अब इसमें शक की गुंजाइश नहीं बची है कि जोसेफ बाइडन ही अमेरिका के अगले राष्ट्रपति होंगे। चुनाव परिणाम को लेकर निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा की जा रही नौटंकी से अब उनके पार्टी के ही लोग किनारा करने लगे हैं। अदालत से भी उन्हें राहत अब तक नहीं मिल सकी और आगे भी शायद ही मिले। वैसे भी अमेरिका में चुनाव के बाद नए राष्ट्रपति के पदग्रहण के बीच दो महीने से भी ज्यादा का समय रखा जाता है जिससे कि इस विश्वशक्ति की बागडोर सँभालने से पहले चुना हुआ व्यक्ति अपनी टीम का चयन करने के साथ ही दुनिया भर में फैले अमेरिकी जाल के बारे में समुचित जानकारी प्राप्त कर सके। चूँकि अमेरिका के सामरिक और आर्थिक हित विश्व के हर हिस्से से जुड़े हुए हैं इसलिए वहाँ के राष्ट्रपति का कार्यक्षेत्र और चिंताएं भी बड़ी होती हैं। और इसीलिये इस पद पर विराजमान व्यक्ति के पास व्यापक दृष्टिकोण के साथ ही पर्याप्त अनुभव भी होना चाहिए। ट्रंप ने अपने चार वर्षीय कार्यकाल में जो कुछ भी किया वह फिलहाल तो इतिहास बनने जा रहा है। हालाँकि तमाम चुनाव विश्लेषकों को हैरान करते हुए उन्होंने बाइडन को अच्छी चुनौती दी। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि कोरोना न आता तब उन्हें दूसरा कार्यकाल आसानी से मिल गया होता। इस महामारी से निपटने में उनके तौर-तरीके बेहद बचकाने रहे जिसकी वजह से अमेरिका में बड़ी संख्या में मौतें हुईं और दुनिया के सबसे सम्पन्न देश में आज भी प्रतिदिन हजारों की संख्या में नए कोरोना संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं। उस लिहाज से बाईडन के समक्ष सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने वाली स्थिति रहेगी। अमेरिका में बीते चार सालों के भीतर श्वेत और अश्वेत समुदाय के बीच काफी तेजी से ध्रुवीकरण हुआ। ऐसा न होता तब शायद ट्रंप मुकाबला करने लायक भी नहीं बचते किन्तु चीन के विरुद्ध उनकी नीतियों ने वैश्विक परिदृश्य को काफी प्रभावित किया। उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग के साथ मुलाकात उनकी दुस्साहसिक कूटनीति का प्रमाण रही। हालाँकि उसका कोई विशेष परिणाम तो नहीं निकला लेकिन उसके बाद से किम जोंग का धमकी भरा अंदाज जरुर बदला। इसी के साथ ट्रंप ने साउथ चायना समुद्र में चीन के विस्तारवादी रवैये के विरुद्ध ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के साथ मिलकर जो मोर्चेबंदी की उससे दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन में बड़ा बदलाव आया। वैसे उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल के बीच संधि करवाना। पश्चिम एशिया और पाकिस्तान में आतंकवाद के विरुद्ध ट्रंप प्रशासन के रवैये ने भारत को काफी संबल दिया। संरासंघ में भी ट्रंप के रहते चीन को भारत विरोधी हर कदम में मात खानी पड़ी। उस दृष्टि से पहले बराक ओबामा के आठ और फिर ट्रंप शासन के चार साल भारत के लिए कूटनीतिक दृष्टि से बेहद अनुकूल रहे। हालाँकि व्यापार और वीजा नीतियों को लेकर उनके कड़क रवैये के कारण मतभेद भी उभरे लेकिन आपसी रिश्तों में सकारात्मकता अपेक्षाकृत ज्यादा रही। ओबामा के बाद ट्रंप के साथ भी नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत निकटता ने भारत-अमेरिकी सम्बन्धों को अनौपचारिक स्वरूप प्रदान किया। और इसी का परिणाम था कि बाइडन ने उपराष्ट्रपति प्रत्याशी के तौर पर भारतीय मूल की कमला हैरिस को चुना जिसका लाभ भी उन्हें साफ तौर पर मिलता दिखा वरना इस वर्ग का थोक के भाव ट्रंप के पक्ष में जाना तय था। मोदी-ट्रंप की निकटता के चलते ये कयास लगने लगे हैं कि बाइडन भारत के साथ अपनी खुन्नस निकालेंगे। पाकिस्तानी मूल के साथ ही मुस्लिम मतदाताओं के बड़े हिस्से ने उनको मत देकर इस आशंका को और मजबूत भी किया है परन्तु अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों का वहां की राजनीति और व्यवसाय जगत में जिस तरह से महत्व और मौजूदगी बढ़ती जा रही है उसके बाद बाईडन चाहकर भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकेंगे। वैसे भी वहां की संसद में भारतीय मूल के अनेक सदस्य चुनकर पहुंच गये हैं। हालाँकि उपराष्ट्रपति बनने जा रही कमला हैरिस ने अतीत में कुछ बयान ऐसे दिए जिन्हें भारतीय हितों के विरुद्ध कहा जा सकता है लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि बाइडन 2008 से 2016 तक बराक ओबामा के कार्यकाल में उपराष्ट्रपति रह चुके हैं और उस दौर में भारत-अमेरिका के रिश्ते मधुरता के ऊँचे पायदान तक जा पहुंचे। डेमोक्रेटिक पार्टी वैसे भी भारत के प्रति हमेशा से नरम मानी जाती रही है। ओबामा के पहले बिल क्लिंटन भी भारत के पक्ष में काफी झुके रहे। चूंकि उनको पार्टी की उम्मीदवारी दिलवाने में ओबामा की भूमिका महत्वपूर्ण रही इसलिए ये उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि जोसफ बाइडन के कार्यकाल में भारतीय हित सुरक्षित रहेंगे। इस बारे में ये भी उल्लेखनीय है कोरोना के बाद के वैश्विक शक्ति संतुलन में अमेरिका को चीन से हर मोर्चे पर कड़ी और कठिन चुनौती मिलेगी जिसका सामना करने के लिए उन्हें भारत की जरूरत पड़ेगी क्योंकि चीन के मामले में अमेरिका, पाकिस्तान पर भरोसा नहीं कर सकता। ये सब देखते हुए बाइडन के व्हाईट हाउस में रहते हुए भारत -अमेरिका सम्बन्ध भले ही और मजबूत न हो सकें लेकिन उनमें कड़वाहट आने की आशंका भी फलीभूत नहीं होगी।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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