Saturday 30 September 2023

पैगंबर के जन्मदिन पर खून खराबा करने वाले इंसानियत के दुश्मन


इस्लाम के अनुयायियों के लिए मोहम्मद पैगंबर साहब सबसे सम्मानित शख्सियत हैं जिनका जन्मदिन पूरी दुनिया में  मुसलमान बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं। खुशी के इस अवसर पर खून की होली खेलने जैसी बात शायद ही कोई सोचता होगा । लेकिन पाकिस्तान के बलूचिस्तान इलाके में मिलाद उन नबी का जुलूस निकालने एकत्र हुए लोगों के पास आत्मघाती विस्फोट में 50 से अधिक लोगों के मारे जाने और बड़ी संख्या में घायल होने की खबर है। जैसी कि आशंका है ये संख्या और बढ़ सकती है। मस्तुंग में अल फलाह रोड पर स्थित मदीना मस्जिद के पास के पास जमा हुए लोग उक्त धमाके का शिकार हुए।  उसके कुछ घंटों बाद ही हंगू शहर की मस्जिद में हुए धमाके में 5 लोगों की जान चली गई। ये वाकई शोचनीय है कि पैगंबर साहब के जन्मदिन के मौके पर मुस्लिमों के पवित्र शहर मदीना के नाम पर बनी मस्जिद इस्लाम को मानने वाले  निरपराध लोगों की मौत की गवाह बनी । पाकिस्तान के सीमांत इलाके में विस्फोट की घटनाएं पूर्व में भी घटी हैं। बलूचिस्तान में तो पाकिस्तान विरोधी भावनाएं खुलकर सामने आती रही हैं । अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता की वापसी के बाद से दोनों देशों के  बीच सीमा का विवाद भी चल रहा है । पाकिस्तान ने अमेरिकी आधिपत्य के दौर में जिन तालिबानियों को अपनी सीमा के भीतर आकर अड्डे बनाने की सुविधा दी थी वे वापस जाने का नाम नहीं ले रहे और उस जमीन को अपना बता रहे हैं। अमेरिका को अफगानिस्तान से बेदखल करने में तालिबानियों का साथ देने वाले पाकिस्तान ने जो दोगलापन दिखाया उसका दंड वह अब भुगत रहा है। एक तरफ वह तालिबानियों को हर तरह से सहायता और संरक्षण देता रहा वहीं दूसरी तरफ अमेरिकी वायुसेना के विमानों को अफगानिस्तान पर हमले हेतु अपने हवाई अड्डे इस्तेमाल करने की छूट भी उसने दी। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद पाकिस्तान की छवि काबुल और वॉशिंगटन दोनों की नजर में खराब हो गई । अमेरिका ने उसकी मदद से हाथ खींच लिए तो तालिबानी अपने अड्डे उसकी जमीन से हटाने के बजाय अपना कब्जा जताने लगे। इस सबके कारण पाकिस्तान की अंदरूनी हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही है। जिन इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को वह पालता रहा वे ही अब उसकी जान के दुश्मन बन बैठे हैं। ये भी देखने मिल रहा है कि आतंकी सरगनाओं के बीच भी गैंगवार जैसे हालात पैदा हो गए हैं। लश्कर ए तैयबा के सह संस्थापक हाफिज सईद के बेटे का पेशावर में अज्ञात लोगों द्वारा अपहरण इसका ताजा प्रमाण है । जिसके बाद  पूरे पाकिस्तान में हड़कंप है। खुफिया एजेंसी आई.एस.आई तक अपहरणकर्ताओं का पता लगाने में असमर्थ साबित हो रही है। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान उन्हीं गड्ढों में गिरने की स्थिति में आ चुका है जो उसने दूसरों के लिए  खोदे थे। हालांकि बलूचिस्तान में हुए दोनों धमाकों की जिम्मेदारी किसी संगठन ने नहीं ली किंतु इस घटना से एक बात साबित हो गई कि इस्लाम के नाम पर आतंक का झंडा थामे आतंकवादियों की इस मजहब के प्रति कोई श्रृद्धा या सहानुभूति नहीं है।  वरना वे पैगंबर के जन्मदिवस जैसे पवित्र मौके पर मुस्लिमों को मौत के घाट न उतारते। इस घटना से भारत ही नहीं दुनिया भर के मुसलमानों को ये समझ लेना चाहिए कि इस्लामिक आतंकवाद उनका भी उतना ही बड़ा दुश्मन है जितना दूसरों का। उदाहरण के लिए कश्मीर घाटी में आए दिन पाकिस्तान से आकर आतंकवादी वहां रह रहे मुस्लिमों की हत्या कर देते हैं। अरब जगत के जो इस्लामी देश मजहब के नाम पर पाकिस्तान की तरफदारी करते आए हैं उनके लिए भी ये सोचने का समय आ  गया है कि अंग्रेजों की कुटिल चालों से जन्मे इस देश की तासीर में ही खून - खराबा है। यही वजह है कि 75 साल बीत जाने के बाद भी वह  राजनीतिक तौर पर स्थिर नहीं हो सका ।  कहने को वहां लोकतंत्र है और चुनाव का नाटक भी होता है किंतु विरोधी के प्रति निर्दयता का भाव बना हुआ है। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ लंदन में निर्वासन  काट रहे हैं वहीं इमरान खान देश में रहते हुए दुर्गति का  शिकार हैं। फौज की मदद से तख्ता पलट और राजनीतिक प्रतिद्वंदी को जेल में डालने या फांसी चढ़ा देने जैसी घटनाएं इस देश के  हालात बयां करने के लिए पर्याप्त हैं। उस दृष्टि से बलूचिस्तान के मस्तुंग और हंगू  शहर में हुए विस्फोट चौंकाते नहीं हैं परंतु इनसे इस्लामिक आतकवादियों का इंसानियत विरोधी चेहरा एक बार फिर उजागर हो गया है।



-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 September 2023

एम. एस.स्वामीनाथन : जिन्होंने क्रांति शब्द को सार्थकता प्रदान की


क्रांति शब्द एक अलग तरह की अनुभूति देता है । आम तौर पर इससे हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन का एहसास होता है। लेकिन सही अर्थों में इसका अर्थ है किसी नए विचार को मूर्तरूप देना और उस दृष्टि से देश के शीर्षस्थ कृषि वैज्ञानिक डा.एम. एस. स्वामीनाथन को सही मायनों में क्रांतिकारी कहा जा सकता है , जिनके भागीरथी प्रयासों से देश खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के बाद  निर्यातक बनने की हैसियत में आ गया। उल्लेखनीय है अकाल लंबे  समय तक हमारे देश की नियति बना रहा।  गुलामी का दौर खत्म होने के बाद भी हम इससे जूझते रहे । बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन काफी कम रहने से अमेरिका , कैनेडा , ऑस्ट्रेलिया और रूस से उसका आयात करना पड़ता था जिससे  अर्थव्यवस्था के साथ ही  विदेश नीति पर भी अनुचित दबाव बना रहता था। इस स्थिति से उबारने के लिए  जिस एक व्यक्ति का नाम इतिहास में दर्ज हुआ वे डा.स्वामीनाथन 98 साल की आयु में गत दिवस चल बसे। आज की पीढ़ी के लिए वे भले ही  सामान्य ज्ञान की विषयवस्तु हों किंतु कृषि क्षेत्र के सबसे सम्मानित विश्व खाद्य पुरस्कार से अलंकृत डा.स्वामीनाथन स्वाधीन भारत की उन महान विभूतियों में से थे जिन्होंने पद , प्रतिष्ठा और पैसे की दौड़ से दूर रहकर देश को आत्मसम्मान के साथ जीने का मंत्र दिया। सत्तर के दशक में जब देश सूखे और अकाल की वजह से पूरी दुनिया से अनाज मांगने की शर्मिंदगी झेल रहा था तब पद्म विभूषण स्वामीनाथन जी  ने हरित क्रांति का बीड़ा उठाते हुए भारत की परंपरागत खेती को समय की जरूरतों के अनुसार नया रूप दिया। उस समय  कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश के सामने खाद्यान्न संकट  विचारणीय मुद्दा था। और तब उन्होंने उन्नत खेती की विधि से किसानों को परिचित कराते हुए कृषि से जुड़ी मानसिकता को नए सांचे में ढालने का दुस्साहस किया  । धीरे - धीरे पूरे देश में उनका मॉडल लागू किए जाने से खेती की दशा और दिशा दोनों में आमूल परिवर्तन हुआ  जिसका परिणाम बढ़ते खाद्यान्न उत्पादन के रूप में देखने मिला। स्वामीनाथन जी ऐसे मौन तपस्वी थे जिन्होंने कभी भी स्वयं को महिमामंडित करने की कोशिश नहीं की। शांत भाव और एकाग्र चित्त से की गई उनकी साधना का ही प्रतिफल है कि रूस - यूक्रेन युद्ध से जब दुनिया के सामने गेंहू का संकट उत्पन्न हुआ तो उस परिस्थिति में भारत अनेक देशों की जनता का  पेट भरने आगे आया। इस बारे में एक बात ध्यान रखना जरूरी है कि किसी भी देश की आर्थिक  सम्पन्नता और सामरिक शक्ति तब तक बेमानी है जब तक  वह अपनी जनता का पेट भरने के लिए अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर न बन सके। इसके अलावा यदि उसे विश्वशक्ति बनना है तब भी उसे अपनी जरूरत से अधिक अन्न उत्पादन करना आवश्यक है। प्राकृतिक आपदा के अलावा भी कोरोना जैसा अप्रत्याशित संकट आने पर खाद्यान्न की उपलब्धता उससे लड़ने का हौसला प्रदान करती है। कोरोना के कारण लॉक डाउन के दौरान जब सब कुछ बंद था तब भारत के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की केंद्र सरकार की योजना यदि कामयाब हो सकी तो उसका कारण खाद्यान्न के वे भंडार थे जो कृषि क्षेत्र में आई क्रांति के कारण भरे जा सके । आज केंद्र और राज्य सरकारें मुफ्त अनाज की योजनाओं को संचालित कर जनता से अपनी जो जय - जयकार करवाती हैं उसके सही हकदार दरअसल डा.स्वामीनाथन ही हैं जो अब स्वर्गीय हो चुके हैं ।  रूस और यूक्रेन गेंहू , मक्का और सूरज मुखी के सबसे  बड़े उत्पादक हैं किंतु आपस में युद्धरत हो जाने से उनके  उत्पाद निर्यात नहीं हो पा रहे थे जिससे अनेक विकसित देशों में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया । लेकिन भारत को उतनी परेशानी नहीं हुई क्योंकि हमारे अन्न भंडार भरे हुए थे। आज की स्थिति में देश जितना कृषि उत्पादन कर रहा है उसमें कुछ चीजों को छोड़कर बाकी जरूरत से अधिक होने से सरकारी भंडारों  में दो साल तक का अनाज है। देश के किसान और कृषि वैज्ञानिक इस उपलब्धि के लिए बधाई के पात्र हैं किंतु  इस सबके लिए किसी एक व्यक्ति को श्रेय देने की बात हो तो निःसंदेह वे  डा.स्वामीनाथन ही हो सकते हैं। भारत आज  विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर है तो उसमें उनका योगदान  स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए। एक सच्चे क्रांतिकारी और महान देशभक्त के रूप में वे सदैव याद किए जाते रहेंगे ।
विनम्र श्रद्धांजलि।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 September 2023

लालू की पार्टी में ब्राह्मण विरुद्ध ठाकुर का विवाद अच्छा संकेत नहीं


बिहार से लालू प्रसाद यादव यादव की  पार्टी राजद के राज्यसभा सदस्य मनोज झा प्रभावशाली वक्ता हैं। जेएनयू में अध्यापन कर चुके हैं। सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर उच्च सदन में उनके भाषण दमदार होते हैं जिनमें वे अपनी पार्टी की विचारधारा का प्रस्तुतीकरण आकर्षक शैली में करते हैं। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि श्री झा राज्यसभा के उन चंद सदस्यों में से हैं जो विषय का अध्ययन करने के उपरांत अपनी बात रखते हैं। उनके साथ कोई विवाद भी नहीं जुड़ा। लेकिन संसद के हाल ही में संपन्न विशेष सत्र में महिला आरक्षण संबंधी विधेयक पर बोलते हुए श्री झा ने ओबीसी के अलावा अजा - अजजा के लिए भी आरक्षण की मांग करते हुए एक कविता पढ़ी जिसमें इस बात का उल्लेख था कि ग्रामीण क्षेत्र में सभी चीजें मसलन खेत , तालाब , घर आदि ठाकुर (अर्थात जमींदार ) के आधिपत्य में है किंतु खेतों के अलावा बाकी सभी में कार्यरत श्रमिक पिछड़ी और दलित जातियों के हैं। आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग रखते हुए श्री झा ने उक्त कविता के जरिए पूरे सदन से अपील की कि अपने भीतर बैठे ठाकुर को मारें। जाहिर है उनका मंतव्य सामंतवादी सोच से बाहर निकलकर समतामूलक समाज की स्थापना का था जिसमें संसाधनों  का न्यायोचित वितरण और श्रम का सम्मान  सुनिश्चित किया जा सके। महिला आरक्षण में ओबीसी और अजा-अजजा के लिए भी कोटा की मांग राजद के साथ ही मंडलवादी अन्य दल शुरू से करते आ रहे हैं। यूपीए सरकार के समय भी इसी मुद्दे पर गतिरोध पैदा होता रहा। यद्यपि इस बार कांग्रेस ने भी इस मांग का समर्थन किया किंतु  महिला विरोधी होने के आरोप से बचने के लिए विधेयक को रोकने की हिम्मत किसी की नहीं हुई और लोकसभा के बाद राज्यसभा ने भी उस पर मोहर लगा दी जबकि सरकार के पास उच्च सदन में स्पष्ट बहुमत नहीं है। हालांकि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए 2029 तक प्रतीक्षा करनी होगी । इसीलिए सत्र के बाद विपक्ष ने केंद्र सरकार पर महिला आरक्षण के नाम पर रस्म अदायगी का आरोप लगाते हुए इसे तत्काल लागू करने का दबाव बनाया । वहीं भाजपा इस बात का श्रेय ले रही है कि जो काम विपक्ष की सरकारें दशकों तक नहीं कर सकीं वह मोदी सरकार ने आसानी से कर दिखाया। लेकिन इस विधेयक पर श्री झा द्वारा दिए भाषण में ठाकुर संबधी जिस कविता का उल्लेख किया गया उसे लेकर बिहार के क्षत्रिय नेता आक्रामक हो गए हैं। बाकी को तो छोड़ दें लेकिन श्री झा की अपनी पार्टी राजद के बाहुबली नेता आनंद मोहन और उनके विधायक बेटे के अलावा भाजपा के अनेक नेताओं ने श्री झा के विरुद्ध मोर्चा खोलते हुए उन्हें याद दिलाया कि ठाकुरों ( क्षत्रियों ) ने देश की रक्षा में अपना बलिदान दिया है। एक - दो नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि यदि श्री झा ने उनके सामने बयान दिया होता तो उनका मुंह तोड़ देते। यद्यपि श्री झा ने इन आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा किंतु इससे लालू प्रसाद यादव की पार्टी  की असलियत सामने आ गई । उसके एक ब्राह्मण नेता द्वारा राज्यसभा में सामाजिक व्यवस्था पर उच्च जातियों के वर्चस्व के बारे में जो प्रतीकात्मक कविता पढ़ी गई उस पर मंडलवादी दल के भीतर से ही ब्राह्मण विरुद्ध क्षत्रिय की आवाजें सामने आने लगीं। डा.लोहिया की वैचारिक विरासत के दावेदारों पर दायित्व था जाति तोड़ने का किंतु तमाम दिखावों के बावजूद वे उसके दायरे से बाहर नहीं निकल सके और समतामूलक समाज की बजाय जातिगत वैमनस्य के बीज बोने का अपराध कर बैठे। श्री झा ने जिस उद्देश्य से कविता सुनाई उसमें निश्चित रूप से ठाकुर से अभिप्राय किसी जाति विशेष से न होकर ग्रामीण समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व से था जिसे उन्होंने नव सामंतवादी मानसिकता से जोड़ते हुए उससे बाहर आने की बात कही। ऐसे में उनको  क्षत्रिय विरोधी बताकर मुंह तोड़ देना और और जुबान नोच लेने जैसी टिप्पणियां दर्शाती हैं कि राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग जाति रूपी दीवारें गिराने के बजाय उन्हें और ऊंचा करने पर आमादा हैं। इसीलिए अब जातियों के भीतर से उपजातियां नए दबाव समूह के तौर पर सामने आने लगी हैं और 21 वीं सदी का भारत 18 वीं सदी की सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि हर बात पर मुंह खोलने को आतुर लालू जी और उनके बड़बोले पुत्र तेजस्वी अपने कथित समतावादी दल के भीतर चल रही ब्राह्मण विरुद्ध ठाकुर लड़ाई पर मौन साधे हुए हैं। इससे लगता है कि पार्टी जानबूझकर इस विवाद को हवा देना चाहती है जिससे वह पिछड़ी जातियों को भड़का सके।इस बारे में उल्लेखनीय है कि विवाद में शामिल ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों नेता लालू जी के बेहद करीबी हैं। चिंता का विषय है कि बिहार की राजनीति जातियों के जंजाल से निकल नहीं पा रही। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जिस सामाजिक क्रांति की उम्मीद लगाई गई थी वह हवा - हवाई होकर रह गई और उसकी जगह जातिगत घृणा का नया रूप सामने आ गया। मनोज झा के भाषण पर जिस तरह की उग्र प्रतिक्रियाएं सुनने मिल रही हैं वे अच्छा संकेत नहीं है। 



- रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 27 September 2023

जनता को तो बस शीघ्र और सस्ता न्याय चाहिए



सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण संबंधी कालेजियम की सिफारिशों को स्वीकृति देने में केंद्र सरकार की तरफ से होने वाले विलंब पर चिंता जताते हुए कहा कि इस मामले में सकारात्मक आश्वासन मिलने तक सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स एसो. बेंगलुरु की याचिका पर हर 10 दिन में सुनवाई करेगा। कालेजियम की सिफारिशों को स्वीकार करने में सरकार द्वारा किया जाने वाला विलंब लंबे समय से विवाद का कारण बना हुआ है। मौजूदा सरकार ने इस व्यवस्था के विकल्प के तौर पर न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया था किंतु संसद द्वारा सर्व सम्मत फैसला लेकर पारित उक्त कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया । और उसी के बाद सरकार और न्यायपालिका के बीच कालेजियम की सिफारिशें खींचातानी का कारण बनी हुई हैं। इस मामले में एक बात विचारणीय है कि कालेजियम कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है । बावजूद इसके सर्वोच्च न्यायालय इसे जारी रखने पर अड़ा हुआ है। विशेष रूप से वर्तमान प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ तो इस बारे में सुनने तक तैयार नहीं होते। इस विषय पर होने वाली टिप्पणियों के कारण न्यायपालिका और सरकार के बीच कटुता भी बढ़ी । इसी कारण कानून मंत्री कारण रिजजु का विभाग बदला गया। सतही तौर पर तो यही लगता है कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में होने वाले विलंब के लिए सरकार जिम्मेदार है किंतु ये अर्धसत्य है। दरअसल कालेजियम व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों के विरुद्ध तो विधि क्षेत्र से ही आवाजें उठती रही हैं। जिस परिवारवाद के लिए राजनीतिक दलों की आलोचना होती है वह न्यायपालिका में भी पूरे जोर - शोर से हावी है। श्री चंद्रचूड़ की पेशेवर योग्यता और अनुभव पर किसी को संदेह नहीं है किंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके पूज्य पिता भी सर्वोच्च न्यायालय में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले प्रधान न्यायाधीश थे। विधि जगत से आने वाली जानकारी के अनुसार देश के कुछ परिवार ऐसे हैं जिनमें न्यायाधीश बनने की परंपरा सी है जो संभवतः कालेजियम व्यवस्था के कारण ही मुमकिन हो सका। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू द्वारा की गई अंकल जज वाली टिप्पणी इस बारे में खूब चर्चित हुई थी। बहरहाल , सरकार और न्यायपालिका के बीच वर्चस्व और श्रेष्ठता की जो रस्साकशी चली आ रही है उसके कारण होने वाले गतिरोध में न्यायाधीशों के पद खाली पड़े रहने से त्वरित न्याय की उम्मीदें ध्वस्त जाकर रह जाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय जब भी कड़ा रुख अख्तियार करता है तब सरकार सक्रिय होकर कुछ नियुक्तियों को हरी झंडी दिखा देती है । लेकिन उसके बाद फिर वही स्थिति जारी रहती है। इस विवाद में दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े हुए हैं। सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का सर्वाधिकार रास नहीं आ रहा वहीं न्यायपालिका में बैठे माननीय भी लेशमात्र झुकने राजी नहीं हैं। हां, एक बात जरूर उठती है कि यदि कालेजियम संविधान प्रदत्त व्यवस्था नहीं है तब उसे बदलकर यदि संसद ने एक मत से लोकसेवा आयोग की तर्ज पर न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया तब उसे संविधान विरोधी मानकर रद्द करने की क्या जरूरत थी , जबकि वह व्यवस्था अधिक पारदर्शी होती। यदि न्यायपालिका चाहती तो उसमें कुछ कोटा न्यायिक सेवा में कार्यरत अधिकारियों के लिए रखने कह सकती थी। लेकिन उस आयोग को सिरे से खारिज किए जाने से ये स्पष्ट हो गया कि वह कालेजियम के जरिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में किसी अन्य को शामिल करने के लिए किसी भी कीमत पर राजी नहीं है। चूंकि न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियां करने से हर कोई बचता है लिहाजा कालेजियम व्यवस्था के विरुद्ध भी अपेक्षित आवाजें नहीं उठतीं। यदि न्यायिक नियुक्ति आयोग अस्तित्व में आ गया होता तब आई.ए. एस और आई.पी. एस जैसे ही न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया भी निश्चित समय पर होती रहती जिससे न्यायाधीशों का अभाव न रहता। बावजूद इस सबके ये बात अच्छी नहीं है कि अदालतों में बढ़ते लंबित मामलों के बाद भी न्यायाधीशों के पद रिक्त पड़े रहें। सरकार सर्वोच्च न्यायालय में क्या उत्तर देगी ये तो वहीं जाने किंतु जनता को समय पर न्याय नहीं मिल पाने की वर्तमान स्थिति के कारण न्याय व्यवस्था में विश्वास और न्यायपालिका के प्रति सम्मान में कमी आती जा रही है । न्याय के महंगे होने का एक कारण न्यायाधीशों की कमी भी है । ये सब देखते हुए कार्यपालिका और न्यायपालिका को आपसी सामंजस्य बनाकर इस समस्या को सुलझाना होगा। रही बात अपनी श्रेष्ठता साबित करने की तो दोनों पक्षों को जनता का हित और सहूलियत देखनी चाहिए । अदालतों में बढ़ती पेशियां और न्याय प्राप्त करने में होने वाले विलंब से त्रस्त आम जनता को न कालेजियम में रुचि है और न ही न्यायिक नियुक्ति आयोग में। उसे तो बस सस्ता और शीघ्र न्याय चाहिए। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 26 September 2023

पंजाब के सिखों को खालिस्तान विरोधी आवाज उठाना चाहिए




कैनेडा से आ रही खबरें इस बात का संकेत हैं कि भारत विरोधी ताकतें एक बार फिर सिर उठाने की कोशिश कर रही हैं। वहां सक्रिय अनेक सिख संगठनों द्वारा खालिस्तान की मांग जिस तरह उछाली जा रही है वह निश्चित रूप से भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक किसी देश की अखंडता के विरुद्ध षडयंत्र हेतु अपनी धरती का उपयोग करने देना अपराध  माना जाता है। और फिर कैनेडा जी - 20 के अलावा राष्ट्रमंडल का भी सदस्य है। भारत के साथ उसके रिश्ते सामान्य से बेहतर ही रहे  हैं जिसका प्रमाण वहां बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लाखों लोगों का स्थायी रूप से बसना है। इसमें सिखों की संख्या आधी है जो कि नौकरी के अलावा कृषि , जमीन - जायजाद के कारोबार और व्यवसाय से जुड़े हैं। चूंकि वे संगठित हैं इसलिए उनकी अहमियत वोट बैंक के तौर पर बनती गई और यही खालिस्तान की मांग करने वालों के लिए सहायक बनी। यद्यपि ये स्थिति बीते अनेक दशकों से बनी हुई है किंतु हाल ही के कुछ सालों में कैनेडा के गुरुद्वारों पर खालिस्तान के बैनर , पोस्टर आदि जिस बड़ी संख्या में लगाए गए उससे ये लगता है मानो वहां रह रहे सभी सिख खालिस्तान के समर्थक हों। हालांकि जिम्मेदार सूत्रों के अनुसार जिस प्रकार नब्बे के दशक में  पंजाब में चले खालिस्तानी उग्रवाद के कारण आम सिख भय के कारण विरोध नहीं कर सके , ठीक वही हालत आज कैनेडा के सिखों की है। वे इस बात को समझते हैं कि भारत विरोधी ताकतों से नियंत्रित चंद सिख कैनेडा में बैठे - बैठे खालिस्तान बनवा लेंगे ये संभव नहीं है किंतु असुरक्षा के भय से वे शांत हैं। जो खबरें आ रही हैं उनके अनुसार प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो चुनावी लाभ के लिए खालिस्तानियों का तुष्टीकरण कर रहे हैं किंतु इसका असर ये हुआ कि वे कैनेडा में बसे गैर सिखों का समर्थन खो बैठे । इस बारे में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनाक की तारीफ करनी होगी जो भारत सरकार द्वारा सौंपी गई सिख उग्रवादियों की सूची के आधार पर कार्रवाई कर रहे हैं । जी - 20 सम्मेलन के फौरन बाद कैनेडा के प्रधानमंत्री ने जिस तरह से  भारत विरोधी रुख दिखाया वह शत्रुतापूर्ण ही कहा जांवेगा और इसीलिए भारत सरकार ने भी उसी शैली में जवाब देकर कैनेडा सरकार के साथ ही वहां कार्यरत खालिस्तानी संगठनों को भी ये संदेश दे दिया कि उनकी हरकतें बर्दाश्त नहीं की जाएंगी। कैनेडा से आने वालों के वीसा पर रोक लगाकर भारत सरकार ने जो दांव चला उसकी वजह से कैनेडा में बसे भारतीय मूल के लोगों में खालिस्तानियों के विरुद्ध गुस्सा फूटने लगा। इसके अलावा पंजाब के उन परिवारों की चिंता भी बढ़ गई जो अपने बच्चों को कैनेडा भेजने की तैयारी कर रहे थे। ये बात सर्वविदित है कि बीते कुछ सालों से भारत से हजारों लोग प्रतिवर्ष शिक्षा और रोजगार हेतु कैनेडा जाने लगे हैं और उनमें से ज्यादातर की मंशा वहीं बस जाने की रहती है। लेकिन खालिस्तानी संगठनों की हरकतों से उनकी योजना खटाई में पड़ रही है। पंजाब में हजारों परिवार ऐसे भी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति कैनेडा में कार्यरत उनके परिजन द्वारा भेजे जाने वाले डालरों पर निर्भर है। ऐसे में भारत विरोधी खालिस्तानियों के कारण इसमें बाधा आ सकती है। पंजाब में खालिस्तान का समर्थन करने वाले अब उंगलियों पर गिनने लायक रह गए हैं । भारत में रह रहे सिखों को ये बात समझ आ चुकी है कि खालिस्तान की मांग पाकिस्तान प्रवर्तित शरारत है जिसे कैनेडा के प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक  स्वार्थवश हवा दे रहे हैं । तीस साल पुरानी दर्दनाक यादें आज भी सिखों के मन में हैं जब लंबे समय तक पंजाब आग में जलता रहा। उल्लेखनीय है खालिस्तानी उग्रवाद के खात्मे के बाद पंजाब के सिख मतदाताओं ने राष्ट्रवादी मानसिकता का खुलकर प्रदर्शन किया जिससे कि  वहां शांति कायम हुई । 2 साल पहले किसान आंदोलन की आड़ में जरूर खालिस्तानी तत्व सामने आए लेकिन उसके बाद कुछ छुटपुट घटनाओं के अलावा वे पंजाब में ज्यादा कुछ न कर सके। एक - दो सिखों ने  भिंडरावाले बनने की जुर्रत की तो केंद्र सरकार ने कड़े एकदम उठाकर उनके हौसले पस्त कर दिए। ऐसे में पंजाब के सिखों को चाहिए वे खुलकर कैनेडा के खालिस्तानियों के विरुद्ध आवाज उठाते हुए कहें कि वे पूरी दुनिया में सिखों की छवि धूमिल करने का अपराध कर रहे हैं। उल्लेखनीय है सिख समुदाय कैनेडा के अलावा भी दुनिया भर में बसा हुआ है। अपनी मेहनत से उसने वहां न सिर्फ संपन्नता अपितु सम्मान भी अर्जित कर लिया। ऐसे में यदि कैनेडा में रह रहे खालिस्तानी अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो अन्य देशों में रहने वाले सिखों पर भी संदेह के बादल मंडराने लगेंगे और इसका सबसे अधिक नुकसान पंजाब को होगा। इसलिए समय की मांग है कि सिख पंथ जैसे सेवाभावी और समर्पित समुदाय को कलंकित होने से बचाने पंजाब के सिख संगठनों विशेष रूप से गुरुद्वारों से खालिस्तान विरोधी आवाज उठे जिससे कैनेडा और ब्रिटेन में सिर उठा रहे सिख उग्रवादियों का हौसला कमजोर पड़े। उनको ये एहसास करवाना जरूरी है कि जिस कथित खालिस्तान की मुहिम वे चला रहे हैं  उसकी भारत के सिखों को जरूरत नहीं है और जिस भारत की आजादी के लिए उनकी कौम ने सबसे ज्यादा बलिदान दिए , उसका एक और विभाजन वे नहीं होने देंगे क्योंकि 1947 में हुई त्रासदी की दर्दनाक यादें अभी तक पंजाब के लोगों के मन में ताजा हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

 

Monday 25 September 2023

कानून का सरल भाषा में होना न्याय व्यवस्था के हित में



ये बात किसी और ने कही होती तब शायद उस पर ध्यान न जाता किंतु सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश संजीव खन्ना का ये कहना बेहद महत्वपूर्ण है कि कानूनी पेशे में सरल भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए ताकि आम आदमी सरलता से इसे समझ सके। उन्होंने ये भी कहा कि कानून के आसान भाषा में होने से लोग भी सोच-समझकर फैसला लेंगे और किसी भी तरह के उल्लंघन से बच पाएंगे। कानून हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा होते हैं, ये हमें नियंत्रित करते हैं। इसलिए इनकी भाषा आसान होनी चाहिए जिससे वे रहस्य बनकर न रह जाएं। श्री खन्ना ने वकीलों की महंगी फीस का जिक्र भी किया । उनके अनुसार मुकदमे के बढ़ते खर्च से कई लोगों को न्याय नहीं मिलता जो इंसाफ के रास्ते में बड़ी बाधा है। इस पेशे से जुड़े लोगों को आत्मनिरीक्षण की सलाह देते हुए उन्होंने सभी के लिए न्याय की सुलभता सुनिश्चित किए जाने पर जोर दिया। न्याय प्रक्रिया में विलम्ब और अधिवक्ताओं की फीस में अप्रत्याशित वृद्धि से न्याय प्राप्त करने में आने वाली कठिनाई पर तो विभिन्न अवसरों पर चर्चा होती रहती है किंतु श्री खन्ना ने कानून के सरल भाषा में होने संबंधी जो बात कही वह वाकई गंभीर मुद्दा है। भले ही निचली अदालतों में हिन्दी अथवा स्थानीय भाषा में बहस और फैसले होने लगे हैं लेकिन उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में अब भी अंग्रेजी का दबदबा है। कुछ अधिवक्ता तो अंग्रेजी के उपयोग को प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं। सबसे बड़ी बात कानून को जिस भाषा शैली में लिपिबद्ध कर पेश किया जाता है वह हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में होने पर भी इतनी क्लिष्ट होती है कि आम आदमी तो छोड़ दें , ज्यादातर पढ़े - लिखे लोगों तक के पल्ले नहीं पड़ता। यही वजह है कि कानून की जानकारी रखने के इच्छुक व्यक्ति भी अंततः परेशान हो जाते हैं। और मुकदमा लड़ने वाले ज्यादातर पक्षकारों को यही नहीं ज्ञात होता कि उनके अधिवक्ता द्वारा अदालत के समक्ष कौन से तर्क दिए गए। इसी तरह अदालती आदेश और फैसले भी अपनी कठिन भाषा के कारण साधारण व्यक्ति की समझ से परे होते हैं। हालांकि ये भी सही है कि कानून का वर्णन आम बोलचाल की भाषा में संभव नहीं है किंतु उसे इतना कठिन भी नहीं होना चाहिए कि सिवाय वकीलों के अन्य लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाए। उस लिहाज से न्यायमूर्ति श्री खन्ना ने बहुत ही सटीक बात कही कि सरल भाषा में कानून होने से लोगों को उनकी जानकारी रहेगी जिससे वे उनके उल्लंघन से बचेंगे। न्याय शास्त्र में कहा गया है कि कानून की अज्ञानता को बहाना नहीं बनाया जा सकता। इसलिए ये और भी जरूरी है कि प्रचलित कानून के अलावा कोई नया कानून अस्तित्व में आने पर उसकी समुचित जानकारी लोगों को तभी हो सकती है जब उसका विवरण सरल भाषा में हो। इस बारे में ये कहना गलत नहीं है कि कानून का प्रारूप तैयार करने और उसकी व्याख्या करने वाले वकील और न्यायाधीश सभी आम तौर पर जिस भाषा का उपयोग करते हैं वह सहज रूप से ग्राह्य नहीं हो पाती। न्यायमूर्ति श्री खन्ना ने इसी विसंगति पर ध्यानाकर्षण किया है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित इंटरनेशनल लायर्स कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए उन्होंने जो कहा उस पर समूचे विधि समुदाय को गंभीरता के साथ विचार करते हुए ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि आम जनता और कानून के बीच जानकारी और समझ का जो अभाव कठिन भाषा की वजह से होता है , उसे दूर किया जा सके। यद्यपि हमारे देश में व्यवस्था में बदलाव के प्रति स्वभावगत उदासीनता व्याप्त है किंतु श्री खन्ना ने जिन बिंदुओं पर ध्यानाकर्षण किया वे कानून के राज की सफलता और सार्थकता के लिए नितांत आवश्यक हैं। बेहतर हो अदालतों में बैठे माननीय न्यायाधीशगण इस बारे में सक्रिय हों। वैसे भी कानून का पालन दबाव से ज्यादा संस्कार के तौर पर किया जाए तो बेहतर होता है। किसी भी देश के विकास का मापदंड केवल आर्थिक विकास नहीं वरन वहां के लोगों द्वारा कानून का पालन करने के प्रति दायित्वबोध भी होता है। हमारे देश में अशिक्षा रूपी कलंक आज भी पूरी तरह मिटा नहीं है । ऐसे में कानून की कठिन भाषा उसके प्रति उदासीनता को जन्म देती है। देखना है सर्वोच्च न्यायालय के बेहद सक्रिय प्रधान न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड़ अपने सहयोगी न्यायाधीश श्री खन्ना द्वारा उठाए मुद्दे का कितना और कैसे संज्ञान लेते हैं ?

- रवीन्द्र वाजपेयी 



Sunday 24 September 2023

पवार का अडानी प्रेम विपक्षी गठबंधन के लिए मुसीबत बना



एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने एक बार फिर राहुल गांधी को झटका दे दिया। गत दिवस ही श्री गांधी ने आरोप लगाया था कि उद्योगपति गौतम अडानी के विरुद्ध भाषण देने के कारण उनकी संसद सदस्यता खत्म की गई थी और कल ही श्री पवार ने गुजरात जाकर अडानी की एक फैक्टरी का न सिर्फ उद्घाटन किया बल्कि उनके निवास पर भी गए। उल्लेखनीय है कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने बजट सत्र में अडानी मामले में जेपीसी बनाए जाने को लेकर संसद को बाधित रखा था। लेकिन श्री पवार ने जेपीसी की मांग को निरर्थक बताते हुए उद्योगपति की शान में कसीदे पढ़कर श्री गांधी के आरोपों की हवा निकाल दी। मुंबई में अपने निवास पर अडानी के साथ हुई उनकी लंबी मुलाकात भी खासी चर्चित हुई। उसके बाद श्री पवार के भतीजे अजीत और निकट सहयोगी रहे प्रफुल्ल पटेल भाजपा के साथ जा मिले। तब ऐसा भी कहा गया था कि ये सब श्री पवार के इशारे पर किया गया और वे भी जल्द ही भाजपा के साथ गठबंधन करेंगे। उनके या उनकी बेटी सुप्रिया सुले के केंद्र में मंत्री बनने की अटकलें भी लगाई जाने लगीं। लेकिन अभी तक वैसा कुछ नहीं हुआ और वे विपक्षी गठबंधन आई. एन. डी. आई. ए के साथ बने हुए हैं। उसकी एक बैठक तो मुंबई में उनके घर पर भी हो चुकी है। यद्यपि अडानी के कारोबार पर विदेशी एजेंसी की रिपोर्ट से आया संकट तो काफी हद तक खत्म होने को है किंतु श्री गांधी को सोते - जागते वे याद आया करते हैं और उसी धुन में वे हर मौके पर उनके बारे में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखे हमले करने की कोशिश करते हैं। यद्यपि विपक्ष के अन्य दलों से इस बारे में उनको ज्यादा समर्थन नहीं मिल पाया। लेकिन श्री पवार तो खुलकर अडानी के साथ निजी रिश्ता रखते हुए श्री गांधी के हमले की हवा निकालने में जुटे हुए हैं। गत दिवस गुजरात यात्रा के दौरान उनका अडानी की फैक्टरी का उद्घाटन और फिर उनके निवास जाकर चर्चा करने के बाद राजनीतिक क्षेत्रों में ये चर्चा शुरू हो गई है कि श्री पवार एन वक्त पर कांग्रेस को वैसा ही झटका दे सकते हैं जैसा आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव के पूर्व स्व.जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़कर स्व.इंदिरा गांधी को दिया था। एक वरिष्ट पत्रकार ने हाल ही में अपने विश्लेषण में कहा भी कि श्री पवार बहुत ही अनुभवी और कुशल राजनीतिक नेता हैं जिनके संबंध विचारधारा की लक्ष्मण रेखा के पार जाकर सभी नेताओं से हैं। लेकिन उनकी विश्वसनीयता जरा भी नहीं है क्योंकि वे कब किसे धोखा दे दें ये अंदाज लगाना किसी के बस में नहीं है। विपक्षी गठबंधन में शामिल दलों के बीच लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे का मामला जिस तरह टलता और उलझता जा रहा है उसे देखते हुए उसकी एकता पर संशय पैदा होने लगा है। ममता बैनर्जी और अरविंद केजरीवाल के रवैए से तो कांग्रेस परेशान है ही लेकिन श्री पवार के रुख के बारे में कोई अंदाज वह नहीं लगा पा रही। गत दिवस गौतम अडानी की फैक्टरी के उद्घाटन के बाद उनके घर जाकर चर्चा करना गठबंधन में अपना भाव बढ़ाने का दांव है या फिर गांधी परिवार को एक बार फिर फिर बड़ा झटका देने की तैयारी, ये अंदाज लगाना कठिन है। लेकिन राहुल द्वारा अडानी का खुलकर विरोध किए जाने के बावजूद श्री पवार द्वारा लगातार उनके साथ अपनी निकटता के प्रदर्शन से कांग्रेस हतप्रभ है। और कोई होता तो अब तक श्री गांधी अडानी का दोस्त बताकर उस पर आक्रामक हो जाते लेकिन श्री पवार के विरुद्ध बोलने की हिम्मत उनमें नहीं हैं । राजनीति के जानकार खुलकर कहने लगे हैं कि एनसीपी अध्यक्ष का अडानी से मिलना - जुलना महज औपचारिकता नहीं है बल्कि किसी बड़े दांव की तैयारी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 23 September 2023

जो गलत है वो गलत है चाहे उदयनिधि हो , स्वामीप्रसाद हो या बिधूड़ी


भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा गत दिवस लोकसभा में बसपा सदस्य दानिश अली के प्रति असंसदीय भाषा का प्रयोग किए जाने पर विवाद उत्पन्न हो गया । श्री बिधूड़ी ने श्री अली के धर्म को लेकर जिन शब्दों का उपयोग किया उन्हें असंसदीय मानकर कार्यवाही से  निकाल दिया गया। लोकसभा अध्यक्ष ने श्री बिधूड़ी को कड़ी चेतावनी दी , वहीं भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा ने 15 दिन में जवाब मांगा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपनी पार्टी के सांसद के अशोभनीय बयान के लिए माफी मांगने की सौजन्यता भी दिखाई । वहीं श्री अली ने अध्यक्ष से मामले को विशेषाधिकार समिति में भेजने की अपील के साथ चेतावनी दी कि न्याय न मिलने पर वे सदस्यता छोड़ देंगे। लेकिन अब तक जो होता आया है उसके अनुसार मामला विशेषाधिकार समिति में जाएगा और श्री बिधूड़ी के माफी मांग लेने पर उसका पटाक्षेप हो जाएगा । हाल ही में कांग्रेस  नेता अधीर रंजन चौधरी द्वारा प्रधानमंत्री के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों के संदर्भ में भी यही देखने मिला। बावजूद इसके संसद या उसके बाहर  ऐसी बातें कहने का अधिकार किसी को भी नहीं है। भाजपा को चाहिए वह श्री बिधूड़ी पर कड़ी कार्रवाई करे।  लेकिन एक सांसद पर डंडा चला देने से सब कुछ ठीक हो जाएगा ये मानकर बैठ जाना निरी मूर्खता होगी। भाजपा सांसद के एक मुस्लिम सांसद के प्रति धर्मसूचक शब्द का इस्तेमाल करने से  पूरा राजनीतिक जगत हिल गया । ऐसे में तमिलनाडु सरकार के मंत्री द्वारा  भारत के 80 फीसदी लोगों के धर्म को डेंगू ,मलेरिया , कोरोना बताकर समूल नष्ट करने की बात कहने और लगातार दोहराए जाने के बाद तो पूरे देश को आंदोलित होना चाहिए था। बजाय इसके कांग्रेस अध्यक्ष के बेटे तक ने सनातन विरोधी बयान का समर्थन कर डाला। उ.प्र में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य  रामचरित मानस के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने के बावजूद पार्टी के पद पर हैं। बीते कुछ दिनों से वे हिंदू शब्द की बेहद निम्न स्तरीय व्याख्या कर रहे हैं किंतु सपा , बसपा , कांग्रेस या अन्य किसी को उसमें कोई बुराई नजर नहीं  आ रही। स्वामी प्रसाद की देखा सीखी बिहार में नीतीश सरकार के कुछ  मंत्री भी निरंतर रामचरितमानस और सनातन धर्म पर घटिया टिप्पणियां कर रहे हैं , जिनको न मुख्यमंत्री रोक रहे हैं और न ही लालू प्रसाद यादव । कांग्रेस नेता राहुल गांधी 2019 के चुनाव में चौकीदार चोर का नारा किसके लिए लगवाते थे , ये सब जानते हैं। सभी मोदी चोर हैं जैसी टिप्पणी के लिए तो वे मानहानि के दोषी तक करार दिए गए। इसके अलावा स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बारे में उनके सार्वजनिक बयान क्या एक राष्ट्रीय नेता की प्रतिष्ठा के अनुरूप थे ? लेकिन विपक्ष में केवल शिवसेना ने दिखावटी विरोध जताया , वहीं शरद पवार ने महाराष्ट्र में राजनीतिक नुकसान होने का डर दिखाकर उनको रोका । ऐसे में विचारणीय प्रश्न ये है कि क्या हमारी राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शालीनता , मर्यादा और संवेदनशीलता पूरी तरह विलुप्त हो चली है और सौजन्यता , परस्पर सम्मान तथा सहनशीलता जैसे संस्कार अपनी आवश्यकता और प्रासंगिकता को बैठे हैं ? इसका उत्तर इसलिए तलाशना जरूरी है क्योंकि राजनेता समाज के चेहरे होते हैं। जनता उनको अपना भाग्यविधाता मानती है।  जो नेता संसद अथवा विधानसभा में बैठते हैं वे महज एक व्यक्ति नहीं अपितु लाखों मतदाताओं की आकांक्षाओं के प्रतिनिधि होते हैं किंतु सांसद या विधायक न बनने वाले नेताओं को भी बेलगाम जुबान चलाने की छूट नहीं दी जा सकती। आजकल राजनीति के क्षेत्र में जो गैर जिम्मेदाराना आचरण देखने मिल रहा है , उससे निराशा होती है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के लिए बेहद आपत्तिजनक टिप्पणियां की जाने लगी हैं। ये बुराई केवल राजनीति तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है। नेता , अभिनेता और धर्माचार्य तक लगातार ऐसी  टिप्पणियां कर रहे जिनसे व्यर्थ का तनाव पैदा होता है। लेकिन ऐसा कहने से राजनेताओं के अपराध कम नहीं होते क्योंकि वे देश के सार्वजनिक जीवन में सबसे ज्यादा देखे - सुने  जाते हैं। इसलिए उन पर इस बात की जिम्मेदारी है कि वे अपनी अभिव्यक्ति का  स्तर बनाए रखें।  रमेश बिधूड़ी जैसे लोग हर दल में हैं। लेकिन अपने दामन के दाग किसी को नहीं दिखते। तिलक , तराजू और तलवार , इनको मारो जूते चार का नारा लगाने वाली बसपा ने भले ही हाथी नहीं गणेश हैं , ब्रम्हा , विष्णु ,महेश हैं जैसा दूसरा नारा भी उछाल दिया किंतु पहले वाले के लिए आज तक क्षमा नहीं मांगी। अखिलेश यादव ने पिछले चुनाव में अयोध्या की हनुमान गढ़ी से प्रचार शुरू किया था किंतु स्वामी प्रसाद मौर्य की  सनातन और रामचरितमानस विरोधी बकवास पर वे मुंह में दही जमाए बैठे हुए हैं। सनातन धर्म के बारे में द्रमुक अध्यक्ष स्टालिन के बेटे उदयनिधि द्वारा की जा रही अनर्गल टिप्पणियां यदि किसी अन्य धर्म के बारे में की गई होती तो उनका जीना दूभर हो जाता। कहने का आशय ये है कि अशालीन और अपमानजनक टिप्पणियों के विरुद्ध एक जैसी राय रखी जानी चाहिए। इसमें राजनीतिक लाभ और हानि की बजाय गुण - दोष के आधार पर फैसला किया जाना जरूरी है। जो गलत है वो गलत है , फिर चाहे उदयनिधि हों , स्वामी प्रसाद हों या फिर रमेश बिधूड़ी। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 22 September 2023

बिना आरक्षण भी तो महिलाएं एक तिहाई सांसद और विधायक बनाई जा सकती हैं


नारी शक्ति वंदन अधिनियम गत दिवस राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित हो गया। लोकसभा  एक दिन पूर्व ही इसे स्वीकृति प्रदान कर चुकी थी। इस विधेयक को भले ही सर्वसम्मति से पारित किया गया किंतु इसमें ओबीसी, अजा/अजजा महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान न होने से अनेक दलों ने विरोध जताया किंतु सत्ता पक्ष की दृढ़ता और कांग्रेस के समर्थन से उसके पारित होने में दिक्कत नहीं हुई।  श्रेय लूटने की होड़ भी जमकर मची और इतने वर्षों तक ये क्यों लटका रहा इसे लेकर आरोप - प्रत्यारोप भी देखने मिले । विभिन्न पार्टियों ने इस विधेयक को अपना मानस पुत्र बताकर उस पर दावा ठोका किंतु जिस तरह से हॉकी और फुटबॉल में गेंद को गोल तक ले जाने में अनेक खिलाड़ियों की भूमिका के बावजूद जो खिलाड़ी उसे गोल रेखा के भीतर भेजता है,  वाहवाही उसी की होती है उसी तरह इस विधेयक को पारित करवाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गोल करने वाले खिलाड़ी के तौर पर उभरे । लेकिन  इस कानून के लागू होने के लिए 2029 तक प्रतीक्षा करनी होगी और तब तक भारतीय राजनीति में न जाने कितने बदलाव हो जायेंगे। वैसे भी इस लड़ाई का असली मकसद शुरू से ही महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार से अधिक  राजनीतिक उल्लू सीधा करना रहा है। उदाहरण स्वरूप महिला आरक्षण के भीतर भी आरक्षण के प्रावधान की मांग करने वाले दल चुनाव में महिलाओं को उम्मीदवार बनाने में  फिसड्डी रहे हैं।  पिछड़ों और दलितों की राजनीति करने वाली पार्टियों और नेताओं ने अपने समुदाय के नाम पर या तो अपने परिवार जनों को आगे बढ़ाया या फिर धन्ना सेठों को । अन्य दलों ने भी महिलाओं को राजनीति में उतारने के बारे में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उनकी सामाजिक स्थिति मजबूत होती। जहां तक चुनाव की बात है तो उसमें जीतने की क्षमता आड़े आ जाती है। हालांकि पंचायती राज  में महिलाओं के लिए  आरक्षण की व्यवस्था होने से ग्रामीण और नगरीय निकायों में महिलाएं भी बड़ी संख्या में चुनकर आने लगी हैं।  लेकिन कुछ अपवाद छोड़कर अधिकांश के क्रियाकलापों को  परिवार के पुरुष या फिर पार्टी नियंत्रित करती है । ऐसे में एक तिहाई आरक्षण और उसके भीतर ओबीसी तथा अजा/अजजा को आरक्षण दिए जाने के बाद भी विभिन्न पार्टियों में जमे बैठे नेता महिलाओं को कितना महत्व देंगे ये प्रश्न महत्वपूर्ण है। और तो और जो महिलाएं राजनीति के शिखर पर जा पहुंची उन्होंने भी अपने उत्तराधिकारी के तौर पर किसी महिला को आगे बढ़ाया हो ये कम ही देखने में मिला है। सही बात ये है कि महिलाओं को सामाजिक , शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टि से स्वाबलंबी बनाए बिना उनको सांसद - विधायक बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि आज भी  समाज के बड़े वर्ग में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के प्रति हिचक है। गत दिवस राज्यसभा में राजद के मनोज कुमार झा ने अपने भाषण में , यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: ( जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहां देवताओं का वास होता है।) का उल्लेख करते हुए ठीक ही कहा कि उक्त सुभाषित हमारे संस्कारों का हिस्सा होने के बाद भी महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराध और घरेलू हिंसा के प्रकरण बढ़ते जा रहे हैं। हालांकि वे विधेयक के विरोध में बोले किंतु उनकी बात में वजन है और इसीलिए इस विधेयक को लागू करने की प्रक्रिया के समानांतर महिलाओं को उनकी न्यायोचित स्थिति प्रदान करने के लिए राजनीति से अलग हटकर बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत है क्योंकि राजनीति की अपनी संस्कृति हैं। जिसका प्रमाण ये है कि वर्तमान परिदृश्य में  वसुंधरा राजे  , मायावती , उमाश्री भारती ,ममता बैनर्जी और महबूबा मुफ्ती जैसी किसी भी नेत्री ने अपने इर्द - गिर्द किसी अन्य महिला नेत्री को नहीं पनपने दिया । सोनिया गांधी लंबे समय से कांग्रेस की सर्वोच्च नेत्री हैं लेकिन पार्टी में उनकी बेटी प्रियंका को छोड़कर अन्य प्रभावशाली महिला दिखाई नहीं देती। वामपंथी दल भी इस बारे में पीछे हैं।  ममता और मायावती तो अपनी - पार्टियों की सर्वेसर्वा मानी जाती हैं किंतु उनके बाद दूसरे क्रमांक का नेतृत्व महिलाओं के पास नहीं होना अपने आप में बहुत कुछ कह देता है। इसलिए महिलाओं को संसद और विधानमंडलों में एक तिहाई सीटें देने संबंधी विधेयक पारित होने पर महिलाओं का उत्थान होने के प्रति आश्वस्त हो जाना सपने देखने जैसा है। यदि राजनीतिक दलों में ईमानदारी है तो वे बिना आरक्षण व्यवस्था लागू हुए ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व सदन में बढ़ाने की उदारता दिखाएं । संसद में विधेयक पारित करवाने में कांग्रेस का सहयोग निश्चित तौर पर उल्लेखनीय रहा। भले ही उसने भी  मंडलवादी दलों के तुष्टीकरण के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण का झुनझुना बजाया किंतु अंततः पक्ष में मतदान भी किया। ऐसे में सदन के बाहर यदि भाजपा और कांग्रेस इस मामले में भी साथ आएं तो बाकी पार्टियां भी बाध्य होंगी। हालांकि  इसके लिए योग्यता को मापदंड रखा जाना चाहिए अन्यथा सांसद और विधायक बनकर भी महिलाएं गूंगी गुड़िया बनकर बैठी रहेंगी । और तब महिला आरक्षण मजाक का विषय बनकर रह जायेगा। स्थानीय निकायों में आजकल पार्षद पति नामक एक नया संबोधन चर्चा में रहता है। इसलिए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि सांसद और विधायक पति जैसे लोग पैदा न होने लगें।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 21 September 2023

कांग्रेस को ओबीसी से इतना ही प्रेम था तो मंडल की सिफारिशें दबाकर क्यों रखे रही


महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। 454 सदस्यों ने उसका समर्थन किया जबकि विरोध में मात्र 2 मत पड़े। दरअसल इस का विरोध करने का जोखिम उठाने कोई  तैयार नहीं था । हालांकि लगभग 90 सदस्यों का मतदान न करना भी चौंकाता है। कांग्रेस का समर्थन मिलने से विधेयक  पारित होने में  संशय तो था नहीं किंतु जिस तरह सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने  ओबीसी और अनु. जाति/जनजाति के लिए भी आरक्षण का मुद्दा उठाया वह देखकर लगा कि उनको महिलाओं की कम वोट बैंक की ज्यादा फिक्र है। अतीत में जब मंडल राजनीति के अग्रणी नेता लालू , मुलायम और शरद यादव महिला आरक्षण के साथ ही उसमें उक्त वर्गों के लिए आरक्षण की मांग पर अड़े रहकर विधेयक को पेश होने से रोकते रहे तब श्रीमती गांधी सहित वामपंथी महिला नेत्रियां ये कहती थीं कि पहले 33 फीसदी आरक्षण का विधेयक तो पारित होने दें । 2010 में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने  इस विधेयक को राज्यसभा में पारित करवाकर स्थायी समिति को भिजवा दिया । लोकसभा में वह इसलिए पेश करने से पीछे हट गई कि कहीं सरकार ही न गिर जाए। उच्च सदन में राजद और सपा ने उसका विरोध किया था जबकि नीतीश कुमार की जद (यू) समर्थन में रही। प्रश्न ये है कि अब गांधी परिवार को अचानक ओबीसी और अजा/अजजा की याद कहां से आ गई और क्यों ? राहुल तो अपने भाषण में केंद्रीय सचिवालय के 90 सचिवों में केवल तीन के ओबीसी होने का हिसाब बताने लगे। इसी के साथ ही ये दबाव भी बनाया जा रहा है कि महिला आरक्षण को  जनगणना तथा परिसीमन की प्रतीक्षा किए बिना 2024 के  लोकसभा चुनाव में ही  प्रभावशील किया जाए। जबकि सरकार का कहना है कि अगली जनगणना के बाद 2026 से लोकसभा क्षेत्रों के नए परिसीमन के उपरांत ही यह विधेयक लागू किया जावेगा । इसका अर्थ ये हुआ कि 2029 के लोकसभा चुनाव से ही महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण की व्यवस्था हो सकेगी। हालांकि उसके पूर्व होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी इसे प्रभावशील किया जा सकता है। उस दृष्टि से ये प्रश्न लाजमी है कि फिर मोदी सरकार ने इसे संसद के विशेष सत्र में ही पारित करवाने की जल्दबाजी क्यों की ? हालांकि नए संसद भवन की लोकसभा में 888 और राज्यसभा में 384 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था किए  जाने से ही ये स्पष्ट होने लगा था कि प्रधानमंत्री का इरादा महिला आरक्षण लागू करने का है। हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में यह मुद्दा जोर शोर से उठाते हुए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया गया। चूंकि कुछ राज्यों में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं और लोकसभा चुनाव की तैयारियां भी जोरों पर हैं इसलिए प्रधानमंत्री ने भी जवाबी दांव चल दिया। कांग्रेस के सामने दिक्कत ये है कि इस विधेयक का विरोध करे तो महिला विरोधी कहलाएगी और समर्थन करने पर लालू प्रसाद और अखिलेश यादव जैसे सहयोगी रूठ जायेंगे। इसीलिए उसने विधेयक  का समर्थन भी कर दिया और उसमें ओबीसी आदि के आरक्षण की मांग करते हुए मंडल समर्थक दलों को खुश करने का दांव भी चल दिया। लेकिन ऐसा करने से वह खुद भी कठघरे में आ गई। उसे इस बात का जवाब देना चाहिए कि जातिगत जनगणना का मुद्दा उसने इसके पहले कब उठाया था ? और यदि ओबीसी के प्रति उसके मन में इतना प्रेम था तो आजादी के बाद ही अन्य पिछड़ी जातियों का ध्यान क्यों नहीं आया ? जबकि समाजवादी नेता डा.राममनोहर लोहिया तो पंडित नेहरू के ज़माने से ही पिछड़ा पावें सौ में साठ का नारा लगाते रहे। 1977 में जनता पार्टी के समय बने मंडल आयोग की रिपोर्ट सरकार गिरने के कारण ठंडे बस्ते में डाल दी गई। 1980 में इंदिरा जी और उनके बाद राजीव गांधी सत्ता में आए। लेकिन मंडल की सिफारिशों के अनुसार अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए जाने का फैसला हुआ 1990 में बनी विश्वनाथ सिंह सरकार के जमाने में । और वह भी इसलिए कि उनकी गद्दी मुलायम , लालू और शरद यादव जैसे मंडलवादी नेताओं पर निर्भर थी। कांग्रेस तब उसे जातिवादी राजनीति कहकर विरोध करती रही। समय के साथ पिछड़ी जातियां भी भाजपा के साथ जाने लगीं जो कि लंबे समय तक अगड़ी जातियों की पार्टी समझी जाती रही। उ.प्र और बिहार में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई उसके बाद उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । इसीलिए उसने पहले तो श्री गांधी  को जनेऊधारी ब्राह्मण प्रचारित किया। उसी के बाद से वे और उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा मंदिरों और मठों में मत्था टेकने लगे। म.प्र में कमलनाथ खुद को भाजपा से बड़ा हिंदूवादी साबित करने हाथ पांव मार रहे हैं। पार्टी द्वारा जनाक्रोश यात्राओं का  प्रारंभ मंदिरों से किए जाने का निर्णय भी किया गया है। इसी क्रम में पार्टी का ओबीसी प्रेम जाग उठा है। इससे ये बात सामने आ रही है कि कांग्रेस वैचारिक भटकाव का शिकार होकर रह गई है। उसको ये समझ नहीं आ रहा कि वह कौन सी नीति अपनाए। उसे ये बात अच्छे से समझ लेना चाहिए कि दूसरों का मुद्दा छीनने की कोशिश में वह अपने मुद्दे खो बैठती है। राम  जन्मभूमि का ताला खोलकर उसने भाजपा के हिन्दू वोट बैंक में सेंध लगाना चाही परंतु उस फेर में मुस्लिम समुदाय भी उससे छिटक गया। आज कांग्रेस की नीतिगत दृढ़ता इतनी घट चुकी है कि वह उदयनिधि के सनातन विरोधी बयान का विरोध करना तो दूर अपने उन नेता पुत्रों तक को नहीं रोक पा रही जो उस बयान का समर्थन कर रहे हैं। महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करते हुए उसके भीतर आरक्षण का मुद्दा उठाना इसी का प्रमाण है। इन सबसे यही लगता है कि पार्टी किंकर्तव्यविमूढ़ता से उबर नहीं पा रही। यही वजह हैं कि विपक्षी गठबंधन में शामिल दल भी कांग्रेस को ज्यादा भाव नहीं दे रहे।


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 20 September 2023

ट्रूडो संभल जाएं वरना कैनेडा में बन जाएगा खालिस्तान


जी - 20 सम्मेलन की अभूतपूर्व सफलता के दौरान ही भारत और कैनेडा के बीच तल्खी बढ़ने की खबर आने लगी थी। इसका कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कैनेडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो के समक्ष खालिस्तान समर्थक गतिविधियों को  मिल रहे संरक्षण पर ऐतराज जताया जाना था। सूत्रों के मुताबिक ट्रुडो को ये बात नागवार गुजरी। वतन लौटकर उन्होंने अपनी संसद में बयान देते हुए आरोप लगा दिया कि कैनेडा में रह रहे एक खालिस्तानी नेता की हत्या में भारत सरकार का हाथ है। यहां तक तो फिर भी ठीक था किंतु उसके बाद कैनेडा सरकार ने एक भारतीय  राजनयिक को देश छोड़ने का आदेश देकर आग में घी डाल दिया । जी - 20 के फौरन बाद यह घटनाक्रम भारत के लिए चौंकाने वाला था । जवाब में भारत सरकार ने भी कड़ा रुख अपनाते हुए  कैनेडा के एक राजनयिक को देश छोड़ने का आदेश सुना दिया । उल्लेखनीय है कैनेडा वासी खालिस्तान समर्थक  हरदीप सिंह निज्जर की विगत जून माह में अज्ञात तत्वों द्वारा हत्या कर दी गई थी । कैनेडा सरकार के अनुसार उसमें भारतीय दूतावास में पदस्थ एक राजनयिक का हाथ था जो कि  गुप्तचर एजेंसी रॉ जुड़ा है। सही बात ये है कि कैनेडा शुरू से ही खालिस्तानियों की गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है।  वहां सिखों की आबादी  2 प्रतिशत  से ज्यादा है  जो व्यवसाय , कृषि , नौकरी और राजनीति जैसी  विविध भूमिकाओं में संलग्न हैं। पूरे देश में गुरुद्वारों का जाल बिछ गया है । नगर पालिकाओं से  संसद तक में सिखों की प्रभावशाली उपस्थिति देखी जा सकती  है। बड़ी संख्या में सिख परिवार ऐसे हैं जिनकी तीसरी पीढ़ी कैनेडा वासी है। यही कारण है कि पंजाब में रहने वाले सिखों के बीच कैनेडा जाकर बसने की प्रवृत्ति आम हो चली है। इसका लाभ लेते हुए खालिस्तानी संगठनों ने  भारत विरोधी मानसिकता का बीजारोपण किया। 1984 में इंदिरा गांधी के हत्या के बाद पंजाब में तो खालिस्तानी आतंक का खात्मा हो गया किंतु कैनेडा में बब्बर खालसा और ऐसे ही अनेक उग्रवादी संगठन कार्यरत रहे । भारत ने कैनेडा की सरकार को हमेशा इस बात के लिए चेताया भी किंतु अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वह  उपेक्षा करता रहा। दो साल पहले भारत में हुए किसान आंदोलन को ढाल बनाकर खालिस्तानी संगठनों ने एक बार फिर सिर उठाने का प्रयास किया। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से वे और सक्रिय हुए और हिंदू मंदिरों पर हमले जैसी घटनाएं देखने मिलीं । कैनेडा के अलावा ब्रिटेन और अमेरिका तक में किसान आंदोलन के दौरान जिस तरह से भारत विरोधी प्रदर्शन हुए वे इस बात का प्रमाण थे कि खालिस्तानी आंदोलन के कर्ताधर्ताओं को  दोबारा  पांव जमाने का अवसर मिल गया।  निज्जर नामक जिस खालिस्तानी की हत्या से मौजूदा विवाद पैदा हुआ वह भारत की मोस्ट वांटेड सूची में था। ऐसे आतंकवादी को प्रधानमंत्री ट्रूडो अपने देश का नागरिक बताकर  जिस तरह से आंसू बहा रहे हैं उससे उनकी भारत विरोधी सोच उजागर होती है। यद्यपि  कैनेडा और भारत के बीच कूटनीतिक और व्यवसायिक संबंध लंबे समय से समान्य चले आ रहे थे। खालिस्तानी संगठनों की  वहां मौजूदगी के बाद भी सरकार के अलावा नागरिकों के स्तर पर रिश्तों में करीबी बनी रही। बीते कुछ वर्षों से तो कैनेडा भारतीय युवकों के लिए शिक्षा और कामकाज के लिए बड़ा आकर्षण बन गया है। लेकिन ट्रूडो सरकार ने जिस गैर जिम्मेदाराना रवैए का परिचय दिया वह रिश्तों में खटास पैदा कर सकता है। हालांकि हड़बड़ाहट में उठाए उनके भारत विरोधी कदम का कैनेडा में ही विरोध होने लगा है। यहां तक कि वहां बसे सिखों का एक बड़ा वर्ग खालिस्तानी उग्रवादियों को नापसंद करता है जिनकी हरकतों से पूरी कौम संदेह के घेरे में आ जाती है। और फिर कैनेडा में बसे गैर सिखों के अलावा शिक्षा तथा नौकरी के सिलसिले में   गए भारतीय भी खालिस्तानी गतिविधियों से पूरी तरह अलग हैं। कैनेडा सरकार को  एक बात ध्यान रखना चाहिए कि उनके देश में बैठे खालिस्तानी हजारों मील दूर भारत में तो खालिस्तान बनाने से रहे लेकिन यदि  उनको छूट दी जाती रही तो कुछ साल बाद कैनेडा में जरूर वे अपने लिए अलग देश या विशेष क्षेत्र की मांग लेकर हिंसा पर उतारू हो जायेंगे। वैसे भी अमेरिका की तरह कैनेडा अप्रवासियों द्वारा बसाया गया देश है । बेहतर होगा वहां की सरकार इस बात को जल्द से जल्द समझ जाए वरना जिन खालिस्तानियों को वह अपना नागरिक मानकर उनकी पीठ पर हाथ रखे हुए है वे ही उसकी पीठ में खंजर से वार करने से नहीं चूकेंगे। प्रधानमंत्री ट्रुडो को ये बात जान लेनी चाहिए कि जो लोग अपने देश के वफादार नहीं , वे भला कैनेडा के शुभचिंतक कैसे हो सकते हैं ? जी - 20 के दौरान  उन्होंने ये तो देखा ही होगा कि भारत एक विश्व शक्ति बन चुका है जिसके कारण अमेरिका , फ्रांस , ब्रिटेन और जापान जैसे विकसित देश तक उसके साथ निकट संबंध बनाने आतुर हैं। ऐसे में भारत जैसी उभरती विश्व शक्ति से टकराव उन्हें भारी पड़ सकता है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 19 September 2023

विपक्षी गठबंधन में अभी से दरारें आने लगीं


आई. एन. डी.आई.ए गठबंधन के स्थायित्व पर आशंका के बादल मंडराने लगे हैं। बेंगलुरु में संपन्न कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के दौरान आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर जिस तरह का विरोध सामने आया उसके बाद शीर्ष नेतृत्व को ये कहना पड़ा कि राज्यों के नेताओं से पूछे बिना सहयोगी दलों के साथ सीटों का बंटवारा नहीं किया जावेगा । दरअसल दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस नेताओं ने आलाकमान को दो टूक बता दिया कि अरविंद केजरीवाल के साथ गलबहियां करने का अर्थ इन राज्यों में कांग्रेस को डुबोना होगा। इसी तरह म.प्र छत्तीसगढ़ और राजस्थान के कांग्रेस जन भी आम आदमी पार्टी के आक्रामक चुनाव प्रचार से बौखलाए हुए हैं। म.प्र में तो भाजपा की सरकार है किंतु शेष दो राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है जहां श्री केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान प्रदेश सरकार पर चौतरफा हमला करने से बाज  नहीं आ रहे। इसी तरह म .प्र का कांग्रेस नेतृत्व इस बात को लेकर चिंतित है कि आम पार्टी यदि अपने उम्मीदवार उतारेगी तो उससे भाजपा को लाभ मिलेगा। जहां तक बात गठबंधन की है तो कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि वह आम आदमी पार्टी के लिए कोई भी सीट छोड़ने तैयार नहीं है। गौरतलब  है श्री केजरीवाल और श्री मान लगातार म.प्र के चुनावी दौरे में भाजपा के साथ ही कांग्रेस को घेरने में भी संकोच नहीं करते।  विपक्षी एकजुटता दिखाने के लिए आई. एन. डी.आई.ए की जो संयुक्त रैली निकट भविष्य में भोपाल में होना प्रस्तावित है वह भी इसी कारण झमेले में पड़ गई है। बेंगलुरु की बैठक से एक बात साफ तौर पर निकलकर आई  वह ये है कि लोकसभा चुनाव हेतु सीटों के बंटवारे को कांग्रेस पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तक टालने के इरादे में है। इसके पीछे की सोच ये है कि यदि हिमाचल और कर्नाटक जैसी सफलता उसे इन राज्यों में हासिल हो गई तब वह लोकसभा चुनाव में छोटे दलों पर दबाव बनाने में सफल हो जावेगी। उसकी यह रणनीति बाकी दल भांप गए हैं। इसीलिए मुंबई में शरद पवार के निवास पर आयोजित बैठक में आम आदमी पार्टी के संयोजक श्री केजरीवाल सहित कुछ और दलों ने भी  कांग्रेस पर अभी से सीटों के बंटवारे का दबाव बनाया जिसे राहुल गांधी टाल गए। उधर दूसरी तरफ ममता बैनर्जी ने इकतरफा ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी कांग्रेस के लिए तो 2019 में उसके द्वारा जीती महज दो सीटें छोड़ेगी किंतु वामपथियों के लिए एक भी नहीं। यदि कांग्रेस अपनी दो सीटों में से उन्हें उपकृत करना चाहे तो उसे एतराज नहीं होगा। उसके बाद सीपीएम ने भी घोषणा कर दी कि वह प.बंगाल और केरल में अकेले लड़ेगी और किसी से सीटों का बंटवारा नहीं करेगी। उल्लेखनीय है श्री गांधी केरल की वायनाड सीट से ही सांसद हैं । ऐसे में गठबंधन के लिए ये हास्यास्पद स्थिति होगी कि प्रधानमंत्री के लिए उसके संभावित उम्मीदवार के प्रति भी उसमें मतैक्य का अभाव  है। स्मरणीय है गुजरात विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी ज्यादा कुछ तो न कर पाई लेकिन उसने कांग्रेस का कबाड़ा जरूर कर दिया जो महज 17 सीटों पर सिमटकर अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गई। कांग्रेस को यही डर म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सता रहा है। ये तो सभी जानते हैं कि आम आदमी पार्टी इन राज्यों में केवल रस्म अदायगी करेगी। ये भी संभव है कि वह कुछ सीटें जीत भी ले लेकिन उसको मिलने वाले ज्यादातर मत भाजपा विरोधी ही होंगे जिससे कांग्रेस को सीधा नुकसान होगा। कांग्रेस का  सोचना था कि आई.इन. डी.आई.ए में शामिल होने के बाद श्री केजरीवाल गठबंधन धर्म का पालन करते हुए दिल्ली और पंजाब के अलावा कांग्रेस के प्रभाव वाले बाकी राज्यों में  रोड़ा नहीं  अटकाएंगे किंतु उसका सोचना गलत निकला। कुल मिलाकर जो देखने में आ रहा है उसके मुताबिक ऊपर से तो कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दल आए दिन भाजपा को हराने का हौसला दिखा रहे हैं किंतु भीतर - भीतर वे सब एक दूसरे की टांग खींचने से  बाज नहीं आ रहे। सभी पार्टियां मिलकर कांग्रेस को 250 लोकसभा सीटें देना चाहती हैं ताकि सरकार बनने की स्थिति में उस पर शिकंजा कसा जा सके।  कांग्रेस नेतृत्व इस चाल को समझ गया है। इसीलिए लोकसभा चुनाव करीब आने पर भी सीटों को लेकर खींचतानी चलते रहने का अंदेशा पैदा हो गया है। अगर कांग्रेस पांच राज्यों के चुनाव तक सीटों के बंटवारे को टालती रही तब अविश्वास और असहयोग की खाई और चौड़ी होती जायेगी। भले ही गठबंधन को शक्ल मिल गई हो किंतु अभी भी आई. एन. डी.आई. ए में विश्वास का संकट बना हुआ है। कांग्रेस की स्थिति इसी वजह से बेहद नाजुक है क्योंकि जिन राज्यों में वह भाजपा से सीधे मुकाबले में है वहां तो छोटे दल उससे हिस्सा मांग रहे हैं लेकिन जिन राज्यों में उनका वर्चस्व हैं उनमें कांग्रेस को अवसर देने की इच्छा उनकी नहीं है। अरविंद , ममता , नीतीश, अखिलेश , स्टालिन , पवार में से कोई भी कांग्रेस को पांव फैलाने की जगह नहीं देना चाह रहा । इस प्रकार गठबंधन में एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी हुई है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Sunday 17 September 2023

नए संसद भवन की भव्यता को गरिमा प्रदान करना सांसदों का दायित्व


गणेश चतुर्थी के पावन पर्व पर नए संसद भवन के शुभारंभ से इतिहास का एक नया पृष्ठ खुल रहा है। आजादी के पूर्व से ही जिस संसद भवन का उपयोग होता आया अब वह अतीत की स्मृतियों का जीवंत स्मारक बन जाएगा।आजादी की लड़ाई से लेकर बीते 75 साल की अनगिनत घटनाओं का साक्षी रहा यह भवन बढ़ती जरूरतों के लिहाज से छोटा पड़ने लगा था।   प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने रिकॉर्ड समय के भीतर इस भवन का निर्माण करवाने के साथ ही  प्रधानमंत्री आवास , सचिवालय और राजधानी में जगह -  जगह फैले केंद्र सरकार के दफ्तरों को एक ही परिसर में लाने की समझदारी दिखाई। इस परियोजना का विरोध करने वालों ने इसकी उपयोगिता और लागत पर भी  सवाल उठाए । लेकिन श्री मोदी ने  बिना विचलित हुए कदम आगे बढ़ाए। कोरोना काल में जब सभी गतिविधियां ठप्प पड़ी थीं तब भी इसका काम चलता रहा। सेंट्रल विस्टा नामक इस प्रकल्प के पूर्ण होने से राजधानी दिल्ली में केंद्र सरकार का समूचा प्रशासनिक ढांचा एक परिसर में केंद्रित होने से सरकार और जनता दोनों को सुविधा होगी। साथ ही निजी भवनों में कार्यरत कार्यालयों को दिया जाने वाला किराया भी बचेगा। सबसे बड़ी बात सुरक्षा प्रबंधों की है। उल्लेखनीय है लुटियंस की दिल्ली कहे जाने वाले इलाके में अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए  बंगलों की जगह बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर सांसदों को फ्लैट दिए जा रहे हैं । इससे बेशकीमती जमीन तो खाली हुई ही ,  सुरक्षा और रखरखाव  पर होने वाला खर्च भी बचने लगा। हाल ही में  जिस भारत मंडपम  में जी - 20 सम्मेलन संपन्न हुआ , वह भी रिकार्ड समय में बनकर तैयार हुआ । उसकी भव्यता वास्तु कला देखकर  संपन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष तक चकित रह गए। गत दिवस ही श्री मोदी ने यशोभूमि नामक जिस एक्सपो सेंटर के एक हिस्से का लोकार्पण किया वह एशिया का सबसे विशाल कन्वेंशन एवं  एग्जीबिशन परिसर होगा जिसमें 3000 वाहनों की  भूमिगत पार्किंग रहेगी। इस प्रकार के निर्माण देश की समृद्धि के साथ  वैश्विक दृष्टिकोण का  प्रतीक होते हैं। किसी भी  देश में ओलंपिक या अन्य ऐसे ही आयोजन के लिए बनाई गई अधो संरचना भावी जरूरतों के लिहाज से उपयोगी होती है। दिल्ली में हुए एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बने स्टेडियम खेलों के आयोजन के लिए काम आते  हैं। इसी तरह विश्व कप क्रिकेट के आयोजन से देश में जगह - जगह अंतर्राष्ट्रीय मैचों का आयोजन संभव हो सका। आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित अंतर्राष्ट्रीय संगठन अपनी बैठकों और सम्मेलनों के लिए ऐसे स्थान तलाशते हैं जो सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त हों । दुबई उसका सबसे अच्छा उदाहरण  है जो  बिना तेल संपदा के भी पूरे विश्व को आकर्षित कर रहा है। यहां तक कि यूरोपीय देशों तक से लोग वहां आने लगे हैं। दुबई फेस्टिवल तो विश्व के सबसे बड़े व्यापार मेलों में गिना जाता है। उस दृष्टि से भारत काफी पीछे था। श्री मोदी ने सत्ता संभालते ही ऐसे प्रकल्पों पर ध्यान केंद्रित किया। गुजरात में  सरदार पटेल की जो मूर्ति बनाई गई वह विश्व में सबसे ऊंची है। उसके निर्माण का भी खूब मजाक बनाया गया किंतु जल्द ही वह स्थान देश का प्रमुख पर्यटन स्थल बन गया है जिससे आसपास के क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि आई। इसी तरह काशी में विश्वनाथ और उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के कायकाल्प ने  इन दोनों शहरों की आर्थिक स्थिति में अकल्पनीय सुधार किया है। सबसे बड़ा उदाहरण अयोध्या का है जहां राम मंदिर का निर्माण पूर्ण होने के पहले ही विकास की अनंत संभावनाएं उभरकर सामने आने लगी हैं। जिस नए भारत का उदय कोरोना काल के उपरांत हुआ उसमें वैश्विक स्तर पर खुद को स्थापित करने का उत्साह जागा है। चंद्रयान की सफलता और फिर सूर्य के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष यान का सफल प्रक्षेपण इसका प्रमाण हैं। जी - 20 सम्मेलन ने दुनिया की  बड़ी ताकतों को भारत के उत्थान को निकट से देखने का जो अवसर दिया उसके दूरगामी परिणाम होंगे। गत दिवस नए संसद भवन पर राष्ट्रध्वज   फहराकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनगड़ ने उसे संवैधानिक स्थिति भी प्रदान कर दी। लेकिन अब ये पक्ष और विपक्ष  के सांसदों का नैतिक दायित्व है कि वे नए  भवन की  भव्यता को अपने आचरण से गरिमा प्रदान करें। उनको ये बात समझना चाहिए कि जनमानस में लोकतंत्र और संसद के प्रति तो पूरी आस्था और सम्मान है किंतु  सदन के भीतर अशोभनीय और  गैर जिम्मेदाराना आचरण के कारण सांसदों का सम्मान निरंतर घटता जा रहा है । ऐसे में नया संसद भवन सांसदों को दायित्वबोध का एहसास करवाने में सहायक हो तभी उसकी उपयोगिता साबित हो सकेगी। आजादी के 75 वर्ष पूर्ण करने के बाद स्वनिर्मित संसद भवन से भारतीय लोकतंत्र का संचालन  आत्म निर्भरता और आत्म गौरव का संदेश वाहक बनेगा यह अपेक्षा हर देशवासी के मन में  है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 16 September 2023

गांधी परिवार के खूंटे से बंधे पत्रकारों के नाम भी तो उजागर करे विपक्ष


आई.एन .डी .आई .ए नामक गठबंधन द्वारा जिन 10 एंकरों के टीवी शो में न जाने का निर्णय किया उन पर आरोप है कि उनका झुकाव भाजपा के प्रति है। लेकिन उसे उन एंकरों की सूची भी सार्वजनिक करना चाहिए जो सुबह - शाम मोदी और भाजपा की तीखी आलोचना करते रहते हैं। ऐसे में यदि दूसरा पक्ष उनके बहिष्कार की घोषणा कर दे तब विपक्ष उसे मीडिया विरोधी कदम ठहराने से बाज नहीं आएगा। दरअसल बहिष्कार का फैसला कुंठा के सिवाय कुछ भी नहीं। सवाल ये है कि क्या कांग्रेस और शरद पवार में साहस है कि अरविंद केजरीवाल का बहिष्कार करें जिन्होंने तमाम विपक्षी नेताओं को सबसे भ्रष्ट की सूची में रखा था। इसी तरह कांग्रेस में ममता बैनर्जी का बहिष्कार करने की हिम्मत है जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए अनुपयुक्त बता चुकी हैं। ऐसे ही शिव भक्त राहुल और हनुमान भक्त अरविंद में हिम्मत है जो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के बेटे उदयनिधि द्वारा सनातन को खत्म करने वाले बयान पर द्रमुक का बहिष्कार करें। जहां तक बात भाजपा समर्थक होने की है तो देश के उपराष्ट्रपति और लोकसभाध्यक्ष भी तो भाजपा से जुड़े रहे हैं । विपक्ष उन पर भी पक्षपात का आरोप लगाता है। तो क्या वह राज्यसभा और लोकसभा की बैठकों में जाना बंद कर देगा और जिन राज्यों में भाजपा को जबरदस्त जन समर्थन है वहां की जनता से नाता तोड़ लेगा? ऐसे ही कुछ अन्य सवाल भी हैं। याद रहे लोकतंत्र विचारों के आदान - प्रदान से मजबूत होता है। अतीत में सरकारी नियंत्रण वाले दूरदर्शन और आकाशवाणी पर विपक्ष को पर्याप्त महत्व नहीं मिलता था किंतु किसी ने उनके बहिष्कार की बात नहीं की। प्रख्यात पत्रकार स्व.कुलदीप नैयर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोधी माने जाते थे । 1990 में जनता सरकार ने उनको लंदन में उच्चायुक्त बनाया। 1997 में वे राज्यसभा में नामांकित किए गए। बाद में वे भाजपा और संघ परिवार के घोर विरोधी बन गए। लेकिन किसी ने उनके बहिष्कार की बात नहीं की। इसी तरह प्रसिद्ध लेखक -पत्रकार स्व.खुशवंत सिंह भी कांग्रेस की कृपा से राज्यसभा में भेजे गए किंतु उन पर ऐसे आरोप नहीं लगे। एम.जे.अकबर जनता दल से होते हुए भाजपा में आए। अनेक अखबारों और टीवी चैनलों के मालिकों ने भी राज्यसभा की सीट हासिल की। टीवी चैनलों के एंकरों में बड़ा नाम कहे जाने वाले आशुतोष ने आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़ा और हारने के बाद दोबारा पत्रकारिता कर रहे हैं । आज के दौर में दर्जनों पत्रकार , एंकर और यू ट्यूबर हैं जो मोदी और भाजपा के विरोध के सिवाय कुछ और नहीं करते । लेकिन उनके बहिष्कार की बात किसी ने नहीं सुनी। ये सब देखते हुए विपक्ष द्वारा कुछ एंकरों के बहिष्कार का फैसला उसके अपने लिए नुकसानदेह है। पत्रकार का दायित्व है समाचारों को सही रूप में पाठकों अथवा दर्शकों तक पहुंचाए। रही बात प्रशंसा और आलोचना की तो वह समाचार से अलग स्तंभों में ही अच्छी लगती है। समाचार माध्यमों में विभिन्न लेखकों और समीक्षकों की रचनाएं प्रकाशित होती हैं जिनमें सरकार की तारीफ और आलोचना दोनों रहती हैं। विपक्ष यदि चाहे कि समाचार माध्यम उसकी हर बात को सही मानकर प्रचारित करें तो ये अपेक्षा बेमानी है। एक समय था जब पत्रकार बिरादरी में कांग्रेस , समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोगों की बहुतायत थी।अनेक नेताओं के खुद के पत्र समूह और टीवी चैनल हैं। जिनमें सत्ताधारी और विपक्षी दोनों हैं। शिवसेना का अपना मुखपत्र सामना है जिसके संपादक ही पार्टी के प्रवक्ता होते हैं। कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ल भी एक चैनल के मालिक हैं जिसका संचालन उनकी पत्नी करती हैं। सामना ने राहुल गांधी द्वारा वीर सावरकर की आलोचना का खुलकर विरोध किया था । तो क्या कांग्रेस उसका भी बहिष्कार करेगी ? संसद में कांग्रेस और उसके सहयोगी अडानी मामले में जेपीसी की मांग पर अड़े रहे लेकिन शरद पवार और ममता बैनर्जी ने उसका साथ नहीं दिया। श्री पवार ने तो अडानी से मुलाकात कर खुलेआम उसका समर्थन किया। बावजूद उसके कांग्रेस या अन्य किसी की हिम्मत नहीं हुई उनके विरुद्ध बोलने की। ये सब देखते हुए कुछ चुनिंदा एंकरों के बहिष्कार का फैसला अपरिपक्वता की निशानी है। आपातकाल लगाते समय इंदिरा जी ने भी समाचार माध्यमों पर सेंसरशिप थोप दी । उसका क्या परिणाम हुआ ये इतिहास में दर्ज है। दुर्भाग्य से आई.एन .डी .आई .ए नामक गठबंधन में शामिल दलों ने उस अनुभव को भुला दिया। वैसे भी टीवी पर नेताओं के बीच आयोजित होने वाली बहस में जनता की रुचि घटती जा रही है। सत्ता पक्ष को लगता है विपक्ष के एक से ज्यादा प्रतिनिधि होने से वह अपना पक्ष नहीं रख पाता , वहीं विपक्ष को लगता है उसकी उपेक्षा कर भाजपा को महत्व दिया जाता है। कांग्रेस के समय यही शिकायत तत्कालीन विपक्ष को रही। लेकिन बहिष्कार इस समस्या का हल नहीं है। विपक्ष द्वारा समाचार पत्रों और चैनलों पर सरकार का अंधा समर्थन करने का जो आरोप लगाया जाता है वह न पूरी तरह सही है और न ही गलत। पत्रकार बिरादरी में पेशेवर लोगों का आगमन तेजी से हुआ है किंतु अभी भी राजनीतिक प्रतिबद्धता से जुड़े लोग हैं । धीरे - धीरे पत्रकारिता पर व्यावसायिकता का रंग चढ़ गया है। जिसका कारण पत्रकारों के हाथों से निकलकर समाचार माध्यमों का पूंजीपतियों के हाथ चला जाना है । इसके लिए आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी कम उत्तरदायी नहीं है। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि विपक्ष अपने गिरेबान में भी झांके और उन एंकरों और पत्रकारों के नाम भी बताए जो कांग्रेस और विशेष रूप से गांधी परिवार के खूंटे से बंधे हुए हैं। कार्ति चिदंबरम और प्रियांक खरगे द्वारा सनातन धर्म विरोधी बयान पर उनकी खामोशी इसका प्रमाण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 15 September 2023

लोकतंत्र के मंदिरों को अपराधियों से मुक्त रखने आगे आएं राजनीतिक दल



संसद और विधानसभा भवन केवल ईंट और पत्थरों से बने ढांचे नहीं अपितु लोकतंत्र के  मंदिर हैं जिनकी पवित्रता बनाए रखना सभी का कर्तव्य है। और फिर जिन लोगों को सांसद और विधायक बनाकर जनता उनमें बिठाती है , उनकी छवि बेदाग होना और भी जरूरी है। जिस तरह मंदिर या अन्य  धर्मस्थल पर अपवित्र स्थिति में प्रवेश धर्मविरुद्ध है ठीक वैसे ही संसद और विधानसभा में  ऐसे व्यक्ति के बैठने से उसकी गरिमा नष्ट होते है जिसका दामन  दागदार हो। लंबे समय से ये मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का विषय बना हुआ है कि लोकतंत्र के मंदिरों में ऐसे जनप्रतिनिधियों का प्रवेश वर्जित हो जो अपराधी प्रवृत्ति के और सजायाफ्ता  हों। वर्तमान प्रावधान के अनुसार दो वर्ष या उससे अधिक की सजा होते ही सदस्यता समाप्त हो जाती है और सजा पूरी होने के बाद भी छह वर्ष तक चुनाव लड़ने पर रोक रहती है। ऐसे में दागी व्यक्ति जनता के समर्थन से फिर सांसद, विधायक और मंत्री बन सकता है। इस विसंगति के विरुद्ध न्यायपालिका और चुनाव आयोग के साथ ही समाज के जागरूक तबके में जनमत तैयार हो रहा है। इसी सिलसिले में गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक याचिका के सिलसिले में नियुक्त न्याय मित्र विजय हंसारिया ने अपनी रिपोर्ट सौंपकर सुझाव दिया कि सजा पूरी होने के बाद चुनाव लड़ने पर छह साल के बजाय आजीवन प्रतिबंध होना चाहिए। याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय की भी यही मांग  है। यद्यपि ये कुछ अर्थों में अव्यवहारिक भी लगती है। मसलन , कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि के आरोप में अदालत द्वारा 2 वर्ष की सजा सुनाए जाने के बाद उनकी सांसदी रद्द कर दी गई। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने  स्थगन तो दे दिया  किंतु  सजा बहाल रही और वे जेल गए तब आठ साल तक वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। और कहीं संदर्भित याचिका मंजूर हो गई तब तो आजीवन चुनाव लड़ने से वंचित हो जायेंगे। जो उनके अपराध की गंभीरता देखते हुए ज्यादा लगता है। वहीं दूसरी तरफ ये भी सही है कि हत्या , महिलाओं पर अत्याचार , भ्रष्टाचार जैसे मामलों में  सजा पूरी करने के बाद सांसद या विधायक बनकर सत्ता का हिस्सा बनने के बाद वे कानून बदलवाने का प्रयास कर सकते हैं। अनेक मामलों में ऐसा हो भी चुका है  और ऐसे निर्णयों को सर्वदलीय स्वीकृति भी प्राप्त हुई। मौजूदा सांसदों और विधायकों में औसतन 42 फीसदी पर आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं। इनमें से ज्यादातर पांच वर्ष से भी ज्यादा अवधि से अदालतों में लंबित हैं। यद्यपि जनप्रतिनिधियों पर चल रहे अपराधिक प्रकरणों हेतु विशेष न्यायालय बनाए गए हैं जिससे निराकरण जल्द हो सके किंतु अदालती व्यवस्था में व्याप्त पेचीदगियों के चलते ऐसा हो नहीं पा रहा। बहरहाल जहां तक सवाल दागी होने का है तो ये मामला वैधानिक से ज्यादा नैतिकता से जुड़ा हुआ है। भले ही आरोपी होने मात्र से किसी का अपराध साबित नहीं हो जाता और ये भी सही है कि राजनीतिक वैमनस्यता के चलते  झूठे  आरोप लगाकर छवि खराब करने का कुचक्र भी रचा जाता है । बावजूद इसके राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे चुनाव मैदान में उतारे जाने वाले व्यक्ति की अपराधिक पृष्ठभूमि की अच्छी तरह जांच कर लें। अनेक राजनेताओं के साथ बाहुबली  शब्द जुड़ा होता है जिनकी कोई विचारधारा नहीं होती। ये किसी भी दल से लड़ें इनकी जीत सुनिश्चित होती है। यहां तक कि जेल में रहते हुए भी जनता इन्हें जिता देती है। इससे भी बढ़कर बात ये है कि अपने प्रभावक्षेत्र में ये अपने समर्थक को भी सांसद - विधायक बनवाने की हैसियत रखते हैं। चूंकि राजनीतिक दलों के सामने अपना संख्याबल बढ़ाना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है इसलिए वे उम्मीदवारों  का चयन करते समय चुनाव जीतने की क्षमता पर जोर देते हैं। यदि कोई अपराधी प्रवृत्ति  या दागदार छवि का व्यक्ति निर्दलीय लड़कर सांसद और विधायक बन जाए तो निश्चित तौर पर जनता को दोष दिया जा सकता है किंतु जब राष्ट्रीय पार्टियां ही बाहुबली और अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को टिकिट देती हैं तब ज्यादा दोष उनका माना जाना चाहिए । ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा किए बिना राजनीतिक दलों को चाहिए वे दागी उम्मीदवार बनाने से परहेज करें जो पार्टी के साथ ही  लोकतांत्रिक  प्रणाली के प्रति भी जनता के मन में वितृष्णा उत्पन्न करते हैं। आगामी सप्ताह देश की नई संसद में कार्य शुरू होने जा रहा है। लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या नया भवन बनने मात्र से राजनीति में आई गंदगी दूर हो जाएगी? बेहतर हो  राजनीतिक पार्टियां सामूहिक तौर पर  अपराधी तत्वों से लोकतंत्र को मुक्त रखने का साहस दिखाएं । चुनाव सुधारों पर होने वाली अंतहीन चर्चाओं के बीच यदि दागदार चेहरों से संसद और विधानसभाओं को बचाने की ईमानदारी दिखाई जाए तो भारतीय लोकतंत्र एक नए रूप में सामने आ जाएगा और समाज का वह सुशिक्षित वर्ग भी चुनावी राजनीति में कूदने को तैयार हो जाएगा जो दागी नेताओं के कारण  दूर बना रहता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 14 September 2023

हिन्दी की सबसे ज्यादा उपेक्षा तो हिन्दी भाषी ही करते हैं


आज एक तरह से हिन्दी का सरकारी जन्मदिवस है। 1953 में 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस की घोषणा हुई। कालांतर में  सप्ताह , पखवाड़ा और मास भी मनाए जाने लगे । वैसे तो ये गौरव की बात है कि दर्जनों प्रांतीय भाषाओं के बावजूद इन आयोजनों में  हिन्दी का महिमामंडन करते हुए उसकी सहजता और सरलता की प्रशंसा के साथ ही  स्वीकार्यता का वचन लिया जाता है। इसके निमित्त प्रतियोगिताएँ , पुरस्कार  , सम्मान  , गोष्ठियां , कवि सम्मलेन, पोस्टर - बैनर , जैसे अनेक क्रियाकलाप होते हैं। काफी पहले से केंद्र  सरकार के सभी विभागों  तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी कार्यरत हैं जिनका दायित्व  हिन्दी के अधिकतम उपयोग  के लिये गैर हिन्दी भाषियों को प्रशिक्षित करना है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके प्रयासों से सरकारी प्रतिष्ठानों में हिन्दी का उपयोग काफी बढ़ा है। यद्यपि भाषावार प्रान्तों के गठन से उत्पन्न क्षेत्रीयता की भावना  हिन्दी के विरोध का कारण बनती रही है। चुनावी राजनीति ने भाषा को भी वोट बैंक का जरिया बना दिया। उदाहरण के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री डी. राजा ने तो केंद्र सरकार पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाते हुए अलग तमिल देश की धमकी तक दे डाली थी । महाराष्ट्र में भी उद्धव ठाकरे की शिवसेना और राज ठाकरे की मनसे मराठी भाषा के नाम पर लोगों को भड़काने का काम करती रही हैं।  परिणामस्वरूप अन्य राज्यों में भी  क्षेत्रीय भाषा के नाम पर  सियासती गोटियां बिठाने का प्रयास होता रहता है। हालांकि राहत की बात है कि उत्तर भारतीय राज्यों में अदालतों के अलावा राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर की  प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हिन्दी को मान्यता मिल गयी है। गत दिवस आए इस समाचार ने सभी हिन्दी प्रेमियों को आल्हादित किया कि देश के सबसे बड़े अलाहाबाद उच्च न्यायालय में हाल ही के वर्षों में 20 हजार फैसले हिन्दी में लिखे गए। ऐसी बातें आश्वस्त करती हैं  किंतु इसका विरोधाभासी दूसरा पहलू भी है। अर्थात जिस वर्ग की मातृभाषा हिन्दी है उसके एक बड़े वर्ग द्वारा उसके प्रति  उपेक्षाभाव दिखाया जाना पीड़ा पहुंचाता है। प्रारंभ में तो संपन्न वर्ग ही अंग्रेजी को सभ्यता और आधुनिकता का प्रतीक मानकर उसके मोहपाश में जकड़ा था परंतु समय बीतने के साथ मध्यम आय वर्ग में भी जिस तरह उसके प्रति अनुराग बढ़ा उससे सांस्कृतिक विकृति में भी वृद्धि  हुई। अँग्रेजी माध्यम में शिक्षा को सफलता की  गारंटी मान लेने की मानसिकता की वजह से शालेय स्तर पर पढ़ाई का स्वरूप ही पूरी तरह से  बदल गया।  गली -  गली नजर आने वाले  कान्वेंट स्कूल के बोर्ड  इसका प्रमाण हैं । यदि इनमें  अध्ययन करने वाले निम्न आय वर्ग परिवारों के बच्चे काम चलाऊ अंग्रेजी  ही सीख जाएँ तो भी ठीक है  परंतु अंग्रेजी की चकाचौंध में वे  हिन्दी में ही कमजोर हो जाते हैं। इस अधकचरेपन  के लिये  वे अभिभावक भी जिम्मेदार हैं जो अंग्रेजी की मृगमरीचिका में अपनी संतानों को उनकी  मातृभाषा से ही दूर कर बैठते हैं । यद्यपि भारत में हिन्दी को समाप्त करना असंभव  है क्योंकि वही  राष्ट्रीय स्तर की संपर्क भाषा है। इसीलिए  तमिलभाषी उत्तर  भारत में नौकरी अथवा व्यवसाय करने में लेशमात्र भी  संकोच नहीं करते। इसी तरह उप्र - बिहार के श्रमिक  बड़ी संख्या में दक्षिणी राज्यों में भी कार्यरत हैं। कोरोना काल में महानगरों से मजदूरों की  घर वापसी के समय ये बात उजागर हुई कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भी इन श्रमिकों का कोई विरोध नहीं है। ये देखते हुए हिन्दी भाषी लोगों को अपनी भाषा के प्रति उपेक्षाभाव त्यागना चाहिए । भाषा के रूप में अंग्रेजी  सीखना कतई बुरा नहीं है । लेकिन उसके जरिए आ रहे संस्कार समाज के लिए घातक हैं। विचारणीय है कि अंग्रेजी साहित्य और संस्कृति का प्रभाव आजादी के 75 वर्ष  बाद भी यथावत है। इतिहास साक्षी है कि विदेशी भाषा के आधिपत्य ने अनेक देशों की सांस्कृतिक पहिचान को नष्ट कर दिया। ये देखते हुए आज से होने वाले सरकारी और गैर सरकारी  आयोजन  प्रचार - प्रसार की दृष्टि से तो अच्छे हैं लेकिन जब तक अपनी मातृभाषा के उपयोग के लिए  हिन्दी भाषी ही आकर्षित नहीं होते तब तक सरकारी संरक्षण चाहे कितना मिल जाए परंतु वह उपेक्षित ही रहेगी। तामिलनाडु  के नेताओं का  हिन्दी विरोध तो राजनीतिक स्वार्थ पर आधारित है किंतु हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी की उपेक्षा समझ से परे है। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हेतु बनी नई शिक्षा नीति इस दिशा में अच्छा कदम है किंतु उसे ईमानदारी से अपनाना जरूरी है क्योंकि हिन्दी को सबसे ज्यादा खतरा हिन्दी भाषियों से ही है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 13 September 2023

अपने नेता पुत्रों के सनातन विरोधी बयानों पर कांग्रेस की चुप्पी सवाल खड़े कर रही


जी -20 सम्मेलन समाप्त होते ही लोगों का ध्यान एक बार फिर घरेलू मामलों पर केंद्रित होने लगा है। विशेष रूप से तमिलनाडु सरकार में मंत्री उदयनिधि द्वारा सनातन धर्म के बारे में दिए गए आपत्तिजनक बयान को लेकर देश भर में हिंदू धर्मावलंबी अक्रोशित हैं। सनातन धर्म और आध्यात्मिक क्षेत्र की अनेक हस्तियों ने उदयनिधि के कथन की कड़ी निन्दा की है। अनेक शहरों में विरोध स्वरूप जुलूस , धरना -प्रदर्शन भी देखने मिले। लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि विपक्ष से जिस तरह की प्रतिक्रिया अपेक्षित थी वह नहीं सुनाई दी। सबसे चौंकाने वाला रवैया कांग्रेस का कहा जा सकता है जो उदयनिधि के बेहद आपत्तिजनक बयान से केवल पल्ला झटककर बैठ गई जबकि उसे चाहिए था कि खुलकर सनातन धर्म की डेंगू , मलेरिया और कोरोना से तुलना करने वाले संदर्भित बयान पर उनके पिता तामिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के समक्ष अपना विरोध व्यक्त करते हुए  चेतावनी देती कि उनके बेटे का सनातन विरोधी रवैया विपक्षी एकता के लिए नुकसानदेह साबित होगा और  जनमानस  में ये बात गहराई तक बैठ जाएगी कि इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने बना है।  कांग्रेस ही नहीं बल्कि उक्त गठबंधन में शरीक अन्य दलों ने भी उदयनिधि की आलोचना में बेहद नर्म रवैया अपनाकर दिखा दिया कि वे सब द्रमुक के दबाव में हैं। शिवसेना जैसी कट्टर हिंदूवादी पार्टी के  बड़बोले नेता तक दबी जुबान ही विरोध करने का साहस जुटा सके। इससे उदयनिधि का हौसला और बढ़ा और उन्होंने बजाय खेद जताने के अपनी आपत्तिजनक बातों को ही दोहराया। सनातन के बाद वे अपने असली रंग पर आ गए और भाजपा के बारे में भी उसी तरह की टिप्पणी करने लगे। तामिलनाडु के कांग्रेस सांसद कार्ति चिदंबरम और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खरगे ने भी उदयनिधि के बयान का समर्थन किया जो  कांग्रेस के दिग्गज नेता क्रमशः पी चिदंबरम और मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे हैं । इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि कांग्रेस ने उदयनिधि के बयान से तो किनारा कर लिया किंतु पार्टी के सांसद और राज्य सरकार में मंत्री की कुर्सी पर बैठे नेता पुत्रों की सनातन विरोधी टिप्पणियों पर उसका चुप्पी साध लेना ये दर्शाता है कि इस मामले में वह दोहरा रवैया अपना रही है। अन्यथा जिस तत्परता से उसने द्रमुक नेता के बयान से दूरी बनाई वैसी ही मुस्तैदी वह कार्ति और प्रियांक के जहरीले बयान पर भी दिखाती। इंडिया गठबंधन के कुछ नेता जिनमें ममता बैनर्जी भी हैं ,ने केवल ये कहकर रस्म अदायगी की कि किसी को भी दूसरे धर्म की आलोचना नहीं करना चाहिए। इसी के साथ ये बात भी देखने मिली कि इंडिया गठबंधन में शामिल  किसी भी दल की ओर से श्री चिदम्बरम और श्री खरगे के बेटों द्वारा उदयनिधि के समर्थन में दिए बयान की आलोचना करने की हिम्मत नहीं दिखाई गई। इससे ये प्रतीत होता है कि सनातन अथवा हिन्दू धर्म के प्रति इन पार्टियों का दृष्टिकोण बेहद लापरवाही भरा है। भाजपा नेत्री नुपुर  शर्मा द्वारा इस्लाम के प्रवर्तक के बारे में की गई टिप्पणी पर इन्हीं पार्टियों ने पूरे देश में आसमान सिर पर उठा लिया था किंतु कट्टरपंथियों द्वारा नुपुर को जिस तरह की धमकियां दी गईं उनके बारे में कुछ नहीं बोला गया। भाजपा ने तो हिन्दू वादी  होने के बावजूद अपनी नेत्री को निकाल बाहर किया जिस पर पार्टी के भीतर भी असंतोष देखा गया। हालांकि उदयनिधि तो  दूसरे दल के हैं लेकिन कांग्रेस अपने नेता पुत्रों पर सनातन विरोधी बयान का समर्थन किए जाने के दंड स्वरूप कार्रवाई करती तब उसका सर्व धर्म प्रेम साबित होता । लेकिन वह शांत रही जिससे यही एहसास निकलकर सामने आया कि उदयनिधि के बयान से बचने के बाद उसके अपने नेताओं द्वारा उसी बात को सही ठहराया जाना परोक्ष तौर पर बयान का समर्थन ही है। निकट भविष्य में कुछ राज्यों के  विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। उसके कुछ महीनों बाद से लोकसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जायेगी। ऐसे में कांग्रेस के सहयोगी दल द्रमुक के नेता  द्वारा सनातन धर्म का विरोध और कांग्रेस के भीतर से उसका समर्थन हवा में उड़ाने वाली बात नहीं है। भाजपा द्वारा सोनिया गांधी और राहुल गांधी से इस विवाद पर अपना रूख स्पष्ट करने की मांग  उचित ही है क्योंकि ऐसे संवेदनशील मामले में कांग्रेस के प्रथम परिवार का मौन अनेक प्रश्नों को जन्म दे रहा है। देश का नाम इंडिया से भारत किए जाने के मुद्दे को जोर - शोर से उठाने वाली पार्टी देश की 82 फीसदी आबादी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए जाने पर यदि चुप रहे तो फिर उस पर लगने वाला तुष्टीकरण का आरोप साबित करने के लिए किसी सबूत की जरूरत ही नहीं रह जाती।


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 12 September 2023

काश , थरूर और मनमोहन सिंह जैसी समझदारी बाकी भी दिखाते


कांग्रेस सांसद शशि थरूर  अक्सर चर्चाओं में रहते हैं। लेखक होने के साथ ही वे अच्छे वक्ता भी हैं और वैश्विक दृष्टिकोण रखते हैं जिसका कारण संरासंघ में कार्य  का उनका अनुभव है। विभिन्न विषयों पर उनकी टिप्पणियां  राजनीतिक प्रतिबद्धता से अलग होने के कारण उन्हें विवादित भी बना देती हैं। कांग्रेस में  नेतृत्व परिवर्तन की मुहिम चलाने  वाले जी - 23 समूह के  सदस्य रहे श्री थरूर ने कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी लड़ा किंतु गांधी परिवार का सहयोग नहीं मिलने के कारण मल्लिकार्जुन खरगे से  बुरी तरह हार गए।  लेकिन श्री थरूर अभी भी मुखर हैं और उनके कुछ बयान पार्टी की रीति - नीति से भिन्न भी होते हैं।  विदेश नीति पर वे मोदी सरकार की जो तारीफ करते हैं उससे उनके भाजपा में जाने के कयास भी लगते हैं । हालांकि  बाकी मसलों पर वे आलोचना करने में पीछे नहीं रहते। इसका ताजा उदाहरण है , जी - 20 सम्मेलन में जारी सर्वसम्मत साझा बयान को  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की  कूटनीतिक उपलब्धि बताना।  हालांकि सम्मेलन में विपक्षी नेताओं को पर्याप्त महत्व नहीं दिए जाने की आलोचना करते हुए उन्होंने ये भी कहा कि घरेलू स्तर पर समन्वय का अभाव है। सतही तौर पर तो उनकी बात में सच्चाई है किंतु इसके लिए केवल सरकार को दोष देना एकपक्षीय होगा। मसलन  विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के सम्मान में राष्ट्रपति द्वारा प्रेषित निमंत्रण पत्र में अंग्रेजी में प्रेसीडेंट ऑफ भारत लिखे जाने पर विपक्ष ने जो बवाल मचाया वह  अनावश्यक था। ऐसे समय जब दुनिया के प्रमुख देशों के राष्ट्रप्रमुख भारत आने  शुरू हो चुके थे तब सरकार पर देश का नाम बदलने जैसा आरोप  छवि खराब करने का प्रयास ही था।  जी - 20 सम्मेलन में भी श्री मोदी के सामने रखी पट्टिका पर भारत ही लिखा गया था। इस बारे में श्री थरूर की तरह पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह भी प्रशंसा के पात्र हैं जिन्होंने सम्मेलन के पूर्व दिए साक्षात्कार में प्रधानमंत्री श्री मोदी  की इस बात के लिये प्रशंसा की कि उन्होंने रूस - यूक्रेन युद्ध में  सुलझी हुई कूटनीति का परिचय दिया। लेकिन दूसरी तरफ राहुल गांधी  जी - 20 के दौरान बेल्जियम में बैठे हुए भारतीय विदेश नीति की प्रशंसा करने के बजाय लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले का रोना रोते रहे। हालांकि अपनी प्रत्येक विदेश यात्रा में  वे इसी तरह का प्रयास करते हैं । लेकिन जब सवाल देश की प्रतिष्ठा का हो तब एकजुटता की अपेक्षा की जाती है। दुनिया भर के शीर्षस्थ राष्ट्र प्रमुख भारत में आकर उसकी प्रशंसा कर रहे हों तब विपक्ष का एक नेता देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के खतरे में होने की बात करे तो यह शर्मनाक है । ऐसे में  श्री थरूर से अपेक्षित है वे  पार्टी के भीतर इस बात को उठाएं कि विदेशी धरती पर उसके  नेता इस झूठ को फैलाने से बचें कि भारत में लोकतंत्र को नष्ट किया जा रहा है। अखिरकार श्री गांधी सहित उन जैसे अन्य नेताओं को भी समझना चाहिए कि  हाल ही में कुछ राज्यों में कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर लोकतंत्र ने ही दिलाया और उनकी सांसदी निरस्त करने के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थगन भी लोकतंत्र के रहते ही संभव हो सका। विपक्ष के कुछ अन्य नेता भी हैं जो ऊल जलूल टिप्पणियां करने से बाज नहीं आते। जी - 20 सम्मेलन के ठीक पहले भारत और इंडिया का विवाद खड़ा कर विपक्ष ने जिस असंवेदनशीलता का परिचय दिया उसके बाद सरकार से सौजन्यता की अपेक्षा अर्थहीन है। श्री थरूर और डा.मनमोहन सिंह ने  जिस तरह रचनात्मक रवैया प्रदर्शित किया वह अन्य विपक्षी नेता भी अपना लें तो घरेलू राजनीति का मिजाज भी बदल जायेगा। विपक्ष सरकार की शान में कसीदे पढ़े ये तो  अव्यवहारिक होगा लेकिन विदेशों में देश के लोकतंत्र पर सवाल खड़े करना गैर जिम्मेदाराना है। सरकार या प्रधानमंत्री की आलोचना करने का पूरा अधिकार होने के बावजूद  श्री गांधी और अन्य नेताओं को  ध्यान रखना चाहिए कि विदेश में वे भारतीय लोकतंत्र के प्रतिनिधि होते हैं।  स्व.अटल जी को जब स्व. पी.वी नरसिम्हा राव ने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की मोर्चेबंदी विफल करने के लिए जिनेवा में हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भारतीय दल का नेता बनाकर भेजा तो उस निर्णय की पूरे देश में प्रशंसा हुई। और वह भी तब जबकि अटल जी , राव साहब और उनकी सरकार के घोर आलोचक थे। आज विपक्ष का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो उस कसौटी पर खरा हो। यदि बेल्जियम में बैठकर श्री गांधी , जी - 20 के आयोजन और उसमें भारत की भूमिका की प्रशंसा करते तब श्री थरूर द्वारा घरेलू राजनीति में भी समन्वय बनाने की सरकार से अपेक्षा का औचित्य होता। बड़ी बात नहीं  विदेश नीति की तारीफ करने के लिए श्री थरूर और डा.मनमोहन सिंह भी कठघरे में खड़े किए जाने लगें।


-  रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 11 September 2023

जी - 20 के सफल आयोजन से विश्व बिरादरी में भारत की साख और धाक बढ़ी


जी - 20 सम्मेलन जिस भव्यता  के साथ  संपन्न हुआ उससे पूरी दुनिया में भारत की प्रबंधन क्षमता के साथ ही कूटनीतिक कौशल का डंका बज उठा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते एक साल में इस आयोजन  के लिए जिस तरह की तैयारी की उसका सुफल इस सम्मेलन की अभूतपूर्व सफलता के तौर पर देखने मिला। इसे अब तक का सबसे सफल जी - 20 सम्मेलन माना गया जो कि पूरी तरह से सही है। भारत की आंचलिक विविधता के साथ ही सांस्कृतिक विरासत को जिस प्रभावशाली ढंग से विदेशी मेहमानों के समक्ष पेश किया गया उससे इस सम्मेलन की खूबसूरती और बढ़ गई। राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि के समक्ष 20 राष्ट्रप्रमुखों का एक साथ श्रृद्धावनत खड़े होने का दृश्य भारतीय चिंतन के प्रति वैश्विक स्वीकृति का प्रमाण कहा जा सकता है। विकसित और विकासशील देशों के  प्रतिनिधियों के अलावा अनेक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों के जो प्रमुख इस सम्मेलन के दौरान दिल्ली में उपस्थित रहे वे सब भी बदले हुए भारत को देखकर अभिभूत हो उठे। लेकिन दिखावटी चीजों से हटकर यदि कामकाजी बातों की कल्पना करें तो यह सम्मेलन भारत के आर्थिक ,  सामरिक और कूटनीतिक हितों की दृष्टि से बेहद उपयोगी साबित हुआ। विशेष रूप से मध्य पूर्व  से होते हुए यूरोप तथा अमेरिका तक के जिस कारीडोर के प्रस्ताव को इस सम्मेलन में अंतिम रूप दिया गया वह प्रधानमंत्री  श्री मोदी की बड़ी सफलता है क्योंकि इसके कारण चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के  वन बेल्ट वन रोड नामक प्रकल्प की बची खुची हवा भी निकल गई। जिस तरह से इस परियोजना से एक के बाद एक देश हाथ खींचते जा रहे हैं उससे जिनपिंग की चमक और धमक दोनों में कमी आई है। यहां तक कि उसके पिट्ठू पाकिस्तान तक में उसका विरोध होने लगा। अनेक देशों ने वन बेल्ट वन रोड से अपने हाथ खींचकर प्राचीन सिल्क रूट को पुनर्जीवित करने की  चीन की योजना को पलीता लगा दिया है। इसके जरिए चीन अपने व्यापार को यूरोप तक फैलाने आतुर था। भारत भी इससे चिंतित था इसलिए श्री मोदी ने जी - 20 देशों के साथ इस नए कारीडोर के  प्रस्ताव को स्वीकृति दिलवाकर भारत के लिए विदेशी व्यापार की स्वर्णिम संभावनाओं को जन्म दे दिया है। चीन की जो प्रतिक्रिया इस सम्मेलन के बारे में आई है उससे इस कारीडोर की अहमियत  स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह अफ्रीका  यूनियन को जी - 20 का सदस्य बनवाने में भी प्रधानमंत्री ने उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया। इस सम्मेलन की सबसे खास बात ये रही कि भले ही रूस के राष्ट्रपति पुतिन और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग नई दिल्ली नहीं आए किंतु साझा घोषणापत्र पर जिस तरह सर्वसम्मति बनी वह भारतीय कूटनीति का ही कमाल कहा जायेगा । इसी तरह यूक्रेन के मामले में भी जिस तरह का संयमित रवैया प्रदर्शित किया गया वह  सम्मेलन में शामिल सदस्यों की परिपक्वता का प्रमाण बन गया । कुल मिलाकर यह सम्मेलन वैश्विक सामंजस्य के अतिरिक्त भारत की दृष्टि से भी बेहद कारगर रहा। सबसे बड़ी बात ये रही कि शीतयुद्ध की काली छाया से आयोजन  पूरी तरह मुक्त रहा । इसीलिए जितने भी प्रस्ताव पारित हुए या निर्णय लिए गए उन पर सकारात्मक माहौल में सार्थक चर्चा हो सकी। उस दृष्टि से ये अच्छा हुआ कि राष्ट्रपति द्वय पुतिन और जिनपिंग दोनों नई दिल्ली नहीं आए क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन के साथ  इनकी उपस्थिति में यूक्रेन और प्रस्तावित नए कारीडोर को लेकर विवाद हो सकता था जिससे सम्मेलन में गुटबाजी के अलावा माहौल खराब होता। हालांकि सम्मेलन में छोटे बड़े देशों के अनेक नेता शामिल हुए किंतु भारत केंद्र बिंदु बना रहा । प्रधानमंत्री श्री मोदी ने इस दौरान लगभग सभी नेताओं से व्यक्तिगत तौर पर बातचीत करते हुए भारत के हित में जो समझौते किए वे इस सम्मेलन की अघोषित उपलब्धि हैं। सम्मेलन में शामिल हुए राष्ट्रप्रमुखों द्वारा आयोजन की  प्रशंसा किया जाना तो स्वाभाविक है किंतु दुनिया भर के समाचार माध्यमों , कूटनीतिक विश्लेषकों और वित्तीय संस्थानों ने  सम्मेलन की सफलता के लिए जिस तरह से भारत और श्री मोदी की तारीफ की वह बेहद उत्साहवर्धक है। आयोजन के पहले राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए निमंत्रण में भारत लिखे जाने पर हुए विवाद के कारण लग रहा था कि इस दौरान कोई अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो सकती है किंतु सभी राजनीतिक दलों ने बेहद सुलझा हुआ दृष्टिकोण प्रदर्शित किया । इस आयोजन के बाद भारत का कद विश्व बिरादरी में और ऊंचा हुआ है जिसके कारण चीन और पाकिस्तान का चिंतित होना स्वाभाविक है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 September 2023

जी - 20 : वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत के बढ़ते कदम



दिल्ली में जी - 20 का सम्मेलन प्रारंभ हो गया। इसमें अमेरिका , फ्रांस , ब्रिटेन ,इटली , बांग्लादेश, जापान , दक्षिण कोरिया , ऑस्ट्रेलिया , ब्राजील ,जर्मनी , मॉरीशस , सिंगापुर , यूरोपियन यूनियन , स्पेन , चीन , अर्जेंटीना आदि के राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति या प्रधानमंत्री शिरकत कर रहे हैं। संरासंघ के बाद ये सबसे बड़ा वैश्विक संगठन है जिसमें बड़ी आर्थिक और सामरिक शक्तियों के साथ ही विकासशील देश भी शामिल हैं । भूमंडलीकरण और उदार अर्थव्यवस्था के चलन में आने के बाद से शीतयुद्ध की बजाय अब आपसी सहयोग से आर्थिक विकास की सोच ने जन्म ले लिया। यही वजह है कि अमेरिका , रूस , चीन जैसे परस्पर विरोधी मानसिकता के देश भी जी - 20 में शामिल हैं।  भारत में इस सम्मेलन की तैयारियां उसी समय से शुरू हो गईं थीं जब उसे इसकी अध्यक्षता का दायित्व प्राप्त हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी आयोजन में भव्यता के साथ उसे  प्रबंधन कौशल का उदाहरण बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। इसीलिए बीते काफी महीनों से देश के विभिन्न राज्यों में जी - 20 की तैयारियों संबंधी बैठकें आयोजित की गईं । इसका लाभ ये हुआ कि उन राज्यों में पर्यटन एवं विदेशी पूंजी निवेश की संभावनाएं उत्पन्न हुईं। श्रीनगर में जी - 20 की बैठक का आयोजन चीन और पाकिस्तान को ये संदेश देने के लिए किया गया कि जम्मू - कश्मीर , भारत का अविभाज्य अंग है और इस बारे में किसी शक की गुंजाइश न रहे। भारत का ये दांव कारगर रहा और चीन तथा पाकिस्तान  दोनों ने उस कदम का विरोध किया। दिल्ली में बने कन्वेंशन सेंटर को देखकर जी - 20 में शामिल अनेक देश ये देखकर चिंतित हो उठे कि वे इतना  शानदार और सुव्यवस्थित आयोजन शायद ही कर पाएं। बहरहाल आर्थिक , पर्यावरण , स्वास्थ्य , शिक्षा  , अंतरिक्ष , भुखमरी , आवास जैसी वैश्विक समस्याओं पर एक समन्वित दृष्टिकोण विकसित करने में जी - 20 एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकता है। हालांकि यूक्रेन संकट के कारण रूस के राष्ट्रपति पुतिन और हाल ही में जारी नक्शे में अरुणाचल को अपना हिस्सा बताए जाने पर भारत के विरोध की वजह से चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग नई दिल्ली नहीं आए किंतु बाकी महाशक्तियों का शीर्ष नेतृत्व जिस संख्या में इस सम्मेलन में  शामिल हो रहा है वह इस संगठन के महत्व के साथ वैश्विक मंचों पर भारत की बढ़ती हैसियत और अहमियत का प्रमाण है। इस सम्मेलन के जरिए  विश्व भर के नेताओं को भारत की प्रगति और क्षमता से परिचित करवाने में सफलता मिली है। यह आयोजन संरासंघ की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए समर्थन जुटाने में सहायक बनेगा। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस मुहिम से सहमति दिखाकर ये संकेत दे दिया है कि उसके समर्थक अन्य देश भी भारत के साथ खड़े होंगे। चीन के राष्ट्रपति राष्ट्रपति जिनपिंग ने दिल्ली न आकर अपना ही कूटनीतिक नुकसान किया है । जिस सम्मेलन में अमेरिका , फ्रांस , ब्रिटेन और जापान के राष्ट्रप्रमुख शामिल हों उससे दूरी बनाने का जिनपिंग का निर्णय उनके मन में आए अपराधबोध का संकेत है। बहरहाल सम्मेलन में लिए गए निर्णयों और प्रस्तावों की जानकारी तो बाद में मिलेगी किंतु इसके माध्यम से प्रधानमंत्री ने भारत की जो मार्केटिंग की है उसके सकारात्मक परिणाम आने शुरू हो गए हैं। विशेष रूप से अमेरिका के साथ विभिन्न क्षेत्रों में जिस प्रकार के समझौते , अनुबंध और सौदे हो रहे हैं उनसे काफी उम्मीदें हैं। फ्रांस, ब्रिटेन और जापान के अलावा कोरिया आदि के साथ  भारत के आर्थिक कारोबार को भी  इस सम्मेलन से  नई दिशा मिलेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि दुनिया भर के राष्ट्रप्रमुख इस सम्मेलन के दौरान भारत की आयोजन क्षमता , आर्थिक प्रगति और प्रबंधन कौशल का तो प्रत्यक्ष दर्शन करेंगे ही उसके साथ  ही देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं विविधता से भी परिचित होंगे। देश में आधारभूत ढांचे में आए सुधार के कारण विदेशी निवेश की संभावनाएं जिस तरह बढ़ी हैं उसे देखते हुए इस सम्मेलन से काफी उम्मीदें हैं। भारत की मजबूत संसदीय प्रणाली , सशक्त न्यायपालिका और विज्ञान के क्षेत्र में  विश्व स्तर की सफलताओं से इस समय पूरी दुनिया प्रभावित है। अन्यथा अमेरिका , फ्रांस ,  ब्रिटेन और जापान के राष्ट्रप्रमुख जी - 20 सम्मेलन में स्वयं नहीं आते।  पाकिस्तान के लिए भी ये सम्मेलन बेहद पीड़ादायक है। जो पश्चिमी ताकतें लंबे समय तक उसे पालती - पोसती रहीं वे अब भारत के बढ़ते आभामंडल से प्रभावित हैं। कुल मिलाकर ये सम्मेलन ऐसे समय हो रहा है जब दुनिया कोरोना महामारी से उबरकर एक नई वैश्विक व्यवस्था के सृजन में लगी हुई है। भारत इसका  नेतृत्व करने की दिशा में आगे बढ़ा है इससे हर भारतवासी को आत्मगौरव की अनुभूति हो रही है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 8 September 2023

एशिया में चीन का विकल्प बन रहा भारत : आसियान से मिला संकेत



किसी भी देश की विदेश नीति चूंकि  राष्ट्रीय हितों पर आधारित होती है , इसलिए सरकार बदलने पर भी  उसमें आधारभूत परिवर्तन नहीं होता।  मौजूदा केंद्र सरकार ने आसियान देशों के साथ जिस तरह से नजदीकी रिश्ते बनाकर उनसे राजनयिक , आर्थिक और सामरिक साझेदारी बढ़ाई उसका नजारा दो दिन पहले प्रधानमंत्री श्री मोदी की इंडोनेशिया  यात्रा के दौरान दिखाई दिया जहां वे  भारत - आसियान की बैठक में बतौर सह अध्यक्ष शामिल हुए और उसके बाद पूर्व एशिया सम्मेलन में शिरकत की। इन आयोजनों का महत्व उनमें  अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की मौजूदगी से प्रदर्शित होता है। उल्लेखनीय है आसियान संगठन का सदस्य नहीं होने के बावजूद भारत उससे जुड़ा है । चीन की विस्तारवादी नीतियों के विरोध में एक सशक्त क्षेत्रीय गठबंधन बनाने में भारत की भूमिका को आसियान देश स्वीकार कर रहे हैं । इसीलिए ऐसे समय जब भारत में जी - 20 देशों के सम्मेलन की तैयारियां अंतिम चरण में थीं , श्री मोदी कुछ घंटों के लिए जकार्ता गए । चूंकि चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग इस जी - 20 सम्मेलन में नहीं आ रहे इसलिए भारत के प्रधानमंत्री की आसियान सम्मेलन में उपस्थिति ने बड़ा कूटनीतिक संदेश दे दिया है । जो जानकारियां उपलब्ध हैं  उनके मुताबिक चीन अपने दक्षिणी समुद्र में  बेजा कब्जा बढ़ाने के साथ ही छोटे - छोटे देशों  को पिछलग्गू बनाकर उनका शोषण करना चाहता है । लेकिन आसियान में शामिल देशों ने चीन की चाल में आने से मना कर दिया । भारत ने इस अवसर का  लाभ उठाते हुए उनके सिर पर हाथ रखते हुए चीन के दबाव के सामने न झुकने का हौसला दिया। कोरोना के बाद बदली वैश्विक परिस्थितियों में चीन के प्रति दुनिया भर में अविश्वास का भाव बढ़ने से बड़ी संख्या में बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कारोबार और निवेश वहां से समेट रही हैं। चूंकि दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में श्रमिक सस्ते हैं इसलिए आसियान और भारत पर उनकी नजर है। दूसरी बात ये है कि चीन से होने वाले आयात में कमी करने के साथ भारतीय उत्पादों के निर्यात में वृद्धि के लिए आसियान देश काफी उपयुक्त हैं जिनसे भारत का द्विपक्षीय व्यापार तेजी से बढ़ता जा रहा है । इसीलिए श्री मोदी , जी -20 की व्यस्तता के बावजूद जकार्ता गए और भारत - आसियान सम्मेलन के अलावा पूर्व एशिया सम्मेलन में  प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करवाई।  कुछ घंटों की जकार्ता यात्रा में उन्होंने चीन विरोधी दक्षिण एशियाई देशों को भारत के समर्थन और सहारे का भरोसा तो दिलाया ही लेकिन इसी के साथ  जी - 20  सम्मेलन में शामिल हो रहे राष्ट्राध्यक्षों को ये संदेश भी दे दिया कि भारत एक क्षेत्रीय महाशक्ति के तौर पर उभर रहा है। ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अभी तक वैश्विक मंचों पर एशिया के सिरमौर के तौर पर चीन को ही मान्यता मिली हुई थी। अमेरिका जैसी महाशक्ति तक उसके आभामंडल से प्रभावित हो गई। लेकिन बीते कुछ सालों में विशेष रूप से कोरोना के बाद से उक्त अवधारणा बदलने लगी । चीन के दक्षिणी समद्री क्षेत्र में उसकी विस्तारवादी नीतियों के विरुद्ध बने क्वाड नामक संगठन में अमेरिका , आस्ट्रेलिया और जापान के साथ भारत को शामिल किया जाना चीन को ये संकेत था कि दुनिया अब भारत को उसके विकल्प के तौर पर देखने लगी है। आसियान और पूर्व एशिया सम्मेलन में प्रधानमंत्री श्री मोदी के जाने से उक्त संदेश और मुखर हुआ है। दिल्ली में जी - 20 सम्मेलन में अमेरिका , फ्रांस और ब्रिटेन जैसी बड़ी शक्तियों की उपस्थिति से  भारत का कूटनीतिक महत्व बढ़ा है। भारत - आसियान बैठक और पूर्व एशिया सम्मेलन के तत्काल बाद जी - 20 का आयोजन विश्व स्तर पर दक्षिण एशिया की बढ़ती अहमियत और जरूरत का भी प्रमाण है। और इन सभी आयोजनों में भारत और श्री मोदी की सक्रिय भूमिका से विदेश नीति के  साथ ही आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर भी हमारा महत्व और प्रभुत्व बढ़ा है। इस बारे में ये बात विचारयोग्य है कि महाशक्ति बनने के लिए क्षेत्रीय शक्ति बनना आवश्यक होता है। उस दृष्टि से आसियान  देशों के बीच भारत की बड़े भाई वाली भूमिका ने वैश्विक स्तर हमारी साख और धाक दोनों में वृद्धि की है। रूसी राष्ट्रपति पुतिन तो यूक्रेन के साथ चल रहे युद्ध के कारण जी - 20 सम्मेलन में नहीं आ रहे लेकिन चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग का नहीं आना निश्चित रूप से ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि भारत द्वारा इस आयोजन की शानदार मेजबानी से बीजिंग के पेट में मरोड़ शुरू हो गया है। यद्यपि इसके पहले भी भारत अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजक बन चुका है लेकिन जिस भव्यता और आत्मविश्वास के साथ जी - 20 का सम्मेलन हो रहा है उसके कारण भारत की क्षमता और कूटनीतिक दक्षता नए कलेवर में उभरकर सामने आ रही है। चंद्रयान की  ऐतिहासिक सफलता और फिर सूर्य के अध्ययन हेतु अपने अंतरिक्ष यान के सफल प्रक्षेपण के तत्काल बाद जी - 20 का आयोजन हमारे बढ़ते कद का  प्रभाव है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने भारतीय विदेश नीति को उसके सर्वोच्च स्तर तक पहुंचा दिया है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 6 September 2023

जब भारत मां को इंडिया मम्मी नहीं कहा जाता तब भारत को इंडिया क्यों ?



जी - 20 देशों के सम्मेलन के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा दिए गए निमंत्रण पत्र में प्रेसिडेंट आफ भारत लिखे जाने पर वे विपक्षी दल आग बबूला  हैं जिन्होंने हाल ही में  भाजपा विरोधी एक गठबंधन बनाया है जिसका अंग्रेजी नाम संक्षिप्त में इंडिया  है। उनके अनुसार सरकार चूंकि इस नाम से डर गई है लिहाजा संविधान में प्रयुक्त देश के अंग्रेजी नाम इंडिया की जगह उक्त  निमंत्रण पत्र में भारत शब्द का इस्तेमाल किया गया जबकि अभी तक अंग्रेजी के किसी भी सरकारी दस्तावेज में इंडिया ही लिखा जाता रहा।  ये प्रचार भी शुरू कर दिया गया कि 18 सितंबर से प्रारंभ होने जा रहे संसद के विशेष सत्र में संविधान के प्रारंभ में  देश का नाम इंडिया जो कि भारत है ,को बदल दिया जाएगा। और  ये तिथि इसलिए चुनी गई क्योंकि संविधान सभा में भी इसी तारीख को इंडिया और भारत नाम रखे जाने पर बहस हुई थी।  दरअसल  विशेष सत्र की घोषणा ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। स्वाभाविक तौर पर ये जानने की उत्सुकता हुई कि उसके पीछे का उद्देश्य क्या है ? उम्मीद है जी - 20 समाप्त होने के बाद सरकार इस बारे में स्थिति स्पष्ट करेगी। विपक्ष इसलिए भी परेशान क्योंकि लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले  विशेष सत्र बुलाने के पीछे प्रधानमंत्री का चुनावी पैंतरा हो  सकता है। बहरहाल जहां तक बात इंडिया की जगह भारत शब्द का उपयोग करने की है तो इसे लेकर बवाल मचाने वालों की बुद्धि पर तरस आता है। ऐसा जाहिर किया जा रहा है मानो संविधान से इंडिया हटा दिया गया तो जो भारत बचेगा वह भाजपा या नरेंद्र मोदी के नाम लिख जायेगा। इंडिया शब्द की उत्पत्ति कब , कहां और कैसे हुई इसका भी इतिहास खंगाला जा रहा है। लेकिन संविधान सभा में जिन लोगों ने भारत के साथ इंडिया नाम रखे जाने का विरोध किया था उनमें स्व.हरि विष्णु कामथ और स्व.सेठ गोविंद दास जैसे लोग थे जिनकी प्रतिभा और देशभक्ति पर शंका नहीं की जा सकती। बहस और विवाद तो हिन्दू शब्द पर भी होते हैं। जिसके बारे में दावा है विदेशी चूंकि स को ह उच्चारित करते थे इसलिए सिंधु नदी के इस पार वाले क्षेत्र को हिंदुस्तान नाम दे दिया। कुछ लोग वेदों में हिमालय से समुद्र के बीच के क्षेत्र को भारत कहे जाने वाले श्लोक को बतौर प्रमाण पेश करते हैं। जैन दर्शन के साथ ही दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर देश का नाम भारत रखे जाने की बात भी उठ रही है। और भी अनेक संदर्भ सामने लाए जा रहे हैं। इन सबको विमर्श में शामिल किए जाने में कुछ भी बुराई नहीं है क्योंकि नई पीढ़ी इसके माध्यम से बहुत सारी वे बातें जान सकेगी जिनसे अन्यथा वह अनजान रहती। वैसे , जो लोग राष्ट्रपति द्वारा अंग्रेजी में छपे निमंत्रण पर प्रेसिडेंट ऑफ भारत लिखने पर छाती पीट रहे हैं उसकी असली वजह रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत द्वारा दो - तीन दिन पहले इंडिया की जगह भारत शब्द का इस्तेमाल किए जाने की अपील थी। संघ के घोषित उद्देश्यों में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना भी है। ये महज संयोग है या सुनियोजित , ये कहना तो कठिन है लेकिन भारत शब्द के उपयोग पर आसमान सिर पर उठा लेने का औचित्य समझ से परे है। यदि मान लें कि मोदी सरकार संविधान में इंडिया हटाकर केवल भारत रखने की सोच रही है तो इसमें बुराई क्या है? सही बात तो ये है  कि संविधान में  भारत के साथ इंडिया नाम रखा जाना किसी भी दृष्टि से उचित अथवा आवश्यक नहीं था।  आजादी के आंदोलन में भी हिंदुस्तान और भारत जैसे शब्द ही उपयोग होते  थे। ऐसे में संविधान में इंडिया को भारत पर प्रमुखता देना अंग्रजों को खुश करने के लिए किया गया लगता है। रही बात संविधान में  बदलाव की तो उसमें न जाने कितने संशोधन किए जा चुके हैं । यहां तक कि उसकी प्रस्तावना में भी  आपातकाल लगाए जाने के बाद 1976 में  धर्म निरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। सवाल उठता है कि पंडित नेहरू जैसे धर्म निरपेक्षता के पैरोकार ने उस समय उसकी जरूरत नहीं समझी जबकि देश को आजादी सांप्रदायिक हिंसा के बीच प्राप्त हुई थी । और भी सवाल हैं जिन पर आजादी के 75 वर्षों बाद भी चर्चा नहीं हुई तो इतिहास के अनेक अध्याय बिना खुले ही रह जायेंगे। जिन लोगों को इंडिया की जगह भारत के उपयोग पर ऐतराज हो रहा है उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह हिंदुस्तान नाम को विदेशियों द्वारा दिए जाने से किनारे कर दिया गया उसी तरह इंडिया से भी मुक्ति पा लेनी चाहिए। ध्यान रहे जिस प्रकार राष्ट्रगान में लिखे भारत भाग्य विधाता का अनुवाद नहीं किया जा सकता , वैसे ही  देश का नाम केवल भारत होना चाहिए। और बिना संशोधन किए भी   इंडिया की जगह भारत का प्रयोग किया जावे तो इसमें बुरा क्या होगा ?  15 अगस्त पर लाल किले से पंडित नेहरू द्वारा जय भारत की जगह जय हिंद का नारा लगवाया गया जिसे बतौर परंपरा हर प्रधानमंत्री निभाता आया है।  ऐसे में यदि राष्ट्रपति ने इंडिया की जगह भारत का उपयोग किया तो उसे सहज भाव से लेना चाहिए  । हमारे देश में हर जगह भारत मां की जय के नारे ही सुनाई देते हैं इंडिया मम्मी कोई नहीं बोलता।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 5 September 2023

सनातन विरोधी बयान पर चुप्पी हिंदू विरोधी मानसिकता का प्रमाण


अपने आपको हिन्दू  साबित करने के लिए यज्ञोपवीत धारण करने का दावा ,  गोत्र का प्रचार   , पारंपरिक वेश में मंदिर जाकर पूजन  , मठों के दर्शन और मानसरोवर जाकर खुद को शिव भक्त होने प्रमाणपत्र  देने वाले नेता सनातन धर्म को नष्ट करने जैसे बयान पर अब तक मुंह में दही जमाए बैठे हैं। जो नेता हिंदुत्व पर भाजपा के एकाधिकार को चुनौती देते हुए खुद को सबसे बड़ा हिंदू साबित करने में आगे - आगे नजर आते हैं उनके मुंह से भी एक शब्द नहीं निकल रहा। जब देश की 82 फीसदी आबादी हिन्दू  है तब वह हिन्दू राष्ट्र नहीं तो और क्या है , जैसी बात कहने वाले नेता जी भी मौन हैं। यही कारण है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का बेटा उदयनिधि ताल ठोककर कह रहा है कि वह सनातन धर्म को नष्ट करने के अपने बयान पर कायम है और किसी भी कानूनी प्रकरण का सामना करने तैयार है।  उस बयान से राजनीतिक नुकसान की आशंका देख कांग्रेस  ने बिना देर लगाए उससे दूरी बना ली। हालांकि , हिंदुत्व की तरफ झुकने का संकेत दे रही पार्टी से अपेक्षा थी कि वह बयान देने वाले के पिता स्टालिन को चेतावनी देती कि  इसका प्रभाव इंडिया नामक गठबंधन की एकता पर पड़ेगा। लेकिन पहले पार्टी के वरिष्ट नेता पी.चिदंबरम  के सांसद पुत्र कार्ति और फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक ने  सनातन धर्म को नष्ट करने वाले बयान का पुरजोर समर्थन कर डाला। ऐसे में जब छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और  म.प्र में  कमलनाथ जैसे उसके नेता खुद को  राम और हनुमान भक्त साबित करने में जुटे हुए हैं तब पार्टी के अध्यक्ष सहित एक अन्य बड़े नेता के बेटे का सनातन धर्म विरोधी बयान के पक्ष में कूदना कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।  राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा बीते कुछ सालों से हिंदू मंदिरों में  पूजा - अनुष्ठान करते रहे हैं। ऐसे में इंडिया नामक गठबंधन के एक प्रमुख घटक  के सबसे बड़े नेता और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री  के पुत्र द्वारा सनातन विरोधी बयान पर उनकी सरकार में भागीदार  कांग्रेस का मौन , बयान का समर्थन ही माना जाएगा। जहां तक बात उदयनिधि की है तो उनका ऐसा बयान देना चौंकाता नहीं है क्योंकि इनकी पार्टी द्रमुक और करुणानिधि खानदान हिन्दू विरोधी रहा है । उल्लेखनीय है  2014 के लोकसभा चुनाव में  शिकस्त के बाद पार्टी द्वारा बनाई एंटोनी समिति ने उसे नर्म हिंदुत्व की ओर झुकने की सलाह दी थी ।  उसी के बाद से राहुल गांधी के जनेऊ धारण करने , सारस्वत ब्राह्मण और शिवभक्त होने जैसी बातें कांग्रेस के प्रवक्ताओं द्वारा कही जाने लगीं । श्री गांधी खुद भी अपने भाषणों में गीता के उद्धरणों सहित पौराणिक गाथाओं के जरिए ये साबित करने का प्रयास करते रहते हैं कि हिन्दू धर्म में उनकी गहरी आस्था है। उसी क्रम में उनकी अनुजा प्रियंका ने भी मंदिरों में  मत्था टेकना शुरू कर दिया किंतु जब उस धर्म को नष्ट करने जैसा बयान  सहयोगी पार्टी के नेता द्वारा दिया गया तब श्री गांधी का मुंह न खोलना उनके हिंदू  प्रेम पर आशंका पैदा करता है। सबसे बड़ी बात ये है कि मंच से हनुमान चालीसा तथा चंडी पाठ गाने वाले  अरविंद केजरीवाल और ममता बैनर्जी ने भी सनातन विरोधी  बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की हिम्मत नहीं दिखाई। इस प्रकार का दब्बूपन ही तुष्टीकरण को बल प्रदान करता है। जो नेता गण चुनाव प्रचार का शुभारंभ अयोध्या में हनुमान गढ़ी से करने का ढोंग रचाते हों वे हिन्दू धर्म को नष्ट करने वाले का विरोध न करें तो इसे कायरता नहीं तो और क्या कहा जाए?  किसी एक छोटी सी घटना पर असहिष्णुता का ढिंढोरा पीटने वाले और भारत को रहने लायक न बताने वाले भी हिंदुओं की आस्था के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार पर मुंह सिलकर बैठ जाते हैं। देश की 82 फीसदी आबादी जिस धर्म की अनुयायी हो उसे नष्ट करने वालों का साथ देकर श्री चिदम्बरम और श्री खरगे के बेटों ने कांग्रेस ही नहीं अपितु समूचे इंडिया गठबंधन की असलियत उजागर कर दी । ऐसे में यदि ये आरोप लग रहा है कि ये  गठबंधन हिन्दू विरोधी ताकतों का जमावड़ा है तो उस पर विश्वास करना ही पड़ेगा। कांग्रेस यदि वरिष्ट नेताओं के बेटों पर जो कि सांसद और मंत्री हैं , कार्रवाई नहीं करती तब उसे म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में नुकसान होना तय है ।उसकी छद्म धर्मनिरपेक्षता तो  पहले ही प्रमाणित हो चुकी है और इस घटना के बाद उसका छद्म हिंदुत्व प्रेम भी  जनता की निगाहों में आए बिना नहीं रहेगा। सबसे बड़ी बात ये है कि उदयनिधि के संदर्भित बयान से यदि शांतिप्रिय हिंदुओं की भावनाएं भड़क उठीं तो देश नए संकट में फंस सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 4 September 2023

सनातन धर्म की आड़ में देश का विरोध कर रहे उदयनिधि



तमिलनाडु की राजनीति प्रारंभ से ही उत्तर भारत विरोधी रही है जिसके चलते आजादी के बाद महात्मा गांधी के समधी राजाजी तक हिंदी विरोधी हो गए जो देश के पहले गवर्नर जनरल रहने के बाद  राष्ट्रपति नहीं बनाए जाने से नाराज थे।  राजाजी को बापू ने नागरी प्रचारिणी सभा का प्रमुख बनाकर हिन्दी के प्रचार - प्रसार का दायित्व सौंपा था जो  प्रकांड विद्वान थे और सनातन धर्म पर लिखित उनकी पुस्तकों को अत्यंत प्रामाणिक माना गया । दूसरी तरफ रामास्वामी पेरियार नामक व्यक्ति ने  सनातन धर्म के विरुद्ध जहर फैलाकर  अलग तमिल देश की मांग उठाते हुए हिन्दू धर्म ग्रंथों को जलाने जैसा दुस्साहस भी कर डाला। शुरू में वे कांग्रेस में थे किंतु बाद में  जस्टिस पार्टी बनाकर  हिन्दी भाषा और सनातन धर्म के विरुद्ध मुहिम छेड़ दी। कालांतर में जस्टिस  पार्टी ही द्रमुक (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) बनी और उसी का एक धड़ा अन्ना द्रमुक के रूप में अलग हो गया। कुछ और भी  नेताओं  ने द्रमुक से अलग होकर छोटे दल बना लिए जिनकी राजनीति का आधार भी हिन्दी और उत्तर भारत का विरोध है। श्रीलंका में जब तमिल उग्रवादियों का आतंक चरम पर था तब द्रमुक नेता स्व.करुणानिधि ने खुलकर उसका समर्थन किया और तमिल राष्ट्र की मांग भी उठाई। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी उसी आतंकवाद की बलि चढ़ गए जिसके बाद  करुणानिधि सरकार बर्खास्त कर दी गई। बीते तीन दशक में वहां की सियासत में अनेक बदलाव हुए । राजीव की हत्या के लिए शक के दायरे में रही द्रमुक आज कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है और नवगठित इंडिया गठबंधन की प्रमुख इकाई भी। यद्यपि करुणानिधि , एम.जी रामचंद्रन और जयललिता के न रहने के बाद  लगा था कि   उत्तर भारत के विरुद्ध बोए गए जहर का प्रभाव कम होने लगा है। लेकिन गाहे - बगाहे कभी हिन्दी तो कभी  द्रविड़ों को भारत का मूल निवासी बताकर अलग देश की मांग छेड़ी जाती रही है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि दलित और पिछड़ों की जो राजनीति उत्तर भारत में हावी है उसे तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों ने दशकों पहले अपना लिया था। यद्यपि वहां के समाज में  सनातनी परंपराएं आज भी यथावत हैं और  धार्मिक कट्टरता उत्तर भारत के राज्यों से कई गुना ज्यादा भी । बावजूद उसके 1967 के बाद से कांग्रेस और अन्य कोई दल द्रविड़ वर्चस्व को नहीं तोड़ सका। बीते दो दशक से भाजपा भी हाथ पांव मार रही है किंतु  उत्तर भारतीय होने का ठप्पा लगा होने से वांछित सफलता हाथ नहीं लगी। करुणानिधि  के बाद  विरासत के विवाद  में छोटे बेटे स्टालिन ने बाजी मार ली और मुख्यमंत्री बन गए। उधर जयललिता के बाद अन्ना द्रमुक में बिखराव आ गया । पिता के साए में सियासत करते रहने से स्टालिन भी हिन्दी तथा उत्तर भारत का विरोध करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते । लेकिन गत दिवस उनकी सरकार में मंत्री उनके बेटे उदयनिधि ने बयान दे डाला कि सनातन धर्म मलेरिया , डेंगू और कोरोना जैसा है जिसकी केवल रोकथाम ही नहीं अपितु उसे जड़ से नष्ट किया जाना जरूरी है। उनके अनुसार कुछ चीजों को बदला नहीं जा सकता , उनको नष्ट करना ही उपाय है।  उक्त बयान के विरुद्ध भाजपा एवं संघ परिवार तो खुलकर सामने आ गया किंतु इंडिया गठबंधन की प्रमुख घटक कांग्रेस के सामने उगलत निगलत पीर घनेरी वाली स्थिति उत्पन्न  हो गई। इसलिए उसने तत्काल उस बयान से अपने को दूर कर लिया। समाजवादी पार्टी ने भी वही रास्ता अपनाया। गठबंधन की बाकी पार्टियां भी  बचती नजर आ रही हैं। हालांकि हिंदुत्व की प्रबल समर्थक शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट की खामोशी चौंकाने वाली है । लेकिन कांग्रेस के बड़े नेता पी.चिदंबरम के सांसद बेटे कार्ति चिदंबरम ने उदयनिधि के सनातन धर्म विरोधी बयान का समर्थन कर पार्टी को मुसीबत में डाल दिया है। कार्ति की मजबूरी ये है कि वे बिना द्रमुक की सहायता के अगला चुनाव नहीं जीत सकेंगे।  दिल्ली में प्रकरण दर्ज होने के बाद भी  उदयनिधि ने अपने बयान पर कायम रहने की बात कही है।  दरअसल ये  82 फीसदी हिंदुओं की भावनाओं को भड़काने का षडयंत्र है । रही बात सनातन धर्म को नष्ट करने की तो ऐसा सोचने वाले समय के साथ नष्ट होते गए किंतु सनातन धर्म और उसका प्रभाव आज विश्व व्यापी है।  उदयनिधि को ये समझना चाहिए कि नास्तिक होने के बाद भी चार दशक तक प.बंगाल में राज करने पर भी वामपंथी धार्मिक आस्था को खत्म नहीं कर सके । केरल में भी वामपंथी सत्ता में आते - जाते रहे किंतु वहां सनातनी परंपराएं यथावत हैं और नास्तिक कहे जाने वाली सरकार के राज में भी केरल को भगवान का अपना देश कहकर प्रचारित किया जाता है। ऐसे में जाति प्रथा नामक बुराई के नाम पर सनातन धर्म को मिटाने का ऐलान  देश को तोड़ने के साजिश है जिसका हर राजनीतिक दल को खुलकर विरोध करना चाहिए। उदयनिधि को ये याद रखना चाहिए कि पेरियार , अन्ना दोराई और करुणानिधि जैसे दिग्गज तक  डींग हांकते - हांकते चले गए किंतु तमिलनाडु में सनातन धर्म के प्रतीक प्राचीन मंदिरों के प्रति आस्था और सनातनी जीवन पद्धति में श्रद्धा लेश मात्र भी कम नहीं हुई। इसका कारण ये है कि सनातन धर्म में आत्मावलोकन की बेजोड़ क्षमता है और   वह  समय - समय पर अपनी कमियों को खुद होकर दूर करता रहता है।  सही बात तो ये है कि उदयनिधि और उनके बाप - दादे केवल अपनी गली के दादा रहे हैं । इसीलिए तमिलनाडु से बाहर आकर राजनीति करने की हिम्मत नहीं दिखा सके।

- रवीन्द्र वाजपेयी