवाद सबसे प्रमुख रहा जिसने पूरे देश में हलचल मचाकर रख दी | कर्नाटक को भाजपा के लिए दक्षिण का प्रवेश द्वार कहा जाता है | यहाँ हिंदुत्व की लहर भी  दिखाई देती है | मठों के बीच बंटी सामाजिक व्यवस्था में जातिगत समीकरण भी अंततः हिंदुत्व की ओर ही झुकते हैं जिसका लाभ लेकर भाजपा ने यहाँ अपनी जड़ें काफी मजबूत कर लीं | बावजूद इसके वह पिछले चुनाव में भी बहुमत हासिल नहीं कर सकी और ऐसी ही सम्भावना आगामी चुनाव को लेकर विभिन्न चुनाव पूर्व  सर्वेक्षणों में देखने मिल रही है | हालाँकि अभी मतदान होने में 40 दिन शेष हैं और इतनी अवधि पलड़ा अपनी तरफ झुकाने के लिए काफी होती है | वैसे सर्वेक्षणों के अनुसार आम राय ये है कि मतदाता भले ही राज्य सरकार के कामकाज से संतुष्ट अथवा नाराज हों लेकिन तकरीबन 50 फीसदी जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम से खुश हैं वहीं 15 से 20 फीसदी ऐसे हैं जो उनके काम को औसत मानते हैं | इस प्रकार उनसे नाराज मतदाताओं का प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा 25 से 30 फीसदी ही दिखता है | और इसीलिये भाजपा इस आत्मविश्वास को पाले बैठी है कि मोदी जी  उसकी नैया पार लगा लेंगे | जिस तरह बीते कुछ समय में उन्होंने कर्नाटक आकर रैलियाँ , रोड शो और उद्घाटन – शिलान्यास वगैरह किये उससे ये बात सामने आ गयी कि पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व कर्नाटक  को हल्के में नहीं ले रहा | इसीलिये गृहमंत्री अमित शाह के अलावा पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा भी लगातार कर्नाटक आते रहे | हालाँकि मोदी और शाह की भाजपा हर चुनाव को बेहद गंभीरता से लेती है | गुजरात दोनों का गृह राज्य है किन्तु वहां भी पिछले चुनाव में उन्होंने 2017 के परिणामों  से सबक लेते हुए पूरी ताकत लगा दी और नतीजे भी ऐतिहासिक आये | इसी तरह  जिस भी राज्य में चुनाव हुए दोनों ने अग्रिम मोर्चा संभाला | प. बंगाल और दिल्ली में जहाँ भाजपा को कम उम्मीद थी वहां भी उसने जबरदस्त मोर्चेबंदी की | ऐसे में कर्नाटक के चुनाव में भी मोदी – शाह की जुगलबंदी आख़िरी क्षण तक दम लगाएगी | उनकी सहायता के लिए उ.प्र और असम के मुख्यमंत्री क्रमशः योगी आदित्यनाथ और हिमंता बिस्व सरमा भी मैदान में उतरेंगे जो अपनी प्रखर हिंदुत्व छवि के कारण चर्चा में रहते हैं | हो सकता है भाजपा अनुमानों को गलत साबित करते हुए मुकाबला अपने पक्ष में झुका ले जैसा गुजरात में देखने मिला | लेकिन इसके साथ ही ये भी याद रखना होगा कि उसी के साथ हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में वह अपनी सरकार गँवा बैठी | 2018 में थोड़े से अंतर से कर्नाटक गंवाने के बाद पार्टी म.प्र में भी बहुमत की देहलीज पर आकर रुक गयी जबकि छत्तीसगढ़ में वह बुरी तरह हारी और राजस्थान में भी बहुमत से काफी दूर रहते हुए विपक्ष में बैठने मजबूर हुई |  यद्यपि कर्नाटक  में उसने कांग्रेस में सेंध लगाते हुए सरकार बना ली किन्तु चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में उसकी विजय पर मंडरा रहे शंका के बादल इस बात का इशारा करते हैं कि पार्टी धीरे – धीरे केन्द्रीय नेतृत्व के करिश्मे पर जरूरत से ज्यादा निर्भर करने लगी है | जहाँ तक श्री मोदी की छवि का सवाल है तो वह उन राज्यों में भी काफी अच्छी है जहाँ की जनता ने भाजपा को बहुमत देने से परहेज किया किन्तु लोकसभा चुनाव में उसकी झोली भर दी | कर्नाटक , म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान  इसके सबसे अच्छे उदहारण हैं जहां 2018 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी भाजपा ने 2019 के  लोकसभा में अपना शानदार प्रदर्शन जारी रखा | लेकिन दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें जीतने के बाद भी विधानसभा चुनाव में उसे कामयाबी नहीं मिली | इससे ऐसा लगता है कि भाजपा अपने विशाल संगठन के बावजूद प्रादेशिक स्तर पर ऐसे नेता सामने नहीं  ला पा रही जो अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखते हों |  और जो हैं वे भी की पार्टी की बजाय खुद को मजबूत करने में लग जाते हैं | येदियुरप्पा को ही देखें तो भ्रष्टाचार के कारण उनको मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बावजूद भाजपा विधानसभा चुनाव में उनको सिर पर बिठाने मजबूर है | यही स्थिति राजस्थान में वसुंधरा राजे ने बना रखी है जो खेलेंगे या खेल बिगाड़ेंगे की राह पर चलती हैं | कहने का आशय ये कि सिद्धांतों और संगठन पर आधारित पार्टी की राज्य सरकार को जनता का विश्वास दोबारा अर्जित करने में इतनी परेशानी आना विचारणीय प्रश्न है | नरेंद्र मोदी निश्चित तौर पर देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं जिनके बारे में राजनीतिक पंडित भी मान रहे हैं कि वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं किन्तु ऐसा ही विश्वास उ.प्र और असम के अलावा अन्य राज्यों के भाजपाई मुख्यमंत्रियों के बारे में व्यक्त क्यों नहीं किया जाता ये शोचनीय है | कर्नाटक के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण को अंतिम परिणाम मान लेने का दावा तो सम्बंधित एजेंसियां भी नहीं कर रहीं | लेकिन इसे हवा का रुख तो माना ही जा सकता है | नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से भाजपा का चेहरा हैं लेकिन जिस तरह कांग्रेस की  गांधी परिवार पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता कालान्तर में उसके लिए  नुकसानदेह साबित हुई उससे भाजपा को सबक लेना चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 29 March 2023

परदे के पीछे कांग्रेस मुक्त विपक्ष का खेल शुरू हो गया



संसद में जारी गतिरोध की वजह से इन दिनों विपक्षी पार्टियों के बीच भावनात्मक एकता का प्रदर्शन हो रहा है | हालाँकि गौतम अडानी प्रकरण पर जेपीसी के गठन की मांग पर कांग्रेस द्वारा किये जा रहे आन्दोलन में तो सारे विपक्षी दल साथ नहीं  दिखे लेकिन राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म किये जाने के मुद्दे पर तकरीबन सभी  विरोधी पार्टियों के नेताओं ने हम साथ - साथ हैं का नारा लगाने में संकोच नहीं किया | इस समय दो पार्टियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहद नाराज हैं | पहली आम आदमी पार्टी और दूसरी कांग्रेस | पहली का गुस्सा मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी पर है तो दूसरे की नाराजगी राहुल को सजा मिलने और सदस्यता खत्म होने पर है | हालाँकि इन दोनों के बीच सांप और नेवले जैसा बैर  है | आज कांग्रेस जिस दुरावस्था में है उसके लिये जितनी भाजपा जिम्मेदार है उतनी ही आम आदमी पार्टी भी | लेकिन इन  दिनों  दोनों एक साथ नजर आ रहे हैं | हालाँकि इसके पीछे किसी भी प्रकार का वैचारिक परिवर्तन न होकर आपातकालीन व्यवस्था है | यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस जो किसी भी स्थिति में राहुल के नेतृत्व को स्वीकार नहीं रही , वह भी सदस्यता समाप्ति पर श्री खड़गे  के यहाँ  भोजन और बैठकों में नजर आ रही है | यही हाल कमोबेश सपा , जनता दल ( यू ) और बीआरएस का भी है | कांग्रेस ने दिल्ली में आबकारी घोटाले को लेकर आम आदमी पार्टी को कठघरे में खड़ा किया था परन्तु श्री सिसौदिया लपेटे में आये तो उसे दबी जुबान उनकी गिरफ्तारी का विरोध करना पड़ा | यही सौजन्यता बदले में अरविन्द केजरीवाल ने दिखाई | दो दिन पहले ही उनको विधानसभा में ये कहते सुना गया कि भाजपा ने बीते 7 साल में कांग्रेस के 75 साल जितना लूटा | लेकिन उसके फौरन बाद उनकी पार्टी उसी कांग्रेस के साथ बैठक और भोजन में शामिल हो गयी | इसके बाद से ये उम्मीद बढ़ चली कि राहुल की सदस्यता छीनकर केंद्र सरकार ने कांग्रेस को आपदा में अवसर दे दिया क्योंकि जो विपक्षी पार्टियाँ उसके पास आने राजी नहीं थीं वे दौड़ी – दौड़ी चली आ रही हैं | भाजपा विरोधी यू - ट्यूबर पत्रकार भी ये प्रचारित करने में जुट गये कि विपक्षी एकता का जो काम राहुल की भारत जोड़ो यात्रा न कर सकी वह सूरत की अदालत से आये फैसले के बाद सांसदी छिन जाने से हो गया | राजनीति चूंकि संभावनाओं का खेल है इसलिए इस तरह के कयास लगाने गलत नहीं हैं | और जब भाजपा कश्मीर में महबूबा मुफ्ती से गठबंधन कर सकती है और कांग्रेस ने शिवसेना को गले लगा लिया तब सोचने के लिए कुछ बचता ही कहाँ हैं ? इसलिये जब अडानी मामले में आंशिक और राहुल के मुद्दे पर तकरीबन पूरी – पूरी विपक्षी एकता नजर आई तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ | बेमेल गठबंधन और सुविधा के साथ ही संकट के समय किये जाने वाले सियासी प्रबंधों को अब जनता भी स्वीकार कर ही लेती है | 2019 के लोकसभा चुनाव में मैनपुरी सीट पर  मायावती को मंच पर मुलायम सिंह के बगल में बैठे देखना किसी अजूबे से कम न था | हालांकि , ऐसे समझौते टिकाऊ नहीं होते क्योंकि जितने भी क्षेत्रीय या छोटे दल हैं वे सैद्धांतिक या वैचारिक के बजाय व्यक्ति , परिवार , भाषा या प्रांतवाद से प्रेरित और प्रभावित होते हैं | इसीलिये उनकी सोच सीमित रहती है | इसके विपरीत राष्ट्रीय पार्टी को बहुत सी मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है | देश में इस समय भाजपा के अलावा कांग्रेस और वामपंथी दल ही हैं जिनकी सोच और दायरा सही अर्थों में राष्ट्रीय कहा जा सकता है किन्तु जनता के बीच पकड़ कमजोर होने के कारण ये दोनों ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठजोड़ करने बाध्य हैं जिनसे इनका वैचारिक मेल नहीं है | ऐसे गठबंधन कर तो भाजपा भी रही है लेकिन वह छोटे दलों को साथ लाकर अपना प्रभावक्षेत्र बढाने में सफल रही जबकि कांग्रेस और वामपंथी  क्षेत्रीय दलों को साथ लेने से अपनी जमीन गँवा बैठे | 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को लालू यादव द्वारा रोके जाने पर भाजपा ने केंद्र की वीपी सिंह के अलावा उ.प्र में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू यादव की  सरकार से समर्थन वापस ले लिया | उसके बाद कांग्रेस ने इन दोनों को टेका लगाकर भाजपा के विरुद्ध जो मोर्चेबंदी की उसका ही नुकसान है  कि देश को 120 लोकसभा सीटें देने वाले इन दोनों राज्यों में कांग्रेस दयनीय स्थिति में जा पहुँची | यही हाल वामपंथियों का हुआ | आज हालत ये हो गयी कि जिन छोटे – छोटे क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को हाशिये पर ला खड़ा किया वे ही उस पर अपनी शर्तें लादने की हिमाकत कर रहे हैं | इसका ताजा उदाहरण उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी के सावरकर विरोधी बयान पर गठबंधन तोड़ने की धमकी के रूप में पेश किया | उनके सुर में सुर मिलाते हुए शरद पवार ने भी कांग्रेस  को सावरकर के बारे में बोलते समय महाराष्ट्र के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखने की समझाइश दे डाली | क्षेत्रीय दलों के सहारे मोदी विरोधी जमावड़ा खड़ा करने की कांग्रेसी योजना को उस समय धक्का लगा जब उसके साथ आन्दोलन कर रहे क्षेत्रीय दलों के नेताओं की ओर से ये संकेत मिले कि वे बजाय कांग्रेस के झंडे तले आये , एक दूसरे को उनके प्रभाव क्षेत्र में सहायता करेंगे | मसलन ममता कर्नाटक के बंगला भाषी  क्षेत्रों में जनता दल ( सेकुलर ) का प्रचार करेंगी  तो अखिलेश यादव और श्री केजरीवाल तेलंगाना में के.सी .राव  की पार्टी  के पक्ष में दौरे करेंगे | इसी तरह नीतीश भी अनेक क्षेत्रीय दलों के समर्थन में उनके राज्यों में जायेंगे | झरखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदिवासी क्षेत्रों में घूमकर वहां के क्षेत्रीय दल को सहायता देने राजी हैं | ये संकेत आने के बाद कांग्रेस को घबराहट हो रही है क्योंकि यदि क्षेत्रीय दलों ने उसके साथ आने की बजाय परस्पर एक दूसरे के पक्ष में प्रचार करने की रणनीति अपनाई तो उससे भाजपा का तो जो होगा सो होगा , लेकिन कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ जायेंगी तथा राहुल को प्रधानमंत्री बनाने का उसका सपना धरा रह जाएगा | 2014 में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर कांग्रेस को इतने मनोवैज्ञानिक दबाव में ला दिया कि वह  क्षेत्रीय दलों के नखरे उठाने मजबूर हो गयी | लेकिन अब ऐसा लगता है कि वे भी उसकी  कमजोरी को भांपकर उसे दोबारा उठने देने के लिए राजी नहीं हैं | और इसीलिये भले ही तीसरा मोर्चा औपचारिक तौर पर न बने लेकिन कांग्रेस मुक्त विपक्ष की कल्पना को साकार करने की रूपरेखा परदे के पीछे बनने लगी है | यदि कांग्रेस इसे न समझ सके तो ये उसकी गलती है |


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 28 March 2023

सावरकर का अपमान कांग्रेस को महंगा पड़ेगा




कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने  लोकसभा सदस्यता रद्द होने के बाद  आयोजित पत्रकार वार्ता में ये पूछे जाने पर कि क्या वे मानहानि मामले में माफी मांगेंगे , कहा कि वे सावरकर नहीं , गांधी हैं | इसके पूर्व भी अनेक अवसरों पर वे स्वाधीनता संग्राम सेनानी  वीर सावरकर पर अंग्रेजों से माफी मांगकर अंडमान की जेल से रिहा होने का आरोप लगा चुके थे | सावरकर जी द्वारा लिखित   एक पत्र की प्रतिलिपि भी वे अपने दावे के समर्थन में पेश करते रहे हैं | उनके इस बयान की भाजपा तो शुरू से ही आलोचना करती रही लेकिन अविभाजित शिवसेना  इस बारे में और भी मुखर रही है | जैसा कि संजय राउत ने गत दिवस कहा भी कि छत्रपति शिवाजी और वीर सावरकर उनके आदर्श हैं जिनके बारे में किसी भी प्रकार की  अपमानजनक बात उनको मंजूर नहीं  होगी | राहुल की पत्रकार वार्ता के बाद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने धमकी भी दी कि यदि वे वीर सावरकर जी के बारे में इसी तरह आपत्तिजनक टिप्पणियां करते रहे तो उनकी पार्टी महा विकास अगाड़ी नामक गठबंधन से अलग होने बाध्य हो जायेगी | उनकी धमकी का असर गत दिवस देखने भी मिला जब कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे द्वारा आमंत्रित विपक्षी दलों की बैठक में  तृणमूल कांग्रेस , जनता दल ( यू ) और आम आदमी पार्टी ने तो शिरकत की किन्तु शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट दूर रहा | हालाँकि उद्धव ने श्री गांधी की  लोकसभा सदस्यता समाप्त किये जाने के लिए भाजपा की आलोचना की | आश्चर्य की बात है कि महाराष्ट्र के सबसे बड़े राजनीतिक नेता और राकांपा के प्रमुख शरद पवार ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा | लेकिन श्री गांधी द्वारा लगातार सावरकर जी की आलोचना करने से कांग्रेस को क्या हासिल हो रहा है ये सवाल अनुत्तरित है | इसमें दो मत नहीं है कि उनका नाम जितना भाजपा और शिवसेना लेती आईं हैं उतना अन्य कोई राजनीतिक दल नहीं लेता | और फिर उनके बारे में उत्तर भारत के लोग अपेक्षाकृत कम जानते हैं | चूंकि उनका नाम महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के साथ भी जोड़ा गया इसलिए कांग्रेस एवं उससे निकली अन्य पार्टियों के लिए वे नफरत के पात्र रहे हैं | दूसरी ओर जहां तक बात  शिवाजी की है तो वे महाराणा प्रताप की तरह ही  हमारे इतिहास के सबसे सम्मानित व्यक्तित्वों में हैं | जब 2019 के चुनाव के बाद उद्धव ठाकरे ने भाजपा से दूरी बनाकर श्री  पवार की मदद से मुख्यमंत्री पद हासिल करने की रणनीति बनाई तब कांग्रेस इसके लिए अनमनी सी थी | लेकिन भाजपा को रोकने के नाम पर गांधी परिवार ने घोर साम्प्रदायिक और हिंदूवादी पार्टी कही जाने वाली शिवसेना को सत्ता में लाने के साथ ही उसके साथ गठबंधन जैसा कड़वा घूँट पिया | हालाँकि उस सरकार का नियंत्रण श्री पवार के पास ही रहा जिसमें  कांग्रेस की  स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिक जैसी थी | इसीलिये उसके नेता नाना पटोले ने खुलकर ये कहना शुरू कर दिया कि भविष्य में कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी | यद्यपि उद्धव सरकार गिरने के बावजूद गठबंधन कायम रहा और इसी के बदौलत कांग्रेस ने हाल ही में एक विधानसभा उपचुनाव में भाजपा से उसकी परम्परागत सीट भी छीनी | लेकिन राहुल के लगातार सावरकर विरोधी बयानों से उद्धव गुट के साथ कांग्रेस का चलना कठिन है | ऐसा लगने लगा है कि पार्टी उद्धव ठाकरे से पिंड छुड़ाना चाहती है ताकि मुस्लिम और ईसाई मतों का नुकसान न हो | उल्लेखनीय है मुम्बई महानगर पालिका के चुनाव निकट भविष्य में होना हैं जिन्हें आगामी लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास कहा जा सकता है | श्री ठाकरे के लिए इस चुनाव को जीतना जीवन - मरण का सवाल होगा क्योंकि मुम्बई महानगर पालिका का बजट किसी राज्य जैसा ही है और लम्बे समय से ये ठाकरे परिवार और शिवसेना की राजनीति की उर्वरा भूमि बनी हुई है | उद्धव ठाकरे को भले ही राकांपा और कांग्रेस की सहायता से कुछ समय के लिए राज्य का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया किन्तु भाजपा से अलगाव और फिर एकनाथ शिंदे  के अलग हो जाने से उनके परिवार और बची हुई पार्टी में न तो पहले जैसी धार है और न ही आकर्षण | चुनाव आयोग ने पार्टी का चुनाव चिन्ह भी उद्धव से छीनकर उन्हें कमजोर कर दिया | बावजूद  इसके कांग्रेस यदि उद्धव गुट को अपने से दूर रखकर राजनीति करने की सोच रही है तब वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की मूर्खता करेगी | आज की स्थिति में तो वह कम से कम श्री ठाकरे के साथ महानगरपालिका और आगामी लोकसभा चुनाव में सौदेबाजी करने में सक्षम है परन्तु  सावरकर जी के बारे में राहुल और उनकी देखासीखी अन्य कांग्रेस नेताओं ने इसी तरह की बयानबाजी जारी रखी तो उस सूरत में कांग्रेस के हाथ  महाराष्ट्र में  कुछ ख़ास नहीं लगेगा क्योंकि राकांपा भी उसे बहुत ज्यादा जगह देगी , ये नहीं लगता | सावरकर जी के बहाने एक बार फिर हिंदुत्व महाराष्ट्र में सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन जाएगा | बीते  काफी समय से राहुल हिंदु धर्म  को लेकर काफी सतर्क रहे हैं | हालाँकि हिंदुत्व शब्द से उनको चिढ़ है | लेकिन शिवभक्त होने के दावे के  साथ ही वे भारत जोड़ो यात्रा के दौरान पौराणिक प्रसंगों का  उल्लेख अपने भाषणों में करते रहे |  वह देखते हुए उनका सावरकर के बारे में निरंतर अनर्गल प्रलाप महाराष्ट्र में तो पार्टी के लिए महंगा सौदा साबित होगा ही , किन्तु  उसका असर गुजरात ,  कर्नाटक के अलावा म.प्र और छत्तीसगढ़ में भी पड़ सकता है जहां मराठीभाषी मतदाता बड़ी संख्या में  न सिर्फ रहते , अपितु सावरकर जी की प्रखर राष्ट्रवादी विचारधारा और साहित्य से प्रभावित भी हैं | और फिर पता नहीं क्यों श्री गांधी अपनी स्वर्गीय दादी इंदिरा गांधी के उस पत्र को भूल जाते हैं जिसमें बतौर प्रधानमंत्री  उन्होंने सावरकर जी को महान  स्वाधीनता सेनानी बताते हुए उनके योगदान की प्रशंसा की थी |


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 27 March 2023

भारत का लोकतंत्र अमर है क्योंकि सनातन धर्म की तरह वह देश की आत्मा है



हमारे देश का लोकतंत्र निश्चित रूप से अमृत पीकर पैदा हुआ और इसीलिए न सिर्फ जिंदा अपितु तंदुरुस्त भी है।दरअसल सनातन धर्म की तरह लोकतंत्र भी हमारे देश की आत्मा है। इसीलिए आदि काल से शासन व्यवस्था समाज केंद्रित रही। भगवान राम और श्रीकृष्ण ने अलौकिक शक्तियों के बावजूद अनेक बड़े काम  समाज को साथ लेकर ही संपन्न किए। भारत का जो स्वाधीनता संग्राम आंदोलन था  उसमें भी चूंकि महात्मा गांधी ने समाज के सभी वर्गों का सहयोग लिया इसीलिए वह जनांदोलन बन सका। वस्तुतः भारत में लोकतंत्र  एक राजनीतिक व्यवस्था न होकर मानसिकता है। इसलिए जब कोई कहता है कि उसकी हत्या कर दी गई तब हंसी आती है। दरअसल ऐसा कहने वाले वे लोग हैं जो स्वयं को राजपरिवार का मानते हैं और इसीलिए जैसे ही उनकी हैसियत खतरे में पड़ती है , वे लोकतंत्र की हत्या हो गई का शोर मचाकर अपनी रक्षा में जुट जाते हैं। आजकल देश में जहां देखो लोकतंत्र की हत्या हो जाने का शिगूफा छोड़ा जा रहा है। हालांकि ये चलन काफी पुराना है। जनता की मदद से सत्ता में जमे कुछ लोगों को ये गुमान हो चला है कि वे इस देश के सर्वेसर्वा हैं । लिहाजा उनकी शान में किसी भी प्रकार की कमी न होने पाए। और जब भी ऐसा  होता है , वे लोकतंत्र की सेहत को लेकर चिंता जताते हुए इस अवधारणा को मजबूत करने का षडयंत्र रचते हैं कि उनके महत्व में कमी आई तो देश टूट जायेगा । मानो , इस देश को एकसूत्र में बांधने वाले वे ही हों। आजादी के बाद देश में राजा - महाराजाओं की रियासतें खत्म कर दी गईं। बदले में उन्हें कुछ अधिकार और सुविधाएं जरूर दी गईं जो 1969 में   भी वापस ले ली गईं। लेकिन  लोकतंत्र की आड़ में एक नव सामंतवाद अपनी जड़ें जमाने लगा । प्राचीन काल में राजा को ईश्वर का प्रतिरूप माना जाता था। उसी सोच को लोकशाही में भी दूसरी तरह से स्थापित करने का काम इन नव सामंतों ने किया । यही कारण है कि ये अपने को समाज और कानून से भी ऊपर समझने लग गए । और जब भी इनकी शान में जरा सी कमी होती है तब - तब ये लोकतंत्र और देश की रक्षा के नाम पर जनमानस को भयाक्रांत करने में जुट जाते हैं। इस वर्ग को  न तो लोक निंदा की फिक्र है और न ही कायदे कानून की। इनके मन में ये बात घर चुकी है कि ये आम जन की तुलना में बहुत श्रेष्ठ हैं अतः उनके लिए खींची मर्यादा रेखा इन पर लागू नहीं होती। इसलिए लोकतंत्र कब जीवित रहता है और कब उसकी हत्या कर दी जाती है उसका आकलन यही वर्ग करता है। इस बारे में उल्लेखनीय है , देश ही नहीं दुनिया में साम्यवादियों की पहली चुनी हुई सरकार केरल में बनी जिसके मुख्यमंत्री स्व. ईएमएस नंबूदरीपाद थे। अचानक कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष स्व. इंदिरा गांधी को एहसास हुआ कि लोकतंत्र खतरे में है और तब उनके पिता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व.पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुत्री को संतुष्ट करने के लिए उस सरकार को भंग कर दिया। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के बाद भी ये सवाल आज तक अनुत्तरित है कि जिन पं.नेहरू को इस देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय दिया जाता है ,  उन्होंने उस चुनी हुई राज्य सरकार को महज इस वजह से भंग करवा दिया कि उनकी बेटी को वह पसंद नहीं थी। उसके बाद भी  लोकतंत्र की रक्षा (?) के नाम पर कितनी चुनी हुई राज्य सरकारों को बिना किसी कारण के भंग किया जाता रहा इस पर कई शोध लिखे जा सकते हैं। कालांतर में यही प्रवृत्ति सत्ता पर काबिज अन्य विचारधारा के लोगों ने भी निर्लज्जता के साथ प्रदर्शित की । लेकिन खुद को इस देश का भाग्यविधाता समझने की जो सोच केरल की साम्यवादी सरकार को भंग करने के तौर पर विकसित हुई उसकी ही पराकाष्ठा 12 जून 1975 को देखने मिली जब अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा जी का चुनाव रद्द कर दिया। परिणामस्वरूप वे प्रधानमंत्री बने रहने की पात्र नहीं रह गईं। विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान की शपथ लेकर सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हुईं श्रीमती गांधी को सरकारी खजाने से तनख्वाह प्राप्त करने वाले एक अदना से न्यायाधीश का वह फैसला राज सत्ता से बगावत का ऐलान लगा और उन्होंने  उसका सम्मान करते हुए आने वाली पीढ़ियों के समक्ष उदाहरण पेश करने के बजाय आपातकाल थोप दिया। समूचा विपक्ष जेल में ठूंस दिया गया , मौलिक अधिकार निलंबित हो गए , उक्त फैसला बदलवाकर अपनी गद्दी सुरक्षित कर ली गई और जब 1976 में जनता का सामना करने का अवसर आया तो संसद का कार्यकाल एक साल बढ़ाकर ये साबित करने की जुर्रत की गई कि देश और लोकतंत्र वही है जो एक परिवार के हितों और महिमाओं को संरक्षित रखे । इसके विपरीत हुआ कोई भी कार्य या निर्णय  लोकतंत्र की हत्या करार दिया जावेगा। बीते 9 साल से लोकतंत्र की हत्या का शोर कुछ ज्यादा ही सुनाई दे रहा है। कारण भी किसी से छिपा नहीं है। दरअसल जबसे एक परिवार विशेष के हाथ से सत्ता की लगाम जनता ने छीनकर किसी और को दी तबसे ही कभी  संविधान खतरे में पड़ता है तो कभी न्यायपालिका। और इन सबके साथ जुड़ी संस्थाओं के बारे में भी तरह - तरह के प्रलाप होते हैं। एक छोटी सी अदालत ने  राज परिवार के एक सदस्य के बारे में कोई फैसला क्या दिया , आसमान फट पड़ा। और लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाए जाने की चिल्ल पुकार मचने लगी। बात राजघाट तक जा पहुंची। देश के लिए परिवार द्वारा किए गए बलिदानों की याद दिलाकर इस देश की वसीयत अपने नाम लिखी होने के दावे किए गए। लेकिन जिन महात्मा गांधी की समाधि पर लोकतंत्र के नाम पर आंसू बहाए जाते रहे उनके वंशजों को इस लोकतांत्रिक सामंतवाद में कौन सी जागीर दी गई, इसका बखान करने की न किसी को फुरसत मिली और जरूरत महसूस की गई। उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि लोकतंत्र की आड़ में निजी हितों को साधने की परिपाटी को विकसित करते हुए उसे राष्ट्रहित का नाम दिया जाने लगा। लेकिन 21 वीं सदी का भारत और उसमें बड़ी हो रही नई पीढ़ी को इस व्यक्ति केन्द्रित मानसिकता में कोई रुचि नहीं रही , ये बात जिन्हें अब तक समझ नहीं आई तो वे हमेशा शिकायत करते रहेंगे। लोकतंत्र का तकाजा है कि किसी के साथ अन्याय  न हो लेकिन उसी के साथ ये भी कि किसी को कानून से ऊपर न समझा जाए। ये देश और उसका लोकतंत्र किसी व्यक्ति , परिवार अथवा पार्टी की निजी जागीर न होकर तकरीबन डेढ़ अरब देशवासियों की अमानत है , जिसकी रक्षा करना वे बखूबी जानते हैं।और वह  इतना मजबूत हो चुका है कि कोई भी ताकत उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकती । अतीत में जिसने भी ये जुर्रत की उसने उसका दंड भोगा और भविष्य में भी ऐसा ही होगा।

रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 25 March 2023

जनता और कानून की अदालत दो अलग - अलग चीजें हैं




सूरत की निचली अदालत से 2 साल की सजा मिलने के एक दिन बाद ही कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता समाप्त कर दी गई। यद्यपि 10 वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किए गए फैसले के अनुसार उनकी सदस्यता रद्द होना न तो आश्चर्यजनक है और न ही अनुचित। कांग्रेस में रहे वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तो फैसले के तत्काल बाद ही सदस्यता रद्द होने के बात कह दी थी। लेकिन गत दिवस कांग्रेस सहित विपक्ष के तमाम नेता और मोदी विरोधी पत्रकार इस बात का ढिंढोरा पीटने लगे कि सदस्यता रद्द करने की जल्दी क्या थी ?  राहुल की बहिन प्रियंका वाड्रा की प्रतिक्रिया तो  क्रोध से भरी थी जिसमें उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपने परिवार के योगदान का बखान करते हुए भाई को मिली सजा को कानून के दायरे से बाहर निकालकर राजनीति का विषय बनाने  का प्रयास किया।इस मामले में एक बात फिर साफ हो गई कि इस देश में चाहे किसी को कुछ भी कष्ट हो जाए लेकिन ज्योंही बात गांधी परिवार की होती है त्योंही ऐसा लगता है मानो वह कोई शाही खानदान है जिसकी शान में गुस्ताखी नहीं  की जा सकती। जरा - जरा सी बात पर अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का स्तुतिगान करते हुए उसके सभी अपराधों अथवा गलतियों पर पर्दा डालने का योजनाबद्ध प्रयास शुरू हो जाता है। चीन द्वारा भारत की जमीन हथियाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ताबड़तोड़ आरोप लगाने वाले श्री गांधी ने आज तक पंडित नेहरू के कार्यकाल में चीन द्वारा हथियाई गई  हज़ारों वर्ग किलोमीटर भूमि को लेकर कुछ नहीं कहा। इसी तरह 12 जून 1975 को अलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा स्व.इंदिरा जी का निर्वाचन रद्द कर दिए जाने के बाद बजाय इस्तीफा देने के उन्होंने देश पर आपातकाल थोप दिया। श्री सिन्हा को सीआईए का एजेंट बताकर उनके पुतले फूंके गए। बाद में विपक्ष को जेल में डालकर उस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में रद्द करवा लिया गया। स्व.संजय गांधी का एक बयान उन दिनों खूब चर्चित हुआ कि करोड़ों लोगों द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री को भला एक अदना सा न्यायाधीश कैसे अलग करवा सकता है ? उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ  ने तो इंदिरा ही भारत और भारत ही इंदिरा जैसा नारा दिया था। वही सामंती मानसिकता  आज भी गांधी परिवार के मन में समाई हुई है। भले ही बरुआ जी आज न हों लेकिन  उन जैसे लोग इस परिवार के सदस्यों को ये महसूस करवाने में जुटे रहते हैं कि लोकतंत्र के बावजूद वे राजसी परंपरा से जुड़े हैं और इसलिए अतिरिक्त सम्मान और विशेषाधिकारों के अधिकारी हैं। सूरत से आए अदालती फैसले पर ऐतराज करने वालों को यह बात समझना चाहिए कि राहुल गांधी भी देश के एक नागरिक  हैं और कानून के सामने उनकी कोई विशिष्ट हैसियत महज़ इसलिए नहीं हो सकती कि वे इंदिरा जी के पौत्र और राजीव गांधी और सोनिया जी के पुत्र हैं। एक सांसद को जो अधिकार और सुविधाएं प्राप्त हैं उनसे ज्यादा श्री गांधी को अवश्य मिली हुई हैं क्योंकि उनके परिवार को अतिरिक्त सुरक्षा दी गई है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान वे जिस राज्य से गुजरे वहां केंद्रीय एजेंसियों की सलाह के अनुसार श्री गांधी की सुरक्षा और सुविधाओं का ध्यान रखा गया। जिसके कारण कन्याकुमारी से कश्मीर तक की  यात्रा सकुशल सम्पन्न हो सकी। यहां तक कि कश्मीर घाटी तक में कुछ नहीं हुआ। बहरहाल सूरत की अदालत और उसके बाद लोकसभा सचिवालय के फैसलों पर बजाय सहानुभूति बटोरने के यदि श्री गांधी कानून में उपलब्ध विकल्पों का चयन करते हुए आगे बढ़ें तो वे राहत की उम्मीद कर सकते हैं। अन्यथा चाहे संसद की  घेराबंदी करो या राष्ट्रपति से मिलकर ज्ञापन देते फिरो , हासिल आई शून्य ही रहेगा। इस बारे में ये भी उल्लेखनीय है श्री गांधी को 30 दिनों के भीतर कानून के जरिए राहत प्राप्त करना होगी वरना फिर जेल जाना अनिवार्य हो जाएगा। वैसे भी वे पहले व्यक्ति नहीं हैं जिनकी सांसदी अदालत  से सजा सुनाए जाने पर रद्द हुई हो। लेकिन अनेक नेताओं का ये कहना आश्चर्यजनक है कि मानहानि संबंधी कानून के प्रावधानों में बदलाव किया जाना चाहिए जिससे नेताओं द्वारा भाषणों में बोली गई बातें उससे मुक्त रहें । बेहतर होता ,राजनीतिक बिरादरी में जो बदजुबानी बढ़ रही है उससे परहेज किया जावे। इसके अलावा अब अतीत बन चुकी टिप्पणियों को याद कर मानहानि के जवाबी दावे किए जाने की चुनौतियां उछल रही हैं। अच्छा हो राहुल और उनके  परिजन राग दरबारी गाने वालों से बचकर खुद को देश का सामान्य नागरिक समझने की आदत डालें  वरना उनको और भी बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। जनता की अदालत निश्चित रूप से बड़ी है लेकिन कानून की अदालत उससे सर्वथा भिन्न है।  श्री गांधी ही नहीं बाकी नेता और राजनीतिक दल भी इस वास्तविकता को जितनी जल्दी समझ जाएं ये उनके और लोकतंत्र दोनों के लिए अच्छा रहेगा।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 24 March 2023

सजा सरकार ने नहीं अदालत ने दी है तो राहत भी उसी से मांगें



मानहानि के मामले में राहुल गांधी को दो साल की  सजा मिलने के बाद अपील हेतु एक माह का समय दिए जाने के साथ ही जमानत भी दे दी गयी | इस पर कांग्रेस पार्टी आगबबूला है | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कह रहे हैं जिस टिप्पणी पर श्री गांधी को सूरत की  अदालत ने अवमानना का दोषी माना ,  ऐसी तो राजीनीति में आये दिन होती रहती हैं | आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल कह रहे हैं ये विपक्षी दलों को कुचलने का प्रयास है | इस फैसले के विरुद्ध आन्दोलन के तैयारी भी कांग्रेस कर रही है | हालाँकि ये बात भी बार – बार दोहराई जा रही है कि हम न्यायपालिका का सम्मान करते हैं  | दरअसल कांग्रेस को चिंता इस बात की है कि यदि श्री गांधी को ऊपरी अदालत से सजा के विरुद्ध स्थगन नहीं मिला और उनको जेल जाना पड़ा तब उनकी लोकसभा सदस्यता खत्म होने के साथ ही आगामी छः वर्ष तक चुनाव लड़ने पर रोक लग सकती है | हालांकि उनका अपराध ऐसा नहीं है कि स्थगन न मिले लेकिन खुदा न खास्ता वैसा हो गया तब कांग्रेस का पूरा खेल खराब हो जाएगा | बहरहाल इस मामले के कानूनी पक्ष पर आएं तो श्री गांधी ने अदालत में अपनी सफाई में कहा था कि सभी मोदी चोर हैं वाली टिप्पणी में किसी के प्रति दुर्भावनावश नहीं थी तो उन्हें वहीं क्षमा  याचना कर लेनी चाहिये थी  | अतीत में राफेल लड़ाकू विमान सौदे के बारे में उनके चौकीदार चोर है  वाले बयान पर उन्हें सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद खेद की बजाय माफी मांगनी पड़ी थी | रास्वसंघ पर गांधीजी की हत्या संबंधी  बेबुनियाद आरोप लगाने के मामले में भी वे सर्वोच्च न्यायलय की फटकार खा चुके हैं | उनके लन्दन में दिए गए हालिया भाषण पर भाजपा द्वारा क्षमा याचना की  मांग किये जाने पर कांग्रेस  पार्टी का एक  ट्वीट काफी चर्चा में आया कि मैं राहुल गांधी हूँ , सावरकर नहीं | उल्लेखनीय है श्री गांधी स्वातंत्र्य वीर सावरकर पर सदैव आरोप लगाया करते हैं कि उन्होंने अंडमान की जेल से रिहाई हेतु अंग्रेजी सत्ता से लिखित माफी मांगते हुए उसके वफादार बने रहने का पत्र लिखा था |  कुछ साल पहले अरविन्द केजरीवाल द्वारा  केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी और अकाली नेता विक्रम मजीठिया से मानहानि प्रकरण में लिखित क्षमा याचना करने के बाद दोनों ने उनके विरुद्ध मानहानि प्रकरण वापस ले लिया था | लेकिन लगता है श्री गांधी के जो भी सलाहकार हैं वे उनकी नासमझी का लाभ लेकर  इस तरह के विवादों में उलझाकर उनकी छवि और समय दोनों खराब करते हैं | यद्यपि  लम्बे समय  से राष्ट्रीय राजनीति में रहने के बावजूद वे अभी भी अपरिपक्वता का परिचय गाहे -  बगाहे देते रहते हैं | कुछ दिन पहले पत्रकार वार्ता में वे बोल गए कि दुर्भाग्य से मैं सांसद हूँ और तब बगल में बैठे कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने उनके कान में कहा कि  ये बात  मजाक का विषय बन जायेगी तब श्री गांधी ने संभलते हुए कहा कि दुर्भाग्य से मैं आपके सवालों  का जवाब नहीं  दे पाऊँगा |  लेकिन सामने रखे माइक चालू रहने से श्री रमेश द्वारा दी गयी समझाइश सबको सुनाई  दे गई | ऐसे में ये मान भी लें कि श्री गांधी ने सभी मोदी चोर हैं , जैसी टिप्पणी बिना आगा पीछे सोचे कर दी होगी और उनका मकसद किसी व्यक्ति या जाति विशेष को आहत करने का नहीं था तब उन्हें बिना शर्त माफी मांग लेना चाहिए था | ऐसे में ये प्रकरण प्रारम्भिक अवस्था में ही खत्म हो सकता था | इस तरह के  दर्जनों उदाहरण हैं  जहां बिना अकड़ दिखाए क्षमा याचना कर लेने पर विवाद समाप्त हो गया | बहरहाल , अब मामले को राजनीतिक तूल देने के पीछे कांग्रेस पार्टी की घबराहट सामने आ रही है | ऐसा लगता है राहुल को ये भय  सता रहा है कि यदि उन्हें जेल जाना पड़ा तो उनकी सांसदी खत्म होने से ज्यादा 6 वर्ष तक  चुनावी राजनीति से दूर रहने की परिस्थिति उनके भविष्य पर पानी फेर देगी | उन्हें निश्चित रूप से लालू यादव का हश्र याद आ रहा होगा | और ये भी कि यदि 10 साल पहले उनकी ही सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के  2  वर्ष  या उससे अधिक की सजा मिलते ही संसद की सदस्यता खत्म होने संबंधी फैसले को बेअसर करने के लिए मनमोहन सरकार द्वारा तैयार किय गए अध्यादेश को यदि बीच पत्रकार वार्ता में आकर वे फाड़ने की बात न कहते और दबाववश सरकार द्वारा उसे वापिस न लिया होता तब आज उनके  भविष्य पर प्रश्नचिन्ह न लगते | बहरहाल , अब घड़ी की सुइयाँ पीछे नहीं लौट सकतीं | और ऐसे में श्री गाँधी और कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष को अपना ध्यान कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत बचाव पर लगाना चाहिए क्योंकि सजा सरकार ने नहीं अपितु न्यायालय ने दी है और  राहत भी ऊपरी अदालत ही दे सकेगी  | ऐसे में धरना , प्रदर्शन , ज्ञापन आदि से कोई लाभ नहीं होने वाला | अदालत के फैसले को बदलने की हिमाकत राहुल की स्वर्गीया दादी द्वारा आपातकाल लगाकर की गयी थी जिसकी भारी कीमत उन्हें चुनावी हार के तौर पर चुकानी पड़ी |  वैसे ही इस प्रकरण से सभी राजनेताओं को सबक लेना चाहिए जो जुबान पर लगाम न  होने की वजह से कुछ भी आंय - बाँय बक जाते हैं | राहुल के लन्दन वाले बयानों पर भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा द्वारा उनकी तुलना मीर  जाफर से किया  जाना भी उसी श्रेणी में आता है | दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल ने विधानसभा में केंद्र सरकार के बारे में कहा कि ऊपर से नीचे तक अनपढ़ बिठा रखे हैं | कल वे जन्तर – मन्तर की रैली में बोले प्रधानमंत्री का 18 घंटे काम करना नींद न  आने की बीमारी है | उधर सत्ता पक्ष भी विपक्ष के बारे में ख़ास तौर पर श्री गांधी और श्री केजरीवाल पर अनावश्यक टिप्पणियां  करता है | इन सबसे राजनीति और राजनेताओं की छवि और सम्मान गिर रहा है | बेहतर हो सभी  दल इस बारे में खुद होकर आचार संहिता बनाएं जिससे  शब्दों की मर्यादा बनी रह सके | यदि कोई नेता किसी के बारे में अपमानजनक बात कहता है और  उसकी पार्टी ही उसके कान खींच दे तो वह उदाहरण बन सकता है | बेहतर हो श्री गांधी अभी भी क्षमा याचना कर लें तो सम्भव है इस विवाद का पटाक्षेप हो जाए | अन्यथा मुसीबत ने उनका घर तो देख ही लिया है।


 रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 23 March 2023

परिवार के सदस्य की छवि शिवराज की सबसे बड़ी शक्ति



म. प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तीन वर्ष पूर्व जब पुनः सत्ता में आए तब देश बहुत ही विषम परिस्थितियों से घिर चुका था। कोरोना के  कदम देहलीज पार कर घर के भीतर आने लगे थे । साधारण बोलचाल में इसे सिर मुंढ़ाते ही ओले पड़ना कहा जाता है। देखते - देखते एक सदी के बाद आई आपदा ने देश और प्रदेश ही नहीं समूचे विश्व को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया। 25 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री ने राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन लागू कर दिया। जनता घरों में बंद हो गई, बाजारों में सन्नाटा पसर गया। सर्वत्र एक अदृश्य भय व्याप्त था। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या होने वाला है और लॉक डाउन कब तक चलेगा। ऐसे हालातों में 15 महीने सरकार से बाहर रहने के बाद श्री चौहान को अचानक सत्ता संचालन का अवसर मिलना बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ने से भी कठिन चुनौती थी। लेकिन  जनता के साथ सीधे जुड़ाव के कारण उन्होंने बिना समय गंवाए शासन और प्रशासन को आपदा से निपटने के लिए तैयार किया , जिसके आगे का घटनाक्रम सर्वविदित है। ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उन परिस्थितियों में यदि कोई और मुख्यमंत्री होता तब उस आपदा के समय सरकार , अपने दायित्वों का निर्वहन उस कुशलता ने न कर पाती। मुश्किल हालातों में भी धैर्य बनाए रखते हुए सत्ता का संचालन करने की विलक्षण क्षमता शायद  दर्शन शास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण उनमें नैसर्गिक तौर पर है। कोरोना के पूर्व  जब वे लगातार सत्ता में रहे तब भी उनके स्वभाव की सरलता और लोकाचार में सहजता ,  जनता के बीच  पैठ बनाने में सहायक साबित हुई। महिलाओं और बालिकाओं के उत्थान हेतु उन्होंने जो कल्याणकारी योजनाएं लागू कीं उन्हें राजनीतिक विरोध के बावजूद अनेक राज्य सरकारों ने अपनाया जो बड़ी बात है। जनता के बीच अपनी मामा छवि की वजह से वे बजाय मुख्यमंत्री के परिवार के सदस्य के तौर पर लोकप्रिय हो गए। प्रदेश के घर - घर में लोग उनको इसी संबोधन से जानते हैं। शिवराज की सफलता में लगातार परिश्रम करते रहना भी बड़ा कारण है। भोपाल की सुविधाजनक जिंदगी छोड़ तकरीबन रोज सुबह उठकर प्रदेश के किसी भी अंचल में पहुंचकर जनता की समस्याओं का प्रत्यक्ष अवलोकन करते हुए उनका तत्काल समाधान करने की कार्यशैली के कारण ही वे देश के सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में शुमार किए जाते हैं। डेढ़ दशक से भी अधिक से सत्ता में रहने के बाद भी श्री चौहान विनम्रता की प्रतिमूर्ति हैं। सत्ता का अहंकार उनको छू भी नहीं गया है। अपनी पार्टी के अलावा विपक्ष के साथ भी व्यवहार में किसी भी प्रकार की कटुता उनके  मन में नहीं दिखाई देती। इसीलिए वे बदले की राजनीति से परे रहकर शांत भाव से कार्य करते रहते हैं। लेकिन प्रशासनिक दृढ़ता के मामले में भी शिवराज एक उदाहरण हैं। हर समय केवल कार्य में डूबे रहने की उनकी आदत के कारण ही म.प्र आज बीमारू राज्य के कलंक को धोते हुए तेजी से विकास की ओर बढ़ता जा रहा है। 2003 में बिजली , पानी और सड़क के जिन  मुद्दों पर दिग्विजय सरकार को जनता ने नकार दिया था , वे अतीत के विषय बन चुके हैं। प्रदेश के हर कोने में बिजली की उपलब्धता है। किसान को सिंचाई के लिए जितनी बिजली श्री चौहान के कार्यकाल में दी जा रही है वह कीर्तिमान है। सड़कों के मामले में भी चमत्कारिक सुधार सर्वत्र नजर आता है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के प्रकल्पों को तेजी से स्वीकृत  करते हुए उन्हें समय पर पूरा करने पर उनका ध्यान रहने से म.प्र की तस्वीर ही बदल गई है। सिंचाई और पेयजल आपूर्ति के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति शिवराज के राज में देखी जा सकती है। सामाजिक कल्याण की अनेकानेक योजनाएं उनकी संवेदनशीलता का प्रमाण हैं। हाल ही में हुई ओलावृष्टि के कारण किसानों की फसलों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए जिस तत्परता से उन्होंने कदम उठाए वह इस बात को साबित करता है  कि श्री चौहान का जमीन से जुड़ाव कितना गहरा है। प्रदेश की जनता के मन में  परिवार के  सदस्य वाली  छवि ही श्री चौहान की सबसे बड़ी शक्ति है । आज के दौर में  किसी राजनेता के लिए जनता से ऐसी आत्मीयता हासिल करना बेहद कठिन होता जा रहा है , लेकिन श्री चौहान ने इस अवधारणा को ध्वस्त कर दिया है। बीते तीन साल में उनकी कार्यशैली में जो परिपक्वता नजर आने लगी है उसी के परिणामस्वरूप म.प्र निवेशकों को आकर्षित कर रहा है। पर्यटन के क्षेत्र में भी आशातीत प्रगति शिवराज की सफलता का प्रमाण है। लेकिन कृषि के क्षेत्र में प्रदेश को पंजाब और हरियाणा के मुकाबले खड़ा करने के बाद उनसे आगे निकलने की जो कामयाबी मिली उसके लिए श्री चौहान वाकई अभिनंदन के हकदार हैं। उनकी राजनीतिक यात्रा  एक साधारण कार्यकर्ता के रूप में प्रारंभ हुई लेकिन अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और मूल्यों में  अखंड आस्था के कारण वे बिना विचलित  हुए निरंतर कर्तव्य पथ पर गतिमान  हैं। इस वर्ष म. प्र में विधानसभा चुनाव होंगे । और ये निश्चित है कि वे ही अपनी पार्टी के सेनापति की भूमिका में रहेंगे। उनका अनुभव और परिश्रमी प्रवृत्ति उनकी भावी सफलताओं का संकेत दे रही है। 

रवीन्द्र वाजपेयी
संपादक, मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस, जबलपुर

Tuesday 21 March 2023

खालिस्तान विरोधी कार्रवाई में राजनीति को दूर रखे आम आदमी पार्टी



पंजाब पुलिस बीते कुछ दिनों से वारिस पंजाब दे नामक संगठन के अध्यक्ष अमृतपाल सिंह की तलाश में जुटी हुई है | अमृतपाल खालिस्तान का समर्थन करते हुए  पंजाब में युवाओं को हथियारबंद होने के लिये प्रेरित कर रहा है | अजनाला के  एक पुलिस थाने पर सैकड़ों सशस्त्र  लोगों के साथ हमला करने के बाद अपने गिरफ्तार साथी को जबरन रिहा करवाने और उसके विरुद्ध कायम मामले को वापस लेने के लिए पुलिस को मजबूर कर हमलावर सीना तानकर लौट आये | बाद में अधिकारियों ने सफाई दी कि भीड़ चूंकि गुरु ग्रन्थ साहेब और पालकी साहेब साथ लिए थी इसलिए धार्मिक भावनाओं के सम्मान की खातिर उन्हें संयम रखना पड़ा  | उस घटना की देशव्यापी निंदा हुई और ये कहा  जाने लगा कि पंजाब की भगवंत  सरकार खालिस्तान समर्थकों को बढ़ावा दे रही है | इस बारे में जो रिपोर्ट्स सामने आईं उनसे स्पष्ट हो गया कि अमृतपाल के दुबई से  अपना  परिवहन व्यवसाय छोड़कर पंजाब लौटने के पीछे विदेशी साजिश है | जिस तरह देखते – देखते उसने हथियारबंद युवकों का संगठन वारिस दे पंजाब  नाम से राज्य के अंदरूनी इलाकों में फैलाया और भड़काऊ भाषणों के जरिये सिखों के अलग देश की मांग को खुलकर आवाज दी उससे पंजाब में नब्बे के दशक के आतंकवादी माहौल की   यादें  ताजा होने लगीं | अनेक हिन्दू धार्मिक स्थलों पर हमले भी देखने मिले  | लेकिन आम आदमी पार्टी की  सरकार इस बारे में उदासीन और लापरवाह बनी रही | अजनाला की घटना के बाद जब चौतरफा आलोचना हुई तब थोड़ा बहुत ध्यान दिया गया लेकिन उसके बाद भी अमृतपाल को छूने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी | चूंकि कानून व्यवस्था राज्य का मामला है इसलिए केंद्र ने जल्दबाजी नहीं  दिखाई किन्तु जब लगा कि चीजें हाथ से निकल रही हैं तब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मुख्यमंत्री  को दिल्ली बुलाकर ख़ुफ़िया  रिपोर्टों की जानकारी देते हुए स्थिति की गंभीरता से अवगत करवाया और उसी के तहत कड़ी कार्रवाई की जरूरत जताते हुए केंद्र सरकार से  पूरी मदद का आश्वासन भी दिया | उनको ये भी समझा दिया गया कि सीमावर्ती राज्य होने से पंजाब बेहद सम्वेदनशील है और कश्मीर में 370 की समाप्ति  से शान्ति कायम होने के बाद  पाकिस्तान ने  रणनीति बदलते हुए एक बार पंजाब में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिये खालिस्तानी आन्दोलन को हवा दी | उल्लेखनीय है कैनेडा और ब्रिटेन में सिखों के अनेक संगठन खालिस्तान की वकालत करते रहे हैं और भारत विरोधी तत्वों को उनकी तरफ से पैसा प्रशिक्षण और हथियार मिलते हैं | केंद्र ने श्री मान को जब हालात की गम्भीरता समझाई तब  उनकी सरकार हरकत में आई और अमृतपाल के साथियों की गिरफ्तारी  शुरू की गयी | पिछले तीन चार दिनों में ही वारिस दे  पंजाब के दर्जनों सदस्य और अमृतपाल के परिवारजन गिरफ्त में आ चुके हैं,  जिनके पास से काफी हथियार और ऐसे दस्तावेज मिले  जो केन्द्रीय रिपोर्टो की पुष्टि करते हैं | लेकिन  अमृतपाल पुलिस के  हाथों  आने से पहले चकमा देकर भाग गया | पंजाब पुलिस के तमाम दावों के बाद उसका सुराग नहीं मिल रहा | इसे लेकर आज पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की खिंचाई करते हुए पूछा कि 80 हजार पुलिस बल क्या कर रहा है ? लेकिन इससे अलग आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में राजनीति शुरू कर दी | गत दिवस सरकार के दो मंत्रियों ने पत्रकार वार्ता में पंजाब सरकार की पीठ ठोकते हुए शेखी  बघारी कि मान सरकार आतंकवाद के विरुद्ध साहसिक कदम उठा रही है | लेकिन उन दोनों ने केंद्र सरकार द्वारा पंजाब के मुख्यमंत्री को दी गई  जानकारी और सहयोग के आश्वासन के बारे में कुछ भी कहने में कंजूसी की | अमृतपाल के समर्थकों और साथियों की गिरफ्तारी निश्चित तौर पर स्वागतयोग्य है | लेकिन उसे पकड़ने में पुलिस को जो असफलता मिल रही है उससे ये साबित होता है कि वारिस दे पंजाब संगठन ने राज्य के भीतर अपनी जड़ें काफी मजबूती से जमा ली हैं और इसीलिये अमृतपाल के छिपे होने के बारे में पुलिस और उसके खुफियातंत्र को भनक तक  नहीं लग रही | ऐसे में बजाय डींगें हांकने के आम आदमी पार्टी के नेताओं को अमृतपाल की गिरफ्तारी होने तक रुकना चाहिए था | सही बात तो ये है कि बीते एक साल में पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद से क़ानून व्यवस्था की स्थिति बेहद ख़राब हो चली थी | इसी कारण से अमृतपाल को पैर ज़माने में आसानी हो गयी | बेहतर होता पार्टी  के नेता इस बात  को स्वीकार करते कि केंद्र सरकार ने अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए श्री मान को बुलाकर सही  कदम उठाने की हिम्मत दी | वरना वे  इस बारे में कितने कमजोर हैं इसका उदाहरण इस बात से मिला जब मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके द्वारा रिक्त की गयी संगरूर लोकसभा सीट पर कट्टर खालिस्तान समर्थक पूर्व आईपीएस अधिकारी सिमरनजीत सिंह मान जीतकर सांसद बन गये | उसी के बाद से आम आदमी पार्टी और भगवंत मान पर खालिस्तान आन्दोलन के प्रति नर्म रवैया अपनाने का आरोप लगने लगा था | ऐसे मामलों में राजनीति को परे रखकर देश की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए | ये बात आम आदमी पार्टी जितनी जल्दी समझ जाए उतना अच्छा वर्ना खुद को राष्ट्रीय पार्टी सबित करने के उसके दावे पर कोई भरोसा नहीं करेगा |

रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 20 March 2023

गृहयुद्ध की आशंका : गहलोत का बेहद गैर जिम्मेदाराना बया



राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत देश के सबसे अनुभवी राजनेताओं में से हैं | इस प्रदेश की सीमाएं पाकिस्तान से सटे होने से राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी यह बेहद संवेदनशील है | ऐसे में उनसे जिम्मेदार आचरण की अपेक्षा ही नहीं अपितु आवश्यकता भी है | कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में उनकी गिनती होती है और इसीलिये गांधी परिवार उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना चाह रहा था किन्तु मुख्यमंत्री की गद्दी के मोह ने उन्हें विद्रोही तेवर दिखाने बाध्य कर दिया । उनके अड़ियल रुख के सामने गांधी परिवार को भी झुकना पड़ा जो उन्हें हटाकर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाये जाने के लिये काफी समय से प्रयासरत है | बहरहाल मल्लिकार्जुन खडगे के अध्यक्ष बन जाने के बाद वह बात तो आई गई हो गयी और श्री गहलोत आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में पूरी ताकत से जुटे गये | यद्यपि श्री पायलट भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे | वैसे ये सब तो भारतीय राजनीति में आये दिन देखने मिलता है और कोई भी राजनीतिक पार्टी इससे अछूती नहीं रही | लेकिन एक राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते श्री गहलोत की जिम्मेदारी देश की एकता और अखंडता की रक्षा करना भी है । यदि उन्हें लगता है कि उसको किसी भी तरह का खतरा है तो राज्य के स्तर के अलावा केंद्र सरकार से भी समन्वय बनाकर तत्काल जरूरी कदम उठाये जाने चाहिए | लेकिन गत दिवस कांग्रेस अध्यक्ष श्री खडगे से मिलने के बाद संवाददाताओं के समक्ष विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार रखते हुए श्री गहलोत ये कह गए कि देश में असंतोष यदि एक सीमा से ज्यादा बढ़ा तो गृह युद्ध हो जाएगा जैसा दुनिया के कुछ देशों में हो चुका है | अपनी बात को बल देने के लिए उन्होंने बेरोजगारी , महंगाई , आर्थिक विषमता और सरकारी जाँच एजेंसियों के दुरूपयोग जैसे मुद्दे उठाये | हालाँकि गृह युद्ध जैसी गंभीर बात वे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होते समय ही कह चुके थे | तब उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया लेकिन देश की वर्तमान परिस्थितियों में गृहयुद्ध की आशंका देश के सबसे बड़े सीमावर्ती राज्य का मुख्यमंत्री व्यक्त करे तो क्या ये उचित है ? आम तौर पर इस तरह की बातें अलगाववादी और माओवादी करते हैं | कश्मीर के अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में जो भी संगठन देश से लागू होने के लिए हिंसक संघर्ष करते रहे उन सभी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यही प्रचार किया कि वे भारत के विरुद्ध जंग लड़ रहे हैं | पंजाब में भी इन दिनों ये बात खालिस्तानी समर्थक उछाल रहे हैं कि देश गुलाम है | अमृतपाल सिंह नामक जो अलगाववादी भिंडरावाले के नए अवतार के तौर पर सामने आया है उसके हथियारबंद समर्थक थाने पर सशस्त्र धावा बोलकर अपने साथी को रिहा करवा लाए | बीते तीन दिनों से पंजाब पुलिस अमृतपाल को ढूंढ रही है | उसके साथी बड़ी संख्या में गिरफ्तार किये जा चुके हैं जिनके पास हथियार भी बरामद हुए | कुल मिलाकर राष्ट्रविरोधी शक्तियां आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न करने में जुटी हैं जिन्हें शत्रु देशों से मदद मिल रही है | इस बारे में पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार ने समझदारी का परिचय दिया | अजनाला की घटना के बाद केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान को बुलाकर अमृतपाल और उसके साथियों के विरुद्ध कड़े कदम उठाने की सलाह के साथ केंद्र की मदद का आश्वासन भी दिया | केंद्र सरकार से छत्तीस का आंकड़ा होने के बाद भी श्री मान ने खालिस्तान की मांग उठाने वाले अमृतपाल और उसके साथियों की घेराबंदी शुरू कर दी | बेहतर होता श्री गहलोत इस उदाहरण से कुछ सीख लेते | एक राज्य का मुख्यमंत्री राजनीतिक मतभेदों के कारण केंद्र सरकार की आलोचना करे तो उसे स्वाभाविक माना जायेगा किन्तु वह प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए गृहयुद्ध की आशंका जताए तो ये एक तरह की धमकी मानी जायेगी | यदि श्री गहलोत के पास इस आशय की कोई भी जानकारी है तो उन्हें बजाय पत्रकार वार्ता के केंद्र सरकार को अग्रेषित करना चाहिए | भारत संघीय गणराज्य है जिसमें कानून व्यवस्था निश्चित रूप से राज्यों का विषय है लेकिन देश की सुरक्षा का जिम्मा केंद्र का है | आन्तरिक सुरक्षा के लिए उत्पन्न किसी भी समस्या का सामना दोनों मिलकर करते हैं | गृहयुद्ध ऐसा ही मामला है जिससे निपटने के लिए राज्य और केंद्र को मिलकर कार्य करने की जरूरत है | उस दृष्टि से श्री गहलोत को कोई आशंका नजर आ रही है तो उन्हें सीधे प्रधानमंत्री और केन्द्रीय गृह मंत्री से मिलकर उसके बारे में बताना चाहिए | वैसे जिन सन्दर्भों में श्री गहलोत ने गृहयुद्ध की बात कही उनसे तो लगता है कि इतने लम्बे राजनीतिक अनुभव के बाद भी वे भारतीय जनमानस को नहीं पढ़ सके जिसने तमाम समस्याओं और विषम परिस्थितियों के बावजूद हिंसा का सहारा नहीं लिया | विपक्षी नेताओं पर सीबीआई और ईडी द्वारा शिकंजा कसे जाने को लोकतंत्र के लिए खतरा बताकर कितना भी दुष्प्रचार किया जाए लेकिन जनता हडबडाहट में कोई फैसला करने के बजाय सही समय का इंतजार करती है | 1975 में स्व. इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर पूरे विपक्ष को जेल में डाल दिया | जनता से उसके मौलिक अधिकार तक छीन लिए गए किन्तु न कोई विद्रोह हुआ और न गृहयुद्ध की स्थिति बनी | लेकिन 19 माह जब लोकसभा चुनाव हुए तब जनता ने मतदान के जरिये इंदिरा जी को गद्दी से उतार दिया | इसी तरह 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद सेना के एक गुट द्वारा विद्रोह की कोशिश हुई लेकिन वह नाकामयाब साबित हुई | पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन के दौर में ये लगता था कि वह हिस्सा देश से अलग हो जाएगा किन्तु उसके बाद भी वहां कांग्रेस की सरकार बनती रही | कश्मीर को भी हिंसा के सहारे भारत से अलग करने का मंसूबा यदि पूरा नहीं हो सका तो उसका कारण यही है कि भारत की जनता शांत स्वभाव की है | महंगाई , बेरोजगारी , आर्थिक विषमता और ऐसी ही अन्य समस्याएं आजादी के बाद से ही चली आ रही हैं | लोग इनके लिए सरकार के सामने अपना विरोध भी व्यक्त करते हैं किन्तु जिस आन्दोलन में हिंसा या देश विरोधी बात होती है वह दम तोड़ देता है | दिल्ली में साल भर से ज्यादा चले किसान आन्दोलन में जब देश विरोधी तत्व घुसे और गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर खालिस्तानी झन्डा फहराने जैसा कृत्य किया गया त्योंही उस आन्दोलन का नैतिक पक्ष कमजोर होता गया | देश के अनेक हिस्सों में भाषा , क्षेत्र , पानी आदि को लेकर विवाद हैं | उनके चलते आन्दोलन भी हुए लेकिन गृहयुद्ध जैसी बात आज तक किसी ने नहीं की क्योंकि ये भारतीय जनता को किसी भी स्थिति में मंजूर नहीं होता | ये देखते हुए श्री गहलोत जैसे अनुभवी राजनेता द्वारा जो अतीत में केन्द्रीय मंत्री भी रहा हो , इस तरह की बेहद गैर जिम्मेदाराना बात कहना दुर्भाग्यपूर्ण है | कांग्रेस पार्टी को चाहिए कि वह उनसे इस बारे में पूछताछ करे और यदि उनके पास वाकई इस आशंका का कोई आधार है तो फ़ौरन केंद्र सरकार को उसकी सूचना दी जाए अन्यथा श्री गहलोत अपनी गलती स्वीकार करें |

रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 18 March 2023

क्षेत्रीय दल बन रहे कांग्रेस के लिए मुसीबत



कांग्रेस  के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की  बहुचर्चित भारत जोड़ो यात्रा के पूर्ण होने के बाद ये माना जा रहा था कि इस यात्रा से उनका नया  अवतार हुआ है जो पूर्वापेक्षा ज्यादा परिपक्व , गंभीर और दायित्वबोध से परिपूर्ण है | मोदी विरोधी मीडिया विशेष रूप से यू ट्यूबर पत्रकारों ने तो उनमें भावी प्रधानमंत्री की छवि देखनी भी शुरू कर दी | यात्रा खत्म होने के बाद से कांग्रेस सुनियोजित तरीके से श्री गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाने का प्रयास कर रही है | नागपुर में हुए कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन में सोनिया गांधी ने राजनीति से सन्यास लेने का संकेत देने के साथ ही  उक्त यात्रा को राजनीति का टर्निंग प्वाइंट बताकर बाकी विपक्षी दलों को ये संकेत दे दिया कि अब उन्हें राहुल के नेतृत्व में ही कार्य करना होगा | सही मायनों में भारत  जोड़ो यात्रा का असली उद्देश्य था ही श्री गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र बिंदु में स्थापित करना, जिससे उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद हेतु नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में पेश किया जा सके | यात्रा के बाद कुछ समय तो उसका असर दिखा किन्तु जल्द ही विपक्षी दलों  ने इस बात का आकलन करना शुरू कर दिया कि कांग्रेस के साथ जाने में फायदा होगा या दूर रहने में | विशेष रूप से वे क्षेत्रीय दल जो  कांग्रेस से निकलकर बने या फिर उनके प्रभावक्षेत्र में कांग्रेस की स्थिति बेहद कमजोर है ,उसे किसी भी प्रकार से महत्व  देने तैयार नहीं हैं | यही वजह है कि शरद पवार जैसे नेता भी , जिसने महाराष्ट्र में कांग्रेस को शिवसेना  के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिये मजबूर कर दिया , कांग्रेस के नेतृत्व में चलने से बच रहे हैं | संसद में गौतम अडानी समूह को लेकर जो गतिरोध इस सत्र में बना हुआ है उसमें कांग्रेस के साथ एनसीपी , तृणमूल कांग्रेस , सपा , बीजद , वाईएसआर कांग्रेस , तेलुगुदेशम , बसपा जैसी पार्टियों के न आने से विपक्षी एकता का जैसा स्वरूप कांग्रेस चाहती है वह नहीं  बन पा रहा | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गत दिवस सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव द्वारा कोलकाता में ममता बैनर्जी से मिलकर क्षेत्रीय दलों का भाजपा और कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाने की घोषणा से हुआ | भले ही अभी बाकी क्षेत्रीय दलों की सहमति नहीं मिल पाई किन्तु ममता और अखिलेश ही यदि कांग्रेस को किनारे करने आगे आये तो प.बंगाल और उ.प्र में लोकसभा की 125  सीटों पर वह लड़ाई में नजर आने लायक तक  नहीं रहेगी | और यही ममता चाहती रही हैं जिससे प्रधानमंत्री के लिए मुकाबला राहुल  बनाम  मोदी बनाने की कांग्रेस की सोच कारगर न  हो सके | संसद में जो क्षेत्रीय दल कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा बुलाई जा रही बैठकों से दूरी बनाये हुए हैं वे भी अपने फायदे के लिए सपा और तृणमूल द्वारा बनाये जा रहे तीसरे मोर्चे में आ सकते हैं | इस बारे में  उल्लेखनीय है कि उक्त दोनों नेता ये समझ गये हैं कि चुनाव पूर्व कांग्रेस के साथ गठबंधन से उसको  फायदा होगा क्योंकि वह उनके राज्यों में भी सीटें मांगेगी | लेकिन चुनाव बाद यदि किसी को बहुमत न  मिला तब 25 – 30 सांसदों वाले गुट के पास सत्ता की चाबी  होगी | जितने भी चुनाव सर्वे आ रहे हैं उनके अनुसार कांग्रेस किसी भी स्थिति में 100 का आंकडा छूने की स्थिति में नहीं है | और उससे कहीं ज्यादा ताकत क्षेत्रीय दलों के पास संयुक्त रूप से  रहेगी | जिससे भाजपा - कांग्रेस को पीछे छोड़कर ममता या वैसा ही अन्य कोई विपक्षी नेता प्रधानमंत्री बन सकेगा | देवगौड़ा और गुजराल जैसे प्रयोग को दोहराए जाने की सोच अखिलेश और ममता के मन में हैं | चाहते तो श्री पवार भी मन ही मन कुछ – कुछ ऐसा ही हैं परन्तु वे चुप रहकर काम करने वालों में से हैं | इसीलिये विपक्षी मोर्चे के सवाल पर उन्होंने ये प्रस्ताव दिया था कि जो विपक्षी पार्टी जहां ताकतवर है उसे उसके राज्य में  भाजपा से लड़ने दिया जाए | और चुनाव बाद आगे की राजनीति तय हो  | यद्यपि उनके सुझाव पर किसी ने भी प्रतिक्रया नहीं दी लेकिन इस सबसे एक बात साफ़ हो रही है कि भाजपा के विरोध में मोर्चा बनाने की बजाय कुछ विपक्षी दल कांग्रेस की राह में कांटे बिछाने सक्रिय हो उठे हैं | दरअसल 2017 में  कांग्रेस  के साथ  मिलकर उ.प्र विधानसभा चुनाव लड़ने का जो कटु अनुभव अखिलेश को है उसके  कारण वे राहुल के साथ खड़े होने राजी नहीं है | ममता भी इस बात से खार खाये बैठी हैं कि कांग्रेस उनके घोर शत्रु वामपंथियों के साथ प.बंगाल के साथ ही पूर्वोत्तर राज्यों में गठबंधन बनाये हुए है | ये सब देखते हुए  कहना पड़ रहा है कि श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का क्या लाभ उन्हें या कांग्रेस को हुआ ये तो फिलहाल कहना मुश्किल है लेकिन इतना जरूर समझ में आने लगा है कि वह पूरे  विपक्ष को भाजपा के विरुद्ध जोड़ने में विफल साबित हो रही है | अखिलेश और ममता की जुगलबंदी से एक बात शीशे की तरह से साफ है कि क्षेत्रीय दल अपने अस्तित्व के लिये भाजपा से भयभीत तो हैं लेकिन वे कांग्रेस को भी दोबारा उभरने का अवसर भी नहीं देना चाह रहे |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 17 March 2023

संसद असफल रही तब जनता सड़क पर फैसले करेगी



संसद सोमवार तक के लिए स्थगित हो गयी | सता पक्ष की जिद हैं राहुल गांधी केम्ब्रिज में दिए गए भाषण के लिए माफी मांगें | कांग्रेस  इसके लिए साफ इंकार कर चुकी है | इसी के साथ राहुल ने लोकसभा में अपनी ब्रिटेन यात्रा के बारे में स्थिति स्पष्ट करने की इच्छा व्यक्त की है किन्तु उनके माफी नामे के बिना इसके लिए सत्ता पक्ष राजी नहीं है |  दूसरी तरफ अधिकांश विपक्ष इस बात के लिए अड़ा हुआ है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट में गौतम अडानी की कंपनियों पर वित्तीय गड़बड़ियों के जो आरोप लगे हैं उनकी जाँच हेतु जेपीसी ( संयुक्त संसदीय समिति) का गठन किया जाए | इस बारे में सरकार का कहना है कि इस रिपोर्ट और अडानी समूह के शेयरों में हुई उथलपुथल से चूंकि उसका कोई लेना देना नहीं हैं लिहाजा जेपीसी की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती | इस खींचातानी में बजट सत्र के दूसरे चरण का पहला सप्ताह भी बिना विधायी कार्य किये खत्म हो गया | रोचक बात ये है कि कांग्रेस के साथ भी पूरा विपक्ष नहीं है | पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे  ने गत सप्ताह विपक्षी दलों की जो बैठकें बुलाईं उनमें चूंकि अनेक विपक्षी दल शामिल नहीं हुए इसलिए सत्ता पक्ष को ताकत मिल गयी | इसी तरह श्री खडगे के नेतृत्व में विपक्षी सांसदों का जो मार्च ईडी मुख्यालय गया था उसमें भी  अनेक विपक्षी दिग्गज और उनके नेता नजर नहीं आये | लेकिन कांग्रेस को ये लग रहा है कि इस मुद्दे को लम्बा खींचा जाये जिससे अनेक राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव तक वह  भाजपा और प्रधानमंत्री को घेर सकें | हालाँकि इतने लम्बे समय तक उसे ज़िंदा रखना आसान नहीं होगा | और फिर हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अब तक अडानी समूह ने पूंजी बाजार में अपने पैर फिर से ज़माने शुरू कर दिए हैं | लेकिन ऐसे मामलों में चूंकि राजनीतिक लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण होता है लिहाजा कांग्रेस इस मुहिम को जारी रखने की हरसंभव कोशिश करती रहेगी | जहां तक सत्ता पक्ष का सवाल है तो भाजपा ने राहुल द्वारा  ब्रिटेन यात्रा के दौरान विभिन्न मंचों से जो भी बोला उसे देश और लोकतंत्र विरोधी बताकर उन पर माफी मांगने का दबाव बनाया जा रहा है | कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा अडानी विवाद से बचने के लिए ये दांव खेल रही है | श्री गांधी ने देश में लोकतंत्र की स्थिति पर जो आलोचनात्मक टिप्पणियाँ अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान कीं उनसे भाजपा को उनके विरुद्ध मोर्चा खोलने का अवसर मिल गया है | वहीं सदन में उनका माइक बंद किये जाने का आरोप लगाये जाने को संसद की मर्यादा भंग करना मानकर उनके विरुद्ध कार्रवाई की मांग भी सत्ता पक्ष उठा रहा है | श्री गांधी पर माफी मांगने के लिए दबाव बनाना अपनी जगह ठीक है लेकिन बेहतर होगा उन्हें सदन में उस बारे में अपनी बात रखने का अवसर दिया जाए और उसके बाद सत्ता पक्ष उन पर कार्रवाई के बारे में सोचे | इस बारे में देखने वाली बात ये है कि अडानी मामलें में सरकार की तरफ से शुरुआत में वित्तमंत्री ने केवल इस आशय का बयान दिया था कि इस समूह को बैंकों और जीवन बीमा निगम से जितना भी ऋण दिया गया वह पूरी तरह से नियमानुसार था तथा  बैंक और बीमा निगम का निवेश पूरी तरह सुरक्षित है | इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद की जाँच हेतु अपनी ओर से एक समिति गठित कर  दी जिससे सरकार को जेपीसी की मांग को टालने का अवसर मिल गया | ज़ाहिर है दोनों तरफ से मोर्चे बंदी हो रही है | लेकिन जैसे संकेत हैं उनके अनुसार इसका  नतीजा कुछ नहीं निकलेगा | सरकार किसी दिन बहुमत के बल पर बजट सहित शेष लंबित विधेयक और  प्रस्ताव पारित करवा लेगी और सत्र समाप्त हो जाएगा | गंभीर मुद्दों पर बहस और ठोस निर्णय करने के लिए संसद का उपयोग करने की बजाय व्यर्थ के विवाद और छोटी – छोटी बातों का बतंगड़ बनाने का खेल चल रहा है | भले ही सबके माइक कार्य कर रहे हों लेकिन जिस तरह से होहल्ला मचता है उसमें कौन क्या बोल रहा है ये न तो सुनाई देता है और न ही समझ में आता है | ऐसे में चाहे प्रधानमंत्री बोलें या विपक्ष का कोई सांसद , उसे सुना ही नहीं जाएगा | संसद के दोनों सदनों की कार्रवाई का सीधा प्रसारण किया जाता है  | लेकिन उसे देखकर सांसदों के मानसिक स्तर और संसदीय परंपराओं के प्रति उनके मन में कितना सम्मान है इसका अंदाजा आसानी से हो जाता है | हालाँकि संसद के दोनों सदनों में ऐसे वरिष्ट सदस्य हैं जो दो दशकों से सांसद हैं | उनमें से बड़ी संख्या उन सदस्यों की भी है जिन्हें सत्ता और विपक्ष दोनों में रहने का पर्याप्त अनुभव है | अतीत में ये देखा गया है कि जब इस तरह के गतिरोध उत्पन्न होते और सदन लगातार बाधित होता तब दोनों पक्षों के वरिष्ट सदस्य अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए बीच का रास्ता निकाल लेते थे | दुर्भाग्य से आज जो भी वरिष्ट सांसद सत्ता और विपक्ष में हैं उनमें पार्टी लाइन से ऊपर उठकर लोकतंत्र की गरिमा बनाये रखने के  लिए प्रयास करने का साहस नहीं बचा | ये भी देखने मिल रहा है कि जिस  उच्च स्तर के निर्दलीय सांसद चुनकर आया करते थे वह दौर अब खत्म हो चुका है | बीते दो दशकों में अनेक ऐसे निर्दलीय लोकसभा और राज्यसभा में चुनकर आये जो या तो बाहुबली थे या धनबली | ऐसे लोगों ने ही  संसद की मान - मर्यादा को  तार – तार कर दिया | दुःख तो तब होता है जब गठबंधन राजनीति ऐसे लोगों को सिर पर बिठाने में संकोच नहीं करती | ये सब देखकर  संसद की गरिमा के बारे में चिंता होने लगती है | सवाल ये नहीं कि भविष्य में होने वाले चुनाव में कौन जीतेगा और कौन नहीं |  बल्कि देश के सामने सबसे गंभीर विचारणीय मुद्दा ये है कि संसद को आन्दोलन स्थल बनाने का ये चलन रुकेगा या नहीं ? यदि हमारे सांसद चाहे वे किसी भी पक्ष के हों , ये सोचकर  मदमस्त हैं कि वे इसी तरह से लोकतन्त्र का मजाक उड़ाते रहेंगे और जनता सब कुछ देखकर भी चुप बनी रहेगी तो वे गलत हैं | उनको ये जान  लेना चाहिए कि जिस दिन जनता का धैर्य टूट गया उस दिन संसद में  सांसदों की बजाय जनता नजर आयेगी | अपने पड़ोसी देशों में ऐसा हो भी चुका है | हालाँकि वह  बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा | लेकिन हालात उसी तरफ बढ़ते दिख रहे हैं क्योंकि  संसद यदि देश के बारे में फैसले करने में असफल रहेगी तब फिर जनता सड़क पर बैठकर संसद का काम करेगी | आखिरकार   सहने की भी हद होती है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 16 March 2023

अडानी मुद्दे का हश्र भी राफेल खरीदी जैसा ही होने जा रहा



ऐसा लगता है गौतम अडानी के स्वामित्व वाले अडानी समूह पर अमेरिका के हिंडनबर्ग नामक संस्थान द्वारा जारी रिपोर्ट के बाद उठा तूफ़ान  कमजोर पड़ रहा है | भले ही कांग्रेस कुछ विपक्षी दलों के साथ इस मुद्दे को  संसद और उसके बाहर गर्म  रखने की कोशिश कर रही हैं लेकिन शेयर बाजार से आ रही खबरों से ये लगने लगा है कि अडानी समूह कुछ  समय तक लड़खड़ाने के बाद अब संभलने लगा है | जब उक्त  रिपोर्ट के आने के बाद पूरी दुनिया में इस समूह के शेयर औंधे मुंह गिर रहे थे तब भी गौतम ने ये भरोसा जताया था कि उनके पास उपलब्ध नगदी के बल पर वे इस संकट से निकल आयेंगे और निवेशकों का भरोसा पुनः जीत लेंगे | शुरुआत में लगा , वे झूठा दिलासा दे रहे हैं लेकिन इस समूह द्वारा अपने कुछ कर्जों का समय पूर्व भुगतान किये जाते ही उसकी साख लौटने लगी और वैश्विक क्रेडिट एजेंसियों ने अडानी की कंपनियों के बारे में जारी किये  गए नकारात्मक निर्देशों को वापस लेना  शुरू कर दिया | यही नहीं तो एक अप्रवासी भारतीय ने अडानी की  कंपनियों में अरबों रूपये का निवेश करते हुए पूंजी बाजार में इस समूह को जबर्दस्त सहारा दिया | और फिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गयी जांच समिति का जिस  प्रकार गौतम ने स्वागत किया उससे भी शेयर बाजार में उनके प्रति विश्वास लौटने लगा | हालाँकि अभी भी अडानी समूह हिंडनबर्ग रिपोर्ट के पहले वाली हैसियत से काफी पीछे है लेकिन गौतम दुनिया के धनाढ्यों की सूची में धरातल से उठकर खड़े होने की स्थिति में पहुँच रहे हैं | जो किसी चमत्कार से कम नहीं है | सबसे बड़ी बात ये हुई कि कांग्रेस की अडानी विरोधी मुहिम को न तो पूरे विपक्ष ने सहयोग दिया और न ही उद्योग जगत ने | आर्थिक जगत के विशेषज्ञ भी इसे बाजार की उठापटक मानकर संयम रखने की सलाह देने लगे | दरअसल हिंडनबर्ग की छवि  भी विघ्नसंतोषी की  है | इसलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अडानी समूह ने जल्दी ही वापसी कर ली | विभिन्न देशों में समूह द्वारा निवेशकों के बीच किए गए  रोड शो का भी सकारात्मक प्रभाव देखने मिल रहा है | भारतीय स्टेट बैंक और जीवन बीमा निगम द्वारा इस समूह में किये निवेश के कारण उनके डूब जाने की आशंका समय के साथ गलत साबित होने से भी अडानी विरोधी  अभियान पहले जैसा दमदार नहीं रहा | शायद यही वजह है कि काग्रेस द्वारा संसद के सत्र के दौरान अडानी मुद्दे पर विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश पहले जैसी सफल नहीं दिख रही | ममता बैनर्जी तो पहले  से ही दूर थीं और अब विपक्ष के बड़े चेहरे शरद पवार भी  अलग खड़े नजर आ रहे हैं | इस बारे में उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के  अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए ज्यादा समय अडानी समूह पर ही  खर्च किया और वे इस बात को ही उछालते रहे कि प्रधानमंत्री के समर्थन से ही गौतम अडानी को बड़ी व्यावसायिक सफलताएँ हासिल हुईं | उस भाषण से कांग्रेस काफ़ी उत्साहित थी और जब  प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में श्री  गांधी द्वारा उन पर लगाये गए आरोपों का जिक्र तक नहीं किया तब कांग्रेस ने इसे श्री गांधी की जीत बताकर जश्न मनाया | मोदी विरोधी यू ट्यूब चैनलों ने भी प्रधानमंत्री को निशाना बनाकर खूब हल्ला किया | लेकिन संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होते तक यह मुद्दा स्वाभाविक तौर पर थका नजर आने लगा | बची खुची कसर पूरी  कर दी अमेरिका के दो  बैंकों के डूब जाने ने | उसके बाद ये पूछा जाने लगा कि हजारों मील दूर बैठकर अडानी समूह के खाता बहियों की छानबीन करने वाले हिंडनबर्ग को अपने देश के ही बैंकों की गंभीर स्थिति की भनक तक नहीं लगी | भारत में अभी तक अडानी समूह में निवेश  करने वाले बैंकों पर इस तरह का खतरा नहीं आने से भी हिंडनबर्ग रिपोर्ट की गंभीरता में कमी आई | अडानी समूह की तमाम कम्पनियों के शेयर जनवरी और फरवरी में आये गिरावट के दौर से उबरकर फिर से प्रतिस्पर्धा में चूंकि  लौट आये हैं इसलिए  अब गौतम अडानी एक बार फिर से दुनिया के रईसों की सूची में धीरे – धीरे ऊपर आ रहे हैं | यद्यपि  पुरानी स्थिति में  लौटने में कितना समय लगेगा ये बता पाना कठिन है लेकिन समूह के  दिवालिया होने और निवेशकों का पैसा डूब जाने जैसी शंकाएं हवा हवाई होकर रह गईं | इसीलिये कांग्रेस के साथ खड़े विपक्षी दलों के स्वर धीमे पड़ने लगे हैं | मल्लिकार्जुन खडगे द्वारा बुलाई जाने वाली  बैठकों में भी दर्जन भर विपक्षी पार्टियाँ आने से परहेज कर रही हैं | इस वजह से अडानी मुद्दा विभिन्न राज्यों  में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का  ब्रह्मास्त्र बनेगा इसकी सम्भावना लगातार घट रही हैं  | पूंजी बाजार  के जानकार बता रहे हैं कि आगामी दो महीनों के भीतर गौतम अडानी फिर बड़े खिलाड़ी के तौर पर नजर आयेंगे | उनकी सबसे बड़ी सफलता ये रही कि उद्योग जगत ने उन्हें   अपना मौन समर्थन दिया | आनंद महिंद्रा ने तो खुलकर उनकी तरफदारी की | कुछ लोग तो ये कहते सुने गए कि यदि राहुल बजाज जीवित होते तो अडानी के पक्ष में  सबसे ऊंची आवाज में वे ही बोलते | बहरहाल जहां तक इस मुद्दे पर हुई राजनीति का सवाल है  तो ऐसा लग रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय श्री गांधी  द्वारा उठाये गए राफेल लड़ाकू विमानों की खरीदी का मुद्दा  जिस तरह मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सका ठीक वही हश्र इस मुद्दे का होता लग रहा है | ये देखते हुए श्री गांधी और कांग्रेस को किसी नए मुद्दे की तलाश शुरू कर देनी  चाहिए |

रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 15 March 2023

संसद का न चलना भी लोकतंत्र का अपमान है

मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस: सम्पादकीय
रवीन्द्र वाजपेयी 


संसद का न चलना भी लोकतंत्र का अपमान है 

विपक्ष अड़ा है अडानी मामले के लिए जेपीसी ( संयुक्त संसदीय समिति ) गठित की जाए | जिसके लिये सत्ता पक्ष जरा भी राजी नहीं है | इस कारण बजट सत्र का पहला भाग हंगामे की भेंट चढ़ गया | होली के बाद सत्र का दूसरा चरण प्रारम्भ होने पर लगा था कि देश और दुनिया के हालातों का संज्ञान लेते हुए हमारे माननीय सांसद अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन करेंगे परन्तु लगातार तीसरे दिन भी हंगामा जारी है | विपक्ष के आक्रमण पर  प्रत्याक्रमण करते हुए सत्ता पक्ष ने भी एक मुद्दा ढूंढ लिया राहुल गांधी द्वारा हाल ही में ब्रिटेन यात्रा के दौरान की गयी टिप्पणियों का | उल्लेखनीय है श्री गांधी ने वहां भारत में लोकतंत्र को खतरे में बताते हुए कहा था कि संसद में उनको बोलने नहीं दिया जाता | इसे लेकर सत्ता पक्ष का कहना है कि श्री गांधी ने लोकतंत्र के साथ देश का भी अपमान किया है इसलिए उनको क्षमा याचना करना चाहिए जिस पर कांग्रेस का पलटवार है कि विदेशों में राष्ट्रीय मुद्दों पर आलोचना की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री ने की इसलिए वे माफी मांगें। दोनों तरफ से तलवारें खींची हुई हैं। सत्ताधारी योद्धा झुकने को राजी हैं और न ही विपक्ष के महारथी। बजट सत्र में बजट पर चर्चा को छोड़कर बाकी सब हो रहा है। मोदी सरकार के इस कार्यकाल का यह अंतिम पूर्ण बजट है। अगले वित्त वर्ष का बजट 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली सरकार द्वारा पेश किया जावेगा। चुनावी वर्ष के मद्देनजर सत्तापक्ष ने बजट को लोक लुभावन बनाने की कोशिश की जबकि विपक्ष ने शुरुआती प्रतिक्रिया में ही उसे  जनविरोधी बता दिया था। बजट का विस्तृत अध्ययन करने सत्र के बीच अवकाश भी दिया गया किंतु दूसरा चरण शुरू हुए तीन दिन बीत जाने पर भी इस महत्वपूर्ण विषय पर विचार करने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हो रही। ये बात तय है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच समिति बना दिए जाने के बाद अडानी मामले में जेपीसी गठन की मांग का कोई औचित्य नहीं रह गया है। दूसरी तरफ श्री गांधी भी माफी मांगेंगे इसकी संभावना न के बराबर है। ऐसे में देश की जनता के लिए चिंता का विषय है कि उससे जुड़ी समस्याओं एवं राष्ट्रीय महत्व के शेष विषयों पर विचार इस सत्र में होगा भी या नहीं? डा. लोहिया आम जनता को मुल्क के मालिकों कहकर संबोधित किया करते थे किंतु आजकल इस संबोधन को हमारे सांसदों ने एक तरह से चुरा लिया है और जनता की जगह वे खुद को देश का मालिक समझ बैठे हैं। तभी तो सदन में हंगामा करते हुए लोकतंत्र का मजाक बनाने के बाद भी वे जनता के बीच जाने से नहीं डरते। ये स्थिति वाकई शोचनीय है । जब सदन को चलना ही नहीं है तब उसके संचालन पर प्रतिदिन करोड़ों का खर्च क्यों किया जाए ये सवाल उठना स्वाभाविक है। विदेश में जाकर लोकतंत्र का अपमान तो बाद की बात है लेकिन हमारे सांसद लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर जिस उद्दंडता और अशालीनता का परिचय दे रहे हैं वह कहीं ज्यादा बड़ा अपमान है।


रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 14 March 2023

ऑस्कर के लिए लॉबिंग करने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी




भारत को कल दो ऑस्कर अवार्ड मिलने से देश में खुशी है | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं  बल्कि विपक्ष ने भी विजेताओं को बधाई दी है | फिल्म उद्योग से जुड़े लोग तो इस उपलब्धि से फूले नहीं समा रहे और इसे दुनिया भर  में भारतीय फिल्म उद्योग के बढ़ते प्रभाव का प्रमाण मान रहे हैं | इसके पहले भी  भारत को कुछ श्रेणियों में ऑस्कर अवार्ड मिल चुके थे जिनमें संगीतकार ए.आर रहमान द्वारा बनाया गया गीत जय हो भी शामिल है | 2009 में भारत में बनी स्लमडाग मिलिओनायर फिल्म के उक्त गीत ने जब ऑस्कर जीता तब भी देश खुश हुआ था | गत दिवस भी प्रमुख अवार्ड नाटू नाटू गीत को मिला |  वहीं दूसरा एक वृत्त चित्र एलीफेंट व्हिसपर्स को | ऑस्कर निश्चित रूप से विश्व सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है | फिल्म जगत इसे नोबल से कम नहीं मानता | फिल्म निर्माण कला और अभिव्यक्ति के साथ मनोरंजन का भी  प्रभावशाली माध्यम रहा है | संचार क्रांति के उद्भव के बाद भले ही टाकीज में जाकर फिल्म देखने का चलन कम हो रहा हो क्योंकि टेलीविजन , कम्प्यूटर और मोबाईल फोन के कारण अब मनोरंजन की विधा ही बदल गयी है | परिवार के साथ सिनेमा देखने की बजाय अब वह निजी शौक में बदल गया है | ओटीटी के उदय ने लघु  फिल्मों का नया दौर शुरू कर दिया जिसने फिल्म निर्माण की पूरी संस्कृति ही परिवर्तित कर डाली | इसके कारण सितारा हैसियत और बॉक्स ऑफिस जैसी बातें महत्वहीन होने लगी हैं | सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली जैसे  शब्द भी कम ही सुनाई देने लगे हैं | अनेक फिल्में तो  बिना सिनेमा हॉल में दिखाए ही करोड़ों का व्यवसाय कर लेती हैं | कथानक , अभिनय संगीत से ज्यादा जोर इस बात पर दिया जाने लगा है कि फिल्म ने कमाई कितनी  की | कम लागत में बनने वाली कुछ फिल्मों ने भी कमाई के कीर्तिमान बना डाले | इतना सब बदल जाने के बाद भी ऑस्कर अवार्ड की महत्ता कायम है और हर फिल्मकार के मन में उसे हासिल करने की इच्छा रहती है | इसके लिए बाकायदा महीनों अमेरिका में रूककर लॉबिंग करनी पड़ती है जिसे  मार्केटिंग भी कह सकते हैं | अभिनेता स्व. देव आनंद की प्रसिद्ध फिल्म गाइड के अंग्रेजी संस्करण के निर्माण से साहित्य का नोबल पुरस्कार जीतने वाली स्व. पर्ल बक भी जुड़ी थीं | जब फिल्म बनी तब देव आनंद और उनके छोटे भाई विजय आनंद ने ऑस्कर के लिए लॉबिंग का प्रयास किया किन्तु जब उन्हें उसके खर्चे मालूम हुए तब वे बिना कुछ किये वापस आ गए | हालाँकि उसके बाद लगान एवं कुछ और फिल्मों के लिए भी  अमेरिका में लॉबिंग हुई लेकिन हाथ  कुछ नहीं आया | इसमें दो मत नहीं है कि भारतीय फिल्म उद्योग तकनीक और कथानक चयन में पश्चिमी  सिनेमा की तुलना में  काफी पीछे है | और इसीलिये बड़े बजट की  फिल्मों में विशेष प्रभाव डालने वाले दृश्यों के लिए विदेशी तकनीशियन बुलाये जाने लगे हैं | लेकिन इस बारे में प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन  का ये कथन  विचारणीय है कि भारत दुनिया में  सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाला देश है | और यहाँ सांस्कृतिक तथा भाषायी विविधता की वजह से फिल्मों का कथानक और अभिनय शैली में भी भिन्नता है | इसलिए हॉलीवुड की तर्ज  पर  बॉलीवुड शब्द का प्रयोग अनुचित है और हमें इसे भारतीय फिल्म उद्योग कहते हुए हीन भावना से उबरना चाहिए | श्री बच्चन का ये  कहना भी था कि भारत में भी अनेक विदेशी फिल्में प्रदर्शित की जाती हैं और उनका दर्शक वर्ग भी है किन्तु विदेशी निर्माता भारत  में आयोजित होने वाले अवार्ड आयोजनों में अपनी फिल्मों के लिये किसी सम्मान की अपेक्षा नहीं करते तो फिर हम क्यों ऑस्कर के लिए लालायित रहते हैं | ये भी सही है कि विदेशों में प्रदर्शित होने वाली भारतीय फिल्मों की दर्शक संख्या दरअसल वहां रह रहे भारतीय मूल के लोगों की वजह से बढ़ती जा रही है | उनका संगीत भी अप्रवासी भारतवंशियों के कारण वहां लोकप्रिय हो रहा है | आजकल तो विदेशों में हिंदी के कवि सम्मलेन तक बड़ी संख्या  में हो रहे हैं | ऐसे में एक वैश्विक समाज अपनी श्रेष्ठता के लिए किसी विदेशी संस्थान की चिरौरी करे ये जमता नहीं है | 21वीं  सदी के  भारत की छवि अब सपेरों और मदारियों वाले  देश की नहीं रही | ऐसे में जरूरी है हम अपने मापदंडों को श्रेष्ठता के उस स्तर तक ले जाएँ जिन पर खरा उतरने के प्रति विदेशी भी आकृष्ट हों | हमारे फिल्म उद्योग में लीक से हटकर कला फिल्में भी बनती  हैं  जिनका दर्शक वर्ग है | उनमें  से अनेक को अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में तो खूब प्रशंसा मिलती है लेकिन ऑस्कर जैसे पुरस्कार से वे वंचित रहती हैं क्योंकि उनके पास उसके लिए की जाने वाली महंगी मार्केटिंग के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं होते | वैसे भी पश्चिम के जितने भी पुरस्कार हैं वे आज भी उपनिवेशवाद के दौर की मानसिकता से उबर नहीं पा रहे |  इसका सबसे  बड़ा उदाहरण महात्मा गाँधी को नोबल पुरस्कार नहीं दिया जाना है | वैश्विक  अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने वाले भारत के बड़े बाजार पर निगाहें गड़ाये हुए हैं | इसीलिए एक दौर था जब भारत की अनेक युवतियों को एक के बाद एक विश्व सुन्दरी चुना  गया | उसी तरह हमारे अनेक अभिनेताओं को हॉलीवुड की फिल्मों में अवसर दिया गया जिसका कारण अप्रवासी भारतीयों को आकर्षित करना ही है | ये भी सही है कि विदेशी निर्माता हमारे फिल्म उद्योग में निवेश करने के अवसर तलाश रहे हैं | जिस तेजी से हमारी फिल्मों की  शूटिंग विदेशों में होने लगी है उसे देखते हुए उन्हें लग रहा है कि हमारे फ़िल्मकार भी वैश्विक बाजार पर नजर रख रहे हैं | भारतीय गीत और वृत्त चित्र को ऑस्कर मिलना निश्चित तौर पर खुशी का क्षण है लेकिन हमारे फिल्मकारों को  अब ऑस्कर के लालच से बाहर आकर अपने सृजन को गुणवत्ता के आधार पर इतना श्रेष्ठ बना देना चाहिए कि ऑस्कर की चयन समिति खुद आकर अवार्ड देने की पहल करे | वैसे भी जिस गीत को अवार्ड मिला वह  ऑस्कर की मोहताजी से पहले ही काफी ऊपर आ चुका था |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 13 March 2023

पांच साल काम करने वालों को चुनाव के समय चप्पलें नहीं घिसना पड़तीं



जो विद्यार्थी पूरे साल ध्यानपूर्वक अध्ययन करते हैं उनको  परीक्षा के समय रात – रात भर जागकर न तो रट्टा मारना पड़ता है और न ही गैस पेपर और कुंजियों में सिर खपाना होता है | वे कभी इस बात की  शिकायत भी नहीं करते कि पर्चा कठिन आया था | इसी तरह सत्ता में बैठे जो नेता पांच साल पूरी निष्ठा से जनता से किये गए वायदों को पूरा करने के साथ ही जनहित के अन्य कार्यों पर ध्यान देते हैं उनको न तो चुनाव के समय मुफ्त खैरात  रूपी घूस देने की  जरूरत पड़ती हैं और न ही दबाव में आकर नीतिगत समझौते की मजबूरी झेलनी पड़ती है | इन दिनों देश के अनेक राज्यों में  विधानसभा  चुनाव होने जा रहे हैं | इनके लिए राजनीतिक दलों द्वारा  अपनी रणनीति  को अंतिम रूप दिया जा रहा है | कुछ राज्यों में सीधी लड़ाई हो रही है तो कुछ में गठबंधन की बिसात बिछने के संकेत हैं | पुराने दुश्मनों से दोस्ती के साथ ही बरसों से साथ चल रहे मित्र दूरी बनाते नजर आ रहे हैं | चूंकि राजनीति में  विचारधारा , सिद्धांतों और आदर्शों की जगह नहीं बची और हर निर्णय सत्ता  हासिल करने से प्रेरित है इसलिए बेमेल  गठबंधन से भी  कोई शर्म नहीं करता |  आजकल ये चर्चा जोरों पर है कि प. बंगाल के स्थानीय निकाय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए कांग्रेस और वामपंथी दल भाजपा के साथ जुगलबंदी कर रहे हैं | जिस पर इन  पार्टियों के वरिष्ट नेता कह रहे हैं कि स्थानीय चुनावों में इस तरह के गठजोड़ होना आम बात  है | इसी तरह जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं वहां सत्ताधारी दल के साथ ही विपक्ष भी मतदाताओं को  नए - नए लालीपॉप दिखाकर अपने पाले में खींचने की कोशिश में जुटा हुआ है | 2004 में वाजपेयी  सरकार के दौर में शासकीय कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना बंद करते हुए नई योजना लागू की गयी | उसके बाद दस साल तक कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार रही जिसने उसी  योजना को  जारी रखा उसके बाद कुछ राज्यों में भी कांग्रेस  की सरकारें बनी | लेकिन  किसी को भी पुरानी पेंशन की सुध नहीं आई | हाल ही में हुए  हिमाचल प्रदेश के  विधानसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा पुरानी पेंशन लागू करने का जो वायदा  किया उसी की वजह से वह चुनाव जीत गयी | छत्तीसगढ़  और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों ने भी आगामी चुनाव को देखते हुए पुरानी पेंशन की वापसी कर डाली | भाजपा की केंद्र सरकार पुरानी  पेंशन योजना को बहाल करने राजी नहीं है | कांग्रेस समर्थक माने जाने वाले रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया सहित अनेक अर्थशास्त्री भी चेतावनी  दे चुके हैं कि पुरानी पेंशन योजना  दोबारा लागू करने से सरकारी खजाना खल्लास हो जायेगा | लेकिन चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस की राज्य सरकारें अपने ही पुराने सलाहकारों को अनसुना कर रही हैं | सवाल ये भी है कि बीते चार सालों तक वे इस बारे में उदासीन क्यों बनी रहीं ? ताजा संकेतों के  मुताबिक म.प्र की भाजपा सरकार ने भी पुरानी पेंशन की बहाली पर मंथन शुरू कर दिया है | उसे डर है कि सरकारी कर्मचारी कांग्रेस के पक्ष में न झुक  जाएं | अन्य राज्यों में भी इसी  तरह  के चुनाव जीतू कदम उठाये  जा रहे हैं | ये सब देखकर लगता है कि राजनीतिक नेता चाहे वे सत्ता में  हों या विपक्ष में ,  अपनी  साख खोते जा रहे हैं | यदि सत्ता  में रही  पार्टी  चुनाव पूर्व किये वायदों को पूरा करती जाए और जनता की तकलीफों का सही समय पर इलाज करे तब उसे चुनाव के समय दबाव में आकर ऐसे निर्णय करने की जरूरत नहीं पड़ेगी जिन्हें आर्थिक या अन्य कारणों वह  से टालती रही | यही बात विपक्ष पर भी लागू होती है जो अपना दायित्व सही तरीके से निभाए तो उसे जनता को  अव्यवहारिक वायदे नहीं  करने पड़ेंगे | मसलन म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लाड़ली बहना योजना शुरू करते हुए महिलाओं को 1 हजार देने की शुरुआत की तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने कांग्रेस की सरकार बनने पर उसे बढ़ाकर 1500 रु. प्रति माह करने का वायदा कर दिया | सवाल ये है कि सत्ता में रहते हुए श्री नाथ को ऐसा करने का ध्यान क्यों नहीं रहा ? इस संदर्भ में राजनीतिक दलों को उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से सबक लेना  चाहिए जो लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बने | देश के राजनीतिक घटनाचक्र में उनका नाम कभी - कभार ही सुनाई देता है | विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर श्री पटनायक देश  और अपने राज्य के हित को ध्यान में रखते हुए नीति तय करते हैं | उनका भाजपा और कांग्रेस दोनों से मतभेद है लेकिन चाहे केंद्र की सरकार में कोई भी रहा हो , वे सबके साथ सामंजस्य बिठाकर काम करने के लिए जाने जाते हैं | देश में जो राजनेता सबसे कम विवादग्रस्त हैं उनमें श्री पटनायक सबसे अव्वल हैं | सता में रहते हुए वे बिना हल्ला मचाये काम  करते हैं | इसीलिये उड़ीसा बीमारू राज्य के कलंक को धोने में सफल हो रहा है | चुनाव में आसमानी वायदों की जरूरत उनको इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि वे पुराने वायदे निभाने में सफल रहते हैं | उड़ीसा स्वर्ग  बन गया हो ऐसा नहीं है लेकिन काम से काम रखने की शैली ने श्री पटनायक को अजेय बना दिया | अन्य राजनेताओं को उनकी विचारधारा भले ही पसंद न आती हो लेकिन उनमें कुछ न कुछ ऐसा गुण तो है जिसकी वजह से वे लगातार 25 सालों से गद्दी पर जमे रहने के बाद  भी निर्विवाद हैं | घूम फिरकर बात वही पूरे साल पढ़ने वाले विद्यार्थी पर आकर टिक जाती है जिनसे राजनेता प्रेरणा ले लें तो उन्हें चुनाव के समय घुटने टेकने के नौबत ही नहीं आयेगी | लेकिन दुर्भाग्य ये है कि राजनीति चलाने वाले नेताओं के मन में ये बात बैठ चुकी है कि पूरे पांच साल चाहे भले कुछ न करो लेकिन चुनाव आते ही मतदाताओं को उपहार बांटने से उनकी नैया पार हो जाएगी  | जब तक चुनाव घोषणापत्र को हलफनामे की तरह कानूनी स्वरूप नहीं दिया जाता तब तक ये विसंगति बनी रहेगी |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 11 March 2023

सीबीआई और ईडी की निर्भीकता के साथ निष्पक्षता भी जरूरी



पूरे देश में इस समय सबसे बड़ा मुद्दा ईडी और सीबीआई द्वारा विपक्षी नेताओं पर छापेमारी और गिरफ्तारी बना  हुआ है | जिस तरह एक के बाद एक विपक्षी  नेताओं पर शिकंजा कसा  जा रहा है उसे देखते हुए लगता है आने वाले दिनों में कुछ और बड़े नेता जेल के भीतर नजर आयेंगे | दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी के बाद  आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के भी लपेटे में आने का संकेत गत दिवस ईडी द्वारा अदालत में पेश किये गए दस्तावेजों से मिला | संयोगवश कल ही ईडी ने नौकरी के बदले जमीन घोटाले में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार के साथ रिश्तेदारों और करीबियों के यहाँ छापे मारे | तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी राव की पुत्री और विधान परिषद सदस्य के. कविता से भी आज ईडी दिल्ली शराब घोटाले में पूछताछ हो रही है | सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी द्वारा आरोपी बनाये जा चुके हैं | उद्धव ठाकरे के करीबी संजय राउत और  महारष्ट्र के दो पूर्व मंत्री भी ईडी द्वारा जेल भेजे गए | ये फेहरिस्त काफी  लम्बी है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से भ्रष्टाचारियों को जेल भेजने की बात कही थी | भ्रष्ट नेताओं पर सीबीआई और ईडी कार्रवाई करें इसमें किसी को ऐतराज नहीं है | अनेक भ्रष्ट नेता जेल जा चुके हैं | जिनमें स्व.जयललिता,  ओमप्रकाश चौटाला और लालू जैसे नाम हैं | इनको मिली सजा को किसी ने गलत नहीं कहा | लेकिन सीबीआई और ईडी द्वारा की जा रही ताबड़तोड़ कार्रवाई के बारे में विपक्षी नेता चिल्ला – चिल्लाकर कह रहे हैं कि केंद्र सरकार इन संस्थाओं का दुरुपयोग विपक्ष का मनोबल तोड़ने के लिए कर रही है | और बिना पर्याप्त सबूतों के ही गिरफ्तारी के जरिये आतंक का वातावरण बनाया जा रहा है | ये आरोप भी है कि उक्त संस्थाएं भाजपा नेताओं के भ्रष्टाचार पर आँख मूँद लेती हैं | सीबीआई और ईडी के निशाने पर रहे अनेक नेताओं के विरुद्ध चल रही जाँच और अन्य कार्रवाई   उनके भाजपा में आते ही या तो बंद कर दी गयी या उसकी गति धीमी हो गयी | इनमें मुकुल राय , शुबेंदु अधिकारी , हिमन्ता बिस्वा सरमा और नारायण राणे के नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं | आम आदमी पार्टी इस आरोप को अनेक मर्तबा दोहरा चुकी है कि श्री  सिसौदिया पर भी शराब घोटाले में बरी करने के एवज  में भाजपा में शामिल होने का दबाव डाला गया था | विपक्ष द्वारा ये आरोप भी तेजी  से लगाया जा रहा है कि कर्नाटक के एक भाजपा विधायक के बेटे के यहाँ करोड़ों रूपये नगद मिलने के बावजूद ईडी ने उसका संज्ञान नहीं लिया जबकि श्री सिसौदिया के यहाँ से सीबीआई को एक पैसा तक नहीं मिला फिर भी उनको  जेल में डाल दिया  | भाजपा शासित राज्यों के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के बारे में दोहरा रवैया अपनाने का आरोप भी  लग रहा है | इसमें दो मत नहीं है कि भ्रष्ट नेताओं के गले में फंदा डाले जाने से आम जनता  खुश होती है |  कोलकाता में ममता बैनर्जी की सरकार के वरिष्ठ मंत्री की महिला मित्र के निवास पर  मिले करोड़ों रूपये मिलने के बाद उस मंत्री के साथ खड़ा होने कोई तैयार नहीं है | मोदी सरकार ने अपने आपको भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाए रखा ये भी अब तक तक माना  जा रहा है किन्तु विपक्ष के इस आरोप का  भाजपा   के पास कोई जवाब नहीं है कि क्या उसके सभी नेता राजा हरिश्चन्द्र के अवतार हैं और भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे लोग  जब भाजपा में आ जाते हैं तब उनको अभयदान और ईमानदारी का प्रमाण पत्र कैसे मिल जाता है ? विपक्ष के जिन नेताओं को ईडी अथवा सीबीआई ने जांच के घेरे में लिया वे दोषी हैं या  निर्दोष,  ये तो अदालत में ही तय होगा लेकिन भाजपा के तमाम वे नेता जो उक्त दोनों एजेंसियों की जाँच के दायरे  में हैं उनके बारे में ढुलमुल रवैये से एक तो उनकी विश्वसनीयता पर संदेह होता है वहीं  केवल विपक्ष के नेताओं पर निशाना साधे जाने से निष्पक्षता पर भी आंच आती है | यद्यपि महज इस वजह से नेशनल हेराल्ड और दिल्ली  शराब घोटाले के आरोपियों के विरुद्ध जाँच  रोक देना  या लालू के परिवार को ईमानदार मानकर छोड़ देना  किसी भी दृष्टि से स्वीकार करने योग्य नहीं होगा | लेकिन जब बात जाँच एजेंसियों की प्रामाणिकता की होने लगे तब उसे केवल विरोधियों का दुष्प्रचार मानकर हवा में उड़ा देना भी सही नहीं है | इस बारे  में ध्यान देने योग्य बात ये है कि ईडी और सीबीआई को निष्पक्ष होते हुए दिखना भी चाहिये क्योंकि भारतीय जन मानस में भावुकता बहुत है | इसी कारण भ्रष्टाचार के आरोप में दोषी पाये जाने के बाद जेल में रहने के बाद  कोई राजनीतिक नेता जब छूटता है तब वह बजाय मुंह छिपाए घूमने के जनता के बीच जाकर हमदर्दी बटोरता है | जयललिता , ओमप्रकाश चौटाला , लालू , येदियुरप्पा जैसे और  भी अनेक उदाहरण हैं जहां जेल से छूटा नेता भीड़ एकत्र करते हुए जनता का समर्थन प्राप्त करने में कामयाब हो जाता है | ऐसे में ईडी और सीबीआई जैसी संस्थाओं की कार्यप्रणाली में निष्पक्षता नहीं रही तो फिर जिन लोगों को वह सीखंचों में डाल रही है वे बाहर निकलने के बाद फिर अपनी नेतागिरी चमकाने में लग जायेंगे | और इससे भी बड़ी बात प्रधानमंत्री की अपने छवि के लिए जरूरी है कि वे इन संस्थाओं के लपेटे में केवल विपक्षी नेताओं को फंसाए जाने संबंधी अवधारणा को गलत साबित करते हुए भाजपा में बैठे दागी नेताओं पर भी वैसी ही कार्रवाई करें जैसी अन्य पर हो रही है | इस बारे में एक बात आम जनता में चर्चा का विषय है कि सीबीआई और ईडी किसी भी मामले में शुरुआत तो बड़े ही जोरशोर से करती हैं लेकिन उसे अंजाम तक पहुँचाने में जो लम्बा समय लगता है उसकी वजह से मामले की गम्भीरता खत्म हो जाती  है | उस दृष्टि से ईडी और सीबीआई जो कदम उठा रही हैं वे बिलकुल सही हैं | भ्रष्टाचार इस देश को दीमक की तरह चाट रहा है इसलिए उसके खात्मे से पवित्र काम  दूसरा नहीं होगा लेकिन उसमें निर्भीकता के साथ ही पारदर्शिता , प्रामाणिकता और निष्पक्षता भी उतनी ही जरूरी है | वरना अच्छा काम भी लोकनिंदा का पात्र बन जाता है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 10 March 2023

आम आदमी पार्टी के सामने छवि और विश्वसनीयता का संकट



आम आदमी पार्टी जिस तेजी से राजनीतिक परिदृश्य पर उभरी उसके बाद ये कहा  जाने लगा था कि वह 2024 तक राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर स्थापित हो जायेगी | दिल्ली विधानसभा के दो चुनाव जिस धमाकेदार अंदाज में उसने जीते उसी की पुनरावृत्ति पंजाब में भी हुई जहां उसने कांग्रेस , अकाली दल और भाजपा सभी का सफाया कर दिया | हालाँकि गोवा , उत्तराखंड , हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव उसके लिए निराशजनक रहे | बावजूद उसके दिल्ली नगर निगम पर कब्जा करने से उसका हौसला बेशक मजबूत हुआ है | और इसी वजह से पार्टी के सर्वेसर्वा  दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कर्नाटक के दौरे पर चले गए और उसके बाद उनके छत्तीसगढ़ , म.प्र और राजस्थान प्रवास का कार्यक्रम भी बन गया है जहां  इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं | राष्ट्रीय पार्टी बनने की महत्वाकांक्षा श्री केजरीवाल के मन में पहले दिन से ही  थी और उसी के अंतर्गत उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव  में ही वाराणसी में नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़े होने का दुस्साहस किया | यही नहीं पार्टी के संस्थापकों में रहे कवि कुमार विश्वास को अमेठी और योगेन्द्र यादव को भी  गुडगाँव से मैदान में उतार दिया | ये तीनों तो  चुनाव हार  गए लेकिन पंजाब में पार्टी के चार सदस्य जीतकर आये  जिनमें से एक भगवंत सिंह मान आजकल उस राज्य के मुख्यमंत्री हैं | उसके बाद श्री केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली की विधानसभा में  पार्टी को ऐतिहासिक बहुमत मिला | आम आदमी पार्टी का जन्म दिल्ली में अन्ना हजारे द्वारा लोकपाल की मांग को लेकर किये गए 12 दिवसीय अनशन के बाद हुआ था | उसके मूलभूत आदर्शों में ईमानदारी , सादगी और  सेवा भाव थे | सत्ता में आने पर सरकारी वाहन , बंगला और वेतन आदि से परहेज की बात भी कही गयी | लेकिन  सरकार बनाते ही बतौर मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल और उनके मंत्रियों ने सारी  सुविधाएं प्राप्त कर लीं | विधायकों के वेतन - भत्ते बढ़ा देने  के साथ ही उनमें से अनेक को मंत्री का दर्जा देकर सत्ता का सुख प्रदान कर  दिया गया | इससे असंतोष फैला और जल्द ही संस्थापक सदस्य  शांति भूषण , प्रशांत  भूषण , कुमार विश्वास , योगेन्द्र यादव और डा. आनंद कुमार पार्टी से निकल गए या निक़ाल दिए गए | उसके राज्यसभा सदस्यों में से संजय सिंह और राघव चड्डा को छोड़ दें तो एक भी ऐसा नहीं है जो पार्टी के सिद्धांतों और आदर्शों के मापदंडों पर खरा उतरता हो | चंदे के बारे में जिस पारदर्शिता का उदाहरण  शुरुआती दौर में पेश किया गया वह  भी धीरे - धीरे हवा - हवाई होकर रह गया | 2014 में पंजाब की चार लोकसभा सीटें जीतने वाला करिश्मा 2019 में केवल भगवंत सिंह मान की एक सीट पर सिमट गया | और जब वे मुख्यमंत्री बने तब उनके द्वारा रिक्त की गयी संगरूर सीट पर भी अकाली दल ( अमृतसर ) के सिमरनजीत सिंह मान  जीत गए जो खालिस्तान समर्थक माने जाते हैं | इस तरह दो राज्यों में भारी बहुमत वाली सरकार चला रही आम आदमी पार्टी का लोकसभा में एक भी सदस्य नहीं है | दिल्ली की सातों सीटों पर भी वह बुरी तरह हारी | इस सबके बाद जब उसने राष्ट्रीय पार्टी के रूप में खुद को स्थापित करने का जो प्रयास किया उसमें उसकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का क्षरण होता चला  गया | धीरे – धीरे ये बात सामने आने लगी कि वह भी अन्य राजनीतिक पार्टियों की तरह सत्ता के मकड़जाल में फंसकर रह गयी है और उसके लिए वह किसी भी हद तक जाने तैयार है | पंजाब चुनाव में जब उस पर खालिस्तान समर्थकों से समर्थन लेने का आरोप लगा तब सहसा विश्वास नहीं हुआ किन्तु भगवंत सिंह मान के मुख्यमंत्री बनते ही पंजाब में नब्बे के दशक वाले हालात नजर आने लगे हैं | मुफ्त बिजली और पानी के आश्वासन खजाने के खाली होने से पूरे नहीं हो पा रहे | दिल्ली में भी बिजली की  सब्सिडी घटाने का प्रस्ताव है | जिन मोहल्ला क्लीनिक  और सरकारी विद्यालयों का गुणगान पूरे देश में किया जाता है वे भी अव्यवस्था के  शिकार हो रहे हैं | दिल्ली और पंजाब के मुख्यमंत्री अपने राज्यों की समस्याएँ हल करने की बजाय दूसरे राज्यों  में सरकार बनाने के लिए घूम रहे हैं | इसी बीच दिल्ली का शराब घोटाला उभरकर सामने आ गया जिसमें आम आदमी पार्टी में दूसरे नम्बर की हैसियत रखने वाले उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया गिरफ्तार कर  लिए गए | और उन पर सीबीआई और ईडी दोनों ने शिकंजा कस दिया है | भले ही श्री  केजरीवाल और उनकी पार्टी के अन्य नेता कुछ भी कहें  लेकिन जिस तरह की जानकारी  सामने आ रही है उससे लगता है कि बिना आग लगे धुंआ नहीं निकलता | हालाँकि इस मामले में अंतिम निर्णय तो अदालत करेगी किन्तु इस तरह के घोटालों से किसी भी पार्टी या नेता की छवि और  विश्वसनीयता को होने वाला  नुकसान  दूरगामी असर वाला होता है | और कोई पार्टी होती तो इतनी हायतौबा नहीं मचती लेकिन जो पार्टी स्वयं को गंगा की तरह पवित्र मानने का दावा करती थी जब  उसके दामन पर इस तरह के छींटे पड़ते हैं तब आम जनता द्वारा लगाई  गयी उम्मीदें टूटती हैं | बीते कुछ दिनों में इस घोटाले के बारे में जो कुछ भी जानकारी आई है उसके बाद आम आदमी पार्टी के सामने बड़ा संकट उत्पन्न हो सकता है | वैसे भी आन्दोलन से निकली राजीतिक पार्टियों की आयु ज्यादा नहीं होती | आम आदमी पार्टी भी उसी दिशा में बढ़ती दिख रही है |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 7 March 2023

विपक्षी गठबंधन मेंढ़क तोलने से भी कठिन काम




लोकसभा चुनाव के लिए एक साल ही बचा है | यद्यपि नई  सरकार का गठन 2024 की मई के अंतिम सप्ताह  में होगा लेकिन उसकी उठापटक शुरू हो चुकी है | भाजपा तो चुनाव को लेकर हर समय सक्रिय रहती है जिसमें  उसका  विशाल संगठनात्मक ढांचा मददगार बनता है | रास्वसंघ भी अदृश्य शक्ति के रूप में उसकी व्यूहरचना को मजबूती प्रदान करता है | एक समय था जब पार्टी उत्तर भारत और  सवर्ण जातियों तक ही सीमित  थी किन्तु नब्बे के दशक से उसका जो उत्थान शुरू हुआ वह 2014 में चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचा | उसके बाद उसने अपने को राष्ट्रीय स्वरूप देने का अभियान चलाया | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा उछाला उसका अभिप्राय भाजपा को राष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित करना था | और ये कहना  गलत नहीं है कि उसने उस उद्देश्य को काफी हद तक पा लिया है | हालाँकि अभी भी कुछ राज्यों में सफलता उससे दूर है और पूर्वोत्तर के  कुछ राज्यों  में वह क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता में हिस्सेदार  है | पंजाब में भी अकाली दल के साथ रहने से उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बन सका किन्तु अब वह अपना जनाधार बढ़ा रही है |  तमिलनाडु  में उसकी पकड़ न के बराबर है वहीं केरल में संघ का कार्य  फ़ैल जाने के बावजूद भाजपा अभी भी संघर्ष की स्थिति में  है | हालाँकि राष्ट्रीय स्तर पर वह सबसे ज्यादा सांसद और विधायकों के साथ कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ने में कामयाब हो गयी | परिणाम ये हुआ कि एक ज़माने में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर विपक्षी गठबंधन बना करते थे लेकिन अब भाजपा के विरोध में विपक्षी पार्टियाँ एकजुट होने के लिए मजबूर हो गई हैं | यहाँ तक कि जो कांग्रेस विरोधी पार्टियों के साथ बैठने में संकोच  करती थी वही अब गठबंधन के लिए आतुर है | अन्य विपक्षी पार्टियाँ भी इस बात पर एकमत हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर को रोकने के लिए  एकजुट होना जरूरी है | कुछ नेता इसके लिए प्रयास भी कर रहे हैं | सबसे ताजा उदाहरण तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के जन्म दिवस पर चेन्नई  में हुआ जमावड़ा है | जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के अलावा फारुख अब्दुल्ला , तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव शामिल हुए | इन सभी  ने 2024 के लिए विपक्ष का गठबंधन बनाने पर जोर दिया | गौरतलब है राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के  श्रीनगर में समापन पर सभी विपक्षी दलों को न्यौता भेजा गया था लेकिन केवल  नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ही उसमें शरीक हुए | जिससे ये संकेत गया कि विपक्ष कांग्रेस को साथ तो रखना चाहता है लेकिन उसके झंडे तले आने को राजी नहीं  है | श्री गांधी की यात्रा में इसीलिये विपक्ष के इक्का – दुक्का नेताओं की ही उपस्थिति रही | इसका सबसे बड़ा कारण क्षेत्रीय दलों के कतिपय नेताओं की महत्वाकांक्षाएं हैं | मसलन ममता बैनर्जी द्वारा लोकसभा चुनाव में अकेले उतरने की घोषणा के साथ ही इस दावे को दोहराना कि भाजपा का मुकाबला वे ही कर सकती हैं |  हाल ही में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में कांग्रेस द्वारा  वामपंथी दलों के साथ गठबंधन से वे बहुत नाराज हैं | प. बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी दोनों एक साथ थे | तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. सी. राव भी कांग्रेस के विरोध का सामना अपने राज्य में करने के कारण उससे दूर रहना चाह रहे हैं | विपक्षी एकता में कांग्रेस के रोड़ा बनने का सबसे नया प्रमाण मिला दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी के विरोध में  विपक्षी नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र पर कांग्रेस के किसी नेता के हस्ताक्षर नहीं होने से | इस पत्र पर शरद पवार ,  के.सी.राव ,  ममता बैनर्जी , अरविन्द केजरीवाल , भगवंत  सिंह मान , फारुख अब्दुल्ला , उद्धव ठाकरे , अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के हस्ताक्षर थे | इनमें श्री केजरीवाल और श्री मान को हटा दिया जावे तो महज 7 विपक्षी नेता ही बचते हैं | नीतीश कुमार  , स्टालिन , नवीन पटनायक और  जगनमोहन रेड्डी के अलावा वामपंथी  नेताओं ने भी इस पत्र से दूर रहना ही बेहतर समझा | हालाँकि सभी विपक्षी पार्टियों ने गिरफ्तारी का विरोध किया लेकिन कांग्रेस दोहरा रवैया अपना रही है | सीबीआई और ईडी के जरिये  विपक्षी नेताओं को परेशान करने को लेकर तो वह आवाज उठाने में संकोच नहीं करती किन्तु आम आदमी पार्टी से उसकी पटरी नहीं बैठती क्योंकि उसी की वजह से दिल्ली और पंजाब  में उसका सफाया हो गया | साथ ही वह गुजरात के बाद म.प्र , छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में भी अपने उम्मीदवार उतारने जा रही है जिससे कांग्रेस को नुकसान होना तय है | आम आदमी पार्टी से कांग्रेस और गांधी परिवार इसलिए भी रुष्ट है क्योंकि जब नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल पर ईडी ने शिकंजा कसा तब उसने उसका विरोध  नहीं किया |  इस प्रकार ये बात सामने आती जा रही है कि बिना अपनी अगुआई के कांग्रेस किसी भी विपक्षी गठबंधन को स्वीकार नहीं करेगी | वहीं दूसरी तरफ विपक्ष के भी अनेक छत्रप गठबंधन की इच्छा रखते हुए भी कांग्रेस के पीछे चलने की बजाय उसे अपने पीछे चलने के लिए मजबूर करना चाहते हैं | हालाँकि श्री सिसौदिया की गिरफ़्तारी के बाद श्री केजरीवाल की अकड़ कुछ कम तो हुई है लेकिन उनका कांग्रेस के साथ ही विपक्ष के अनेक  दलों से तालमेल  कठिन है | दरअसल  वे खुद को भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर देखते हैं जो अन्य पार्टियों को शायद ही रास आये | ऐसे में विपक्षी गठबंधन  मेंढ़क तौलने जैसे कवायद बनती जा रही है जिसमें एक को बिठाओ तो दूसरा कूद जाता है | संकट के समय में भी कांग्रेस द्वारा आम आदमी पार्टी से दूरी बनाये रखना विपक्षी एकता की कोशिशों को बाधित करने जैसा ही है |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 6 March 2023

पूर्वी भारत से मजदूरों का पलायन आखिर कब तक ?



तमिलनाडु के राजनेता सदैव संघीय  ढांचे का राग अलापते हुए अपने राज्य के हितों की  उपेक्षा करने का आरोप लगाते हैं | हिन्दी का विरोध इस राज्य की सभी क्षेत्रीय पार्टियों का सबसे बड़ा हथियार है | आधी सदी से भी ज्यादा दक्षिण का यह राज्य हिन्दी विरोध का गढ़ बन हुआ है | नौबत यहाँ तक आ गई कि गत वर्ष केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा सरकारी कामकाज में हिन्दी का उपयोग बढ़ाये जाने संबंधी बयान  पर द्रमुक सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डी. राजा ने यहाँ तक कह दिया कि  हिन्दी लादने की कोशिश किये  जाने पर उनका राज्य भारत संघ से अलग होने के बारे में सोच सकता है | इस बारे में याद रखने वाली बात है कि श्रीलंका में  तमिल उग्रवाद को द्रमुक का समर्थन था | और जिस तमिल इलम( देश ) की मांग श्रीलंका में लिट्टे नामक आतंकवादी संगठन कर रहा था उसमें तमिलनाडु भी शामिल था | वर्तमान मुख्यमंत्री स्टालिन के पिता स्व. करूणानिधि लिट्टे के समर्थक थे और इसीलिये राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी  सरकार बर्खास्त कर दी गई | वैसे आजकल कांग्रेस और द्रमुक का गठबंधन चल रहा है | हाल ही में स्टालिन के जन्मदिन पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे के अलावा डा. फारुख अब्दुल्ला , तेजस्वी यादव और  अखिलेश यादव ने चेन्नई पहुंचकर 2024 में भाजपा के विरोध में गठबंधन बनाने की मुहिम शुरू की | लेकिन उसके बाद राज्य से बिहारी कामगारों के साथ मारपीट करते हुए वापस जाने का दबाव बनाये जाने की खबरें आने से तेजस्वी यादव और उनके साथ ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए बिहार की जनता को जवाब देना मुश्किल  हो गया | विधानसभा में तेजस्वी ने उन  खबरों को अफवाह बताकर आग में घी डाल दिया | विपक्ष के जबरदस्त दबाव और समाचार माध्यमों में बिहारी श्रमिकों के साथ  मारपीट के सचित्र समाचार आने के  बाद नीतीश सरकार ने सचिव स्तर के अधिकारी वास्तविकता का पता लगाने चेन्नई रवाना भी किये | उधर तमिलनाडु के श्रम मंत्री तथा गृह सचिव ने बिहारी मजदूरों की सुरक्षा का आश्वासन देते हुए उनसे वापस न जाने की अपील भी की | लेकिन जिस बड़ी संख्या में तमिलनाडु में रोजी रोटी कमाने गए श्रमिक अपनी गृहस्थी का सामान बेचकर अपने गाँव लौटे उसके बाद स्टालिन  सरकार के तमाम दावे असत्य साबित हो गए | उल्लेखनीय है तमिलनाडु के कारखानों में बिहार के कामगार बड़ी संख्या में बरसों से कार्यरत हैं | अचानक उनके प्रति स्थानीय लोगों का गुस्सा क्यों पनपा ये वाकई जाँच का विषय है | जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार मजदूरों को हिन्दी में बात करने पर पीटा जा रहा है | उनसे पूछा जाता है कि हिन्दी हो और हाँ कहने पर दुर्व्यवहार के साथ पिटाई की जाती है | ये भी कहा जाता है कि  अपने घर लौट जाओ क्योंकि तुम्हारे कारण हमारा रोजगार छिन रहा है |  इस बारे मे ये जानकारी भी मिली कि तमिलनाडु के युवकों के बीच ये धारणा फैलाई जा रही है कि उत्तर भारत से आने वाले श्रमिक वहां के कारखानों में कम मजदूरी पर भी ज्यादा काम करते हैं इसलिए उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है जिससे स्थानीय लोगों को बेरोजगारी का सामान करना पड़ रहा है | लेकिन इसी के साथ ये भी  पता चला है कि टेक्सटाइल उद्योग के बड़े गढ़ सिरपुर के कारखाना मालिक बिहारी मजदूरों को पलायन से रोक रहे हैं क्योंकि बीते कुछ दिनों में ही हजारों की संख्या में उनके लौट जाने से अनेक कारखाने बंद होने की स्थिति में आ गए और बाकी में उत्पादन घट गया | इस बारे में चिंता की बात ये है कि तमिलनाडु से उठी ये भावना यदि पड़ोसी कर्नाटक , केरल , आन्ध्र और तेलंगाना में भी फैली तब उत्तर भारतीय मजदूरों के सामने तो संकट  आयेगा ही उत्तर और  दक्षिण के बीच वैमनस्य का भाव उत्पन्न होगा जिसके दूरगामी नतीजे घातक होंगे | महाराष्ट्र में भी लम्बे समय तक ऐसा ही माहौल रहा और उत्तर भारतीयों के साथ  मारपीट की घटनाएँ होती रहीं | हालांकि तमिलनाडु में जो हो रहा है उसके पीछे हिन्दी को मुद्दा बनाये जाने से लगता है कि कोई न कोई राजनीतिक दल या नेता इस बवाल के पीछे है | लेकिन ये स्थिति बिहार और उ.प्र के लिए भी विचारणीय विषय होना चाहिए | सवाल ये नहीं है कि आज वहां किसकी सरकार है , बल्कि ये कि इन राज्यों से श्रमिकों का पलायन आखिर होता क्यों है ? इस बारे में जान लेना जरूरी है कि ब्रिटिश राज में मॉरीशस और फिजी के साथ ही कैरीबियन देशों में हजारों की संख्या में जो भारतीय मजदूर ले जाये गए थे उनमें से अधिकतर पूर्वी उ.प्र और बिहार के ही थे | उक्त देशों की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आज भी उन्हीं भारतीय मजदूरों के वंशजों का  हैं जो  हिन्दू नामों के साथ ही हिन्दू धर्म और संस्कृति का पालन करते हैं | कुछ तो वहां के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बन गये | इससे स्पष्ट है कि उत्तर भारत के उक्त हिस्सों से श्रमिकों का पलायन नई बात नहीं है | लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी पूर्वी भारत में ये शर्मनाक स्थिति क्यों है ये केवल इन राज्यों के लिए नहीं अपितु पूरे देश के लिए विचारणीय प्रश्न है | छत्तीसगढ़ और म.प्र के बुंदेलखंड से भी श्रमिक अन्य राज्यों में ले जाये जाते हैं | पंजाब और कश्मीर में जब आतंकवाद चरम पर था तब भी वहां उक्त राज्यों से श्रमिक जाकर काम करते थे | इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि ये राज्य अपने मजदूरों को काम देने में विफल रहे हैं | हालाँकि विकास के दावे तो आजकल रोजाना सुनने मिलते हैं किन्तु उनके बाद भी कोई व्यक्ति रोजी रोटी की खातिर  अपना घर छोड़कर ऐसे स्थानों पर जाता है जहां की भाषा और खानपान सर्वथा भिन्न है तब उसकी मजबूरी समझी जा सकती है | तमिलनाडु में जो हो रहा है या अतीत में महाराष्ट्र में जो होता रहा उसकी कोई भी समझदार व्यक्ति प्रशंसा नहीं करेगा परन्तु ये भी स्वीकार करना होगा कि देश में विकास संबंधी विषमता के कारण ही इस तरह का पलायन और फिर संघर्ष की  स्थिति बन जाती है | हो सकता है तमिलनाड़ु में हालात फिर सामान्य हो जाएँ किन्तु समय आ गया है जब पिछड़े राज्यों के लोगों को वहीं रोजगार देने की व्यवस्था की जावे | आखिर  जब इन राज्यों  के नेताओं का पिछड़ापन दूर हो सकता है तो जनता का क्यों नहीं ?


रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 4 March 2023

बदलते ऋतु चक्र के खतरे से दुनिया को बचाने आगे आये भारत



इटली का वेनिस शहर अपनी विशिष्टता के  लिए पूरी दुनिया के पर्यटकों को लुभाता है | इस शहर में सड़कों की जगह नहरें हैं जिनमें आवगमन नावों के जरिये होता है | इटली जाने वाले अधिकांश सैलानी वेनिस जाये बिना नहीं रहते | लेकिन इस वर्ष वेनिस की नहरों में पानी सूख चुका है | यहाँ - वहां नावें बंधी देखी जा सकती हैं | तीन साल पहले भी ये स्थिति बनी थी | समुद्र के किनारे बसे वेनिस को इस साल कम बरसात के कारण ये  त्रासदी झेलनी पड़ रही है | विभिन्न टापुओं से बने वेनिस के किनारे का समुद्री जलस्तर नीचे चले जाने की वजह से संकट और गहरा गया है | मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यूरोप का ऋतु चक्र परिवर्तित हो रहा है  जिसके परिणामस्वरूप आने वाले समय में वहां वर्षा और हिमपात घटता जाएगा | हाल ही में उत्तरी ध्रुव के बड़े हिमशैल के टूटकर समुद्र में आने की खबर से दुनिया भर में चिंता व्यक्त की गई थी | इसकी वजह पृथ्वी के तापमान में असामान्य वृद्धि  ( ग्लोबल वार्मिंग ) मानी जाती है | इस संकट से बचने के लिए विकसित  देशों द्वारा विकासशील देशों पर पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाली गतिविधियाँ रोकने का दबाव डाला जाता है | अनेक अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ भी पर्यावरण संरक्षण हेतु हो चुकी हैं | लेकिन ये विकसित देश ही पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते  है | चूंकि इस बारे में बनने वाली जाँच टीमों में इन्हीं देशों का दबदबा है और सभी प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को भी यही नियंत्रित करते हैं इसलिए वैश्विक स्तर पर बढ़ते प्रदूषण में इनके योगदान की चर्चा कम होती है | जबकि सच्चाई ये है कि धरती , समुद्र और आकाश तीनों में आज जो प्रदूषण है उसके लिए विकसित देश ही  ज्यादा कसूरवार हैं | औद्योगिक विकास के साथ  तकनीक के उन्नयन और विलासितापूर्ण  जीवन शैली के कारण इनका आम नागरिक प्राकृतिक संसाधनों का जितनी बेरहमी से उपयोग करता है  उसकी वजह से ही पृथ्वी का तापमान बढ़ता चला जा रहा है | ये कहना भी गलत न होगा कि विकसित देशों के लोग सुविधाओं के गुलाम हो चुके हैं | वेनिस की नहरों का सूखना और  उत्तरी ध्रुव से विशाल हिम शैलों का टूटकर समुद्र में आ जाना उस भयावह दृश्य  का एहसास करवाता है जिसे भरतीय दर्शन में प्रलय कहा जाता है | भारत में भी इस साल समय से पहले ग्रीष्म ऋतु का आ धमकना भावी खतरों का संकेत है | यूरोप के साथ अमेरिका में भी गर्मियां अब पहले से ज्यादा  तपने लगी हैं | इस वजह से वहां पंखों का चलन बढ़ने की खबरें हैं | भारत  इस साल जी 20 समूह का अध्यक्ष है | इसके वार्षिक सम्मेलन की गतिविधियाँ शुरू हो गयी हैं | इसके पूर्व में भी अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संरासंघ जैसे वैश्विक मंचों पर भारत द्वारा बदलते मौसम और उसके दुष्प्रभाव पर विश्व समुदाय को अपनी चिंताओं के साथ प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण हेतु भारत के प्राचीन ज्ञान के बारे में अवगत कराया जाता रहा है | ऐसे में जी 20 के अध्यक्ष के रूप में भारत को इस सम्मलेन में आर्थिक और राजनयिक मुद्दों के साथ ही पर्यावरण संरक्षण के विषय को जोरदारी से उठाते हुए विकसित देशों के सामने विकासशील देशों की भावनाएं और समस्याओं को इस तरह पेश करना चाहिए जिससे कि उनकी मनमानी पर रोक लगाई जा सके | छोटे – छोटे देशों पर पर्यावरण को क्षति पहुँचाने का आरोप लगाने  वाले दुनिया के चौधरी जिस वासना के शिकार हैं वह आने वाले पीढ़ियों के लिए बड़ी त्रासदी को जन्म देने वाली है |  ऐसे में विकास की समूची अवधारणा को बदलना होगा | दुर्भाग्य से संरासंघ जैसे संगठन इस दिशा में अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन करने में विफल रहे हैं | ये देखते हुए भारत को इस मुहिम का नेतृत्व करना चाहिए क्योंकि मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में वह ऐसा देश बन चुका है जो विकसित और विकासशील देशों के बीच सेतु का काम कर सकता है | सबसे बड़ी बात ये है कि भारत की छवि एक ईमानदार और जिम्मेदार देश के तौर पर कायम हो चुकी है ,जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है और जो शीत युद्ध रूपी गुटबाजी  से दूर रचनात्मक सोच के साथ विश्व बिरादरी में निरन्तर अपनी साख  और धाक  बनाये हुए है | आने वाली गर्मियाँ हमारे देश को जो नया अनुभव देंगी उनके आधार भविष्य की मौसम संबंधी नीति तय करने में भारत दुनिया का नेतृत्व कर सकता है | कोरोना और यूक्रेन संकट में उसकी  निर्णय और नेतृत्व क्षमता शानदार तरीके से उजागर हुई है |

रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 3 March 2023

पूर्वोत्तर के नतीजे : छोटे राज्यों से बड़ा राजनीतिक सन्देश



तीन पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव परिणाम भले ही राष्ट्रीय राजनीति को गहराई तक प्रभावित न करते हों लेकिन संचार क्रांति के इस दौर में देश के किसी भी कोने में होने वाली छोटी - बड़ी घटना की जानकारी सब दूर फ़ैल जाती है और तदनुसार उसका विश्लेषण भी होता है | उस दृष्टि से त्रिपुरा , नगालैंड और मेघालय विधानसभा चुनाव के जो नतीजे आये उनमें  न सिर्फ राजनीतिक दलों अपितु अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों की भी रूचि देखी गयी क्योंकि उत्तर पूर्व का क्षेत्र अब पहले जैसा  समस्याग्रस्त न रहते हुए विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा  हैं | उच्च स्तरीय राजमार्गों सहित अधो संरचना के अन्य कार्य पूरे देश की तरह वहां भी तेजी से चलने की वजह से  अलगाववादी संगठन कमजोर हुए और मुख्यधारा की राजनीति ने अपने पैर जमाये हैं | हालाँकि कांग्रेस और वामपंथी दलों  की उपस्थिति इन राज्यों में पहले से थी और वे  सरकार  में भी रहे लेकिन  2014 में केंद्र  की सत्ता पर भाजपा के काबिज होने के बाद पूर्वोत्तर की सियासी तस्वीर बदलने लगी और भाजपा ने वहां अपनी उपस्थिति जोरशोर से दर्ज करवा दी | सबसे बड़ा चमत्कार हुआ त्रिपुरा में जो वामपंथी दलों का मजबूत गढ़ था | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर के लगातार दौरे करते हुए वहाँ के लोगों के मन में बैठी इस अवधारणा को काफी हद तक दूर करने में सफलता हासिल की कि वे उपेक्षित हैं | यही वजह रही कि पूर्वोत्तर के वे क्षेत्रीय दल जो भारतीय संघ से जुड़ने से परहेज करते थे भाजपा की  राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए |त्रिपुरा में वामपंथ की  जड़ों को खोदना आसान न था | कांग्रेस तो  इसमें विफल साबित हुई ही , प. बंगाल से  साम्यवादियों को खदेड़ने वाली ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी इस राज्य में नाकाम रही  | लेकिन 2018 में भाजपा ने त्रिपुरा में तो इतिहास रचा ही किन्तु नगालैंड और मेघालय में भी वह क्षेत्रीय दलों के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो गयी | इसके अलावा असम , मणिपुर और अरुणाचल में भी उसकी सत्ता है | जानकार इसके लिए मोदी - शाह की जोड़ी के साथ ही रास्वसंघ द्वारा पूर्वोत्तर के आदिवासी तबकों के बीच राष्ट्रवादी भावना के प्रसार  हेतु चलाये जा  रहे प्रकल्पों को श्रेय दे रहे हैं | संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के अथक प्रयासों का ही परिणाम है कि जो आदिवासी और अन्य जातीय कबीले अलगाववादियों के प्रभाव में भारत विरोधी हिंसक  गतिविधियों में लिप्त थे वे हथियार छोड़कर यदि मुख्यधारा में आये तो ये बड़ी उपलब्धि रही जिसके लिए केंद्र सरकार द्वारा  पूर्वोत्तर को विकास में समान  हिस्सा दिए जाने की नीति भी काफी हद तक सहायक बनी | इस बारे में ये याद रखने लायक है कि प्रधानमंत्री बनने के  पूर्व से ही डा.मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा में आते रहे लेकिन वे भी इस अंचल से अलगाववादी ताकतों का हौसला ठंडा करने में विफल रहे | भाजपा की  सफलता इसलिए और मायने रखती है कि  पूर्वोत्तर के राज्यों में ईसाइयत का काफी दबदबा रहा है | इसके अलावा वहां के अनेक आदिवासी समुदाय भी अपने को हिन्दू नहीं मानते | कुछ जातियां तो अलग राष्ट्रीयता का राग अलापती रहीं | लेकिन धीरे – धीरे वहां का समूचा परिदृश्य बदलता लग रहा है | इसके कारण भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले पूर्वोत्तर में पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि होने लगी है | इसलिए इन परिणामों को बजाय राजनीति के  राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी देखना होगा  | कांग्रेस को इस बारे में चिंता और चिन्तन दोनों करना चाहिए कि क्या वजह है जिससे यहाँ के मतदाताओं का उससे मोहभंग होता जा रहा है | उसने वामपंथियों से जो गठबंधन किया वह भी काम नहीं आया और  तीनों राज्यों में उसकी दयनीय स्थिति बन गयी | लेकिन इसके लिए उसका शीर्ष नेतृत्व ही जिम्मेदार है जिसने इन चुनावों को हल्के में लिया और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को वैतरणी पार कराने वाली मान बैठा  | एक तरफ जहां प्रधानमंत्री , गृह मंत्री और रक्षा मंत्री सहित भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तीनों राज्यों में पार्टी की जीत के लिए प्रयास करते देखे गए वहीं कांग्रेस यात्रा की खुमारी में डूबी रही | ऐसे में ये मान लेना गलत न  होगा कि कांग्रेस में हौसले की कमी है | झटका तो तृणमूल कांग्रेस को भी लगा है जो सोचती थी कि बंगाल  जैसा जादू इन राज्यों में भी चला लेगी | हालाँकि ये नतीजे कर्नाटक , तेलंगाना , म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों पर कितना असर डालेंगे ये पक्के तौर पर कह पाना तो कठिन है किन्तु भाजपा का मनोबल इस बात से जरूर बढ़ा होगा कि वह तीनों राज्यों में सत्ता में वापसी कर सकी | इसके साथ ही जिस प्रकार तृणमूल कांग्रेस ने गत दिवस विपक्षी गठबंधन से अलग रहकर लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर डाली उससे भी विपक्षी बिखराव का संकेत  मिल रहा है | सबसे बड़ी बात इन चुनाव परिणामों से ये निकलकर आई कि कांग्रेस विपक्षी गठबंधन की नेता बनने के लिए दबाव डालने की हैसियत खो बैठी है | छोटे छोटे राज्यों में उसका हाशिये पर सिमटता  जाना उसके कद को लगातार घटा रहा है | ऐसे में उ.प्र ,बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में जो क्षेत्रीय दल प्रभावशाली हैं वे उसे भला क्यों भाव देंगे ?

रवीन्द्र वाजपेयी