Thursday 4 October 2018

प्रधान न्यायाधीश : संक्षिप्त किन्तु चुनौतीपूर्ण कार्यकाल

निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा कार्यकाल के अंतिम 9 महीनों में जितने विवादास्पद हुए उतना शायद ही उनका कोई पूर्ववर्ती हुआ होगा। लेकिन उन्हें विवादास्पद बनाने वाले सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों में से एक रंजन गोगोई का उनका उत्तराधिकारी बनने के बाद क्या सर्वोच्च न्यायालय और उसके अधीनस्थ कार्यरत देश की न्याय व्यवस्था निर्विवाद और निष्पक्ष रह सकेगी, ये प्रश्न हर उस शख्स के मस्तिष्क में उठ रहा है जो न्यायपालिका के सर्वोच्च शिखर पर मचे विवाद और टांग खिचौवल से दुखी और चिंतित था।  रोस्टर प्रणाली को लेकर श्री गोगोई सहित तीन अन्य न्यायाधीशों ने बगावती अंदाज में पत्रकार वार्ता कर श्री मिश्रा पर मनमानी करने का आरोप लगाते हुए ये एहसास कराया मानों समूची न्यायपालिका सरकार की गुलाम होकर रह गई हो। उस घटना को असहिष्णु  लॉबी ने भी जमकर उछाला। ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उस पत्रकार वार्ता ने बतौर न्यायाधीश श्री मिश्रा के समूचे कैरियर पर धब्बा लगा दिया। लेकिन उस घटना से एक बात ये भी स्पष्ट हो गई कि न्यायपालिका पर भी दलगत राजनीति की काली छाया पड़ चुकी है। पत्रकार वार्ता के बाद उसमें शामिल एक न्यायाधीश श्री चेलमेश्वर के घर पर सीपीआई के नेता डी राजा के जाने पर भी ढेरों सवाल उठे। भले ही श्री मिश्रा की विदाई में श्री गोगोई ने अच्छी - अच्छी बातें कहीं किन्तु ये सही है कि बीते नौ माह सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा के लिए बेहद शर्मनाक रहे। गत दिवस कार्यभार ग्रहण करते ही श्री गोगोई ने पहला कार्य रोस्टर आवंटन का किया जिसमें किसी अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश से  सलाह उन्होंने ली हो ऐसा नहीं लगा। उल्लेखनीय है श्री गोगोई के साथ जिन चार न्यायाधीशों ने श्री मिश्रा के विरुद्ध मोर्चा खोला उनका प्रमुख मुद्दा यही रोस्टर आवंटन था। श्री मिश्रा द्वारा महत्वपूर्ण मामले अपने पास रखकर बाकी अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों को दिया जाना ही विवाद की असली जड़ बताई गई थी। इसे लेकर प्रस्तुत की गई याचिका पर जाते - जाते खुद श्री मिश्रा फैसला सुना गए कि रोस्टर आवंटन का अधिकार प्रधान न्यायाधीश का ही रहेगा। उस आधार पर श्री गोगोई को मजबूत बहाना मिल गया लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि उनके कार्यकाल में वह सब नहीं होगा जो देश ने बीते कुछ महीनों में देखा। देखने वाली बात ये होगी कि पत्रकार वार्ता कर सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाने की जिस मुहिम के श्री गोगोई हिस्सा बने यदि वह उनके कार्यकाल में भी जारी रही तब वे क्या कदम उठाएंगे ? उल्लेखनीय है उस मुहिम के बाद एक दो न्यायाधीश तो रो पड़े थे क्योंकि चार न्यायाधीशों ने बिना नाम लिए उनकी योग्यता पर प्रश्न उठा दिए थे। हाल ही में कुछ नए न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय का  हिस्सा बने हैं जिनमें कुछ को लेकर केंद्र सरकार के मन में हिचक भी थी लेकिन अनेक ऐसे भी हैं  जिन पर सत्ता समर्थक होने का सन्देह किया जाता है। ये देखते हुए यदि सर्वोच्च न्यायालय में शीर्ष स्तर पर शुरू हुई राजनीति आगे भी जारी रहे तो आश्चर्य नहीं होगा। हॉलांकि ये देश और न्यायपालिका दोनों के लिए नुकसानदेह रहेगा। अपनी मुखालफत करने वाले की सिफारिश प्रधान न्यायाधीश पद हेतु कर श्री मिश्रा ने मान्य परंपरा का निर्वहन किया वहीं केंद्र सरकार ने भी उसे जस का तस स्वीकार कर लिया किंन्तु इससे सर्वोच्च न्यायालय का अंतर्निहित विवाद खत्म हो जायेगा ये सोचना कोरा आशावाद होगा। श्री गोगोई का कार्यकाल यद्यपि बहुत लंबा नहीं रहेगा किन्तु इस दौरान देश महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम से गुजरेगा। इसके अलावा अनेक ऐसे प्रकरणों पर भी सर्वोच्च न्यायालय को फैसले करने हैं जिनसे देश की राजनीतिक दिशा प्रभावित होगी। ये भी संयोग है कि निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश श्री मिश्रा  कार्यकाल के अंतिम दौर में विवादस्पद हुए वहीं उनके उत्तराधिकारी श्री गोगोई विवाद खड़े करने के उपरांत उनके उत्तराधिकारी बने। न्यायपालिका के क्रियाकलापों पर नजर रखने वालों की रुचि इस बात पर रहेगी कि श्री गोगोई उन विवादों से कैसे बच पाएंगे जो उन्होंने ही उत्पन्न किये थे और क्या वे उन तौर-तरीकों को बदलने का साहस दिखाएंगे जिनको लेकर उन्होंने अपने पूर्ववर्ती को कठघरे में खड़ा करने में कोई संकोच न करते हुए मर्यादाओं की रेखाओं को लांघने की परंपरा को जन्म दिया। इस संदर्भ में ये बात स्मरणीय है कि न्यायप्रणाली में कानून जितना महत्वपूर्ण होता है उसी तरह परंपराओं की भी अपनी अहमियत है। देखते हैं श्री गोगोई अपने से कनिष्ठ न्यायाधीशों को वह स्वायत्तता देते हैं या नहीं जिसके लिए खुद उन्होंने ही आवाज उठाई थी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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