Wednesday 25 November 2020

कश्मीर : देर से ही सही सच्चाई सामने आनी चाहिये



कश्मीर को भारत का मुकुट कहा जाता है लेकिन 1947 के बाद से ये पैर में कांटे की तरह से फंसा हुआ है। गत वर्ष केंद्र  सरकार ने  जम्मू - कश्मीर नामक इस राज्य का  विशेष दर्जा समाप्त करते हुए लद्दाख को उससे अलग कर दिया और   केंद्र शासित बनाकर उसकी  हैसियत घटा दी । इससे वहां के स्थापित राजनीतिक छत्रप  भन्नाए हुए हैं क्योंकि  बीते सात दशक में हुए भ्रष्टाचार और देश विरोधी करतूतें एक के बाद एक सामने आ रही हैं । जिस तरह देश में कांग्रेस और नेहरू - गांधी परिवार ने दशकों तक एक छत्र राज किया ठीक वही स्थिति जम्मू - कश्मीर में  नेशनल कांफ्रेंस और उसके संस्थापक शेख अब्दुल्ला की रही  । आज तक उनके बेटे फारुख और पोते उमर  सियासत के केंद्र में हैं । शेख से अलग होकर पीडीपी बनाने वाले मुफ्ती मो. सईद का परिवार भी दूसरी बड़ी सियासी ताकत बन गई । उनके बेटी महबूबा भी अब्दुल्ला परिवार जैसी ही हैसियत बनाये हुए है । कहने को वहां और भी नेता और पार्टियां हैं लेकिन सत्ता इन्हीं दो परिवारों के पास मुख्यत: रही । हालाँकि कांग्रेस ने भी लम्बे समय तक वहां राज किया लेकिन उसे भी अन्त्तत: अब्दुल्ला और मुफ्ती के आधिपत्य को स्वीकार करना पड़ा । इससे भी बड़ी बात ये है कि कश्मीर को लेकर सदैव आक्रामक रही भाजपा तक ने  नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के साथ गलबहियाँ करने में संकोच नहीं  किया। लेकिन कांग्रेस जहां कश्मीर को समस्या बनाये रखने वाली ताकतों को मजबूत करती रही वहीं भाजपा की मोदी सरकार ने धारा 370 और 35 ए को एक झटके में हटाकर खुद को अपराधबोध से  मुक्त करते हुए इतिहास रच दिया । कश्मीर समस्या क्या और क्यों है इसे लेकर काफी कुछ लिखा और कहा  गया  है । भाजपा और संघ  परिवार इसके लिए प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरु को दोषी ठहराते रहे हैं । जिन्होंने शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों में फंसकर कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह के विरूद्ध जनांदोलन भड़काकर  गृह युद्ध की  स्थिति पैदा की। महाराज द्वारा शेख को गिरफ्तार किये जाने से नेहरू जी बहुत नाराज थे । आजादी के बाद रियासतों के विलय के मसले पर हरिसिंह द्वारा जम्मू  कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाये रखने की  जिद को समस्या की जड़ माना जाता है । पाकिस्तानी कबायली हमले के बाद उन्होंने भारत में विलय जब किया तब ही भारतीय सेना वहां  पहुँची लेकिन  तब तक काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तान कब्जा चुका था । भारतीय सेना उसे खाली करवा सकती थी लेकिन पं. नेहरु ने मामला संरासंघ में ले जाने की गलती कर दी जिसके बाद से आज तक ये समस्या  भारत का स्थायी सिरदर्द बनी हुई है । हाल ही में जम्मू - कश्मीर में एक बड़ा भूमि घोटाला उजागर हुआ जिसमें अब्दुल्ला परिवार  सहित तमाम राजनेताओं द्वारा सरकारी जमीन हड़पने की बात सामने आ रही है । राज्य में जिला परिषदों के चुनाव के समय सामने आये इस घोटाले को राजनीतिक कहकर नजरअंदाज किये जाने की कोशिश भी आरोपी नेताओं की तरफ से हो रही है किन्तु इससे अलग हटकर कश्मीर के  विलय के बाद पहले सदर ए रियासत बनाये गये डा. कर्णसिंह के पुत्र विक्रमादित्य ने गत दिवस कांग्रेस और पं. नेहरु पर कश्मीर समस्या को उलझाने का जो आरोप लगाया वह इस राज्य को लेकर चली आ रही बहस को नई दिशा में  ले जा सकता है । उल्लेखनीय है डा. कर्णसिंह महाराजा हरिसिंह के पुत्र हैं । विलय के बाद शेख अब्दुल्ला के बहकाने पर नेहरु जी ने उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया तथा शेष जीवन उन्हें मुम्बई में बिताना पड़ा। कर्णसिंह उस समय किशोरावस्था में थे । कालान्तर में सदर ए रियासत की पदवी खत्म कर दी गई । जिसके बाद  वे  कांग्रेस के मार्फत लोकसभा और राज्यसभा  में आते रहे तथा अनेक सरकारों में मंत्री भी रहे । उन्हें नेहरु - गांधी परिवार का खासमखास माना जाता रहा । अपने समूचे राजनीतिक जीवन में उन्होंने जम्मू - कश्मीर के विलय और उस बारे में नेहरु जी की नीति और निर्णयों पर  न ऐसा  कुछ कहा  और न ही लिखा  जो इतिहास के अनछुए पन्नों को लोगों के ध्यान में लाता  । लेकिन गत वर्ष जब मोदी सरकार ने धारा 370 हटाने का साहस दिखाया तब उसका स्वागत करने वालों में वे भी थे । यद्यपि उन्होंने उसके तरीके पर ऐतराज किया था । उसी समय ये संकेत मिलने लगे थे कि कश्मीर का राजपरिवार कांग्रेस से पिंड छुड़ाकर भाजपा के निकट आ सकता है । संयोगवश राहुल गांधी के बेहद करीबी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी  धारा 370 हटाये जाने के पक्ष में बयान देकर कांग्रेस नेतृत्व को  पशोपेश में डाल दिया था । लेकिन मिलिंद देवड़ा और दीपेन्द्र हुड्डा जैसे कुछ और युवा नेताओं के भी बयान भी चूंकि वैसे ही आये इसलिए कांग्रेस ने चुप रहना बेहतर समझा । हालांकि  कर्णसिंह और  सिंधिया परिवार की रिश्तेदारी के चलते राजनीतिक संकेत साफ़ होने लगे थे । जिसकी पुष्टि ज्योतिरादित्य के कांग्रेस  छोड़कर भाजपा में आने से हो गई । गत दिवस कर्णसिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह  ने   जो रिश्ते में श्री सिंधिया के बहनोई हैं , कश्मीर समस्या को लेकर कांग्रेस और पं. नेहरु पर  आरोपों की जो झड़ी लगाई उसके बाद से केवल राज्य ही नहीं अपितु राष्ट्रीय स्तर पर भी कश्मीर संबंधी नए - नए किस्से सामने आ सकते हैं । कहा जा सकता है कि जब राज्य में जिला परिषदों के चुनाव चल रहे हों और विधानसभा चुनाव की रूपरेखा बन रही हो उसी समय विक्रमादित्य ने अपने मन के गुबार क्यों  निकाले?  बड़ी बात नहीं वे भी अपने साले ज्योतिरादित्य की देखासीखी भाजपा में आने वाले हों । लेकिन कश्मीर के भारत में विलय में विलम्ब  के लिये उनका नेहरु जी पर दोषारोपण आसानी से हवा में उड़ाने वाली बात नहीं है । ये बात बिलकुल सही है कि धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान था जिसे कांग्रेस ने समय रहते हटा दिया होता तो आज स्थिति इतनी विकट न होती । भाजपा और नरेंद्र मोदी से वैचारिक मतभेद रखने  वाले भी दबी  जुबान ही सही ये तो मानते ही हैं कि उस धारा का लाभ लेकर अब्दुल्ला परिवार ने अलगाववाद के जो बीज बोये उन्हीं की फसल आतंकवाद के रूप में बढ़ती गयी। बीते एक साल में  पूरे देश को पहली  बार लगा कि कश्मीर मुख्यधारा में शामिल हो गया है । अब तक  इतिहास में महाराजा हरिसिंह को खलनायक के रूप में पेश किया जाता रहा लेकिन उनके पोते विक्रमादित्य ने जिस तरह से जुबान खोली उसके बाद से अब तक प्रचलित धारणाएं बदल  सकती हैं । ये कहना गलत न होगा कि आजादी के 75 साल पूरे होते तक जम्मू - कश्मीर में सियासत  का शक्ति संतुलन पूरी तरह बदला नजर आयेगा । राष्ट्रवादी राजनीति के लिए ये शुभ  संकेत है कि इस राज्य के पूर्व शासक परिवार ने लम्बे समय के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी है । भले ही उसे राजनीतिक अवसरवाद कहा जाए लेकिन विक्रमादित्य सिंह के  खुलासों के बाद  यदि कश्मीर समस्या के असली गुनाहगार सामने लाये जा सकें तो भावी पीढ़ी को सच्चाई से अवगत कराया जा सकेगा जो बीते सात दशक तक उससे अनजान रही ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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