Saturday 13 October 2018

उत्पीडऩ : महिला और पुरुष दोनों को चिंतन करना चाहिए

मामला गरमाया तो था तनुश्री दत्ता नामक अभिनेत्री द्वारा प्रसिद्ध अभिनेता नाना पाटेकर पर उत्पीडऩ का आरोप लगाए जाने से किन्तु जल्दी ही मी टू (मैं भी) नामक मुहिम के चलते वह फिल्म उद्योग से निकलकर केन्द्रीय मंत्री एमजे अकबर पर केंद्रित होकर रह गया। अनेक महिला पत्रकारों ने आरोप लगाए हैं कि श्री अकबर ने उनके साथ अमर्यादित व्यवहार किया जिसे यौन उत्पीडऩ माना जा रहा है। उल्लेखनीय है ये आरोप उस समय के हैं जब वे बतौर संपादक कार्यरत थे। विदेश में होने की वजह से मंत्री जी की प्रतिक्रिया या स्पष्टीकरण अब तक अप्राप्त है। लेकिन अन्य चर्चित हस्तियों ने सफाई पेश करना शुरू कर दिया है। कुछ ने तो आरोप लगाने वाली महिलाओं पर अवमानना का मुकदमा करने की धमकी तक दी है। इस विवाद में समाज भी विभाजित होता दिख रहा है। कुछ  महिलाओं के साथ खड़े हैं तो कुछ इसे सस्ता प्रचार और ब्लैकमेलिंग का तरीका बता रहे हैं। महिला संगठनों की  सहानुभूति निश्चित रूप से खुद को पीडि़त बता रहीं महिलाओं के साथ है। इसीलिए श्री अकबर पर त्यागपत्र का दबाव बनाया जा रहा है। भाजपा का उच्च नेतृत्व भी उनके विदेश दौरे से लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति शुरू होने से इसकी गंभीरता खत्म होने का खतरा बढ़ गया है। केंन्द्रीय मंत्री की तरफ  भी काफी लोग नजर आ रहे हैं। उनका पक्ष जाने बिना कोई निर्णय नहीं लिए जाने की बात भी सुनाई दे रही है। इसी बीच महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने चार सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की एक समिति गठित किये जाने की घोषणा कर दी जो यौन उत्पीडऩ की सभी शिकायतों की स्वतंत्र जांच कर अपनी रिपोर्ट देगी। समिति कार्यस्थल पर उत्पीडऩ रोकने के उपाय भी सुझाएगी। मेनका गांधी ने तो यहाँ तक कह दिया कि वे मी टू के तहत आई प्रत्येक शिकायत को सही मानती हैं। मंत्री महोदया के अनुसार किसी महिला को मुंह से शर्मिदा किया जाए अथवा छूकर, वह उसे कभी नहीं भूलती। अब महिलाओं से कहा जा रहा है वे अपने साथ हुए आपत्तिजनक व्यवहार की जानकारी उक्त समिति को दें। यहां तक तो ठीक है किंतु सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की समिति के सामने वही शिकायतें आएंगी जिनमें पीडि़त महिला शिक्षित और दबावरहित हो। अभी तक जिस तरह के मामले सामने आए हैं वे सभी बरसों पहले के हैं। कुछ तो दशकों  पुराने हैं जिनमें आरोपों को साबित करना पीडि़त महिला के लिए बेहद कठिन  होगा। लेकिन जिस पुरुष पर आरोप लगेंगे वह बदनाम तो हो ही जाएगा। टीवी धारावाहिक की एक अभिनेत्री ने मी टू पर बयान देते हुए फिल्म जगत के बारे में कहा है कि वहां बलात्कार नहीं होते  अपितु सब कुछ सहमति से होता है। कास्टिंग काउच नामक बुराई को लेकर तो गाहे-बगाहे बवाल मचता ही रहा है। इस समूचे प्रसंग में जो बातें उभरकर सामने आ रही हैं उनसे लगता है कि ये मुहिम भी दिशाहीन होकर रह जायेगी। सोशल मीडिया की वजह से भले ही इस मुद्दे को खूब सुर्खियां मिल रही हों और इसे महिलाओं में बढ़ रहे साहस का प्रतीक माना जा रहा हो किन्तु अभी तक जिन महिलाओं की शिकायतें सार्वजनिक हुईं उनमें से अधिकतर पेशेवर ही हैं। और फिर कोई भी ताजा मामला सामने नहीं आया जिससे आरोपों के उद्देश्य को लेकर भी पक्ष-विपक्ष में चर्चाएं चल पड़ी हैं। देखने वाली बात ये होगी कि क्या सुर्खियों से मीलों दूर रहने वाले वर्ग की महिलाएं किसी समिति के समक्ष आने का साहस बटोर सकेंगी। बीते कुछ वर्षों में यौन उत्पीडऩ की शिकायतों के संदर्भ में ये तथ्य मजबूती से उभरकर सामने आया है कि अधिकतर में निकट सम्बन्धी ही उसे अंजाम देने वाले निकले। मी टूट के अंतर्गत आ रही शिकायतों में भी साथ काम करने वाले पुरुषों का नाम सामने आया है चाहे फिर वे अभिनेता हों या एमजे अकबर जैसे नामी गिरामी संपादक। कांग्रेस के एक अनुषांगिक संग़ठन के मुखिया पर भी आरोप तो लगा है किंतु उसकी उतनी चर्चा नहीं हो रही। इस तरह ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि सहिष्णुता लॉबी द्वारा अवार्ड वापिसी की तरह है मी टू का सिलसिला भी कुछ दिन जारी रहने के बाद टूट जाएगा। आरोप लगाने वाली महिलाओं के प्रति समर्थन और सहानुभूति के भाव भी क्षणिक ही रहेंगे और अंतत: ये पेज थ्री तबके की महिलाओं और कुछ संगठनों के बुद्धिविलास तक सिमटकर रह जायेगा। फिल्म और राजनीतिक क्षेत्र में अवैध सम्बन्धों और महिलाओं के दैहिक-मानसिक शोषण के किस्से समय-समय पर सामने आते रहे हैं। लेकिन उनका आज की तरह ढिंढोरा नहीं पीटा जाता था। इसकी वजह महिला को बदनामी से बचाना भी रहा। मौजूदा विवाद में सामने आईं जिन महिलाओं के साहस की प्रशंसा करते हुए उत्पीडऩ की शिकार अन्य महिलाओं को भी शिकायतें लेकर सामने आने प्रेरित और प्रोत्साहित किया जा रहा है उनमें से कितनी न्यायाधीशों की समिति तक पहुंच सकेंगी ये बड़ा प्रश्न है। शिक्षा के प्रसार की वजह से महिलाएं घर की चहारदीवारी से निकलकर विभिन्न क्षेत्रों में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगीं हैं। उनमें सभी नौकरी या व्यवसाय में नहीं हैं लेकिन राजनीति और सामाजिक कार्यों में भी उनकी सक्रिय भूमिका देखी जा सकती है। ऐसा करते हुए उन्हें पुरुषों के साथ कार्य करना पड़ता है। ऐसे में जरूरी होता है कि समाज में ऐसा वातावरण बनाया जाए जिसमें महिलाओं के प्रति नजरिया बदले। सरकार से अपेक्षा करने की बजाय परंपरागत भारतीय संस्कारों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। महिलाओं को घर में कैद रखकर उनकी सुरक्षा की सोच तो आज के युग में अर्थहीन है इसलिए बेहतर होगा समाज ही इस विषय में संवेदनशील और जिम्मेदार बने। पुरुषों से तो शालीनता की अपेक्षा की ही जानी चाहिए लेकिन महिलाओं को भी ये सोचना चाहिए कि वे पुरुषों के साथ मेलजोल और अन्य कार्यों में किस सीमा तक अनौपचारिक हों। पाश्चात्य संस्कृति के जिस अंधानुकरण की वजह से भारतीय महिलाओं को इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उसके बारे में भी उनको गम्भीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि कुछ लोगों के आधुनिक हो जाने मात्र से पूरे समाज की मानसिकता नहीं बदलती।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment