Friday 3 March 2023

पूर्वोत्तर के नतीजे : छोटे राज्यों से बड़ा राजनीतिक सन्देश



तीन पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव परिणाम भले ही राष्ट्रीय राजनीति को गहराई तक प्रभावित न करते हों लेकिन संचार क्रांति के इस दौर में देश के किसी भी कोने में होने वाली छोटी - बड़ी घटना की जानकारी सब दूर फ़ैल जाती है और तदनुसार उसका विश्लेषण भी होता है | उस दृष्टि से त्रिपुरा , नगालैंड और मेघालय विधानसभा चुनाव के जो नतीजे आये उनमें  न सिर्फ राजनीतिक दलों अपितु अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों की भी रूचि देखी गयी क्योंकि उत्तर पूर्व का क्षेत्र अब पहले जैसा  समस्याग्रस्त न रहते हुए विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा  हैं | उच्च स्तरीय राजमार्गों सहित अधो संरचना के अन्य कार्य पूरे देश की तरह वहां भी तेजी से चलने की वजह से  अलगाववादी संगठन कमजोर हुए और मुख्यधारा की राजनीति ने अपने पैर जमाये हैं | हालाँकि कांग्रेस और वामपंथी दलों  की उपस्थिति इन राज्यों में पहले से थी और वे  सरकार  में भी रहे लेकिन  2014 में केंद्र  की सत्ता पर भाजपा के काबिज होने के बाद पूर्वोत्तर की सियासी तस्वीर बदलने लगी और भाजपा ने वहां अपनी उपस्थिति जोरशोर से दर्ज करवा दी | सबसे बड़ा चमत्कार हुआ त्रिपुरा में जो वामपंथी दलों का मजबूत गढ़ था | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर के लगातार दौरे करते हुए वहाँ के लोगों के मन में बैठी इस अवधारणा को काफी हद तक दूर करने में सफलता हासिल की कि वे उपेक्षित हैं | यही वजह रही कि पूर्वोत्तर के वे क्षेत्रीय दल जो भारतीय संघ से जुड़ने से परहेज करते थे भाजपा की  राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए |त्रिपुरा में वामपंथ की  जड़ों को खोदना आसान न था | कांग्रेस तो  इसमें विफल साबित हुई ही , प. बंगाल से  साम्यवादियों को खदेड़ने वाली ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी इस राज्य में नाकाम रही  | लेकिन 2018 में भाजपा ने त्रिपुरा में तो इतिहास रचा ही किन्तु नगालैंड और मेघालय में भी वह क्षेत्रीय दलों के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो गयी | इसके अलावा असम , मणिपुर और अरुणाचल में भी उसकी सत्ता है | जानकार इसके लिए मोदी - शाह की जोड़ी के साथ ही रास्वसंघ द्वारा पूर्वोत्तर के आदिवासी तबकों के बीच राष्ट्रवादी भावना के प्रसार  हेतु चलाये जा  रहे प्रकल्पों को श्रेय दे रहे हैं | संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के अथक प्रयासों का ही परिणाम है कि जो आदिवासी और अन्य जातीय कबीले अलगाववादियों के प्रभाव में भारत विरोधी हिंसक  गतिविधियों में लिप्त थे वे हथियार छोड़कर यदि मुख्यधारा में आये तो ये बड़ी उपलब्धि रही जिसके लिए केंद्र सरकार द्वारा  पूर्वोत्तर को विकास में समान  हिस्सा दिए जाने की नीति भी काफी हद तक सहायक बनी | इस बारे में ये याद रखने लायक है कि प्रधानमंत्री बनने के  पूर्व से ही डा.मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा में आते रहे लेकिन वे भी इस अंचल से अलगाववादी ताकतों का हौसला ठंडा करने में विफल रहे | भाजपा की  सफलता इसलिए और मायने रखती है कि  पूर्वोत्तर के राज्यों में ईसाइयत का काफी दबदबा रहा है | इसके अलावा वहां के अनेक आदिवासी समुदाय भी अपने को हिन्दू नहीं मानते | कुछ जातियां तो अलग राष्ट्रीयता का राग अलापती रहीं | लेकिन धीरे – धीरे वहां का समूचा परिदृश्य बदलता लग रहा है | इसके कारण भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले पूर्वोत्तर में पर्यटकों की संख्या में भी वृद्धि होने लगी है | इसलिए इन परिणामों को बजाय राजनीति के  राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी देखना होगा  | कांग्रेस को इस बारे में चिंता और चिन्तन दोनों करना चाहिए कि क्या वजह है जिससे यहाँ के मतदाताओं का उससे मोहभंग होता जा रहा है | उसने वामपंथियों से जो गठबंधन किया वह भी काम नहीं आया और  तीनों राज्यों में उसकी दयनीय स्थिति बन गयी | लेकिन इसके लिए उसका शीर्ष नेतृत्व ही जिम्मेदार है जिसने इन चुनावों को हल्के में लिया और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को वैतरणी पार कराने वाली मान बैठा  | एक तरफ जहां प्रधानमंत्री , गृह मंत्री और रक्षा मंत्री सहित भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तीनों राज्यों में पार्टी की जीत के लिए प्रयास करते देखे गए वहीं कांग्रेस यात्रा की खुमारी में डूबी रही | ऐसे में ये मान लेना गलत न  होगा कि कांग्रेस में हौसले की कमी है | झटका तो तृणमूल कांग्रेस को भी लगा है जो सोचती थी कि बंगाल  जैसा जादू इन राज्यों में भी चला लेगी | हालाँकि ये नतीजे कर्नाटक , तेलंगाना , म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों पर कितना असर डालेंगे ये पक्के तौर पर कह पाना तो कठिन है किन्तु भाजपा का मनोबल इस बात से जरूर बढ़ा होगा कि वह तीनों राज्यों में सत्ता में वापसी कर सकी | इसके साथ ही जिस प्रकार तृणमूल कांग्रेस ने गत दिवस विपक्षी गठबंधन से अलग रहकर लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर डाली उससे भी विपक्षी बिखराव का संकेत  मिल रहा है | सबसे बड़ी बात इन चुनाव परिणामों से ये निकलकर आई कि कांग्रेस विपक्षी गठबंधन की नेता बनने के लिए दबाव डालने की हैसियत खो बैठी है | छोटे छोटे राज्यों में उसका हाशिये पर सिमटता  जाना उसके कद को लगातार घटा रहा है | ऐसे में उ.प्र ,बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में जो क्षेत्रीय दल प्रभावशाली हैं वे उसे भला क्यों भाव देंगे ?

रवीन्द्र वाजपेयी 

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