Monday 30 November 2020

सरकार समझा नहीं पा रही या आन्दोलनकारी समझना नहीं चाहते



केंद्र सरकार द्वारा बनाए कृषि संशोधन कानूनों के विरोध में पंजाब से आये हजारों किसान दिल्ली को घेरकर बैठ गये है। उनका दावा है कि वे लम्बी लड़ाई की तैयारी से हैं। ट्रैक्टर ट्रॉली में रहने के साथ ही वे अपने साथ भोजन बनाने की सामग्री भी लाए हैं। लंगर के रूप में सामूहिक भोज चल रहा है। किसानों ने इस अपील को ठुकरा दिया है कि वे बुराड़ी नामक जगह पर एकत्र हो जाएँ जहाँ उनकी सुरक्षा और सुविधा का पूरा इंतजाम केंद्र सरकार करने के साथ ही  उनकी मांगों के सम्बन्ध में वार्ता की जावेगी। शुरू में बातचीत हेतु 3 दिसम्बर की तारीख सरकार ने तय कर दी थी किन्तु उसके पहले ही पंजाब के किसान दिल्ली कूच क्यों कर बैठे ये बड़ा सवाल है। केंद्र सरकार ने उनसे उक्त तिथि के पहले ही बातचीत का प्रस्ताव भी दिया किन्तु किसान नेताओं की जिद है कि उन्हें दिल्ली में जंतर मंतर पर धरने की अनुमति दी जाए और वार्ता बिना शर्त के साथ ही उच्चस्तरीय हो। शायद इसके पहले सचिव स्तर पर किया गया संवाद उन्हें रास नहीं आया। इसी के साथ ही वे नए कानूनों को वापिस लेने की मांग पर भी अड़े हैं। उनकी मुख्य चिंता जो बताई जा रही है वह है एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की समाप्ति की आशंका और सरकारी मंडियों की अनिवार्यता खत्म करते हुए खुले बाजार में अपना उत्पाद बेचने की छूट। उनके मन में ये बात बिठा दी गई है सरकार किसानों को पूरी तरह बाजार की ताकतों के रहमो - करम पर छोड़कर एमएसपी पर जो खरीदी करती थी उससे पिंड छुड़ा लेगी जिससे वे व्यापारी की मनमर्जी के शिकार होकर रह जायेंगे। कांट्रेक्ट फार्मिंग के लागू होने पर बड़े पूंजीपति उनकी फसल कम दाम पर खरीदकर मुनाफाखोरी करेंगे और धीरे-धीरे उनके जमीनें हडप लेंगे। दूसरी सरकार तरफ  सरकार का कहना है कि नए क़ानून किसानों के लिए अपनी मेहनत का अधिक से अधिक लाभ हासिल करने का रास्ता खोलने वाले हैं। इसके कारण वे अपनी फसल पूरे देश में जहाँ ज्यादा दाम मिले वहां बेच सकते हैं। सरकारी मंडियों में अपना उत्पाद बेचने की मजबूरी भी नहीं रहेगी और उन्हें खुले बाजार में ज्यादा मूल्य मिलने पर वे बिना मंडी शुल्क चुकाये वहां विक्रय कर सकते हैं। सरकार की मानें तो अब तक प्रचलित व्यवस्था में किसान मंडी माफिया की गुंडागर्दी और उनके साथ मिलकर सरकारी अमले द्वारा किये जाने भ्रष्टाचार का शिकार होता रहा है। बहरहाल आज किसानों द्वारा दिल्ली को जाने वाले सभी रास्ते बंद करने की धमकी दी गई है। इस कारण दिल्ली से पंजाब और हरियाणा जाने वाले लोग परेशान हो रहे हैं। राजमार्ग अवरुद्ध कर दिए जाने से निजी वाहन से आना-जाना भी संभव नहीं हो पा रहा। उल्लेखनीय है हरियाणा सहित एनसीआर कहलाने वाले गाजिय़ाबाद, फरीदाबाद, गुरुग्राम आदि से लाखों लोग नौकरी और कारोबार के सिलसिले में रोजाना दिल्ली में आवागमन करते हैं। इन स्थानों को जाने वाली मेट्रो रेल भी रद्द की जा रही हैं। कुल मिलाकर इस आन्दोलन की वजह से राष्ट्रीय राजधानी में आने जाने वाले भारी परेशानी झेल रहे हैं। शादियों के मौसम के कारण बारातों के जाने-आने में भी बाधा आ रही है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी ये है कि आन्दोलनकारियों और केंद्र सरकार के बीच संवाद का कोई सक्षम माध्यम नहीं है जिस पर दोनों पक्ष भरोसा कर सकें। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने किसानों को दिल्ली भेजने की रणनीति बनाकर अपने राज्य को तो तनाव से बचा लिया। उनकी सरकार ने केन्द्रीय कानूनों को बेअसर करने के लिए जो कानून बनाये उन्हें भी किसान संगठनों ने अस्वीकार कर दिया। इसके पीछे अकाली दल की राजनीति थी जो ये नहीं चाहता था कि किसान कांग्रेस की राज्य सरकार से खुश हो जाएँ। चूँकि अकाली दल इस मसले पर एनडीए छोड़ चुका है इसलिए वह केंद्र सरकार के संदेशवाहक की भूमिका से अलग है। और पंजाब में भाजपा के पास कोई ऐसा बड़ा चेहरा भी नहीं है जिसके जरिये वह किसानों को ठंडा कर पाती। यही परेशानी किसानों के साथ भी है। उन्होंने भी मुसलमानों की तरह शाहीन बाग जैसा कदम तो उठा लिया लेकिन उनके पास भी केंन्द्र सरकार तक अपनी बात पहुँचाने वाला कोई प्रभावशाली प्रवक्ता नहीं है। दरअसल ये संवादहीनता ही इस विवाद का असली कारण है। भले ही पंजाब के किसानों के समर्थन में दिखावे के लिए पश्चिमी उप्र, हरियाणा, उत्तराखंड और राजस्थान के कुछ जत्थे आ गये हों लेकिन अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला जिससे ये लगता कि नए केन्द्रीय कानूनों का विरोध राष्ट्रव्यापी है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या केंद्र सरकार किसानों को समझा नहीं पा रही या फिर वे जानबूझकर इसे समझना नहीं चाह रहे। भले ही उनकी तरफ से ये कहा जा रहा हो कि उनके मंच पर कोई राजनीतिक हस्ती नहीं आयेगी लेकिन आन्दोलन के पीछे खड़ी राजनीतिक ताकतें अपने को छिपा नहीं पा रहीं। ऐसे में इस बात का डर है कि आन्दोलन दिशाहीन होकर भटक न जाए। वैसे भी इस तरह का कदम किसी आन्दोलन का अन्तिम अस्त्र होता है जिसे बहुत जल्दी उठाकर किसान संगठन और उनके नेता ऐसे मुकाम पर आ खड़े हुए जहाँ इधर कुआ, उधर खाई वाली स्थिति बन चुकी है। गत दिवस प्रधानमन्त्री ने रेडियो पर मन की बात में कृषि संशोधन कानूनों को किसानों के लिए हितकारी बताकर ये संकेत दे दिया कि सरकार आसानी से दबाव में आने वाली नहीं है। गत रात्रि भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के साथ गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की बैठक में क्या रणनीति बनी इसका खुलासा तो नहीं हुआ लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने किसानों को गृह मंत्री की अपील मान लेने की जो सलाह दी उससे लगता है उन्हें भी इस बात का भय है कि उनकी सजाई दूकान पर कहीं अकाली दल और भाजपा अपना बोर्ड न टांग ले जाएं। कुल मिलाकर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक केंद्र सरकार और आन्दोलनकारी किसानों के नेता एक दूसरे की ताकत का आकलन करने में जुटे हैं। संवाद सेतु का अभाव जब तक दूर नहीं होगा तब तक गतिरोध बना रहेगा। भाजपा नेतृत्व इस संकट से निपटने वक्त इस सम्भावना का आकलन कर रहा है कि किसानों का आन्दोलन केवल पंजाब तक ही सीमित रहेगा या उसका फैलाव अन्य राज्यों में भी होगा। यदि वह इस बात से आश्वस्त हो गया कि पंजाब के बाहर के किसानों में इस आन्दोलन को लेकर उदासीनता है तब केंद्र सरकार भी कड़ाई से पेश आयेगी। अब तक के संकेतों के अनुसार किसानों के नेता भी ये समझ रहे हैं कि कदम पीछे खींचने से उनकी भद्द पिट जायेगी। ये बात भी सही है कि राजमार्गों को लम्बे समय तक जाम रखे जाने से जन सहानुभूति से किसान वंचित हो जायेंगे। वैसे भी ये धारणा तेजी से फैल रही है कि पूरे खेल के पीछे किसानों से ज्यादा राजनेताओं और उन व्यापारियों की भूमिका है जिनको नए कानूनों से जबरदस्त नुकसान होने जा रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 28 November 2020

वरना हम भारत के लोग बुलडोजर और खाकी वर्दी के सामने असहाय बने रहेंगे



टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी की चीखने - चिल्लाने की शैली , अभिनेत्री कंगना रनौत द्वारा बेवजह चुनौतियां उछालना और पत्रकारिता कम राजनीति ज्यादा करने वाले संजय राउत की बदजुबानी अति सर्वत्र वर्जयेत की श्रेणी में रखे जाने योग्य हैं | इनके समर्थक भी दबी जुबान ही सही किन्तु ये मानेंगे कि इनकी अभिव्यक्ति में अनावश्यक रूप से तैश नजर आता है | हो सकता है ऐसा करने के पीछे उद्देश्य सुर्ख़ियों में बने रहना हो लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि बड़बोलापन अंततः नुकसानदेह होता है और ऐसा करने वाला व्यर्थ के विवादों में उलझकर अपना समय , ऊर्जा और रचनात्मकता सस्ते में खर्च कर देता है | मुम्बई में बीते कुछ महीनों में  ऐसा घटनाचक्र चला जिसके कारण उक्त तीनों महानुभाव विवाद और चर्चा में आये | अभिनेता  सुशांत सिंह की आत्महत्या के बाद फ़िल्मी दुनिया में जो माहौल बना उसमें वे  तीनों अपनी - अपनी भूमिका में सामने आये | आरोप - प्रत्यारोप का लम्बा और आक्रामक दौर चला | इसके चलते सुशांत की मौत तो पृष्ठभूमि में चली गई और अर्नब , कंगना और संजय का त्रिकोण विवादों का केंद्र बन गया | सबने अपने - अपने ढंग से बढ़ - चढ़कर बातें कीं | लेकिन बात मुख्य मुद्दे से भटकते हुए कंगना के कार्यालय में महानगरपालिका द्वारा की गई  तोड़फोड़ और उसके बाद एक पुराने मामले में अर्नब की गिरफ्तारी तक जा पहुँची | सुशांत की आत्महत्या में उसकी  प्रेमिका रिया की कथित भूमिका और फिल्मी दुनिया में नशीली दवाओं के बढ़ते चलन जैसी बातों पर कंगना और अर्नब के विरुद्ध हुई कार्र्वाई हावी हो गई | इन  दोनों ने सीधे  मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर निशाना साधा जिसके जवाब में बुलडोजर और गिरफ्तारी जैसा कदम महाराष्ट्र सरकार के इशारे पर मुम्बई पुलिस ने उठाया जिसका समूचा वृतान्त जगजाहिर है | कंगना के कार्यालय को अवैध निर्माण मानकर आनन - फानन में धराशायी करने के मुम्बई महानगरपालिका के काम पर  उच्च न्यायालय ने तत्काल स्थगन दे दिया था और उसके बाद गत दिवस उसे पूरी तरह अवैध बताते हुए  दोबारा निर्माण की अनुमति के साथ ही सर्वेयर नियुक्त करते हुए क्षतिपूर्ति का आदेश भी दिया | लेकिन इससे आगे बढकर न्यायालय ने तोड़फोड़ की कार्रवाई को दुर्भावना से प्रेरित बताकर एक नए मुद्दे को जन्म दे दिया | इसके बाद ये सवाल उठ  खड़े हुए हैं कि बिना राज्य सरकार के संरक्षण के क्या  महानगरपलिका के अधिकारी इस तरह की दबंगी दिखा सकते थे और अब क्षतिपूर्ति की जो राशि तय होगी उसके भुगतान का दायित्व किसका होगा ? दूसरा मामला अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का था | कुछ साल पहले हुई एक आत्महत्या के सिलसिले में उनकी गिरफ्तारी कर उन्हें जेल भेज दिया गया | उस प्रकरण का पहले ही खात्मा किया जा चुका था | ऐसे में अर्नब की गिरफ्तारी पर निचली अदालत ने प्रथम दृष्ट्या ही आपत्ति जताई और पुलिस रिमांड की मंजूरी नहीं दी | अर्नब ने जमानत  के लिए उच्च न्यायालय में अर्जी दी लेकिन उसने भी टरकाऊ रवैया दिखाया जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें पहले अंतरिम और अब स्थायी जमानत प्रदान कर दी जो एक साधारण प्रक्रिया है | लेकिन यहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उपेक्षा करने के लिए मुम्बई उच्च न्यायालय के विरुद्ध जिस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कीं वे न सिर्फ कानून अपितु शासन और प्रशासन के स्तर पर भी विचारणीय हैं |  कंगना और अर्नब दोनों के प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति न रखते हुए भी  ये कहना गलत न होगा कि  दोनों प्रकरण नागरिक अधिकारों के साथ ही शासन और प्रशासन की स्वेच्छाचारिता  के सामने आम नागरिक की लाचारी के नए प्रमाण बन गये हैं |  उच्च और सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हीं विषयों पर अपने फैसले को केन्द्रित रखा है | कंगना और अर्नब दोनों विशिष्ट हैसियत रखते हैं | साधन संपन्न होने के साथ ही उन्हें परदे के पीछे से ही सही किन्तु एक  खेमे का राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त था | कंगना के कार्यालय को अवैध निर्माण बताकर  धराशायी करते समय उच्च न्यायालय ने मुम्बई महानगरपालिका से ये  सवाल पूछा भी था कि मुम्बई में हजारों अवैध  निर्माणों की जानकारी होने के बावजूद केवल कंगना के कार्यालय पर बुलडोजर चलाना क्या प्रशासनिक गुंडागर्दी नहीं थी ? इसी तरह जब अर्नब को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी तब भी  ये सवाल देश  भर में उठा कि जमानत के हजारों विचाराधीन प्रकरणों के लम्बित रहते हुए उन्हें फटाफट जमानत कैसे दी दी गई ? अपने फैसले में इस मुद्दे पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए निचली अदालतों के रवैये पर ऐतराज जताया   लेकिन उसने मुख्य रूप से इस बात की आलोचना की है कि उच्च न्यायालय और निचली  अदालतें ऐसे मामलों में कानूनी पहलुओं की उपेक्षा करते हुए अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन से बचती हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने अर्नब की  गिरफ्तारी के अपर्याप्त आधार को नजरंदाज किये जाने पर जो नाराजगी व्यक्त की वह निश्चित रूप से आम आदमी को न्याय मिलने में होने वाले विलम्ब और कदम - कदम पर आने वाली अड़चनों की ओर ध्यानाकर्षण है | इसीलिये कंगना और अर्नब दोनों के मामलों  में उच्च और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए ताजा फैसले पूरे देश की कानूनी प्रक्रिया के लिए एक सुझाव और सन्देश हैं | भारत में प्रजातन्त्र जिस तरह से प्रशासनिक निरंकुशता और न्यायपालिका की मंथर गति के शिकंजे में फंसकर रह गया है उससे आम जनता के मन में गुस्से के साथ निराशा भी है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने शब्द तो दिए हैं लेकिन जब तक पूरी व्यवस्था अपने दायित्वबोध के प्रति जागरूक और ईमानदार नहीं होगी तब तक बुलडोजर और खाकी वर्दी की मनमर्जी के आगे हम भारत के लोग असहाय बने  रहेंगे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 November 2020

कोरोना की दूसरी लहर से गाँव और आदिवासी अंचल को बचाना ज़रूरी




जैसी आशंका थी वैसा ही हो रहा है। बीते कुछ दिनों से कोरोना के नए मामले जिस तरह बढ़ने लगे हैं उसे दूसरी लहर का नाम दिया जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में तो तीसरी बार कोरोना ने जोरदार हमला किया है। सुदूर केरल में भी संक्रमण बढ़ोतरी पर है जबकि शुरुवात में कोरोना को नियंत्रित करने के बारे में केरल के मॉडल को देशव्यापी प्रशंसा मिली थी। वैक्सीन आने को लेकर नए-नए दावे तो रोजाना होते हैं। उन्हें बनाने वाली तमाम कम्पनियां अपने उत्पाद को सफल बताने में भी जुटी हुई हैं। लेकिन पक्के  तौर पर उनकी उपलब्धता कब से हो जायेगी ये कह पाना कठिन है। भारत सरकार ने हालाँकि वैक्सीन लगाने के बारे में अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं और जैसा कि सरकारी सूत्र बता रहे हैं उसके अनुसार जनवरी 2021 के बाद से ही व्यापक पैमाने पर कोरोना का टीकाकरण हो सकेगा। देश भर में इस हेतु प्रशासनिक स्तर पर प्राथमिकता तय करने का काम प्रारम्भ होने की जानकारी भी मिल रही है। चिकित्सा कार्य में जुटे लोगों को सबसे पहले और उसके बाद अति बुजुर्ग और वरिष्ठ नागरिकों को वैक्सीन लगाने की योजना है। सभी लोगों तक सरकारी वैक्सीन पहुंचने में तो जैसा केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन कह चुके हैं कम से कम छ: महीने तो लग ही जाएंगे। इसी के साथ ये सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है कि विदेशी कंपनियों द्वारा भारत में बनवाई गईं वैक्सीन इसी साल दिसम्बर से बाजार में विक्रय हेतु उपलब्ध हो जायेगी। ये सब पढ़ और सुनकर हर देशवासी आशान्वित हो चला है। उसकी जो अनुमानित कीमत बताई जा रही है वह भी मध्यम आय वर्गीय व्यक्ति के बस में लगती है। ऐसे में यदि विदेशी कम्पनियों की वैक्सीन जल्दी आ गई तब आर्थिक दृष्टि से सक्षम लोग सरकार के भरोसे न रहते हुए उसका उपयोग कर लेंगे। लेकिन देश में आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की संख्या बहुत बड़ी होने से सरकारी वैक्सीन का इन्तजार किया जाना स्वाभाविक है। सही बात तो ये है कि इस वर्ग के भीतर भी बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनके लिए कोरोना कोई मुद्दा ही नहीं रहा। मास्क लगाने तक के प्रति वे लापरवाह हैं। सैनेटाईजर जैसी चीज का उपयोग तो उनकी कल्पना से बाहर की बात है। लॉक डाउन लगने के बाद इस वर्ग के सामने पेट भरने की जो समस्या खड़ी हुई वह केंद्र सरकार ने मुफ्त अनाज और जनधन खातों में नगद राशि जमा करवाकर काफी हद तक हल कर दी। इस बारे में ये चौंकाने वाली बात है कि स्वास्थ्य संबंधी मापदंडों के लिहाज से बेहद स्तरहीन परिस्थितियों में रह रहे करोड़ों लोगों पर कोरोना संक्रमण का वैसा असर नहीं हुआ जैसा आशंकित था। इसी तरह आदिवासी अंचलों में भी कोरोना का प्रकोप न के बराबर रहने से वह महामारी नहीं बन सका , वरना हालात अमेरिका से भी बदतर हो सकते थे। चिकित्सा विज्ञान से जुड़े शोधकर्ताओं को इसके कारणों का अध्ययन करना चाहिए। वैसे साधारण तौर पर ये माना जा रहा है कि इस वर्ग के लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने से वे इस संक्रमण से बचे रह सके। लेकिन आगे भी ऐसा होता रहेगा इसे लेकर आश्वस्त हो जाना खतरनाक हो सकता है। दुनिया के अनेक देशों में ये देखने मिल रहा है कि कोरोना ने अपने दूसरे हमले में पहले से अछूते इलाकों को अपनी लपेट में ले लिया जिसकी वजह से अपने को सुरक्षित मानकर चल रहे लोग उसकी गिरफ्त में आ गए। इसलिए भारत के लिए अगले दो महीने विशेष सावधानी के रहेंगे। दीपावली के समय बाजारों में उमड़ी भीड़ देखकर कोरोना की जिस दूसरी लहर का अंदेशा व्यक्त किया गया था उसका आगमन साफ़ तौर पर नजर आने लगा है। विशेष रूप से बड़े शहरों में तो हालात पहले जैसे बनने लगे हैं। अब चूँकि लॉक डाउन हट चुका है और आवाजाही भी बढ़ गई है इस कारण कोरोना संक्रमण के सुदूर ग्रामीण अंचल, विशेष रूप से आदिवासी इलाकों तक पहुँचने का खतरा पहले से कहीं ज्यादा है। इसलिए इस बारे में शासन-प्रशासन को विशेष सावधानी बरतना होगी। दुर्भाग्य से आदिवासी क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं की हालत बहुत खराब होने से वहां मलेरिया जैसी बीमारी तक का समुचित इलाज समय पर उपलब्ध नहीं होता। ऐसे में कोरोना संक्रमण की चिकित्सा तो दूर उसकी समय पर जाँच भी नामुमकिन होगी। इसीलिये कोरोना की दूसरी लहर से ऐसे क्षेत्रों को बचाकर रखना बहुत जरूरी है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से ध्यान देना होगा। ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में कोरोना से रोकथाम के उपायों के बारे में लोगों को जागरूक के साथ जिम्मेदार भी बनाया जाना चाहिए क्योंकि इन क्षेत्रों में कोरोना संक्रमण का पहुँचना इसे महामारी में बदल सकता है। ऐसा न हो कि पूरा ध्यान केवल महानगरों और नगरों पर ही सीमित रहे और कोरोना दबे पाँव हमारे गांवों और आदिवासी क्षेत्रों में तांडव करने लगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 November 2020

किसानों का आन्दोलन केवल पंजाब तक ही सिमटकर रह गया



पंजाब से दिल्ली आ रहे किसानों को हरियाणा सरकार ने रोका तो उन्होंने दिल्ली-चंडीगढ़ राजमार्ग को जाम कर दिया। हरियाणा सरकार ने एहतियातन पंजाब जाने वाली बसें रद्द कर दीं। कुछ रेलगाड़ियाँ भी रद्द किये जाने की खबर है। उल्लेखनीय है कृषि संशोधन कानून के विरुद्ध किसानों ने जो आंदोलन शुरू किया वह कहने को पूरे देश में होने  का दावा किया जा रहा था किन्तु धीरे-धीरे वह मुख्यत: पंजाब में ही सिमटकर रह गया। हालाँकि पश्चिमी उप्र के अलावा राजस्थान में भी कुछ हलचल सुनाई देती है लेकिन पंजाब के किसान कुछ ज्यादा ही नाराज बताये जाते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि कांग्रेस शासित पंजाब और छत्तीसगढ़  ने संदर्भित  केन्द्रीय कानूनों को निष्प्रभावी करने के उद्देश्य से अपने कानून बनाकर किसानों के तुष्टीकरण का प्रयास किया लेकिन वे उससे भी खुश नहीं हैं। शुरू -शुरू में तो राहुल गांधी भी किसानों की मिजाजपुर्सी करने पंजाब गये लेकिन बिहार चुनाव में मुंह की खाने के बाद कांग्रेस भी अब किसानों के समर्थन का दिखावा ज्यादा  कर रही है। उसे ये बात समझ में आ गई है कि जैसा वह सोचती थी वैसा नहीं हो सका इसलिए इस पचड़े में पड़ने से कोई लाभ नहीं होगा। यद्यपि केंद्र द्वारा पारित कानूनों के विरोध में काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है और कृषि क्षेत्र के अनेक विशेषज्ञ भी इनकी  विसंगतियों की तरफ ध्यान आकृष्ट कर चुके हैं किन्तु दूसरी  तरफ  ये भी सही है कि आन्दोलन कर  रही राजनीतिक पार्टियां और किसानों के हमदर्द बनकर घूमने वाले अन्य लोग केन्द्रीय कानूनों के विरोध में छोटे और मझोले स्तर के किसानों को आंदोलित कर पाने में विफल रहे हैं। इसका कारण ये समझ में आ रहा है कि इन क़ानूनों से प्रभावित होने वाला तबका बड़े किसानों के साथ ही उन दलालों और आढ़तियों  का है जिन्हें कृषि उपज मंडी नामक वर्तमान व्यवस्था से लाभ है। पंजाब में मंडियों पर कुछ राजनीतिक घरानों का नियन्त्रण होने से वे किसानों को मोहरा बना रहे हैं। कांग्रेस को ये चिंता है कि अकाली दल चूँकि इन क़ानूनों के विरोध में मोदी सरकार और एनडीए दोनों से नाता तोड़ चुका  है इसलिए वह अकेला किसानों की सहानुभूति और समर्थन न बटोर ले जाए। यही वजह है कि अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा बनाये जवाबी कानूनों से किसानों  के  संतुष्ट न होने के बावजूद कांग्रेस  आन्दोलन को हवा दे रही है जिससे उनकी नाराजगी का ठीकरा केंद्र  सरकार और भाजपा के सिर पर ही फूटे। बहरहाल एक बात साफ़ हो गई है कि केन्द्रीय कानूनों के विरोध में देशव्यापी किसान आन्दोलन खड़ा करने में कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। वैसे इस बारे में किसानों के  सबसे पुराने हमदर्द वामपंथियों की गैर मौजूदगी भी विचारणीय है। किसानों के नाम पर राजनीतिक दलों के अपने संगठन तो हैं ही लेकिन उनके अलावा जो अन्य संगठन हैं उनके पास भी सक्षम नेतृत्व का चूँकि अभाव है इसलिये आन्दोलन को व्यापक रूप अब तक नहीं मिल सका। इस बारे में ये भी उल्लेखनीय है कि किसानों के बीच फैलाया जा रहा ये डर भी बेअसर साबित हो रहा है कि अनाज की सरकारी खरीद बंद की जा रही है। खरीफ फसल आने के बाद विभिन्न राज्यों में सरकारी खरीद का काम शुरू हो चुका है। ऐसा लगता है किसानों के बीच नेतृत्वशून्यता की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। इसीलिए वे अपने आन्दोलन को पंजाब से बाहर नहीं ले जा पा रहे। हरियाणा की तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री ने भी ऐलान कर दिया है कि पंजाब के  किसान यदि दिल्ली में घुसेंगे तो उनके विरूद्ध कोरोना रोकने के तहत दंडात्मक कार्र्वाई  की जाएगी। अरविन्द केजरीवाल का ये आदेश वैसे भी समयोचित है जिसे किसानों को आंदोलित करने वाले नेताओं और दलों को समझना चाहिए। दिल्ली सहित उत्तर भारत के अनेक इलाकों में कोरोना की दूसरी लहर आने से संक्रमितों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। एक तरफ  जहां अधिकतम 50 लोगों की उपास्थिति में विवाह करने की अनुमति दी जा रही हो तब हजारों की भीड़ को जमा करना किसानों की जान  खतरे में डालने जैसा है। केंन्द्र सरकार ने किसानों के  साथ बातचीत की पेशकश की थी लेकिन ऐसा लगता है विघ्नसंतोषी ये नहीं चाहते कि कोई समाधान निकले। वैसे भी इस प्रकार के आंदोलनों को लंबा खींचना संभव नहीं होता। किसानों के बीच भी नये कानूनों के विरोध में एक राय नजर नहीं आती। खरीफ फसल के बाद लघु और मध्यम किसान अगली फसल की तैयारी में जुट चुके हैं। जहां  तक विपक्ष का सवाल है तो फिलहाल कोई चुनाव भी सामने नहीं है  इसलिए वह भी व्यर्थ में पसीना बहाने से बच रहा है। यूं भी राजनीतिक दलों के पास कहने को तो ग्रामीण परिवेश से आये सैकड़ों विधायक और सांसद हैं लेकिन सच्चाई ये है कि उनकी प्रतिबद्धता किसान और कृषि की बजाय विकास के उन कामों में ज्यादा होती है जिनसे उनका हित सधता रहे। ये सब देखते हुए पंजाब के किसानों को अपने आंदोलन के तौर-तरीके पर विचार करते हुए संयम से काम लेना चाहिए। ऐसा न हो राजनीतिक दलों के फेर में फंसकर वे न इधर के रहें न उधर के। वैसे भी ये धारणा  सर्वत्र बढ़ती जा रही है कि केन्द्रीय कानूनों का विरोध केवल पंजाब तक ही सीमित रह गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 25 November 2020

कश्मीर : देर से ही सही सच्चाई सामने आनी चाहिये



कश्मीर को भारत का मुकुट कहा जाता है लेकिन 1947 के बाद से ये पैर में कांटे की तरह से फंसा हुआ है। गत वर्ष केंद्र  सरकार ने  जम्मू - कश्मीर नामक इस राज्य का  विशेष दर्जा समाप्त करते हुए लद्दाख को उससे अलग कर दिया और   केंद्र शासित बनाकर उसकी  हैसियत घटा दी । इससे वहां के स्थापित राजनीतिक छत्रप  भन्नाए हुए हैं क्योंकि  बीते सात दशक में हुए भ्रष्टाचार और देश विरोधी करतूतें एक के बाद एक सामने आ रही हैं । जिस तरह देश में कांग्रेस और नेहरू - गांधी परिवार ने दशकों तक एक छत्र राज किया ठीक वही स्थिति जम्मू - कश्मीर में  नेशनल कांफ्रेंस और उसके संस्थापक शेख अब्दुल्ला की रही  । आज तक उनके बेटे फारुख और पोते उमर  सियासत के केंद्र में हैं । शेख से अलग होकर पीडीपी बनाने वाले मुफ्ती मो. सईद का परिवार भी दूसरी बड़ी सियासी ताकत बन गई । उनके बेटी महबूबा भी अब्दुल्ला परिवार जैसी ही हैसियत बनाये हुए है । कहने को वहां और भी नेता और पार्टियां हैं लेकिन सत्ता इन्हीं दो परिवारों के पास मुख्यत: रही । हालाँकि कांग्रेस ने भी लम्बे समय तक वहां राज किया लेकिन उसे भी अन्त्तत: अब्दुल्ला और मुफ्ती के आधिपत्य को स्वीकार करना पड़ा । इससे भी बड़ी बात ये है कि कश्मीर को लेकर सदैव आक्रामक रही भाजपा तक ने  नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के साथ गलबहियाँ करने में संकोच नहीं  किया। लेकिन कांग्रेस जहां कश्मीर को समस्या बनाये रखने वाली ताकतों को मजबूत करती रही वहीं भाजपा की मोदी सरकार ने धारा 370 और 35 ए को एक झटके में हटाकर खुद को अपराधबोध से  मुक्त करते हुए इतिहास रच दिया । कश्मीर समस्या क्या और क्यों है इसे लेकर काफी कुछ लिखा और कहा  गया  है । भाजपा और संघ  परिवार इसके लिए प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरु को दोषी ठहराते रहे हैं । जिन्होंने शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों में फंसकर कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह के विरूद्ध जनांदोलन भड़काकर  गृह युद्ध की  स्थिति पैदा की। महाराज द्वारा शेख को गिरफ्तार किये जाने से नेहरू जी बहुत नाराज थे । आजादी के बाद रियासतों के विलय के मसले पर हरिसिंह द्वारा जम्मू  कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाये रखने की  जिद को समस्या की जड़ माना जाता है । पाकिस्तानी कबायली हमले के बाद उन्होंने भारत में विलय जब किया तब ही भारतीय सेना वहां  पहुँची लेकिन  तब तक काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तान कब्जा चुका था । भारतीय सेना उसे खाली करवा सकती थी लेकिन पं. नेहरु ने मामला संरासंघ में ले जाने की गलती कर दी जिसके बाद से आज तक ये समस्या  भारत का स्थायी सिरदर्द बनी हुई है । हाल ही में जम्मू - कश्मीर में एक बड़ा भूमि घोटाला उजागर हुआ जिसमें अब्दुल्ला परिवार  सहित तमाम राजनेताओं द्वारा सरकारी जमीन हड़पने की बात सामने आ रही है । राज्य में जिला परिषदों के चुनाव के समय सामने आये इस घोटाले को राजनीतिक कहकर नजरअंदाज किये जाने की कोशिश भी आरोपी नेताओं की तरफ से हो रही है किन्तु इससे अलग हटकर कश्मीर के  विलय के बाद पहले सदर ए रियासत बनाये गये डा. कर्णसिंह के पुत्र विक्रमादित्य ने गत दिवस कांग्रेस और पं. नेहरु पर कश्मीर समस्या को उलझाने का जो आरोप लगाया वह इस राज्य को लेकर चली आ रही बहस को नई दिशा में  ले जा सकता है । उल्लेखनीय है डा. कर्णसिंह महाराजा हरिसिंह के पुत्र हैं । विलय के बाद शेख अब्दुल्ला के बहकाने पर नेहरु जी ने उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया तथा शेष जीवन उन्हें मुम्बई में बिताना पड़ा। कर्णसिंह उस समय किशोरावस्था में थे । कालान्तर में सदर ए रियासत की पदवी खत्म कर दी गई । जिसके बाद  वे  कांग्रेस के मार्फत लोकसभा और राज्यसभा  में आते रहे तथा अनेक सरकारों में मंत्री भी रहे । उन्हें नेहरु - गांधी परिवार का खासमखास माना जाता रहा । अपने समूचे राजनीतिक जीवन में उन्होंने जम्मू - कश्मीर के विलय और उस बारे में नेहरु जी की नीति और निर्णयों पर  न ऐसा  कुछ कहा  और न ही लिखा  जो इतिहास के अनछुए पन्नों को लोगों के ध्यान में लाता  । लेकिन गत वर्ष जब मोदी सरकार ने धारा 370 हटाने का साहस दिखाया तब उसका स्वागत करने वालों में वे भी थे । यद्यपि उन्होंने उसके तरीके पर ऐतराज किया था । उसी समय ये संकेत मिलने लगे थे कि कश्मीर का राजपरिवार कांग्रेस से पिंड छुड़ाकर भाजपा के निकट आ सकता है । संयोगवश राहुल गांधी के बेहद करीबी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी  धारा 370 हटाये जाने के पक्ष में बयान देकर कांग्रेस नेतृत्व को  पशोपेश में डाल दिया था । लेकिन मिलिंद देवड़ा और दीपेन्द्र हुड्डा जैसे कुछ और युवा नेताओं के भी बयान भी चूंकि वैसे ही आये इसलिए कांग्रेस ने चुप रहना बेहतर समझा । हालांकि  कर्णसिंह और  सिंधिया परिवार की रिश्तेदारी के चलते राजनीतिक संकेत साफ़ होने लगे थे । जिसकी पुष्टि ज्योतिरादित्य के कांग्रेस  छोड़कर भाजपा में आने से हो गई । गत दिवस कर्णसिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह  ने   जो रिश्ते में श्री सिंधिया के बहनोई हैं , कश्मीर समस्या को लेकर कांग्रेस और पं. नेहरु पर  आरोपों की जो झड़ी लगाई उसके बाद से केवल राज्य ही नहीं अपितु राष्ट्रीय स्तर पर भी कश्मीर संबंधी नए - नए किस्से सामने आ सकते हैं । कहा जा सकता है कि जब राज्य में जिला परिषदों के चुनाव चल रहे हों और विधानसभा चुनाव की रूपरेखा बन रही हो उसी समय विक्रमादित्य ने अपने मन के गुबार क्यों  निकाले?  बड़ी बात नहीं वे भी अपने साले ज्योतिरादित्य की देखासीखी भाजपा में आने वाले हों । लेकिन कश्मीर के भारत में विलय में विलम्ब  के लिये उनका नेहरु जी पर दोषारोपण आसानी से हवा में उड़ाने वाली बात नहीं है । ये बात बिलकुल सही है कि धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान था जिसे कांग्रेस ने समय रहते हटा दिया होता तो आज स्थिति इतनी विकट न होती । भाजपा और नरेंद्र मोदी से वैचारिक मतभेद रखने  वाले भी दबी  जुबान ही सही ये तो मानते ही हैं कि उस धारा का लाभ लेकर अब्दुल्ला परिवार ने अलगाववाद के जो बीज बोये उन्हीं की फसल आतंकवाद के रूप में बढ़ती गयी। बीते एक साल में  पूरे देश को पहली  बार लगा कि कश्मीर मुख्यधारा में शामिल हो गया है । अब तक  इतिहास में महाराजा हरिसिंह को खलनायक के रूप में पेश किया जाता रहा लेकिन उनके पोते विक्रमादित्य ने जिस तरह से जुबान खोली उसके बाद से अब तक प्रचलित धारणाएं बदल  सकती हैं । ये कहना गलत न होगा कि आजादी के 75 साल पूरे होते तक जम्मू - कश्मीर में सियासत  का शक्ति संतुलन पूरी तरह बदला नजर आयेगा । राष्ट्रवादी राजनीति के लिए ये शुभ  संकेत है कि इस राज्य के पूर्व शासक परिवार ने लम्बे समय के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी है । भले ही उसे राजनीतिक अवसरवाद कहा जाए लेकिन विक्रमादित्य सिंह के  खुलासों के बाद  यदि कश्मीर समस्या के असली गुनाहगार सामने लाये जा सकें तो भावी पीढ़ी को सच्चाई से अवगत कराया जा सकेगा जो बीते सात दशक तक उससे अनजान रही ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 24 November 2020

नेताओं और नौकरशाहों को अंग्रेजी राज वाली सुविधाएँ बंद की जाएं




देश की राजधानी दिल्ली में गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा सांसदों के लिए बनाये गये बहुमंजिला भवन का उद्घाटन किया गया। इसमें 76 फ्लैट हैं। लुटियन की दिल्ली कहलाने वाले वीआईपी इलाके में डा. बी.डी मार्ग स्थित आठ बड़े बंगले गिराकर बनाये गए इस बहुमंजिला भवन का निर्माण निर्धारित समय सीमा के भीतर होना भी उल्लेखनीय है। इसी के साथ कुछ और ऐसे ही शासकीय निर्माणों का भी लोकार्पण श्री मोदी ने किया। ब्रिटिश राज में लुटियन इलाके में बड़े-बड़े बंगले बनाये गये थे जो मंत्रियों और सांसदों के अलावा अन्य विशिष्ट हस्तियों तथा बड़े अधिकारियों को आवंटित किये जाते रहे हैं। साऊथ और नॉर्थ एवेन्यू में बनाये गये आवास अपेक्षाकृत छोटे हैं। बाद में स्वर्णजयंती अपार्टमेंट नामक बहुमंजिला आवसीय भवन में सांसदों के लिए  आधुनिक सुविधाओं से युक्त फ़्लैट भी निर्मित हुए। उसी के बाद से कई एकड़ में बने बंगले तोड़कर बहुमंजिला भवन बनाकर सांसदों को उनमें स्थानांतरित किया जाने लगा। इसके साथ ही शासकीय कार्यालयों में स्थानाभाव को दूर करने के लिए भी यही प्रयोग किया गया। दिल्ली में बढ़ती आबादी और यातायात की समस्या के कारण भी सरकारी दफ्तरों के दूर-दूर होने की समस्या खड़ी होने लगी थी। राष्ट्रपति भवन के हिस्से के तौर पर बने नॉर्थ और साउथ ब्लॉक भी अब छोटे पड़ने लगे हैं। यहाँ तक कि संसद भवन में भी जगह कम महसूस होती है। इसीलिये नई संसद और उसके साथ केन्द्रीय सचिवालय बनाने का प्रकल्प भी तैयार है। हालांकि विपक्ष इसका विरोध कर रहा है। लुटियन की दिल्ली की समूची परिकल्पना उस ज़माने के लिहाज से सही रही होगी किन्तु जमीनों के बढ़ते दाम के साथ ही वीआईपी सुरक्षा के मद्देनजर बड़ी-बड़ी आलीशान कोठियों के स्थान पर बहुमंजिला भवन बनाकर उनका आवासीय अथवा कार्यालयीन उपयोग समय की मांग और जरूरत है। उस दृष्टि से दिल्ली में हो रहे इस तरह के निर्माण पूरे देश के लिए एक नीति निर्देशक की तरह होना चाहिए। यूँ भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि और नौकरशाहों को मिलने वाली सामंतशाही आवासीय और अन्य सुविधाएँ लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध हैं। आज भी हर बड़े शहर में अंग्रेज साहब बहादुरों के लिए बनाई गई सिविल लाइंस हैं। यहाँ बने विशाल बंगले ब्रिटिश राज की याद दिलवाते हैं। इनके रखरखाव पर भी खासा खर्च होता है। दिल्ली की तर्ज पर बहुमंजिला आवासीय भवन बनाकर उनमें जनप्रतिनिधियों तथा नौकरशाहों के आवास की व्यवस्था किया जाना जनधन की बर्बादी रोकने के साथ ही बहुमूल्य शासकीय भूमि के बेहतर और अधिकाधिक उपयोग के अवसर उत्पन्न करेगा। विशेष रूप से राजधानियों में राजनेताओं और अधिकारियों को बड़े बंगलों की बजाय बहुमंजिला भवनों में फ्लैट बनाकर स्थानांतरित कर दिया जाए तो यह प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टि से लाभदायक तो होगा ही साथ ही वीआईपी सुरक्षा के लिहाज से भी बेहतर रहेगा। सबसे बड़ी बात आम जनता के मन में नेताओं और नौकरशाहों के बारे में जो नकारात्मक अवधारणा बन गई है , वह भी काफी हद तक कम हो सकेगी। भारत में राजनीति के प्रति आकर्षण के पीछे जनप्रतिनिधियों को मिलने वाली सामन्ती सुविधाएँ भी हैं। इसी तरह सरकारी अफसरशाही भी अंग्रेजी राज की मानसिकता छोड़ नहीं पा रही। ये देखते हुए पूरे देश में निर्वाचित नेताओं और नौकरशाहों को दी जा रही सुविधाओं की समीक्षा की जानी चाहिए। आज़ादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर इस तरह की व्यवस्थाओं को लागू किया जाना चाहिए जिससे आम जनता के मन से ये धारणा दूर की जा सके कि अंग्रेजी राज भले चला गया हो लेकिन सियासत और हुकूमत दोनों अभी भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 23 November 2020

ओवैसी की सफलता छद्म धर्मनिरपेक्षता की विफलता का परिणाम



बिहार विधानसभा के हालिया चुनाव के बाद राजनीतिक विश्लेषक मुख्य रूप से नीतीश कुमार सरकार की स्थिरता, पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के भविष्य और तेजस्वी यादव की बतौर विपक्ष भूमिका पर काफी चर्चा कर रहे हैं। लेकिन सही मायनों में देखें तो विश्लेषण का मुख्य विषय ये होना चाहिए कि बिहार के सीमांचल में हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी पार्टी ए.आई.एम.आई.एम को मैदान में उतारकर न सिर्फ  पांच सीटें जीत लीं वरन कांग्रेस और राजद को अनेक सीटों पर हरवा भी दिया। वैसे तो ओवैसी ने 2015 में भी बिहार और 2017 के उप्र विधानसभा चुनव में अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतारे थे किन्तु इक्का - दुक्का छोड़कर बाकी सबकी जमानतें जप्त हो गईं। लेकिन वे निराश नहीं हुए और इस बार फिर जोर आजमाइश करते हुए पांच विधायक जितवा लाये। आन्ध्र और तेलंगाना के बाहर केवल महाराष्ट्र में ही ओवैसी की पार्टी के विधायक थे लेकिन अब बिहार भी उस सूची में जुड़ गया है। इस सफलता से उत्साहित ओवैसी बंगाल और उप्र विधानसभा के आगामी चुनाव में भी हाथ आजमाने का ऐलान कर चुके हैं। शुरुवात में उन्हें वोट कटवा की श्रेणी में रखा जाता रहा। अनेक विश्लेषक उन्हें भाजपा की बी टीम कहकर संदेह की निगाह से देखते हैं। लेकिन बिहार के नतीजों के बाद ये माना जाने लगा है कि ओवैसी मुस्लिम समुदाय की आवाज बनकर उभर रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि वे उच्च शिक्षित होने के अलावा बेहद समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि से ताल्लुकात रखते हैं। जिस लोकसभा सीट से वे लगातार जीतते आ रहे हैं उसी से उनके पिता भी लम्बे समय तक चुने जाते रहे। ये बात भी माननी पड़ेगी कि हालिया सालों में लोकसभा में ओवैसी ही मुस्लिम समुदाय के सबसे मुखर प्रवक्ता बनकर उभरे हैं। दूसरी तरफ  ये भी सच्चाई है कि बीते कुछ वर्षों से मुसलमान खुद को नेतृत्व विहीन महसूस करने लगे हैं। जिन पार्टियों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़कर भाजपा और रास्वसंघ का हौआ खड़ा करते हुए मुसलमानों को डराकर उनके वोट हासिल किये जाते रहे वे न तो मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर मजबूत कर सकीं और न ही उनका शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान ही उनके शासन में हो सका। नब्बे के दशक से जिन मुद्दों को लेकर भाजपा राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में कामयाब हुई वह लगातार उन्हें लागू करवाने में सफल होती गई। केवल समान नागरिक संहिता ही बच रही है जिसके लिए मोदी सरकार के प्रयास ज़ारी हैं। मुसलमानों के मन में इसी बात को लेकर इन पार्टियों के प्रति गुस्सा और निराशा है कि वे भाजपा के तेज प्रवाह को रोकने की बजाय खुद को हिन्दूवादी साबित करने में जुटी हैं। कांग्रेस से शुरू होकर सपा, राजद और एनसीपी जैसी पार्टियां तक अंध मुस्लिम भक्ति छोड़कर ये दावा करने लगी हैं कि वे भी कम हिंदुत्व समर्थक नहीं हैं। बिहार के सीमांचल में मुस्लिम मतदाताओं को पहली बार ये कहते सुना गया कि पहले कांग्रेस और फिर लालू प्रसाद यादव के साथ एकमुश्त खड़े रहने का उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ और आज तक वे विकास से वंचित रहने के साथ ही राजनीतिक तौर पर भी पूरी तरह अनाथ हो चले हैं। इस बारे में सबसे महत्पूवर्ण बात ये है कि आजादी के बाद मुसलमानों की अपनी ऐसी कोई पार्टी नहीं रही जिसे राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय माना जाता। मुस्लिम लीग केवल केरल में सिमटी रही। हालांकि कुछ मुस्लिम नेता अपने दम पर संसद और विधानसभाओं में जीतकर आते रहे लेकिन मुख्यत: मुसलमान कांग्रेस या ऐसी किसी अन्य क्षेत्रीय पार्टी से जुड़े  जो घोषित रूप से जनसंघ और भाजपा की विरोधी थी। लेकिन बीते कुछ सालों में विशेष रूप से केंद्र में नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद से भाजपा ने मुस्लिम मतों की गोलबंदी को छिन्न-भिन्न करते हुए जिस तरह से अपना विस्तार किया उसके बाद से मुसलमानों को ये महसूस होने लगा कि वे धर्मनिरपेक्षता के मोहपाश में फंसकर जिन नेताओं और पार्टियों के साथ चिपके थे वे केवल रोजा इफ्तार के नाम पर उनका भावनात्मक दोहन करती रहीं। भाजपा ने बीते दो लोकसभा चुनाव में विशेष रूप से उप्र और बिहार में मुस्लिम मतों के महत्व को जिस तरह से निरर्थक साबित कर दिया उसके बाद मुस्लिम समाज में ये भावना तेजी से फैलने लगी कि अब उनको पिछलग्गू की भूमिका त्यागकर अपना नेतृत्व विकसित करना चाहिए और इसी का लाभ लेकर दक्षिण भारत से चलते हुए ओवैसी ने गंगा-यमुना के मैदान में अपनी बिसात बिछा दी। बिहार में पांच विधायक जितवाकर उन्होंने ये साबित कर दिया कि उत्तर भारत में कांग्रेस, सपा, राजद और वामपंथी दलों में जो मुस्लिम चेहरे हैं भी वे प्यादे से ज्यादा हैसियत नहीं रखते। लंबे समय तक राजनीति में रहने के बावजूद उनका अपना आभामंडल नहीं बन सका। उप्र में आजम खान इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। इन्हीं सब कारणों से बिहार के मुसलमानों ने ओवैसी में उम्मीद की किरण देखी और उन्हें अपना संरक्षक मान लिया। ये बात बंगाल और उप्र में कितनी लागू हो सकेगी ये पक्के  तौर पर कह पाना फिलहाल कठिन है लेकिन इतना तो साफ हो ही गया है कि ओवैसी के रूप में एक ऐसा नेता खड़ा हो गया है जो केवल और केवल मुसलमानों की बात करता है और जिसे हिन्दुओं की नाराजगी की परवाह नहीं। कुछ लोग उन्हें मो. अली जिन्ना का आधुनिक संस्करण मानते हैं लेकिन भारत में ध्रुवीकरण की जो दिशा है उसमें जिन्ना जैसी सोच को प्रश्रय और प्रोत्साहन देने वाली केन्द्रीय सत्ता नहीं है। और जो क्षेत्रीय दल बीते कुछ दशकों में मुसलमानों में असुरक्षा का माहौल बनाकर अपनी राजनीतिक स्वार्थ साधना करते रहे वे आज खुद अपनी रक्षा करने में असमर्थ नजर आ रहे हैं। इस प्रकार  के हालातों में मुसलमानों को ओवैसी में अपना भविष्य नजर आने लगा तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कुछ लोग इसे एक गम्भीर खतरा मान रहे हैं लेकिन नि:संकोच ये कहा जा सकता है कि ओवैसी का उदय देश की उन राजनीतिक पार्टियों की असफलता है जो धर्मनिपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को उल्लू बनाती रहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 21 November 2020

केवल सरकार के भरोसे न रहें : कोरोना से बचाव हमारे हाथ में



 न तो ये चीन द्वारा भेजा वायरस है और न ही इसमें किसी सरकार को दोष दिया जा सकता है | कोरोना की वापिसी संबंधी जो आशंका  पहले से ही जताई जा चुकी थी , वह सही साबित होती लग रही है | सर्दियों के मौसम में आम तौर पर जो बीमारियाँ आ धमकती हैं वे सब  चूँकि   कोरोना के शुरुवाती लक्षणों को दर्शाने वाली हैं । इसलिए चिकित्सा जगत एवं सरकार दोनों लोगों को सचेत करते रहे  | लेकिन जैसा देखने में मिला नवरात्रि से दीपावली के बीच के त्यौहारी मौसम में लोगों की जो भीड़ बाजारों में नजर आई उसने कोरोना के लौटते क़दमों को वापिस घुमा दिया | बीते कुछ दिनों के भीतर देश की राजधानी दिल्ली में जो भयावह स्थिति बन गई उसके कारण केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को आपातकालीन बैठक बुलानी पड़ी और दिल्ली उच्च न्यायालय ने  केजरीवाल सरकार को समय रहते पुख्ता इंतजाम नहीं करने के लिए लताड़ लगाई  | दिल्ली से आ रही खबर पूरे देश में प्रसारित होने के बाद भी लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया और एक तरह से ये मान लिया कि कोरोना पूरी तरह लौट चुका है | हालांकि इस बेफिक्री के पीछे वैक्सीन को लेकर आने वाली भ्रामक जानकारियाँ भी बड़ा कारण बनीं | भारत सरकार सहित निजी क्षेत्र ने भी वैक्सीन की उपलब्धता  को लेकर जिस तरह का माहौल बनाया  उससे लगने लगा कि दिसम्बर या हद जनवरी तक भारत में कोरोना का टीका सहज रूप से मिलने लगेगा | चूँकि भारत  वैक्सीन उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र है और विश्व के अनेक देशों द्वारा कोरोना का जो टीका खोजा गया उसके उत्पादन का काम भारतीय कम्पनियों को ही मिल रहा है इसलिए भी ये एहसास प्रबल हो गया कि जल्द ही  देशवासियों को कोरोना के विरुद्ध रक्षा कवच हासिल हो जाएगा | लॉकडाउन हटने के बाद व्यापारिक गतिविधियों में भी  तेजी आई और आवागमन भी बढ़ा | सितम्बर के आख़िरी सप्ताह  से लगातार जो आंकड़े आये उनमें कोरोना तेजी से ढलान पर आता दिखा | नए संक्रमणों की संख्या में तेजी से कमी आने लगी वहीं स्वस्थ होकर घर लौटने वाले भी बढ़ते गये | इसकी वजह से भी लोगों का हौसला बढ़ा और कोरोना की वापिसी संबंधी चेतावनियों की जमकर उपेक्षा की जाने लगी | इसी दौरान बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए | मप्र में 28 उपचुनाव के कारण भी कोरोना की प्रति जमकर लापरवाही नजर आई | दीपावली  के साथ ही शादी सीजन की खरीदी भी इस दौरान होती दिखी | और इन सब वजहों का संयुक्त परिणाम कोरोना की दूसरी लहर  के रूप में देखने मिल रहा है | दीपावली के बाद ज्योंही शासन - प्रशासन ने स्थिति की समीक्षा की त्योंही दोबारा प्रतिबंधात्मक कदम उठाने पर विचार किया जाने लगा | शुरुवात दिल्ली से हुई और धीरे - धीरे अनेक राज्यों से खबरें आने लगीं | गत दिवस मप्र के अनेक शहरों में रात्रिकालीन कर्फ्यू लगाने का फैसला किया गया | नए संक्रमणों की तुलना में स्वस्थ होने वालों की  संख्या बीते डेढ़ महीने में बढ़ने से राहत अनुभव की जा रही थी | लेकिन बीते एक सप्ताह में वह अंतर फिर घटता जा रहा है | मप्र में तो गत दिवस स्वस्थ होने वालों की संख्या नए संक्रमणों से  आधी निकली | भोपाल और इन्दौर में स्थिति ज्यादा गंभीर होने लगी है |  दिल्ली में विवाह आयोजनों में अतिथि संख्या घटाकर 50 कर दी गयी | अन्य राज्यों से  भी इसी तरह के फैसले लिए जाने की जानकारी  आ रही है | दोबारा लॉकडाउन की अटकलें  भी दबी जुबान सुनाई दे रही हैं | गत दिवस अहमदाबाद में तो इस कारण अफरातफरी मच गई और जनता जरूरी सामान खरीदने बाजारों में दौड़ पड़ी | हालाँकि अर्थव्यवस्था के मद्देनजर केन्द्र के साथ ही  राज्य सरकारें दोबारा लॉकडाउन जैसा कदम नहीं उठाएंगी किन्तु अब ये जनता के हाथ में है कि वह कोरोना की वापिसी को किस तरह रोके और ये कठिन काम भी नहीं है | कोरोना संबंधी सरकारी आंकड़ों में ये भी बताया जाता है कि मास्क न लगाने के कारण प्रशासन ने कितने लोगों का चालान करते हुए इतनी राशि वसूली | इसके बाद  भी सड़कों पर सैकड़ों और बाजारों में हजारों की संख्या ऐसे  लोगों की नजर आ जायेगी जो बिना मास्क के घूम रहे हैं | दरअसल ऐसे गैर जिम्मेदार लोग ही कोरोना की वापिसी की असली वजह हैं | शासन - प्रशासन अपने स्तर पर  जो भी कर रहे हैं वह अपनी जगह है | और उसमें आलोचना की जबर्दस्त गुंजाइश भी है किन्तु बेहतर होगा हर नागरिक स्वयं तो कोरोना संबंधी सावधानियां रखे ही लगे हाथ बल्कि अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उस हेतु प्रेरित , प्रोत्साहित और जरूरत पड़ने पर प्रशिक्षित भी करे | बीते लगभग 8 महीनों में एक बात तो तय हो ही गयी है कि  कोरोना पर विजय पाई जा सकती है | लेकिन इसके लिए जो जरूरी उपाय हैं वे करना अनिवार्य है | मास्क , सैनीटाईजर का उपयोग और हाथ धोते रहने के साथ ही शारीरिक दूरी जैसा  साधारण सा  अनुशासन  कोरोना से बचाव में सहायक हो सकता है | भारत ने जिस तरह से इस महामारी का मुकबला किया उसकी दुनिया भर में प्रशंसा हुई है | टीके के विकास में भी हमारी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है लेकिन फिलहाल कोरोना पलटवार करता हुआ नजर आ रहा है और ऐसे में जरूरी होगा कि बजाय सरकार के भरोसे बैठे  रहने और व्यवस्थाओं को कोसने के हम अपने स्तर पर कोरोना से अपने और अपनों के बचाव के प्रति पूरी तरह सावधानी बरतें | आखिर ये जान भी तो हमारी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 20 November 2020

व्यक्तिगत स्वतंत्रता : सवालों के बीच से उठते कुछ और सवाल




जबसे टीवी एंकर अर्णब गोस्वामी को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी तभी से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को लेकर न्यायालयीन भेदभाव पर बहस चल पड़ी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अर्णब की जमानत पर बॉम्बे उच्च न्यायालय को इस बात की नसीहत दी कि उसे वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा के अपनी अधिकार का उपयोग करना चाहिए था। स्मरणीय है अर्णब की जमानत पर उच्च न्यायालय ने पहले तो सभी पक्षों की बात सुनने की शर्त रखी और अंत में कह दिया कि वे चाहें तो निचली अदालत में आवेदन कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय का ये तरीका रास नहीं आया और इसीलिये अर्णब को जमानत देते हुए उसने एक नीतिगत वक्तव्य जैसा दे दिया। इसके बाद से ही एक वर्ग विशेष ने इसे मुद्दा बनाकर जेलों में बंद उन असंख्य लोगों की चर्चा शुरू कर दी जिनकी जमानत अर्जी पर अदालतों द्वारा कोई संज्ञान नहीं लिया जा रहा। सबसे बड़ी आपत्ति यही है कि व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में भी वर्गभेद किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय यदि अर्णब को राहत न देता और वे अभी भी जेल में रहते होते तब शायद इस मुद्दे को गर्माने वाले भी इधर-उधर के मसलों में उलझे होते। लेकिन क्या ये पहला मामला है जिसमें देश की सर्वोच्च अदालत ने जल्दबाजी दिखाते हुए याचिकाकर्ता को अति विशिष्ट व्यक्ति का दर्जा देकर उपकृत किया हो? बरसों पहले जब अभिनेता सलमान खान को निचली अदालत द्वारा हिट एंड रन के मामले में दोषी मानकर सजा सुनाई तब उसी बॉम्बे उच्च न्यायालय ने शाम को आनन-फानन में उनकी जमानत अर्जी मंजूर की थी। महंगे वकीलों के सहारे इस तरह का लाभ लेने वाले ऐसे लोगों की सूची काफी लम्बी है। जिसमें नेता, धनकुबेर और कुख्यात अपराधी तक शामिल हैं। जेलों में लम्बे समय से बंद शहरी नक्सली कहे जाने वाले लोगों की रिहाई न होने से वामपंथी विचारक, पत्रकार और बुद्धिजीवी बेहद भन्नाए हुए हैं। इसके अलावा बीते कुछ समय से सरकार विरोधी टिप्पणियाँ करने पर देश भर में अनेक पत्रकार भी बंद कर दिए गये जिसे लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला उठाया जाता रहा है। किसी भी प्रजातंत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय की सुलभता अत्यंत आवश्यक होती है। लेकिन हमारे देश में इसे लेकर इकतरफा सोच होने से सरकारों को मौक़ा मिल जाता है, विरोध को दबाने का। आज जो लोग शहरी नक्सली होने के शक में गिरफ्तार लोगों के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं वे बंगाल में ममता बैनर्जी और केरल में विजयन सरकार के राज में हो रही राजनीतिक हत्याओं पर आँख मूंदकर क्यों बैठे रहते हैं, इसका जवाब भी तो सामने आना चाहिए। कानून के सामने सभी बराबर हैं चाहे वे सलमान हों या अर्णब? लेकिन किसी आरोपी को महिमामंडित करने के लिए जब देश का एक नामचीन पत्रकार आधी रात के बाद उसका साक्षात्कार लेने बैठता है तो वह अभिव्यक्ति की आजादी का मजाक नहीं तो और क्या था? दिल्ली के जेएनयू विवि में राष्ट्रविरोधी नारे लगाने और, हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान करने वालों की तरफदारी करना किस तरह की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है? जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाये जाने के बाद उठाये गये राष्ट्रहित के क़दमों के विरोध में आसमान सिर पर उठा लेने वाले अभिव्यक्ति के नाम पर भारत विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ाने में सदैव आगे-आगे रहते हैं। अर्णब हो या चाहे कोई और, कानून को सभी के प्रति एक जैसा नजरिया रखना चाहिए। लेकिन एक देशद्रोही की फांसी रुकवाने के लिए आधी रात को सर्वोच्च न्यायालय खुलवाना भी तो वर्गभेद है। जिन लोगों ने वह मुहिम चलाकर न्यायपालिका पर अनुचित दबाव बनाया उन्हें ही आज इस बात पर ऐतराज हो रहा है कि हजारों को नजरंदाज करते हुए एक टीवी एंकर को इसलिए त्वरित जमानत दी गई क्योंकि अदालत ने उसे विशिष्ट माना जबकि विभिन्न राज्यों में पकड़े गये छोटे पत्रकार सीखचों में हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जो टीवी एंकर व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के वशीभूत अर्णब की रिहाई में न्यायिक भेदभाव देख रहे हैं उन्हीं ने तो टीवी माध्यम को श्रेष्ठता के अभिमान से भरते हुए एंकरों को महामानव बनाने का तानाबाना बुना। आज समाचार जगत विश्वास के जिस संकट से गुजर रहा है उसके लिए टीवी टीवी एंकरों की जमात भी कम जिम्मेदार नहीं है। ये कहना गलत न होगा कि समाचार पत्र और पत्रिकाओं से जुड़े पत्रकारों और टेलीविजन के जरिये दिखने वाले एंकरों में वही अंतर है जो नाटक और फिल्म में काम करने वाले अभिनेता के बीच होता है। ऐसे में अदालत भी चेहरे की चमक देखकर प्रभावित हो जाती हो तो आश्चर्य कैसा? और फिर जब पत्रकार भी सेलेब्रिटी बनने की कोशिश करने लगे तब प्रधानमंत्री अक्षत कुमार को साक्षात्कार दें तो फिर बुरा क्यों लगता है? कहते हैं एक उंगली दूसरे पर उठाने से चार हमारी अपनी तरफ  भी उठती हैं। अर्णब को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष दर्जे के तौर पर जमानत दिए जाने से न्याय के समक्ष समनाता के सिद्धांत पर सवाल उठाना स्वाभाविक है और जरूरी भी किन्तु ये भी विचारणीय है कि जो पत्रकार, बुद्धिजीवी और उनके हमकदम अन्य लोग भविष्य में यदि किसी कारण से पकड़े जायेंगे तब क्या वे अदालत से ये कहने का बड़प्पन दिखायेंगे कि उनको जमानत देने के पूर्व पहले से लम्बित प्रकरणों पर निर्णय ले लिए जाएं क्योंकि वे आम आदमी से ऊपर नहीं हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 19 November 2020

गेंहू के बाद गौ संवर्धन में भी अग्रणी बन सकता है मप्र




मप्र की शिवराज सरकार ने गौ-कैबिनेट नामक नई योजना पेश करते हुए कहने को तो हिन्दू मतदाताओं को संतुष्ट करने का दांव चला लेकिन यदि उनकी सरकार वाकई गौ-संवर्धन के प्रति ईमानदार है तो उसे उस गौ माफिया का पर्दाफाश करना चाहिए जिसने उनके पिछले शासनकाल में गाय के नाम पर अपना घर भरा। वैसे ये संतोष का विषय है कि गौ पालन अब धर्म की सीमाओं से उठकर अर्थव्यवस्था का विषय बन रहा है। भले ही गाय के औषधीय महत्व का कुछ लोग मजाक उड़ाते रहे हों लेकिन धीरे-धीरे ये बात लोगों की समझ में आती जा रही है कि गाय का दूध, मूत्र और गोबर सभी बहुउपयोगी हैं। देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी में गाय के प्रति असीम श्रद्धा है। मांसाहारी हिन्दू और सिख भी गौमांस से परहेज करते हैं। लेकिन देश में गौवध को रोकने के सरकारी प्रयास अपेक्षित सफलता नहीं पा सके और जिसकी वजह से भारत गौमांस का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया। स्मरणीय है 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने गौमांस के निर्यात का मामला जोरदारी से उठाया था लेकिन बीते छ: वर्ष में केंद्र और भाजपा शासित राज्यों के प्रयासों के बावजूद गौवध पर भले ही कुछ नियन्त्रण लगा हो लेकिन गौपालन और संवर्धन के क्षेत्र में जो प्रयास हुए वे सरकारी कर्मकांड के मकड़जाल में फंसकर रह गये। हालांकि निजी तौर पर अनेक गौ भक्तों के अलावा धार्मिक और समाजसेवी संस्थानों द्वारा बड़ी-बड़ी गौशालाओं का संचालन बड़ी ही कुशलता से किया जा रहा है जिन्हें गौ भक्तों का काफी सहयोग भी मिलता है। लेकिन ये कहना गलत न होगा कि मप्र सरकार द्वारा दिए गए प्रोत्साहन और अनुदान के लालच में जो गौशालाएं खुलीं उनमें गायों का संरक्षण कम उत्पीड़न  अधिक हुआ। अव्वल तो प्रति गाय जो राशि प्रतिदिन के लिए निर्धारित की गयी वह ऊँट के मुंह में जीरे से भी कम थी। ऊपर से जिन लोगों ने गौशालाएं खोलीं उनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की ही है जिनका उद्देश्य गौ संवर्धन की बजाय सरकारी अनुदान एवं सुविधाएँ हासिल करना था । यही वजह रही कि बहुतेरी गौशालाएं हद दर्जे की अव्यवस्था का शिकार होकर गौ प्रताड़ना का अड्डा बनकर रह गईं। 2018 के विधानसभा चुनाव में शिवराज सरकार के पतन के बाद कमलनाथ मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने धार्मिक और आर्थिक के साथ -साथ गाय के राजनीतिक महत्व को भी समझा और सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रति कांग्रेस के झुकाव का संकेत देते हुए गौ पालन के प्रति रचनात्मक फैसले लिए। उनसे ऐसा लगने लगा कि मप्र अब गौ पालन का बड़ा केंद्र बनकर उभरेगा। लेकिन बीते मार्च में वह सरकार गिर गई और शिवराज सिंह चौहान ने दोबारा मप्र की कमान संभाली किन्तु उनकी स्थिति सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने जैसी हो गयी। कोरोना के चलते लॉकडाउन लग गया जिससे शासन और प्रशासन दोनों सब काम छोड़कर उसमें उलझे रहे और फिर उसके बाद आ गई उपचुनाव जीतने की चुनौती। बहरहाल बीती दस तारीख को उपचुनावों के नतीजों के साथ शिवराज सरकार पर छाया अनिश्चितता का संकट खत्म हो गया और उसी के बाद मुख्यमंत्री ने गौ कैबिनेट के रूप में गाय के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए व्यापक पैमाने पर कदम उठाने की घोषणा कर दी। दो दिन पहले ही उप्र सरकार ने भी गौ वध रोकने के लिए कड़ा कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया। ये सब सैद्धांतिक तौर पर तो स्वागतयोग्य है लेकिन सरकारी प्रयासों से गाय की रक्षा और गोवंश में वृद्धि तब तक संभव नहीं होगी जब तक गाय के आर्थिक महत्व को जनमानस में पुनर्स्थापित न किया जाए। भारत दूध का सबसे बड़ा उत्पादक होने के बाद भी यहाँ प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता बहुत कम है। यहाँ तक कि मरीजों, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों तक को पर्याप्त दूध सुलभ नहीं है। खेती के आधुनिकीकरण और ग्रामीण अंचलों में शहरी संस्कृति के प्रवेश के साथ गौ पालन के प्रति रूचि कम हुई है। वरना एक समय था जब गाय और बैल भारतीय ग्राम और कृषि के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। वैसे ये अच्छी बात है कि धीरे-धीरे ही सही लेकिन लोग गाय के दूध और उससे बने उत्पादों के महत्व और गुणवत्ता को समझने लगे हैं। ऐसे में यदि शासकीय संरक्षण और सहयोग सही तरीके से मिले तो गाय एक बार फिर भारतीय जनजीवन के करीब आ सकेगी। शिवराज सरकार को गौ शालाओं के नाम पर अतीत में जो भ्रष्टाचार और अनियमिततायें हुईं उनसे सबक लेते हुए जिस तरह से मप्र को गेंहू के क्षेत्र में देश का अग्रणी राज्य बनाया गया, ठीक उसी तरह गौ पालन और गौ संवर्धन में आगे ले जाना चाहिए। लेकिन इस दिशा में बढ़ते हुए ये ध्यान रखा जाना जरूरी है कि गाय की स्थानीय नस्लों को विकसित किया जाए जिनका रखरखाव अपेक्षाकृत आसान और सस्ता होता है और वे स्थानीय भौगोलिक संरचना और जलवायु में खुद को आसानी से ढाल लेती हैं। गाय भारतीय अर्थव्यवस्था का शाश्वत आधार है। जरूरत है सही और ईमानदार कोशिश की। उम्मीद है अपनी नई पारी में शिवराज सिंह चौहान पिछले अनुभवों से सीख लेकर गौ संवर्धन में देश को दिशा देने वाला कार्य कर दिखायेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 18 November 2020

मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता भारतीय समाज में स्वीकार्य नहीं



एक जमाना था जब भारतीय फिल्मों में चुम्बन दृश्य दिखाए जाने की अनुमति नहीं थी। सत्तर के दशक में खोसला आयोग ने इस बारे में अपनी रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की जिसे बड़े ही संकोच के साथ स्वीकार किया गया। फिल्मों में अश्लीलता परोसे जाने पर भी सेंसर बोर्ड बहुत ही सख्त हुआ करता था। हालांकि धीरे-धीरे पाश्चात्य समाज की देखा - सीखी भारतीय फिल्मों में भी खुलापन आने लगा। लेकिन फिर भी काफी कुछ लक्ष्मण रेखा बनी रही। दरअसल वह दौर था जब सिनेमा पूरे परिवार के मनोरंजन का साधन था और तब ये बात मायने रखती थी कि आप किशोरवय बेटे-बेटी के साथ कोई फिल्म देख सकते हैं या नहीं? लेकिन बीते तीन दशक में विशेष रूप से टेलीविजन और उसके बाद से मोबाईल के प्रसार ने मनोरंजन की दुनिया को ही बदलकर रख दिया। और फिर इन्टरनेट ने तो मानो क्रांति ही कर दी जिसकी वजह से मनोरंजन के समय और स्वरूप दोनों में आमूल बदलाव हो गया। सिनेमा हॉल से हटकर पहले फिल्म ने टीवी के परदे की जरिये घरों में प्रवेश किया। और फिर केबल टीवी से होते हुआ डिश टीवी और अब डिजिटल माध्यम ने सूचना तंत्र को अकल्पनीय रूप से सुलभ बना दिया। वीसीआर जैसे उपकरण भी बीच में आये और चलते बने। सिनेमा हॉल की जगह मल्टीप्लेक्स ने ले ली। इसके बाद भी तकनीक की दौड़ रुकने का नाम नहीं ले रही। और एक कदम आगे बढ़कर वह वेब तक जा पहुँची। बीते लगभग 9 महीनों में कोरोना काल ने जब सब कुछ बंद सा कर दिया तब वेब सीरीज के रूप में मनोरंजन की एक नई दुनिया ही बस गई और देखते-देखते उसने मल्टीप्लेक्स को महत्वहीन बनाकर रख दिया। नई फिल्में  अब ओटीटी पर ही प्रदर्शित होने लगी हैं।  धारावाहिक भी वेब सीरीज के हमले से हलाकान होते लग रहे हैं। और इसका कारण है वह बेलगाम खुलापन जिसे भारतीय समाज आज भी अश्लीलता की श्रेणी में रखता है। भद्दी गालियों की भरमार के साथ ही पारिवारिक माहौल से परे इस तरह की सामग्री मनोरंजन के नाम पर पेश की जा रही है जिसे हमारा समाज सार्वजनिक स्वीकृति नहीं देता। सोशल मीडिया की स्वछंदता तो पहले से ही समस्या बनी हुई थी लेकिन अब वेब सीरीज के रूप में मनोरंजन की जो शैली हमारे सामने लाई जा रही है, उस पर उँगलियाँ उठने लगी हैं। सेंसर बोर्ड के नियन्त्रण से बाहर होने से यह माध्यम मनमानी करने के लिए स्वतन्त्र है। पहले तो टीवी और फिल्मों में दूसरे दर्जे के कहे जाने वाले कलाकार वेब सीरीज के जरिये सामने आये क्योंकि उनसे निर्माता और निर्देशक वह सब करवा सकते थे जो फिल्मों और धारावाहिकों के साथ ही सितारा कलाकारों के साथ संभव नहीं होता। लेकिन इस माध्यम की सफलता ने फिल्मी दुनिया के नामचीन निर्माताओं और कलाकारों तक को वेब की दुनिया के प्रति आकर्षित कर लिया है और ये कहा जाने वाला है कि ये भविष्य का सिनेमा है। लेकिन इसके माध्यम से आ रही वर्जनाहीन संस्कृति और अश्लीलता ने सरकार के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय तक के कान खड़े कर दिए हैं। और इसीलिये अब न सिर्फ  फेसबुक, व्हाट्स एप, इन्स्टाग्राम, ट्विटर , यू ट्यूब जैसे आभासी अपितु वेब के नाम से तेजी से उभरे माध्यम की उन्मुक्त उड़ान पर नियन्त्रण का रास्ता खोजने पर जोर दिया जाने लगा है। हालाँकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इन्टरनेट पर विदेशी नियन्त्रण जैसी समस्याओं के संचार और सूचना संबंधी अंतर्राष्ट्रीय समझौते इस काम में बाधक बन सकते हैं लेकिन हर देश इस बारे में अपनी नीति बनाने का अधिकार भी रखता है। चीन ने तो फेसबुक, व्हाटस एप जैसे सोशल मीडिया पर रोक लगाकर अपना नेटवर्क तैयार कर रखा है। हालाँकि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में ऐसा करना वांछनीय न होगा लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गूगल जैसे भारतीय सर्च एंजिन के विकास की चर्चा छेड़कर एक संकेत दे दिया है जो इन्टरनेट के भारतीय संस्करण की दिशा में बेहद महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। अन्तरिक्ष विज्ञान में उल्लेखनीय सफलताओं के कारण अब स्वदेशी सर्च इंजिन जैसी व्यवस्था की जरूरत महसूस की जाने लगी है। वैसे भी विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए संचार क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जरूरी होगी क्योंकि अब इन्टरनेट भी कमाई का बड़ा जरिया बन चुका है। वेब सीरीज के कारण उठी चर्चाओं के बीच अब इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है। अपसंस्कृति के फैलाव को चरमोत्कर्ष तक पहुँचने के पहले ही उसके बारे में नियमन करना जरूरी है। वरना स्थितियां अनियंत्रित हो जायेंगी। सबसे बड़ा खतरा किशोरावस्था के लड़के- लड़कियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का है जिन्हें मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही सामग्री समय से पहले व्यस्क बना रही है। बढ़ते यौन अपराधों के पीछे एक बड़ा कारण इंटरनेट के जरिये आ रही नग्नता भी है। भारत कितना भी आधुनिक हो जाये लेकिन पश्चिम की वर्जनाहीन मानसिकता को वह स्वीकार नहीं सकता क्योंकि हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता से ज्यादा सामाजिक मर्यादाओं को महत्व दिया जाता है और इसी कारण भारतीय संस्कृति अनगिनत झंझावातों से सुरक्षित निकलकर अपना अस्तित्व कायम रख सकी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 17 November 2020

गांधी परिवार कांग्रेस की एकता की बजाय टूटन का कारण बन रहा




बिहार चुनाव के बाद सर्वाधिक चिंताजनक स्थिति कांग्रेस की है जो 2015 से ज्यादा सीटें लड़ने के बाद भी मात्र 19 सीटें जीत सकी। और यही वजह रही कि पूरे चुनावी परिदृश्य में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करवाने वाला महागठबंधन बहुमत की दहलीज पर आकर रुक गया। चुनाव पूर्व अधिकतर सर्वेक्षण में एनडीए की आसान विजय की संभावना का जमकर मजाक उड़ाया जाता रहा। तेजस्वी यादव द्वारा 10 लाख रोजगार का वायदा किये जाने से उनकी जनसभाओं में युवा मतदाताओं की भीड़ उमड़ने लगी तब चुनाव सर्वेक्षण करने वाले भी अपनी राय बदलने को मजबूर हुए और मतदान के बाद एक्जिट पोल में जिन एजेंसियों ने एनडीए की जीत की भविष्यवाणी की थी वे भी तेजस्वी के तेज का गुणगान करने में जुट गईं। नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान तो पहले से ही था लेकिन एग्जिट पोल के बाद तो विश्लेषक प्रवासी मजदूरों के पलायन के समय  मोदी सरकार के कुप्रबंधन को भी एनडीए की हार का बड़ा कारण बताने में जुट गए। वैसे भी बिहार के राजनीतिक माहौल में तेजस्वी के तेज उभार का एहसास होने लगा था। लेकिन जब नतीजे आये तब अच्छे-अच्छे हतप्रभ रह गए। राजद के साथ महागठबंधन में शामिल वामपंथियों ने तो अपनी सदस्य संख्या में कई गुना वृद्धि करते हुए अपनी जमीन को दोबारा हासिल करने का कारनामा कर दिखाया लेकिन कांग्रेस ने तेजस्वी पर दबाव डालकर 70 सीटें तो हासिल कर लीं परन्तु वह पूरे मनोयोग से लड़ने की बजाय महागठबंधन के भरोसे बैठी रही। अगर वह पिछली बार जितनी सीटें भी जीत जाती तो आज तेजस्वी यादव देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री होने का गौरव हासिल कर लेते। एनडीए की जीत के लिए अधिकतर लोग असदुद्दीन ओवैसी को जिम्मेदार मान रहे हैं जिनकी पार्टी जीती तो महज 5 सीटें लेकिन सीमांचल की मुस्लिम बहुल सीटों पर मुस्लिम मतों का बंटवारा करने में वह कामयाब रही जिससे राजद और कांग्रेस को करीब 20 सीटों का नुकसान हो गया और यही नीतीश की वापिसी का मुख्य कारण माना जा रहा है। लेकिन वास्तविकता ये है कि कांग्रेस ने इस चुनाव में जिस तरह की लापरवाही दिखाई उसका खामियाजा महागठबंधन को भुगतना पड़ा। हालाँकि अभी तक तेजस्वी ने तो इस बारे में कुछ नहीं कहा लेकिन राजद के वरिष्ठ नेता शिवानन्द तिवारी ने गत दिवस ये कहकर कांग्रेस पर तीखा प्रहार किया कि वह गठबंधन पर बोझ बन गई। उन्होंने राहुल गांधी की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि उनसे बड़ी उम्र में भी जहां नरेंद्र मोदी बिहार में पूरा जोर लगा रहे थे वहीं खुद को युवा नेता कहलवाने राहुल गांधी अपनी बहिन प्रियंका वाड्रा के साथ पिकनिक मनाते रहे। उल्लेखनीय है श्री गांधी ने मात्र तीन रैलियां की जबकि श्री मोदी ने उनसे चार गुना ज्यादा में शिरकत की। कांग्रेस पर कमजोर प्रत्याशियों को उतारने का भी आरोप लग रहा है। श्री तिवारी की आलोचना को अप्रत्यक्ष रूप से तेजस्वी द्वारा प्रेरित ही माना जा रहा है जो स्वाभाविक भी है लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने गत दिवस ही कांग्रेस के आला नेतृत्व पर जिस तरह हमला किया वह मायने रखता है। श्री सिब्बल उन नेताओं में से हैं जिन्होंने चिट्ठी लिखकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव करवाने की मांग की थी। अपने ताजा बयान में उन्होंने पार्टी नेतृत्व को आढ़े हाथ लेते हुए कहा कि पराजय पार्टी की नियति बन गई है। बिहार चुनाव के परिणामों पर कोई अधिकृत प्रतिक्रिया नहीं दिए जाने पर भी उनकी नाराजगी झलकी। श्री सिब्बल ने देश भर में हुए उपचुनावों में कांग्रेस के शर्मनाक प्रदर्शन पर चिंता जताते हुए कहा कि गुजरात में शून्य और उप्र में दो के अलावा बाकी की सीटों में जमानत जप्त हो जाना पार्टी की कमजोर स्थिति का प्रमाण है जिस पर फौरन विचार जरूरी है। लगे हाथ उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति में मनोनयन पर भी निशाना साधा। उधर पी चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम ने भी पार्टी में मंथन की जरूरत पर बल दिया। बिहार चुनाव के बाद वामपंथी दलों के भीतर भी इस बात पर विचार शुरू हो गया है कि बंगाल विधानसभा के आगामी चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन को जारी रखा जाये या नहीं ? पूरे देश से जो खबरें आ रही हैं उनके अनुसार लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस संगठन की हालत खराब है। ऐसा लगता है राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की मुहिम पार्टी के भीतर विभाजन की स्थिति पैदा कर सकती है। ये बात लगातार प्रमाणित होती जा रही है कि श्री गांधी और प्रियंका नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। पार्टी के भीतर ये सोचने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है कि जिस गांधी परिवार को कांग्रेस की एकता का आधार माना जाता था वही उसकी टूटन का कारण बन रहा है। सोनिया गांधी अपनी अस्वस्थता के कारण लगातार संगठन संबंधी मामलों से दूर होती जा रही हैं और ऐसे में सारे महत्वपूर्ण फैसले राहुल और प्रियंका मिलकर लेने लगे हैं जो वरिष्ठ नेताओं को हजम नहीं हो रहा। बिहार चुनाव पार्टी के साथ गांधी परिवार के भविष्य के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन राहुल की अपरिपक्वता और लापरवाही ने वह अवसर गँवा दिया। 2021 कांग्रेस के लिए यदि और बुरी खबरें लेकर आये तो आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 14 November 2020

इस संकट से भी भारत और मजबूत होकर निकलेगा :- रवीन्द्र वाजपेयी



दीपावली भारतीय पर्व परंपरा का चरमोत्कर्ष है।  यह धन और धान्य दोनों से जुड़ा हुआ है।  धन संपदा की देवी लक्ष्मी को समर्पित होने से इस त्यौहार पर  उद्योग - व्यापार सम्वन्धी चर्चा भी  होती है।  मुहूर्त की खरीदी से अर्थव्यवस्था का आकलन  किया जाता है।  वैसे भी भारत में अधिकतर  तीज - त्यौहार प्रत्यक्ष या अप्रत्य्क्ष रूप से कृषि से जुड़े होते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था का आधार भी वही है।  इस वर्ष दीपावली पर अर्थव्यवस्था को लेकर सामान्य से ज्यादा चर्चा हो रही है क्योंकि आर्थिक मंदी के बाद अचानक कोरोना नामक वैश्विक  संक्रमण ने भारत को भी जकड़ लिया जिसकी वजह से समूचा अर्थतंत्र पटरी से उतर गया।  मार्च के अंतिम सप्ताह में लॉक डाउन लागू किये जाने के बाद कारोबारी जगत में ठहराव आ गया ।  उद्योगों में तालाबंदी हो जाने से लाखों की संख्या में कामगार बेरोजगार हो गए।  निर्माण गतिविधियाँ भी रुक गईं।  रेल और सड़क परिवहन बंद किये  जाने के परिणामस्वरूप प्रवासी मजदूरों के हुजूम अपने गाँवों के लिए पैदल , सायकिल , स्कूटर , ऑटो रिक्शा और ट्रक जैसे साधनों से रवाना हुए।  उनकी वापिसी ने एक अभूतपूर्व दृश्य उत्पन्न कर दिया।  बुजुर्ग पीढ़ी को देश के विभाजन के दृश्य याद आ गये।   महीनों तक चली तालाबंदी से एक अदृश्य भय लोगों के मन में समा गया।  समाज का प्रत्येक वर्ग उस स्थिति से प्रभावित हुआ।  अनिश्चितता और असुरक्षा का माहौल समूचे वातावरण में व्याप्त था।  जून में जब लॉक डाउन हटा तब तक ये मान लिया गया था कि भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह गड्ढे में  जा चुकी है और उसको दोबारा खड़ा करने में बहुत लंबा समय लगेगा क्योंकि लॉकडाउन से पहले से ही  आर्थिक मंदी  दस्तक दे चुकी थी।  देश विदेश के तमाम अर्थशास्त्री एवं  रेटिंग एजेंसियां भारत के सकल घरेलू उत्पादन में ऐतिहासिक गिरावट के साथ ही विकास दर शून्य से भी नीचे जाने की आशंका व्यक्त कर रही थीं ।  बेरोजगारी के आंकड़े सर्वकालिक सर्वोच्च स्तर पर जा पहुँचे।  एक अजीब सी उदासी जनमानस में थी।  भले  ही जनजीवन पटरी पर लौटने लगा लेकिन भविष्य की चिंता पूरे देश सवार  थी किन्तु भारत के पुरुषार्थ ने एक बार फिर पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया।  देखते  ही देखते देश में उद्योग - व्यापार जगत ने दोबारा रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी।  अगस्त - सितम्बर में कोरोना भयावह रूप में फैला , लेकिन भारत की जनता और उद्यमी दोनों ने अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए धैर्य और हिम्मत दोनों बनाये रखा।  उसी का सुपरिणाम है कि आर्थिक क्षेत्र में जबरदस्त सुधार परिलक्षित होने लगा और अब ये उम्मीद की जाने लगी है कि  आगामी वित्त वर्ष में भारत दुनिया में सबसे तेज रफ़्तार से आगे बढ़ने वाला देश होगा।  कोरोना संकट के दौर में ही चीन के साथ सीमा पर हालात बेहद तनावपूर्ण हो चले।  लेकिन भारतीय सेना ने अत्यंत विषम परिस्थितियों के बावजूद चीन को रक्षात्मक होने मजबूर कर दिया।  सौभाग्य से केंद्र  सरकार ने भी सेना को खुला हाथ दिया।  इसकी वजह से हर भारतीय का आत्मविश्वास प्रबल हुआ जिसका प्रमाण दीपावली पर नजर  आ रहा उत्साह है।  यद्यपि अभी भी अर्थव्यवस्था कोरोना द्वारा दिए गये झटके से उबर नहीं सकी किन्तु  नैराश्य का जो भाव कुछ महीने पहले था वह अब नहीं दिखाई देता।  विदेशी निवेश जिस तेजी से आ रहा है और विदेशी मुद्रा का भण्डार लबालब है वह बेहद उत्साहित करने वाला है।  उद्योगपतियों ने इस चुनौती से निपटने के लिए कमर कस ली है और श्रम शक्ति भी पूरे जोश के साथ मोर्चे पर डट गई  है।  हालाँकि ये आशंका भी है कि ज्यों - ज्यों सर्दी बढ़ेगी त्यों - त्यों कोरोना दोबारा कहर ढाएगा।  लेकिन दूसरी तरफ चिकित्सा जगत भी किसी  आपदा से निपटने में दक्षता हासिल कर चुका है और आम जनता का मनोबल भी काफी ऊंचा है।  लेकिन इसी के साथ ये समय बेहद सावधानी से कदम आगे बढ़ाने का है।  कोरोना एक चुनौती के रूप में हमारे सामने आया था।  वह छापामार शैली की बीमारी है जो दबे पाँव हमला करती है।  इसलिए दीपावली के उत्साह के बीच हमें  उससे बचाव के सभी तरीकों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।  अगले महीने  तक वैक्सीन आने की खबरों को सुनकर लापारवाह होना खतरे को दावत देने जैसा होगा।  अनेक विकसित देश  इस गलती की  सजा भोग रहे हैं।  इसलिए ये दीपावली बहुत  ही विशिष्ट है।  एक तरफ ये चुनौतियों पर विजय  के आत्मगौरव  का एहसास करवा रही है वहीं दूसरी तरफ भविष्य के संभावित संकटों की प्रति सतर्क भी कर रही है।  लक्ष्मी जी की पूजा अर्चना में बुद्धि और विवेक के अधिष्ठाता गणेश जी को भी शामिल किया जाता है।  हमें इसके  उद्देश्य को समझकर विवेक का इस्तेमाल करते हुए संकट के इस दौर  से देश को  निकालना है।   अतीत इस बात का गवाह है कि भारत हर संकट से  और मजबूत होकर निकला है और इस आधार पर देश के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद करना पूरी तरह सही होगा।  दीपपर्व आप सभी  के  जीवन में सुख , समृद्धि और शांति लेकर आये यही शुभकामना है।

Friday 13 November 2020

बिहार की सफलता से बंगाल में भाजपा की उम्मीदें बढ़ीं



एक जमाने में ये उक्ति बहुत प्रचलित थी  कि जो बंगाल आज सोचता है वो हिन्दुस्तान कल सोचेगा | कोलकाता के भद्रलोक से निकला वैचारिक प्रवाह समूचे देश को आकर्षित भी करता था और रोमांचित भी | आजादी के पहले ही इस राज्य में क्रांतिकारी विचारधारा का बीजारोपण हो चुका था जिसका चरमोत्कर्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस के रूप में  देखने मिला | लेकिन ज्ञान - विज्ञान ,कला - साहित्य के साथ ही व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी बंगाल एक अग्रणी राज्य होता था | आजादी के बाद से ही साम्यवादी विचारधारा यहाँ की आबोहवा में घुलने लगी | 1962 के  चीनी हमले के बाद जब साम्यवादी पार्टी विभाजित हुई तब बंगाल में चीन समर्थक सीपीएम का वर्चस्व हो गया | आपातकाल के बाद साम्यवादी सरकार बनी जिसका  एक दशक पहले ही  पतन हुआ | ज्योति बसु ने लगभग चार दशक तक मुख्यमंत्री बने रहने का जो कीर्तिमान बनाया वह आज तक अपराजेय बना हुआ है | कांग्रेस इंदिरा  गांधी के ज़माने में वामपंथियों के बेहद करीब आई थी और ज्योति बाबू उनके सलाहकार तक बने | हालाँकि बंगाल में वह मुख्य विपक्ष की  भूमिका में रही | लेकिन कालान्तर में ये धारणा प्रबल होने लगी कि वह सीपीएम की बी टीम है  और इसी मुद्दे पर ममता बैनर्जी ने न सिर्फ कांग्रेस तोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाई बल्कि सीपीएम के अभेद्य किले को ध्वस्त कर दिया | भारतीय राजनीति में वामपंथ के लिए वह एक बड़ा धक्का था | ममता चूँकि वामपंथी आतंक से संघर्ष का प्रतीक थीं इसलिए वे   विकल्प के तौर पर उभरीं और लगातार अपनी  स्थिति मजबूत करती चली गईं | लेकिन उनसे एक गलती ये हुई कि वामपंथियों के संरक्षण में पनपे गुंडातत्व धीरे - धीरे तृणमूल में घुस बैठे और वामपंथी दौर का हिंसक  नजारा फिर बंगाल में लौट आया | ममता के अस्थिर स्वभाव के कारण पहले वे एनडीए के साथ रहीं लेकिन बाद में कभी यूपीए तो कभी तीसरे मोर्चे की सूत्रधार बनने की कोशिश करती दिखीं | इसमें दो मत नहीं हो सकते कि बंगाल के मजबूत साम्यवादी  किले को धराशायी करने का जो कारनामा ममता ने कर दिखाया वह वामपंथियों की  असली  वैचारिक विरोधी भाजपा भी नहीं कर सकी | लेकिन कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग पर साम्यवादी कब्जा हटते ही भाजपा  की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं |  और उसके साथ ही  संघ परिवार ने भी  पूर्वोत्तर राज्यों पर ध्यान केन्द्रित किया | 2014  में नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद अमित शाह ने जो रणनीति बनाई उसके कारण असम , अरुणाचल , मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों में भाजपा की सत्ता कायम हो सकी | लेकिन सबसे उल्लेखनीय  रहा त्रिपुरा में वामपंथ के एक और मजबूत दुर्ग का ढहना | उस सफलता से उत्साहित भाजपा को बंगाल में भी भगवा लहर की सम्भावना नजर आने लगी जो 2019 के लोकसभा चुनाव में वास्तविकता में बदल गयी जब भाजपा ने  लगभग डेढ़ दर्जन सीटें जीतकर ममता बैनर्जी  को चिंता में डाल दिया | यद्यपि 2016 के विधानसभा  चुनाव में पार्टी को मात्र तीन सीटें ही मिलीं लेकिन बीते एक दशक में भाजपा की जड़ें जिस तरह बंगाल के गाँव - गाँव तक फैलीं उसकी वजह कांग्रेस का वामपंथियों से गठबंधन करना रहा | इससे बंगाली जनता को ये डर लगा कि जिस साम्यवादी सत्ता को उसने उखाड़ फेंका वह कहीं कांग्रेस के कन्धों पर सवार होकर वापिस न लौट आये | उल्लखनीय है अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और वामपंथी मिलकर लड़ेंगे | इसमें भाजपा को अपने लिए अनुकूल परिस्थितयां दिखाई दे रही हैं और ममता बैनर्जी भी अब उसे अपना मुख्य  प्रतिद्वंदी मानकर चलने लगी  हैं | बीते कुछ समय से भाजपा कार्यकर्ताओं  की लगातार हो  रही हत्याओं के पीछे तृणमूल कांग्रेस के गुंडों का हाथ होने की आशंका बताई जाती  है | प्रधानमंत्री ने दो दिन पूर्व दिल्ली स्थित भाजपा के मुख्यालय में बिहार की जीत के जश्न में ममता को मौत का खेल बंद करने की जो चेतावनी दी वह इस बात को साबित करती है कि भाजपा आगामी चुनाव में बंगाल की लड़ाई को बहुत ही गम्भीरता से लड़ने जा रही है | अमित शाह द्वारा  200 सीटें जीतने का जो दावा किया जा  रहा है वह उसी का हिस्सा है | स्मरणीय है भाजपा ने मप्र के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय और चुनाव संचालन में सिद्धहस्त अरविन्द मेनन को बंगाल में तैनात कर रखा है | उनके अलावा संघ परिवार भी पूरी गम्भीरता से बंगाल में ममता सरकार के विरुद्ध मोर्चेबंदी में जुटा हुआ है | इसका जमीनी असर भी दिखाई दे रहा है | अनेक तृणमूल नेता भाजपा में आ चुके हैं जिनमें ममता के खासमख़ास भी हैं | गत दिवस मंत्रीमंडल  की बैठक में कुछ मंत्रियों की गैरहाजिरी के बाद ये कयास लगाये जा रहे हैं  कि चुनाव के पहले तृणमूल में  भगदड़ मचेगी | अब सवाल ये है कि क्या जैसा भाजपा दावा कर रही है वैसी सफलता उसे मिलेगी ? बंगाल से जो जानकारी छन - छन कर आ रही है उसके मुताबिक भाजपा वहां ममता को चुनौती देने में सक्षम तो हो गई है | बीते वर्षों  में  जितने भी उपचुनाव या स्थानीय निकायों के निर्वाचन हुए उनमें वही तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला करती दिखी जबकि कांग्रेस और वामपंथी घुटनों के बल रेंगते नजर आये | सबसे बड़ी बात जो भाजपा को लाभ पहुंचा रही है वह है बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या पर उसका कड़क रवैया और दूसरा मुस्लिम तुष्टीकरण के विरुद्ध मोर्चेबंदी | इन दोनों मुद्दों पर ममता चूँकि पूर्ववर्ती वामपंथी  शासन के साथ ही कांग्रेस के नक़्शे कदम पर चल रही हैं इसलिए जनमानस में ये भाव व्याप्त होने लगा है कि ममता को सत्ता सौंपने से नीतिगत मामलों में यथास्थिति कायम है | इन सब कारणों से बंगाल में भाजपा के प्रयासों को समर्थन मिलने लगा है | यदि भाजपा और संघ परिवार इसे मतों में बदल सका तो फिर त्रिपुरा जैसा चमत्कारिक नतीजा आ सकता है | वैसे तो अभी से चुनाव परिणाम के बारे में पक्के तौर पर कुछ  भी कह पाना जल्दबाजी होगी लेकिन ये कहना  गलत न होगा कि ममता मनोवैज्ञानिक दबाव में आकर खीजने लगी हैं | उनकी समस्या ये है कि वे विपक्षी एकता की धुरी बन नहीं सकीं | यूँ भी तीसरा मोर्चा नाम की परिकल्पना अपनी मौत मर चुकी है | बंगाल में कांग्रेस और साम्यवादियों के साथ होने से ममता के समर्थन से बाकी विपक्षी दल कन्नी काटेंगे | और इसी का लाभ  भाजपा  को मिलना तय है | ममता की सत्ता रहेगी या बचेगी ये तो चुनाव नतीजे बताएँगे लेकिन इतना तय है कि बंगाल में भाजपा का उभार  जिस तेजी से हो रहा है उसे देखते हुए किसी चमत्कार की उम्मीद करना निरर्थक नहीं होगा | बिहार में जीत के बाद भाजपा और नरेंद्र मोदी का ग्राफ निश्चित रूप से ऊँचा हुआ है और उससे भी बड़ी बात है भाजपा के समर्थकों के मनोबल में वृद्धि होना जो चुनाव को काफी हद तक प्रभावित करेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 12 November 2020

कमलनाथ का पद प्रेम दूसरी बगावत का कारण बन सकता है



मप्र की राजनीति में बीते मार्च महीने में जो तूफान आया था वह दो दिन पूर्व ठंडा पड़ गया । 22 कांग्रेसी विधायकों के सामूहिक स्तीफ़े के कारण कमलनाथ सरकार गिर गई और शिवराज सिंह चौहान फिर सत्ता में लौट आये। कुछ और विधायकों के स्तीफ़े तथा मृत्यु के परिणामस्वरूप 28 विधानसभा सीटों पर गत 3 नवम्बर को उपचुनाव हुए । कोरोना के कारण  उत्पन्न हालातों में चुनाव निर्धारित अवधि के आगे बढ़ाना पड़े । इस दौरान दलबदल करने वाले कांग्रेस के विधायकों को शिवराज सरकार में मंत्री भी बना दिया गया। बीते लगभग 7 महीने से प्रदेश अनिश्चितता के भंवर में फँसा था। हालांकि भाजपा का संख्याबल देखते हुए ये पक्का था कि वह उपचुनाव में इतनी सीटें तो जीत ही जाएगी जिससे सरकार बची रहे। कुछ निर्दलीय के अलावा सपा - बसपा के विधायकों ने भी भाजपा सरकार को समर्थन देने का निर्णय कर कमलनाथ की उम्मीदों पर नाउम्मीदी की परत चढ़ा दी थी । बावजूद इसके कांग्रेस ने गद्दारों को हराने और जनादेश का  अपमान होने के नाम पर बिकाऊ की जगह टिकाऊ का नारा उछाला और ये दावा किया कि वह सभी 28 स्थान जीतकर सत्ता में वापिसी करेगी । कांग्रेस में बगावत का नेतृत्व करने वाले ग्वालियर राजघराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा पहले ही राज्यसभा में भेजकर उपकृत कर चुकी थी । उनके लिए भी ये उपचुनाव अपना प्रभाव साबित करने का अवसर था। कांग्रेस ने  ग्वालियर क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए बहुत जोर लगाया जिससे श्री सिंधिया को नीचा दिखाया जा सके । लेकिन इस प्रयास में सबसे बड़ी बाधा बन गए कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ । पूरे उपचुनाव उन्हीं को केंद्र में रखकर लड़े गए। कांग्रेस के  प्रदेश अध्यक्ष होने के साथ ही वही नेता प्रतिपक्ष भी बने हुए हैं । 2018 का विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में होने से वे मुख़्यमंत्री तो बन गये किन्तु प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ने की उदारता नहीं दिखाई और यहीं से श्री सिंधिया के साथ उनके और दिग्विजय सिंह के बीच कलह बढ़ी जिसका अंजाम अंततः सरकार गिरने के तौर पर सामने आया । लेकिन मुख़्यमंत्री पद चला जाने के बाद भी उन्होंने अध्यक्ष के साथ ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी भी कब्जा ली । उनकी ये पदलिप्सा पार्टी के बाकी नेताओं को भी रास नहीं आई । वैसे तो दिग्विजय सिंह को कमलनाथ का समर्थक माना  जाता है लेकिन पर्दे के पीछे वे भी श्री नाथ के एकाधिकार से रूष्ट थे। ऐसे में जब उपचुनाव रूपी जंग शुरू हुई तो कमलनाथ की तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस बिखरी - बिखरी रही जिसका परिणाम चुनावी हार के रूप में देखने मिला। उस लिहाज से यदि 2018 के चुनाव में जीत का सेहरा उन्होंने अपने सिर पर रख लिया तो इन उपचुनावों में मिली जबरदस्त हार की जिम्मेदारी भी उनको अपने नाम लिखकर उसका प्रायश्चियत करना चाहिए । लेकिन उनकी तरफ से इस आशय का कोई बयान नहीं आना ये साबित करता है कि उनको जितनी बड़ी सोच का नेता प्रचारित किया जाता रहा , वे वैसे हैं नहीं । और इसीलिए शिवराज को बधाई देने गए तो अपने सांसद बेटे को साथ ले गए । लेकिन इस हार के बाद कमलनाथ अब चुनौतीविहीन नहीं रह गए। दीपावली के बाद कांग्रेस में आंतरिक खींचतान मचेगी। यद्यपि फिलहाल ऐसा कोई कद्दावर नेता नहीं है जो श्री सिंधिया की तरह साहस कर सके किन्तु कमलनाथ के नाम की चमक और काम की धमक अब कमजोर पड़ती जाएगी। कांग्रेसजनों को ये भरोसा था कि उनका चुनाव प्रबंधन पार्टी को सत्ता में वापिस ले आएगा लेकिन वे बुरी तरह फुस्स साबित हुए । बेहतर हो वे दोनों पद छोड़कर नये नेतृत्व को अवसर दें। भाजपा ने विष्णुदत्त शर्मा के रूप में युवा चेहरा पेश कर मिसाल पेश कर दी किन्तु कांग्रेस में स्थापित मठाधीश हिलने का नाम तक नहीं लेते। यदि अब भी कमलनाथ ने पद का लालच नहीं छोड़ा तो बड़ी बात नहीं  कांग्रेस में दूसरी बगावत देखने मिले । सिंधिया जी के भविष्य को लेकर संशय प्रगट करने वाले अनेक कांग्रेसी उनके संपर्क में बताए जा रहे हैं । वहीं दिग्विजय सिंह की चिंता केवल बेटे जयवर्धन को लेकर है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 11 November 2020

मोदी की साख और धाक ने लगाई नीतीश की नैया पार



बिहार विधानसभा चुनाव का अंतिम परिणाम गत मध्यरात्रि के बाद आया |  कुछ सीटों पर मुकाबला काफी नजदीकी था इसलिए अंतिम क्षण तक अनिश्चितता बनी रही | अंततः  भाजपा की अगुआई  वाला एनडीए 125 सीटें लेकर सत्ता में लौट आया |  चुनाव प्रचार के आख़िरी दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा कही गई बात अंत भला तो सब भला पर  मतदाताओं के फैसले से  मुहर लग गई | लेकिन स्पष्ट बहुमत का ये आंकड़ा भी  उनके लिए खुश होने वाली बात नहीं है | वे निश्चित रूप से मुख्यमंत्री के चेहरे  थे लेकिन चुनाव प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के नाम लिख गया | भाजपा ने जनता दल ( यू ) से काफी ज्यादा सीटें जीतकर  दबाव बनाए रखने की हैसियत हासिल कर ली | उसके अलावा एक संकट आख़िरी क्षणों में एनडीए से जुड़े वीआईपी और हम  नामक दो दलों के भी चार - चार विधायक जीतकर आये हैं | नीतीश  की ताजपोशी में इनकी भूमिका संजीवनी बूटी जैसी होगी | इसलिये ये कड़ी सौदेबाजी करें तो अचरज  नहीं होगा | भाजपा भी सत्ता में बड़ा हिस्सा मांगेगी | वीआईपी और हम यदि समर्थन न दें तो एनडीए का बहुमत नहीं रहेगा | जो 8 अन्य  जीते भी हैं उनमें  दो  निर्दलीय और एक बसपा विधायक है  | उन्हें नीतीश आसानी से खींच सकते हैं | बचे हुए 5 चूँकि असदुद्दीन ओवैसी की  पार्टी के हैं इसलिए  वे भाजपा की संगत वाले नीतीश को शायद ही समर्थन देंगे | ऐसे में भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का वायदा तो निभायेगी लेकिन वे सत्ता के केंद्र में रहते हुए भी उतने महत्वपूर्ण और ताकतवर नहीं रहेंगे | सबसे बड़ी बात नई विधानसभा  में विपक्ष की  प्रभावशाली संख्या होगी | राजद के 75 के अलावा कांग्रेस के 19 और वाम दलों  के 16 विधायक मिलाकर सरकार के लिए सदन के भीतर और बाहर  कठिन चुनौती पेश करते रहेंगे | हालाँकि कांग्रेस  के लिए अपने विधायकों को सहेजकर  रखना भी बड़ी समस्या होगी क्योंकि उसके पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी ही जद ( यू ) के कार्यकारी अध्यक्ष हैं | नीतीश कुमार भले ही इस चुनाव में अपनी पहले   जैसी चमक और धमक बरकरार नहीं रख सके लेकिन उनकी राजनीतिक समझबूझ पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए और ये देखते हुए वे कांग्रेस में तोड़फोड़ कर भाजपा तथा बाकी  छोटे - छोटे सहयोगियों के दबाव से मुक्त होने का प्रयास सकते हैं | कांग्रेस के विधायकों में से अनेक अपने सुरक्षित भविष्य की खातिर पाला बदल लें तो किसी को आश्चर्य नहीं  होगा | इस लिहाज से चुनाव के बाद भी बिहार में राजनीतिक रस्साखींच जारी रहेगी | नीतीश भले ही सबसे ज्यादा बार शपथ लेने का कीर्तिमान बना रहे हों लेकिन वे अब मजबूर मुख्यमंत्री  होंगे और जैसा वे खुद कह चुके हैं ये उनका आख़िरी चुनाव था | बिहार की राजनीति में ये चुनाव दो ताकतों के लिए सुखद रहा | पहली भाजपा जो राजद की बराबरी पर आकर खड़ी होने से अब मुख्यधारा में आ गयी और दूसरी  है वाम दल जो लम्बे समय के बाद विधानसभा में दमदारी से बैठेंगे | गत चुनाव में उनकी संख्या महज तीन थी | उल्लेखनीय है एक ज़माने में बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्ष वामदल ही होते थे किन्तु मंडल की राजनीति ने उनको किनारे कर दिया | लेकिन उनका पुनरोदय तेजस्वी यादव के लिए भी नुकसानदेह हो सकता है क्योंकि अरसे बाद अपने खोई  हुई जमीन मिलने के बाद वामपंथी उसका आकार और बढ़ाने में जुटेंगे जिसका खमियाजा सबसे ज्यादा राजद को ही होगा | वैसे नीतीश भी उसमें सेंध लगाने से बाज नहीं आएंगे | मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा  रह जाने के बाद तेजस्वी के आभामंडल में भी कमी आयेगी | उनमें जोश तो है लेकिन उनके पिताश्री की छवि उनका पीछा नहीं छोड़ रही | भले ही वे  चुनावी प्रचार में लालू प्रसाद यादव के  चित्र और जिक्र से बचते रहे  लेकिन ज्योंहीं प्रधानमन्त्री ने जंगल राज का उल्लेख किया त्योंही  मतदाताओं को लालू युग की वापिसी का भय सताने लगा जिसने तेजस्वी के हाथ से जीत छीन ली | विपक्ष का नेता बनकर वे कितने  सक्रिय रहते हैं इस पर उनका भविष्य निर्भर करेगा | लेकिन उन्हें पार्टी को परिवार से बाहर निकालकर नेतृत्व में नये चेहरों को शामिल करना होगा | वरना उनकी हालत भी उप्र के अखिलेश यादव जैसी होकर  रह जायेगी | बड़ी बात नहीं लालू की राजनीतिक विरासत पर काबिज होने के लिए तेजस्वी ,  उनकी बेटी मीसा भारती और बड़े पुत्र तेजप्रताप  के बीच ही महाभारत होने लगे |  कुल मिलाकर  बिहार की राजनीति अब मंडल युग से बाहर निकलकर राष्ट्रीय  मुख्यधारा में शामिल हो गई है | लालू युग  ढलान पर  है , रामविलास पासवान रहे नहीं और उनके बेटे चिराग ने अपनी दुर्गति करवा ली | बचे नीतीश कुमार तो ये वाकई उनका आखिरी चुनाव साबित होगा | लेकिन  बिहार की जनता ने भाजपा पर भी बड़ी जिम्मेदारी डाला दी है | नीतीश पूरे चुनाव में दबे - दबे रहे  लेकिन प्रधानमन्त्री की धाक और साख ने उनकी  नैया पार लगा दी | उस दृष्टि से ये  जनादेश भाजपा के कन्धों पर चढ़कर आया है और अगले चुनाव में नीतीश के बजाय वह जवाबदेह होगी जनता की अदालत में | श्री  मोदी ने डबल इंजिन वाली सरकार का जो दांव चला  वह कारगर रहा | इसलिये अब नया बिहार बनाने के लिए भाजपा को मेहनत करनी होगी | जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है तो वह  राष्ट्रीय पार्टी होने की ऐंठ तो खूब दिखाती है लेकिन उसके पास न नीति है न ही नेतृत्व | 2015 में वह कम सीटों पर लड़कर जितनी  जीती उससे ज्यादा सीटों पर लड़ने के बाद भी उसकी संख्या घट गई | बिहार के नतीजों ने बंगाल के आगामी चुनाव में भाजपा की उम्मीदों  को ऊँचा कर दिया है | विपक्षी एकता की  संभावनाएं भी कांग्रेस के लचर  प्रदर्शन के कारण कमजोर हो रही हैं | राहुल गांधी की अधकचरी राजनीति के कारण भी भाजपा को ताकत मिल रही है | कोरोना के बाद हुए बिहार चुनाव् में  प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को जो समर्थन मिला उसके बाद भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण और तेज होगा | बिहार के सीमांचल इलाके में एनडीए को मिली सफलता काफी कुछ कह गई | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 9 November 2020

स्वच्छ और स्वस्थ पत्रकारिता ही हमारी प्रतिबद्धता



9 नवम्बर 1989 को मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का पहला अंक आपके हाथ में आया था। महाकोशल में सांध्य दैनिक के रूप में इसके पहले से भी अनेक अखबार थे और कुछ बाद में भी आये। लेकिन तकनीक के विकास और पूंजी के प्रवाह ने समाचार पत्रों को पठनीय कम और दर्शनीय ज्यादा बना दिया तथा प्रतिस्पर्धा में गुणवत्ता की जगह व्यवसायिकता आ गई। परिणामस्वरुप पत्रकारिता में भी चारित्रिक बदलाव बीते कुछ दशकों में अनुभव किया गया। यही वजह है कि आज उस पर जिसे देखो वह उंगली उठा देता है। लेकिन पत्रकार बिरादरी पर छाया अपराधबोध इतना गहरा हो गया है कि आरोपों का प्रतिरोध करने का साहस तक नजर नहीं आता। विश्वसनीयता के जो सवाल समाचार माध्यम उठाकर सत्ता प्रतिष्ठान को घेरते थे उन्हीं का जवाब अब उनसे पूछा जाने लगा है परन्तु दूसरों की टोपी उछालने में विजेता भाव की अनुभूति करने वाले वर्ग के सामने अपनी पगड़ी बचाने की नौबत आ गई है। ऐसा एक दिन या बरस में नहीं हुआ। सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक पतन की जो अनवरत प्रक्रिया चल रही है उससे समाचार जगत भी अछूता नहीं रहा। अख़बार जब से उद्योग की शक्ल लेने लगे तब से उनमें होने वाला अनाप-शनाप निवेश अंतत: येन केन प्रकारेण धन बटोरने की हवस का आधार बन गया। और यही वह वजह है जिसने समूचे अख़बार जगत की चाल, चरित्र और चेहरा बदलकर रख दिया। ऐसे में छोटी पूंजी और न्यूनतम संसाधनों के बल पर किसी अखबार का संचालन बड़ा ही कठिन कार्य है। बीते 31 साल के सफर में मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस ने व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ से खुद को दूर रखते हुए पत्रकारिता की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को अक्षुण्ण रखने का प्रयास पूरी ईमानदारी से किया। इसमें हमारी सफलता का आकलन तो पाठकों का विशेषाधिकार है किन्तु हमें ये कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि तीन दशक की संघर्षपूर्ण यात्रा करने के बाद भी मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का रंग - रूप नहीं बदला तो उसकी वजह इसी ईमानदारी में छिपी हुई है। ये कड़वी सच्चाई है कि बाजारवादी युग में समाचार का भी खुलकर व्यापार होने लगा है। पेड और प्रायोजित समाचार अब निर्लज्जता के साथ प्रकाशित होते हैं। इस वजह से समाचारों की स्वतंत्रता और पवित्रता का क्षरण हुआ है। पत्रकार और संपादक भी पैकेज के वशीभूत होकर अपनी विचारशक्ति गंवाते जा रहे हैं। शासकीय नीतियां तथा बाजारवादी शक्तियां समूचे समाचार जगत को अपने इशारे पर नचाने पर आमादा हैं। इस सबके बीच एक मध्यम श्रेणी के अखबार का 31 साल तक निर्बाध प्रकाशन किसी चुनौती से कम न था। लेकिन आज ये कहते हुए हमें आत्मगौरव की अनुभूति हो रही है कि मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस ने विषम से विषम परिस्थिति में भी अपने पाठकों की अपेक्षाओं का सम्मान रखते हुए उच्चस्तरीय और निर्भीक पत्रकारिता की परंपरा का अनुसरण किया। इसके लिए हमारे असंख्य पाठक श्रेय के हकदार हैं जिन्होंने अपना समझकर इस अखबार पर स्नेह बनाये रखा। इस अवसर पर मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस प्रशंसकों के साथ ही उन जाने-अनजाने आलोचकों के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करता है जो हमें अपने कर्तव्य का बोध करवाते रहे हैं। यह साल देश के साथ पूरी दुनिया के लिए एक अभूतपूर्व विपत्ति लेकर आया। कोरोना नामक महामारी ने सब कुछ अस्त व्यस्त कर दिया। आर्थिक संकट से समाज का हर वर्ग जूझ रहा है। ऐसे में समाचार पत्रों के सामने भी अस्तित्व का सवाल आ खड़ा हुआ है। विशेष रूप से लघु और मध्यम श्रेणी के अख़बारों के लिए तो कोरोना काल मानो प्राणवायु के अभाव जैसा है। इस वजह से हमें भी अभूतपूर्व आर्थिक संकट का सामना इस दौरान करना पड़ा, जो आज भी जारी है। शासकीय नीतियाँ कहने को तो लघु और मध्यम श्रेणी के अख़बारों को सहायता देने की बात करती हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि सत्ता में बैठे मठाधीश, चाहे वे किसी भी दल या विचारधारा के हों , इस बारे में घोर पक्षपाती और काफी हद तक स्वार्थी हो चुके हैं। इन परिस्थितियों में भी मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस हिम्मत और हौसले के साथ आगे बढ़ता जा रहा है। पाठकों का स्नेह और विश्वास ही हमारा सम्बल है। 31 वर्ष पूरे होने के इस अवसर पर हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद भी ये यात्रा निरंतर जारी रहेगी। स्वच्छ और स्वस्थ पत्रकारिता की विरासत को संभालकर रखने के प्रति हम सदैव प्रतिबद्ध रहे हैं और ये प्रतिबद्धता हमारे विचार और आचरण में निरन्तर परिलक्षित होती रहेगी, इस आश्वासन के साथ धनतेरस और दीपावली पर अग्रिम शुभकामनाएँ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
संपादक


Saturday 7 November 2020

बाइडन : यदि अनुकूल नहीं तो प्रतिकूल भी नहीं रहेंगे




अब इसमें शक की गुंजाइश नहीं बची है कि जोसेफ  बाइडन ही अमेरिका के अगले राष्ट्रपति होंगे। चुनाव परिणाम को लेकर निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा की जा रही नौटंकी से अब उनके पार्टी के ही लोग किनारा करने लगे हैं। अदालत से भी उन्हें राहत अब तक नहीं मिल सकी और आगे भी शायद ही मिले। वैसे भी अमेरिका में चुनाव के बाद नए राष्ट्रपति के पदग्रहण के बीच दो महीने से भी ज्यादा का समय रखा जाता है जिससे कि इस विश्वशक्ति की बागडोर सँभालने से पहले चुना हुआ व्यक्ति अपनी टीम का चयन करने के साथ ही दुनिया भर में फैले अमेरिकी जाल के बारे में समुचित जानकारी प्राप्त कर सके। चूँकि अमेरिका के सामरिक और आर्थिक हित विश्व के हर हिस्से से जुड़े हुए हैं इसलिए वहाँ के राष्ट्रपति का कार्यक्षेत्र और चिंताएं भी बड़ी होती हैं। और इसीलिये इस पद पर विराजमान व्यक्ति के पास व्यापक दृष्टिकोण के साथ ही पर्याप्त अनुभव भी होना चाहिए। ट्रंप ने अपने चार वर्षीय कार्यकाल में जो कुछ भी किया वह फिलहाल तो इतिहास बनने जा रहा है। हालाँकि तमाम चुनाव विश्लेषकों को हैरान करते हुए उन्होंने बाइडन को अच्छी चुनौती दी। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि कोरोना न आता तब उन्हें दूसरा कार्यकाल आसानी से मिल गया होता। इस महामारी से निपटने में उनके तौर-तरीके बेहद बचकाने रहे जिसकी वजह से अमेरिका में बड़ी संख्या में मौतें हुईं और दुनिया के सबसे सम्पन्न देश में आज भी प्रतिदिन हजारों की संख्या में नए कोरोना संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं। उस लिहाज से बाईडन के समक्ष सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने वाली स्थिति रहेगी। अमेरिका में बीते चार सालों के भीतर श्वेत  और अश्वेत समुदाय के बीच काफी तेजी से ध्रुवीकरण हुआ। ऐसा न होता तब शायद ट्रंप मुकाबला करने लायक भी नहीं बचते किन्तु चीन के विरुद्ध उनकी नीतियों ने वैश्विक परिदृश्य को काफी प्रभावित किया। उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग के साथ मुलाकात उनकी दुस्साहसिक कूटनीति का प्रमाण रही। हालाँकि उसका कोई विशेष परिणाम तो नहीं निकला लेकिन उसके बाद से किम जोंग का धमकी भरा अंदाज जरुर बदला। इसी के साथ ट्रंप ने साउथ चायना समुद्र में चीन के विस्तारवादी रवैये के विरुद्ध ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के साथ मिलकर जो मोर्चेबंदी की उससे दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन में बड़ा बदलाव आया। वैसे उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल के बीच संधि करवाना। पश्चिम एशिया और पाकिस्तान में आतंकवाद के विरुद्ध ट्रंप प्रशासन के रवैये ने भारत को काफी संबल दिया। संरासंघ में भी ट्रंप के रहते चीन को भारत विरोधी हर कदम में मात खानी पड़ी। उस दृष्टि से पहले बराक ओबामा के आठ और फिर ट्रंप शासन के चार साल भारत के लिए कूटनीतिक दृष्टि से बेहद अनुकूल रहे। हालाँकि व्यापार और वीजा नीतियों को लेकर उनके कड़क रवैये के कारण मतभेद भी उभरे लेकिन आपसी रिश्तों में सकारात्मकता अपेक्षाकृत ज्यादा रही। ओबामा के बाद ट्रंप के साथ भी नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत निकटता ने भारत-अमेरिकी सम्बन्धों को अनौपचारिक स्वरूप प्रदान किया। और इसी का परिणाम था कि बाइडन ने उपराष्ट्रपति प्रत्याशी के तौर पर भारतीय मूल की कमला हैरिस को चुना जिसका लाभ भी उन्हें साफ तौर पर मिलता दिखा वरना इस वर्ग का थोक के भाव ट्रंप के पक्ष में जाना तय था। मोदी-ट्रंप की निकटता के चलते ये कयास लगने लगे हैं कि बाइडन भारत के साथ अपनी खुन्नस निकालेंगे। पाकिस्तानी मूल के साथ ही मुस्लिम मतदाताओं के बड़े हिस्से ने उनको मत देकर इस आशंका को और मजबूत भी किया है परन्तु अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों का वहां की राजनीति और व्यवसाय जगत में जिस तरह से महत्व और मौजूदगी बढ़ती जा रही है उसके बाद बाईडन चाहकर भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकेंगे। वैसे भी वहां की संसद में भारतीय मूल के अनेक सदस्य चुनकर पहुंच गये हैं। हालाँकि उपराष्ट्रपति बनने जा रही कमला हैरिस ने अतीत में कुछ बयान ऐसे दिए जिन्हें भारतीय हितों के विरुद्ध कहा जा सकता है लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि बाइडन 2008 से 2016 तक बराक ओबामा के कार्यकाल में उपराष्ट्रपति रह चुके हैं और उस दौर में भारत-अमेरिका के रिश्ते मधुरता के ऊँचे पायदान तक जा पहुंचे। डेमोक्रेटिक पार्टी वैसे भी भारत के प्रति हमेशा से नरम मानी जाती रही है। ओबामा के पहले बिल क्लिंटन भी भारत के पक्ष में काफी झुके रहे। चूंकि उनको पार्टी की उम्मीदवारी दिलवाने में ओबामा की भूमिका महत्वपूर्ण रही इसलिए ये उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि जोसफ  बाइडन के कार्यकाल में भारतीय हित सुरक्षित रहेंगे। इस बारे में ये भी उल्लेखनीय है कोरोना के बाद के वैश्विक शक्ति संतुलन में अमेरिका को चीन से हर मोर्चे पर कड़ी और कठिन चुनौती मिलेगी जिसका सामना करने के लिए उन्हें भारत की जरूरत पड़ेगी क्योंकि चीन के मामले में अमेरिका, पाकिस्तान पर भरोसा नहीं कर सकता। ये सब देखते हुए बाइडन के व्हाईट हाउस में रहते हुए भारत -अमेरिका सम्बन्ध भले ही और मजबूत न हो सकें लेकिन उनमें कड़वाहट आने की आशंका भी फलीभूत नहीं होगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 6 November 2020

नीतीश की घोषणा राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बने



बिहार विधानसभा चुनाव के आखिऱी चरण के चुनाव प्रचार के अंतिम दिवस मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ये घोषणा कि ये उनका अंतिम चुनाव है , चर्चा का विषय बन गई। यदि वे चुनाव की शुरुवात में ऐसा कहते तब शायद वह एक स्वाभाविक बयान होता लेकिन दो चरणों के मतदान के बाद अचानक ऐसा बयान देने से उनके विरोधियों को उन पर हमला करने का अच्छा अवसर मिल गया। राजद के तेजस्वी यादव ने बिना देर लगाए कहा कि वे तो शुरू से ये बात बोलते आये हैं कि नीतीश थक गये हैं और बिहार उनसे सम्भल नहीं रहा। उधर एनडीए में रहते हुए भी नीतीश के विरोध में खड़े हुए चिराग पासवान भी मुख्यमंत्री पर तंज कसने से नहीं चूके जबकि कांग्रेस ने तो इसे नीतीश के रिटायरमेंट से जोड़ दिया। हालांकि जनता दल (यू) ने स्पष्टीकरण दिया कि जब तक जनता चाहेगी तब तक वे सेवा करते रहेंगे। लेकिन साधारण बुद्धि वाला भी ये मान रहा है कि नीतीश जैसे अनुभवी राजनेता द्वारा अंतिम दौर के मतदान के दो दिन पहले अपना अंतिम चुनाव जैसी बात करते हुए मतदाताओं की सहानुभूति हासिल करने का दांव चला गया है। उन्होंने तदाशय की घोषणा पहले दो चरणों के प्रचार के दौरान क्यों नहीं की इसका जवाब साधारण तौर पर तो यही है कि तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षण चूँकि उनकी इकतरफा जीत का संकेत दे चुके थे जिससे वे पूरी तरह निश्चिन्त थे। लेकिन चुनाव ज्यों-ज्यों आगे बढ़े त्यों-त्यों ये धारणा बहुत तेजी से विकसित होती गई कि बिहार में सत्ता विरोधी लहर बहुत तेज है और उसका केंद्र एनडीए या नरेंद्र मोदी न होकर नीतीश हैं। नीतीश की छवि एक ईमानदार, स्वच्छ और विकासवादी नेता की रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि जनता की नजरों से अचानक वे उतर कैसे गए? और इसका कारण उनके पिछले पांच वर्ष के कार्यकाल में राज्य के खाते में कोई विशेष उपलब्धि नहीं जुड़ना है। चमकी बुखार , कोरोना, बाढ़ और फिर प्रवासी मजदूरों की वापिसी जैसे मुद्दे नीतीश की छवि पर भारी पड़ गए। इसीलिये जैसे ही तेजस्वी ने 10 लाख सरकारी नौकरियों का वायदा किया त्योंही उनकी सभाओं में भीड़ नजर आने लगी। पहले दो चरणों के मतदान में हालाँकि मतदान प्रतिशत उस लिहाज से नहीं बढ़ा जो आम तौर पर सत्ता परिवर्तन के लिए होता आया है लेकिन ये कहना गलत न होगा कि राजद, कांग्रेस और वामपंथियों का महागठबंधन नीतीश कुमार पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में कामयाब दिख रहा है। बिहार चुनाव का परिणाम क्या होगा ये तो आगामी 10 तारीख को पता चलेगा लेकिन नीतीश ने अंतिम चुनाव की बात कहकर समूची राजनीतिक बिरादरी के लिए एक विचारणीय मुद्दा तो रख ही दिया। इस बारे में उल्लेखनीय है कि संभवत: भाजपा पहली ऐसी पार्टी है जिसने चुनाव लड़ने के लिए अधिकतम आयु सीमा 75 वर्ष तय कर रखी है। नीतीश फिलहाल 69 वर्ष के हैं। लगभग इतनी ही आयु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है। भाजपा के बाहर भी अभी से ये चर्चा होने लगी है कि 2024 में भी यदि श्री मोदी ही सत्ता में लौटते हैं तब क्या वे 75 के होते ही कुर्सी त्याग देंगे और उस सूरत में उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? भारतीय संविधान में चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु तो तय है लेकिन अधिकतम न होने से उम्रदराज राजनेता भी बाकायदा मैदान में उतरते हैं। इस वजह से नया नेतृत्व नहीं पनप पाता। भाजपा ने अपने अनेक ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जिनका स्वास्थ्य ठीक था लेकिन वे 75 वर्ष के हो चुके थे। और किसी भी दल या नेता ने इस तरह की पेशकश नहीं की। संयोगवश इन्हीं दिनों अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव भी हुआ जिसका परिणाम आजकल में आ जाएगा। यद्यपि वहां चुनाव लड़ने की कोई अधिकतम आयु सीमा नहीं है लेकिन कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार से ज्यादा राष्ट्रपति नहीं रह सकता। इस प्रावधान की वजह से बिल क्लिंटन और बराक ओबामा 60 साल से भी कम की उम्र में दो बार राष्ट्रपति रहने के बाद चुनावी राजनीति से बाहर हो गए। हमारे देश में तो 50 साल के नेताजी भी खुद को युवा कहते हैं। उस दृष्टि से नीतीश की घोषणा भले ही चुनावी चाल हो लेकिन उसे सकारात्मक तौर पर लिया जाए तो भारतीय राजनीति में एक बड़ा सुधार हो सकता है। बंगाल में 90 साल के ज्योति बसु को ढोते रहने का खामियाजा वामपंथी दलों को इस हद तक भोगना पड़ा कि वे अपनी दम पर चुनाव लड़ने तक की स्थिति में नहीं बचे। बिहार में चुनाव तो 10 तारीख को संपन्न हो जायेंगे किन्तु नीतीश की घोषणा राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए क्योंकि युवा पीढ़ी अब उन नेताओं को देखते-देखते ऊबने लगी है जिनके पास उसे देने के लिए नया कुछ भी नहीं है। नीतीश कुमार को भले ये बात देर से समझ में आई हो लेकिन देश का मतदाता अब राजनीति की प्रचलित संस्कृति से ऊबकर ऐसी नीतियों और नेतृत्व की जरूरत महसूस करने लगा है जो यथास्थितिवाद से निकलकर उन सपनों को साकार कर दिखाए जो उसे हर चुनाव के पहले दिखाए जाते रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 5 November 2020

सेवा क्षेत्र के साथ होटल और पर्यटन को सहारा देना समय की मांग



अक्टूबर महीने में जीएसटी का संग्रह 1 लाख करोड़ पार कर जाने के बाद से केंद्र सरकार का हौसला बुलंद है और उसी कारण ये संकेत आया कि तीसरा आर्थिक पैकेज सम्भवत: दीपावली के पहले ही घोषित कर दिया जावेगा। वित्त मंत्रालय के सूत्रों से पता चला है कि ये पैकेज सेवा क्षेत्र के साथ ही होटल और पर्यटन व्यवसाय के लिए होगा। उल्लेखनीय है कोरोना काल में सेवा क्षेत्र के साथ होटल और पर्यटन व्यवसाय को जबरदस्त नुकसान पहुंचा। लॉक डाउन हटाये हुए भी पाँच महीने बीत चुके हैं। उसके बाद उत्पादन में वृद्धि के साथ ही त्यौहारी मांग बढ़ने से उद्योग और व्यापार जगत तो रफ्तार पकड़ने लगा है लेकिन उक्त तीनों क्षेत्रों में अभी तक रौनक नहीं लौटी। ऐसे में सरकार उनके लिए किसी भी तरह की राहत की पहल करती है तो वह सामयिक और सार्थक होगी। सेवा क्षेत्र ने बीते कुछ वर्षों में सराहनीय प्रदर्शन करते हुए अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। इसी तरह होटल और पर्यटन व्यवसाय भी लगातार अच्छे परिणाम दे रहा था। मध्यमवर्ग में जिस तरह से पर्यटन के प्रति रुझान बढ़ा उसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में अपार सम्भावनाएँ नजर आने लगी थीं। राजमार्गों के विकास की वजह से सड़क परिवहन भी तेजी से बढ़ता जा रहा था। इस कारण से भी होटल व्यवसाय को सहारा मिलने लगा। मिडवे मोटल, रेस्टारेंट और ढाबे का व्यवसाय भी इसके चलते खूब फलने-फूलने लगा। शहरों के बाहर मैरिज गार्डन के रूप में एक नया उद्योग पूरे देश में पनपा जिसने अनेक सहयोगी व्यवसायों को संबल प्रदान करने के साथ ही रोजगार के अवसर भी उत्पन्न किये। कुछ कम्पनियों ने देश भर में सस्ते होटलों की चेन बनाकर होटल व्यवसाय को जबर्दस्त विस्तार दिया। घरेलू पर्यटन में लगातार वृद्धि पर होने से ट्रेवलिंग एजेंसी का व्यवसाय प्रगति पथ पर था। टैक्सी चालकों को भी इसका फायदा मिलने लगा। इसके अलावा सेवा क्षेत्र में कार्यरत विभिन्न पेशेवरों का काम लगातार बढ़ता जा रहा था। आर्थिक क्षेत्र के जानकार भी ये मानने लगे थे कि सेवा, होटल और पर्यटन क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद मददगार बनने जा रहे हैं। लेकिन कोरोना के कारण लगाये गये लॉक डाउन ने उक्त व्यवसायों को अकल्पनीय क्षति पहुंचाई। परिवहन सेवा पूरी तरह ठप्प हो गयी। सैर-सपाटा, तीर्थ यात्रा, शादी ब्याह, पार्टियां और जलसों आदि पर विराम लगने से बहुत बड़ा व्यवसाय ठहर गया। होटलों में ताले लटक गए, बार -रेस्टारेंट, जिम, क्लब आदि बंद किये जाने से उनके संचालक आर्थिक संकट में आ गए। हॉलांकि लॉक डाउन शिथिल किये जाने के बाद जनजीवन सामान्य हो चला है और व्यवसाय जगत में भी हलचल दिखाई देने लगी है। वैसे दीपावली इसका बड़ा कारण है। लेकिन सरकार के प्रयास और कोरोना की रफ्तार में कमी के कारण भी उपभोक्ता वर्ग का हौसला फिर से कायम हुआ है किन्तु जिस तरह से पिछले कुछ दिनों में दिल्ली, बंगाल और केरल में कोरोना के नये मामले बढ़े उसके बाद ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि दीपावली के बाद कोरोना की दूसरी लहर आ सकती है और बड़ी बात नहीं वह पहले से ज्यादा व्यापक हो। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि कारोबारी जगत पर इसका बुरा असर पड़े बिना नहीं रहेगा। सेवा क्षेत्र के साथ ही होटल और पर्यटन उद्योग के लिए तो कोरोना का दूसरा हमला दूबरे में दो आसाढ़ जैसा होगा। इसलिए सरकार ने यदि इनके लिए राहत पैकेज लाने का सोचा है तो वह स्वागतयोग्य कदम होगा। चूँकि अभी भी सेवा क्षेत्र काम की कमी से जूझ रहा है तथा होटल और पर्यटन व्यवसाय भी अपेक्षित गति नहीं पकड़ पा रहे इसलिए उनके लिए सरकार को बिना देर किये कुछ ऐसा करना चाहिये जिससे उनका अस्तित्व कायम रहे। अर्थशास्त्री भी इस बात पर एकमत हैं कि देश में सेवा क्षेत्र के साथ ही होटल और पर्यटन आने वाले समय में अर्थव्यवस्था के मुख्य घटक होंगे। इसलिए इस दुधारू गाय को सही-सलामत रखना राष्ट्रीय आवश्यकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 4 November 2020

रेल यातायात रोकना जनविरोधी : सख्त कार्रवाई जरुरी



राजस्थान में गुर्जर आरक्षण की मांग कर रहे आन्दोलनकारी रेल की पटरियों पर धरना दिए हुए हैं। महिलाएं भी साथ आ गई हैं। दिल्ली-मुम्बई के बीच चलने वाली दर्जनों यात्री और मालगाड़ियां रद्द करनी पड़ी हैं। दीपावली मनाने अपने घर जाने वाले हजारों यात्री इस वजह से फंस गये हैं। प्रदेश सरकार द्वारा कुछ मांगें मान लिए जाने के बाद एक गुट ने तो आन्दोलन वापिस ले लिया लेकिन गुर्जरों का दूसरा तबका अब भी असंतुष्ट है और वही रेल पटरियों पर जमा हुआ है। राजस्थान की कांग्रेस सरकार के लिए ये आन्दोलन बड़ा सिरदर्द बनता जा रहा है। दूसरी तरफ पंजाब में भी किसान केंद्र के कृषि सुधार कानूनों के विरोध में रेल पटरियां कब्जाए बैठे हैं। पहले तो मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह सहित पूरी कांग्रेस और अकाली दल अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसानों को लामबंद करते रहे। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी ट्रैक्टर पर बैठकर आन्दोलन का नेतृत्व किया। केंद्र के कानूनों को बेअसर करने के लिए राज्य सरकार ने नये कानून बनाकर किसानों को खुश करने का दाँव चला लेकिन उसके बाद भी वे संतुष्ट नहीं हुए। रेल पटरियां खाली करने भेजे गये मंत्रियों तक को उलटे पाँव लौटा दिया गया। इस तरह ये साफ़ हो गया कि राजस्थान के गुर्जर और पंजाब के किसान आन्दोलन में एकता नहीं है और दोनों राज्यों की सरकारों द्वारा उनके तुष्टीकरण हेतु उठाये गए कदमों का कोई असर नहीं दिख रहा। आंदोलनकारियों की मांगे उचित हैं या अनुचित ये अलग विश्लेषण का विषय है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि रेल पटरियों पर कब्जे द्वारा यात्रियों को मुसीबत में डालकर अपनी मांगें मनवाने का दबाव बनाना कहाँ तक सही है और राज्य सरकारें ऐसे आन्दोलन को रोकने के लिए सख्ती करने से क्यों डरती हैं? राजस्थान और पंजाब दोनों में कांग्रेस की सरकारें हैं। आन्दोलन के पीछे भी इसी पार्टी के नेताओं की भूमिका थी। राजस्थान के हालिया राजनीतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में ये भी माना जा रहा है कि गुर्जर आरक्षण आन्दोलन के पीछे सचिन पायलट का हाथ भी हो सकता है। स्मरणीय है श्री पायलट ने जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के विरुद्ध बगावत का रास्ता अख्तियार किया तब पड़ोसी राज्यों के गुर्जर समाज ने भी उनके समर्थन में आवाज उठाई थी। श्री गहलोत के मनाने पर गुर्जरों का एक गुट तो ठंडा हो गया लेकिन जिस गुट ने अभी तक रेल पटरियां कब्जा रखी हैं वह श्री पायलट का समर्थक हो सकता है। इसी तरह पंजाब में जब तक किसान केंद्र सरकार के विरुद्ध आन्दोलनरत रहे तब तक तो वे अमरिंदर सरकार की आँखों के तारे बने रहे लेकिन अब वे उनके हाथ से भी निकल गए हैं। ये दो उदाहरण भारत में जनादोलनों के बेपटरी होने का ताजा प्रमाण हैं। लेकिन सरकारों में बैठे लोगों को अब इस बात को समझना चाहिए कि अपने क्षणिक राजनीतिक स्वार्थों के लिए राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुँचाने वाले क़दमों को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। रेल की पटरी पर बैठने वाले कोई भी हों लेकिन वे देश के हितचिन्तक नहीं हो सकते। हमारे देश में सड़कों पर चकाजाम करने वालों के विरूद्ध तो अपराधिक प्रकरण दर्ज किया जाता है लेकिन रेल यातायात अवरुद्ध करने वालों की मान-मनौवल की जाती है ,  और वह भी सरकार के मंत्री भेजकर। पंजाब के किसानों और राजस्थान के गुर्जरों को अपनी मांगें मनवाने के लिए आंदोलन करने का पूरा अधिकार है । लेकिन इसके लिए वे हजारों रेल यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचने से रोक दें और जरूरी सामान की आवाजाही में बाधा बनें तो वह आन्दोलन नहीं बल्कि अपराध है। और अपराध करने वालों के प्रति नरमी बरतना दूसरों को वैसा ही करने के लिए प्रोत्साहित करता है। पंजाब और राजस्थान दोनों के मुख्यमंत्री बेहद अनुभवी राजनेता हैं। उन्हें देशहित समझाने की कोई जरूरत भी नहीं है। लेकिन अभी तक उन दोनों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे लगता कि वे अपने राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर भी सोचते हैं। दीपावली पर अपने घर लौटने वालों को वैसे भी बहुत दिक्कतें हो रही हैं। कोरोना के कारण अभी तक सभी रेल गाड़ियाँ शुरू नहीं हो सकीं। ऐसे में रेल यातायात को ठप्प कर देना पूरी तरह से जनविरोधी कदम है। इसलिए पंजाब और राजस्थान सरकार को रेल पटरी पर कब्जा किये बैठे आन्दोलनकारियों को तत्काल हटने की चेतावनी देने के बाद भी यदि वे न मानें तब उन्हें गिरफ्तार करने में कोई संकोच नहीं चाहिए। दु:ख की बात है कि गुर्जर आन्दोलन के नेताओं में कुछ पूर्व फौजी अफसर भी हैं। पंजाब में भी किसानों के आन्दोलन में अनेक ऐसे चेहरे आगे- आगे नजर आये जिन्हें सुशिक्षित कहा जा सकता है। बेहतर हो प्रजातंत्र को अराजक होने से बचाने के लिए आन्दोलन के ऐसे तरीके अपनाए जाएं जिनसे दूसरों के हित प्रभावित न हो और देश का नुकसान भी न हो। लोकतंत्र सभी को अपनी आवाज उठाने का अधिकार देता है लेकिन उसके साथ कुछ कर्तव्य भी हैं जिनको भुला देना हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 3 November 2020

चाहे ट्रम्प जीतें या बिडेन भारत की उपेक्षा नहीं कर पाएंगे



अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव यूँ तो पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन जाता है लेकिन भारत के लिए इसका विशेष महत्व है। हालाँकि आजादी के कई दशक बाद तक भारत और अमेरिका के सम्बन्धों में खटास बनी रही। प्रजातांत्रिक देश होने के बाद भी अमेरिका से रिश्तों में तनाव का कारण नेहरू युग में भारत का सोवियत संघ के प्रति झुकाव था। यद्यपि भारत गुट निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक रहा किन्तु नेहरु जी निजी तौर पर सोवियत संघ से बहुत प्रभावित थे। उनके सलाहकारों में भी वामपंथी रुझान वाले काफी लोग हुआ करते थे। इंदिरा गांधी के दौर में तो भारत और सोवियत संघ बहुत ही करीब आ गये थे। कश्मीर समस्या पर संरासंघ में अमेरिका और ब्रिटेन के पाकिस्तान समर्थक रुख पर सोवियत संघ ने सदैव भारत के पक्ष में वीटो का उपयोग किया। लेकिन विगत तीन दशक में हालात काफी बदल गये। पीवी नरसिम्हा राव के शासनकाल में जब डा. मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार लागू किये तब अमेरिका के साथ रिश्तों में सुधार होने लगा। बाद में अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने पर एक बार फिर सम्बन्ध बिगड़े लेकिन बेहतर कूटनीति के परिणामस्वरूप दोबारा उनमें मधुरता आ गई, जो लगातार बढ़ती गयी। वाजपेयी सरकार ने अप्रवासी भारतीयों को कूटनीतिक माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करते हुए अमेरिका के नजरिये को काफी प्रभावित किया। डा. मनमोहन सिंह तो वैसे भी अमेरिका समर्थक माने जाते थे। लेकिन पिछले छह साल में नरेंद्र मोदी ने इस विश्वशक्ति के साथ जिस तरह की आत्मीयता स्थापित की उसने दक्षिण एशिया के कूटनीतिक संतुलन को नया रूप दे दिया। पहले बराक ओबामा और फिर डोनाल्ड ट्रम्प के साथ श्री मोदी ने जिस तरह की अनौपचारिक निकटता बनाई वह काफी कारगर साबित हुई। डेमोक्रेटिक और रिपब्लिक पार्टी दोनों के शासनकाल में अमेरिका का भारत के पक्ष में झुकाव निश्चित तौर पर बड़ी कामयाबी है। लेकिन इसमें अमेरिका में बसे अप्रवासी भारतवंशियों के योगदान को भुलाना उनके प्रति कृतघ्नता होगी। पहले स्व. अटल जी और अब श्री मोदी ने इस माध्यम का जिस चतुराई से उपयोग किया वह जरूर उनके कूटनीतिक कौशल का परिचायक रहा। अप्रवासी भारतीयों की बड़ी संख्या अब अमेरिका की नागरिक है। अनेक परिवारों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी तो अमेरिका में ही जन्मी जिससे उन्हें वहां चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त हो गया। बॉबी जिंदल वहां सांसद के साथ लुइसियाना राज्य के गवर्नर भी रहे। संसद के दोंनों सदनों में भारतीय मूल के सदस्यों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि अमेरिकी प्रशासन में भारतीयों की उपस्थिति भी पहले की अपेक्षा ज्यादा नजर आने लगी है। ओबामा के बाद ट्रम्प ने भी अपने निजी स्टाफ  में काफी भारतीयों को शामिल किया। वैसे भी ट्रम्प अपने व्यवसाय के सिलसिले में भारत के साथ पहले से जुड़े हुए थे। इसीलिये 2016 में उन्हें जिताने में भारतीय मूल के मतदाताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही जिसका प्रतिफल बीते चार सालों में दोनों देशों के आपसी संबंधों में आये अभूतपूर्व सुधार के रूप में देखने भी मिला। विशेष रूप से पाकिस्तान और आतंकवाद के मामले में अमेरिका का रुख काफी बदला जिससे भारत की कूटनीतिक वजनदारी बढ़ी तथा जापान और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी भारत के निकट आये जिसकी वजह से चीन पर भी दबाव बढ़ा। यही देखकर ट्रम्प के प्रतिद्वंदी डेमोक्रेट प्रत्याशी जोसफ बिडेन ने अपने उपराष्ट्रपति प्रत्याशी के तौर पर कमला देवी हैरिस को चुना जो भारतीय माँ और अमेरिकन पिता की संतान हैं तथा 2017 से सीनेटर हैं। उनकी वजह से बिडेन का पलड़ा भारी होने का अनुमान चुनाव विश्लेषक लगा रहे हैं। उधर श्री मोदी से अच्छे सम्बन्धों के कारण भारतीय मूल के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ट्रम्प के तरफ भी झुका बताया जा रहा है। इनके अलावा अमेरिका में भारतीय मूल के व्यवसायियों की भी बड़ी संख्या है जो व्हाईट हॉउस तक अपनी पहुंच रखते हैं। राष्ट्रपति चुनाव में बड़ा चन्दा देने वालों में भी इन व्यवसायियों की गिनती होती है। इस प्रकार अमेरिका के राष्ट्रीय चुनाव में भारत और भारतीयों का हित चर्चित मुद्दा है। ये कहना गलत न होगा कि भारतीय समुदाय अब एक प्रभावशाली दबाव समूह के तौर पर स्थापित हो चुका है। और इसीलिये भारत विरोधी माने जाने वाले बिडेन ने न सिर्फ कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति प्रत्याशी बनाया, अपितु भारत समर्थक बयान भी देने लगे। निश्चित रूप से ये बदलाव बहुत ही आशाजनक है क्योंकि वैश्विक राजनीति में भारत की बढ़ती भूमिका और कोरोना के बाद के शक्ति संतुलन में अमेरिका के साथ भारत की जुगलबन्दी चीन की नाक में नकेल डालने का जरिया बनेगी , ये विश्वास किया जा सकता है। ट्रम्प और बिडेन में से जो भी जीते वह भारत की उपेक्षा नहीं कर सकेगा ये तय है। विशेष रूप से एशिया में चीन की चौधराहट पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका को भारत की जरूरत पड़ेगी। हालाँकि कुछ प्रेक्षक शुरू में ये मानकर चल रहे थे कि बिडेन वामपंथी रुझान के कारण चीन के पक्षधर होंगे लेकिन जिस तरह के संकेत आ रहे हैं उनसे तो लगता है कि उनकी समझ में भी ये बात आ चुकी है कि बतौर राष्ट्रपति वैसा करना शायद उनके लिए आसान नहीं होगा। और इसीलिए जब ट्रम्प ने भारत को गंदा देश बताया तब बिडेन ने उसका विरोध करते हुए कहा था कि मित्र देश के बारे में ऐसी टिप्पणी अवांछनीय है। अमेरिका की राष्ट्रीय राजनीति में भारतवंशियों की महत्वपूर्ण भूमिका निश्चित रूप से उत्साहवर्धक है क्योंकि इससे भारत के विश्वशक्ति बनने के आसार प्रबल प्रतीत होने लगे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 2 November 2020

पड़ोसी के घर की आग हमें भी झुलसा सकती है



सऊदी अरब द्वारा जी - 20 सम्मेलन के पहले जारी किये गए एक नक्शे में जम्मू-कश्मीर के गिलगित और बाल्टिस्तान इलाके को पाकिस्तान के कब्जे के बजाय एक स्वतंत्र क्षेत्र बताये जाने पर भारत ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराई। पाकिस्तान के लिए तो ये एक कूटनीतिक धक्का था ही। लेकिन गत दिवस वहां के प्रधानमन्त्री इमरान खान ने उक्त दोनों क्षेत्रों को पाकिस्तान का अस्थायी प्रान्त घोषित कर दिया। भारत ने तो इसके विरोध में कड़ा बयान देते हुए पाकिस्तान से ये इलाके खाली कर देने को कहा ही किन्तु समाचार माध्यमों से मिल रही जानकारी के अनुसार गिलगित और बाल्टिस्तान की जनता भी पाकिस्तान के आधिपत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। और इमरान सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आई है। वैसे भी वहां के अंदरूनी हालात बेहद खराब हैं। सिंध में हाल ही में सेना बुलानी पड़ी वहीं बलूचिस्तान पहले से ही आजाद होने के लिए संघर्षरत है। पाक अधिकृत कश्मीर कहने को तो एक स्वायत्त इलाका है लेकिन पाकिस्तान ने वहां कठपुतली सरकार बनवाकर जो दमनचक्र चला रखा है उसकी मुखालफत भी लम्बे समय से चल रही है। इसका अर्थ ये निकालना तो जल्दबाजी होगी कि वे भारत के साथ जुड़ने को तैयार हैं लेकिन इतना जरूर है कि पाकिस्तान के शोषण और ज्यादतियों से त्रस्त होकर उसके कब्जे से आजादी चाह रहे हैं। जबसे इमरान सरकार आई है तबसे पाकिस्तान के भीतरी हालात अनियंत्रित हो चले हैं। इसकी वजह राजनीतिक अनुभव की कमी के साथ-साथ उनका पूरी तरह सेना के नियन्त्रण में होना भी है। उनके दो प्रमुख प्रतिद्वंदी जनरल परवेज मुशर्रफ और नवाज शरीफ भ्रष्टाचार के मुकदमों में फंसकर सत्ता की दौड़ से बाहर कर दिए गए हैं। उनकी गैर मौजूदगी से मुल्क में नए - नये क्षेत्रीय शक्ति समूह पैदा हो गए हैं। हालांकि इमरान खुद पठान समुदाय से ताल्लुकात रखते हैं किन्तु जिस तरह की परिस्थितियां नजर आ रही हैं उनके अनुसार देर सवेर खैबर पखनूस्तान में भी आजादी की दबी हुई चिंगारी फूटना तय है। अनेक विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद से ही पंजाब और उर्दू भाषा के दबदबे के विरुद्ध देश के बाकी अंचलों में असंतोष बना हुआ है। जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी के रूप में  भले ही सिंध प्रांत को राजनीतिक नेतृत्व का अवसर मिला लेकिन अधिकतर फौजी जनरल चूंकि पंजाब प्रांत से ही आये इसलिए सरकार पर पंजाब का दबाव कायम रहा। इस वजह से प्रशासनिक और सांस्कृतिक तौर पर भी पंजाब को ही पाकिस्तान की पहिचान के तौर पर मान्यता मिली । जिस वजह से उर्दू सिंधी, बलूची और पश्तो भाषा पर लाद दी गयी। यही स्थिति उसके अवैध कब्जे वाले कश्मीर के साथ ही गिलगित और बाल्टिस्तान की है। जिनका भाषायी और सांस्कृतिक स्वरूप सर्वथा भिन्न है। पाकिस्तान ने आतंकवाद को प्रश्रय देने की जो नीति अपनाई उसके कारण देश में अराजकता और अस्थिरता का माहौल चरमोत्कर्ष पर आ गया है। वैसे तो पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता उसके जन्म के कुछ समय बाद ही शुरू हो चुकी थी जिसके कारण फौज समानांतर सत्ता के रूप में स्थापित होने में कामयाब हो गई। और यही उसकी सबसे बड़ी समस्या है। फौजी जनरलों ने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए मुल्क को सदैव तनावग्रस्त बनाये रखा और प्रजातान्त्रिक तरीके से चुने गए किसी भी नेता को ताकतवर नहीं बनने दिया। वह फौज ही है जिसने पाकिस्तान में धर्मान्धता को राष्ट्रीय चरित्र बनाने में मदद की। आतंकवाद को पाकिस्तान की पहिचान बनाने में भी उसकी प्रमुख भूमिका रही। जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो सभी उच्च शिक्षित और आधुनिक सोच वाले माने जाते थे लेकिन वे सभी फौज पर नियन्त्रण रख पाने में असफल रहे और सत्ता से बेदखल किये जाते रहे। इमरान भी उसी श्रेणी के राजनेता बनकर उभरे जिनसे उम्मीद थी कि वे अपनी आधुनिक सोच और वैश्विक छवि के अनुरूप पाकिस्तान को कट्टरपन और आतंकवाद से मुक्त करवाकर नई दिशा की ओर ले जाते हुए भारत के साथ सम्बन्ध सुधारकर विकास का माहौल बनाएंगे। लेकिन उनके साथ भी ये दुर्भाग्य जुड़ गया कि वे जनरल बाजवा के दबाव में आकर भारत से उलझ गये और आज वे पाकिस्तान के अब तक के सबसे कमजोर शासक के तौर पर बदनाम हो चुके हैं। घरेलू हालात के साथ वैश्विक मंचों पर भी इमरान बुरी तरह शिकस्त खा रहे हैं। अपने देश को आतंकवादी घोषित होने से बचाने की उनकी सभी कोशिशें बेकार साबित होने से अमेरिका सहित अन्य देशों से मिलने वाली मदद भी बंद सी ही है। चीन अकेला उसका संरक्षक है लेकिन संरासंघ में वह भी इमरान की मदद नहीं कर पा रहा। वन बेल्ट वन रोड नामक सड़क का गिलगित-बाल्टिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के अनेक इलाकों में जबरदस्त विरोध होने से चीन ने इमरान पर दबाव डालकर उनकी स्वायत्तता खत्म करने के लिए बाध्य किया। इन क्षेत्रों में चुनाव कराए जाने का भी भारत विरोध कर रहा था। हालिया फैसलों पर भारत सरकार की बेहद तीखी प्रतिक्रिया के बाद यदि सीमा पर तनाव बढ़ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। लेकिन इससे बढ़कर बात अब पाकिस्तान के बांग्ला देश जैसे कुछ और हादसों से गुजरने तक पहुंचने की आशंका तक जा पहुंची है। इमरान खान अपने बनाये जाल में जिस तरह फंसते जा रहे हैं उससे देश में गृह युद्ध के आसार बन गये हैं जिसमें सेना खुद सत्ता पर कब्जा कर सकती है। बलूचिस्तान, गिलगित और बाल्टिस्तान से आ रही खबरें भारत के लिए भी चिंता का कारण है क्योंकि बौखलाहट में पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर सीमा पर जंग के हालात पैदा कर सकता है। चीन इन इलाकों में जितना पैसा फंसा चुका है उसके बाद उसका शांत बैठना भी मुश्किल है। ऐसे में भारत को बेहद सतर्क रहना होगा क्योंकि पड़ोसी के घर की आग से अपनी दीवारें भी गर्म तो होती ही हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी