Friday 20 November 2020

व्यक्तिगत स्वतंत्रता : सवालों के बीच से उठते कुछ और सवाल




जबसे टीवी एंकर अर्णब गोस्वामी को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी तभी से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को लेकर न्यायालयीन भेदभाव पर बहस चल पड़ी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अर्णब की जमानत पर बॉम्बे उच्च न्यायालय को इस बात की नसीहत दी कि उसे वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा के अपनी अधिकार का उपयोग करना चाहिए था। स्मरणीय है अर्णब की जमानत पर उच्च न्यायालय ने पहले तो सभी पक्षों की बात सुनने की शर्त रखी और अंत में कह दिया कि वे चाहें तो निचली अदालत में आवेदन कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय का ये तरीका रास नहीं आया और इसीलिये अर्णब को जमानत देते हुए उसने एक नीतिगत वक्तव्य जैसा दे दिया। इसके बाद से ही एक वर्ग विशेष ने इसे मुद्दा बनाकर जेलों में बंद उन असंख्य लोगों की चर्चा शुरू कर दी जिनकी जमानत अर्जी पर अदालतों द्वारा कोई संज्ञान नहीं लिया जा रहा। सबसे बड़ी आपत्ति यही है कि व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में भी वर्गभेद किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय यदि अर्णब को राहत न देता और वे अभी भी जेल में रहते होते तब शायद इस मुद्दे को गर्माने वाले भी इधर-उधर के मसलों में उलझे होते। लेकिन क्या ये पहला मामला है जिसमें देश की सर्वोच्च अदालत ने जल्दबाजी दिखाते हुए याचिकाकर्ता को अति विशिष्ट व्यक्ति का दर्जा देकर उपकृत किया हो? बरसों पहले जब अभिनेता सलमान खान को निचली अदालत द्वारा हिट एंड रन के मामले में दोषी मानकर सजा सुनाई तब उसी बॉम्बे उच्च न्यायालय ने शाम को आनन-फानन में उनकी जमानत अर्जी मंजूर की थी। महंगे वकीलों के सहारे इस तरह का लाभ लेने वाले ऐसे लोगों की सूची काफी लम्बी है। जिसमें नेता, धनकुबेर और कुख्यात अपराधी तक शामिल हैं। जेलों में लम्बे समय से बंद शहरी नक्सली कहे जाने वाले लोगों की रिहाई न होने से वामपंथी विचारक, पत्रकार और बुद्धिजीवी बेहद भन्नाए हुए हैं। इसके अलावा बीते कुछ समय से सरकार विरोधी टिप्पणियाँ करने पर देश भर में अनेक पत्रकार भी बंद कर दिए गये जिसे लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला उठाया जाता रहा है। किसी भी प्रजातंत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय की सुलभता अत्यंत आवश्यक होती है। लेकिन हमारे देश में इसे लेकर इकतरफा सोच होने से सरकारों को मौक़ा मिल जाता है, विरोध को दबाने का। आज जो लोग शहरी नक्सली होने के शक में गिरफ्तार लोगों के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं वे बंगाल में ममता बैनर्जी और केरल में विजयन सरकार के राज में हो रही राजनीतिक हत्याओं पर आँख मूंदकर क्यों बैठे रहते हैं, इसका जवाब भी तो सामने आना चाहिए। कानून के सामने सभी बराबर हैं चाहे वे सलमान हों या अर्णब? लेकिन किसी आरोपी को महिमामंडित करने के लिए जब देश का एक नामचीन पत्रकार आधी रात के बाद उसका साक्षात्कार लेने बैठता है तो वह अभिव्यक्ति की आजादी का मजाक नहीं तो और क्या था? दिल्ली के जेएनयू विवि में राष्ट्रविरोधी नारे लगाने और, हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान करने वालों की तरफदारी करना किस तरह की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है? जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाये जाने के बाद उठाये गये राष्ट्रहित के क़दमों के विरोध में आसमान सिर पर उठा लेने वाले अभिव्यक्ति के नाम पर भारत विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ाने में सदैव आगे-आगे रहते हैं। अर्णब हो या चाहे कोई और, कानून को सभी के प्रति एक जैसा नजरिया रखना चाहिए। लेकिन एक देशद्रोही की फांसी रुकवाने के लिए आधी रात को सर्वोच्च न्यायालय खुलवाना भी तो वर्गभेद है। जिन लोगों ने वह मुहिम चलाकर न्यायपालिका पर अनुचित दबाव बनाया उन्हें ही आज इस बात पर ऐतराज हो रहा है कि हजारों को नजरंदाज करते हुए एक टीवी एंकर को इसलिए त्वरित जमानत दी गई क्योंकि अदालत ने उसे विशिष्ट माना जबकि विभिन्न राज्यों में पकड़े गये छोटे पत्रकार सीखचों में हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जो टीवी एंकर व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के वशीभूत अर्णब की रिहाई में न्यायिक भेदभाव देख रहे हैं उन्हीं ने तो टीवी माध्यम को श्रेष्ठता के अभिमान से भरते हुए एंकरों को महामानव बनाने का तानाबाना बुना। आज समाचार जगत विश्वास के जिस संकट से गुजर रहा है उसके लिए टीवी टीवी एंकरों की जमात भी कम जिम्मेदार नहीं है। ये कहना गलत न होगा कि समाचार पत्र और पत्रिकाओं से जुड़े पत्रकारों और टेलीविजन के जरिये दिखने वाले एंकरों में वही अंतर है जो नाटक और फिल्म में काम करने वाले अभिनेता के बीच होता है। ऐसे में अदालत भी चेहरे की चमक देखकर प्रभावित हो जाती हो तो आश्चर्य कैसा? और फिर जब पत्रकार भी सेलेब्रिटी बनने की कोशिश करने लगे तब प्रधानमंत्री अक्षत कुमार को साक्षात्कार दें तो फिर बुरा क्यों लगता है? कहते हैं एक उंगली दूसरे पर उठाने से चार हमारी अपनी तरफ  भी उठती हैं। अर्णब को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष दर्जे के तौर पर जमानत दिए जाने से न्याय के समक्ष समनाता के सिद्धांत पर सवाल उठाना स्वाभाविक है और जरूरी भी किन्तु ये भी विचारणीय है कि जो पत्रकार, बुद्धिजीवी और उनके हमकदम अन्य लोग भविष्य में यदि किसी कारण से पकड़े जायेंगे तब क्या वे अदालत से ये कहने का बड़प्पन दिखायेंगे कि उनको जमानत देने के पूर्व पहले से लम्बित प्रकरणों पर निर्णय ले लिए जाएं क्योंकि वे आम आदमी से ऊपर नहीं हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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