Thursday 21 September 2023

कांग्रेस को ओबीसी से इतना ही प्रेम था तो मंडल की सिफारिशें दबाकर क्यों रखे रही


महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। 454 सदस्यों ने उसका समर्थन किया जबकि विरोध में मात्र 2 मत पड़े। दरअसल इस का विरोध करने का जोखिम उठाने कोई  तैयार नहीं था । हालांकि लगभग 90 सदस्यों का मतदान न करना भी चौंकाता है। कांग्रेस का समर्थन मिलने से विधेयक  पारित होने में  संशय तो था नहीं किंतु जिस तरह सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने  ओबीसी और अनु. जाति/जनजाति के लिए भी आरक्षण का मुद्दा उठाया वह देखकर लगा कि उनको महिलाओं की कम वोट बैंक की ज्यादा फिक्र है। अतीत में जब मंडल राजनीति के अग्रणी नेता लालू , मुलायम और शरद यादव महिला आरक्षण के साथ ही उसमें उक्त वर्गों के लिए आरक्षण की मांग पर अड़े रहकर विधेयक को पेश होने से रोकते रहे तब श्रीमती गांधी सहित वामपंथी महिला नेत्रियां ये कहती थीं कि पहले 33 फीसदी आरक्षण का विधेयक तो पारित होने दें । 2010 में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने  इस विधेयक को राज्यसभा में पारित करवाकर स्थायी समिति को भिजवा दिया । लोकसभा में वह इसलिए पेश करने से पीछे हट गई कि कहीं सरकार ही न गिर जाए। उच्च सदन में राजद और सपा ने उसका विरोध किया था जबकि नीतीश कुमार की जद (यू) समर्थन में रही। प्रश्न ये है कि अब गांधी परिवार को अचानक ओबीसी और अजा/अजजा की याद कहां से आ गई और क्यों ? राहुल तो अपने भाषण में केंद्रीय सचिवालय के 90 सचिवों में केवल तीन के ओबीसी होने का हिसाब बताने लगे। इसी के साथ ही ये दबाव भी बनाया जा रहा है कि महिला आरक्षण को  जनगणना तथा परिसीमन की प्रतीक्षा किए बिना 2024 के  लोकसभा चुनाव में ही  प्रभावशील किया जाए। जबकि सरकार का कहना है कि अगली जनगणना के बाद 2026 से लोकसभा क्षेत्रों के नए परिसीमन के उपरांत ही यह विधेयक लागू किया जावेगा । इसका अर्थ ये हुआ कि 2029 के लोकसभा चुनाव से ही महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण की व्यवस्था हो सकेगी। हालांकि उसके पूर्व होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी इसे प्रभावशील किया जा सकता है। उस दृष्टि से ये प्रश्न लाजमी है कि फिर मोदी सरकार ने इसे संसद के विशेष सत्र में ही पारित करवाने की जल्दबाजी क्यों की ? हालांकि नए संसद भवन की लोकसभा में 888 और राज्यसभा में 384 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था किए  जाने से ही ये स्पष्ट होने लगा था कि प्रधानमंत्री का इरादा महिला आरक्षण लागू करने का है। हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में यह मुद्दा जोर शोर से उठाते हुए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया गया। चूंकि कुछ राज्यों में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं और लोकसभा चुनाव की तैयारियां भी जोरों पर हैं इसलिए प्रधानमंत्री ने भी जवाबी दांव चल दिया। कांग्रेस के सामने दिक्कत ये है कि इस विधेयक का विरोध करे तो महिला विरोधी कहलाएगी और समर्थन करने पर लालू प्रसाद और अखिलेश यादव जैसे सहयोगी रूठ जायेंगे। इसीलिए उसने विधेयक  का समर्थन भी कर दिया और उसमें ओबीसी आदि के आरक्षण की मांग करते हुए मंडल समर्थक दलों को खुश करने का दांव भी चल दिया। लेकिन ऐसा करने से वह खुद भी कठघरे में आ गई। उसे इस बात का जवाब देना चाहिए कि जातिगत जनगणना का मुद्दा उसने इसके पहले कब उठाया था ? और यदि ओबीसी के प्रति उसके मन में इतना प्रेम था तो आजादी के बाद ही अन्य पिछड़ी जातियों का ध्यान क्यों नहीं आया ? जबकि समाजवादी नेता डा.राममनोहर लोहिया तो पंडित नेहरू के ज़माने से ही पिछड़ा पावें सौ में साठ का नारा लगाते रहे। 1977 में जनता पार्टी के समय बने मंडल आयोग की रिपोर्ट सरकार गिरने के कारण ठंडे बस्ते में डाल दी गई। 1980 में इंदिरा जी और उनके बाद राजीव गांधी सत्ता में आए। लेकिन मंडल की सिफारिशों के अनुसार अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए जाने का फैसला हुआ 1990 में बनी विश्वनाथ सिंह सरकार के जमाने में । और वह भी इसलिए कि उनकी गद्दी मुलायम , लालू और शरद यादव जैसे मंडलवादी नेताओं पर निर्भर थी। कांग्रेस तब उसे जातिवादी राजनीति कहकर विरोध करती रही। समय के साथ पिछड़ी जातियां भी भाजपा के साथ जाने लगीं जो कि लंबे समय तक अगड़ी जातियों की पार्टी समझी जाती रही। उ.प्र और बिहार में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई उसके बाद उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । इसीलिए उसने पहले तो श्री गांधी  को जनेऊधारी ब्राह्मण प्रचारित किया। उसी के बाद से वे और उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा मंदिरों और मठों में मत्था टेकने लगे। म.प्र में कमलनाथ खुद को भाजपा से बड़ा हिंदूवादी साबित करने हाथ पांव मार रहे हैं। पार्टी द्वारा जनाक्रोश यात्राओं का  प्रारंभ मंदिरों से किए जाने का निर्णय भी किया गया है। इसी क्रम में पार्टी का ओबीसी प्रेम जाग उठा है। इससे ये बात सामने आ रही है कि कांग्रेस वैचारिक भटकाव का शिकार होकर रह गई है। उसको ये समझ नहीं आ रहा कि वह कौन सी नीति अपनाए। उसे ये बात अच्छे से समझ लेना चाहिए कि दूसरों का मुद्दा छीनने की कोशिश में वह अपने मुद्दे खो बैठती है। राम  जन्मभूमि का ताला खोलकर उसने भाजपा के हिन्दू वोट बैंक में सेंध लगाना चाही परंतु उस फेर में मुस्लिम समुदाय भी उससे छिटक गया। आज कांग्रेस की नीतिगत दृढ़ता इतनी घट चुकी है कि वह उदयनिधि के सनातन विरोधी बयान का विरोध करना तो दूर अपने उन नेता पुत्रों तक को नहीं रोक पा रही जो उस बयान का समर्थन कर रहे हैं। महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करते हुए उसके भीतर आरक्षण का मुद्दा उठाना इसी का प्रमाण है। इन सबसे यही लगता है कि पार्टी किंकर्तव्यविमूढ़ता से उबर नहीं पा रही। यही वजह हैं कि विपक्षी गठबंधन में शामिल दल भी कांग्रेस को ज्यादा भाव नहीं दे रहे।


-रवीन्द्र वाजपेयी 

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