Wednesday 17 October 2018

दिग्विजय सिंह का दांव कांग्रेस के लिए चिंताजनक

मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कांग्रेस के उन नेताओं में से हैं जिन्हें स्व.अर्जुन सिंह के बाद सर्वाधिक जनाधार वाला नेता  कहा जा सकता है। यद्यपि 1993 से 2003 तक प्रदेश की सत्ता में रहने के बाद वे बहुत अलोकप्रिय हो गए जिसका दुष्परिणाम कांग्रेस आज तक भुगत रही है। बावजूद इसके ये सही है कि बीते डेढ़ दशक में कांग्रेस का कोई दूसरा नेता प्रदेश स्तर पर उन जैसी पकड़ और पहिचान नहीं बना सका। भले ही उन्होंने 2013 की हार के बाद प्रदेश की राजनीति से 10 साल तक दूर रहने की घोषणा कर दी किन्तु कांग्रेस महासचिव बनने के बाद अन्य प्रदेशों का दायित्व उनको पास आने के बावजूद वे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर मप्र की सियासत में अपनी जगह बनाए रहे। 2003 में कांग्रेस की पराजय के उपरांत उनके अनुज लक्ष्मण सिंह सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर भाजपा में चले गए और राजगढ़ से लोकसभा चुनाव भी जीते। हालांकि ऊपर-ऊपर तो दिग्विजय सिंह ने इस पर नाराजगी दिखाई किन्तु राजनीति के जानकार ये मानते रहे कि उसके पीछे अग्रज का ही हाथ था जिन्हें उमाश्री भारती की सरकार द्वारा उनके भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करवाये जाने का डर था। केन्द्र में कांग्रेस सरकार बनने के बाद लक्ष्मण की घर वापसी हो गई जिससे उक्त सन्देह को बल मिला। ये भी तथ्य है कि भाजपा की प्रदेश सरकार बीते 15 वर्ष में दिग्विजय सिंह के विरुद्ध किसी भी बड़े मामले को उजागर नहीं कर सकी। इस दौरान वे राष्ट्रीय राजनीति में अपने विवादास्पद बयानों की वजह से विख्यात कम कुख्यात ज्यादा हुए। विशेष रूप से हिन्दू संगठनों के बारे में उनकी टिप्पणियां राजनीतिक विवाद का विषय बनती गईं। इस वजह से कांग्रेस को बड़ी असहज स्थिति से रूबरू होना पड़ा। जिन राज्यों के वे प्रभारी बने उन सभी में कांग्रेस को जबरदस्त नुकसान हुआ। अंतत: कांग्रेस हाईकमान ने भी उनसे पिंड छुड़ाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनसे कई राज्यों का प्रभार छीन लिया गया। यहां तक भी बात ठीक थी लेकिन मप्र विधानसभा चुनाव के पहले कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान का जिम्मा दिए जाने के कारण दिग्विजय सिंह का महत्व कम किये जाने का एहसास हुआ। ये इसलिए चौंकाने वाला है क्योंकि 72 वर्ष की आयु में भी पैदल नर्मदा परिक्रमा का जो अनुष्ठान उन्होंने सपत्नीक किया उससे प्रदेश के  बड़े भूभाग में उनका जीवंत सम्पर्क लोगों से हुआ। यद्यपि यात्रा पूरी तरह से निजी और धार्मिक थी लेकिन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के कांग्रेस नेताओं का यात्रा मार्ग में उनसे मिलने आने का जो सिलसिला चला उससे ये संकेत निकला कि वे मप्र की राजनीति में फिर से शामिल होने को तैयार हैं। कांग्रेसजन भी पूरी यात्रा के आयोजन में जिस प्रकार उनके साथ जुड़े उससे भी ऐसा लगा कि दिग्विजय सिंह 15 साल बाद फिर एक बार सत्ता की दौड़ में शरीक होने जा रहे हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के साथ उन्हें समन्वयक की भूमिका में रखे जाने से भी कुछ उम्मीद पैदा हुई लेकिन राहुल गांधी की कतिपय यात्राओं के दौरान मंच के अलावा प्रचार सामग्री में उनकी गैर मौजूदगी ने सभी को चौंका दिया। आखिर में उनका धैर्य लगता है जवाब दे गया तभी उन्होंने ये बयान दे डाला कि वे कांग्रेस का प्रचार नहीं करेंगे क्योंकि इससे पार्टी को नुकसान होता है। वैसे कांग्रेस के भीतरखानों में ये चर्चा शुरू से चल रही थी कि 2003 वाली मिस्टर बंटाधार की उनकी छवि लोगों के मन से हटी नहीं है। लेकिन जिस तरह से उनके दौरे शुरू हुए थे उनसे लगने लगा था कि वे कांग्रेस के बड़े चेहरे के तौर पर सामने आएंगे लेकिन बीते दो तीन दिनों में दिग्विजय सिंह ने जिस हथियार रख देने का ऐलान किया उसने ये स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी उपेक्षा से मर्माहत हो गए हैं। ये भी कहा जा रहा है कि कमलनाथ ने टिकिट वितरण में जिस तरह से वर्चस्व बनाया उससे भी दिग्विजय खिन्न हैं। ज्योतिरादित्य को महत्व मिलने से तो वे पहले से ही भन्नाए हुए थे। इस प्रकरण से कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर दिख रही एकता के प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया है। भले ही दिग्विजय कितने भी बदनाम हों लकिन काँग्रेसजनों पर उनका प्रभाव कमलनाथ और सिंधिया से कहीं ज्यादा है। दिग्विजय सिंह प्रचार से दूर रहते तब उस पर ज्यादा ध्यान नहीं गया होता। लेकिन अपने भाषणों को कांग्रेस के लिए नुकसानदेह बताकर दरअसल उन्होंने व्यंग्यबाण छोड़ा है। उनकी उदासीनता भी पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकती हैं क्योंकि आकावाद पर आधारित कांग्रेस में  नेताओं के व्यक्तिगत अनुयायी हैं जिनकी निष्ठा पार्टी से ज्यादा व्यक्तिगत है। दिग्विजय सिंह बहुत ही शातिर नेता हैं जो बड़े ही सोच समझकर दांव चलते हैं। ऐसे में उनका प्रचार से हटने का निर्णय कांग्रेस की आंतरिक खींचतान को और मजबूत कर सकता है।

-रवीन्द्र  वाजपेयी

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