Wednesday 31 October 2018

कहीं अर्थव्यवस्था का कबाड़ा न हो जाए

सीबीआई मामले में सरकारी हस्तक्षेप का विवाद अभी निपटा ही नहीं था कि रिजर्व बैंक  और केंद्र सरकार के बीच खींचातानी खुलकर सामने आ गई। हाल ही में एक सार्वजनिक व्याख्यान में बैंक के एक उच्च अधिकारी द्वारा सरकारी हस्तक्षेप के दुष्परिणामों को लेकर जो बातें कहीं वे केंद्र सरकार को रास नहीं आईं। उधर बैंक के कर्मचारीगण जिस तरह से सरकार के विरुद्ध लामबंद हुए वह भी इस बात का संकेत है कि रिजर्व बैंक का प्रशासनिक ढांचा सरकारी नियंत्रण को बर्दाश्त करने के लिए रत्ती भर भी राजी नहीं है। इसकी एक वजह हाल ही में केंद्र द्वारा की गई कुछ नियुक्तियां हैं जिनमें संघ परिवार से जुड़े एस. गुरुमूर्ति के साथ ही स्वदेशी जागरण मंच के एक प्रमुख कार्यकर्ता उल्लेखनीय हैं। एक दो अधिकारियों की छुट्टी सरकार द्वारा किये जाने से भी बैंक प्रबंधन के भीतर गुस्सा देखा गया। इसकी अभिव्यक्ति सार्वजनिक होते ही सरकार ने भी मौन तोड़ा और गत दिवस वित्त मंत्री अरुण जेटली ने रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के सामने ही अंधाधुंध कर्जा बांटने को वर्तमान समस्या का कारण बताते हुए एनपीए में हुई रिकार्डतोड़ वृद्धि के लिए रिजर्व बैंक को लताड़ा वहीं एनपीए कम करने के लिए उठाये जा रहे कड़े कदमों की व्यवहारिकता पर भी सवाल खड़े कर दिए। दरअसल सरकार की नाराजगी इस संस्थान से इस बात को लेकर है कि मौद्रिक नीतियों की समीक्षा करते समय सरकार की अपेक्षानुसार उसने छोटे कर्जदारों को उपकृत करने के प्रति उदार रवैया नहीं अपनाया। ब्याज दरें कम नहीं करने और नगदी बढ़ाने के प्रति उपेक्षाभाव के कारण उद्योग व्यापार जगत भी असंतुष्ट होता गया। बाजार में मांग नहीं उठने से मंदी लंबी खिंचती जा रही है। ब्याज दरों में कारोबारी जगत की अपेक्षानुसार कमी न होने से कीमतें अंतर्राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हो पा रहीं। इसकी वजह से निर्यात और आयात का सन्तुलन बुरी तरह गड़बड़ाता जा रहा है। सबसे बड़ी चिंता का विषय ये है कि सरकार का वित्तीय घाटा अन्तिम तिमाही के पहले ही लक्ष्य के 95 प्रतिशत तक पहुँच चुका है जिसकी वजह से वार्षिक विकास दर के सारे अनुमान खटाई में पड़ रहे हैं। रिजर्व बैंक से सरकार की नाराजगी का कारण ये भी है कि नोटबन्दी के बाद बाजार में मौद्रिक प्रबंधन को वह नहीं सम्भाल सका जिसकी वजह से केंद्र सरकार की काफी बदनामी हुईं। यद्यपि उस समय के गवर्नर रघुराम राजन तो हट गए किन्तु नए गवर्नर भी सरकार की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। दरअसल रिजर्व बैंक के भीतर मोदी सरकार को लेकर जो परेशानी है वह गैर पेशेवर लोगों के हस्तक्षेप की कही जा रही है। ये भी हो सकता है कि स्वायत्तता की आड़ में रिजर्व बैंक सरकार की वित्तीय नीतियों को सम्बल देने की बजाय उनके क्रियान्वयन में रोड़े अटका रहा हो। सच्चाई जो भी हो लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि रिजर्व बैंक के निर्णयों से न जनता को राहत मिल सकी और न ही सरकार उनसे सन्तुष्ट हुई। अभी तक तो सरकार ने धैर्य रखा लेकिन अब प्रधानमंत्री को अगले लोकसभा चुनाव की चिंता सताने लगी है। अच्छे दिन के जिस वायदे पर सवार होकर वे सत्ता तक पहुंचे वह तो हवा में उड़ गया और ऊपर से समाज का हर वर्ग आर्थिक दृष्टि से स्वयं को परेशानी में अनुभव कर रहा है। हालाँकि ये भी सही है कि केंद्र सरकार ने अर्थव्यव्यस्था को सुदृढ करने के अच्छे उपाय किये किन्तु वे सभी दूरगामी सोच पर आधारित होने की वजह से तत्काल परिणाम नहीं दे सके। रही बात रिजर्व बैंक की तो वह इस दौरान सरकार को उपकृत करने की बजाय बैंकिंग उद्योग के समक्ष उत्पन्न एनपीए नामक अभूतपूर्व संकट से जूझने के कारण बेहद तकनीकी और सख्त हो गया। एक समय यही रिजर्व बैंक दोनों हाथों से कर्ज बाँटने की नीति पर चल रहा था। डॉ. मनमोहन सिंह प्रवर्तित आर्थिक सुधारों के बाद उपभोक्तावाद की जो लहर आई उसके पीछे बैंकिंग उद्योग की ऋण नीतियों में आया लचीलापन ही था। इसी के चलते विजय माल्या सरीखे अय्याशों को उनकी औकात से ज्यादा कर्ज मिल गया जिसका दुष्परिणाम सामने है। जब एनपीए संकट उजागर हुआ और बड़े बड़े बैंकों की कमर टूटने को आ गई तब रिज़र्व बैंक ने डंडा घुमाया लेकिन उससे बड़े घोटालेबाजों का तो जो बिगडऩा था वह बिगड़ा ही लेकिन छोटा और मझोले किस्म का कर्जदाता उससे त्रस्त होकर बैंकिंग व्यवस्था और केंद्र सरकार दोनों को कोसने लगा। केंद्र सरकार खुद दोहरी मुसीबत में फंस गई है। यदि वह रिजर्व बैंक पर शिकंजा कसती है तो उस पर इस संस्था की स्वायत्तता भंग करने जैसा आरोप और पुख्ता हो जायेगा और यदि यथास्थिति बनाए रखकर रिजर्व बैंक को उसकी मर्जी से चलने की छूट देती रहती है तो उसका परंपरागत समर्थक उससे विमुख हो जाएगा। न्यायपालिका ,सीबीआई और इस तरह की अन्य स्वायत्त संस्थाओं के बाद रिजर्व बैंक को लेकर जो विवाद पैदा हुआ उससे न सिर्फ  केंद्र सरकार अपितु भाजपा के विरुद्ध भी ये प्रचार तेज हो चला है कि वह संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज में बेजा दखल दे रही है। सच्चाई जो भी हो लेकिन इस समूचे विवाद ने कई ऐसे पहलू उजागर कर दिए जो अब तक जनता के संज्ञान में नहीं रहे। सरकार और रिजर्व बैंक में किसका पक्ष मजबूत है ये तय कर पाना फिलहाल तो सम्भव नहीं है किंतु इतना तो कहा ही जा सकता है थोड़ी-थोड़ी गलती दोनों पक्षों की है। ये झगड़ा कहाँ तक जाएगा कहना कठिन है क्योंकि दोनों पक्ष अपने को सही ठहराने में जुटे हुए हैं। देखने वाली बात ये होगी कि अधिकारों और अहं की इस लड़ाई में अर्थव्यव्यस्था का कबाड़ा न हो जाये ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 30 October 2018

राम मंदिर से ज्यादा प्राथमिकता और क्या है

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अयोध्या विवाद पर सुनवाई दो महीने टालते हुए जो टिप्पणी की उसके निहितार्थ को तो समझने वाले समझ ही गए होंगे । जिस आसानी से इस बहुप्रतीक्षित विवाद को उन्होंने आगे बढ़ा दिया उससे तो यही लगता है बीते तीन दशक से पूरे देश को आंदोलित करने वाले इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय जरा भी गम्भीर नहीं है । उल्लेखनीय है सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस प्रकरण की दैनिक सुनवाई करने की बात पूर्व में कही थी । पिछले मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल के अंतिम महीनों में ऐसा एहसास हुआ था कि वे जाते-जाते इस प्रकरण को उसके अन्तिम मुकाम पर ले जाएंगे । दैनिक सुनवाई का निर्णय उसी दिशा में एक कदम था लेकिन उसमें अड़ंगेबाजी की गई । श्री मिश्रा की न्यायपालिका के भीतर ही घेराबंदी कर बदनाम करने का कुचक्र रचा गया । बात तो महाभियोग तक जा पहुंची थी । कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने तो अदालत में ये मांग कर दी कि अयोध्या विवाद आगामी लोकसभा चुनाव तक टाल दिया जावे । कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले को जल्दी निपटाने की बजाय टांगकर रखने के प्रयास ही अधिक हुए। सेवानिवृत्त होने के पहले श्री मिश्रा की अगुआई में तय हुआ था कि 29 अक्टूबर से दैनिक सुनवाई शुरु होगी और शीघ्रातिशीघ्र इस प्रकरण का कानूनी निराकरण हो जायेगा  जिसे मानने की स्वीकृति वे हिन्दू और मुस्लिम संगठन भी दे चुके थे जो शुरुवात में इसे आस्था का प्रश्न मानकर अदालत के क्षेत्राधिकार से परे बताया करते थे ।  इसकी एक वजह ये भी है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिंदू परिषद सहित अन्य पक्षकारों के दिमाग में भी ये बात गहराई तक बैठ गई कि अदालती समाधान ही सबसे व्यवहारिक और सर्वमान्य होगा । और किसी तरीके से निर्णय करवा पाना लगभग नामुमकिन हो गया था क्योंकि आपसी बातचीत या लेनदेन के जरिये किसी सकारात्मक बिंदु तक पहुंचने की मानसिकता नहीं बन सकी वरना अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित स्थल का तीन हिस्सों में बंटवारा करने संबंधी जो निर्णय दिया था उसके विरुद्ध सभी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें लेकर नहीं गये होते।  बहरहाल ये कहने में कुछ भी अनुचित नहीं है कि जब तक श्री मिश्रा मुख्य न्यायाधीश रहे तब तक ये उम्मीद थी कि वे जाते-जाते इस बहुप्रतीक्षित विवाद को हल कर जाएंगे । और इसी वजह से उनको जबरदस्त विरोध का सामना भी करना पड़ा । उनके कार्यकाल के अंतिम महीनों में न्यायपालिका को लेकर इतने बवाल खड़े किये जाने के पीछे भी एक सोची- समझी रणनीति अवार्ड वापसी लॉबी की रही । इसके बावजूद भी चूंकि 29 अक्टूबर से नियमित सुनवाई का निर्णय हो चुका था इसलिए देश को उम्मीद थी कि उनके उत्तराधिकारी रंजन गोगोई इस विवाद को हल करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाएंगे । लेकिन कल उस समय निराशा हुई जब मुख्य न्यायाधीश ने जल्द सुनवाई के आग्रह को ठुकराते हुए दो टूक कह दिया कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ अलग हैं । अब जनवरी 2019 में नई पीठ ये तय करेगी कि इस प्रकरण की सुनवाई कब शुरू होगी? श्री गोगोई ने तो मार्च , अप्रैल और मई तक की बात कहकर ये इशारा भी कर दिया कि लोकसभा चुनाव तक इस मामले में किसी फैसले की उम्मीद करना व्यर्थ है । गत दिवस ज्योंही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया त्योंही मंदिर समर्थक लॉबी ने अध्यादेश के जरिये भूमि अधिग्रहण करते हुए मंदिर निर्माण की राह प्रशस्त करने का दबाव बनना शुरू कर दिया । असदुद्दीन ओवैसी तो केंद्र को चुनौती दे रहे हैं कि वह अध्यादेश लाकर दिखाए। अयोध्या आंदोलन से जुड़े साधु-संत भी कल के निर्णय से अधीर होते दिखे । भाजपा और संघ परिवार के बीच से भी केंद्र सरकार से मंदिर निर्माण के रास्ते से समस्त अवरोध हटाने हेतु अध्यादेश के जरिये विवादित भूमि अधिग्रहण का अनुरोध किया जाने लगा है । रास्वसंघ के स्थापना दिवस विजयादशमी पर नागपुर के वार्षिक आयोजन में भी संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने केंद्र से मंदिर निर्माण हेतु कानून बनाने की मांग की थी । गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दैनिक सुनवाई टालकर मामला महीनों आगे खिसका देने के बाद भी ये स्पष्ट नहीं है कि आखिरकार इसकी सुनवाई कब शुरू होगी और कब तक चलेगी? सर्वोच्च न्यायालय चूंकि स्वतन्त्र है इसलिए सरकार उससे अनुरोध तो कर सकती है किन्तु दबाव नहीं डाल सकती । और फिर जिन परिस्थितियों में श्री गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने वे भी सरकार के लिहाज से प्रतिकूल ही कही जावेंगी। ऐसे में श्री गोगोई ने यदि कह दिया कि उनकी प्राथमिकताएं अलग हैं तो इससे उन लोगों को तो कोई अचंभा नहीं हुआ जो बीते कुछ महीनों में सर्वोच्च न्यायालय में घटित घटनाचक्र से भली-भांति परिचित रहे किन्तु आम देशवासी को ये जानकर अटपटा लगा होगा कि न्याय की सर्वोच्च पीठ के सर्वोच्च महानुभाव को अयोध्या मुद्दा प्राथमिकता के आधार पर सुना जाने योग्य नहीं लगा। इन हालातों में 1990 और 1992 जैसे हालात बन जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।  बीते सप्ताह इसी सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई विवाद की जांच करने हेतु सीवीसी को विशेष अनुरोध करने पर मात्र 15 दिन में जांच पूर्ण कर रिपोर्ट बन्द लिफाफे में सौंपने का हुक्म जारी किया। जब सरकारी वकील ने बीच में दीपावली अवकाश का मुद्दा उठाया तो अदालत ने ये कहकर फटकार लगाई कि सीबीआई और सीवीसी भी कहीं छुट्टियां मनाते हैं। लेकिन जो जानकारी सामने आ रही है उसके अनुसार आगामी दो महीने में सर्वोच्च न्यायालय में छुट्टियों का लम्बा दौर चलेगा। अच्छा तो तब होता जब सर्वोच्च न्यायालय अवकाश के दिनों में भी अयोध्या मसले पर सुनवाई कर राष्ट्र की चिंता को दूर करने में सहायक होता। मुख्य न्यायाधीश की इसे टाल देने के पीछे क्या सोच रही ये तो वे ही बेहतर जानते होंगे किन्तु उन्होंने जिस हल्के-फुल्के अंदाज में उसे अपनी प्राथमिकताओं से अलग बताया उसकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं हो रही। अब तक तो नेताओं पर इस मामले को टरकाते रहने का आरोप लगता रहा है लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय भी वही करता नजर आ रहा है । ये सवाल भी स्वाभाविक है कि अयोध्या विवाद से ज्यादा और महत्वपूर्ण क्या हो सकता है जो पिछले तीस सालों से देश की राजनीति के केंद्र में बना हुआ है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 October 2018

दिग्विजय चुप हुए तो थरूर शुरू हो गए


पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद डॉ. शशि थरूर यूँ तो उच्च शिक्षित और कुलीन व्यक्ति हैं जिन्हें संरासंघ सरीखे मंच पर काम करने का अनुभव भी है। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी श्री थरूर राजनीति में किसी फिल्मी अभिनेता के  समान ही ग्लैमर रखते हैं। अच्छे लेखक और वक्ता के तौर पर भी वे प्रतिष्ठित हैं वहीं अपने निजी जीवन को लेकर भी वे चर्चाओं में रहते हैं। सुनन्दा पुष्कर नामक महिला से उनका विवाह जितना चर्चित हुआ उससे ज्यादा उसकी मृत्यु सुर्खियां बनीं। जिन परस्थितियों में सुनन्दा का शव दिल्ली के एक सितारा होटल के कमरे में बरामद हुआ उनकी वजह से जांच एजेंसियों को सन्देह हो रहा है कि सुनन्दा की मृत्यु स्वाभविक नहीं थी। शक की सुई श्री थरूर पर भी घूमने लगी। बीच में ये खबर भी उड़ी कि इस मुसीबत से बचने के लिए वे भाजपा घुसने वाले हैं। उनके कुछ बयान प्रधानमंत्री समर्थक भी आए जिसके लिए उन्हें कुछ कांग्रेस नेताओं के कटाक्ष भी सहने पड़े लेकिन लगता है बात बनी नहीं। उधर भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने सुनन्दा की मौत को हत्या का मामला बताते हुए उसमें श्री थरूर को लिप्त बताकर सुलह की बची-खुची सम्भावनाएँ भी खत्म कर दीं। शायद उसी के बाद वे भाजपा और श्री मोदी के विरुद्ध खुलकर बोलने लगे और वह भी बेहद तीखा और कुछ-कुछ स्तरहीन और विवादस्पद भी। हाल ही में उन्होंने हिंदुत्व को लेकर भी अनेक ऐसे बयान दिए जिनकी वजह से वे खुद तो आलोचना के शिकार हुए ही किन्तु उनसे ज्यादा नुक्सान कांग्रेस पार्टी का हुआ जिसके अध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों सौम्य  हिंदुत्व का चेहरा बनकर हिन्दू मतदाताओं के बीच पार्टी की छवि सुधारने में लगे हुए हैं। गत दिवस उन्होंने प्रधानमंत्री को लेकर फिर ऐसा बयान दे दिया जो पार्टी के गले पड़ रहा है। यद्यपि कांग्रेस में एक वर्ग ऐसा भी है जिसका मानना है कि राहुल और सोनिया जी को लेकर भाजपाईयों द्वारा की जाने वाली भद्दी टिप्पणियों का जवाब भी उसी शैली में दिया जाना चाहिए किन्तु अतीत के अनुभव बताते हैं कि जब-जब भी श्री मोदी के बारे में किसी भी कांग्रेसी नेता ने निम्नस्तरीय टिप्पणी की उसका लाभ भाजपा को ही मिला क्योंकि प्रधानमंत्री ऐसे अवसरों को लपककर भुनाने में बेहद माहिर हैं और अपनी इसी खासियत की वजह से उन्होंने अनेक मर्तबा हारी हुई बाजी पलट दी थी। अभी तक मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी जैसे कांग्रेसी नेताओं के बयानों से पार्टी को असहज स्थिति का सामना करना पड़ता रहा है। अब इसी जमात में थरूर साहब भी शरीक हो गए लगते हैं। संयोग की बात ये है कि उक्त सभी सुशिक्षित और सम्भ्रान्त पारिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं। दिग्विजय सिंह ने तो हाल ही में अपने गृहराज्य मप्र के विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रचार करने  से ये कहते हुए इंकार कर दिया कि उनके भाषणों से कांग्रेस का नुकसान हो जाता है। भले ही उन्हें ये बात काफी देर से समझ में आई लेकिन कम से कम आ तो गई। लेकिन लगता है दिग्विजय सिंह की बीमारी संक्रामक बनकर श्री थरूर को लग गई है जो आए दिन कुछ न कुछ ऐसा कह देते हैं जिससे उनकी तो छीछालेदर होती ही है किन्तु उससे ज्यादा मुसीबत झेलना पड़ती हैं कांग्रेस पार्टी को जो ऐसे बयानों से बिखरा कचरा बटोरते-बटोरते परेशान हो उठी है। हालांकि जवाब में भाजपा के नेतागण भी जो बोलते हैं वह मर्यादा का उल्लंघन है किंतु कांग्रेस चूंकि विपक्ष में है इसलिए उसे अपनी छवि के प्रति सदैव सतर्क रहना चाहिए और फिर श्री मोदी जैसे तेजतर्रार प्रधानमंत्री के बारे में बोलने से पहले तो अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए जो ईंट का जवाब पत्थर से देने में माहिर है। श्री थरूर ने अच्छे हिन्दू और बुरे हिन्दू के बाद शिवलिंग पर बैठे बिच्छु का उदाहरण ऐसे समय दिया जब राजस्थान, मप्र, छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। कांग्रेस को इन राज्यों में आशा की किरण नजर आ रही है लेकिन श्री थरूर सरीख़े नेताओं का मुंह इसी तह चलता रहा तो भाजपा विशेष रूप से प्रधानमंत्री विपक्ष के ज़हरबुझे तीर उसी की तरफ  मोडऩे की पूरी-पूरी कोशिश करेंगे। बेहतर है जिस तरह दिविजय सिंह ने खुद होकर अपनी जुबान पर ताला डाल लिया उसी तरह कांग्रेस श्री थरूर जैसों को ऐसे बयान देने से रोके  वरना वही होगा जो अब तक होता आया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 October 2018

याचिका का मुख्य मुद्दा तो अछूता ही रह गया

सर्वोच्च न्यायालय में विराजमान सम्माननीय न्यायाधीशों के अनुभव, विधिक ज्ञान और निष्पक्षता पर संदेह किये बगैर भी ये कहना गलत नहीं होगा कि अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों में उसके द्वारा दिये गए अनेक फैसले समझ से परे होते हैं। इसका ताजा उदाहरण है सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा की याचिका पर गत दिवस दिया गया फैसला जिसमें श्री वर्मा की याचिका में उठाए मुद्दे को स्पर्श तक करने की जरूरत प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने नहीं समझी। उनकी ओर से प्रख्यात अधिवक्ता फली नरीमन का खड़ा होना इस बात का संकेत था कि याचिकाकर्ता पूरी तरह से लडऩे के मूड में हैं। श्री नरीमन अपनी बात सुने जाने पर जोर देते रहे लेकिन पीठ ने उसे बाद में देखने की बात कहकर सीवीसी को 15 दिन में सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश ए. के. पटनायक की निगरानी में श्री वर्मा पर लगे आरोपों की जांच करने का आदेश दिया। उल्लेखनीय है सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की शिकायत पर सीवीसी द्वारा काफी समय से श्री वर्मा के विरुद्ध जांच की जा रही थी जिसका संज्ञान लेते हुए पीठ ने पहले 10 दिन और फिर विशेष अनुरोध पर 15 दिन का समय तय कर दिया लेकिन साथ में सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री पटनायक की निगरानी वाली व्यवस्था कर दी जिसका उद्देश्य जांच की निष्पक्षता बनाये रखना है क्योंकि सीबीआई में शीर्ष स्तर पर उठे विवाद में सीवीसी की भूमिका पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। लेकिन श्री वर्मा की याचिका में उन्हें छुट्टी पर भेजे जाने संबंधी आदेश की वैधानिकता को चुनौती देते हुए कहा गया था कि उनकी नियुक्ति चूंकि प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की समिति द्वारा की गई इसलिये उनसे कार्यभार छीनकर कार्यकाल खत्म होने के पहले जबरन छुट्टी पर भेजे जाने संबंधी निर्णय अनधिकृत और अवैधानिक होने से रद्द करने योग्य है। उल्लेखनीय है ज्योंही श्री वर्मा और श्री अस्थाना के बीच विवाद सामने आया त्योंही केंद्र सरकार ने आधी रात के समय उन दोनों को अवकाश पर भेजने का निर्णय किया जिसका आधार सीवीसी की सिफारिश बताया गया। पहले श्री वर्मा और उनके बाद श्री अस्थाना ने उस आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। लेकिन कल न्यायालय ने श्री वर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुए उनकी मुख्य मांग पर विस्तार से विचार करने के आश्वासन के साथ जो अंतरिम आदेश सुनाया वह याचिका से अलहदा है। इसलिए इसे याचिकाकर्ता के लिए राहत नहीं कहा जा सकता। जहां तक श्री अस्थाना की याचिका का प्रश्न है तो उसे तो न्यायालय ने सुना ही नहीं। इस फैसले से केवल एक बात तय हुई कि श्री वर्मा के विरुद्ध लंबित जांच सीवीसी को 15 दिन में पूरा कर न्यायालय को सौंपना होगा और उसकी निगरानी श्री पटनायक द्वारा की जाएगी जिससे सीवीसी कोई पक्षपात न कर सके। लगे हाथ सीबीआई के कार्यकारी निदेशक नागेश्वर राव पर भी बंधन लगा दिए गए किन्तु श्री वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने के अधिकार पर न कोई बहस हुई और न ही निर्णय। ऐसी स्थिति में मुख्य मुद्दा तो अनुत्तरित ही रहा जिससे प्रत्यक्ष न सही किन्तु केंद्र सरकार के कदम को परोक्ष रूप से तो समर्थन मिल ही गया। यदि न्यायालय श्री वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले पर स्थगन दे देता तो केंद्र सरकार की जबरदस्त किरकिरी होती किन्तु इसे लेकर केवल नोटिस जारी हुए। मान लें सीवीसी की जांच में श्री वर्मा दोषी निकल आए तब उनकी नियुक्ति और छुट्टी पर भेजे जाने की शक्ति को लेकर चल रही बहस दूसरा मोड़ ले लेगी और उनके द्वारा श्री अस्थाना के विरुद्ध शुरू की गई जांच भी दिशा से भटक सकती है। फिलहाल आगामी 15 दिन तो श्री वर्मा के लिए तनाव और निराशा भरे होंगे। श्री अस्थाना ने भी उन्हें अवकाश पर भेजे जाने को जो चुनौती दी है उस पर भी सर्वोच्च न्यायालय सम्भवत: अभी विचार नहीं करेगा और इस तरह अनिश्चितता बनी रहेगी। इस बीच राजनीति भी समानांतर चलती रही। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली और देश भर में श्री वर्मा की बहाली के लिए प्रदर्शन किए। राहुल का आरोप है कि श्री वर्मा चूंकि रॉफेल सौदे की जांच शुरु करने जा रहे थे इसलिये मोदी सरकार ने उनके विरुद्ध शिकंजा कसा लेकिन काँग्रेस अध्यक्ष को ये जानकारी कहां से मिली इसका खुलासा भी उन्हें करना चाहिये क्योंकि सीबीआई ने अधिकृत तौर पर इस बात का खंडन किया है। श्री अस्थाना और श्री वर्मा दोनों के प्रति किसी न किसी रूप में क्रमश: भाजपा और काँग्रेस की सहानुभूति जाहिर हो चुकी है। ऐसे में उन दोनों को कार्यभार से मुक्त करते हुए अवकाश पर भेजना प्रशासनिक दृष्टि से सहज निर्णय था जिसका उद्देश्य जांच में निष्पक्षता बनाए रखना था किंतु राजनीतिक दांवपेंच की वजह से मामला जबरन उलझ गया और सर्वोच्च न्यायालय भी उसी उलझाव में आ गया। बहरहाल अब अगले 15 दिन तक तो सीवीसी जांच करेगी। फिर रिपोर्ट न्यायालय को सौंपी जाएगी। उसके बाद मामले के निराकरण में कितना समय और लगेगा ये अनिश्चित है। क्या पता श्री वर्मा का कार्यकाल भी तब तक खत्म होने को आ जाए। इस प्रकरण से एक मुद्दा और उठ खड़ा हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय दूसरों को तो समय सीमा में काम करने का हुक्म दे देता है लेकिन राष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दों पर फैसला देने के बारे में न्यायपालिका खुद के लिए कोई सीमा तय क्यों नहीं करती?

-रवीन्द्र वाजपेयी